डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  एक सपूत का कपूत हो जाना। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 107 ☆

☆ व्यंग्य – ‘एक सपूत का कपूत हो जाना’

गप्पू लाल पप्पू लाल के सुपुत्र हैं। बाप की नज़र में गप्पू लाल सुपुत्र होने के साथ साथ ‘सपूत’ भी हैं क्योंकि वे घर के बाहर भले ही साँड़ की तरह सींग घुमाते हों, घर में गऊ बन कर रहते हैं। बाप के सामने इतने विनम्र और आज्ञाकारी बन जाते हैं कि बाप कुछ पूछते हैं तो इस तरह मिनमिनाकर जवाब देते हैं कि शब्द कान तक नहीं पहुँचते। कई बार बाप गुस्सा हो जाते हैं। कहते हैं, ‘क्या बकरी की तरह मिमियाता है। साफ साफ बोल।’ गप्पू लाल और ज़्यादा सिकुड़ जाते हैं। पुत्र की इस आज्ञाकारिता को देखकर पप्पू लाल गद्गद हो जाते हैं।

गप्पू लाल अपने लिए रूमाल भी नहीं ख़रीदते। चड्डी बनयाइन भी पिताजी ही ख़रीदते हैं। कपड़े-जूते जो बाप पसन्द कर लेते हैं, स्वीकार कर लेते हैं। बाप की अनुमति के बिना कहीं नहीं जाते। जहाँ के लिए बाप मना कर देते हैं, वहाँ नहीं जाते। जिस लड़के या लड़की को बाप दोस्ती के लायक नहीं समझते, उससे दोस्ती नहीं करते। अगर दोस्ती हो गयी तो उसे कभी घर नहीं बुलाते।

पप्पू लाल बड़े  किसान हैं। काफी ज़मीन है। आटा-चक्की और तेल-मिल है। गप्पू उनके इकलौते पुत्र हैं। तीन बेटियाँ शादी करके विदा हो चुकी हैं। गप्पू लाल तीस पैंतीस किलोमीटर दूर शहर में बी.ए. पढ़ रहे हैं। पढ़ने में सामान्य हैं लेकिन ज़्यादा पढ़ कर करना भी क्या है?

बाप की छत्रछाया में पल कर गप्पू लाल सयाने हो गये। ओठों पर मूँछों की रेख उभर आयी। बाप की नज़र में वे शादी के काबिल हो गये। पैसे वाली पार्टियाँ बाप को घेरने लगीं। जो सीधे गप्पू लाल तक पहुँचते उनसे गप्पू शर्मा कर कह देते, ‘बाबूजी जानें। हम क्या बतायें।’

पप्पू लाल ने एक दो जगह दहेज की अच्छी संभावनाओं को समझते हुए लड़की को देखने की सोची। पत्नी से बोले, ‘गप्पू तो अभी नालायक है। वह क्या लड़की देखेगा। हम तुम चल कर देख लेते हैं।’ गप्पू ने सुना तो मिनमिनाकर रह गये।

पप्पू लाल पत्नी को लेकर गये और दो तीन जगह देखकर एक जगह लड़की पसन्द कर आये। गप्पू लाल फोटो देखकर संतुष्ट हो गये। कॉलेज के दोस्तों को दिखाया। हर वक्त तकिये के नीचे रखे रहते थे।

शादी धूमधाम से हो गयी। पप्पू लाल बहू के साथ पर्याप्त माल-पानी लेकर लौटे। गप्पू लाल बीवी पाकर मगन हो गये। लेकिन बाप से उनका सुख नहीं देखा गया। एक दिन कुपित होकर बोले, ‘हो गयी शादी वादी। अब वापस कालेज जाकर पढ़ लिख। दिन रात बहू के पास घुसा रहता है। बेशरम कहीं का।’

गप्पू लाल गाँव से शहर खदेड़ दिये गये।  उनके ताजे ताजे बसे सुख के संसार में नेनुआँ लग गया। अब कॉलेज में पढ़ने में मन नहीं लगता था। किताब के हर पन्ने पर प्रिया का मुख बैठ गया था।

एक दिन कॉलेज में दो दिन की छुट्टी घोषित हो गयी। गप्पू लाल घर पहुँचने का बहाना ढूँढ़ रहे थे। सिर पर पैर रखकर भागे। दुर्भाग्य से एक दिन पहले हुई तेज़ बारिश के कारण शहर और गाँव के बीच के नाले में पूर आ गया था। रास्ता बन्द था। गप्पू ने एक मल्लाह के हाथ जोड़े और उसकी डोंगी पर बैठकर नाले की उत्ताल तरंगों पर उठते गिरते तुलसीदास की तरह आधी रात को घर पहुँचे। विरह-व्यथा में वे उस दिन जान पर खेल गये। घर पहुँचकर दरवाज़ा खटखटाया तो नींद में पड़े ख़लल से कुपित पिताजी ने दरवाज़ा खोला। दरवाज़े पर पुत्र को देखकर उन्होंने डपट कर पूछा, ‘इस वक्त कहाँ से आया है?’ गप्पू लाल मिनमिनाकर चुप हो गये।

पिताजी बोले, ‘अब आधी रात को सारे घर को जगाएगा। यहीं सोजा।’ उन्होंने गप्पू को अपने पास सुला लिया। गप्पू मन मसोसकर रह गये।

सबेरे पिताजी ने नाश्ता-पानी के बाद फिर शहर खदेड़ दिया। बोले, ‘तेरी अनोखी शादी हुई है क्या?बीवी के बिना नहीं रहा जाता?आगे इस तरह आया तो दरवाजे से ही भगा दूँगा।’

गप्पू लाल भारी मन से बैरंग वापस हो गये।

बहू डेढ़ दो महीने रहकर मायके विदा हो गयी। पप्पू लाल अब उसे दुबारा जल्दी नहीं बुलाना चाहते थे। वजह यह थी कि समधी साहब ने दहेज में एक ट्रैक्टर देने का वादा किया था जो अभी तक पूरा नहीं हुआ था। समधी साहब ने कहा था कि नंबर लगा है, जल्दी आ जाएगा। पप्पू लाल को डर था कि कहीं धोखाधड़ी न हो जाए, इसलिए वे चाहते थे कि अब बहू ट्रैक्टर के पीछे पीछे ही आये।

बहू को गये तीन चार महीने हो गये। समधी साहब बार बार विदा के बारे में पूछते। पप्पू लाल जवाब देते कि अभी मुहूर्त नहीं है। फिर यह भी पूछ लेते कि ट्रैक्टर कब तक मिलने की उम्मीद है। समधी साहब बात को समझ रहे थे, लेकिन मजबूर थे।

एक दिन समधी साहब का पत्र आया। पप्पू लाल पढ़कर आसमान से गिरे। समधी साहब ने लिखा था, ‘कुँवर साहब आये। चार दिन रहे। बहुत अच्छा लगा। इसी प्रकार आना जाना बना रहे।’

पप्पू लाल दो क्षण तो हतबुद्धि बैठे रहे, फिर गुस्से में फनफनाकर पत्नी से बोले, ‘यह देखो। यह जोरू का हमें बिना बताये ससुराल पहुँच गया। लिखा है कुँवर साहब आये थे। यह नालायक कुँवर नहीं, सुअर है।’

गुस्से में पागल शहर दौड़े गये। गप्पू की पेशी हुई—‘क्यों रे कुलबोरन!हमें बिना बताये ससुराल पहुँच गया?कुछ शर्म हया बाकी है या नहीं?’

गप्पू लाल ने मिनमिनाकर जो बताया उसका मतलब यह निकला कि वह तो घूमने बाँदकपुर गया था। वहाँ से ससुराल पास था, सोचा कुछ देर के लिए हो लें।

पप्पू लाल बोले, ‘हमें पढ़ाता है!कहाँ बाँदकपुर और कहाँ ससुराल। कुछ देर के लिए गये और चार दिन पड़े रहे। आगे हमसे बिना बताये गया तो हमसे बुरा कोई न होगा।’

आज्ञाकारी पुत्र ने सिर झुका लिया। डेढ़ दो महीने फिर बीत गये। पप्पू लाल बिना ट्रैक्टर हथियाये बहू को नहीं लाना चाहते थे। एक बार बाजी हाथ से गयी तो गयी। बेटे से इस मामले में सहयोग की कोई उम्मीद नहीं थी। अभी से बहू के लिए दीवाना हो रहा था।

फिर एक पत्र आ टपका। मज़मून वही कि कुँवर साहब फिर आये, बहुत अच्छा लगा। पन्द्रह दिन से टिके हैं। अभी कुछ दिन और रहेंगे। इसी तरह मेलजोल बना रहे।

पप्पू लाल माथा पकड़ कर बैठ गये। यह लड़का कंट्रोल में नहीं है। ऐसे ससुराल की तरफ भाग रहा है जैसे दुनिया में सिर्फ इसी की शादी हुई हो।

पत्नी से बोले, ‘इस लौंडे ने तो नाक कटा दी। उधर वाले क्या सोचते होंगे। लगता है घरजमाई बन कर बैठ जाएगा।’

पत्नी ने सलाह दी, ‘भलाई इसी में है कि लालच छोड़कर बहू को बुला लो। इकलौता लड़का है। हाथ से निकल गया तो बुढ़ापे में कौन सहारा देगा?’
पप्पू लाल ने सुनकर अनसुनी कर दी।

पन्द्रह दिन बाद फिर पत्र आया। लिखा था—‘कुँवर साहब बेटी अंजना को विदा कराके ले गये हैं। कह रहे थे कि आपसे पूछ लिया है। सकुशल पहुँच गये होंगे। कुशल समाचार दें।’

पप्पू लाल बदहवास शहर भागे। शाम को थके हारे, उदास लौटे। पत्नी को बताया, ‘उस बेशरम ने पहले ही एक किराये का मकान ले लिया था। हमें बताया नहीं था। तीन चार दिन में आएगा। बिलकुल ढीठ हो गया है। उसकी हिम्मत तो देखो।’

फिर समधी साहब को पत्र लिखा—

‘परमप्रिय समधी साहब, आपका पत्र मिला। चि.गप्पू लाल और बहू सकुशल पहुँच गये हैं। चिन्ता की कोई बात नहीं।
ट्रैक्टर मिलते ही खबर करें। खबर मिलते ही मैं यहाँ से ड्राइवर भेज दूँगा। आप पर पूरा भरोसा है। अपने वचन की रक्षा करें ताकि हमारे संबंध और गाढ़े हों।

                                    आपका समधी,

                                      पप्पू लाल’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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