हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 76 – आया बसंत आया बसंत ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की एक सामायिक एवं भावपूर्ण रचना  “आया बसंत आया बसंत। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य#76 ☆ आया बसंत आया बसंत ☆

दो शब्द रचना कार के – हेमंत की अवसान बेला में पतझड़ के बाद  जब ऋतु राज बसंत का आगमन होता है, तब   वह सृष्टि के सारे प्राणियों को  अपने रंगीन नजारों के मोहपाश में आबद्ध कर आलिंगनबद्ध हो उठता है। प्राकृतिक रंगों की अनुपम छटा से धरा का कोना कोना सज संवर उठता है, तारों भरा आसमां गा उठता है। धरती खिलखिला उठती है, मानव-मन के वीणा के तार झंकृत हो उठते हैं। तथा मन मयूर फगुआ और चैता के धुन पर नाच उठता है।

कहीं हरियाली भरे खेतों में खिले पीले पीले सरसों के फूल, तथा कहीं कहीं खिले अलसी के नीले नीले फूल धरती के पीले छींट वाली धानी रंग की चूनर ओढ़े होने का एहसास कराते हैं। तथा धरा पर नीले अंबर के निलिमांयुक्त सागर के उतरने का आभास देते हैं। ऐसे में आम्रमंजरी के खिले पुष्प गुच्छ, कटहलों के फूलों की मादक सुगंध, जब पुरुआ  के झोंको पर सवार होकर भोर की शैर पे निकलती है तो वातावरण को एक नवीन ऊर्जा और चेतना से भर देती है। इसी लिए संभवतः बसंत को ऋतु राज भी  कहा गया है। ऋतु राज के इसी वैभव से ये रचना परिचित कराती है।——-

आया बसंत आया बसंत,

चहुंओर धरा पर हुआ शोर,

छाया बसंत छाया बसंत,

छाया बसंत छाया बसंत।।

 

धरती के बाग बगीचों से,

अरहर के झुरमुट खेतों से,

सरसों के पीले फूलों से,

बौराई आम्र मंजरी से,

पी पी पपिहा के तानों से,

कोयल के मीठे गानों से,

तूं देख देख झलके बसंत,

चहुंओर धरा पर हुआ शोर,

आया बसंत आया बसंत,

छाया बसंत छाया बसंत।।१।।

 

गेंदा गुलाब की क्यारी से,

बेला की फुलवारी से,

चंपा संग चंपक बागों से,

चंचरीक की गुनगुन से

उन्नत वक्ष स्थल गालों में

गोरी के गदराये यौवन पे,

हर तरफ देख छलके बसंत,

चंहुओर धरा पर हुआ शोर,

आया बसंत आया बसंत,

छाया बसंत छाया बसंत।।२।।

 

ढोलक झांझ मृदंगों से,

भर भर पिचकारी रंगों से।

दानों की लदी बालियों से,

महुआ के रसीले फूलों से,

वो टपके मधुरस के जैसा,

विरहिनि के हिय से हूक उठे,

पिउ पिउ पपिहा के स्वर जैसा,

आमों कटहल के बागों से,

अभिनव सुगंध लाया बसंत,

चंहुओर धरा पर हुआ शोर,

आया बसंत आया बसंत,

छाया बसंत छाया बसंत।।३।।

 

अलसी के नीले फूलों में,

अंबर के नीले सागर सा,

सरसों के पीले फूलों से,

धरती के धानी चूनर सा

गोरी के उर अंतर में

साजन के प्रेमरंग जैसा,

पनघट वाली के गागर से,

छलके मधुमास शहद जैसा,

बाग-बगीचों अमराई से

झुरझुर चलती पुरवाई से,

नवयौवन की अंगड़ाई से,

बासंती राग विहागों सा,

कुछ नव संदेश लाया बसंत,

चहुंओर धरा से उठा शोर

आया बसंत आया बसंत,

छाया बसंत छाया बसंत।।४।।

 

चंहुओर अबीर गुलाल उड़ें,

गोरी के नैन से नैन लड़े।

इक अलग ही मस्ती छाई है,

सारी दुनिया बौराइ है।

कान्हा के रंगीले रंगों में ,

राधा की बांकी चितवन में,

हर तरफ देख बगराया बसंत,

चंहुओर धरा पर हुआ शोर,

आया बसंत आया बसंत

छाया बसंत छाया बसंत।।५।।

 

