डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है प्रवासी भारतीय विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा भारत की भी सोचो, भाई ! डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 76 ☆

☆ लघुकथा – भारत की भी सोचो, भाई ! ☆

वह अमेरिका से कई साल बाद भारत वापस आया है। मुंबई  से बी.ई. करने के बाद एम.एस. करने के लिए अमेरिका चला गया था। माता-पिता ने अपनी हैसियत से कहीं अधिक खर्च किया था  उसे विदेश भेजने में। जी-जान लगा दी उन्होंने, बीस लाख फीस और रहने-खाने का खर्च अलग से। नौकरी करनेवालों के लिए इतना खर्च उठाना आसान नहीं होता फिर भी यह सोचकर कि विदेश जाएगा तो उसका भविष्य संवर जाएगा, भेज दिया। भारत में आजकल यही चल रहा है, घर-घर की कहानी है – बच्चे विदेश में और माता-पिता अकेले पड़े बुढ़ापा काट रहे हैं। इंजीनियरिंग पूरी करो, बैंक तैयार बैठे हैं लोन देने के लिए, लोन लो और एम.एस. के लिए विदेश का रुख, फिर डॉलर में सैलरी और प्रवासी-भारतीय बन जाओ।

उसे देखकर अच्छा लगा – रंग निखर आया था और शरीर भी भर गया था। उसकी माँ भी बहुत खुश थी, बार-बार कहतीं- “अमेरिका में धूल नहीं है ना ! इसे डस्ट से एलर्जी है, यहाँ था तो बार-बार बीमार पड़ता था। जब से अमेरिका पढ़ने गया है बीमार ही नहीं पड़ा, हेल्थ भी इंप्रूव हो गई। वहाँ घर, कॉलेज हर जगह एअरकंडीशन रहता  है, हीटिंग सिस्टम है, बहुत पॉश है सब कुछ वहाँ।” बेटा भी धीरे से बोला- आंटी ! यहाँ तो आए दिन बिजली, पानी की समस्या से ही जूझते रहो। ट्रैफिक में  घुटन होने लगती हैं उफ् कितनी भीड है इंडिया में !

बात अमेरिका की शिक्षा व्यवस्था पर होने लगी। मैंने कहा- अमेरिकी राष्ट्रपति  ने अपने भाषण में कहा था कि  अमेरिकी  युवा उच्च शिक्षा नहीं प्राप्त कर रहे हैं। जबकि दूसरे देशों के विद्यार्थी यहाँ से पढ़कर जाते हैं।                                              

वह बोला- हाँ आँटी ! अमेरिका में अधिकतर चीन, जापान, भारत तथा अरब देशों के ही विद्यार्थी हैं। इनसे अमेरिका को आर्थिक लाभ बहुत होता है।

मैंने कहा- हाँ ये तो ठीक है पर — वह तपाक से बोला- चिंता की कोई बात नहीं है। मेरे जैसे जो भारतीय विद्यार्थी वहाँ हैं, वे अमेरिका में ही बस जाएंगे। उनके बच्चे होंगे तो उनकी भारतीय सोच अलग होगी, वे पढेंगे, उच्च शिक्षा भी प्राप्त करेंगे। धीरे-धीरे अमेरिका की यह समस्या खत्म हो जाएगी। बोलते समय वह बड़े आत्मविश्वास के साथ मुस्कुरा रहा था।

अमेरिका की समस्या को सुलझाने में तत्पर आज के भारतीय युवक  अपने देश की समस्याओं के बारे में कभी कुछ सोचते भी हैं ?

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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चन्द्रकान्ता (कथा सतीसर उपन्यास की लेखिका)

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