हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 70 ☆ चिंतन परक ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “चिंतन परक”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 70 – चिंतन परक

हमारे हर निर्णय, अवलोकन ,लेखन, सरोकार व सब कुछ जो हम करते हैं, पूर्वाग्रह से आधारित होते हैं। ग्रह और नक्षत्रों के बारे में तो हम सभी जानते हैं और उनसे प्रभावित हुए बिना भी नहीं रह पाते हैं किंतु इस पहले से निर्धारित किए हुए विचारों क्या करें…? 

अधिकांश लोग ये मानते हैं  कि फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाला, सूट बूट टाई पहने हुए व्यक्ति ही नौकरशाह हो सकता है। इसी तरह कारपोरेट सेक्टर में अंग्रेजी पहनावा ही सभ्य होने की निशानी है। महिलाओं की तो बात ही निराली है उनके लिए भी ड्रेस कोड निर्धारित कर दिए गए हैं। आमजीवन में मिली जुली  बोली, नई वेश भूषा तेजी के साथ बढ़ रही है। मौसम के अनरूप न होने पर भी हम लोग विदेशी परिधानों का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं। सुशिक्षित होने की इस निशानी को ढोते हुए हम  इक्कीसवीं सदी के  तकनीकी ज्ञान से प्रशिक्षित लोग बिना सोचे समझे  भेड़ चाल के अनुगामी बनें जा रहे हैं। अब हमारा मन धरती पर नहीं चाँद और मंगल पर लगने लगा है। तरक्की होना अच्छी बात है किंतु देश काल की सीमाओं से परे जा, हवाई उड़ानें, विदेशी धरती, उनका पहनावा और अंतरराष्ट्रीय बोलियाँ ही मन भावन लगने लगें तब थोड़ा ठहर कर ध्यान तो देना ही चाहिए।

मजे की बात है कि घर में माता- पिता का कहना हम लोग भले ही न मानते हों किन्तु काउंसलिंग करवाकर हर निर्णय लेना  लाभकारी होता है इसकी जड़ें हमारे मनोमस्तिष्क में गहरी पैठ बनाए हुए हैं। पहले लोग ये मानते थे कि कोई प्रेम पूर्वक आग्रह करे तो उसका न्योता नहीं ठुकराना चाहिए परंतु अब तो सारी परिभाषाएँ एक एजेंडे के तहत पहले से ही निर्धारित कर दी जाती हैं। किसे आगे बढ़ाना है, किसे घटाना है सब कुछ सोची समझी चाल के तहत होता है। वैसे भी किसी को मिटाना हो तो उसके संस्कारों व नैतिक मूल्यों पर प्रहार करना चाहिए ऐसा  पूर्वकाल से आतताइयों द्वारा किया जाता रहा है क्योंकि वे जानते हैं कि किसी को लंबे समय तक गुलाम बनाने हेतु ऐसा करना होगा।

खैर हम सब चिन्तन प्रधान देश के सुधी नागरिक हैं जो अपना भला- बुरा अच्छी तरह समझते हैं। सो पूर्वाग्रह न पालते हुए सही गलत का निर्णय स्वविवेक व तात्कालिक परिस्थितियों के अनुरूप करते हैं।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 78 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – सप्तदशोऽध्यायः ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है सप्तदशोऽध्यायः

पुस्तक इस फ्लिपकार्ट लिंक पर उपलब्ध है =>> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 77 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – सप्तदशोऽध्यायः ☆ 

स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए  सत्रहवाँ अध्याय। आनन्द उठाइए। ??

– डॉ राकेश चक्र।।

☆ सत्रहवाँ अध्याय – श्रद्धा के विभाग क्या हैं?

अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से पूछा-

नियम-शास्त्र ना मानते, करते पूजा मौन।

स्थिति मुझे बताइए, सत, रज, तम में कौन।। 1

 

श्रीकृष्ण भगवान ने सात्विक, राजसिक, तामसिक पूजा और भोजन आदि के बारे में अर्जुन को ज्ञान दिया–

सत, रज, तम गुण तीन ही, अर्जित करती देह।

जो जैसी श्रद्धा करें, बता रहा प्रिय ध्येय।। 2

 

श्रद्धा जो विकसित करें, सत, रज, तम अनुरूप।

अर्जित गुण वैसे बनें, जैसे छाया- धूप।। 3

 

सतोगुणी पूजा करें, सब देवों की मित्र।

रजोगुणी पूजा करें, यक्ष-राक्षस पित्र।।4

 

तमोगुणी हैं पूजते, भूत-प्रेत की छाँव।

जो जैसी पूजा करें, वैसी मिलती ठाँव।। 4

 

दम्भ, अहम, अभिभूत हो, तप-व्रत सिद्ध अनर्थ।

शास्त्र रुद्ध आसक्ति से, पूजा होती व्यर्थ।। 5

 

ऐसे मानव मूर्ख हैं, करें तपस्या घोर।

दुखी रखें जो आत्मा, वही असुर की पोर।। 6

 

जो जैसा भोजन करें, उसके तीन प्रकार।

यही बात तप, दान की, यज्ञ वेद सुन सार।। 7

 

सात्विक भोजन क्या है

सात्विक भोजन प्रिय उन्हें, सतोगुणी जो लोग।

वृद्धि करे सुख-स्वास्थ्य की, आयु बढ़ाता भोज।। 8

 

गरम, राजसी चटपटा, तिक्त नमक का भोज।

रजोगुणी को प्रिय लगे, देता जो दुख रोग।। 9

 

तामसिक भोजन क्या है

पका भोज यदि हो रखा,एक पहर से जान

बासा, जूठा खाय जो, वही तामसी मान। 10

बने वस्तु अस्पृश्य से, वियोजिती जो भोज।

स्वादहीन वह तामसी, करे शोक और रोग।। 10

 

सात्विक यज्ञ क्या है

सात्विक होता यज्ञ वह, जो कि शास्त्र अनुसार।

समझें खुद कर्तव्य को, फल की चाह बिसार। 11

 

राजसिक यज्ञ क्या है

होता राजस यज्ञ वह, जो हो भौतिक लाभ।

गर्व, अहम से जो करें, मन में लिए प्रलाभ।। 12

 

तामसिक यज्ञ क्या है

तामस होता यज्ञ वह, जो हो शास्त्र विरुद्ध।

वैदिक मंत्रों के बिना, होता यज्ञ अशुद्ध।। 13

 

शारिरिक तपस्या क्या है

ईश, गुरू, माता-पिता, ब्राह्मण पूजें लोग।

ब्रह्मचर्य पावन सरल, यही तपस्या योग।। 14

 

वाणी की तपस्या क्या है

सच्चे हितकर बोलिए, मुख से मीठे शब्द।

वेद साहित्य स्वाध्याय ही, तप वाणी यह लब्ध।। 15

 

मन की तपस्या

आत्म संयमी मन बने, रहे सरल संतोष।

शुद्ध बुद्धि जीवन रहे, धैर्य तपी मन घोष।। 16

 

सात्विक तपस्या

लाभ लालसा से रहित, करें ईश की भक्ति।

दिव्य रखें श्रद्धा सदा, यही सात्विक वृत्ति।। 17

 

राजसी तपस्या

दम्भ और सम्मान हित, पूजा हो सत्कार।

यही राजसी तपस्या,नहीं शाश्वत सार।। 18

 

तामसी तपस्या

आत्म-उत्पीड़न के लिए, करें हानि के कार्य।

यही तामसी मूर्ख तप, करें विनिष्ट अकार्य।। 19

 

सात्विक दान

करें दान कर्तव्य हित, आश न प्रत्युपकार।

काल देख व पात्रता, ये सात्विक उपकार।। 20

 

राजसी दान

पाने की हो भावना, हो अनिच्छु प्रतिदान।

फल की इच्छा जो रखे, यही राजसी दान।। 21

 

तामसी दान

अपवित्र जगह में दान हो, अनुचित हो असम्मान।

अयोग्य व्यक्ति को दान दें, यही तामसी दान।। 22

 

ईश्वर का आदि काल से चला आ रहा सर्वश्रेष्ठ नाम क्या है

हरिः ॐ, तत, सत यही,मूल सृष्टि का मंत्र।

श्रेष्ठ जाप यह ब्रह्म का,यही वेद का मन्त्र।। 23

 

ब्रह्म प्राप्ति शास्त्रज्ञ विधि, से हो जप तप, दान।

ओमकार शुभ नाम से, सबका हो कल्यान।। 24

 

दान, यज्ञ, तप जो करें, ‘तत’ से हो सम्पन्न।

फल की इच्छा मत करें, तब हों प्रभू प्रसन्न।। 25

 

यज्ञ लक्ष्य हो भक्तिमय, परम् सत्य, ‘सत’ शब्द।

यज्ञ करें सम्पन्न जो, सर्वश्रेष्ठ सत् लब्ध ।। 26

 

यज्ञ,दान तप साधना, सभी कर्म प्रभु नाम।

हों प्रसन्न परमा पुरुष, ‘सत’ को करें प्रणाम।। 27

 

यज्ञ, दान, तप जो करें, बिन श्रद्धा के कोय।

असत् कर्म नश्वर सभी, व्यर्थ सभी कुछ होय।। 28

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” श्रद्धा के विभाग ब्रह्मयोग ” सत्रहवाँ अध्याय समाप्त।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 80 – गाणं..! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #80 ☆ 

☆ गाणं..! ☆ 

आज इतके दिवसं झाले पण

पाखरं काही घरट्याकडे परतून आली नाही

जेव्हा पासून ह्या गर्द हिरव्या

पांनानी माझी साथ सोडली ना

तेव्हा पासून ह्या पाखरांनी ही

माझ्याकडे पाठ फिरवलीय

की काय कळत नाही…!

आता पहाटेचं कुणी

माझ्या तळहातावर बसून गाण

गात नाही…. आणि

आपल्या मनातलं काहीच

कुणी आता माझ्या कानात

कुजबुजत नाही…

इतक्या दिवसांत

सवय झालीय म्हणा आता

ह्या गोष्टींची

पण तरीही वाटतं

म्हातारपणात कुणाचा तरी

आधार असलेला बरा..!

सतत वाटतं राहतं

पाखरांनी यावं माझ्या तळहातावर

बसावं हवं तेवढा वेळ

गाणं म्हणावं…,

आता..! सावली देण्याइतके माझे

हात मजबूत राहीले

नसतील कदाचित…

पण इतकी वर्षे

सावली दिलेले,हे हातचं तुम्हाला

बोलावतायत ‘या… या…’

निदान ह्या हातांनी

माझी साथ सोडायच्या आत

मला एकदातरी भेटून जा…. !

माझ्या तळहातावर बसून

माझ्या साठी एखादं तरी गाणं गाऊन जा…!!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #101 – बीत गया हिंदी पखवाड़ा … ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं प्रसंगवश आपकी  हिंदी पर एक  रचना  “बीत गया हिंदी पखवाड़ा….”। )

☆  तन्मय साहित्य  #101 ☆

बीत गया हिंदी पखवाड़ा….

मना लिया मिल पर्व सभी ने

बीत गया हिंदी पखवाड़ा ।

 

बारह महीने कौन करेगा

क्ष त्र ज्ञ से मगज पच्चियाँ

फिर हिंदी की हालत ऐसी

जैसे सहमी-डरी बच्चियाँ,

हिंदी वालों ने ही हिंदी का

जमकर के किया कबाड़ा

बीत गया हिंदी पखवाड़ा।

  

कार्यान्वयन राजभाषा का

पंद्रह दिन तक धूम मची

गीत गजल कविता कहानियाँ

आँख बंद कर खूब रची,

होड़ मची थी संस्थानों में

किसका कितना बड़ा अखाड़ा

बीत गया हिंदी पखवाड़ा।

 

स्वीकृत हुए बजट सरकारी

खुश हिंदी की सभी विधाएँ

बँटी मिठाई काजू- बिस्किट

के सँग हुई विविध स्पर्धाएँ,

पत्र-पत्रिकाओं में छपकर

अपना अपना झंडा गाड़ा

बीत गया हिंदी पखवाड़ा।

 