धरती का श्रृंगार बसंत है,

नवउर्जा का संचार बसंत है,

खुशियों का अंबार बसंत है,

कामदेव का हार बसंत है,

मासों में मधुमास बसंत है,

पिया मिलन की आस बसंत है,

जीवन ज्योति प्रकाश बसंत है,

रिस्तों की मधुर मिठास बसंत है।

प्रकृति रंग लाया बसंत,

चंहुओर धरा पर हुआ शोर,

आया बसंत आया बसंत

छाया बसंत छाया बसंत।।६।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 31 ☆ युद्ध और विरोध नित लाते नई बरबादियॅा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  “युद्ध और विरोध नित लाते नई बरबादियॅा।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 31 ☆

☆ युद्ध और विरोध नित लाते नई बरबादियॅा

विश्व मे सदभाव फैले हो कही न दुराचरण

व्यर्थवैर विरोध से दूषित न हो वातावरण

हर नया दिन शांति मय हो मुक्त हर जंजाल से

समस्याओं का सदा सदबुद्धि से हो निराकरण

बदलते परिवेश मे जो जहां कोई मतभेद हो

छोड मन के द्वेष सब मिल करें शुभ चिंतन मनन

मूर्खता से पसरता जाता रहा आंतकवाद

रोका जाना चाहिये निर्दोषो का असमय मरण

दुष्टता से हैं त्रसित परिवार जन शासन सभी

समझदारी है जरूरी बंद हो अटपट चलन

आदमी जब मिल के रहता सबो की होती प्रगति

हर एक मन को सुहाता है स्नेह का पावन सृजन

बैर से होती सदा हर व्यक्ति को कठिनाईया

सुख बरसता जब हुआ करता नियम का अनुसरण

मन के बढते मैल से तो बढती जाती दूरियाॅ

आदमी हर चाहता है आपसी मंगल मिलन

युद्ध और विरोध नित लाते नई बरबादियाॅ

सदाचारो का किया जाये निरंतर अनुकरण

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#4 – दो भाई ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#4 – दो भाई ☆ श्री आशीष कुमार☆

दो भाई थे। परस्पर बडे़ ही स्नेह तथा सद्भावपूर्वक रहते थे। बड़े भाई कोई वस्तु लाते तो भाई तथा उसके परिवार के लिए भी अवश्य ही लाते, छोटा भाई भी सदा उनको आदर तथा सम्मान की दृष्टि से देखता।

पर एक दिन किसी बात पर दोनों में कहा सुनी हो गई। बात बढ़ गई और छोटे भाई ने बडे़ भाई के प्रति अपशब्द कह दिए। बस फिर क्या था ? दोनों के बीच दरार पड़ ही तो गई। उस दिन से ही दोनों अलग-अलग रहने लगे और कोई किसी से नहीं बोला। कई वर्ष बीत गये। मार्ग में आमने सामने भी पड़ जाते तो कतराकर दृष्टि बचा जाते, छोटे भाई की कन्या का विवाह आया। उसने सोचा बडे़ अंत में बडे़ ही हैं, जाकर मना लाना चाहिए।

वह बडे़ भाई के पास गया और पैरों में पड़कर पिछली बातों के लिए क्षमा माँगने लगा। बोला अब चलिए और विवाह कार्य संभालिए।

पर बड़ा भाई न पसीजा, चलने से साफ मना कर दिया। छोटे भाई को दुःख हुआ। अब वह इसी चिंता में रहने लगा कि कैसे भाई को मनाकर लगा जाए इधर विवाह के भी बहित ही थोडे दिन रह गये थे। संबंधी आने लगे थे।

किसी ने कहा-उसका बडा भाई एक संत के पास नित्य जाता है और उनका कहना भी मानता है। छोटा भाई उन संत के पास पहुँचा और पिछली सारी बात बताते हुए अपनी त्रुटि के लिए क्षमा याचना की तथा गहरा पश्चात्ताप व्यक्त किया और प्रार्थना की कि ”आप किसी भी प्रकार मेरे भाई को मेरे यही आने के लिए तैयार कर दे।”

दूसरे दिन जब बडा़ भाई सत्संग में गया तो संत ने पूछा क्यों तुम्हारे छोटे भाई के यहाँ कन्या का विवाह है ? तुम क्या-क्या काम संभाल रहे हो ?

