(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “बूढ़ा शायर”।)
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण ग़ज़ल “अटपटी दुनियॉं”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा # काव्य धारा 62 ☆ गजल – अटपटी दुनियॉं ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #74 – दु:ख, पाप और कर्म☆ श्री आशीष कुमार☆
दु:ख भुगतना ही, कर्म का कटना है. हमारे कर्म काटने के लिए ही हमको दु:ख दिये जाते है. दु:ख का कारण तो हमारे अपने ही कर्म है, जिनको हमें भुगतना ही है। यदि दु:ख नही आयेगें तो कर्म कैसे कटेंगे?
एक छोटे बच्चे को उसकी माता साबुन से मलमल के नहलाती है जिससे बच्चा रोता है. परंतु उस माता को, उसके रोने की, कुछ भी परवाह नही है, जब तक उसके शरीर पर मैल दिखता है, तब तक उसी तरह से नहलाना जारी रखती है और जब मैल निकल जाता है तब ही मलना, रगड़ना बंद करती है।
वह उसका मैल निकालने के लिए ही उसे मलती, रगड़ती है, कुछ द्वेषभाव से नहीं. माँ उसको दु:ख देने के अभिप्राय से नहीं रगड़ती, परंतु बच्चा इस बात को समझता नहीं इसलिए इससे रोता है।
इसी तरह हमको दु:ख देने से परमेश्वर को कोई लाभ नहीं है. परंतु हमारे पूर्वजन्मों के कर्म काटने के लिए, हमको पापों से बचाने के लिए और जगत का मिथ्यापन बताने के लिए वह हमको दु:ख देता है।
अर्थात् जब तक हमारे पाप नहीं धुल जाते, तब तक हमारे रोने चिल्लाने पर भी परमेश्वर हमको नहीं छोड़ता ।
इसलिए दु:ख से निराश न होकर, हमें परमेश्वर से मिलने के बारे मे विचार करना चाहिए और भजन सुमिरन का ध्यान करना चाहिए..!!
“…दैनंदिन जीवनात व व्यापार उद्योगात काम करत असताना ,आपण वास्तववादी, विज्ञाननिष्ठ,
अध्यात्मवादी असणे महत्वाचे आहे. त्याचबरोबर कष्टाला प्रामाणिकपणाची जोड द्या .चिकित्सक रहा.व नवीन कौशल्य आत्मसात करा. तात्पुरता विचार न करता, दीर्घकालीन विचार करा.व व्यसनांपासून लांब रहाल तर तुमचे यश निश्चित आहे….”
.”..स्वत:साठी जगत असताना इतरांच्या जीवनात आनंद निर्माण करण्याचा प्रयत्न प्रत्येक व्यक्तीने केल्यास, सर्व समाज सुखी झाल्याशिवाय रहाणार नाही…”.
“…महिला ही केवळ कुटुंबच एकत्र करते असे नाही, तर समाजदेखील एकत्र करण्यात तिचा मोलाचा वाटा असतो. महिलांनी कौटुंबिक जबाबदारीबरोबर समाजासाठी देखील वेळ देऊन आपले अस्तित्व निर्माण करावे.नवीन ओळखी निर्माण कराव्यात. समाजाला एकत्त्रित करुन समाजाची प्रगती साधावी. कारण जेव्हां समाज एकत्र येतो, तेव्हां सर्वांची प्रगती होत असते….”.
“….मनुष्य आयुष्यभर शिकतच असतो. मुलांना शिकवता शिकवता त्यांच्याकडून देखील अनेक गोष्टी शिकत असतो. मुलं म्हणजे देवाघरची फुलं..ती निरागस ,प्रेमळ, निस्वार्थी, निर्मळ मनाची असतात. मुलांमधील सकारात्मक गुण, त्यांच्यातील उर्जा, आपल्याला सदैव प्रसन्न ठेवते…”
—–असे लाखमोलाचे संदेश मा. देवेंद्र भुजबळ यांनी संपादित केलेल्या समाजभूषण या पुस्तकातून मिळाले. या पुस्तकात जवळजवळ पस्तीस लोकांच्या, जे स्वत:बरोबर समाजाच्या ऊन्नतीसाठी प्रयत्नशील, प्रयोगशील राहिले, त्यांच्या यशकथा आहेत. सोमवंशीय क्षत्रीय कासार समाजातले हे मोती देवेंद्रजींनी वेचले आणि ते या पुस्तकरुपाने वाचकांसमोर ठेवून, जीवनाविषयीचा दृष्टीकोनच तेजाळून टाकला…
एक जाणवतं, की ही सारी कर्तुत्ववान माणसं एका विशिष्ट समाजातलीच असली, तरी देवेंद्रजींचा उद्देश व्यापक आहे. सर्वसमावेशक आहे…अशा अनेक व्यक्ती असतील ज्यांच्या यशोगाथा प्रेरक आहेत. त्या सर्वांप्रती पोहचविण्याचं एक सुवर्ण मोलाचं काम करुन, अपयशी, निराश, भरकटलेल्या दिशाहीन लोकांना उमेद मिळावी या सद्हेतूने त्यांनी हे पुस्तक लिहीले हे नक्कीच—
मराठी माणसं स्वयंसिद्ध नसतात. उद्योगापेक्षा त्यांना नोकरी सुरक्षित वाटते. पाउलवाट बदलण्याची त्यांची मानसिकता नसते —या सर्व विचारांना छेद देणार्या कहाण्या या पस्तीस लोकांच्या आयुष्यात डोकावतांना वाचायला मिळतात.
बहुतांशी या सार्या व्यक्ती सर्वसाधारण ,सामान्य पार्श्वभूमी असलेल्या कुटुंबात,जन्माला आलेल्या. पण जगताना स्वप्नं उराशी बाळगून जगल्या. यात भेटलेल्या नायक नायिकेचा सामाईक गुण म्हणजे ते बदलत्या काळानुसार बदलले. त्यांनी शिक्षणाची कास धरली. धडाडीने नवे मार्ग निवडले. संघर्ष केला .काटे टोचले. मन आणि शरीर रक्तबंबाळ झाले .पण बिकट वाट सोडली नाही. न्यूनगंड येऊ दिला नाही.आत्मविश्वास तुटू दिला नाही. वेळेचं उत्तम नियोजन, कामातील शिस्त, प्रामाणिकपणा, आधुनिकता, प्रचंड मेहनत, चिकाटी व नैतिकता, व्यवसायातल्या बारकाव्यांचा सखोल अभ्यास हे विशेष गुण असल्याने ते यशाचे शिखर गाठू शकले…
शिवाय यांना समाजभूषण कां म्हणायचं..तर ही सारी मंडळी स्वत:तच रमली नाहीत .आपण आपल्या समाजाचे प्रथम देणेकरी आहोत या भावनेने ते प्रेरित होते..समाजाच्या उन्नतीसाठी त्यांनी आपलं यश वाटलं—-
हे पुस्तक वाचताना आणखी एक जाणवलं, की आपलं अस्तित्व सिद्ध करण्यासाठी अनंत क्षेत्रं आपल्यापुढे आव्हान घेऊन उभी आहेत. फक्त त्यात उडी मारण्याची मानसिकता हवी. आणि व्यापक दृष्टीकोन हवा. कुठलंही काम कमीपणाचं नसतं. स्वावलंबी ,स्वाभिमानी असणं महत्वाचं आहे…
या पुस्तकातील ही पस्तीस माणसं, त्यांच्या कार्याने, विचारप्रणालीने, मनाच्या गाभार्यात दैवत्वरुपाने वास करतात—
शिवाय विविध क्षेत्रात नेत्रदीपक कर्तुत्व गाजवणार्या या पस्तीस लोकांबद्दल वेचक तेव्हढंच लिहीलं आहे. एकही लेख पाल्हाळीक नाही. हे सर्व श्रेय,मा. देवेंद्र भुजबळ, रश्मी हेडे, डॉ.स्मिता होटे, दीपक जावकर ,प्रसन्न कासार, या लेखकांच्या शब्द कौशल्याला आहे.
अत्यंत सकारात्मक, प्रेरणादायी, ऊर्जा देणारं,,फक्त युवापिढीसाठीच नव्हे तर ज्येष्ठांसाठी सुद्धा —-असं हे सुंदर पुस्तक.संग्रही असावं असंच—
देवेंद्रजी आपले अभिनंदन तर करतेच. पण माझ्यासारख्या वाचनवेडीला पौष्टिक खुराक दिल्याबद्दल खूप खूप धन्यवाद !!! आणि मन:पूर्वक शुभेच्छा !!
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख वक्त और उलझनें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 115 ☆
☆ वक्त और उलझनें ☆
‘वक्त भी कैसी पहेली दे गया/ उलझनें सौ और ज़िंदगी अकेली दे गया।’ रास्ते तो हर ओर होते हैं, परंतु यह आप पर निर्भर करता है कि आपको रास्ता पार करना है या इंतज़ार करना है, क्योंकि यह आपकी सोच पर निर्भर करता है। वैसे आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं, तभी तो मामले सुलझते कम और उलझते अधिक हैं। जी हां! यही सत्य है ज़िंदगी का… ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ अर्थात् जीवन में सीख देने वाले, मार्गदर्शन करने वाले बहुत मिल जाएंगे, भले ही वे ख़ुद उन रास्तों से अनजान हों और उनके परिणामों से बेखबर हों। वैसे बावरा मन ख़ुद को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझता है और हताशा-निराशा की स्थिति में उन पर विश्वास कर लेता है; जो स्वयं अज्ञानी हैं और अधर में लटके हैं।
स्वर्ग-नरक की सीमाएं निर्धारित नहीं है। परंतु हमारे विचार व कार्य-व्यवहार ही स्वर्ग-नरक का निर्माण करते हैं। यह कथन कोटिश: सत्य है कि जैसी हमारी सोच होती है; वैसे हमारे विचार और कर्म होते हैं, जो हमारी सोच हमारे व्यवहार से परिलक्षित होते हैं; जिस पर निर्भर होती है हमारी ज़िंदगी; जिसका ताना-बाना भी हम स्वयं बुनते हैं। परंतु मनचाहा न होने पर दोषारोपण दूसरों पर करते हैं। यह मानव का स्वभाव है, क्योंकि वह सदैव यह सोचता है कि वह कभी ग़लती कर ही नहीं सकता, भले ही मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। इसलिए मानव को यह सीख दी जाती है कि यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन और कुछ नहीं, हमारी सोच का ही साकार रूप है। इसके साथ ही महात्मा बुद्ध की यह सीख भी विचारणीय है कि आवश्यकता से अधिक सोचना अप्रसन्नता व दु:ख का कारण है। इसलिए मानव को व्यर्थ चिंतन व अनर्गल प्रलाप से बचना चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियां हानिकारक हैं; जो मानव को पतन की ओर ले जाती हैं। इसलिए आवश्यकता है आत्मविश्वास की, क्योंकि असंभव इस दुनिया में कुछ है ही नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और जो हमने आज तक सोचा ही नहीं। इसलिए लक्ष्य निर्धारित कीजिए; अपनी सोच ऊंची रखिए और आप सब कुछ कर गुज़रेंगे, जो कल्पनातीत था। जीवन में कोई रास्ता इतना लम्बा नहीं होता, जब आपकी संगति अच्छी हो अर्थात् हम गलियों से होकर ही सही रास्ते पर आते हैं। सो! मानव को कभी निराश नहीं होना चाहिए। ‘नर हो, न निराश करो मन को’ का संबंध है निरंतर गतिशीलता से है; थक-हार कर बीच राह से लौटने व पराजय स्वीकारने से नहीं, क्योंकि लौटने में जितना समय लगता है, उससे कम समय में आप अपनी मंज़िल तक पहुंच सकते हैं। सही रास्ते पर पहुंचने के लिए हमें असंख्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो संघर्ष द्वारा संभव है।
संघर्ष प्रकृति का आमंत्रण है; जो स्वीकारता है, आगे बढ़ता है। संघर्ष जीवन-प्रदाता है अर्थात् द्वन्द्व अथवा दो वस्तुओं के संघर्ष से तीसरी वस्तु का जन्म होता है; यही डार्विन का विकासवाद है। संसार में ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात् जीवन में वही सफलता प्राप्त कर सकता है, जो अपने हृदय में शंका अथवा पराजय के भाव को नहीं आने देता। इसलिए मन में कभी पराजय भाव को मत आने दो… यही प्रकृति का नियम है। रात के पश्चात् भोर होने पर सूर्य अपने तेज को कम नहीं होने देता; पूर्ण ऊर्जा से सृष्टि को रोशन करता है। इसलिए मानव को भी निराशा के पलों में अपने साहस व उत्साह को कम नहीं होने देना चाहिए, बल्कि धैर्य का दामन थामे पुन: प्रयास करना चाहिए, जब तक आप निश्चित् लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते। मानव में असंख्य संभावनाएं निहित हैं। आवश्यकता है, अपने अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचानने व संचित करने की। सो! निष्काम कर्म करते रहिए, मंज़िल बढ़कर आपका स्वागत-अभिवादन अवश्य करेगी।
वक्त पर ही छोड़ देने चाहिए, कुछ उलझनों के हल/ बेशक जवाब देर से मिलेंगे/ मगर लाजवाब मिलेंगे। वक्त सबसे बड़ा वैद्य है। समय के साथ गहरे से गहरे घाव भी भर जाते हैं। इसलिए मानव को संकट की घड़ी में हैरान-परेशान न होकर, समाधान हेतु सब कुछ सृष्टि-नियंंता पर छोड़ देना चाहिए, क्योंकि परमात्मा के घर देर है, अंधेर नहीं। उसकी अदालत में निर्णय देरी से तो हो सकते हैं, परंतु उलझनों के हल लाजवाब मिलते हैं, परमात्मा वही करता है, जिसमें हमारा हित होता है। ‘ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय/ कभी यह हंसाए, कभी यह रुलाए।’ इसे न तो कोई समझा है, न ही जान पाया है। इसलिए यह समझना आवश्यक हैरान कि इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। आप इस प्रकार जिएं कि आपको मर जाना है और इस प्रकार की सीखें कि आपको सदा जीवित रहना है। यही मर्म है जीवन का…मानव जीवन पानी के बुलबुले की भांति क्षण-भंगुर है।जो ‘देखत ही छिप जाएगा, ज्यों तारा प्रभात।’ सो! आप ऐसे मरें कि लोग आपको मरने के पश्चात् भी याद रखें। वैसे ‘Actions speak louder than words.’कर्म शब्दों से ऊंची आवाज़ में अपना परिचय देते हैं। सो!आप श्रेष्ठ कर्म करें कि लोग आपके मुरीद हो जाएं तथा आपका अनुकरण- अनुसरण करें।
श्रेठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। आप अपने संस्कारों से जाने जाते हैं और व्यवहार से श्रेष्ठ माने जाते हैं। अपनी सोच अच्छी व सकारात्मक रखें, क्योंकि नज़र का इलाज तो संभव है; नज़रिए का नहीं। सो! मानव का दृष्टिकोण व नज़रिया बदलना संभव नहीं है। शायद! इसलिए कहा जाता है कि मानव की आदतें जीते जी नहीं बदलती, चिता की अग्नि में जलने के पश्चात् ही बदल सकती हैं। इसलिए उम्मीद सदैव अपने से कीजिए; दूसरों से नहीं, क्योंकि इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो दूसरों से की जाती हैं। इसलिए मुसीबत के समय इधर-उधर नहीं झांकें; आत्मविश्वास प्यार व धैर्य बनाए रखें; मंज़िल आपका बाहें फैलाकर अभिनंदन करेगी। जीवन में लोगों की संगति कीजिए, जो बिना स्वार्थ व उम्मीद के आपके लिए मंगल कामना करते हैं। वास्तव में उन्हें क्षआपकी परवाह होती है और वे आपका हृदय से सम्मान करते हैं।
सो! जिसके साथ बात करने से खुशी दोगुनी व दु:ख आधा हो जाए, वही अपना है। ऐसे लोगों को जीवन में स्थान दीजिए, इससे आपका मान-सम्मान बढ़ेगा और दु:खों के भंवर से मुक्ति पाने में भी आप समर्थ होंगे। यदि सपने सच नहीं हो रहे हैं, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। सो! अपना निश्चय दृढ़ रखो और अन्य विकल्प की ओर ध्यान दो। यदि मित्र आपको पथ-विचलित कर रहे हैं, तो उन्हें त्याग दीजिए, अन्यथा वे दीमक की भांति आप की जड़ों को खोखला कर देंगे और आपका जीवन तहस-नहस हो जाएगा। सो! ऐसे लोगों से मित्रता बनाए रखें, जो दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखने का हुनर जानते हैं। वे न कभी दु:खी होते हैं; न ही दूसरे को संकट में डाल कर सुक़ून पाते हैं। निर्णय लेने से पहले शांत मन से चिंतन-मनन कीजिए, क्योंकि आपकी आत्मा जानती है कि आपके लिए क्या उचित व श्रेयस्कर है। सो! उसकी बात मानिए तथा स्वयं को ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त रखिए। आप मानसिक तनाव से मुक्त रहेंगे। व्यर्थ का कचरा अपने मनोमस्तिष्क में मत भरिए, क्योंकि वह अवसाद का कारण होता है।
दुनिया का सबसे कठिन कार्य होता है–स्वयं को पढ़ना, परंतु प्रयास कीजिए। अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें समझना सुगम नहीं, अत्यंत दुष्कर होता है। इसके लिए आपको एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है ‘बुरी संगति से अकेला भला।’ दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि पुस्तकें इंसान की सबसे अच्छे मित्र होती हैं; कभी ग़लत राह नहीं दर्शाती। ख्याल रखने वालों को ढूंढना पड़ता है; इस्तेमाल करने वाले तो ख़ुद ही आपको ढूंढ लेते हैं।
दुनिया एक रंगमंच है, जहां सभी अपना-अपना क़िरदार अदा कर चले जाते हैं। शेक्सपीयर की यह उक्ति ध्यातव्य है कि इस संसार में हर व्यक्ति विश्वास योग्य नहीं होता। इसलिए उन्हें ढूंढिए, जो मुखौटाधारी नहीं हैं, क्योंकि समयानुसार दूसरों का शोषण करने वाले, लाभ उठाने वाले अथवा इस्तेमाल करने वाले तो आपको तलाश ही लेंगे… उनसे दूरी बनाए रखें; उनसे सावधान रहें तथा ऐसे दोस्त तलाशें…धोखा देना जिनकी फ़ितरत न हो।
अकेलापन संसार में सबसे बड़ी सज़ा है और एकांत सबसे बड़ा वरदान। एकांत की प्राप्ति तो मानव को सौभाग्य से प्राप्त होती है, क्योंकि लोग अकेलेपन को जीवन का श्राप समझते हैं, जबकि यह तो एक वरदान है। अकेलेपन में मानव की स्थिति विकृत होती है। वह तो चिन्ता व मानसिक तनाव में रहता है। परंतु एकांत में मानव अलौकिक आनंद में विचरण करता रहता है। इस स्थिति को प्राप्त करने के निमित्त वर्षों की साधना अपेक्षित है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो मानव को सबसे अलग-अलग कर देता है और वह तनाव की स्थिति में पहुंच जाता है। इसके लिए दोषी वह स्वयं होता है, क्योंकि वह ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ ही नहीं, सर्वोत्तम समझता है और दूसरों के अस्तित्व को नकारना उसका स्वभाव बन जाता है। ‘ घमंड मत कर दोस्त/ सुना ही होगा/ अंगारे भी राख बढ़ाते हैं।’ मानव मिट्टी से जन्मा है और मिट्टी में ही उसे मिल जाना है। अहं दहकते अंगारों की भांति है, जो मानव को उसके व्यवहार के कारण अर्श से फ़र्श पर ले आता है, क्योंकि अंत में उसे भी राख ही हो जाना है। सृष्टि के हर जीव व उपादान का मूल मिट्टी है और अंत भी वही है अर्थात् जो मिला है, उसे यहीं पर छोड़ जाना है। इसलिए ज़िंदगी को सुहाना सफ़र जान कर हरपल को जीएं; उत्सव-सम मनाएं। इसे दु:खों का सागर मत स्वीकारें, क्योंकि वक्त निरंतर परिवर्तनशील है अर्थात् कल क्या हो, किसने जाना। सो कल की चिन्ता में आज को खराब मत करें। कल कभी आयेगा नहीं और आज कभी जायेगा नहीं अर्थात् भविष्य की ख़ातिर वर्तमान को नष्ट मत करें। सो! आज का सम्मान करें; उसे सुखद बनाएं…शांत भाव से समस्याओं का समाधान करें। समय, विश्वास व सम्मान वे पक्षी हैं, जो उड़ जाएं, तो लौट कर नहीं आते। सो! वर्तमान का अभिनंदन-अभिवादन कीजिए, ताकि ज़िंदगी भरपूर खुशी व आनंद से गुज़र सके।
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय एवं सार्थक आलेख “योग-विज्ञान की जीवन में उपादेयता”।)
☆ किसलय की कलम से # 66 ☆
☆ योग-विज्ञान की जीवन में उपादेयता ☆
ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव जी सर्वप्रथम योग का ज्ञान देकर आदि गुरु बने थे। इसी योग को धारण कर भगवान श्री कृष्ण महायोगेश्वर कहलाए। हमारे ऋषि-मुनियों व पूर्वजों ने निश्चित रूप से योग को व्यापक बनाया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार योग मन के नकारात्मक अतिरेक को कम करने का विशिष्ट विज्ञान है। योग के व्यापक गुणों की मीमांसा तथा व्याख्या से इन्होंने ही हमें अवगत कराया। कालांतर में योग-विज्ञान पर विविध ग्रंथ भी लिखे गए। वैदिक काल में योग-विज्ञान की एक प्रमुख क्रिया को सूर्य-उपासक आर्यों ने सूर्य नमस्कार का नाम दिया। शनैः-शनैः योग-विज्ञान का प्रचार-प्रसार आर्यावर्त की सीमाओं को पार कर गया। जब योग विज्ञान अपने जनक-देश भारत से पूरे विश्व का भ्रमण करते हुए पुनः भारत में ‘योगा’ बनकर लौटा, तब हमें आभास हुआ कि योग का क्या महत्त्व है।
वर्तमान में भारत के विख्यात योगगुरु बाबा रामदेव ने इस अद्भुत एवं चमत्कारिक योग-विज्ञान को देश के जन-जन तक पहुँचाया। आज विश्वव्यापी होने के कारण ही ‘अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’ प्रतिवर्ष दिनांक 21 जून को संपूर्ण विश्व में मनाया जाने लगा है। मुख्यतः हमारे द्वारा शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्रियाओं व अभ्यासों को योग के रूप में मान्यता प्राप्त है। ‘युज’ शब्द जिसका अर्थ ‘योग’ अथवा जोड़ होता है। शरीर और अंतस के जुड़ाव की व्यापक धारणा को ध्यान में रखकर ही इस योग को महत्ता प्राप्त हुई है। योग धर्म, संप्रदाय, लिंग, आयु आदि से ऊपर उठकर ‘सर्वजन हिताय’ है। मानव को पथच्युत होने से बचाने वाला योग, जीवन को श्रेष्ठता प्रदान करने की एक विधि है। जीवन में आए तनाव तथा मनोविकारों को दूर करने में योग क्रियाएँ आश्चर्यजनक तथा चमत्कारिक परिणाम देती हैं।
योग कोई धर्म नहीं है। अनेक प्रबुद्ध जन इसे योग कला भी कहते हैं। योग एक ऐसा विज्ञान है जो हमें सदैव स्वस्थ जीवन प्रदान करता है। मानसिक शांति दिलाने तथा विभिन्न बीमारियों को दूर करता है। योग में श्वास का विशेष महत्त्व होता है, जिसे हर उम्र का व्यक्ति कर सकता है। योग प्रमुखतः चार अंगों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम ‘कर्म-योग’ है, जो वस्तुतः अच्छे और बुरे कर्म पर आधारित है, क्योंकि अच्छे विचार हमें मानवोचित संस्कारों की ओर ले जाते हैं तथा बुरे विचार सदैव दुख पहुँचाते हैं। यही दुख मानव जीवन को कठिनाई में डालते हैं। कर्म-योग अच्छे कर्म के माध्यम से अंतस में अच्छे विचारों का बीजारोपण करते हैं। द्वितीय क्रम में ‘ज्ञान-योग’ आता है जो हमारे मन एवं हमारी भावनाओं को सकारात्मक दिशा में ले जाने हेतु सक्षम होता है। ज्ञान-योग हमें जीवन की वास्तविकता के निकट ले जाता है। मानवता का पाठ पढ़ाता है। सद्भावना, त्याग एवं समर्पण के भाव में बढ़ोतरी करता है। तीसरे क्रम में ‘भक्ति-योग’ है, जिसमें मानव अपने इष्ट की स्तुति, प्रार्थना, जप आदि के माध्यम से हृदय की वैचारिक विकृतियों को दूर करता है। चतुर्थ क्रम में ‘क्रिया-योग’ है, जिसमें आसनों व श्वासोच्छ्वास से शरीर के आंतरिक अंगों को स्वस्थ बनाए जाने के साथ-साथ ऑक्सीजन की ग्राह्यता भी बढ़ाई जाती है।
आज आधुनिक विज्ञान द्वारा भी योग विज्ञान को मान्यता प्राप्त है। देखा गया है कि नियमित योग-विज्ञान की क्रियाओं व मुद्राओं से चिंता, शारीरिक सूजन, हृदय की अस्वस्थता, लचीलापन, पाचन शक्ति, शारीरिक ऊर्जा, निद्रा, शारीरिक दर्द आदि से मुक्ति तो मिलती ही है, साथ ही खुशहाल जीवन भी जिया जा सकता है। योग मन को एकाग्र करने की एक विधि भी कही जा सकती है। साँसों के व्यायाम व ध्यान से तन और मन की शुद्धि तो होती है, इसे नियमित करते रहने से मानव दवाईयाँ सेवन करने से भी बचता है, क्योंकि दवाईयाँ तो किसी न किसी रूप में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती ही हैं। योग हमारे मन में सकारात्मकता लाता है। शरीर में पाए जाने वाले हानिकारक अपशिष्टों को बाहर करता है। अवांछित वजन भी योग से कम किया जा सकता है। शरीर की नसों तथा सभी अंगों तक रक्त संचार बढ़ता है, जिससे त्वचा की कांति में वृद्धि होती है। वायु-विकार एवं मधुमेह भी नियंत्रित रहता है। अवसाद से उबरने में भी योग-विज्ञान सहायक होता है। सिर दर्द, गर्दन दर्द, पीठ दर्द व अनेक बीमारियों की चिकित्सा के रूप में भी योग प्रभावी प्रभावी है।
आज के भागमभाग जीवन में योग-विज्ञान की उपादेयता अत्यंत बढ़ गई है। प्रतिदिन लगभग आधा घंटे के योग से आपका जीवन हमेशा स्वस्थ बना रह सकता है। यही कारण है कि योग के चमत्कारिक परिणामों को देखते हुए व्यक्तिगत, सामाजिक एवं शासकीय स्तर पर भी योग विज्ञान के प्रचार-प्रसार के साथ ही योग-मुद्राओं, आसनों व योग क्रियाओं को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। आइए, हम आज से ही योग-विज्ञान को नियमित रूप से प्रयोग करने का संकल्प लें और ‘सर्वे संतु निरामया’ सूत्र को चरितार्थ करें।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण रचना “वीणा के नव-नव तारों से ….”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
“मी तुमच्या सारखी सूर्यवंशी नाही, माझा चहा कधीच झालाय!”
“मग तुला तो आज जरा वेगळा…..” “अजिबात लागला नाही, नेहमीसारखीच तर त्याची चव आहे.”
“अगं मला तो आज फारच बेचव लागतो आहे, म्हणून विचारलं.”
“हे बघा आज पासून मी केलेल्या कुठल्याही पदार्थाला नांव ठेवणं अजिबात बंद, कळलं ? जे पुढ्यात येईल ते नांव न ठेवता गपचूप खायचं आणि प्यायचं कळलं ?”
“म्हणजे काय, आता आज चहा पुचकावणी झालाय हे पण बोलायची चोरी ?”
“मी आत्ता काय कानडीत बोलले, कुठल्याही पदार्थात चहा पण येतो !”
“आणि मी तसं म्हटलं तर?”
“मी आमच्या हो. मे. सं. कडे तुमची तक्रार करीन हं !”
“आता हे हो मे सं का काय म्हणालीस, ते नक्की काय आहे ते सांगशील का जरा !”
” अहो दोन महिन्या पूर्वीच आम्ही आमचा ‘होम मेकर संघ’ स्थापन केलाय.”
“अगं पण तुमचं बायकांचं ऑलरेडी एक ‘अनाकलनिय महिला मंडळ’ आहे ना ? मग आता हा पुन्हा नवीन संघ कशाला ?”
“अहो उगाच आमच्या मंडळाचे नांव नका खराब करू ! त्याचे नांव ‘अनारकली महिला मंडळ’ आहे!”
“तेच गं ते, तर ते एक मंडळ असतांना हा नवीन संघ कशाला काढलात ?”
“अहो, असं काय करता, त्या मंडळात नोकरी करणाऱ्या महिलां सुद्धा आहेत ! पण त्यांचे प्रश्न वेगळे आणि आमचे प्रश्न वेगळे.”
“ते कसे काय बुवा ?”
“असं बघा, आमच्या या नवीन होम मेकर संघात फक्त नोकरी न करणाऱ्या बायकांचा, ज्या फक्त ‘रांधा वाढा उष्टी काढा’ अशी माझ्यासारखी घरकामं करतात त्यांचाच समावेश आहे !”
“बरं, पण तुमचे प्रश्न वेगळे म्हणजे काय ?”
“म्हणजे हेच, स्वतःच्या नवऱ्याचे कशावरूनही टोमणे खाणे, आम्ही केलेल्या अन्नाला नांव ठेवून आमचा मानसिक छळ करणे, इत्यादी, इत्यादी !”
“यात कसला मानसिक छळ, मी फक्त चहा….”
“तेच ते, त्यामुळे आम्हां बायकांच्या मनाला किती वेदना होतात ते तुम्हाला कसं कळणार ?”
“काय गं, कुणाच्या डोक्यातून ही संघ काढायची कल्पना आली ?”
“अहो त्या दुसऱ्या मजल्यावरच्या लेले काकू आहेत ना, त्यांनी वकिलीची online परीक्षा दिली होती मागे.”
“बरं मग ?”
“तर अशाच आम्ही दुपारच्या गप्पा मारायला जमलो होतो, तेंव्हा त्यानी ही कल्पना मांडली आणि आम्ही तिथल्या तिथे होम मेकर संघ स्थापून मोकळ्या झालो.”
“बरं बरं ! पण या तुमच्या संघाकडे कुणा बायकोने, स्वतःच्या नवऱ्या विरुद्ध तक्रार केली तर, त्याचा न्याय निवडा कोण करत ?”
“आमच्या संघाच्या अध्यक्षिणबाई, मंथरा टाळकुटे !”
“अगं पण तिला तर तुम्ही सगळ्या बायका खाजगीत आग लावी, चुगलखोर असं म्हणता नां, मग ती कशी काय अध्यक्ष झाली संघाची ?”
“अहो तिचे मिस्टर पूर्वी ख्यातनाम जज होते, एवढं qualification तिला पुरलं अध्यक्ष व्हायला !”
“अस्स अस्स ! अग पण जज साहेब जाऊन तर बरीच वर्ष झाली नां ?”
“म्हणून काय झालं ? जज साहेब हयात असतांना मंथराबाईं बरोबर, त्यांनी न्याय निवडा केलेल्या कितीतरी केसेसेची चर्चा ते करत असत. त्या मुळे मंथराबाईंना अशा केसेस….”
“अशा केसेस म्हणजे ? अग आम्ही नवरे मंडळी काय चोरी, डाका, मारामाऱ्या करणारे वाटलो की काय तुम्हांला ?”
“तसं नाही पण….”
“अगं नुसतं चहा बेचव झालाय, आज आमटी पातळ झाल्ये हे स्वतःच्या बसायकोला बोलणं आणि चोरी, डाका, मारामाऱ्या यात काही फरक आहे का नाही ?”
“आहे नां, पण तुम्ही असं बोलल्यामुळे आमच्या मनाला किती यातना होतात, सगळी मेहनत पाण्यात गेली असं वाटतं त्याच काय ? मग आम्ही न्याय कोणाकडे मागायचा ? म्हणून हा संघ स्थापन केलाय आम्ही.”
“काय गं, आत्ता पर्यंत कोणा कोणाला आणि कसली शिक्षा केल्ये तुमच्या अध्यक्षिण बाईंनी ?”
“अहो कालचीच गोष्ट, काल कर्वे काकूंची तक्रार आली होती त्यांच्या मिस्टरांबद्दल.”
“कसली तक्रार ?”
“अहो काल सकाळच्या जेवणात काकूंच्या हातून आमटीत मीठ जरा जास्त पडलं म्हणून…”
“करव्या तिला बोलला तर काय चुकलं त्याच ?”
“चुकलं म्हणजे, एवढ्याशा कारणावरून कर्वे काकांनी काकूंच्या माहेरचा उद्धार केला ! मग काकू पण लगेच तक्रार घेऊन गेल्या मंथराबाईंकडे आणि अध्यक्षिण बाईंनी त्यांना शिक्षा केली.”
“म्हणजे चूक करवीणीची आणि शिक्षा करव्याला का ?”
“अहो बोलून बोलून त्यांचा मानसिक छळ केल्या बद्दल.”
“काय शिक्षा फार्मावली अध्यक्षिणबाईंनी?”
“कर्वे काकांना काकूंनी रात्री उपाशी ठेवायचं.”
“अगं पण तो डायबेटीसचा पेशंट आहे, त्याला रात्री जेवल्यावर गोळी घ्यायची असते आणि तो रात्री जेवला नाही तर….”
“अहो म्हणूनच उदार होऊन आमच्या अध्यक्षिणबाईंनी, त्यांना रात्री दुधा बरोबर एक पोळी खायची परवानगी दिली ! तशा प्रेमळ आहेत त्या !”
“कळलं कळलं! आता मला सांग ती मंथरा एकटीच राहते का कोणी….”
“अहो त्यांची नर्मदा नावाची मावशी आहे, ती असते त्यांच्या सोबतीला आणि तीच घरच सगळं काम करते.”
“स्वयंपाक पण ?”
“आता सगळं काम म्हटलं की त्याच्यात स्वयंपाकपण आलाच नां ?”
“मग मला सांग तुमच्या अध्यक्षिणबाईंनां शिक्षा कोण करणार ?”
“त्यांना कशाला शिक्षा ?”
“अगं ती कोण नर्मदा मावशी आहे, तिच्या हातून स्वयंपाक बिघडला, तर तुमच्या म्हणण्याप्रमाणे ती कजाग मंथरा, त्यांना बोलल्याशिवाय राहणार आहे का ?”
“अगं बाई खरच की ! हे कसं लक्षात आलं नाही आम्हां बायकांच्या ?”
“कसं लक्षात येणार ? पण यावर माझ्याकडे एक उपाय आहे.”
“काय?”
“आजपासून तू त्या मंथरेकडेच सकाळ संध्यकाळ जेवायला जात जा!”
“म्हणजे काय होईल ?”
“अगं म्हणजे एखाद दिवशी स्वयंपाक बिघडला तर ती मंथरा गुपचूप जेवते का नर्मदेचा उद्धार करते ते कळेल नां.”
“अहो पण असं बरं दिसणार नाही आणि समजा मी गेले त्यांच्याकडे रोज जेवायला तर तुमच्या जेवणाचं काय?”
“मी ठेवीन की बाई !”
“काय?”
“अगं स्वयंपाकाला आणि तिचा स्वयंपाक बिघडला तर तिला हक्काने सुनवीन पण आणि त्यावरून मला त्या करव्या सारखी शिक्षा पण नको भोगायला.”
“वारे वा, घरात एवढी अन्नपूर्णा असतांना स्वयंपाक करायला बाई कशाला? त्या पेक्षा मीच होमेसं चा राजीनामा देते म्हणजे प्रश्नच नाही !”
“अगं पण त्यामुळे तू बिघडवलेल्या अन्नाच्या चवीचा मूळ प्रश्न थोडाच सुटणार आहे.”
“हो, तेही खरंच. मग यावर तुम्हीच एखादा उपाय सांगा, म्हणजे झालं.”
“अगं साधा उपाय आहे आणि तो तू तुमच्या सगळ्या महिला मंडळाला सांगितलास तर तुमचा तो संघ आपोआप बरखास्त झालाच म्हणून समज.”
“काय सांगताय काय, मग लवकर सांगा बघू तो उपाय.”
“तुला माहित्ये, सगळ्या थ्री स्टार, फाईव्ह स्टार, सेवन स्टार हॉटेलात लाख, लाख पागर देऊन एक “टेस्टरची” पोस्ट असते आणि त्याच काम फक्त हॉटेलात लोकांनी जेवणाची ऑर्डर दिल्यावर त्या पदार्थाची चव त्यांच्या ऑर्डरप्रमाणे आहे का नाही, हे चाखून बघणं.”
“पण त्याचा इथे काय….”
“अगं तेच सांगतोय नां, तू एखादा पदार्थ केलास तर तो वाढण्यापुर्वी चाखून बघायचा, म्हणजे मग….”
“त्यात काय कमिजास्त आहे ते कळेल आणि तो वाढण्यापूर्वीच खाणेबल किंवा पिणेबल करता येईल, असंच नां ?”
“अगदी बरोबर, मग आता जरा नवीन फक्कडसा चहा….”
“आत्ता आणते आणि हो आधी त्याची टेस्ट घेऊनच बरं का !”
असं बोलून माझ्या घरची न्युली अपॉइंटेड टेस्टर किचन मधे पळाली आणि मी मनाशी हसत हसत सुटकेचा निश्वास टाकला !