गणपति बप्पा के सँग में

फिर किया विसर्जन धूमधाम से

श्राद्ध पक्ष में तर्पण- अर्पण

हिंदी का कर, लगे  काम से,

अंग्रेजी ने हँसते-हँसते

फिर हिंदी का पन्ना  फाड़ा

बीत गया हिंदी पखवाड़ा।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #83 – संरक्षकता ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है।आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी  आलेख  “संरक्षकता”)

☆ आलेख #83 – संरक्षकता”☆ 

आज 29 सितंबर है और आज से ठीक तीन दिन बाद सारा विश्व महात्मा गांधी की जन्म जयंती ‘अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाएगा।  मैं विगत अनेक वर्षों से, इन सात दिनों तक गांधी चर्चा करने और इस विश्व-मानव के सदविचारों, जो पीड़ित मानवता को राहत पहुंचाने के लिए किसी मलहम से कम नहीं है, पर लिखता रहा हूँ। इस बार मैंने सोचा कि  महात्माजी के संरक्षकता या trusteeship के सिद्धांत पर आपसे चर्चा करूँ।  मेरी यह कोशिश होगी कि  पहले छह-सात दिन तक गांधीजी के विचार, इस सिद्धांत को लेकर, पढ़ें और फिर उसका विश्लेषण आधुनिक समय के अनुसार करते हुए, उसकी वर्तमान में उपादेयता का आंकलन करें।  

– अरुण कुमार डनायक

संरक्षकता (Trustee-ship) का सिद्धांत (2)

आप कह सकते हैं की ट्रस्टीशिप तो कानून शास्त्र  की एक कल्पना मात्र है; व्यवहार में उसका कहीं कोई अस्तित्व दिखाई नहीं पड़ता।  लेकिन यदि लोग उस पर सतत विचार करें और उसे आचरण में उतारने की कोशिश भी करते रहें, तो मनुष्य-जाति के जीवन की नियामक शक्ति के रूप प्रेम आज जितना प्रभावशाली दिखाई देता है, उससे कहीं अधिक दिखाई पड़ेगा। बेशक, पूर्ण ट्रस्टीशिप तो यूक्लिड की बिन्दु की व्याख्या की तरह कल्पना ही है और उतनी ही अप्राप्य भी है। लेकिन यदि उसके लिए कोशिश की जाए, तो दुनिया में समानता की स्थापना की दिशा में हम किसी दूसरे उपाय से जितनी दूर तक जा सकते हैं, उसके बजाय इस उपाय से ज्यादा दूर तक जा सकेंगे। ….. मेरा दृढ़ निश्चय है कि यदि राज्य ने पूंजीवाद को हिंसा के द्वारा दबाने की, तो वह खुद ही हिंसा के जाल में फंस जाएगा और फिर कभी भी अहिंसा का विकास नहीं कर सकेगा। राज्य हिंसा का एक केंद्रित और संघटित रूप ही है। व्यक्ति में आत्मा होती है, परंतु चूंकि राज्य एक जड़ यंत्रमात्र है इसलिए उसे हिंसा से कभी नहीं छुड़ाया जा सकता। क्योंकि हिंसा से ही तो उसका जन्म होता है। इसीलिए मैं ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को तरजीह देता हूं।  यह डर हमेशा बना रहता है कि कहीं राज्य उन लोगों के खिलाफ, जो उससे मतभेद रखते हैं, बहुत ज्यादा हिंसा का उपयोग न करे।  लोग यदि स्वेच्छा से ट्रस्टियों की तरह व्यवहार करने लगें, तो मुझे  सचमुच बड़ी खुशी होगी। लेकिन यदि वे ऐसा न करें तो मेरा ख्याल है कि  हमें राज्य के द्वारा भरसक कम हिंसा का आश्रय  लेकर उनसे उनकी संपत्ति ले लेनी पड़ेगी। …. (यही कारण है की मैंने गोलमेज परिषद में यह कहा था की सभी निहित हित वालों की संपत्ति की जांच होनी चाहिए और जहां आवश्यक हो वहां उनकी संपत्ति राज्य को मुआवजा देकर या मुआवजा दिए बिना ही, जहां जैसा उचित हो, अपने हाथ में कर लेनी चाहिए।  ) व्यक्तिगत तौर पर तो मैं यह चाहूंगा  कि राज्य के हाथों में शक्ति का ज्यादा केन्द्रीकरण न हो, उसके बजाय ट्रस्टीशिप की भावना का विस्तार हो। क्योंकि मेरी राय में राज्य की हिंसा की तुलना में वैयक्तिक मालिकी की हिंसा कम खतरनाक है। लेकिन यदि राज्य की मालिकी अनिवार्य ही हो,  तो मैं भरसक कम से कम राज्य की मालिकी की सिफारिश करूंगा।  

