(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवणअभिनवगीत – “खोजते हैं दूर तक सम्भावनायें ….”। )
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है भाई – भाई और पिता के संबंधों पर आधारित एक विचारणीय व्यंग्य ‘डर’).
☆ व्यंग्य # 104 ☆ डर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆
ट्रेन फुल स्पीड से भाग रही है।
– कहां जा रहे हैं?
– प्रयागराज… अस्थि विसर्जन के लिए।
थोड़ी देर में दोनों भाई खर्चे के तनाव में लड़ पड़े।
हमने समझाया- देखो भाई, जमाना बदल गया है, रिश्तों का स्वाद हर रोज बदलता है; कभी मीठा, कभी नमकीन कभी खारा…
– पिता के अस्थि विसर्जन के लिए जा रहे हो तो छोटी-छोटी बातों में लड़ना नहीं चाहिए।
– आपका कहना सही है, पर ये छोटा भाई नहीं समझता ,जब पिताजी जिंदा रहे तब उनसे बात बात में खुचड़ करता था।
– हमें एक मुहावरा याद आ गया, ‘जियत बाप से दंगमदंगा, मरे हाड़ पहुंचावे गंगा….
– छोटा भाई बोला… हम इनसे कहे थे कि बबुआ के हाड़ गांव की नदिया मे सिरा देओ, खर्चा बचेगा।
– काहे झूठ बोलते हो छोटे भाई… तुम्हीं ने तो कहा था कि बबुआ की हड्डी गंगा-जमुना संगम में डालने से हड्डी पानी में जल्दी घुल जाएगी, नहीं तो हड्डी कोई वैज्ञानिक के हाथ पड़ जाएगी तो बाप की हड्डी से फिर वही बाप बनाकर खड़ा कर देगा, तो और मुश्किल हो जाएगी।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक भावप्रवण कविता “# जमीन #”।)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘एक सपूत का कपूत हो जाना’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 107 ☆
☆ व्यंग्य – ‘एक सपूत का कपूत हो जाना’ ☆
गप्पू लाल पप्पू लाल के सुपुत्र हैं। बाप की नज़र में गप्पू लाल सुपुत्र होने के साथ साथ ‘सपूत’ भी हैं क्योंकि वे घर के बाहर भले ही साँड़ की तरह सींग घुमाते हों, घर में गऊ बन कर रहते हैं। बाप के सामने इतने विनम्र और आज्ञाकारी बन जाते हैं कि बाप कुछ पूछते हैं तो इस तरह मिनमिनाकर जवाब देते हैं कि शब्द कान तक नहीं पहुँचते। कई बार बाप गुस्सा हो जाते हैं। कहते हैं, ‘क्या बकरी की तरह मिमियाता है। साफ साफ बोल।’ गप्पू लाल और ज़्यादा सिकुड़ जाते हैं। पुत्र की इस आज्ञाकारिता को देखकर पप्पू लाल गद्गद हो जाते हैं।
गप्पू लाल अपने लिए रूमाल भी नहीं ख़रीदते। चड्डी बनयाइन भी पिताजी ही ख़रीदते हैं। कपड़े-जूते जो बाप पसन्द कर लेते हैं, स्वीकार कर लेते हैं। बाप की अनुमति के बिना कहीं नहीं जाते। जहाँ के लिए बाप मना कर देते हैं, वहाँ नहीं जाते। जिस लड़के या लड़की को बाप दोस्ती के लायक नहीं समझते, उससे दोस्ती नहीं करते। अगर दोस्ती हो गयी तो उसे कभी घर नहीं बुलाते।
पप्पू लाल बड़े किसान हैं। काफी ज़मीन है। आटा-चक्की और तेल-मिल है। गप्पू उनके इकलौते पुत्र हैं। तीन बेटियाँ शादी करके विदा हो चुकी हैं। गप्पू लाल तीस पैंतीस किलोमीटर दूर शहर में बी.ए. पढ़ रहे हैं। पढ़ने में सामान्य हैं लेकिन ज़्यादा पढ़ कर करना भी क्या है?