बड़ा भाई बोला- “मैं विवाह में सम्मिलित नही हो रहा। कुछ वर्ष पूर्व मेरे छोटे भाई ने मुझे ऐसे कड़वे वचन कहे थे, जो आज भी मेरे हृदय में काँटे की तरह खटक रहे हैं।” संत जी ने कहा जब सत्संग समाप्त हो जाए तो जरा मुझसे मिलते जाना।” सत्संग समाप्त होने पर वह संत के पास पहुँचा, उन्होंने पूछा- मैंने गत रविवार को जो प्रवचन दिया था उसमें क्या बतलाया था ?

बडा भाई मौन ? कहा कुछ याद नहीं पडता़ कौन सा विषय था ?

संत ने कहा- अच्छी तरह याद करके बताओ।

पर प्रयत्न करने पर उसे वह विषय याद न आया।

संत बोले ‘देखो! मेरी बताई हुई अच्छी बात तो तुम्हें आठ दिन भी याद न रहीं और छोटे भाई के कडवे बोल जो एक वर्ष पहले कहे गये थे, वे तुम्हें अभी तक हृदय में चुभ रहे है। जब तुम अच्छी बातों को याद ही नहीं रख सकते, तब उन्हें जीवन में कैसे उतारोगे और जब जीवन नहीं सुधारा तब सत्सग में आने का लाभ ही क्या रहा? अतः कल से यहाँ मत आया करो।”

अब बडे़ भाई की आँखें खुली। अब उसने आत्म-चिंतन किया और देखा कि मैं वास्तव में ही गलत मार्ग पर हूँ। छोटों की बुराई भूल ही जाना चाहिए। इसी में बडप्पन है।

उसने संत के चरणों में सिर नवाते हुए कहा मैं समझ गया गुरुदेव! अभी छोटे भाई के पास जाता हूँ, आज मैंने अपना गंतव्य पा लिया।”

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 84 ☆ आत्मविश्वास – अनमोल धरोहर ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख आत्मविश्वास – अनमोल धरोहर।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 84 ☆

☆ आत्मविश्वास – अनमोल धरोहर ☆

‘यदि दूसरे आपकी सहायता करने को इनकार कर देते हैं, तो मैं उनका आभार व्यक्त करता हूं, क्योंकि उनके न कहने के कारण ही मैं उस कार्य को करने में समर्थ हो पाया। इसलिए आत्मविश्वास रखिए; यही आपको उत्साहित करेगा,’ आइंस्टीन के उपरोक्त कथन में विरोधाभास है। यदि कोई आपकी सहायता करने से इंकार कर देता है, तो अक्सर मानव उसे अपना शत्रु समझने लग जाता है। परंतु यदि हम उसके दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें, तो यह इनकार हमें ऊर्जस्वित करता है; हमारे अंतर्मन में आत्मविश्वास जाग्रत कर उत्साहित करता है और हमें अपनी आंतरिक शक्तियों का अहसास दिलाता है, जिसके बल पर हम कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य को भी क्रियान्वित करने तथा अंजाम देने में सफल हो जाते हैं। सो! हमें उन लोगों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए, जो हमें बीच मंझधार छोड़ कर चल देते हैं। सत्य ही तो है कि जब तक इंसान गहरे जल में छलांग नहीं लगाता; वह तैरना कैसे सीख सकता है? उसकी स्थिति तो कबीरदास के नायक की भांति ‘मैं बपुरौ बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ’ जैसी   होगी।

सो! यह मत कहो कि ‘मैं नहीं कर सकता,’ क्योंकि आप अनंत हैं। आप कुछ भी कर सकते हैं।’ स्वामी विवेकानंद जी की यह उक्ति मानव में अदम्य साहस के भाव संचरित करती है; उत्साहित करती है कि आप में अनंत शक्तियां संचित हैं और आप कुछ भी कर सकते हैं। हमारे गुरुजन, आध्यात्मिक वेद-शास्त्र के ज्ञाता व विद्वत्तजन– हमें अंतर्मन में निहित अलौकिक शक्तियों से रूबरू कराते हैं और हम उन कल्पनातीत असंभव कार्यों को भी सहजता- पूर्वक कर गुज़रते हैं। इसके लिए मौन का अभ्यास आवश्यक है, क्योंकि वह साधक को अंतर्मुखी बनाता है; जो उसे ध्यान की गहराइयों में ले जाने में सहायक सिद्ध होता है। महर्षि रमण, महात्मा बुद्ध, भगवान महावीर वर्द्धमान आदि ने भी मौन साधना द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार किया।