 दी  माडर्न रिव्यू 1935

( यह लेख मैंने गांधीजी के विचारों के संग्रह पुस्तक ‘मेरे सपनों का भारत’ से लिया है और कतिपय जगह ऐसा लगा कि उनके विचारों में काट छांट की गई है।  गांधीजी का इस संबंध में लिखा मूल आलेख खोजने का प्रयास कर रहा हूं )

संरक्षकता (Trustee-ship) का सिद्धांत (3)

आजकल यह कहना एक फैशन हो गया है कि  समाज को अहिंसा के आधार पर न तो संघटित किया जा सकता है और न चलाया जा सकता है। मैं इस कथन का विरोध करता हूं। परिवार  में जब पिता अपने पुत्र को अपराध करने पर थप्पड़ मार देता है, तो पुत्र उसका बदला लेने की बात नहीं सोचता।  वह अपने पिता की आज्ञा इसलिए स्वीकार कर लेता है कि इस थप्पड़ के पीछे वह अपने पिता के प्यार को आहत हुआ देखता है, इसलिए नहीं कि थप्पड़ उसे वैसा अपराध दुबारा करने से रोकता है।  मेरी  राय में समाज की व्यवस्था इस तरह होनी चाहिए; यह उसका छोटा रूप है।  जो बात परिवार के लिए सही है, वही समाज के लिए सही है, क्योंकि समाज एक बड़ा परिवार ही है।   

हरिजन, 01.12.1938 

मेरी धारणा है कि अहिंसा केवल वैयक्तिक गुण नहीं है।  वह एक सामाजिक गुण भी है और अन्य गुणों की तरह उसका भी विकास किया जाना चाहिए।  यह तो मानना ही होगा कि समाज के पारस्परिक व्यवहारों का नियमन बहुत हद तक अहिंसा के द्वारा होता है।  मैं इतना ही चाहता हूं कि इस सिद्धांत का बड़े पैमाने पर, राष्ट्रीय और आंतरराष्ट्रीय पैमाने पर विस्तार किया जाए। 

हरिजन, 07.01.1939

(गांधीजी के अहिंसा संबंधी विचारों को ‘मेरे सपनों का भारत’ के एक अध्याय ‘संरक्षकता का सिद्धांत’ में स्थान दिया गया है। आगे जब हम संरक्षकता पर उनके विचार पढ़ेंगे तो यह भी समझने का प्रयास करेंगे कि अहिंसा केवल सत्याग्रह और दमन का प्रतिकार करने का साधन मात्र नहीं है।  यह एक व्यापक दृष्टिकोण है जिसे महात्मा गांधी ने धन कमाने की असीमित लिप्सा को शांत करने का उपाय बताया था)

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 104 ☆ जखम ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 104 ?

☆ जखम ☆

ठेच लागलेल्या बोटाची जखम

चिघळून ठसठसावी

 तशाच ठसठसतात ना आठवणी?

खरं तर कारणच नव्हतं–

ठेच लागण्याचं,

पण एखादा निसरडा क्षण

ठेऊनच जातो कायमचा व्रण!

 

वेळीच

भळभळणा-या जखमेवर

भरली असतीस

चिमूटभर हळद,

तर जखम झालीही नसती

इतकी गडद!

 

धूळभरल्या वाटेवर

दुख-या बोटानं

अनवाणी चालत राहिलीस

बेफिकीर!