बाप की छत्रछाया में पल कर गप्पू लाल सयाने हो गये। ओठों पर मूँछों की रेख उभर आयी। बाप की नज़र में वे शादी के काबिल हो गये। पैसे वाली पार्टियाँ बाप को घेरने लगीं। जो सीधे गप्पू लाल तक पहुँचते उनसे गप्पू शर्मा कर कह देते, ‘बाबूजी जानें। हम क्या बतायें।’
पप्पू लाल ने एक दो जगह दहेज की अच्छी संभावनाओं को समझते हुए लड़की को देखने की सोची। पत्नी से बोले, ‘गप्पू तो अभी नालायक है। वह क्या लड़की देखेगा। हम तुम चल कर देख लेते हैं।’ गप्पू ने सुना तो मिनमिनाकर रह गये।
पप्पू लाल पत्नी को लेकर गये और दो तीन जगह देखकर एक जगह लड़की पसन्द कर आये। गप्पू लाल फोटो देखकर संतुष्ट हो गये। कॉलेज के दोस्तों को दिखाया। हर वक्त तकिये के नीचे रखे रहते थे।
शादी धूमधाम से हो गयी। पप्पू लाल बहू के साथ पर्याप्त माल-पानी लेकर लौटे। गप्पू लाल बीवी पाकर मगन हो गये। लेकिन बाप से उनका सुख नहीं देखा गया। एक दिन कुपित होकर बोले, ‘हो गयी शादी वादी। अब वापस कालेज जाकर पढ़ लिख। दिन रात बहू के पास घुसा रहता है। बेशरम कहीं का।’
गप्पू लाल गाँव से शहर खदेड़ दिये गये। उनके ताजे ताजे बसे सुख के संसार में नेनुआँ लग गया। अब कॉलेज में पढ़ने में मन नहीं लगता था। किताब के हर पन्ने पर प्रिया का मुख बैठ गया था।
एक दिन कॉलेज में दो दिन की छुट्टी घोषित हो गयी। गप्पू लाल घर पहुँचने का बहाना ढूँढ़ रहे थे। सिर पर पैर रखकर भागे। दुर्भाग्य से एक दिन पहले हुई तेज़ बारिश के कारण शहर और गाँव के बीच के नाले में पूर आ गया था। रास्ता बन्द था। गप्पू ने एक मल्लाह के हाथ जोड़े और उसकी डोंगी पर बैठकर नाले की उत्ताल तरंगों पर उठते गिरते तुलसीदास की तरह आधी रात को घर पहुँचे। विरह-व्यथा में वे उस दिन जान पर खेल गये। घर पहुँचकर दरवाज़ा खटखटाया तो नींद में पड़े ख़लल से कुपित पिताजी ने दरवाज़ा खोला। दरवाज़े पर पुत्र को देखकर उन्होंने डपट कर पूछा, ‘इस वक्त कहाँ से आया है?’ गप्पू लाल मिनमिनाकर चुप हो गये।
पिताजी बोले, ‘अब आधी रात को सारे घर को जगाएगा। यहीं सोजा।’ उन्होंने गप्पू को अपने पास सुला लिया। गप्पू मन मसोसकर रह गये।
सबेरे पिताजी ने नाश्ता-पानी के बाद फिर शहर खदेड़ दिया। बोले, ‘तेरी अनोखी शादी हुई है क्या?बीवी के बिना नहीं रहा जाता?आगे इस तरह आया तो दरवाजे से ही भगा दूँगा।’
गप्पू लाल भारी मन से बैरंग वापस हो गये।
बहू डेढ़ दो महीने रहकर मायके विदा हो गयी। पप्पू लाल अब उसे दुबारा जल्दी नहीं बुलाना चाहते थे। वजह यह थी कि समधी साहब ने दहेज में एक ट्रैक्टर देने का वादा किया था जो अभी तक पूरा नहीं हुआ था। समधी साहब ने कहा था कि नंबर लगा है, जल्दी आ जाएगा। पप्पू लाल को डर था कि कहीं धोखाधड़ी न हो जाए, इसलिए वे चाहते थे कि अब बहू ट्रैक्टर के पीछे पीछे ही आये।
बहू को गये तीन चार महीने हो गये। समधी साहब बार बार विदा के बारे में पूछते। पप्पू लाल जवाब देते कि अभी मुहूर्त नहीं है। फिर यह भी पूछ लेते कि ट्रैक्टर कब तक मिलने की उम्मीद है। समधी साहब बात को समझ रहे थे, लेकिन मजबूर थे।
एक दिन समधी साहब का पत्र आया। पप्पू लाल पढ़कर आसमान से गिरे। समधी साहब ने लिखा था, ‘कुँवर साहब आये। चार दिन रहे। बहुत अच्छा लगा। इसी प्रकार आना जाना बना रहे।’
पप्पू लाल दो क्षण तो हतबुद्धि बैठे रहे, फिर गुस्से में फनफनाकर पत्नी से बोले, ‘यह देखो। यह जोरू का हमें बिना बताये ससुराल पहुँच गया। लिखा है कुँवर साहब आये थे। यह नालायक कुँवर नहीं, सुअर है।’
गुस्से में पागल शहर दौड़े गये। गप्पू की पेशी हुई—‘क्यों रे कुलबोरन!हमें बिना बताये ससुराल पहुँच गया?कुछ शर्म हया बाकी है या नहीं?’