मौन रूपी वृक्ष पर शांति के फल लगते हैं अर्थात् मौन से हमारे हृदय में सुप्त अलौकिक शक्तियां जाग्रत होती हैं, जिसके परिणाम-स्वरूप जीवन में सकारात्मकता दस्तक देती है। वास्तव में मौन जीवन का सर्वाधिक गहरा संवाद है। सो! मानव को शब्दों का चयन सावधानीपूर्वक करना चाहिए, क्योंकि यह महाभारत जैसे महायुद्ध के जनक भी हो सकते हैं।

स्वामी योगानंद जी के शब्दों में ‘यह हमारा छोटा-सा मुख एक तोप के समान और शब्द बारूद के समान हैं– जो पल-भर में सब कुछ नष्ट कर देते हैं। सो! व्यर्थ व अनावश्यक मत बोलें और तब तक मत बोलें; जब तक तुम्हें यह न लगे कि तुम्हारे शब्द कुछ अच्छा कहने जा रहे हैं।’ इसलिए मौन मानव की वह मन:स्थिति है, जहां पहुंच कर तमाम झंझावात शांत हो जाते हैं और मानव को विभिन्न मनोविकारों चिंता, तनाव, आतुरता व अवसाद से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। इसलिए स्वामी योगानंद जी मानव-समाज को अपनी अमूल्य शक्ति व समय को व्यर्थ के वार्तालाप में बर्बाद न करने का संदेश देते हैं; वहीं वे भोजन व कार्य करते समय मौन रहने की महत्ता पर भी प्रकाश डालते हैं।

सो! जब आपके हृदय की भाव-लहरियां शांत होती हैं, उस स्थिति में आपको अच्छे विकल्प सूझते हैं; आप में आत्मविश्वास का भाव जाग्रत होता है और आप उन लोगों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं; जिनके कारण आप उस असंभव कार्य को अंजाम देने में समर्थ हो सकते हैं। परंतु इस समस्त प्रक्रिया में तथाकथित अनुकूल परिस्थितियों व आपकी सकारात्मक सोच का भी अभूतपूर्व योगदान होता है। इसलिए ‘मैं कर सकता हूं’ को जीवन का मूल-मंत्र बनाइए और निराशा को आजीवन अपने हृदय में प्रवेश न पाने दीजिए। इस स्थिति में दोस्त, किताबें, रास्ता व सोच अहम् भूमिका निभाते हैं। यदि वे ठीक हैं, तो मानव के लिए सहायक सिद्ध होते हैं; यदि वे ग़लत हैं, तो गुमराह कर पथ-भ्रष्ट कर देते हैं और उस अंधकूप में धकेल देते हैं; जहां से वह कभी बाहर आने की कल्पना भी नहीं पाता। इसलिए सदैव अच्छे दोस्त बनाइए; अच्छी किताबें पढ़िए; सकारात्मक सोच रखिए और सही राह का चुनाव कीजिए… राग-द्वेष व स्व-पर का त्याग कर, ‘सर्वेभवंतु: सुखीनाम्’ की स्वस्ति कामना कीजिए, क्योंकि जैसा आप दूसरों के लिए करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है। सो! संसार में स्वयं पर विश्वास रखिए और सदैव अच्छे कर्म कीजिए, क्योंकि वे आपकी अनमोल धरोहर होते हैं; जो आपको जीते-जी मुक्ति की राह पर चलने को प्रेरित ही नहीं करते; अग्रसर कर आवागमन के चक्र से मुक्त कर देते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 36 ☆ सोशल मीडिया जनित हत्यायें और जवाबदेही ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “सोशल मीडिया जनित हत्यायें और जवाबदेही”.)