 

धूळच माखून घेतलीस

मलम म्हणून !

आता ती ठेचच बनली आहे ना,

एक चिरंजीव वेदना,

आश्वत्थाम्याच्या जखमेसारखी!

 

अशा जखमा भरतही नाहीत औषध पाण्याने अथवा

ब-याही होत नाहीत

रामबाण उपायाने—

आणि करता ही येत नाही,

त्या ठसठसत्या आठवणींवर शस्त्रक्रिया!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- १३ – भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मी प्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी  क्रमांक- १३ – भाग ५ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ लक्षद्वीपचा रंगोत्सव – भाग १ ✈️

अथांग अरबी सागरात ‘कवरत्ती’ नावाची आमची पाच मजली बोट नांगर टाकून उभी होती. समोर दिसत असलेल्या मिनीकॉय बेटावर नारळाची असंख्य हिरवीगार झाडं वाऱ्यावर डुलत होती. आता आमच्या बोटीतून छोट्या यांत्रिक बोटीत उतरण्याची कसरत करायची होती. वाऱ्यामुळे, लाटांमुळे आमची बोट आणि छोटी यांत्रिक बोट, दोन्ही झुलत होत्या. या दोघींची भेट झाल्यावर बोटीच्या दारात उभा असलेला बोटीचा स्टाफ आम्हाला दोन्ही दंडाना धरून छोट्या बोटीमध्ये अलगद उतरवत होता.( लहानपणी केळशीला जाताना हर्णै बंदरातून किनाऱ्यावर पोचायला हाच उद्योग करावा लागत असल्याने त्याची प्रॅक्टिस होतीच)

लक्षद्वीप द्वीपसमूह  हा भारताच्या पश्चिम किनाऱ्यापासून साधारण चारशे किलोमीटर दूर असलेला छत्तीस बेटांचा समूह आहे. यापैकी फक्त अकरा बेटांवर मनुष्यवस्ती आहे. केंद्रशासित असणाऱ्या या बेटांवर जाण्यासाठी केरळमधील कोची (कोचिन /एर्नाकुलम) इथून ठराविक दिवशी बोटी सुटतात.

समुद्रावरील ताजा, मोकळा वारा भरभरून घेत मिनीकॉयवर उतरलो. साधारण ११ किलोमीटर लांबीचं, अर्धवर्तुळाकार पसरलेलं हे बेट,  लक्षद्वीप द्वीपसमूहातील आकाराने दुसऱ्या क्रमांकाचं बेट आहे. (आकाराने पहिला क्रमांक ऍड्रॉथ या बेटाचा लागतो.) नारळीच्या दाट बनातून आमची गाडी दीपगृहाजवळ पोहोचली. ब्रिटिश काळात १८८५  साली बांधलेल्या या भक्कम दीपगृहाच्या २२० अर्धगोलाकार पायऱ्या चढून गेल्यावर  अफाट, निळ्या- निळ्या सागराचं नजर खिळवून ठेवणारं दर्शन घडतं.  तिथून रिसॉर्टला पोहोचल्यावर सर्वांचं शहाळ्याच्या मधुर पाण्याने, त्यातल्या कोवळ्या, गोड खोबर्‍याने स्वागत झालं. पारदर्शी, स्वच्छ, नितळ निळा समुद्र सर्वांना साद घालत होता. सेफ्टी जॅकेट्स चढवून डुंबण्यासाठी सज्ज झालो. (समुद्रातील पोहणं, कयाकिंग, स्नॉर्केलिंग वगैरे साऱ्या गोष्टींसाठी सेफ्टी जॅकेट व पायात रबरी बूट, चपला घालणं बंधनकारक आहे. नाहीतर पाण्यातून चालताना धारदार कोरल्समुळे जखम होण्याची शक्यता असते.) समुद्रावर अनेक प्रशिक्षित ट्रेनर्स आपल्या मदतीसाठी सज्ज असतात.