गप्पू लाल ने मिनमिनाकर जो बताया उसका मतलब यह निकला कि वह तो घूमने बाँदकपुर गया था। वहाँ से ससुराल पास था, सोचा कुछ देर के लिए हो लें।
पप्पू लाल बोले, ‘हमें पढ़ाता है!कहाँ बाँदकपुर और कहाँ ससुराल। कुछ देर के लिए गये और चार दिन पड़े रहे। आगे हमसे बिना बताये गया तो हमसे बुरा कोई न होगा।’
आज्ञाकारी पुत्र ने सिर झुका लिया। डेढ़ दो महीने फिर बीत गये। पप्पू लाल बिना ट्रैक्टर हथियाये बहू को नहीं लाना चाहते थे। एक बार बाजी हाथ से गयी तो गयी। बेटे से इस मामले में सहयोग की कोई उम्मीद नहीं थी। अभी से बहू के लिए दीवाना हो रहा था।
फिर एक पत्र आ टपका। मज़मून वही कि कुँवर साहब फिर आये, बहुत अच्छा लगा। पन्द्रह दिन से टिके हैं। अभी कुछ दिन और रहेंगे। इसी तरह मेलजोल बना रहे।
पप्पू लाल माथा पकड़ कर बैठ गये। यह लड़का कंट्रोल में नहीं है। ऐसे ससुराल की तरफ भाग रहा है जैसे दुनिया में सिर्फ इसी की शादी हुई हो।
पत्नी से बोले, ‘इस लौंडे ने तो नाक कटा दी। उधर वाले क्या सोचते होंगे। लगता है घरजमाई बन कर बैठ जाएगा।’
पत्नी ने सलाह दी, ‘भलाई इसी में है कि लालच छोड़कर बहू को बुला लो। इकलौता लड़का है। हाथ से निकल गया तो बुढ़ापे में कौन सहारा देगा?’ पप्पू लाल ने सुनकर अनसुनी कर दी।
पन्द्रह दिन बाद फिर पत्र आया। लिखा था—‘कुँवर साहब बेटी अंजना को विदा कराके ले गये हैं। कह रहे थे कि आपसे पूछ लिया है। सकुशल पहुँच गये होंगे। कुशल समाचार दें।’
पप्पू लाल बदहवास शहर भागे। शाम को थके हारे, उदास लौटे। पत्नी को बताया, ‘उस बेशरम ने पहले ही एक किराये का मकान ले लिया था। हमें बताया नहीं था। तीन चार दिन में आएगा। बिलकुल ढीठ हो गया है। उसकी हिम्मत तो देखो।’
फिर समधी साहब को पत्र लिखा—
‘परमप्रिय समधी साहब, आपका पत्र मिला। चि.गप्पू लाल और बहू सकुशल पहुँच गये हैं। चिन्ता की कोई बात नहीं। ट्रैक्टर मिलते ही खबर करें। खबर मिलते ही मैं यहाँ से ड्राइवर भेज दूँगा। आप पर पूरा भरोसा है। अपने वचन की रक्षा करें ताकि हमारे संबंध और गाढ़े हों।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 106 ☆ कर्मण्येवाधिकारस्ते! ☆
एक युवा व्यापारी मिले। बहुत परेशान थे। कहने लगे, “मन लगाकर परिश्रम से अपना काम करता हूँ पर परिणाम नहीं मिलता। सोचता हूँ काम बंद कर दूँ।” यद्यपि उन्हें काम आरम्भ किए बहुत समय नहीं हुआ है। किसी संस्था के अध्यक्ष मिले। वे भी व्यथित थे। बोले,” संस्था के लिए जान दे दो पर आलोचनाओं के सिवा कुछ नहीं मिलता। अब मुक्त हो जाना चाहता हूँ इस माथापच्ची से।” चिंतन हो पाता, उससे एक भूतपूर्व पार्षद टकराए। उनकी अपनी पीड़ा थी। ” जब तक पार्षद था, भीड़ जुटती थी। लोगों के इतने काम किए। वे ही लोग अब बुलाने पर भी नहीं आते।”
कभी-कभी स्थितियाँ प्रारब्ध के साथ मिलकर ऐसा व्यूह रच देती हैं कि कर्मफल स्थगित अवस्था में आ जाता है। स्थगन का अर्थ तात्कालिक परिणाम न मिलने से है। ध्यान देने योग्य बात है कि स्थगन किसी फलनिष्पत्ति को कुछ समय के लिए रोक तो सकता है पर समाप्त नहीं कर पाता।
स्थगन का यह सिद्धांत कुछ समय के लिए निराश करता है तो दूसरा पहलू यह है कि यही सिद्वांत अमिट जिजीविषा का पुंज भी बनता है।
क्या जीवित व्यक्ति के लिए यह संभव है कि वह साँस लेना बंद कर दे? कर्म से भी मनुष्य का वही सम्बंध है जो साँस है। कर्मयोग की मीमांसा करते हुए भगवान कहते हैं,
