हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…5 (2) – मोह ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी  “मैं” की यात्रा का पथिक…5 – मोह (2)”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक… 5 – मोह (2) ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

संसार में आस्था के आधार पर लोगों का वर्गीकरण तीन भागों में किया जाता है- आस्तिक (Theist), नास्तिक (Atheist) और यथार्थवादी (Agnostic) जिसे अज्ञेय वाद भी कहा जाता है। वास्तविकता यह है कि अधिकांश लोग जानते ही नहीं हैं कि वे पूरी तरह आस्तिक हैं या नास्तिक। ऐसे लोगों को अज्ञेयवादी कहा जा सकता है।

“मैं” को आत्म चिंतन से पहले यह निर्णय करना चाहिए कि उसकी आस्था ईश्वर में है या नहीं या वह दोनों याने ईश्वर में आस्था और अनास्था को नकारता है। एक बार यह निर्णय हो जाए तो “मैं” की यात्रा कुछ आसान होने लगती है। वर्तमान जीवन की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि हम सर्कस के झूलों में कभी आस्तिक झूला पकड़ते हैं, कभी नास्तिक झूले में झूलते हैं और कभी अज्ञेयवादी रस्सी की सीढ़ी पर टंग जाते हैं। आगे बढ़ने के पूर्व निर्णय करना होगा कि हमारी आस्था का स्तर क्या है ?

पहले हम आस्तिकवादी के मोह से निकलने पर बात करेंगे। आस्तिकवादी को मोह से निकलना थोड़ा सरल है। आस्तिकवादी वह है जिसका ईश्वरीय सत्ता में अक्षुण्य विश्वास है। सनातन परम्परा अनुसार प्रत्येक जीवित में जड़ अर्थात पंचभूत प्रकृति और चेतन याने आत्मा-परमात्मा का अंश जीव रूप में विद्यमान है। आत्मा कभी नष्ट नहीं होती सिर्फ़ चोला बदलती है। पिछले जन्म के संस्कार नए जीवन की रूपरेखा तैयार कर देते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि “मैं” एक अविनाशी सत्ता का प्रतिनिधि है। उसी सत्ता से आया है और उसी सत्ता में विलीन हो जाएगा। उसने अपने सभी ऋणों के निपटान हेतु अनिवार्य कर्तव्यों का निर्वाह कर दिया है। कर्तव्यों के निर्वाह में उसे मोह की आवश्यकता थी-वह मोह यंत्र का अनिवार्य हिस्सा था, नहीं तो जैविकीय दायित्वों का निर्वाह नहीं कर सकता था।

“मैं” की जीविका निर्वाह में सबसे महत्वपूर्ण उसकी देह थी। उसका देह से मोह स्वाभाविक था। लेकिन वह तो पाँच प्राकृतिक तत्वों की देन है। “मैं” नहीं था तब भी प्राकृतिक तत्व थे। “मैं” नहीं रहेगा तब भी वे रहेंगे। अब देह जीर्ण शीर्ण दशा को प्राप्त होने लगी है। उसके रखरखाव के अलावा अन्य किसी प्रकार की आसक्ति की ज़रूरत देह को नहीं है। उसका पंचतत्व में विलीन होना अवश्य संभावी है, उस प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। जिसका नष्ट अटलनीय है-उससे मोह कैसा। यही तर्क धन, व्यक्ति, स्थान, सम्मान, यश सभी पर लागु होता है। ये सभी ही नहीं, बल्कि पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा, ग्रह, तारे याने समस्त ब्रह्मांड नश्वर है। “मैं” की सत्ता उनके सामने बहुत तुच्छ है? “मैं” को मोह से मुक्त होना ही एकमात्र उपाय है। ताकि वह शांतचित्त हो ईश्वरीय प्रेम में मगन हो सके। इस तरह अस्तित्ववादी “मैं” की यात्रा थोड़ी आसान है।

अस्तित्ववादी “मैं” की यात्रा एक और अर्थ में आसान है। ईश्वर में विश्वास होने से उसका पुनर्जन्म में भी भरोसा रहता है। यह देह नष्ट हो रही है तो नई देह उसकी राह देख रही है। फिर एक नए सिरे से इंद्रियों भोग की लालसा और कामना उसे दिलासा सा देती हैं। यह सब ईश्वरीय विधान है। वह ऐसा सोचकर शांत चित्त स्थिति को प्राप्त करता रह सकता है। अनस्तित्व वादी की स्थिति इसकी तुलना में कष्टप्रद होती है।

नास्तिकता अथवा नास्तिकवाद या अनीश्वरवाद (Atheism), वह सिद्धांत है जो जगत् की सृष्टि, संचालन और नियंत्रण करनेवाले किसी भी ईश्वर के अस्तित्व को सर्वमान्य प्रमाण के न होने के आधार पर स्वीकार नहीं करता। (नास्ति = न + अस्ति = नहीं है, अर्थात ईश्वर नहीं है।) नास्तिक लोग भगवान के अस्तित्व का स्पष्ट प्रमाण न होने कारण झूठ करार देते हैं। अधिकांश नास्तिक किसी भी देवी देवता, परालौकिक शक्ति, धर्म और आत्मा को नहीं मानते। भारतीय दर्शन में नास्तिक शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।

(1) जो लोग वेद को प्रमाण नहीं मानते वे नास्तिक कहलाते हैं। इस परिभाषा के अनुसार बौद्ध और जैन मतों के अनुयायी नास्तिक कहलाते हैं। ये दोनो दर्शन ईश्वर या वेदों पर विश्वास नहीं करते इसलिए वे नास्तिक दर्शन कहे जाते हैं।

(2) जो लोग परलोक और मृत्युपश्चात् जीवन में विश्वास नहीं करते; इस परिभाषा के अनुसार केवल चार्वाक दर्शन जिसे लोकायत दर्शन भी कहते हैं, भारत में नास्तिक दर्शन कहलाता है और उसके अनुयायी नास्तिक कहलाते हैं।

(3) ईश्वर में विश्वास न करनेवाले नास्तिक कई प्रकार के होते हैं। घोर नास्तिक वे हैं जो ईश्वर को किसी रूप में नहीं मानते। चार्वाक मतवाले भारत में और रैंक एथीस्ट लोग पाश्चात्य देशें में ईश्वर का अस्तित्व किसी रूप में स्वीकार नहीं करते।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #63 – गैर हाज़िर कन्धे ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #63 – गैर हाज़िर कन्धे ☆ श्री आशीष कुमार

विश्वास साहब अपने आपको भागयशाली मानते थे। कारण यह था कि उनके दोनो पुत्र आई.आई.टी. करने के बाद लगभग एक करोड़ रुपये का वेतन अमेरिका में प्राप्त कर रहे थे। विश्वास साहब जब सेवा निवृत्त हुए तो उनकी इच्छा हुई कि उनका एक पुत्र भारत लौट आए और उनके साथ ही रहे; परन्तु अमेरिका जाने के बाद कोई पुत्र भारत आने को तैयार नहीं हुआ, उल्टे उन्होंने विश्वास साहब को अमेरिका आकर बसने की सलाह दी। विश्वास साहब अपनी पत्नी भावना के साथ अमेरिका गये; परन्तु उनका मन वहाँ पर बिल्कुल नहीं लगा और वे भारत लौट आए।

दुर्भाग्य से विश्वास साहब की पत्नी को लकवा हो गया और पत्नी पूर्णत: पति की सेवा पर निर्भर हो गई। प्रात: नित्यकर्म से लेकर खिलाने–पिलाने, दवाई देने आदि का सम्पूर्ण कार्य विश्वास साहब के भरोसे पर था। पत्नी की जुबान भी लकवे के कारण चली गई थी। विश्वास साहब पूर्ण निष्ठा और स्नेह से पति धर्म का निर्वहन कर रहे थे।

एक रात्रि विश्वास साहब ने दवाई वगैरह देकर भावना को सुलाया और स्वयं भी पास लगे हुए पलंग पर सोने चले गए। रात्रि के लगभग दो बजे हार्ट अटैक से विश्वास साहब की मौत हो गई। पत्नी प्रात: 6 बजे जब जागी तो इन्तजार करने लगी कि पति आकर नित्य कर्म से निवृत्त होने मे उसकी मदद करेंगे। इन्तजार करते करते पत्नी को किसी अनिष्ट की आशंका हुई। चूँकि पत्नी स्वयं चलने में असमर्थ थी, उसने अपने आपको पलंग से नीचे गिराया और फिर घिसटते हुए अपने पति के पलंग के पास पहुँची।

उसने पति को हिलाया–डुलाया पर कोई हलचल नहीं हुई। पत्नी समझ गई कि विश्वास साहब नहीं रहे। पत्नी की जुबान लकवे के कारण चली गई थी; अत: किसी को आवाज देकर बुलाना भी पत्नी के वश में नहीं था। घर पर और कोई सदस्य भी नहीं था। फोन बाहर ड्राइंग रूम मे लगा हुआ था। पत्नी ने पड़ोसी को सूचना देने के लिए घसीटते हुए फोन की तरफ बढ़ना शुरू किया। लगभग चार घण्टे की मशक्कत के बाद वह फोन तक पहुँची और उसने फोन के तार को खींचकर उसे नीचे गिराया। पड़ोसी के नंबर जैसे तैसे लगाये।

पड़ौसी भला इंसान था, फोन पर कोई बोल नहीं रहा था, पर फोन आया था, अत: वह समझ गया कि मामला गंभीर है। उसने आस– पड़ोस के लोगों को सूचना देकर इकट्ठा किया, दरवाजा तोड़कर सभी लोग घर में घुसे। उन्होने देखा -विश्वास साहब पलंग पर मृत पड़े थे तथा पत्नी भावना टेलीफोन के पास मृत पड़ी थी। पहले विश्वास और फिर भावना की मौत हुई। जनाजा दोनों का साथ–साथ निकला।

पूरा मोहल्ला कंधा दे रहा था परन्तु दो कंधे मौजूद नहीं थे जिसकी माँ–बाप को उम्मीद थी। शायद वे कंधे करोड़ो रुपये की कमाई के भार से पहले ही दबे हुए थे।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 77 – मन ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 77 – मन ☆

नको नको रे तू मना

मना असा उगा धावू।

धावुनिया विचारांना

विचारांची वाण लावू।

 

लावी न्याय, निती थोडी

थोडी कष्टाप्रती गोडी।

गोडी अवीट सत्याची

सत्यासंगे धर्म जोडी।

 

जोडी मनांची शृंखला

शृंखलेत गुंफी  मोती।

मोती विचारांचे लाखो

लाखो पेटतील ज्योती।

 

ज्योतीच्या या प्रकाशाने

प्रकाशित  अंतरंग ।

अंतरंग शुद्ध ठेवी।

ठेवी दूर ते असंग।

 

असंगाचे मृगजळ

मृगजळ भासमान।

भासमान दिवा स्वप्नी

वास्तवाचे ठेवी भान

 

भान हरपूनी काम

कामामधे शोधी राम।

राम भेटता जीवनी

जीवनच चारी धाम।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 104 ☆ अहं, क्रोध, काम व लोभ ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख अहं, क्रोध, काम व लोभ। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 104 ☆

☆ अहं, क्रोध, काम व लोभ ☆

‘अहं त्याग देने से मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है; क्रोध छोड़ देने पर वह शोक रहित हो जाता है; काम का त्याग कर देने पर धनवान हो जाता है और लोभ छोड़ देने पर सुखी हो जाता है’– युधिष्ठिर की यह उक्ति विचारणीय है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है क्योंकि जब तक उसमें ‘मैं’ अथवा कर्त्ता का भाव रहेगा, तब तक उसके लिए उन्नति के सभी मार्ग बंद हो जाते हैं। जब तक उसमें यह भाव रहेगा कि मैंने ऐसा किया और इतने पुण्य कर्म किए हैं, तभी यह सब संभव हो सका है। ‘जब ‘मैं’ यानि अहंकार जाएगा, मानव स्वर्ग का अधिकारी बन पाएगा और उसे इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी’– प्रख्यात देवाचार्य महेंद्रनाथ का यह कथन अत्यंत सार्थक है। अहंनिष्ठ व्यक्ति किसी का प्रिय नहीं हो सकता और कोई भी उससे बात तक करना पसंद नहीं करता। वह अपने द्वीप में कैद होकर रह जाता है, क्योंकि सर्वश्रेष्ठता का भाव उसे सबसे दूर रहने पर विवश कर देता है।

वैसे तो किसी से उम्मीद रखना कारग़र नहीं है। ‘परंतु यदि आप किसी से उम्मीद रखते हैं, तो एक न एक दिन आपको दर्द ज़रूर होगा, क्योंकि उम्मीद एक न एक दिन अवश्य टूटेगी और जब यह टूटती है, तो बहुत दर्द होता है’– विलियम शेक्सपियर यह कथन अनुकरणीय है। जब मानव की इच्छाएं पूर्ण होती है, तो वह दूसरों से सहयोग की उम्मीद करता है, क्योंकि सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं होती। उस स्थिति में जब हमें दूसरों से अपेक्षित सहयोग प्राप्त नहीं होता, तो मानव हैरान-परेशान हो जाता है और जब उम्मीद टूटती है तो बहुत दर्द होता है। सो! मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं, ख़ुद से करनी चाहिए और अपने परिश्रम पर भरोसा रखना चाहिए… उसे सफलता अवश्य प्राप्त होती है। इसलिए मानव तो खुली आंखों से सपने देखने का संदेश दिया गया है और उसे तब तक चैन से नहीं बैठना चाहिए; जब तक वे साकार न हो जाएं–अब्दुल कलाम की यह सोच अत्यंत सार्थक है। यदि मानव दृढ़-प्रतिज्ञ व आत्म-विश्वासी है; कठिन परिश्रम करने में विश्वास करता है, तो वह भीषण पर्वतों से भी टकरा सकता है और अपनी मंज़िल पर पहुंच सकता है।

‘यदि तुम ख़ुद को कमज़ोर समझते हो, तो तुम कमज़ोर हो जाओगे; अगर ख़ुद को ताकतवर सोचते हो, तो तुम ताकतवर हो जाओगे’– विवेकानंद की यह उक्ति इस तथ्य पर प्रकाश डालती है कि मन में अलौकिक शक्तियाँ विद्यमान है। वह जैसा सोचता है, वैसा बन जाता है और वह सब कर सकता है, जिसकी कल्पना भी उसने कभी नहीं की होती। ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ दूसरे शब्दों में मानव स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। इसलिए कहा जाता है कि असंभव शब्द मूर्खों की शब्दकोश में होता है और बुद्धिमानों से उसका दूर का नाता भी नहीं होता। इसी संदर्भ में मैं इस तथ्य पर प्रकाश डालना चाहूंगी कि प्रतिभा जन्मजात होती है उसका जात-पात, धर्म आदि से कोई संबंध नहीं होता। वास्तव में प्रतिभा बहुत दुर्लभ होती है और प्रभु-प्रदत्त होती है। दूसरी और शास्त्र ज्ञान व अभ्यास इसके पूरक हो सकते हैं। ‘करत- करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ अर्थात् अभ्यास करने पर मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है। जिस प्रकार पत्थर पर अत्यधिक पानी पड़ने से वे अपना रूपाकार खो देते हैं, उसी प्रकार शास्त्राध्ययन द्वारा मर्ख अर्थात् अल्पज्ञ व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है। स्वामी रामतीर्थ जी के मतानुसार ‘जब चित्त में दुविधा नहीं होती, तब समस्त पदार्थ ज्ञान विश्राम पाता है और दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है।’ सो! संशय की स्थिति मानव के लिए घातक होती है और ऐसा व्यक्ति सदैव ऊहापोह की स्थिति में रहने के कारण अपने मनचाहे लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता।

इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रहा है हज़रत इब्राहिम का प्रसंग, जिन्होंने एक गुलाम खरीदा तथा उससे उसका नाम पूछा। गुलाम ने उत्तर दिया – ‘आप जिस नाम से पुकारें, वही मेरा नाम होगा मालिक।’ उन्होंने खाने व कपड़ों की पसंद पूछी, तो भी उसने उत्तर दिया ‘जो आप चाहें।’ राजा के उसके कार्य व इच्छा पूछने पर उसने उत्तर दिया–’गुलाम की कोई इच्छा नहीं होती।’ यह सुनते ही राजा ने अपने तख्त से उठ खड़ा हुआ और उसने कहा–’आज से तुम मेरे उस्ताद हो। तुमने मुझे सिखा दिया कि सेवक को कैसा होना चाहिए।’ सो! जो मनुष्य स्वयं को प्रभु के चरणों में समर्पित कर देता है, उसे ही दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है।

क्रोध छोड़ देने पर मनुष्य शोक रहित हो जाता है। क्रोध वह अग्नि है, जो कर्त्ता को जलाती है, उसके सुख-चैन में सेंध लगाती है और प्रतिपक्ष उससे तनिक भी प्रभावित नहीं होता। वैसे ही तुरंत प्रतिक्रिया देने से भी क्रोध द्विगुणित हो जाता है। इसलिए मानव को तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए, क्योंकि क्रोध एक अंतराल के पश्चात् शांत हो जाता है। यह तो दूध के उफ़ान की भांति होता है; जो पल भर में शांत हो जाता है। परंतु यह मानव के सुख, शांति व सुक़ून को मगर की भांति लील  जाता है। क्रोध का त्याग करने वाला व्यक्ति शांत रहता है और उसे कभी भी शोक अथवा दु:ख का सामना नहीं करना पड़ता। काम सभी बुराइयों की जड़ है। कामी व्यक्ति में सभी बुराइयां शराब, ड्रग्स, परस्त्री- गमन आदि बुराइयां स्वत: आ जाती हैं। उसका सारा धन परिवार के इतर इनमें नष्ट हो जाता है और वह अक्सर उपहास का पात्र बनता है। परंतु इन दुष्प्रवृत्तियों से मुक्त होने पर वह शरीर से हृष्ट-पुष्ट, मन से बलवान् व धनी हो जाता है। सब उससे प्रेम करने लगते हैं और वह सबकी श्रद्धा का पात्र बन जाता है।

आइए! हम चिन्तन करें– क्या लोभ का त्याग कर देने के पश्चात् मानव सुखी हो जाता है? वैसे तो प्रेम की भांति सुख बाज़ार से खरीदा ही नहीं  जा सकता। लोभी व्यक्ति आत्म-केंद्रित होता है और अपने इतर किसी के बारे में नहीं सोचता। वह हर इच्छित वस्तु को संचित कर लेना चाहता है, क्योंकि वह केवल लेने में विश्वास रखता है; देने में नहीं। उसकी आकांक्षाएं सुरसा के मुख की भांति बढ़ती चली जाती हैं, जिनका खरपतवार की भांति कोई अंत नहीं होता। वैसे भी आवश्यकताएं तो पूरी की जा सकती हैं, इच्छाएं नहीं। इसलिए उन पर अंकुश लगाना आवश्यक  है। लोभ व संचय की प्रवृत्ति का त्याग कर देने पर वह आत्म-संतोषी जीव हो जाता है। दूसरे शब्दों में वह प्रभु द्वारा प्रदत्त वस्तुओं से संतुष्ट रहता है।

अंत में मैं कहना चाहूंगी कि जो मनुष्य अहं, काम, क्रोध व लोभ पर विजय प्राप्त कर लेता है; वह सदैव सुखी रहता है। ज़माने भर की आपदाएं उसका रास्ता नहीं रोक सकतीं। वह सदैव प्रसन्न-चित्त रहता है। दु:ख, तनाव, चिंता, अवसाद आदि उसके निकट आने का साहस भी नहीं जुटा पाते। ख़लील ज़िब्रान के शब्दों में ‘प्यार के बिना जीवन फूल या फल के बिना पेड़ की तरह है।’ ‘प्यार बांटते चलो’ गीत भी इसी भाव को पुष्ट करता है। इसलिए जो कार्य- व्यवहार स्वयं को अच्छा न लगे; वैसा दूसरों के साथ न करना ही सर्वप्रिय मार्ग है–यह सिद्धांत चोर व सज्जन दोनों पर लागू होता है। महात्मा बुद्ध की भी यही सोच है। स्नेह, प्यार त्याग, समर्पण वे गुण हैं, जो मानव को सब का प्रिय बनाने की क्षमता रखते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 55 ☆ रिश्तों में खटास ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख  “रिश्तों में खटास”.)

☆ किसलय की कलम से # 55 ☆

☆ रिश्तों में खटास ☆

दुनिया का हर इन्सान रिश्तों में बँधा होता है। ये बन्धन आपसी सुख-दुख, त्याग-समर्पण व प्रेम-भाईचारे को मजबूती प्रदान करते हैं। खून के रिश्ते हों, प्रेम के रिश्ते हों अथवा वैवाहिक, व्यावसायिक, सामाजिक सरोकारों के हों, सभी में एकता और आदान-प्रदान का सकारात्मक ध्यान रखा जाता है। खून के रिश्ते सबसे सुदृढ होते हैं। इन रिश्तों में बँधे लोग एक-दूसरे का हर तरह से ध्यान रखते हैं। खून के रिश्तों के निर्वहन में लोग अपनी जान की बाजी तक लगा देते हैं। वैवाहिक रिश्ते भी दूध-शक्कर का मिला स्वरूप होते हैं। सामाजिक रिश्तों में भी वजन होता है। दोस्ती के रिश्तों की तो मिसालें दी जाती हैं।

दुनिया में रिश्तों की जहाँ अहमियत होती है वहीं रिश्तों में खटास के चर्चे भी कम नहीं होते। कभी वास्तविकता, कभी झूठ, कभी भ्रम अथवा अन्य कारणों से रिश्तों में खटास या दरारें पड़ जाती हैं। कभी कभी इनका अलगाव इतना अधिक बढ़ जाता है कि पुनः आजीवन जुड़ाव नहीं होता। रिश्तों में खटास के विविध कारण हो सकते हैं। इस खटास की वजह से लड़ाई, झगड़े यहाँ तक कि हत्यायें भी हो जाती हैं। कभी कभी अलगाव की अवधि इतनी लंबी होती है कि लोगों को बहुत बड़ी क्षति भी उठाना पड़ती है। इन सबके अतिरिक्त रिश्तों के बीच ‘अहम’  भी इन अलगाव में अपनी  विशिष्ट भूमिका का निर्वहन करता है।

रिश्तों की खटास उभय पक्षों के लिए हानिकारक होती है। ये हानि व्यवहारिक, आर्थिक, व्यावसायिक होने के साथ-साथ मानसिक भी होती है। ये हानि कभी कभी तो आदमी का जीवन तक तबाह कर देती है। कुछ अप्रत्याशित हानि भी लोगों का संतुलन बिगाड़ती है। दुनिया में खून के रिश्ते एक बार ही जन्म लेते हैं। इन रिश्तों की टूटन बेहद पीड़ादायक होती है। दोनों पक्ष कभी कभी अहम के वशीभूत हो झुकना ही नहीं चाहते और सारी जिंदगी पीड़ा भोगते रहते हैं। ये ऐसी पीड़ा होती है जो आदमी की आखरी साँस तक साथ नहीं छोड़ती।

इंसान में बुद्धि व विवेक दोनों होते हैं लेकिन पता नहीं क्यों परिस्थितिजन्य खटास या अलगाव समाप्त करने की बात पर प्रायः उसका सदुपयोग नहीं करते। शायद इसके आड़े उनका अहम अथवा स्वार्थ ही आता होगा। कुछ भी हो एक इंसान को इसका निराकरण समय रहते अवश्य कर लेना चाहिए अन्यथा उसे इसकी पीड़ा जीवन भर भोगना पड़ सकती है।

हम इंसान हैं। ईश्वर की असीम कृपा से हमारा इस जग में जन्म हुआ है। इंसानियत के नाते हमें धैर्य, धर्म, संतोष, परोपकार व भाईचारे की राह पर चलना चाहिए। हमारे न रहने पर भी लोग हमारे सत्कर्मों की चर्चा करें, हमें ऐसे कर्म और व्यवहार के मानदण्ड स्थापित करना होंगे। लोगों के दुराचरण उनको पतन और अमानवीयता के रास्ते पर ले जाते हैं और आपके सदाचरण आपको श्रेष्ठ बनाते हैं। आपकी श्रेष्ठता, आपके परिवार, समाज और व्यवहारिक जीवन को सार्थक बनाती है। इसलिये कभी भी रिश्तों में खटास न आये, हमे सदैव सजग रहना होगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 103 ☆ भावना के दोहे –  चाँदनी ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे –  चाँदनी। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 103 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे –  चाँदनी ☆

छिटक रही है चाँदनी,   हैं पूनम की रात।

यहाँ वहाँ कहती फिरे, अपने दिल की बात।।

 

सजन गए परदेश को, बीते बारह मास।

तुम बिन मन लगता नहीं, कब आओगे पास।।

 

शरद आगमन हो गया,  खिली चाँदनी रात।

ठंडक दस्तक दे रही,  चली गई बरसात।।

 

शरद पूर्णिमा आज है,  देती है सौगात।

कर लो प्रभु से वंदना,  कह लो अपनी बात।।

 

शीतल आँखों से बहा, है निर्झर सा नीर।

मेरे मन को हो रही, देखो कैसी पीर।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 92 ☆ लेना है तो देना सीखो  ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता लेना है तो देना सीखो । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 92 ☆

☆ लेना है तो देना सीखो ☆

लेना है तो देना सीखो

साथ सत्य के रहना सीखो

लेना है तो देना सीखो

 

स्वार्थ भरा है रग रग में

खड़ी है लालसा पग पग में

त्याग कभी कुछ करना सीखो

लेना है तो देना सीखो

 

लोभ मोह ने आके घेरा

दिल में है बस तेरा मेरा

दान-धरम भी करना सीखो

लेना है तो देना सीखो

 

दिल में प्रेम बसेरा कर लो

तम को मार सबेरा कर लो

दुख औरों के हरना सीखो

लेना है तो देना सीखो

 

दीन-दुखी की सेवा करिये

मानवता ना कभी बिसरिये

दिल में धीरज धरना सीखो

लेना है तो देना सीखो

 

जीना है तो मरना सीखो

कदम कदम पर लड़ना सीखो

साथ सत्य के चलना सीखो

लेना है तो देना सीखो

 

दिल में गर “सतोष” रहेगा

सुख-शांति का कोष रहेगा

राह धर्म की चलना सीखो

लेना है तो देना सीखो

साथ सत्य के चलना सीखो

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 93 – दिलाची सलामी. . . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 93 – विजय साहित्य ?

☆ दिलाची सलामी. . . . ! कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

बसा सावलीला, जिवा शांतवाया

शिवारात माझ्या, रूजे बापमाया .

परी बापमाया, कशी आकळेना ?

दिठीला दिठीची, मिठी सोडवेना.

 

घरे चंद्रमौळी, तुझ्या काळजाची

तिथे माय माझी, तुला साथ द्याची

मनाच्या शिवारी ,सुगी आसवांची

तिथे सांधली तू, मने माणसांची.

 

जरी दुःख  आले, कुणा गांजवाया

सुखे बाप धावे , तया घालवाया

किती भांडलो ते, क्षणी आठवेना

परी याद त्याची, झणी सांगवेना.

 

कुणा भोवलेली , कुणी भोगलेली

सदा ती गरीबी, शिरी खोवलेली .

कधी ऊत नाही, कधी मात नाही

शिळ्या भाकरीची,  कधी लाज नाही.

 

कधी साहिली ना , कुणाची गुलामी

झुके नित्य माथा, सदा रामनामी .

सणाला सुगीला , तुझा देह राबे

तरी सावकारी, असे पाश मागे .

 

जरी वाहिली रे , नदी आसवांची

तिथे नाव येई , तुझ्या आठवांची

गरीबीतही तू , दिले सौख्य नामी

तुला बापराजा , दिलाची सलामी.

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! फिटनेसचा फ़ंडा ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

? चं म त ग ! ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

? फिटनेसचा फ़ंडा ! ?

“गुडमॉर्निंग पंत !”

“नमस्कार, पण आज तुझा आवाज एकदम रडवेला का आणि खांदा कशाला चोळतोयस तुझा ?”

“काठी लागली पंत, डोक्याच खांद्यावर निभावलं, तुमच्यकडे आयोडेक्स असेल तर द्या जरा.”

“देतो देतो, पण सकाळी सकाळी बायको बरोबर भांडण…. “

“नाही हो पंत, जोशी काकूंची काठी लागली.”

“जोशी काकूंची काठी तुला कशी काय लागली ?”

“अहो हा सगळा त्या केळकर काकांचा फिटनेस फ़ंडयाचा प्रताप.”

“आता यात केळकर कुठून आला ?”

“सांगतो सांगतो. तुम्हाला माहीतच आहे सध्या सगळ्या जिम वगैरे बंद आहेत आणि सगळेच आपापल्या घरी अडकल्यामुळे… “

“तू मूळ मुद्यावर ये आधी, उगाच पाल्हाळ नकोय.”

“हां, तर घर बसल्या आणि चाळीत फिरून करायचे काही व्यायाम प्रकार केळकर काकांनी काही लोकांना शिकवले.”

“बर, पण त्यात जोशीणीचा काय संबंध ?”

“पंत केळकरांनी जोशी काकूंना शाखेत जसे काठीचे हात फिरवायला शिकवतात तसे काही प्रकार शिकवले.”

“पण तिच्या काठीचा आणि तुझ्या खांद्याचा… “

“अहो पंत त्याच काय झालं, आता जोशी काकू चाळभर,  धुण्याची काठी घेऊन दोन्ही हाताने फिरवत फिरत असतात.”

“काय सांगतोस काय, अख्ख्या चाळभर ?”

“हो ना आणि त्यांच्या काठीचा प्रसाद माझ्या प्रमाणेच अनेकांना बसून चाळीत

भांडणांचे जंगी सामने सुरु झालेत.”

“अरे बापरे !”

“इतकंच नाही काकूंच्या काठीने चाळीतले यच्चयावत सार्वजनिक दिवे पण फुटले ते वेगळेच.”

“काय बोलतोयस काय ? सगळे सार्वजनिक दिवे… “

“फुटले आणि त्यावरून होणारी चाळकऱ्यांची भांडणं सोडवता सोडवता, माझ डोक फुटायची पाळी आल्ये.”

“बर बर, मी असं करतो तुला आयोडेक्स बरोबर अमृतांजन पण देतो मग तर झालं ?”

“पंत इथे माझी काय हालत झाल्ये आणि तुम्हाला विनोद सुचतायत !”

“यात कसला विनोद, तुझ्या दुखऱ्या खांद्यासाठी आयोडेक्स मागायला तूच आला होतास आणि आता तुझ लोकांच्या भांडणामुळे डोक फुटायची वेळ आल्ये म्हणालास म्हणून मी तुला आपणहून अमृतांजन.. “

“खरच आहे ते, अमृतांजन पण लागेलच मला, कारण तुम्हाला अजून बर्वे काका आणि साने काकांच्या भांडणा बद्दल… “

“आता ते दोघे कशाला भांडले एकमेकाशी ?”

“इथे पण केळकर काकांचा  फिटनेस फ़ंडाच कारण झाला.”

“तो कसा काय ? “

“पंत त्यांच्या फिटनेस फ़ंडयात  दोरीच्या उडया पण होत्या.”

“हो, तो पण एक चांगला घरगुती व्यायाम प्रकार आहे खरा.”

“पंत, सानेकाका त्यांच्या घरात दोरीच्या उडया मारत होते आणि त्याच वेळेस खालच्या मजल्यावरचे बर्वेकाका जेवत होते !”

“म्हणजे दोघेही आपापल्या घरीच होते ना, मग भांडणाचा संबंध आला कुठे ?”

“अहो पंत साने उडया मारायला लागले की खाली बर्व्यांच्या ताटात त्यांच्या सिलिंगची माती पडायची !”

“अरे चाळीस वर्षात चाळ खिळखिळी झाल्यावर सिलिंग मधून माती नाहीतर काय सोन  पडणार आहे ? तूच विचार कर म्हणजे झालं.”

“हो बरोबरच आहे पण त्यामुळे बर्वे काकू आल्या माझ्याकडे तणतणत. मी काकूंना म्हटलं, बर्वे काकांना ताट घेऊन दुसरीकडे बसून जेवायला सांगा.”

“बरोबर आहे तुझ, मग ?”

“त्यावर बर्वे काकू मला म्हणतात कशा ‘ती ह्यांची जेवायला बसायची रोजची जागा आहे, दुसरीकडे बसून जेवलं तर त्यांना जेवण जात नाही’ आता बोला ?”

“अरे बापरे, असं म्हणाली बरवीण ?”

“हो ना, वर मला सांगायला लागल्या ‘तूच सान्याला सांग उडया मारायची त्यांची जागा बदलायला’ आणि गेल्या तरातरा निघून घरी.”

“मग तू काय केलंस ?”

“काय करणार, गेलो साने काकांकडे, झाला प्रकार सांगून त्यांना म्हटलं, तुम्ही प्लीज जरा तुमची दोरीच्या उडया मारायची जागा बदलता का ?”

“मग काय म्हणाला सान्या?”

“साने काका म्हणाले ‘मी माझ्या घरात कुठ उडया मारायच्या आणि कुठे नाही हे मला सांगायचा कुणाला अधिकार नाही. तूच बर्व्याला त्याची जेवायची जागा बदलायला सांग.’ असं म्हणून माझ्या तोंडावर धाडकन दार लावले त्यांनी.”

“फारच पंचाईत झाली असेल ना तुझी त्या वेळेस.”

“हो ना, दोघेही वयाने मोठे आणि हट्टाला पेटलेले.”

“मग कसा काय मार्ग काढलास त्यातून तू ?”

“मार्ग कसला काढतोय, घरी येवून मस्त ताणून दिली. पण पाच मिनिट आडवा पडतोय न पडतोय, तोच दाराची कडी वाजली.”

“उगाच तुझी झोप मोड झाली ना, पण दारात कोण आलं होत तुझी झोप मोडायला ?”

“अहो दार उघडून बघतोय तर काय, पहिल्या मजल्यावर जिन्याशेजारी राहणारे राणे काका, रागाने लालबुंद होऊन दारात उभे.”

“आता राण्याला राग यायच काय कारण ?”

“मी विचारलं राणे काकांना, तर मला म्हणाले वरच्या कोकणे काकांनी त्यांची झोप मोड चालवली आहे, जिन्याने सारखं वर खाली जाऊन येवून.”

“जाऊन येवून म्हणजे, मी नाही समजलो.”

“पंत हा पण केळकर काकांचा फिटनेस फ़ंडा.”

“म्हणजे त्यांचे भांडण पण केळकराच्या फिटनेस फ़ंडया मुळे झाले की काय? “

“हो पंत, केळकर काकांनी कोकणे काकांना घरी बसून बसून त्यांचे वजन वाढल्यामुळे आणि घुडघे दुखत असल्यामुळे, जिने चढण्या उतरण्याचा व्यायाम सांगितला होता करायला.”

“बरोबरच आहे केळकराच आणि तुला दुसरा एक उपाय सांगतो गुडघे दुखीवर.”

“पंत इथे मी कशाला आलोय आणि तुम्ही मला….”

“अरे ऐकून तर घे, गुडघे दुखत असतील तर कमरे एव्हढया पाण्यात रोज अर्धा तास चालायचं, घुडघे दुखी कुठच्या कुठे पळून जाईल बघ तुझी.”

“आता मीच पळतो पंत, तुमचं बोलण ऐकून माझ डोक खरच फुटेल की काय अस वाटायला लागलं आहे.”

“सॉरी सॉरी, पण कोकण्याच्या जिन्याने खालीवर जाण्याने,  राण्याची कशी काय बुवा झोप मोडायची, ते नाही समजलं !”

“अहो कोकणे काकांचा अजस्त्र देह जिन्याने खाली वर करू लागला की आपल्या चाळीचे आधीच जीर्ण शीर्ण झालेले लाकडी जिने… “

“दाण दाण आवाज करायचे आणि राण्याची खोली जिन्याजवळ असल्यामुळे त्याच्या झोपेचं खोबरं व्हायच, बरोबर ?”

“बरोबर पंत, त्यामुळे त्या दोघांचे पण कडाक्याचं भांडण झालं आणि दोघेही माझ्याकडे एक मेकांची तक्रार घेऊन आले आणि …. “

“तू नेहमी प्रमाणे माझ्याकडे यावर उपाय सुचवा म्हणून, काय खरं ना?”

“हो पंत, तुम्हीच चाळीत सगळ्यात जुने जाणते आणि अनुभवी …. “

“नेहमीची मस्काबाजी पुरे ! आता मला आधी सांग, आपल्या चाळीतले योगा शिकवणारे गोरे गुरुजी सध्या चाळीत….. “

“नाहीत ना, ते मध्यतंरी गावाला गेले आणि सध्याच्या परिस्थितीमुळे गावालाच अडकलेत.”

“बर बर आणि योगासन पण कुणाच्या तरी देखरेखी खाली केलेली बरी, नाहीतर उगाच कोणाला तरी त्याचा त्रास पण होऊ शकतो.”

“मग कसं करायच आता पंत.”

“अरे मी असतांना कशाला घाबरतोस.  उद्याच्या उद्या एक पत्रक काढ, चाळ कमिटीचा अध्यक्ष म्हणून.”

“बर, पण त्या पत्रकातून काय सांगायचं लोकांना?”

“लोकांना सांगायचं की कोणीही केळकराचा फिटनेस फ़ंडा वापरायचा नाही.”

“मग पंत लोकांनी फिट राहण्यासाठी काय करायच?”

“माझा फिटनेस फ़ंडा वापरायचा !”

“तुमचा फिटनेस फ़ंडा, म्हणजे काय पंत ?”

“काही नाही, ज्या लोकांना या लॉक डाऊन मधे फिट रहायच आहे त्यांनी आपापल्या घरात रोज सकाळी फक्त बारा सूर्य नमस्कार घालायचे, बस्स.”

“त्यानं लोक खरंच फिट राहतील पंत ? “

“यात तुला शंका घ्यायच कारणच नाही. “

“ते कसं काय पंत?”

“अरे शास्त्र शुद्ध पद्धतीने घातलेल्या प्रत्येक सूर्य नमस्कारात सगळी योगासन समाविष्ट असतात, हे माहित्ये का तुला ?”

“नाही पंत, पण लोकांना शास्त्र शुद्ध पद्धतीने सूर्य नमस्कार घालायला…. “

“मी शिकवणार आणि प्रत्येकला सांग, की घरात राहून ज्यांना ज्यांना फिट रहायच त्यांनी….”

“पंतांना भेटून शास्त्र शुद्ध सूर्य नमस्कार कसे घालायचे ते लवकरात लवकर शिकून घ्या आणि…. “

“केळकराच्या फिटनेस फ़ंडयामुळे होणारी चाळीतली भांडणे टाळा.”

“धन्य आहे तुमची पंत !”

 

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 72 ☆ चक्कर बनाम घनचक्कर ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “चक्कर बनाम घनचक्कर”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 72 – चक्कर बनाम घनचक्कर

अक्सर ऐसा क्यों होता है कि कम बुद्धि वाले लोगों को ही अपने आसपास रखा जाता है।  बिना दिमाग लगाए जी हुजूरी करते हुए ये चलते जाते हैं। वहीं बहुत से लोग ऐसे भी होते हैं जो शांति बनाए रखने के चक्कर में घनचक्कर बनना पसंद करते हैं।  जो हुक्म मेरे आका की तरह जिनी बनकर पूरा जीवन बिताना पसंद है पर सही का साथ देने की हिम्मत जुटाने में वर्षों लग जाते हैं।  जिम्मेदारी से भागने पर कुछ नहीं मिलता केवल दूसरे के सपनों को पूरा करना पड़ता है।

सपने देखने चाहिए पर शेख चिल्ली की तरह नहीं।  जिसने लक्ष्य बनाया उसे पूरा किया व दूसरे लोगों को काम पर लगाकर उन्हें नियंत्रित किया नाम व फोटो शीर्ष पर अपनी रखी।  जाहिर सी बात है जिसके हाथ में डोर होगी वही तो पतंगों को उड़ायेगा।  पतंग उड़ती है ,डोर व हवा उसमें सहयोग देते हैं।  आसमान में उड़ते हुए मन को हर्षित करना ये सब कुछ होता है।  पर कब ढील देना है कब खींचना है ये तो उड़ाने वाले कि इच्छा पर निर्भर होता है।  

इंद्रधनुषी रंगों से सजे हुए आकाश को निहारते हुए सहसा मन कल्पनाओं में गोते लगाने लगा कि काश ऐसा हो जाए कि सारी पतंगे मेरे नियंत्रण में हो इसमें माझा भले ही काँच की परत चढ़ा न होकर प्लास्टिक का हो किन्तु डोरी सफेद और मजबूत कॉटन की ही होनी चाहिए जिसे खींचने पर हाथ कटने का भय न हो।  किसी को वश में करने हेतु क्या- क्या नहीं करना पड़ता है।  पहले तो पेंच लड़ेगा फिर जीत अपनी हो इसके लिए साम दाम दण्ड भेद सभी का प्रयोग करते हुए ठुनकी देना और अंत में काइ पो छे कहते हुए उछल कूद मचाना।

अरे भई इस तरह के दाँव – पेंच तो आजमाने ही पड़ते हैं।  समय के साथ कलाकारी करते हुए आगे बढ़ते जाना ही लक्ष्य साधक का परम लक्ष्य होता है।  एक- एक सीढ़ी चढ़ते हुए स्वयं को हल्का करते जाना, पुराने बोझों को छोड़कर नयी उमंग को साथ लेकर उड़ते हुए पंछी जैसे चहकना और साँझ ढले घर वापस लौटना।  साधना और लगन के दम पर ही ऐसे कार्य होते हैं।  केंद्र पर नजर और भावनाओं पर अंकुश ही आपको दूसरों पर नियंत्रण रखने की  श्रेष्ठता दे सकता है।  निरन्तर अभ्यास से क्या कुछ नहीं हो सकता है।  एक धागा इतनी बड़ी पतंग न केवल उड़ा सकता है बल्कि उससे दूसरों की पतंगे काट भी सकता है।  बस नियंत्रण सटीक होना चाहिए।  ढील पर नजर रखते हुए हवा के रुख को पहचान कर बदलाव करना पड़ता है।  सही भी है जैसी बयार चले वैसे ही बदल जाना गुणी जनों का प्रथम लक्षण होता है।  और तो और कुर्सी का निर्धारण करने में भी हवा हवाई सिद्ध होते देखी जा सकती है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares