हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #96 ☆ गाँव ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 96 ☆ # गाँव # ☆

 

हम गांव हई‌ अपने भितरा‌, हम सुंदर साज सजाईला

चनरू मंगरू चिथरू‌ के साथे, खुशियां रोज मनाई ला।

 

खेते‌ खरिहाने गांव घरे, खुशहाली चारिउ‌‌ ओर रहल।

दुख‌ में ‌सुख‌ में ‌सब‌ साथ रहल, घर गांव के‌ खेढ़ा* बनल‌ रहल।

 

दद्दा दादी‌‌ चाची माई से, कुनबा (परिवार)पूरा भरल रहल।

सुख में दुख ‌मे सब‌ साथ रहै, सबकर रिस्ता जुड़ल रहल।

 

ना जाने  कइसन‌ आंधी आइल, सब तिनका-तिनका बिखर‌ गयल ।

सब अपने स्वार्थ भुलाई गयले, नाता‌ रिस्ता सब‌‌ दरक गयल ।

 

माई‌‌ बाबू अब‌ भार‌ लगै, ससुराल के रिस्ता नया जुडल।

साली सरहज अब नीक लगै, बहिनी से रिस्ता टूटि गयल

 

भाई के‌ प्रेम‌ के बदले में, नफ़रत क उपहार मिलल।

घर गांव पराया लगै लगल, अपनापन‌ सबसे खतम‌ भयल।

 

घर गांव ‌लगै‌ पिछड़ा पिछड़ा, जे जन्म से ‌तोहरे‌ साथ रहल।

संगी साथी सब बेगाना, अपनापन शहर से तोहे मिलल।

 

छोड़ला आपन गांव‌ देश, शहरी पन पे‌ लुभा‌ गइला।

गांव का‌ कुसूर रहल, काहे गांव भुला गइला?

अपने कुल में दाग लगाइके, घर गांव क रीत भुला गइला।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 9 – व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में – भाग-1 ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में’ – भाग-1।  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 9 – व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में – भाग-1☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

जब हम साहित्य और समाज की बात करते हैं तब हमें अचानक महावीर प्रसाद द्विवेदी की रचना साहित्य और समाज का की एक पंक्ति याद आ जाती है. जो पढ़ रहें हैं,लिख है जिसे सब लोग अपने बातों में,अपने विचारों में उदाहरण देते हैं. “साहित्य समाज का दर्पण है” इस पंक्ति को हम स्कूल से लेकर कॉलेज तक, कॉलेज से लेकर आज तक साहित्य के संदर्भ में कह देते हैं, कहते रहे हैं. यह पंक्ति सिर्फ लेखक ही नहीं आम पाठक भी साहित्य के संदर्भ में अपनी बात बहुत आसानी से क्या कह जाता है.यह सच भी है, जो लिखा गया है.यह जो लिखा जा रहा है. या भविष्य में भी लिखा जाएगा. वह समाज को सामने रखकर ही लिखा जाएगा.अन्यथा  वह लिखा गैर जरूरी सा लगेगा और जो हमारे समाज और व्यक्ति के हित में नहीं है वह साहित्य गैरजरूरी ही है साहित्य की हम बात करते हैं. तब अपने आप समय के साथ दौड़ने लगते हैं. तो वह समय हजारों साल पुराना सौ साल पुराना, आज का समय, या आज के अगले हजार या सौ साल पहले की बात करने लगता हैं . हमारे जरूरतों में साहित्य किसी न किसी रूप में  गुंथा बंधा हुआ है.और हम उससे भाग नहीं सकते .इसलिए महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के अध्ययन के बाद यह पंक्ति उनके विचारों में कौंधी  होगी. साहित्य में समय की बात ना हो तो उसे साहित्य कहने में भी हिचक सी लगती है. अतः जब भी हम किसी के साहित्य का मूल्यांकन करते हैं उसका बैरोमीटर उस समय का ही होता है. उसके साथ व्यक्ति के साहित्य में समय का तापमान कितना है. समय का तापमान ही है जो हमें हमारे समय को, हमारी स्मृतियों ही हमारे साहित्य को बहुत लंबे समय तक आगे ले जाता है. विगत कुछ महीनों पहले पूरा विश्व एक कठिन संकट से गुजरा है. जो हमें लंबे समय तक याद रहेगा और मुमकिन है यह आने वाली पीढ़ी भी हमारी स्मृतियों के सहारे आगे ले जाने में सक्षम होगी. यह बहुत आधुनिक काल है. विज्ञान दिन पर दिन व्यक्ति को बेहतर करने के लिए तत्पर है. इसके बावजूद भी हम कहांँ पर खड़े हैं. पिछड़े हैंऔर.हम असहाय सा महसूस कर रहे हैं. क्योंकि कुछ चीजें हमारे बस में नहीं है.इस कठिन समय में जब चारों ओर हा हा कार मचा है. रोज टीवी सोशल मीडिया और अखबारों में मृत्यु दरों की सूचना बाजार के सेंसेक्स की भांति दे रहे हैं चारों दिशाओं में  सेंसेक्स के आंकड़ों से मीडिया सराबोर है. पहले पढ़कर सुनकर दिल धक से हो जाता रहा है. कारोना के आंकड़े परेशान तो करते थे ही, पर.जिस चीज अधिक चिंता रहती थी. वह था दो शब्दों में बँटा जीवनसाथी. दो शब्द  लाक और अनलॉक. इन दोनों शब्दों के बीच में सारी दुनिया सिमटकर रह गई . उन दो शब्दों के लिए बीच में आज समाज  भूल गया था कि आगे भी जीवन है और जीवन है तो साहित्य भी है. यह सब समय समय का फेर है.आज हमारे संस्कार संवेदना और चरित्र पूरी तरह बदल गया है.उस समय बंद रहते हुए भी जीवन की तलाश शुरु हो गई थी. कारोना के भय का इतना आतंक था .कि हम बंद कमरे में जीवन तलाश रहे थे.. मैं आदिवासी अंचल से हूंँ।मुझे अच्छे से याद है कि जब घर के सामने से शवयात्रा निकलती थी. जब दादी बाहर जाने से रोकती थी, वह दरवाजा खोल कर ओट बनाकर देखा करती थी. जब शव यात्रा निकल जाती तो रास्ते पर पानी पर का होगा डाल देती थी.उसके पीछे यह मान्यता रही होगी कि मृत्यु का भय धुल गया है.और कुछ समय तक वातावरण शांत रहता था. वह  कारोना का समय ,मृत्यु ताण्डव का समय था .हम असहाय मजबूर थे. हमारी संवेदनाओं में निष्ठुरता के पंख निकलने लगे थे. उस समय हम अपने आपको बचाने में लगे थे. वह उस समय की मांग थी कि हम अपने को बचाएं, समाज को बचाएं और साहित्य को बचाए रखना है इस बचाए रखने के उपक्रम में यह रचनात्मक प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में आधुनिक तकनीक के माध्यम से बीच का रास्ता निकाला और उस रास्ते ने हमें जीवन के उत्स को बचाने में बहुत मदद की और वह था आधुनिक तकनीक का कमाल.. उसे नया शब्द मिला बेबीनार. बेबीनार और सोशल मीडिया के प्लेटफार्म ने साहित्य को गढ़ने और प्रस्तुत करने का नया माध्यम दिया. और यह जीवन और साहित्य चल पड़ा.  साहित्य और समाज सदा आमने-सामने देखते हैं पर एक दूसरे के समा प्रभाव से तभी तो पूर्व की पूर्ववर्ती विद्वान साहित्यकारों ने साहित्य को समाज का दर्पण कहा है. जब हम साहित्य और समय पर बात करते हैं तो सर्वप्रथम जीवन को प्रभावित करने वाली चीजें सामने आती हैं.वह भविष्य में साहित्य में बनकर आती हैं. इसी तरह हम अतीत को साहित्य के अनेक कालखंड में देख सकते हैं. या यों कहें हम अपनी सुविधा के लिए कालखंड में विभाजित कर सकते हैं. जिस आधुनिक काल में की बात करते हैं. उसका का मोटे तौर से सन्1900 से मान सकते हैं. जिसे भारतेंदु काल कहते हैं. पर साहित्य तो पहले भी प्रचुर मात्रा में लिखा जा रहा था. कबीर ने अपने समय के अराजक समय को निर्ममता उधेड़ कर रख दिया है जिसे हम सिद्दत याद करते हैं. वह रचनात्मक प्रक्रिया स्मृतियों के सहारे आगे बढ़ती गई. कबीर ने शबद,बानी में अपने समय के बारे में जो कुछ कहा वे उनके शिष्यों के माध्यम से पीढ़ी दर पीढी आगे स्मृतियों के सहारे आगे बढ़ते गए. वे उसे याद कर गांव के चोपाल, मण्डलियों सुनाते रहे  लोगों को लगता कि कबीर नयी बात कर रहा है और उसे याद कर एक गांव से दूसरे गांव और दूसरे गांव से तीसरे गांव, इस तरह यह क्रम चलता रहा. और लोगों में जागृति का भाव आता रहा. उदाहरण के रूप लोगों का विश्वास था कि काशी में मरने से व्यक्ति उसे मुक्ति मिल जाती है. मृत्यु सन्निकट होने पर  लोग व्यक्ति को लोग बनारस छोड़ जाते थे मरने के लिए.इस अंधविश्वास को उघाड़ते हुए कबीर बनारस से मगहर आ गए

क्या काशी क्या मगहर राम हृदय बस मोरा

जो कासी तन तजै कबीरा रामे कौन निहोरा

उनका यह मानना था काशी हो या मगहर, मेरे लिए दोनों बराबर है. मेरे हृदय में राम बसे हैं. अगर सिर्फ काशी में राम बसने से मुक्ति मिल जाए  तो मेरे हृदय में राम का क्या एहसान रह जाएगा. इसी मुक्ति पर कबीर अपने समय की विसंगतियों पर कठोर प्रहार करते हुए कहते हैं..