किनाऱ्यावरील पाण्यात अलगद बसण्याचा प्रयत्न केला. पण लाटांनी वर ढकलून दिलं. शेवटी धबाकन फतकल मारुन बसलो. अंगावर झेपावणाऱ्या थंड लाटांनी छान समुद्रस्नान झालं. आजूबाजूला हात घातला की तरतऱ्हेचे कोरल्स हातात येत .काहींचा आकार झाडांचा तर कांहींचा आकार फुलांचा, पानांचा, पक्ष्यांचा. कुणाला गणपती सुद्धा सापडले. तासाभराने उठलो तेव्हा जमविलेल्या  कोरल्सची संपत्ती ‘समुद्रार्पणमस्तु’ म्हणून समुद्रालाच परत केली.(कुठच्याही प्रकारचे कोरल्स लक्षद्वीपहून आणणं हा दंडनीय अपराध आहे.)

मदतनिसाबरोबर कयाकिंगला गेले. मजबूत प्लास्टिकच्या लांबट, हलक्या होडीतून वल्ही मारत जाण्याचा अनुभव खूप वेगळा होता. आकाशाच्या घुमटातून  परावर्तित होणारे ढगांचे विविध रंग, पारदर्शी निळ्या पाण्यात उतरत होते. निळा, जांभळा, पिवळा, केशरी, गुलाबी असे अनंत रंग पाण्यात तरंगत होते. हेमगर्भ सौंदर्य आणि गूढरम्य सुशांतता यांचा अपूर्व मिलाप झाला होता. अथांग पाणी आणि असीम क्षितिज यांच्या शिंपल्यात आपण अलगत शिरत आहोत असा एखाद्या परीकथेतल्याप्रमाणे आभास झाला. मदतनिसाने परतण्यासाठी कयाक वळविली तेव्हा भानावर आले.

मिनीकॉयपासून  १०० किलोमीटर्सवर मालदीव बेट आहे. अर्थातच मालदीवला जाण्याची सोय किंवा परवानगी नाही. जेवण व थोडी विश्रांती झाल्यावर दुपारी आम्हाला तिथल्या एका गावात नेण्यात आलं. ११००० लोकसंख्या असलेल्या मिनीकॉय बेटावर छोटी छोटी ११ गावे आहेत.मुखिया म्हणजे गावप्रमुख एकमताने निवडला जातो. ग्रामपंचायत आहे. प्रत्येक गावात सार्वजनिक वापरासाठी एक मध्यवर्ती जागा ठेवलेली असते. गावातल्या कुठच्याही घरी काहीही कार्य असलं तरी प्रत्येकाने मदत करायची पद्धत आहे. आम्हाला ज्या गावात नेलं होतं ते तीनशे वर्षांपूर्वी वसलेलं गाव आहे.चहा, समोसा आणि नारळाची उकडलेली करंजी देऊन तेथील स्त्रियांनी आमचं स्वागत केलं. पांढऱ्याशुभ्र वाळूवर दोन लांबलचक होड्या सजवून ठेवल्या होत्या.दर डिसेंबरमध्ये तिथे नॅशनल मिनिकॉय फेस्ट साजरा होतो. शर्यतीसाठी प्रत्येक बोटीमध्ये वीस जोड्या वल्हव़त असतात. या बेटावर ट्युना कॅनिंग फॅक्टरी आहे. ट्युना माशांना परदेशात खूप मागणी आहे. त्यांची निर्यात केली जाते. इतर साऱ्या बेटांवरील बोलीभाषा, मल्याळम् असली तरी या बेटावर ‘महल'(Mahl) नावाची भाषा बोलली जाते.

भाग १ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 90 ☆ रास्ता ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “रास्ता। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 90 ☆

☆ रास्ता ☆

वो कौन से निशाँ हैं

जो ढूँढ़ रही है यह जिगर-अफ़गार ज़िंदगी?

वो कौन से जज़्बात हैं

जो महसूस करना चाहती है दिल की लगी?

वो कौन से मंज़र हैं

जो खोज रही हैं यह उचाट आँखें?

वो कौन से एहसास हैं

जो पाने को बेचैन हैं यह उखड़ती साँसें?

वो क्या है जो दिल सोचता है

कि कहूँ या न कहूँ?

वो क्या है जो पाना चाहती है

यह बेकल रूह?

 

न कोई तनहाई है मन के आँगन में

न कोई रुसवाई है जिगर के मौसम में

पर कोई गुल भी तो नहीं खिलता…

जाने क्यूँ सुकून भी नहीं मिलता…

 

यह ज़िंदगी एक सफ़र है और चली जा रही हूँ मैं…

जाने क्या खो रही हूँ और जाने क्या पा रही हूँ मैं?

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 1 – सजल – जीवन हो मंगलमय सबका… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

ई- अभिव्यक्ति में संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी का हार्दिक स्वागत है। हम अपने प्रबुद्ध पाठकों के लिए  आदरणीय श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी का साप्ताहिक स्तम्भ ” मनोज साहित्य “ प्रारम्भ कर रहे हैं। अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 1 – सजल – जीवन हो मंगलमय सबका… ☆ 

सजल

सीमांत – इया

पदांत – है

मात्रा भार -16

 

सागर को जब पार किया है।

तब जग ने सम्मान दिया है।।

 

डरे नहीं झंझावातों से,

जीवन को निर्भीक जिया है।

 

जितनी चादर मिली जगत में, 

उसको ओढ़ा और सिया है।

 

स्वाभिमान से जीना सीखा,

प्रेम भाव में गरल पिया है।

 

लक्ष्य साध कर बढ़े सदा तो,

विजयी-भव वरदान लिया है।

 

पास रहें बेटा कितने पर

पीड़ा हरती बस बिटिया है ।

 

जीवन हो मंगलमय सबका,

मानवता ही वह पहिया है ।

 

राम कृष्ण गौतम मसीह ने ,

दुख-दर्दों का हरण किया है।

 

सागर कितना बड़ा रहा पर,

प्यास बुझाने को नदिया है।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल ” मनोज “

17 मई 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 97 – लघुकथा – टुकिया का झूला ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  गरीबी से संघर्ष करते परिवार की एक संवेदनशील लघुकथा  “टुकिया का झूला। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 97 ☆

 ? लघुकथा – टुकिया का झूला ?

साइकिल की आवाज सुन कर  वह बाहर निकली।  टुकिया रोज की तरह अपने बाबा को दौड़ कर गले लगा, उनकी बाहों में छुप जाना चाहती थी।

पांच साल की टुकिया परंतु आज बाबा ने न तो टुकिया को गोद लिया और न ही उसके लिए जलेबी की पुड़िया दी। टकटकी लगाए हुए पापा की ओर देखने लगी।

परंतु उसे क्या मालूम था कि बाबा ऐसा क्यों कर रहे हैं। पापा अंदर आने पर अपनी पत्नी से पानी का गिलास लेकर कहने लगे… अब मैं बच्ची को उसकी इच्छा के अनुसार पढ़ाई नहीं करवा पाऊंगा। उसकी यह इच्छा अधूरी रहेगी, क्योंकि आज फिर से काम से निकाल दिया गया हूँ।

तो क्या हुआ बाबा…  गले से झूलते हुए बोली… बाबा हम आपके साथ सर्कस जैसा काम करेंगे। हमारे पास खूब पैसे आ जाएंगे। बाबा को अपने पुराने दिन याद आ गए । उन्होंने बिटिया का माथा चूम लिया।

शाम ढले दो बांसों के बीच रस्सी बांध दिया गया। टुकिया चलने लगी सिर पर मटकी और मटकी पर जलता दिया।

दिए की लौ से प्रकाशित होता पूरा मैदान। टुकिया चलते जा रही थी, बाबा  का कलेजा फटा जा रहा था। बच्चीं ने रस्सी पार कर कहा… बाबा हमें जीत मिल गई अब हम रस्सी पर खूब काम करेंगे। और देखना एक दिन आपको हवाई जहाज में घुमाएंगे।

बाबा ने सोचा क्या गरीबी का बोझ हवाई जहाज उड़ा कर ले जा सकेगी? टुकिया रस्सी पर कब तक चलेगी।

सिक्के और रुपए उसकी थाली पर गिरते जा रहे थे। तालियों की गड़गड़ाहट  में उसकी सिसकियां कहाँ  सुनाई देती?

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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