‘न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।’
कोई क्षण ऐसा नहीं जिसे मनुष्य बिना कर्म किए बिता सके। सभी जीव कर्माधीन हैं। इसलिए गर्भ में आने से देह तजने तक जीव को कर्म करना पड़ता है।
इसी भाव को गोस्वामी जी देशज अभिव्यक्ति देते हैं,
‘कर्मप्रधान विश्व रचि राखा।’
जब साँस-साँस कर्म है तो उससे परहेज कैसा? भागकर भी क्या होगा? ..और भागना संभव भी है क्या? यात्रा में धूप-छाँव की तरह सफलता-असफलता आती-जाती हैं। आकलन तो किया जाना चाहिए पर पलायन नहीं। चाहे लक्ष्य बदल लो पर यात्रा अविराम है। कर्म निरंतर और चिरंतन है।
सनातन संस्कृति छह प्रकार के कर्म प्रतिपादित करती है- नित्य, नैमित्य, काम्य, निष्काम्य, संचित एवं निषिद्ध। प्रयुक्त शब्दों में ही अर्थ अंतर्निहित है। बोधगम्यता के लिए इन छह को क्रमश: दैनिक, नियमशील, किसी कामना की पूर्ति हेतु, बिना किसी कामना के, प्रारब्ध द्वारा संचित, तथा नहीं करनेवाले कर्म के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
इसमें से संचित कर्म पर मनन कीजिए। बीज प्रतिकूल स्थितियों में धरती में दबा रहता है। स्थितियाँ अनुकूल होते ही अंकुरित होता है। कर्मफल भी बीज की भाँति संचितावस्था में रहता है पर नष्ट नहीं होता।
मनुष्य से वांछित है कि वह पथिक भाव को गहराई से समझे, निष्काम भाव से चले, निरंतर कर्मरत रहे।
अपनी कविता ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ उद्धृत करना चाहूँगा-
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 60 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 60) ☆
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित भावप्रवण कविता ‘सलिल न बन्धन बाँधता …. ’। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 60 ☆
☆ सलिल न बन्धन बाँधता …. ☆
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मुक्तक
नित्य प्रात हो जन्म, सूर्य सम कर्म करें निष्काम भाव से।
संध्या पा संतोष रात्रि में, हो विराम नित नए चाव से।।
आस-प्रयास-हास सँग पग-पग, लक्ष्य श्वास सम हो अभिन्न ही –
मोह न व्यापे, अहं न घेरे, साधु हो सकें प्रिय! स्वभाव से।।
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय जी की एक भावप्रवण एवं विचारणीय आलेख “## गौरैया एक आत्मकथा##”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# #90 ☆ # गौरैया एक आत्मकथा # ☆
वो मुझे मिली थी सारा शरीर छलनी हो गया था उसका, वह खून से लथपथ हो रही थी। भीषण गर्मी तथा भय से हांफ और कांप रही थी वो, भूख और प्यास से बुरा हाल था उसका, कौवों का झुंड पड़ा था उसके जान के पीछे । किसी तरह बचती बचाती आ गिरी थी मेरी गोद में। उसकी हालत देख मैं अवाक हो ताकता रह गया था, उसे! मेरे हाथों का कोमल स्पर्श पाकर उसे अजीब-सी शांति मिली थी। अपनेपन के एहसास की गहराई से उसका डर दूर हो गया था।
वह मुझसे संवाद कर बैठी बोल पड़ी थी। मुझे पहचाना तुमने ,मैं वहीं गौरैया हूं जिसका जन्म तुम्हारे आंगन में हुआ था। मेरी पीढ़ियां तुम्हारे आंगन के कोनों में खेली खाई पली बढ़ी है। वो तुम ही तो हो जो बचपन में मेरे लिए दाना पानी रखा करते थे। दादी अम्मा के साथ गर्मियों में गंगा स्नान को जाया करते थे तथा उनके पीछे-पीछे चींटियों की बांबी पर सत्तू छिड़का करते थे। तुम्हारा घर आंगन मेरे बच्चों की चींचीं चूं चूं से निरंतर गुलजार रहा करता था। मेरे रहने का स्थान बंसवारी तथा पेड़ों के झुरमुट और तुम्हारे घर के भीतर बाहर खाली स्थान हुए करते थे।
कितनी संवेदनशीलता थी तुम्हारे समाज के भीतर? कितना ख्याल रखते थे तुम लोग पशुओं पंछियों का? लेकिन अचानक से समय बदला परिस्थितियां बदलीं समय के साथ तुम लोगों के हृदय की दया, ममता, स्नेह तथा संवेदनाये सब कुछ खत्म होता गया।
अब तो तुम सबका दिल इतना छोटा हो गया उसमें तुम्हारे मां बाप के लिए भी जगह नहीं बची, फिर हम लोगों का क्या? कौन करेगा हमारा ख्याल ? अरे अब तो अपने स्वार्थ में अंधे बने हमारे रहने की भी जगह छीन ली है तुम लोगों ने।अब न तो हमारे पास भोजन है न तो पानी और ना ही तुम सबकी संवेदनायें ही बची है। अगर ऐसा ही रहा तो एक दिन हमारी पीढ़ियां प्राणी संग्रहालय में शोभा बढायेगी या फिर किताबों के पन्नों में दफ़न हो कर अपना दम तोड़ती नजर आएंगी। आखिर कब तक तुम लोग साल में एक दिन कभी गौरैया दिवस कभी शिक्षक दिवस कभी मदर्स डे, कभी फादर्स डे मना कर अपने दिल को झूठी तसल्ली देते रहोगे और फिर अत्यधिक रक्तस्राव के चलते बात करते हुए उसकी गर्दन एक तरफ की ओर झुकती चली गई, और वह सच में मर गई।
उसकी हालत देखते हुए मेरी आंखों से दो बूंदें छलक पड़ी थी, जिनका अस्तित्व उसके उपर गिर कर वातावरण में विलीन हो गया था और मै उसका पार्थिव शरीर देख अवाक रह गया था क्यो कि उसने मरते मरते भी सच का आइना जो दिखा दिया था।
(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकारश्री रमेश सैनी जी के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।
आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘21वीं सदी का व्यंग्य : दिशा और दशा’।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #4 – 21वीं सदी का व्यंग्य : दिशा और दशा ☆ श्री रमेश सैनी ☆
[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं। हमारा प्रबुद्ध पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]
व्यंग्य लेखन हड़बड़ी का नहीं, जिम्मेदारी का है – रमेश सैनी
21वीं सदी के व्यंग्य पर बात करने के लिए हमें बीसवीं सदी के व्यंग्य के परिदृश्य को आधार बनाना पड़ेगा .तब हम 21वीं सदी में अब तक के परिदृश्य और भविष्य के व्यंग्य की संभावना पर बात कर सकते हैं.क्योंकि अभी 21वीं सदी के दो ही दशक गुजरे हैं। और उसमें मुकम्मल बात नहीं हो सकती है.हां उसकी संभावना पर हम अब तक हुए लेखन पर बात कर सकते हैं.भारतीय जीवन दर्शन और परंपरा आशावादी दृष्टिकोण ले लेकर आगे बढ़ती है. हमारे जीवन में निराशा का भाव बहुत कम होता है. हमारे जीवन या समाज के सामने दुर्दिन, कष्ट, दुख आएं पर हम उन से विमुख नहीं होते हैं. हम उनका सामना करते हैं. वरन उन दिनों की दशा पर एक ही सकारात्मक दृष्टिकोण तय कर लेते हैं. कि यह सब कुछ पहले से ही नियति ने तय कर रखा था. जब नियति द्वारा सब कुछ तय है. तब घबड़ाना क्यों ?फिर विश्वास करते हैं कि ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’. इस विश्वास के सहारे हमारे जीवन और समाज में संघर्षों के दिनों में उर्जा बढ़ जाती है. इस काल में हमारा जीवन अर्निभाव से सहज, सरल, सतत गति से चलता रहता है.
