(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #65 – अपनी रोटी मिल बाँट कर खाओ ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक राजा था। उसका मंत्री बहुत बुद्धिमान था। एक बार राजा ने अपने मंत्री से प्रश्न किया – मंत्री जी! भेड़ों और कुत्तों की पैदा होने कि दर में तो कुत्ते भेड़ों से बहुत आगे हैं, लेकिन भेड़ों के झुंड के झुंड देखने में आते हैं और कुत्ते कहीं-कहीं एक आध ही नजर आते है। इसका क्या कारण हो सकता है?
मंत्री बोला – “महाराज! इस प्रश्न का उत्तर आपको कल सुबह मिल जायेगा।”
राजा के सामने उसी दिन शाम को मंत्री ने एक कोठे में बिस कुत्ते बंद करवा दिये और उनके बीच रोटियों से भरी एक टोकरी रखवा दी।”
दूसरे कोठे में बीस भेड़े बंद करवा दी और चारे की एक टोकरी उनके बीच में रखवा दी। दोनों कोठों को बाहर से बंद करवाकर,वे दोनों लौट गये।
सुबह होने पर मंत्री राजा को साथ लेकर वहां आया। उसने पहले कुत्तों वाला कोठा खुलवाया। राजा को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि बीसो कुत्ते आपस में लड़-लड़कर अपनी जान दे चुके हैं और रोटियों की टोकरी ज्यों की त्यों रखी है। कोई कुत्ता एक भी रोटी नहीं खा सका था।
इसके पश्चात मंत्री राजा के साथ भेड़ों वाले कोठे में पहुंचा। कोठा खोलने के पश्चात राजा ने देखा कि बीसो भेड़े एक दूसरे के गले पर मुंह रखकर बड़े ही आराम से सो रही थी और उनकी चारे की टोकरी एकदम खाली थी।
वास्तव में अपनी रोटी मिल बाँट कर ही खानी चाहिए और एकता में रहना चाहिए।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख सुक़ून की तलाश। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 106 ☆
☆ सुक़ून की तलाश ☆
‘चौराहे पर खड़ी ज़िंदगी/ नज़रें दौड़ाती है / कोई बोर्ड दिख जाए /जिस पर लिखा हो /सुक़ून… किलोमीटर।’ इंसान आजीवन दौड़ता रहता है ज़िंदगी में… सुक़ून की तलाश में, इधर-उधर भटकता रहता है और एक दिन खाली हाथ इस जहान से रुख़्सत हो जाता है। वास्तव में मानव की सोच ही ग़लत है और सोच ही जीने की दिशा निर्धारित करती है। ग़लत सोच, ग़लत राह, परिणाम- शून्य अर्थात् कभी न खत्म होने वाला सफ़र है, जिसकी मंज़िल नहीं है। वास्तव में मानव की दशा उस हिरण के समान है, जो कस्तूरी की गंध पाने के निमित्त, वन-वन की खाक़ छानता रहता है, जबकि कस्तूरी उसकी नाभि में स्थित होती है। उसी प्रकार बाबरा मनुष्य सृष्टि-नियंता को पाने के लिए पूरे संसार में चक्कर लगाता रहता है, जबकि वह उसके अंतर्मन में बसता है…और माया के कारण वह मन के भीतर नहीं झांकता। सो! वह आजीवन हैरान- परेशान रहता है और लख-चौरासी अर्थात् आवागमन के चक्कर से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। कबीरजी का दोहा ‘कस्तूरी कुंडली बसे/ मृग ढूंढे बन मांहि/ ऐसे घट-घट राम हैं/ दुनिया देखे नांही’ –सांसारिक मानव पर ख़रा उतरता है। अक्सर हम किसी वस्तु को संभाल कर रख देने के पश्चात् भूल जाते हैं कि वह कहां रखी है और उसकी तलाश इधर-उधर करते रहते हैं, जबकि वह हमारे आसपास ही रखी होती है। इसी प्रकार मानव भी सुक़ून की तलाश में भटकता रहता है, जबकि वह तो उसके भीतर निवास करता है। जब हमारा मन व चित्त एकाग्र हो जाता है; उस स्थिति में परमात्मा से हमारा तादात्म्य हो जाता है और हमें असीम शक्ति व शांति का अनुभव होता है। सारे दु:ख, चिंताएं व तनाव मिट जाते हैं और हम अलौकिक आनंद में विचरण करने लगते हैं… जहां ‘मैं और तुम’ का भाव शेष नहीं रहता और सुख-दु:ख समान प्रतीत होने लगते हैं। हम स्व-पर के बंधनों से भी मुक्त हो जाते हैं। यही है आत्मानंद अथवा हृदय का सुक़ून; जहां सभी नकारात्मक भावों का शमन हो जाता है और क्रोध, ईर्ष्या आदि नकारात्मक भाव जाने कहां लुप्त जाते हैं।
हां ! इसके लिए आवश्यकता है…आत्मकेंद्रितता, आत्मचिंतन व आत्मावलोकन की…अर्थात् सृष्टि में जो कुछ हो रहा है, उसे निरपेक्ष भाव से देखने की। परंतु जब हम अपने अंतर्मन में झांकते हैं, तो हमें अच्छे-बुरे व शुभ-अशुभ का ज्ञान होता है और हम दुष्प्रवृत्तियों से मुक्ति पाने का भरसक प्रयास करते हैं। उस स्थिति में न हम दु:ख से विचलित होते हैं; न ही सुख की स्थिति में फूले समाते हैं; अपितु राग-द्वेष से भी कोसों दूर रहते हैं। यह है अनहद नाद की स्थिति…जब हमारे कानों में केवल ‘ओंम’ अथवा ‘तू ही तू’ का अलौकिक स्वर सुनाई पड़ता है अर्थात् ब्रह्म ही सर्वस्व है… वह सत्य है, शिव है, सुंदर है और सबसे बड़ा हितैषी है। उस स्थिति में हम निष्काम कर्म करते हैं…निरपेक्ष भाव से जीते हैं और दु:ख, चिंता व अवसाद से मुक्त रहते हैं। यही है हृदय की मुक्तावस्था… जब हृदय में उठती भाव-लहरियां शांत हो जाती हैं… मन और चित्त स्थिर हो जाता है …उस स्थिति में हमें सुक़ून की तलाश में बाहर घूमना नहीं पड़ता। उस मनोदशा को प्राप्त करने के लिए हमें किसी भी बाह्य सहायता की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि आप स्वयं ही अपने सबसे बड़े संसाधन हैं। इसके लिए आपको केवल यह जानने की दरक़ार रहती है कि आप एकाग्रता से अपनी ज़िंदगी बसर कर रहे हैं या व्यर्थ की बातों अर्थात् समस्याओं में उलझे रहते हैं। सो! आपको अपनी क्षमता व योग्यताओं को बढ़ाने के निमित्त अधिकाधिक समय स्वाध्याय व चिंतन-मनन में लगाना होगा और अपना चित्त ब्रह्म के ध्यान में एकाग्र करना होगा। यही है…आत्मोन्नति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग। यदि आप शांत भाव से अपने चित्त को एकाग्र नहीं कर सकते, तो आपको अपनी वृत्तियों को बदलना होगा और यदि आप एकाग्र-चित्त होकर, शांत भाव से परिस्थितियों को बदलने का सामर्थ्य भी नहीं जुटा पाते, तो उस स्थिति में आपके लिए मन:स्थिति को बदलना ही श्रेयस्कर होगा। यदि आप दुनिया के लोगों की सोच नहीं बदल सकते, तो आपके लिए अपनी सोच को बदल लेना ही उचित, सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम होगा। राह में बिखरे कांटों को चुनने की अपेक्षा जूता पहन लेना आसान व सुविधाजनक होता है। जब आप यह समझ लेते हैं, तो विषम परिस्थितियों में भी आपकी सोच सकारात्मक हो जाती है, जो आपको पथ-विचलित नहीं होने देती। सो! जीवन से नकारात्मकता को निकाल बाहर फेंकने के पश्चात् पूरा संसार सत्यम् शिवम्, सुंदरम् से आप्लावित दिखाई पड़ता है।
सो! सदैव अच्छे लोगों की संगति में रहिए, क्योंकि बुरी संगति के लोगों के साथ रहने से बेहतर है… एकांत में रहना। ज्ञानी, संतजन व सकारात्मक सोच के लोगों के लिए एकांत स्वर्ग तथा मूर्खों के लिए क़ैद-खाना है। अज्ञानी व मूर्ख लोग आत्मकेंद्रित व कूपमंडूक होते हैं तथा अपनी दुनिया में रहना पसंद करते हैं। ऐसे अहंनिष्ठ लोग पद-प्रतिष्ठा देखकर, ‘हैलो-हाय’ करने व संबंध स्थापित करने में विश्वास रखते हैं। इसलिए हमें ऐसे लोगों को कोटिश: शत्रुओं सम त्याग देना चाहिए…तुलसीदास जी की यह सोच अत्यंत सार्थक है।
मानव अपने अंतर्मन में असंख्य अद्भुत, विलक्षण शक्तियां समेटे है। परमात्मा ने हमें देखने, सुनने, सूंघने, हंसने, प्रेम करने व महसूसने आदि की शक्तियां प्रदान की हैं। इसलिए मानव को परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति स्वीकारा गया है। सो! हमें इनका उपभोग नहीं, उपयोग करना चाहिए… सदुपयोग अथवा नि:स्वार्थ भाव से उनका प्रयोग करना चाहिए। यह हमें परिग्रह अर्थात् संग्रह-दोष से मुक्त रखता है, क्योंकि हमारे शब्द व मधुर वाणी, हमें पल भर में सबका प्रिय बना सकती है और शत्रु भी। इसलिए सोच-समझकर मधुर व कर्णप्रिय शब्दों का प्रयोग कीजिए, क्योंकि शब्द हमारे व्यक्तित्व का आईना होते हैं। सो! हमें दूसरों के दु:ख की अनुभूति कर, उनके प्रति करुणा-भाव प्रदर्शित करना चाहिए। समय सबसे अनमोल धन है; उससे बढ़कर तोहफ़ा दुनिया में हो ही नहीं सकता… जो आप किसी को दे सकते हैं। धन-संपदा देने से अच्छा है कि आप उस के दु:ख को अनुभव कर, उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करें तथा प्राणी-मात्र के प्रति स्नेह-सौहार्द भाव बनाए रखें।
स्वयं को पढ़ना दुनिया का सबसे कठिन कार्य है… प्रयास अवश्य कीजिए। यह शांत मन से ही संभव है। खामोशियां बहुत कुछ कहती हैं। कान लगाकर सुनिए, क्योंकि भाषाओं का अनुवाद तो हो सकता है, भावनाओं का नहीं…हमें इन्हें समझना, सहेजना व संभालना होता है। मौन हमारी सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम भाषा है, जिसका लाभ दोनों पक्षों को होता है। यदि हमें स्वयं को समझना है, तो हमें खामोशियों को पढ़ना व सीखना होगा। शब्द खामोशी की भाषा का अनुवाद तो नहीं कर सकते। सो! आपको खामोशी के कारणों की तह तक जाना होगा। वैसे भी मानव को यही सीख दी जाती है कि ‘जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों, तभी मुंह खोलना चाहिए।’ मानव की खामोशी अथवा एकांत में ही हमारे शास्त्रों की रचना हुई है। इसीलिए कहा जाता है कि अंतर्मुखी व्यक्ति जब बोलता है, तो उसका प्रभाव लंबे समय तक रहता है… क्योंकि उसकी वाणी सार्थक होती है। परंतु जो व्यक्ति अधिक बोलता है, व्यर्थ की हांकता है तथा आत्म-प्रशंसा करता है… उसकी वाणी अथवा वचनों की ओर कोई ध्यान नहीं देता…उसकी न घर में अहमियत होती है, न ही बाहर के लोग उसकी ओर तवज्जो देते हैं। इसलिए अवसरानुकूल, कम से कम शब्दों में अपनी बात कहने की दरक़ार होती है, क्योंकि जब आप सोच-समझ कर बोलेंगे, तो आपके शब्दों का अर्थ व सार्थकता अवश्य होगी। लोग आपकी महत्ता को स्वीकारेंगे, सराहना करेंगे और आपको चौराहे पर खड़े होकर सुक़ून की तलाश …कि• मी• के बोर्ड की तलाश नहीं करनी पड़ेगी, बल्कि आप स्वयं तो सुक़ून से रहेंगे ही; आपके सानिध्य में रहने वालों को भी सुक़ून की प्राप्ति होगी।
वैसे भी क़ुदरत ने तो हमें केवल आनंद ही आनंद दिया है, दु:ख तो हमारे मस्तिष्क की उपज है। हम जीवन-मूल्यों का तिरस्कार कर, प्रकृति से खिलवाड़ व उसका अतिरिक्त दोहन कर, स्वार्थांध होकर दु:खों को अपना जीवन-साथी बना लेते हैं और अपशब्दों व कटु वाणी द्वारा उन्हें अपना शत्रु बना लेते हैं। हम जिस सुख व शांति की तलाश संसार में करते हैं, वह तो हमारे अंतर्मन में व्याप्त है। हम मरुस्थल में मृग-तृष्णाओं के पीछे दौड़ते-दौड़ते, हिरण की भांति अपने प्राण तक गंवा देते हैं और अंत में हमारी स्थिति ‘माया मिली न राम’ जैसी हो जाती है। हम दूसरों के अस्तित्व को नकारते हुए, संसार में उपहास का पात्र बन जाते हैं; जिसका दुष्प्रभाव दूसरों पर ही नहीं, हम पर ही पड़ता है। सो! संस्कृति को, संस्कारों की जननी स्वीकार, जीवन-मूल्यों को अनमोल जानकर जीवन में धारण कीजिए, क्योंकि लोग तो दूसरों की उन्नति करते देख, उनकी टांग खींच, नीचा दिखाने में ही विश्वास रखते हैं। उनकी अपनी ज़िंदगी में तो सुक़ून होता ही नहीं और वे दूसरों को भी सुक़ून से नहीं जीने देते हैं। अंत में, मैं महात्मा बुद्ध का उदाहरण देकर अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी। एक बार उनसे किसी ने प्रश्न किया ‘खुशी चाहिए।’ उनका उत्तर था पहले ‘मैं’ का त्याग करो, क्योंकि इसमें ‘अहं’ है। फिर ‘चाहना’ अर्थात् ‘चाहता हूं’ को हटा दो, यह ‘डिज़ायर’ है, इच्छा है। उसके पश्चात् शेष बचती है, ‘खुशी’…वह तुम्हें मिल जाएगी। अहं का त्याग व इच्छाओं पर अंकुश लगाकर ही मानव खुशी को प्राप्त कर सकता है, जो क्षणिक सुख ही प्रदान नहीं करती, बल्कि शाश्वत सुखों की जननी है।’ हां! एक अन्य तथ्य की ओर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी कि ‘इच्छा से परिवर्तन नहीं होता; निर्णय से कुछ होता है तथा निश्चय से सब कुछ बदल जाता है और मानव अपनी मनचाही मंज़िल अथवा मुक़ाम पर पहुंच जाता है।’ इसलिए दृढ़-निश्चय व आत्मविश्वास को संजोकर रखिए; अहं का त्याग कर मन पर अंकुश लगाइए; सबके प्रति स्नेह व सौहार्द रखिए तथा मौन के महत्व को समझते हुए, समय व स्थान का ध्यान रखते हुए अवसरानुकूल सार्थक वाणी बोलिए अर्थात् आप तभी बोलिए, जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों…क्योंकि यही है–सुक़ून पाने का सर्वश्रेष्ठ सर्वोत्तम मार्ग, जिसकी तलाश में मानव युग-युगांतर से भटक रहा है।
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय एवं सार्थक आलेख “पर्वों पर सांप्रदायिक सद्भावना”।)
☆ किसलय की कलम से # 57 ☆
☆ पर्वों पर सांप्रदायिक सद्भावना ☆
पर्वों की सार्थकता तभी है जब उन्हें आपसी सद्भाव, प्रेम-भाईचारे और हँसी-खुशी से मनाया जाए। अपनी संस्कृति, प्रथाओं व परंपराओं की विरासत को अक्षुण्ण रखने के साथ-साथ अगली पीढ़ी के अनुकरणार्थ हम पर्वों को मनाते हैं। ये पर्व धार्मिक, सामाजिक अथवा राष्ट्रीय क्यों न हों, हर पर्व का अपना इतिहास और सकारात्मक उद्देश्य होता है। पर्व कभी भी विद्वेष अथवा अप्रियता हेतु नहीं मनाये जाते। पर्वों के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए परंपरानुसार उन्हें मनाने की रीति चली आ रही है। पहले हमारे भारतवर्ष में हिंदु धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई धर्मावलंबी नहीं थे, तब आज जैसी परिस्थितियाँ कभी निर्मित ही नहीं हुईं। आज जब विभिन्न धर्मावलंबी हमारे देश में निवास करते हैं, तब धर्म हर धर्म के लोग अपनी अपनी रीति रिवाज के अनुसार अपने पर्व सामाजिक स्तर पर मनाते हैं और होना भी यही चाहिए। मानवीय संस्कार सभी को अपने-अपने धर्मानुसार पर्व मनाने की सहज स्वीकृति देते हैं।
कहते हैं कि जहाँ चार बर्तन होते हैं उनका खनकना आम बात है। ठीक इसी प्रकार जब हमारे देश में विभिन्न धर्मावलंबी एक साथ, एक ही सामाजिक व्यवस्थानुसार रहते हैं तो यदा-कदा कुछेक अप्रिय स्थितियों का निर्मित होना स्वाभाविक है। विवाद तब होता है जब मानवीयता से परे, स्वार्थवश, संकीर्णतावश, विद्वेष भावना के चलते कभी अप्रिय स्थितियाँ निर्मित हो जाती हैं। ऐसी परिस्थितियों के लिए मुख्य रूप से कट्टरपंथियों की अहम भूमिका होती है। ये विशेष स्वार्थ के चलते फिजा में जहर घोलकर अपना वर्चस्व व प्रभाव स्थापित करना चाहते हैं। तथाकथित धर्मगुरुओं एवं विघ्नसंतोषियों के बरगलाने पर भोली जनता इनके प्रभाव अथवा दबाव में आकर इनका साथ देती है। ये वही लोग होते हैं जो धर्म स्थलों, धार्मिक जुलूसों अथवा पर्व मना रही भीड़ में घुसकर ऐसी अप्रिय स्थितियाँ निर्मित कर देते हैं, जिससे आम जनता न चाहते हुए भी आक्रोशित होकर इतरधर्मियों पर अपना गुस्सा निकालने लगती है। यही वे हालात होते हैं, जब धन-जन की क्षति के साथ-साथ सद्भावना पर भी विपरीत असर पड़ता है। ये हालात समय के साथ-साथ सामान्य तो हो जाते हैं लेकिन इनका दूरगामी दुष्प्रभाव भी पड़ता है। नवयुवकों में इतरधर्मों के प्रति नफरत का बीजारोपण होता है। ये दिग्भ्रमित नवयुवक भविष्य में समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं। ऐसे लोग देश और समाज के लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकते हैं।
आज जब विश्व में शैक्षिक स्तर गुणोत्तर उठ रहा है। भूमंडलीकरण के चलते सामाजिक, धार्मिक व व्यवसायिक दायरे विस्तृत होते जा रहे हैं। आज धर्म और देश की सीमा लाँघकर अंतरराष्ट्रीय विवाह होने लगे हैं। लोग अपने देश को छोड़कर विभिन्न देशों में उसी देश के प्रति वफादार और समर्पण की मानसिकता से वहीं की नागरिकता ग्रहण कर रहे हैं, बावजूद इसके हम आज भी वहीं अटके हुए हैं और उन्हीं चिरपरिचित स्वार्थी लोगों का समर्थन कर देश को हानि पहुँचाने में एक सहयोगी जैसी भूमिका का निर्वहन करते हैं।
आज हमें बुद्धि एवं विवेक से वर्तमान की परिस्थितियों पर पुनर्विचार करना पड़ेगा। हमें स्वयं व अपने देश के विकास पर ध्यान केंद्रित करना होगा। मानव की प्रकृति होती है कि वह सबसे पहले अपना और स्वजनों का भला करें, जिसे पूर्ण करने में लोगों का जीवन भी कम पड़ जाता है। तब आज किसके पास इतना समय है कि वह समाज, धर्म, देश व आपसी विद्वेष के बारे में सोचे। ऐसे कुछ ही प्रतिशत लोग हैं जिन्हें न अपनी, और न ही देश की चिंता रहती है। पराई रोटी के टुकड़ों पर पलने वाले और तथाकथित आकाओं-संगठनों के पैसों से ऐशोआराम करने वाले ही आज समाज के विरोध में खड़े दिखाई देते हैं।
आप स्वयं चिंतन-मनन कर पाएँगे कि वर्तमान की परिस्थितियाँ सामाजिक विघटन तथा अलगाव की बिल्कुल भी अनुमति नहीं देती। आज की दिनचर्या भी इतनी व्यस्त और एकाकी होती जा रही है कि मानव को दीगर बातें सोचने का अवसर ही नहीं मिलता। तब जाकर यह बात सामने आती है कि आखिर इन परिस्थितियों का निराकरण कैसे किया जाये।
एक साधारण इंसान भी यदि निर्विकार होकर सोचे तो उसे भी इसका समाधान मिल सकता है। हमें बस कुछ बातों का ध्यान रखना होगा। हम एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के नागरिक हैं। यहाँ सबको अपने धर्म और मजहब के अनुसार जीने का हक है। जब तक इतरधर्मी शांतिपूर्ण ढंग से, अपनी परंपरानुसार पर्व मनाते हैं, हमें उनके प्रति आदर तथा सद्भाव बनाये रखना है। पर्वों के चलते जानबूझकर नफरत फैलाने का प्रयास कदापि नहीं करना है। इतरधर्मियों, इतर धार्मिक पूजाघरों के समक्ष जोश, उत्तेजना व अहंकारी बातों से बचना होगा। सभी धर्मों के लोग भी इन परिस्थितियों में सद्भाव बनाए रखें तथा सहयोग देने से न कतरायें। धर्म का हवाला देकर दूरी बनाना किसी भी धर्म में नहीं लिखा है। यह सब धर्मगुरुओं के नियम-कानून और स्वार्थ हो सकते हैं। ईश्वर ने सबको जन्म दिया है, वह सब का भला चाहता है। तब उसके व्यवहार में अंतर कैसे हो सकता है। शासन-प्रशासन, धर्म-गुरु और सामान्य लोग सभी मिलजुल कर सारे समाज का स्वरूप बदलने में सक्षम हैं। बस सकारात्मक और अच्छे नजरिए की जरूरत है। यह सकारात्मक नजरिया लोगों में कब देखने मिलेगा हमें इंतजार रहेगा। बात बहुत बड़ी है, लेकिन कहा जाता है कि आशा से आसमान टिका है तब हमें इस आशा को विश्वास में बदलने हेतु कुछ प्रयास आज से ही शुरु नहीं करना चाहिए? बस एक बार सोचिए तो सही। आप खुद ब खुद चल पड़ेंगे सद्भावना की डगर, जहां इंसानियत और सद्भावना का बोलबाला होगा।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे ”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण रचना “कहाँ चल दिये ….”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है प्रवासी भारतीय विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा भारत की भी सोचो, भाई !डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 76 ☆
☆ लघुकथा – भारत की भी सोचो, भाई ! ☆
वह अमेरिका से कई साल बाद भारत वापस आया है। मुंबई से बी.ई. करने के बाद एम.एस. करने के लिए अमेरिका चला गया था। माता-पिता ने अपनी हैसियत से कहीं अधिक खर्च किया था उसे विदेश भेजने में। जी-जान लगा दी उन्होंने, बीस लाख फीस और रहने-खाने का खर्च अलग से। नौकरी करनेवालों के लिए इतना खर्च उठाना आसान नहीं होता फिर भी यह सोचकर कि विदेश जाएगा तो उसका भविष्य संवर जाएगा, भेज दिया। भारत में आजकल यही चल रहा है, घर-घर की कहानी है – बच्चे विदेश में और माता-पिता अकेले पड़े बुढ़ापा काट रहे हैं। इंजीनियरिंग पूरी करो, बैंक तैयार बैठे हैं लोन देने के लिए, लोन लो और एम.एस. के लिए विदेश का रुख, फिर डॉलर में सैलरी और प्रवासी-भारतीय बन जाओ।
उसे देखकर अच्छा लगा – रंग निखर आया था और शरीर भी भर गया था। उसकी माँ भी बहुत खुश थी, बार-बार कहतीं- “अमेरिका में धूल नहीं है ना ! इसे डस्ट से एलर्जी है, यहाँ था तो बार-बार बीमार पड़ता था। जब से अमेरिका पढ़ने गया है बीमार ही नहीं पड़ा, हेल्थ भी इंप्रूव हो गई। वहाँ घर, कॉलेज हर जगह एअरकंडीशन रहता है, हीटिंग सिस्टम है, बहुत पॉश है सब कुछ वहाँ।” बेटा भी धीरे से बोला- आंटी ! यहाँ तो आए दिन बिजली, पानी की समस्या से ही जूझते रहो। ट्रैफिक में घुटन होने लगती हैं उफ् कितनी भीड है इंडिया में !
बात अमेरिका की शिक्षा व्यवस्था पर होने लगी। मैंने कहा- अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने भाषण में कहा था कि अमेरिकी युवा उच्च शिक्षा नहीं प्राप्त कर रहे हैं। जबकि दूसरे देशों के विद्यार्थी यहाँ से पढ़कर जाते हैं।
वह बोला- हाँ आँटी ! अमेरिका में अधिकतर चीन, जापान, भारत तथा अरब देशों के ही विद्यार्थी हैं। इनसे अमेरिका को आर्थिक लाभ बहुत होता है।
मैंने कहा- हाँ ये तो ठीक है पर — वह तपाक से बोला- चिंता की कोई बात नहीं है। मेरे जैसे जो भारतीय विद्यार्थी वहाँ हैं, वे अमेरिका में ही बस जाएंगे। उनके बच्चे होंगे तो उनकी भारतीय सोच अलग होगी, वे पढेंगे, उच्च शिक्षा भी प्राप्त करेंगे। धीरे-धीरे अमेरिका की यह समस्या खत्म हो जाएगी। बोलते समय वह बड़े आत्मविश्वास के साथ मुस्कुरा रहा था।
अमेरिका की समस्या को सुलझाने में तत्पर आज के भारतीय युवक अपने देश की समस्याओं के बारे में कभी कुछ सोचते भी हैं ?
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा रचित एक विचारणीय आलेख ‘रायल होटल भवन, जबलपुर, जहां कभी इंडियन्स नाट एलाउड का बोर्ड लगा रहता था ’। इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 122 ☆
रायल होटल भवन, जबलपुर, जहां कभी ‘इंडियन्स नाट एलाउड’ का बोर्ड लगा रहता था
19वीं शताब्दी में , १८५७ की क्रांति के लगभग तुरंत बाद जबलपुर के एक बड़े टिम्बर मर्चेन्ट डा बराट जो एक एंग्लो इंडियन थे, ने इस तत्कालीन शानदार भवन का निर्माण करवाया था। बाद में यह भवन तत्कालीन राजा गोकुलदास के आधिपत्य में आ गया , क्योकि डा बराट राजा गोकुलदास के सागौन के जंगलो से ही लकड़ी का व्यापार करते थे। राजा गोकुलदास ने अपनी नातिन राजकुमारी को यह भवन दहेज में दिया था। जिन्होंने इस भवन को रॉयल ग्रुप को बेच दिया गया। ग्रुप ने इसे एक आलीशान होटल में तब्दील कर दिया।
यह होटल सिर्फ ब्रिटिशर्स और यूरोपीयन लोगों के लिए बनाया गया था। ब्रिटिशर्स भारतीयों पर हुकूमत कर रहे थे। अपने समय में होटल की भव्यता के काफी चर्चे थे। होटल के गेट पर ही ‘इंडियंस नॉट अलाउड’ का बोर्ड लगा हुआ था। रॉयल होटल ब्रिटिशकाल में अंग्रेजों की एशगाह रही । खास बात यह है कि भारत में होने के बावजूद भारतीयों को इस महल के आस-पास फटकने की भी इजाजत नहीं थी। यहां तक की होटल के सुरक्षा गार्ड और कर्मचारी भी ब्रिटिशर्स या यूरोपियन ही होते थे।
यूरोपियन शैली का निर्माण
रॉयल होटल इंडो-वेस्टर्न के साथ-साथ यूरोपियन शैली में बना है। इस होटल के हॉल की चकाचौंध देखकर ही लोग आश्चर्य में पड़ जाते थे। इसके साथ ही अंग्रेजों के आराम के लिए बड़े-बड़े कमरे बनाए गए थे। जिसमें एशो-आराम की सारी सुविधाएं मौजूद थीं। होटल की बनावट ऐसी थी कि कमरों में वातानुकूलित व्यवस्था जैसा अहसास होता था। अंग्रेजों की प्राइवेसी का भी यहां खास ध्यान रखा जाता था।
भवन में लगे सेनेटरी फिटिंग , झाड़ फानूस आदि इंग्लैंड , इटली आदि देशो से लाये गये थे। अभी भी जो चीनी मिट्टी के वेस्ट पाइप टूटी हुई अवस्था में भवन में लगे हुये हैं , उनके मुहाने पर शेर के मुंह की आकृति है। जो मेंगलूर टाइल्स छत पर हैं वे भी चीनी मिट्टी के हैं।
अब खंडहर में तब्दील हो गया होटल
स्वतंत्रता के बाद इस महल में बिजली विभाग का दफ्तर चला। कुछ समय बाद यहां एनसीसी की कन्या बटालियन का कार्यालय बनाया गया। लेकिन, अब यह महल खंडहर में तब्दील हो चुका है। प्रदेश सरकार ने इसे संरक्षित इमारत घोषित किया है लेकिन इसके रखरखाव पर अब तक ध्यान नहीं दिया गया है।
जबलपुर का रायल होटल राज्य शासन संरक्षित स्माकर बनेगा। राज्य के संस्कृति विभाग ने इस संबंध में मप्र एन्शीएन्ट मान्युमेंट एण्ड आर्कियोलाजीकल साईट्स एण्ड रिमेंस एक्ट,1964 के तहत इस प्राचीन स्मारक को ऐतिहासिक पुरातत्व महत्व के प्राचीन स्मारक को राज्य संरक्षित करने की कार्यवाही प्रारंभ कर दी है और इस संबंध में अधिसूचना जारी कर दी है। यह राजस्व खण्ड सिविल लाइन ब्लाक नं। 32 प्लाट नं। 11-12/1 में स्थित है। इसका कुल क्षेत्रफल 14144-05 वर्गफुट है। फिलहाल इसका स्वामित्व एमपी इलेक्ट्रिक बोर्ड जबलपुर रामपुर के पास लीज के तहत है।
रायल होटल बंगला राज्य संरक्षित घोषित होने के बाद इसके सौ मीटर आसपास किसी भी प्रकार का निर्माण कार्य प्रतिबंधित रहेगा तथा इस सौ मीटर के और दो सौ मीटर व्यास में रेगुलेट एरिया रहेगा जिसमें किसी भी प्रकार का निर्माण कार्य विहित प्रावधानों के तहत आयुक्त पुरातत्व संचालनालय की अनुमति से ही हो सकेगा, उक्त प्राचीन होटल के बारे में राज्य सरकार की राय है कि इसे विनष्ट किये जाने, क्षतिग्रस्त किये जाने, परिवर्तित किये जाने, विरुपित किये जाने,हटाये जाने, तितर-बितर किये जाने या उसके अपक्षय होने की संभावना है जिसे रोकने के लिये इसे संरक्षित किया जाना आवश्यक हो गया है।
अब समय आ गया है कि इस पुरातन भवन को संग्रहालय के रूप में इस तरह विकसित किया जावे कि कभी भारतीयो को अपमानित करने वाला भवन का द्वार हर भारतीय नागरिक को ससम्मान आमंत्रित करते हुये हमारी पीढ़ियों को हमारे इतिहास से परिचित करवाये।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “व्यस्तता के चलते”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 74 – व्यस्तता के चलते ☆
आजकल जिसे देखो वही व्यस्त है। कभी फोन खुद कह उठता है, इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं। कल मैंने 10 जगह फोन लगाया, मजे की बात सारे लोगों ने फोन उठाते, यही कहा, बस एक मिनट में बात करते हैं। दरसल वे कहीं न कहीं बातों में व्यस्त थे। हालाकि सभी ने 5 मिनट के भीतर फोन लगाया भी किन्तु दिल ये सोचने पर विवश हो गया कि क्या सचमुच हम लोगों का मोबलाइजेशन हो गया है। मोबोफ़ोबिया से केवल नई पीढ़ी ही नहीं हम सब भी ग्रसित हो चुके हैं।
डिजिटल होना अच्छी बात है किंतु आपसी मेलजोल के बदले फोन पर ही मिलना- मिलाना किस हद तक उचित कहा जा सकता है। ये सही है कि लोगों के पास समय की कमीं है, अब महिलाएँ भी दोहरी भूमिका निभा रहीं हैं इसलिए मेहमान नवाजी से उन्होंने भी थोड़ी दूरी बना ली है। हम लोग केवल किसी कार्यक्रम में ही मिल पाते हैं जहाँ केवल औपचारिक बातें होती हैं। इन सबसे वो अपनापन कम होता जा रहा है जो पहले दिखाई देता था।
सारे मुद्दे फोन पर बातचीत से निपटने लगे हैं। भाव – भावनाओं की पूछ – परख कम होती दिखाई देती है। बस मतलबी रिश्तों में उलझता हुआ व्यक्ति उसी के साथ संवाद कायम रखना चाहता है जिससे कुछ लाभ हो। लाभ की बात चले और हानि की तरफ ध्यान न जाए ऐसा हो नहीं सकता। हम सब केवल अपने फायदे का आकलन करते हुए झट से अपनी राय सामने वाले पर थोप देते हैं। जरा ये भी तो सोचिए कि एक के लिए जो अच्छा हो वो जरूरी नहीं कि दूसरे को अच्छा लगे। हम लोग अपनेपन की बातें करते हैं पर निभाने के समय दूसरे के व्यवहार व स्टेटस के अनुरूप आचरण करते हैं।
सम्बंधों को बनाए रखने हेतु समय- समय पर मिलते रहना चाहिए। मन से कार्य करते रहिए बिना फल की आशा किए। याद रखिए कि यदि आम का बीज आपने बोया है, तो आम मिलेगा बस सही समय का इंतजार करना होगा।
हममें से अधिकांश लोग नेह रूपी बीज तो बोते हैं, पर अंकुरण होते ही फल की आशा में जड़ खोदने लग जाते हैं , अरे मूल ही तो आधार है वृक्ष का इसकी मजबूती पर ही तो तना व शाखाएँ निर्भर हैं। यही बात रिश्तों पर भी लागू होती है उसे समझने के लिए त्याग और वक्त देना पड़ता है तभी मिठास आती है।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “असली वनवास”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 93 ☆
☆ लघुकथा — असली वनवास ☆
सीता हरण, लक्ष्मण के नागपोश और चौदह वर्ष के वनवास के कष्ट झेल कर आते हुए राम की अगवानी के लिए माता पूजा की थाली लिए पलकपावड़े बिछाए बैठी थी. रामसीता के आते ही माता आगे बढ़ी, ” आओ राम ! चौदह वर्ष आप ने वनवास के अथाह दुखदर्द सहे हैं. मैं आप की मर्यादा को नमन करती हूं.” कहते हुए माता ने राम के मस्तिष्क पर टीका लगाते हुए माथा चुम लिया.
मगर, राम प्रसन्न नहीं थे. वे बड़ी अधीरता से किसी को खोज रहे थे, ” माते ! उर्मिला कहीं दिखाई नहीं दे रही है ?”
”क्यों पुत्र ! पहले मैं आप लोगों की आरती कर लूं. बाद में उस से मिल लेना.”
यह सुनते ही राम बोले, ” माता ! असली वनवास तो उर्मिला और लक्ष्मण ने भोगा है इसलिए सब से पहले इन दोनों की आरती की जाना चाहिए.” यह कहते हुए राम ने सीता को आरती की थाल पकड़ा दी.
यह सुनते ही लक्ष्मण का गर्विला सीना राम के चरण में झुक गया, ” भैया ! मैं तो सेवक ही हूं और रहूंगा. ”