 साधो भाई, जीबत ही करो आशा

जीबत समझे जीबत बूझे, जीबत मुक्ति निबासा

जीवत करम की फाँस न काटी, मुये मुक्ति की आसा

तन छूटे जिब मिलन कहत है, सो  सब  छूटी  आसा

अबहुँ मिला तो तबहुँ मिलेगा, नहीं तो जमपुर बासा

सत्त   गहे  सतगुरू को  चीन्हे  सत्त-नाम  बिस्बासा

कहें कबीर साधन हितकारी, हम साधन के दासा।

 कबीर ने लोगों को चेताया की जीवन है और जीवन में ही मुक्ति है, मृत्यु के बाद मुक्ति का कोई भी अन्य साधन आशा नहीं है अतः जो हमारे पास साधन है. वही हमारी मुक्ति का माध्यम है. मुक्ति जीवन का भ्रम है.  कबीर ने अपने समय की व्याप्त विसंगतियों ,अंधविश्वासों को लोगों के सामने उजागर किया है.ढोंग और पाखंडॴ यों से उन लोगों को बचाने का उपक्रम किया है यही साहित्य का मूल उद्देश्य साहित्य अपने समय के साथ चलते हुए जीवन और समाज में व्याप्त कमजोरियों विसंगतियों पाखंडियों को उखाड़ कर बेहतर जीवन का मार्ग निर्माण करता है जब हम उन चीजों को पढ़ते हैं तो उस समय काल को भी पढ़ रहे होते हैं उस समय काल को भी जीवन से जोड़ते हैं. तब हमें पता चलता है की साहित्य अपने समय से लोगों को परिचय करा रहा है .एक नया इतिहास रचता है और भविष्य के लिए आगे पीढ़ी को अवगत कराता है तब साहित्य को समय के समयांतर को लेकर बात करते हैं. तब हम कुछ न कुछ गढ़ रहे होते.बुन रहे होते हैं यह यह बुनना चुनना, गढ़ना, पढ़ना ही साहित्य हैं जो जीवन के मूल से साझात्कार कराता है..

***

क्रमशः….. ( शेष अगले अंको में.)

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 3 – “ज़िंदा है” ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।  आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “ज़िंदा है”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल # 3 – “ज़िंदा है” ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

फ़रमाते हैं, वह नाफ़ानी दुनिया में अभी ज़िंदा है,

पूरी दुनिया जिस तरह काग़ज़ी पैकर में ज़िंदा है।

 

इंसान दिली ख्वाहिशों से बंधा जिद्दी परिंदा है,

बेमुद्दत अरमानों से  घायल उन्ही में ज़िंदा है।

 

खोखले खोल में उड़ता फिरता है हरेक शख़्स,

अपनी हसरतों और मंसूबों की क़ैद में ज़िंदा है।

 

मालिक ने जीस्त की हर आरज़ू पूरी कर दीं,

उससे मिलने की बस एक आस में ज़िंदा है।

 

ज़िंदगी में दोस्तों ने परेशान तो बहुत किया,

पर उन्ही की मुहब्बत ओ दुआओं में ज़िंदा है।

 

कुछ बोलो नाकामियों पर उसकी हँस ही लो,

“आतिश” का अहसास अभी दिलों में ज़िंदा है।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #66 – यात्रा बहुत छोटी है ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #66 – यात्रा बहुत छोटी है ☆ श्री आशीष कुमार

एक बुजुर्ग महिला बस में यात्रा कर रही थी। अगले पड़ाव पर, एक मजबूत, क्रोधी युवती चढ़ गई और बूढ़ी औरत के बगल में बैठ गई। उस क्रोधी युवती ने अपने  बैग से कई  बुजुर्ग महिला को चोट पहुंचाई।

जब उसने देखा कि बुजुर्ग महिला चुप है, तो आखिरकार युवती ने उससे पूछा कि जब उसने उसे अपने बैग से मारा तो उसने शिकायत क्यों नहीं की?

बुज़ुर्ग महिला ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया: “असभ्य होने की या इतनी तुच्छ बात पर चर्चा करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आपके बगल में मेरी यात्रा बहुत छोटी है, क्योंकि मैं अगले पड़ाव पर उतरने जा रही हूं।”

यह उत्तर सोने के अक्षरों में लिखे जाने के योग्य है: “इतनी तुच्छ बात पर चर्चा करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हमारी यात्रा एक साथ बहुत छोटी है।”

हम में से प्रत्येक को यह समझना चाहिए कि इस दुनिया में हमारा समय इतना कम है कि इसे बेकार तर्कों, ईर्ष्या, दूसरों को क्षमा न करने, असंतोष और बुरे व्यवहार के साथ जाया करना मतलब समय और ऊर्जा की एक हास्यास्पद बर्बादी है।

 

क्या किसी ने आपका दिल तोड़ा? शांत रहें।

यात्रा बहुत छोटी है।

 

क्या किसी ने आपको धोखा दिया, धमकाया, धोखा दिया या अपमानित किया? आराम करें – तनावग्रस्त न हों

यात्रा बहुत छोटी है।

 

क्या किसी ने बिना वजह आपका अपमान किया?  शांत रहें। इसे नजरअंदाज करो।

यात्रा बहुत छोटी है।

 

क्या किसी पड़ोसी ने ऐसी टिप्पणी की जो आपको पसंद नहीं आई?  शांत रहें।  उसकी ओर ध्यान मत दो। इसे माफ कर दो।

यात्रा बहुत छोटी है।

 

किसी ने हमें जो भी समस्या दी है, याद रखें कि हमारी यात्रा एक साथ बहुत छोटी है।

हमारी यात्रा की लंबाई कोई नहीं जानता। कोई नहीं जानता कि यह अपने पड़ाव पर कब पहुंचेगा।

हमारी एक साथ यात्रा बहुत छोटी है।

आइए हम दोस्तों और परिवार की सराहना करें।

आइए हम आदरणीय, दयालु और क्षमाशील बनें।

आखिरकार हम कृतज्ञता और आनंद से भर जाएंगे।

अपनी मुस्कान सबके साथ बाँटिये….

क्योंकि हमारी यात्रा बहुत छोटी है!

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 80 – कहाणी माई बाबांची ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 80 – कहाणी माई बाबांची ☆

कळवळले बाबांचे मन।

माईनेही दिली  साथ

सोडून सारे मोह बंधन।

 

नाही किळस वाटली

भळभळत्या जखमांची।

फाटक्या तुटक्या कपड्यांची,

नि झडलेल्या बोटांची ।

 

सुसंस्कृतांनी बहिष्कृत

केलेल्या कुष्ठरोग्यांची ।

असाह्य  पिडीत जीवांची

जाणून  गाथा या जीवांची।

 

धुतल्या जखमा आणि

केली त्यांनी मलमपट्टी ।

घातली पाखरं मायेची

केली वेदनांशी गट्टी ।

 

अंधारी बुडलेल्या जीवांना

दिली उमेद  जगण्याची ।

पाहून अधम दुराचार

लाहीलाही झाली मनाची।

 

हजारोने जमली जणू

फौजच ही दुखीतांची।

रक्ताच्या नात्यांने नाकारले

तीच गत समाजाची ।

 

कुत्र्याची नसावी अशी 

तडफड पाहून जीवांची।

दुःखी झाली माई बाबा

ऐकून कहानी कर्माची ।

 

पोटच्या मुलांनाही लाजावे

अशी सेवा केली सर्वांची ।

जोडली मने सरकानेही

दिली साथ मदतीची ।

 

स्वप्नातीत भाग्य लाभले। 

नि उमेद आली जगण्याची।

आमच्यासाठी आनंदवन उभारले।

माणसं मिळाली हक्काची ।

 

अंधारच धुसर झाला नि

प्रभात झाली जीवनाची ।

देवही करी हेवा अशीच

करणी माई आणि बाबांची ।

 

आम्हालाच किळस येते

तुमच्या कुजट  विचारांची।

 तुमच्या कुजट विचारांची।

 तुमच्या कुजट  विचारांची ।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 107 ☆ उपलब्धि बनाम आलोचना ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख उपलब्धि बनाम आलोचना।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 107 ☆

☆ उपलब्धि बनाम आलोचना ☆

उपलब्धि व आलोचना एक दूसरे के मित्र हैं। उपलब्धियां बढ़ेंगी, तो आलोचनाएं भी बढ़ेंगी। वास्तव मेंं ये दोनों पर्यायवाची हैं और इनका चोली-दामन का साथ है। इन्हें एक-दूसरे से अलग करने की कल्पना भी बेमानी है। उपलब्धियां प्राप्त करने के लिए मानव को अप्रत्याशित आपदाओं व कठिनाइयों से जूझना पड़ता है। जीवन में कठिनाइयाँ हमें बर्बाद करने के लिए नहीं आतीं, बल्कि ये हमारी छिपी हुई सामर्थ्य व शक्तियों को बाहर निकालने में हमारी मदद करती हैं। सो! कठिनाइयों को जान लेने दो कि आप उससे भी अधिक मज़बूत व बलवान हैं। इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों में धैर्य नहीं खोना चाहिए तथा आपदाओं को अवसर में बदलने का प्रयास करना चाहिए। कठिनाइयां हमें संचित आंतरिक शक्तियों व सामर्थ्य का एहसास दिलाती हैं और उनका डट कर सामना करने को प्रेरित करती हैं। इस स्थिति में मानव स्वर्ण की भांति अग्नि में तप कर कुंदन बनकर निकलता है और अपने भाग्य को सराहने लगता है। उसके हृदय में ‘शक्तिशाली विजयी भव’ का भाव घर कर जाता है, जिसके लिए वह भगवान का शुक्र अदा करता है कि उसने आपदाओं के रूप में उस पर करुणा-कृपा बरसायी है। इसके परिणाम-स्वरूप ही वह जीवन में उस मुक़ाम तक पहुंच सका है। दूसरे शब्दों में वह उपलब्धियां प्राप्त कर सका है, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी।

‘उम्र ज़ाया कर दी लोगों ने/ औरों के वजूद में नुक्स निकालते-निकालते/ इतना ख़ुद को तराशा होता/ तो फरिश्ता बन जाते’ गुलज़ार की यह सीख अत्यंत कारग़र है। परंतु मानव तो दूसरों की आलोचना कर सुक़ून पाता है। इसके विपरीत यदि वह दूसरों में कमियां तलाशने की अपेक्षा आत्मावलोकन करना प्रारंभ कर दे, तो जीवन से कटुता का सदा के लिए अंत हो जाए। परंतु आदतें कभी नहीं बदलतीं; जिसे एक बार यह लत पड़ जाती है, उसे निंदा करने में अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। वैसे आलोचना भी उसी व्यक्ति की होती है, जो उच्च शिखर पर पहुंच जाता है। उसकी पद-प्रतिष्ठा को देख लोगों के हृदय में ईर्ष्या भाव जाग्रत होता है और वह सबकी आंखों में खटकने लग जाता है। शायद इसलिए कहा जाता है कि जो सबका प्रिय होता है– आलोचना का केंद्र नहीं बनता, क्योंकि उसने जीवन में सबसे अधिक समझौते किए होते हैं। सो! उपलब्धि व आलोचना एक सिक्के के दो पहलू हैं और इनका चोली-दामन का साथ है।

समस्याएं हमारे जीवन में बेवजह नहीं आतीं।  उनका आना एक इशारा है कि हमें अपने जीवन में कुछ बदलाव लाना है। वास्तव में यह मानव के लिए शुभ संकेत होती हैं कि अब जीवन में बदलाव अपेक्षित है। यदि जीवन सामान्य गति से चलता रहता है, तो निष्क्रियता इस क़दर अपना जाल फैला लेती है कि मानव उसमें फंसकर रह जाता है। ऐसी स्थिति में उसमें अहम् का पदार्पण हो जाता है कि अब उसका जीवन सुचारू रूप से  चल रहा है और उसे डरने की आवश्यकता नहीं है। परंतु कठिनाइयां व समस्याएं मानव को शुभ संकेत देती हैं कि उसे ठहरना नहीं है, क्योंकि संघर्ष व निरंतर कर्मशीलता ही जीवन है। इसलिए उसे चलते जाना है और आपदाओं से नहीं घबराना है, बल्कि उनका सामना करना है। परिवर्तनशीलता ही जीवन है और सृष्टि में भी नियमितता परिलक्षित है। जिस प्रकार प्रात्रि के पश्चात् दिन, अमावस के पश्चात् पूनम व यथासमय ऋतु परिवर्तन होता है तथा प्रकृति के समस्त उपादान निरंतर क्रियाशील हैं। सो! मानव को उनसे सीख लेकर निरंतर कर्मरत रहना है। जीवन में सुख दु:ख तो मेहमान हैं…आते-जाते रहते हैं। परंतु एक के जाने के पश्चात् ही दूसरा दस्तक देता है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘नर हो ना निराश करो मन को/  कुछ काम करो, कुछ काम करो’, क्योंकि गतिशीलता ही जीवन है और निष्क्रियता मृत्यु है।

सम्मान हमेशा समय व स्थिति का होता है। परंतु इंसान उसे अपना समझ लेता है। खुशियां धन-संपदा पर नहीं, परिस्थितियों पर निर्भर करती हैं। एक बच्चा गुब्बारा खरीद कर खुश होता है, तो दूसरा बच्चा उसे बेचकर फूला नहीं समाता। व्यक्ति को सम्मान, पद-प्रतिष्ठा अथवा उपलब्धि संघर्ष के बाद प्राप्त होती है, परंतु वह सम्मान उसकी स्थिति का होता है। परंतु बावरा मन उसे अपनी उपलब्धि समझ हर्षित होता है। प्रतिष्ठा व सम्मान तो रिवाल्विंग चेयर की भांति होता है, जब तक आप पद पर हैं और सामने हैं, सब आप को सलाम करते हैं। परंतु आपकी नज़रें घूमते ही लोगों के व्यवहार में अप्रत्याशित परिवर्तन हो जाता है। सो! खुशियां परिस्थितियों पर निर्भर होती हैं, जो आप की अपेक्षा होती हैं, इच्छा होती है। यदि उनकी पूर्ति हो जाए, तो आपके कदम धरती पर नहीं पड़ते। यदि आपको मनचाहा प्राप्त नहीं होता, तो आप हैरान-परेशान हो जाते हैं और कई बार वह निराशा अवसाद का रूप धारण कर लेती है, जिससे मानव आजीवन मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता।

मानव जीवन क्षण-भंगुर है, नश्वर है, क्योंकि इस संसार में स्थायी कुछ भी नहीं। हमें अगली सांस लेने के लिए पहली सांस को छोड़ना पड़ता है। इसलिए जो आज हमें मिला है, सदा कहने वाला नहीं; फिर उससे मोह क्यों? उसके न रहने पर दु:ख क्यों? संसार में सब रिश्ते-नाते, संबंध- सरोकार सदा रहने वाले नहीं हैं। इसलिए उन में लिप्त नहीं होना चाहिए, क्योंकि जो आज हमारा है, कल मैं छूटने वाला है, फिर चिन्ता व परेशानी क्यों? ‘दुनिया का उसूल है/ जब तक काम है/  तेरा नाम है/ वरना दूर से ही सलाम है।’ हर व्यक्ति किसी को सलाम तभी करता है, जब तक वह उसके स्वार्थ साधने में समर्थ है तथा मतलब निकल जाने के पश्चात् मानव किसी को पहचानता भी नहीं। यह दुनिया का दस्तूर है इसका बुरा नहीं मानना चाहिए।

समस्याएं भय और डर से उत्पन्न होती हैं। यदि भय, डर,आशंका की जगह विश्वास ले ले, तो समस्याएं अवसर बन जाती हैं। नेपोलियन विश्वास के साथ समस्याओं का सामना करते थे और उसे अवसर में बदल डालते थे। यदि कोई समस्या का ज़िक्र करता था, तो वे उसे बधाई देते हुए कहते थे कि ‘यदि आपके पास समस्या है, तो नि:संदेह एक बड़ा अवसर आपके पास आ पहुंचा है। अब उस अवसर को हाथों-हाथ लो और समस्या की कालिमा में सुनहरी लकीर खींच दो।’ नेपोलियन का यह कथन अत्यंत सार्थक है। ‘यदि तुम ख़ुद को कमज़ोर सोचते हो, तो कमज़ोर हो जाओगे। अगर ख़ुद को ताकतवर सोचते हो, तो ताकतवर’ स्वामी विवेकानंद जी का यह कथन मानव की सोच को सर्वोपरि दर्शाता है कि हम जो सोचते हैं, वैसे बन जाते हैं। इसलिए सदैव अच्छा सोचो; स्वयं को ऊर्जस्वितत अनुभव करो, तुम सब समस्याओं से ऊपर उठ जाओगे और उनसे उबर जाओगे। सो! आपदाओं को अवसर बना लो और उससे मुक्ति पाने का हर संभव प्रयास करो। आलोचनाओं से भयभीत मत हो, क्योंकि आलोचना उनकी होती है, जो काम करते हैं। इसलिए निष्काम भाव से कर्म करो। सत्य शिव व सुंदर है, भले ही वह देर से उजागर होता है। इसलिए घबराओ मत। बच्चन जी की यह पंक्तियां ‘है अंधेरी रात/ पर दीपक जलाना कब मना है’ मानव में आशा का भाव संचरित करती हैं। रात्रि के पश्चात् सूर्योदय होना निश्चित है। इसलिए धैर्य बनाए रखो और सुबह की प्रतीक्षा करो। थक कर बीच राह मत बैठो और लौटो भी मत। निरंतर चलते रहो, क्योंकि चलना ही जीवन है, सार्थक है, मंज़िल पाने का मात्र विकल्प है। आलोचनाओं को सफलता प्राति का सोपान स्वीकार अपने पथ पर निरंतर अग्रसर हो।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 58 ☆ महामारियों से सीख लेना परमावश्यक ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “महामारियों से सीख लेना परमावश्यक।)

☆ किसलय की कलम से # 58 ☆

☆ महामारियों से सीख लेना परमावश्यक ☆

छिति, जल, पावक, गगन, समीरा

पंच रचित् अति अधम सरीरा

प्राणियों और वनस्पतियों का जीवन उक्त पंच महाभूतों, पृथ्वी के विभिन्न तत्त्वों व इनसे निर्मित पदार्थों पर निर्भर है। प्रत्येक प्राणियों एवं वनस्पतियों में विभिन्न कारणों से कोई न कोई बीमारी लगना आम बात है। इन बीमारियाँ के अनेक प्रकार होते हैं। कुछ बीमारियाँ गंभीर प्रकृति की होती हैं, जिनसे जीव व वनस्पतियों का अंत भी होता आया है। बीमारियों का क्षेत्र सीमित अथवा व्यापक हो सकता है। इनकी अवधि कुछ दिनों से लेकर कई कई वर्षों तक हो सकती है।

विश्व में मनुष्यों की बीमारियों को लेकर लगातार अनुसंधान व इनके सटीक उपचार हेतु गहन अध्ययन व परीक्षण किये जा रहे हैं। नई-नई दवाईयों की खोज निरंतर की जा रही है। हम इतिहास देखें तो पाएँगे कि लाल बुखार, प्लेग, मलेरिया, बड़ी चेचक, एड्स, स्वाइन फ्लू एवं इस सदी की कोरोना (कोविड-19) जैसी भयानक महामारी की विभिषिकाओं ने तात्कालिक जनजीवन अस्त-व्यस्त किया है। बावजूद इसके मानव ने इन सब पर विजय भी प्राप्त की है। कोरोना बीमारी के विरुद्ध भारत की त्वरित सुरक्षात्मक प्रशासनिक कार्यवाही व कोरोना रोगप्रतिरोधी टीकाकरण अभियान ने विश्व को दिखा दिया है कि भारत द्वारा कोरोना विरोधी अभियान सबसे कारगर था।

विगत में फैली महामारियों के दुष्परिणामों एवं वर्तमान के कोरोना से अस्त-व्यस्त हुए समाज को पुनः पटरी पर आने में पता नहीं कितना वक्त लगेगा। इस महामारी के दौरान जनहानि के तो ऐसे ऐसे हृदय-विदारक दृश्य उपस्थित हुए हैं कि जिन्हें आजीवन नहीं भुलाया जा सकेगा। लोगों के रोजगार-धंधे चौपट हो गए। अच्छे-भले व्यापारी सड़क पर आ गए। लोगों का जमा जमाया कारोबार ठप्प हो गया। गरीबों की हालत बयां करने हेतु हमारे पास शब्द नहीं हैं। सामयिक सरकारी राहत तथा खाद्य सामग्री के भरोसे जीवन सँवरा नहीं करते। भूख मिटाना आपदा में आई मुसीबत का निराकरण नहीं है। कोरोना के पूर्व लोग जिस तरह अपने पसंद की जिंदगी जी रहे थे, क्या अभी संभव है, ये बात संपन्न-संभ्रांत लोगों की नहीं, सर्वहारा समाज की है। रोज की मजदूरी से जीवन-यापन करने वाले लोगों ने जो पाई-पाई जोड़कर कुछ रकम बचाई थी, वह तो कोरोना अवधि की बेरोजगारी के चलते समाप्त हो गई। अब तो यदि मजदूरी नहीं की तो खाने के भी लाले पड़ जाएँगे, अभी ये बचत की  सोच भी नहीं सकते।

दुर्घटनाएँ, बीमारियाँ अथवा कोई महामारी बताकर नहीं आती। अचानक आई आपदा निश्चित रूप से बहुत हानिकारक व भयावह होती है। विगत से ली गई सीख और इस कोरोना महामारी ने जनसामान्य एवं सरकार को भी सतर्क रहने तथा ऐसी किसी भी विकट परिस्थितियों से निपटने के लिए सदैव तत्पर रहना सिखा दिया है।

एक अहम बात संपूर्ण विश्व की समझ में आ चुकी है कि भविष्य में ऐसी आपदाओं का आना पुनः संभाव्य है, बस हमें समय व स्थान का पता नहीं होगा। हम विगत की महामारियों के दुष्परिणाम पूर्व में ही सुन चुके हैं। अब हमने वर्तमान कोरोना महामारी का प्रलयंकारी रूप भी देख लिया है। इन महामारियों से बचना और बचाना अब हर मानव का सामाजिक दायित्व बन गया है। बूँद-बूँद जल से घड़ा भरता है। एक और एक ग्यारह भी होते हैं। इसलिए ‘पहले आप’ के स्थान पर ‘पहले स्वयं’ ही अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना और सुरक्षित रहना सीख लें। तभी ये बातें सार्थक होंगी।

इतनी विपरीत परिस्थितियों में रहकर भी यदि हम नहीं सुधरे, आशय यह है कि हम अब भी नवीनतम तकनीकि जनित सुख-सुविधाओं व ऐशोआराम के पीछे ही पड़े रहे, तो यह बात भी स्मरण रखिये कि ऐसी परिणति का ‘कोरोना’ सिर्फ एक नमूना है, इससे भी विषम परिस्थितियों का सामना भविष्य में करना पड़ सकता है।

हमें अब अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारना बंद करना होगा। आज हम जिस डाल पर बैठे हैं उसी डाल को ही काटने पर तुले हुए हैं, अर्थात हम जिस धरा पर जीवन जी रहे हैं, उसी का बेरहमी से दोहन कर रहे हैं, दुरुपयोग और अत्याचार कर रहे हैं। यदि अब भी मानव ने प्रकृति के साथ छेड़छाड़  बंद नहीं की। प्रकृति के अनुकूल उसके आँचल में जीना प्रारंभ नहीं किया तो  भविष्य बदतर और भयानक होगा ही, मौलिक जरूरतें जैसे हवा, पानी, आवास, प्राकृतिक खाद्य सामग्रियों के भी लाले पड़ने वाले हैं। तब इन सब के अभाव में मृत्यु जैसी घटनाओं को भी सहजता में लिया जाएगा, हम इसे भी न भूलें।

आज इन महामारियों से सीख लेना परमावश्यक हो गया है। हमें प्रगति की अंधी दौड़ से बचना होगा। हमें पर्यावरण बचाना होगा। साथ ही प्रकृति के निकट रहने के आदत डालना होगी। वर्तमान की जीवन शैली का परित्याग कर हमें स्वीकार करना होगा कि भारतीय परंपरानुसार जीवन जीना ही हर आपदा का निदान है।

आईये, अपने वेदोक्त-

          सर्वे भवन्तु सुखिनः,

          सर्वे सन्तु निरामया।

          सर्वे भद्राणि पश्यन्तु

          मा कश्चित् दुख भाग् भवेत्

अर्थात सभी सुखी हों, सभी रोग मुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुख का भागी न बनना पड़े।

उक्त भावों को हृदयंगम करते हुए हम ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के प्रयास प्रारंभ करें। निश्चित रूप से सुख-शांति का सबके जीवन में डेरा होगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 106 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 106 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

अपराधी पाकर शरण,

होते धन्य सनाथ।

रहता जिनके शीश पर,

नेताजी का हाथ।।

 

लगा रही गोता लगन,

    दो नैनों की झील।

सुध-बुध खोकर बावरा,

   करता प्यार अपील।।

 

शिशु की पुलकन देखकर,

 मन में उठी उमंग।

लगा रही है प्यार से,

माँ की ममता अंग।।

 

विरह प्रेम में जल रहा,

 मन में एक अलाव।

शांत हुई क्रमशः जलन,

 था मनुहार-प्रभाव।।

 

जीवन के हैं चार दिन,

   करो नहीं तुम बैर।

हिल मिल कर करते रहो,

    प्रेम गली की सैर।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 95 ☆ फासले न बढ़ाओ…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण रचना  “फासले न बढ़ाओ ….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 95 ☆

☆ फासले न बढ़ाओ …. ☆

कभी तो कुछ समझदारी किया करो

मुहब्बत  से    जरा यारी  किया करो

 

औरों पर  तो  रखते  हो  खूब  नजर

अपनी भी कुछ पहरेदारी किया करो

 

दिल ने जब जो चाहा झट बोल दिया

अरे  कुछ  तो  पर्दादारी  किया   करो

 

सौगात  राहतों  की  वो  रोज  दे  रहे

मंहगाई  पर  भी  सवारी  किया करो

 

मिले कुछ गुरबत से राहत गरीबों को

फरमान  ऐसे  भी  जारी किया  करो

 

नफरत से कुछ न हासिल होगा तुम्हें

प्यार से बातें  अब प्यारी  किया करो

 

फासले न बढ़ाओ इंसानों के दरम्यां

“संतोष” काम परहितकारी किया करो

 

भूल कर सभी नादानी,कहाँ चल दिये

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 100 – माझे आजोबा……! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 100 – विजय साहित्य ?

☆ माझे आजोबा……! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

(काव्य प्रकार – पंचाक्षरी काव्य)

यशाचे बोट

प्रेम अलोट

माझे आजोबा

हिरवी नोट….!

 

प्रेमळ मित्र

हळवे चित्र

माझे आजोबा

संस्कार सत्र….!

 

शांत गाभारा

लाभे निवारा

माझे आजोबा

अमृत धारा….!

 

समाज प्रेमी

साहित्य प्रेमी

माझे आजोबा

कुटुंब प्रेमी….!

 

चंद्र हजार

सुखी संसार

माझे आजोबा

जीवनाधार…..!

 

सुर्य कलता

हात हलता

माझे आजोबा

मंत्र जाणता….!

 

हवे हवेसे

रजे मजेचे

माझे आजोबा

नाते उषेचे…!

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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