भारतीय साहित्य और राजनीति में जब काल के हिसाब से गणना करते हैं. तब स्वभाव या प्राकृतिक रूप से दो कालखंड हमारे सामने दृष्टिगत होते हैं .पहला काल खंड स्वतंत्रता के पहले अर्थात 1947 के पूर्व और दूसरा काल खण्ड स्वतंत्रता के बाद अर्थात 1947 के बाद का. इन दोनों की अपनी विशेषता है. पहला कालखंड नवजागरण संघर्ष और अपनी भारतीयता को बचाने का था. अपनी मुक्ति का संघर्ष का समय था. जिसमें समाज के प्रत्येक वर्ग का सहयोग और योगदान था. जिसमें जीवन और समाज में व्याप्त विसंगतियां विडम्बनाएं हमारे समक्ष अमूर्त रूप में थी. उस समय हमारे समक्ष स्पष्ट लक्ष्य था. अंग्रेजी शासन से मुक्ति. मुक्ति संघर्ष के समय में भी समाज बहुत सारी मे विसंगतियां विडम्बनाएं जैसे जात-पात, छुआछूत अंधविश्वास, जमीदारी प्रथा, आदि समाज में घुन की भांति थी.पर सब मुक्ति संघर्ष के सामने सामाजिक चेतना से बाहर थी इसी कारण उस समय के परिदृश्य में लेखन के केन्द्र में सिर्फ राष्ट्रवाद था।उस समय का अधिकांश व्यंग्य राजनीति और तत्कालीन विदेशी सत्ता के विरोध में था. इन व्यंग्य का असर सत्ता पर उस वक्त आसानी से अनुभव किया जा सकता था.
स्वतंत्रता के बाद भारतीय साहित्य में आमूल परिवर्तन देखा जा सकता है. भारतीय जनमानस का ध्यान समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, पाखंडवाद, ठकुरसुहाती, नौकरशाही, अवसरवादी, बेरोजगारी, अकाल, गिरते नैतिक मूल्य, धार्मिक कट्टरता,अंधविश्वास आदि विद्रूपताएं विडंबनाएं विसंगतियां ,बुराइयां आदि दिखने लगी थी ,जबकि यह पहले से व्याप्त थी. पर इसे पूर्व में अनदेखा किया गया. इन विसंगतियों को उस वक्त के व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई शरद जोशी रवीन्द्रनाथ त्यागी,आदि व्यंग्यकारों ने निर्डरता से समाज के सामने उजागर किया. सामाजिक और मानवीय सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध लेखन से एक नया शिल्प आया और इन लेखकों को व्यंग्यकारों के रुप में पहचाना गया. इन व्यंग्य लेखों के माध्यम से साहित्य में इन लेखकों को व्यंग्यकारों की रूप में स्वीकार्यता मिली. इसमें भी कोई संदेह नहीं है. उस समय केवल व्यंग्यकारों ने मानवीय सरोकारों, संवेदना के साथ अपनी लेखक की जिम्मेदारी का ईमानदारी से निर्वाह किया था .यह बात रेखांकित करने की बात है इन व्यंग्यकारों की एक लंबी फेहरिस्त है जो अपनी सामाजिक मानवीय सरोकारों और संवेदना के साथ समाज और जीवन के प्रति प्रतिबद्ध रहे.
21वीं सदी के आरंभ में भी सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियां लगभग बीसवीं सदी के समान है इसमें कोई खास बदलाव नहीं हुआ है. समाज में आज भी गरीबी, भूख, अकाल, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकट, भ्रष्टाचार, अपहरण ,बलात्कार, उपभोक्तावाद आतंकवाद आदि ने उन सभी विसंगतियों का विस्तार किया है, पर बीसवीं सदी के उत्तरार्ध के लेखकों ने 21वीं सदी में भी इन विसंगतियों को अपनी दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया.पर नई पीढ़ी विशेषकर 21वीं सदी के आरंभ की पीढ़ी जिन्होंने कुछ वर्षों पहले लेखन अपना आरंभ किया है.उनकी दृष्टि में ये विसंगतियां और बुराईयां गौड़ थी. पर उपरोक्त बुराईयों के साथ-साथ भारतीय जीवन और समाज में के परिदृश्य में धीरे-धीरे बहुत बदलाव दिख रहा था. जिसे हम महसूस कर सकते थे. राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य में धीरे-धीरे परिवर्तन हो रहा था. शिक्षा और स्वास्थ्य में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ.लोगों की जीवन शैली बदल गई.संयुक्त परिवार टूट कर एकल हो गए . इंटरनेट, बेबसाइट, फेसबुक आदि सोशल मीडिया ने सूचना माध्यम को सहज बना दिया.यह हमारी सामाजिक संरचना में प्रवेश कर गया. तकनीकी क्रांति ने लोगों की सोचने समझने की क्षमता को प्रभावित किया. इस तकनीकी प्रभाव ने लोगों को तकनीक का पराधीन बना दिया. इंटरनेट, वेबसाइट, सर्च इंजन सूचना के महत्वपूर्ण स्त्रोत हो गए.इसका प्रभाव लेखकों पर भी पड़ा. इस कारण लेखक धीरे-धीरे बाहर की दुनिया से अलग होने लगा.और वह मानवीय संवेदनाएं, सरोकार, आर्थिक,सामाजिक, राजनैतिक विसंगतियां लेखन के विषय छूटने लगे वैश्वीकरण, निजीकरण, बाजारवाद, के मायावी संसार में लेखक भी फंस कर रह गया. इस सदी के प्रारंभ की रचना देखें .तो आप खुद अनुभव करेंगे कि रचनाओं के विषय बदल गए हैं.मानवीय सामाजिक राजनैतिक विसंगतियों से बचकर लिखने लगा है.उसमें उसका अपना गुणा भाग रहता है.वह रचनाओं के माध्यम से अपना नफा नुकसान का बहीखाता रखता है.आज का व्यंग्यकार बहुत डरा हुआ है.वह बहुत संभलकर और सावधानी से लिख रहा है.वह ऐसे विषय पर लिखता है. जिसका सामाजिक राजनैतिक और मानवीय सरोकारों से कोई संबंध नहीं रहता है.इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है.पिछले दिनों बाजार में प्याज बहुत महंगी हो गई .सभी शहरों में ₹150 से लेकर ₹200 तक बिकी. बहुत से लेखकों ने प्याज की महंगाई पर व्यंग्य लिखें. जबकि उस वक्त भी बहुत सी ऐसी सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियां थी .जिस पर लेखक मौन रहा है.उसने साहस नहीं दिखाया. शाहीनबाग था, ,किसान आत्महत्या कर रहे थे. लड़कियों पर बलात्कार हो रहे थे नेताओं द्वारा धार्मिक प्रपंच कर रहे थे,आदि. पर इन पर व्यंग्यकारों के लेख नहीं आए. क्योंकि इस पर लिखना एक रिस्क लेना था.चाहे वह रिस्क सत्ता से हो या समाज से.
मोबाइल, कंप्यूटर क्रांति ने सिर्फ मनुष्य को नहीं बदला है, वरन उसमें उपभोक्ता संस्कृति ने विस्तार में सहयोग कर मनुष्यता को ही बदल दिया है. इसका प्रभाव लेखन पर बहुत सरलता से देखा जा सकता है.जीवन और समाज में व्याप्त विसंगतियों को धीरे धीरे ढका जा रहा है.एक नयी आभासी दुनिया का सृजन किया जा रहा है. एक नए प्रकार का लेखन सामने आ रहा है जिसे हम यथार्थवाद कह सकते हैं. इसके दुष्प्रभाव से साहित्य में यथार्थवाद की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है. यथार्थवाद ने हमारी वैचारिक शक्तियों को कमजोर सा कर दिया है,हमारी सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों को पीछे कर दिया है.उपभोक्ता संस्कृति से उपजे बाजारवाद ने इसमें आग में घी का काम किया है. इसके प्रमाण में एक ही बात कहना चाहता हूँ. इस समय के महत्वपूर्ण व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी भी बाजारवाद की शक्तिशाली भुजाओं से अपनों को नहीं बचा सके.विगत दिनों उनका उपन्यास “हम न मरब” में भारतीय ग्रामीण क्षेत्र की परंपरागत गालियों की भरमार थी. इसे हम सार्वजनिक, परिवार के साथ बैठकर पढ़ नहीं सकते हैं.जबकि इन गालियों से बचा जा सकता था.इन गालियों ने उपन्यास का बाजार बना दिया. लोगों ने इस संबंध में उनसे पूछा, तब उनका उत्तर था-“जिस पृष्ठभूमि में यह उपन्यास लिखा गया, उस क्षेत्र का परिवेश और पात्र इसी भाषा (गालियों वाली) का उपयोग करते हैं.इसे हम परिवार के बीच में जोर से बोल कर नहीं पढ़ सकते हैं क्योंकि हमारी सामाजिक और पारिवारिक मर्यादा भी है. जिनको हमें बचाए रखना पड़ता है.यथार्थवादी लेखन ,कहीं नहीं कहीं हमारी मूल्यों को नीचे ले जा रहा है. इसी तरह बाजार को सामने रखकर उन्होंने मार्फत लेखन के बहाने एक हमारे समय के महत्वपूर्ण और महान लेखक की छवि को यथार्थ वाद से धूमल करने का प्रयास किया.अब प्रश्न उठता है यथार्थवादी लेखन के माध्यम से आने वाली पीढ़ी और 21वीं सदी को हम क्या परोस रहे हैं.यह चिंतनीय और विचारणीय है.
तकनीक और सूचना के विस्तार ने लेखकों को पाठक तक पहुंचने का रास्ता आसान कर दिया है अब लेखक को जो प्लाट क्लिक किया उसे फटाफट लिखा और हड़बड़ी में व्हाट्सएप या फेसबुक में डाल दिया .जबकि व्यंग्य हड़बड़ी का लेखन नहीं है वरन जिम्मेदारी का है. पर लेखक आत्ममुग्धता वह लाइक ,अच्छी ,बढ़िया, सहमत आदि टिप्पणियों का इंतजार करता है. फिर इन टिप्पणियों को देख लेखक गदगद हो जाता है. पर यहां पर उसका नुकसान भी हो रहा है क्योंकि यहाँ लेखक और पाठक के बीच का संपादक गायब है और टिप्पणियाँ मुंह देखी होती है..लेखक में इतना संयम भी नहीं है.कि वह अपनी रचना का संपादन खुद कर सकें. इन माध्यमों से लेखक आत्ममुग्धता का शिकार हो रहा है.इससे व्यंग्य की गुणवत्ता पर सवाल उठने लगे हैं. यह लेखक और व्यंग्य के लिए चिंता का विषय है.
आज व्यंग्य बहुतायत से लिखा जा रहा है अखबारों पत्रिका में व्यंग्य स्तंभ जरूरी हो गया है पर उन्होंने पर कतर दिए है. अखबार और पत्रिकाओं ने लेखों को शब्द सीमा तक सीमित कर दिया .एक तरह व्यंग्य का बोनसाई बना दिया है. जो सुंदर और आकर्षक होते हैं. पर उनमें से उनकी आत्मा सुगंध और स्वाद गायब है.पर लेखक छपास के मोह में अपनी आत्मा से समझौता कर रहा है.अब तो वन लाइनर व्यंग्य का इंतजार हो रहा है.
इन सबके बावजूद व्यंग्य की उपरोक्त विसंगतियों के समांतर समाज में व्याप्त विसंगतियों प्रकृति और प्रवृत्तियों पर भी व्यंग्यकारों की दृष्टि है. और वे विसंगतियों को केंद्र में रख कर अपने लेखकीय दायित्व का निर्वाह कर रहे हैं. अभी 21वीं सदी सदी का मात्र दो दशक बीता है. इस समय में 21वीं सदी का पूरी तरह मूल्यांकन नहीं कर सकतेहैं. जो बीत गया है. वह भी पूरा 21वी सदी का सच नहीं है हां 21वीं सदी तकनीक के माध्यम से आगे बढ़ रही है और व्यंग्यकार की दृष्टि सब पर बराबर है.जोकि व्यंग्य के लिए आवश्यक है. अभी समय पहले ही व्यंग्ययात्रा के संपादक वरिष्ठ व्यंग्यकार डॉक्टर प्रेम जनमेजय की एक रचना आई थी “बर्फ का पानी” यह रचना आश्वस्त करती है कि भविष्य में व्यंग्य साहित्य की महत्वपूर्ण रचनाओं में से एक होगी .इसी तरह व्यंग्य में एक नये शिल्प के साथ ललित लालित्य ने धमाकेदार उपस्थिति दर्ज की है.
भविष्य के गर्भ में क्या है यह अभी कह नहीं सकते. पर जो अभी दिख रहा है.इस आधार पर समाज में व्याप्त विसंगतियों और विडम्नाओं के विरोध में रहकर आज का व्यंग्यकार अपने पूर्वजों की परम्परा से मुंह नहीं मोड़ेगा. क्योंकि वह पहले से अधिक साधन सम्पन्न है.