☆ किसलय की कलम से # 36 ☆

☆ सोशल मीडिया जनित हत्यायें और जवाबदेही ☆

 वैसे तो हम सोशल मीडिया पर अवांछित खबरें या चित्र छपने पर अप्रिय वारदातों को पढ़ते सुनते आ रहे हैं लेकिन वर्तमान में सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक चित्र, संदेश एवं पोस्ट किए गए वीडियोज के कारण हत्याओं के बढ़ते मामले बेहद चिंता जनक हैं।

आज जिस तरह से वाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर, इंस्ट्राग्राम या अन्य सोशल मीडिया के साधन लोकप्रियता पा रहे हैं, उनका उपयोग समाज को लाभ कम और हानि ज्यादा पहुँचा रहे हैं। आपराधिक प्रवृत्ति के लोग अंतरजाल की नवीनतम सुविधाओं का जिस चालाकी  से दुरुपयोग करते हैं, वह सामान्य जनता की सोच के परे होता है। लोग अन्तरजालीय तकनीकि का तीस – चालीस प्रतिशत भी उपयोग नहीं कर पाते। बैंकिंग को लेकर होने वाले अपराधों और ऑनलाइन व्यापार आदि में सबको पता है आम आदमी कितना ठगा जा रहा है। अंतरजाल पर असामाजिक तत्त्वों द्वारा अश्लीलता का परोसा जाना भी किसी से छिपा नहीं है। आज इसी मीडिया पर बने संबंध और नजदीकियाँ युवक-युवतियों को अनैतिक गतिविधियों की ओर प्रेरित कर रहे हैं। इनके बीच पनपे अवैधानिक संबंध समाज और परिवार की बेइज्जती तथा आत्महत्या के कारण बनते जा रहे हैं। आज मीडिया पर एक पोस्ट भी पक्ष और विपक्ष का विवाद, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक तथा राजनैतिक वबाल खड़ा करने में सक्षम हो चुका है। मीडिया से उपजी वैमनस्यता धर्म, संप्रदाय और पारिवारिक हिंसा को बढ़ावा दे रही है। पर्व, उत्सव मेले या चुनावी माहौल में एक समाचार, किसी की टिप्पणी या विज्ञापन पर सारा मीडिया गृह युद्ध का वातावरण निर्मित कर देता है। समझाइश और शांति की अपील के बजाए लोगों के अप्रिय और निरर्थक वक्तव्य आग में घी का काम करते हैं। हमारे बुजुर्ग कहा करते हैं, मतभेद रखो परंतु आपस में मन भेद नहीं रखना चाहिए। बुजुर्गों की ये सीख आज मानता ही कौन है। वर्तमान राजनीतिक क्षेत्र में क्या चल रहा है? नीति का कहीं अता-पता नहीं है। पहले युद्ध भी उसूलों और सिद्धांतों पर आधारित लड़े जाते थे।शायद यही कारण है कि आज की राजनीति किसी विशेष या परिपक्व नीति पर आधारित न होकर सामयिक बनती जा रही है। फिर भी हम कहेंगे कि राजनीतिक विचारधारा को समर्थन देना अलग बात है परंतु  यही विचारधारा यदि हत्या, आतंक अथवा देशद्रोह की ओर प्रेरित करे तो यह हमारे समाज, हमारे देश या समूचे विश्व के लिए खतरनाक है। विश्व में अंतरजालीय अपराधों के नियंत्रण संबंधी कानून और नियमावलियों की चर्चा आए दिन सुनते रहते हैं। अंतरजालीय अपराधियों एवं हैकर्स के किस्से सुनने के बाद भी ये मामले घटने के बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं। विश्व में नियम बन रहे हैं। सावधानियाँ बरती जा रही हैं। इस की जवाबदेही किसकी है? शायद इस ओर ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है। सोशल मीडिया पर नियंत्रण संबंधी कानूनों का न होना या कठोरता से पालन न किया जाना इसका प्रमुख कारण है।शिक्षित वर्ग में जागरूकता की कमी तीसरा कारक है और शायद दिग्भ्रमित युवाओं द्वारा अंतरजालीय सुविधाओं का दुरुपयोग कर असंवैधानिक गतिविधियों में लिप्त होना भी एक कारण है। निश्चित रूप से सरकारों द्वारा सकारात्मक रुख एवं कानूनी नियंत्रण सबसे कारगर साबित हो सकता है।

आज यह हालात हमारे पूरे देश क्या पूरे विश्व में बने हुए हैं। यद्यपि हमारा देश शांतिप्रिय देशों में गिना जाता है लेकिन अन्तरजालीय मीडिया के संदेशों के कारण शुरू हुई हिंसाएँ खतरे की घंटी कही जा सकती है। हमारे देश की केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों के लिए यह चिंतन और सतर्कता का समय है। इन सरकारों को चाहिए कि वे ऐसे मामलों में चतुर्दिश चौकस रहें और भविष्य में ऐसी किसी भी सोशल मीडिया जनित हत्यायें एवं दुर्घटनाओं को रोकने में सक्षम हों।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 83 ☆ चाँदनी ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  कविता “चाँदनी। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 83 – साहित्य निकुंज ☆

☆ चाँदनी  ☆

आज

चाँदनी रात है

तुझसे मुलाकात है।

चाँद छुपा है

चाँदनी के आगोश में

चहूँ ओर फैली है चाँदनी

बिखर रही रूप की रागिनी

तेरा रूप देखकर

हूँ मैं खामोश

उड़ गये हैं होश

चाँदनी रात में

निखरा तेरा श्रृंगार

लगता है

तेरे रोम-रोम से

फूट रहा मेरा प्यार ।

तभी नजर पड़ी

चाँद पर

वह चाँदनी से कह रहा हो

तुम दूर न जाना

मेरे साथ ही रहना

तेरे साथ ही मेरा वजूद है।

तुझमें डूबना चाहता हूँ

तुझमें समाना चाहता हूँ।

तुझसे मेरा श्रृंगार है।

तू ही मेरा जन्मों का प्यार है।

तभी निहारा अपने चाँद को

उसने नजरे झुका ली

सार्थक हुई मुलाकात

प्रतीक बन गई

चाँदनी रात।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 73 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 73 ☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

बुरा वक्त ही कराता,  अपनों की पहचान

संकट में जो साथ दे, उसको अपना जान

 

वक्त बदलता है सदा, लें धीरज से काम

नई सुबह के साथ ही, मिलता है आराम

 

चलें वक्त के साथ हम, करें वक्त सम्मान

वक्त किसी का सगा नहिं, चलिए ऐसा मान

 

वक्त बदलते बदल गई, सबकी सारी सोच

नजर हटते ही हटा, नजरों का संकोच

 

वक्त बहुत बलवान है, क्या समझें नादान

पहिया रुके न वक्त का, होता है गतिमान

 

लगे वक्त भारी सदा, जब मुश्किल हालात

वक्त प्रबंधन कीजिये, करिये न सवालात

 

कभी हंसाता, रुलाता, अज़ब वक्त के खेल

जुदा कराता वक्त ही, वही कराता मेल

 

डर कर रहिये वक्त से, बुरी वक्त की मार

वक्त किसी का सगा नहिं, तेज वक्त की धार

 

वक्त की चक्की से पिसें, क्या राजा क्या रंक

बचे न कोई वक्त से, चलता है जब  डंक

 

वक्त की पहचान करें, समय का सदुपयोग

भोग तभी हम पाएंगे, दुनिया के सब भोग

 

साँचा संग सद्गुरु का, झूठा जग ब्यवहार

आवे काम वक्त पड़े, बुद्धि,विवेक,विचार

 

साझेदारी दर्द की, करे जो सच्चा यार

खुशियों में तो सब यहां, बनते हैं दिलदार

 

लक्ष्य तय कर बढ़े चलें, संयम नियम के संग

सफल हों”संतोष”तभी, होगी दुनिया दंग

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 76 – विजय साहित्य – जीवनाचे गीत…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 76 – विजय साहित्य – जीवनाचे गीत…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

सांजावला दिनमणी,

आता रजनीची शाल.

तुझ्या सोबतीने सरे

सुखदुःख  भवताल …!

 

असा जीवनाचा सुर

अंतरात निनादतो

आठवांच्या पाखरांनी

आसमंती विसावतो …!

 

अशा संधीकाली गाऊ

जीवनाचे गीत नवे

ऐकायला जमलेत

आपलेच स्वप्न थवे…..!

 

तने दोन, एक मन,

प्रेम प्रीती जुने नाते.

तेजोमय भविष्याची,

वाट जोगिया हा गाते …!

 

दूर करण्या अंधार,

अशी रम्य  वाटचाल

कधी ज्ञानाचा प्रकाश,

कधी प्रकाशाची शाल…!

 

सुरमयी सजे आभा,

लावू पाठीला या पाठ

स्वप्न मयी, कवडसे

बांधियली सौख्य गाठ…… !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 61 ☆ लघुकथा – बेडियाँ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर एक  हृदयस्पर्शी लघुकथा। मानव जीवन अमूल्य है और हमारी विचारधारा कैसे उसे अमूल्य से कष्टप्रद बनाती है यह पठनीय है ।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को एक  विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 61 ☆

☆ लघुकथा – बेडियाँ ☆

मैं ऐसी नहीं थी, बहुत स्मार्ट हुआ करती थी अपनी उम्र में – वह हँसकर बोली। यह हमारी पहली मुलाकात थी और वह थोडी देर में ही अपने बारे में सब कुछ बता देना चाहती थी। वह खटाखट इंगलिश बोल रही थी और जता रही थी कि हिंदी थोडी कम आती है। हमारे परिवार में किसी के कहीं भी आने जाने पर कोई रोक – टोक नहीं थी, खुले माहौल में पले थे। शादी ऐसे घर में हुई जहाँ पति को मेरा घर से बाहर निकलना पसंद नहीं था। बहुत मुश्किल लगा उस समय, अकेले में रोती थी लेकिन क्या करती, समेट लिया अपनेआप को घर के भीतर। मेरी दुनिया घर की चहारदीवार के भीतर पति और बच्चों तक सीमित रह गई।

बच्चे बडे हो गए। बेटी की शादी कर दी और बेटा विदेश चला गया। अपनी जिम्मेदारी  पूरी कर चैन की साँस ली ही थी कि पति  एक दुर्घटना में चल बसे। जिनके इर्द- गिर्द मेरी दुनिया सिमट गई थी, वे सहारे ही अब नहीं रहे। अब  बच्चे समझाते हैं मम्मी घर से बाहर निकलो, लोगों से मिलो, बात करो, अकेली घर में बंद मत रहो। फीकी सी हँसी के साथ बोली – अब कैसे समझाऊँ इन्हें कि चालीस साल की इन बेडियों को इतनी जल्दी कैसे काटा जा सकता है ?

मैं चुपचाप उसकी बातें सुन रही थी, मेरी आँखों के सामने एक बिंब उभर रहा था चार पैरवाले पशु का, जिसके दो पैर रस्सी से बाँध दिए गए थे।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 96 ☆ कविता – बसन्त की बात ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  समसामयिक विषय पर आधारित एक भावप्रवण कविता  ‘बसन्त की बात’ इस सार्थक सामयिक एवं विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 96☆

? बसन्त की बात ?

लो हम फिर आ गये

बसन्त की बात करने ,रचना गोष्ठी में

 

जैसे किसी महिला पत्रिका का

विवाह विशेषांक हों , बुक स्टाल पर

ये और बात है कि

बसन्त सा बसन्त ही नही आता अब

अब तक

बसन्त बौराया तो है , पर वैसे ही

जैसे ख़ुशहाली आती है गांवो में

जब तब कभी जभी

 

हर बार

जब जब

निकलते हैं हम

लांग ड्राइव पर शहर से बाहर

 

मेरा बेटा खुशियां मनाता है

मेरा अंतस भी भीग जाता है

और मेरा मन होता है एक नया गीत लिखने का

 

मौसम के  बदलते मिजाज का अहसास

हमारी बसन्त से जुड़ी खुशियां बहुगुणित कर देता है

 

किश्त दर किश्त मिल रही हैं हमें

बसन्त की सौगात

क्योकि बसंत वैसे ही बार बार प्रारंभ होने को ही होता है

कि फिर फिर किसी आंदोलन

की घटा घेर लेती है बसन्त को

 

बसन्त किसी कानून में उलझ कर

अटका रह जाता है

 

मुझे लगता है

अब किसान भी

नही करते

बरसात या बसन्त का इंतजार उस व्यग्र तन्मयता से

 

क्योंकि अब वे सींचतें है खेत , पंप से

और बढ़ा लेते हैं लौकी

आक्सीटोन के इंजेक्शन से

 

 

देश हमारा बहुत विशाल है

कहीं बाढ़ ,तो कहीं बरसात बिन

हाल बेहाल हैं

जो भी हो

पर

अब भी

पहली बरसात से

भीगी मिट्टी की सोंधी गंध,

और

बसन्त के पुष्पों से

प्रेमी मन में उमड़ा हुलास

और झरनो का कलकल नाद

उतना ही प्राकृतिक और शाश्वत है

जितना कालिदास के मेघदूत की रचना के समय था

 

और इसलिये तय है कि अगले बरस फिर

होगी रचना गोष्ठी

 

और हम फिर बैठेंगे

इसी तरह

नई रचनाओ के साथ .

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares