हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-14 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ असहमत…! भाग – 14 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

आज बहुत दिनों के बाद असहमत की फिर से तफरीह करने की इच्छा हुई तो उसने विजयनगर या संजीवनी नगर की ओर जाने का प्लान बनाया. पर उसके प्लान में बनने वाले फ्लाई ओवर ने उसे गड्ढों की गहराई मेंं उतार दिया. जबलपुर वालों को दिये जाने वले झुनझुनों में ये भी एक है जिसके आभासी वीडियो देख देख कर लोगों के सीने 36″ से 63″ हो गये और उन्होंने वाट्सएप पर जबलपुर के मूल निवासियों को “Dream project of dream city ” के टाइटल से भेजना शुरु कर दिया. ये संदेश भोपाल, इंदौर, भिलाई, रायपुर, पुणे, मुंबई, जयपुर, दिल्ली जब पहुंचे तो पाने वालों की पहले तो नज़र लाला रामस्वरुप के 70-71-72 वाले कैलेंडर पर गई (लोग कहीं भी रहें पर प्राय: ये केलेंडर तो उनके घर में मिल ही जाता है जो रोज याद दिलाता रहता है कि जबलपुर की पहचान रूपी ये केलेंडर अभी भी बेस्ट है) पर वहां अप्रैल नहीं जुलाई चल रहा था. भेजने वाले को तुरंत ब्लाक करने की लिखित चेतावनी दी गई. इसके पहले भी किसी वाट्सएप ग्रुप के जन्मदिन की शानदार पार्टी  के फर्जी निमंत्रण भेजे गये थे. पर चूंकि पार्टी का वेन्यू गुप्त था और निमंत्रण में आने जाने रुकने तथा स्टार्टर पेय पदार्थों का कहीं कोई जिक्र नहीं था तो “delete for all” के जरिये ये मैसेज़ भी वीरगति को प्राप्त हुआ.

तो फ्लाई ओवर  के सपनों रूपी जर्जर रास्तों को छोड़कर असहमत शार्टकट पकड़ने के चक्कर में विजयनगर और संजीवनी नगर के बदले जानकीनगर पहुंच गया. वहां कुछ भूतपूर्व बैंकर पर वर्तमान में भी अलसेट देने में सक्षम स*ज्जनों ने असहमत को पकड़ ही लिया. सवाल जवाब का सिलसिला शुरु हो गया.

“बहुत हीरो बनते हो,  ग्रुप का भी क्या बर्थडे मनाया जाता है. ये कैसा जन्मदिन है, न बर्थडे केक, न पार्टी.

असहमत : सब वर्चुअल है, आभासी, रियल कुछ नहीं है. पार्टी नही है तो गिफ्ट भी नहीं है. ये सब हवाई किले हैं जो सोशल मीडिया पर चलते हैं. कोरोना लॉकडाउन पार्ट वन में भी तो लोगों ने बहुत सारी रेसेपी शेयर कर डाली जो कभी रियल लाईफ में नहीं बनी. जब सब कुछ बंद था और लोग सोचसमझ कर मितव्ययता से खर्च कर रहे थे तो ये सब कौन बना सकता था.

एक सज्जन को पुराना जमाना याद आ गया जब अखबार और पैट्रोल का खर्च बैंक बिल के आधार पर देती थी. तो reimbursement के लिये The Economic Times के बिल, उसकी मुद्रित प्रतियों से भी ज्यादा नंबर के बन जाते थे. पता चला कि शहर में तो मुश्किल से 50 कॉपी आती थीं और 100 लोग बिल के बेस पर क्लेम करते थे. कभी कभी डी.ए.नहीं बढ़ता था पर पैट्रोल के रेट बढ़ जाने से बजट संतुलित रहता था. मैन्युअल बैंकिंग के जमाने में जब स्टाफ का लेजर अलग होता था तो लेज़र का ग्रैंड टोटल कभी भी ग्रैंड नहीं होता था. जिनकी OD limit होती  तो नीली स्याही में बेलैंस सिर्फ सपनों में आता था. सुना जरूर गया कि किसी जमाने में ओवरटाईम सबसे बेहतर टाईम हुआ करता था और बोनस किसी डिटरजेंट टिकिया का नाम नहीं होता था बल्कि हर साल परिवार के सदस्यों द्वारा देखा जाने वाला वो सपना था, जो चमकते दमकते फ्लाई ओवर जैसा ही आभासी हुआ करता था. टेक्नालाजी न तो साइंस है न इंजीनियरिंग, ये हमारे पास वह होने या पाने का आभास देती है जो हमें वर्तमान की कड़वाहट को गुड़ की आभासी चाय से कुछ पलों के लिये दूर कर देती है. यही तो जिंदगी है जब सपनों में पाने का सुख, हकीकत में न होने के दुख पर भारी पड़ता है और हम कोई गालिब तो है नहीं जो ये कह दें कि “हमको मालुम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल को बहलाने को गालिब खयाल अच्छा है.”

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी #91 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 2 – बिजूका ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी #91 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 2- बिजूका ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆ 

जगन मोहन पांडे बिजुरी से अपने मुख्यालय उमरिया आ तो गए पर दिन रात उन्हें जंगल में खेती किसानी करते आदिवासी दिखते। कभी कभी वे सोचते कि आदिवासियों को जबरन सलाह देकर वे ‘दार भात में मूसर चंद’ तो नहीं बन रहे हैं। अगले पल उन्हें लगता ‘बदरिया ऊनी है तो बरसें जरूर।‘ वे सोचते जिस प्रकार आसमान में उमड़ने वाले बादल जलवृष्टि करते हैं उसी प्रकार दिमाग में आया विचार अवश्य ही कोई उपाय सुझाएगा।  दिन और रात बीतते बीतते शुक्रवार आ गया। उस रात पांडे जी सोते सोते अचानक जाग उठे और आर्कमिडीज की तर्ज पर यूरेका यूरेका चिल्ला उठे । हुआ यों कि रात के सपने में उन्हें अपने गाँव के कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार दिखाई दिए।  वे दोनों पोला केवट के पास सन  की रस्सी खरीदने जा रहे थे। मोल भाव में पोला केवट से हुई तकरार वाणी में थोड़ी हिंसक हुई ही थी कि पांडे जी की नींद खुल गई और उन्हें कलुआ बसोर के बनाए बिजूका से खेतों की रखवाली करते किसान याद आ गए। बस क्या था , शनिवार रविवार के अवकाश का पांडेजी ने फायदा उठाया और चल दिए हटा के निकट अपने गाँव झामर जहां जाकर उन्होंने सबसे पहले कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार को अपनी बखरी में बुलवाया। दोनों ने बखरी के बाहर लगे नीम के पेड़ के नीचे अपने जूते उतारे और फिर दहलान में बाहर खड़े होकर जोर से ‘पाएं लागी महराज’ कहकर अपने आगमन की सूचना पांडे जी को दे दी । पांडेजी अकड़ते हुए बाहर आए और  नीचे जमीन में पैर सिकोड़ कर बैठे रमुआ और कलुआ  ‘सुखी रहा’ का आर्शीवाद दिया और समाने चारपाई पर पसर गए।  बचपन से ही अपने दद्दा को इन लोगों से बेगार कराते देखने वाले पांडेजी को उन्हें पटाकर अपना काम निकलवाने की कला आती थी। उन्होंने दोनों से कहा कि वे उनके साथ उमरिया चलें और पंद्रह दिन वहाँ रहकर आदिवासी युवाओं को बिजूका बनाने की कला सिखाने को कहा । पांडे जी का यह आमंत्रण दोनों ने एकसुर में यह कहते हुए खारिज कर दिया कि बिजूका बनाना कौन कठिन है । पांडेजी भी कहाँ हार मानने वाले थे झट बोले ‘जीकी बंदरिया ओई से नाचत है, अरे  तुम लोग तो बिजूका बनाने की कला में माहिर हो, देखते नहीं जिस खेत में तुम्हारे बनाए बिजूका खड़े रहते हैं वहाँ पंछी तो छोड़दो चींटी भी फसल की बर्बादी नहीं करती।‘ इस ठकुरसुहाती का भी कोई असर दोनों पर जब नहीं हुआ तो पांडे जी ने आखरी दांव चला मजदूरी का, बोले की दोनों को सरकारी रेट से भी ज्यादा मजदूरी बैंक से दिलवाएंगे और ठहरने की सुविधा भी । यह दांव चल निकला और दोनों पांडेजी के साथ उमरिया जाने के लिए तैयार हो गए। पांडे जी ने भी दोनों से बिजूका बनाने की सामग्री और कीमत के बारे में जानकारी ली और उचित समय पर उन्हें उमरिया  ले जाने का आश्वासन दिया ।

बिजूका बनाने की कला सिखाने का प्रशिक्षण शुरू करवाने के पहले पांडेजी को अपने मुख्यालय से अनुमति लेना आवश्यक था । उन्होंने एक प्रस्ताव बनाकर मुख्यालय भिजवा दिया । प्रस्ताव भेजे कोई दस दिन हुए ही थे कि हेड आफिस से फोन आ गया । सामने सहायक महाप्रबंधक लाइन पर थे।  उन्होंने पांडेजी के मधुर वाणी में किए गए नमस्कार का तो कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया उलटे जोर से हड़का दिया । ‘ तुम्हारा दिमाग खराब है पांडे जो ऐसे बचकाने प्रपोजल हेड आफिस भेजते हो।‘

पांडे जी ने अनजान बनते हुए कहा कि ‘ सर कौन से प्रस्ताव की बात कर रहे हैं । ‘

उधर से जवाब आया ‘ अरे वही बिजूका के प्रशिक्षण का प्रस्ताव, मैंने सर्किल मेनेजमेंट कमेटी के सामने तुम्हारा प्रस्ताव रखा था।  उसने तूफान मचा दिया सब लोग मेरे ऊपर चिल्ला पड़े ऐसे बेहूदा प्रस्ताव प्रस्तुत कर के हमारा समय क्यों बर्बाद कर रहे हो । ‘

खैर पांडेजी साहबों को भी पटाने में माहिर थे । उन्होंने तीन बार सारी कहा और धीमे से बोले ‘बादर देख कें पोतला नई फ़ोरो जात साहब। ‘

साहब को भी यह बुन्देलखंडी कहावत समझ में ना आती देख पांडे जी ने अर्ज किया कि हूजूर फल की आशा में कर्म नहीं छोड़ा जाता, मैं इसी आधार पर एक बार हेड आफिस आकर सर्किल मेनेजमेंट कमेटी के सामने इस प्रस्ताव की चर्चा करना चाहता हूँ ।‘

थोड़ी आनाकानी के बाद निर्णय पांडे जी के पक्ष में इस शर्त के साथ हुआ कि बड़े साहब से मिलवाने की जिम्मेदारी तो सहायक महाप्रबंधक की होगी पर प्रस्ताव का प्रस्तुतीकरण पांडेजी को ही करना पड़ेगा और साहब की डांट भी उन्हें ही झेलनी पड़ेगी । फोन रखते रखते पांडेजी को यह भी बता दिया गया कि बड़े साहब बहुत गुस्सैल हैं और जरा जरा सी गलतियों पर गालियां देना , फ़ाइल मुँह पर फेंक देना बहुत ही सामान्य घटनाएं हैं ।

पथरीले , दर्पीले बुंदेलखंड  के वासी पांडे जी के स्वभाव को  सुनार नदी के पानी ने गर्वीला बना दिया था। वे किसी भी आसन्न संकट से निपटना जानते थे । पांडे जी अगले सप्ताह भोपाल गए और बड़े   साहब के सामने फ़ाइल लेकर हाजिर हो गए ।पांडेजी के भाग्य से उस दिन बड़े साहब का मूड अच्छा था।   शुरुआती अभिवादन के बाद उन्होंने पांडेजी से पूरा प्रस्ताव प्रस्तुत करने को कहा , एक दो सवाल पूछे और फिर उनके गाँव में बिजूका बनाने वालों को मिलने वाली मजदूरी के बारे में जानकारी मांगी ।

पांडे जी ने छूटते ही जवाब दिया सर मजदूरी तो अनाज के रूप में फसल आने पर  मिलती है और बिजूका खरीदने वाला किसान  कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार को एक एक पैला गेंहू देता है ।

बड़े साहब को जब पैला समझ में ना आया तो पांडेजी ने बताया कि ‘पाँच किलो बराबर एक पैला।‘

साहब पाँच किलो की मजदूरी सुनकर गुस्सा गए और कड़कते हुए बोले ‘व्हाट नानसेन्स पाँच किलो गेंहू भी कोई मजदूरी हुई।‘

पांडेजी समझ चुके थे कि उनकी दाल बस गलने ही वाली है इसलिए धीरे से बोले ‘सर सरकार भी तो गरीबों को पाँच किलो गेंहू हर महीना देती है । ‘ 

पांडे जी के इस जवाब से बड़े साहब खुश हो गए , सहायक महाप्रबंधक को उन्होंने रिवाइज्ड प्रपोजल पांडेजी की सूचनाओं के आधार पर बनाने को कहा और साथ ही इस नवोन्मेष प्रस्ताव को भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय को भेजने का भी निर्देश दिया।

पांडेजी ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों की पूरी बातें तो ध्यान से नहीं सुनी बस गो अहेड मिस्टर पांडे की प्रतिध्वनि उनके कान में बारम्बार गूँजती रही ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 116 ☆ कादंबरी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 116 ?

☆ कादंबरी ☆

मंदिरी आराधना

सागरी आराधना

 

कोण जाणे कोणती

सावरी आराधना

 

कृष्ण राधे सारखी

पावरी आराधना

 

मत्स्यमा-या नेहमी

म्हावरी आराधना

 

पौर्णिमेला जागते

जागरी आराधना

 

दीपपूजेच्या दिनी

शर्वरी आराधना

 

एकदा लाभो मला

भर्जरी आराधना

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १८ – भाग १ – मोरोक्को__ रसरशीत फळांचा देश ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १८ – भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ मोरोक्को –  रसरशीत फळांचा देश  ✈️

मोरोक्को हे आफ्रिका खंडाचे उत्तर टोक आहे पण भौगोलिक दृष्ट्या ते युरोपला जवळचे आहे. स्पेनहून आम्हाला मोरोक्को इथे जायचे होते. मोरोक्कोला विमानाने जाता येतेच पण आम्हाला जिब्राल्टरच्या सामुद्रधुनीतून प्रवास करायचा होता. भूमध्य सागर व अटलांटिक महासागर हे जिब्राल्टरच्या सामुद्रधुनीने जोडलेले आहेत असा शालेय पुस्तकात वाचलेला भूगोल अनुभवायचा होता.

स्पेनच्या दक्षिण टोकाला असलेल्या अल्गिशिरास बंदरात पोहोचलो. तिथून बोटीने प्रवास केला.’टॅ॑जेर मेड’ या आठ मजली बोटीचा वेग चांगलाच जाणवत होता. बंदर सोडल्यावर जवळजवळ लगेचच भूमध्य सागरातून उगवलेला, मान उंचावून बघणारा, उंचच- उंच सुळक्यासारखा डोंगर दिसू लागला.हाच सुप्रसिद्ध ‘जिब्राल्टर रॉक’! हवामान स्वच्छ, शांत असल्याने जिब्राल्टर रॉकचे जवळून दर्शन झाले.

हा जिब्राल्टर रॉक फार प्राचीन, जवळ जवळ वीस कोटी वर्षांपूर्वीचा मानला जातो. जिब्राल्टरचा एकूण विस्तार फक्त साडेसहा चौरस किलोमीटर आहे. त्यात हा १४०८ फूट उंच डोंगर आहे. हा संपूर्ण डोंगर चुनखडीचा आहे. पाणी धरून ठेवण्याच्या त्याच्या क्षमतेमुळे इथे सदोदित हिरवी वृक्षराजी बहरलेली असते.  डोंगराच्या पश्चिमेकडील उतारावर जिब्राल्टर हे छोटेसे गाव वसलेले आहे. बोटीतून आपल्याला तिथल्या हिरव्या- पांढऱ्या, बैठ्या इमारती व हिरवी वनराजी दिसते. सभोवतालच्या सागरात असंख्य छोट्या पांढऱ्या बोटी दिसत होत्या.उंच उसळणाऱ्या डॉल्फिन माशांचे  दर्शनही झाले. या खडकाचे उत्तरेकडील भूशिर (आयबेरिअन पेनिन्सुला ) हे एका अगदी चिंचोळ्या पट्ट्याने स्पेनच्या भूभागाला जोडले गेले आहे. तर दक्षिणेला अरूंद अशी ही जिब्राल्टरची सामुद्रधुनी आहे.

अत्यंत मोक्याची अशी भौगोलिक परिस्थिती लाभल्यामुळे ऐतिहासिक काळापासून  हे ठिकाण आपल्या ताब्यात ठेवण्यासाठी अनेकांनी प्रयत्न केले. आठव्या शतकापासून चौदाव्या शतकापर्यंत इथे उत्तर आफ्रिकेतील म्हणजे मोरोक्कोतील मूरिश लोकांची लोकांची राजवट होती. त्यांनी या खडकाचे जाबेल तारिक म्हणजे तारिकचा खडक असे नामकरण केले. त्याचे जिब्राल्टर असे रुपांतर झाले. नंतर सतराव्या शतकापर्यंत हे ठिकाण स्पेनच्या ताब्यात होते.इ.स.१७०४ मध्ये ते ब्रिटिश साम्राज्याचा भाग झाले.ते आजपर्यंत ब्रिटिशांच्या अधिपत्याखाली आहे. या महत्वपूर्ण ठिकाणी  ब्रिटनचा नाविक व व हवाई तळ आहे.

जेमतेम चाळीस हजार लोकसंख्या असलेल्या जिब्राल्टरमध्ये ब्रिटिश, स्पॅनिश, ज्यू,, आशियाई, पोर्तुगीज असे सर्व वंशाचे लोक आहेत. त्यामुळे इथे चर्च, मॉस्क, देऊळ, सिनेगॉग सारे आहे. जिब्राल्टरमध्ये शेती नाही किंवा खनिजांचे उत्पन्नही नाही. पण हा जगातला सर्वात व्यस्त असा सागरी मार्ग आहे. भूमध्यसागर आणि अटलांटिक महासागर यांना जोडणाऱ्या या सागरी मार्गावर दर सहाव्या मिनिटाला एक व्यापारी बोट बंदरात येते अथवा तिथल्या बंदरातून सुटते. या अवाढव्य बोटींची देखभाल,दुरुस्ती करणे,इंधन भरणे अशा प्रकारची अनेक कामे इथल्या डॉकयार्डमध्ये होतात. पर्यटन हाही एक व्यवसाय आहे.

बोटीने दोन तास प्रवास करून आम्ही मोरोक्को मधील टॅ॑जेर बंदरात पोहोचलो. बंदरातून गाईडने आम्हाला समुद्रकिनारी नेले. या ठिकाणाला ‘केप पार्टल’ असे नाव आहे. भूमध्य सागर आणि अटलांटिक महासागर इथे मिळतात असे त्याने सांगितले. तिथल्या समुद्राचा रंग निळसर हिरवा होता. काही भागाचा रंग ढगांच्या सावलीमुळे, धुक्यामुळे काळपट वाटत होता. पण दोन वेगळे समुद्र ओळखता येत नाहीत. मला आपल्या ‘गंगासागर’ ची आठवण झाली. गंगा नदी कोलकात्याजवळील ‘सागरद्वीप’ या बेटाजवळ बंगालच्या उपसागराला मिळते. त्या ठिकाणाला ‘गंगासागर’ म्हणतात. ते बघताना गाईड म्हणाला होता, ‘समोर तोंड केल्यावर तुमच्या उजव्या हाताला बंगालचा उपसागर आहे व डावीकडून गंगा येते. त्या विशाल जलाशयातून आपल्याला सागर व सरिता वेगळे ओळखता येत नाहीत. तसेच इथे झाले असावे.

टॅ॑जेरला वैशिष्ट्यपूर्ण भौगोलिक स्थान लाभले आहे. त्याचप्रमाणे इतिहासाच्या एका फार मोठ्या कालखंडाचे हे शहर साक्षीदार आहे. युरोप व अरब देशातील कलाकार, राजकारणी, लेखक, उद्योगपती यांचे हे आवडते ठिकाण आहे. मुस्लिम, ख्रिश्चन,ज्यू अशी संमिश्र वस्ती असल्याने  इथे बहुरंगी सांस्कृतिक वातावरण आहे. शहरात मशिदी, चर्च याबरोबर सिनेगॉगही आहे. ‘फ्रॉम रशिया विथ लव्ह’ या चित्रपटाचे थोडे चित्रिकरण इथे केले आहे.

केप स्पार्टलजवळील टेकड्यांवर वसलेला कसबाह विभाग ऐश्वर्यसंपन्न आहे. इथल्या भव्य राजवाडयासारख्या बंगल्यांना किल्ल्यासारखी भक्कम तटबंदी आहे. आतल्या हिरव्या बागा फळाफुलांनी सजल्या होत्या.  सौदी अरेबिया व कुवेत येथील धनाढ्य व्यापाऱ्यांचे हे बंगले आहेत असे गाईडने सांगितले. इथल्या सुलतानाचा सतराव्या शतकात बांधलेला भव्य पॅलेस   व गव्हर्नर पॅलेसही इथेच आहे. इथून समुद्राचे सुंदर दर्शन होते .जुन्या शहरात ग्रॅ॑ड सोक्को म्हणजे खूप मोठे मार्केट आहे.

भाग-१ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 15 – सजल – कैसी यह लाचारी है… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है सजल “कैसी यह लाचारी है… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 15 – सजल – कैसी यह लाचारी है…  ☆ 

समांत- आरी

पदांत- है

मात्राभार- 14

 

कैसी यह लाचारी है।

विकट समस्या भारी है।।

 

फिदा पड़ोसी पर होते ,

मजहब से ही यारी है।

 

आतंकी सब सखा बने,

मानवता भी हारी है ।

 

काश्मीर में शांति आई,

खिली वहांँ फुलवारी है।

 

लोकतंत्र में भ्रष्टाचार,

जनता से मक्कारी है।

 

गहरी जड़ें वंशवाद की,

नेता की बलिहारी है।

 

जन सेवक कहलाते जो,

गाड़ी-घर सरकारी है।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

01-01- 2022

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 103 – “खामोशी की चीखें” – डा संजीव कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  डा संजीव कुमार जी के काव्य संग्रह  “खामोशी की चीखें” की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा

पुस्तक : खामोशी की चीखें (काव्य संग्रह)

कवि – डा संजीव कुमार

प्रकाशक : इंडिया नेट बुक्स, नोएडा

मूल्य २२५ रु, अमेजन पर सुलभ

प्रकाशन वर्ष २०२१

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 103 – “खामोशी की चीखें” – डा संजीव कुमार ☆  

खामोशी की चीख शीर्षक से ही  मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियां हैं…

“खामोशी की चीख के

सन्नाटे से,

डर लगता है मुझे

मेरे हिस्से के अंधेरों,

अब और नहीं गुम रहूंगा मैं

छत के सूराख से

रोशनी की सुनहरी किरण

चली आ रही है मुझसे बात करने. “

कवि मन अपने परिवेश व समसामयिक संदर्भो पर स्वयं को अभिव्यक्त करता है यह नितांत स्वाभाविक प्रक्रिया है. हिमालय पर्वत श्रंखलायें सदा से मेरे आकर्षण का केंद्र रही हैं. मुझे सपरिवार दो बार जम्मू काश्मीर के पर्यटन के सुअवसर मिले. बारूद और संगिनो के साये में भी नयनाभिराम काश्मीर का करिश्माई जादू अपने सम्मोहन से किसी को रोक नही सकता.वरिष्ठ कवि पिताजी प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ने वहां से लौटकर लिखा था.. “

लगता यों जगत नियंता खुद है यहाँ प्रकृति में प्राणवान

मिलता नयनो को अनुपम सुख देखो धरती या आसमान 

जग की सब उलझन भूल जहाँ मन को मिलता पावन विराम 

हे धरती पर अविरत स्वर्ग काश्मीर तुम्हें शत शत प्रणाम “

आतंकी विडम्बना से वहां की जो सामाजिक राजनैतिक दुरूह स्थितियां विगत दशकों में बनी उनसे हम सभी का मन उद्वेलित होता रहा है. किन्तु ऐसा नही है कि काश्मीर की घाटियां पहली बार सेना की आहट सुन रही है, इतिहास बताता है कि सदियों से आक्रांता इन वादियों को खून से रंगते रहे हैं. लिखित स्पष्ट क्रमबद्ध इतिहास के मामले में काश्मीर धनी है, नीलमत पुराण में उल्लेख है कि आज जहां काश्मीर की प्राकृतिक छटा बिखर रही है, कभी वहाँ विशाल झील थी, कालांतर में झील का पानी एक छेद से बह गया और इससुरम्य घाटी का उद्भव हुआ. इस पौराणिक आख्यान से प्रारंभ कर,  १२०० वर्ष ईसा पूर्व राजा गोनंद से राजा विजय सिन्हा सन ११२९ ईस्वी तक का चरणबद्ध इतिहास कवि कल्हण ने “राजतरंगिणी ” में लिपिबद्ध किया है. १५८८ में काश्मीर पर अकबर का आधिपत्य रहा, १८१४ में राजा रणजीत सिंह ने काश्मीर जीता, यह सारा संक्षिपत इतिहास भी डा संजीव कुमार ने  “खामोशी की चीखें” के आमुख में लिखा है, जो पठनीय है. श्री यशपाल निर्मल, डा लालित्य ललित, व डा राजेशकुमार तीनो ही स्वनामधन्य सुस्थापित रचनाकार हैं जिन्होने पुस्तक की भूमिकायें लिखीं है.

पुस्तक में वैचारिक रूप से सशक्त ५२ झकझोर देने वाली अकवितायें काश्मीर के पिछले दो तीन दशको के सामाजिक सरोकारो, जन भावनाओ पर केंद्रित हैं. यद्यपि कविता आदिवासी व कोरोना दो ऐसी कवितायें हैं जिनकी प्रासंगिकता पुस्तक की विषय पृष्ठभूमि से मेल नहीं खाती, उन्हें क्यो रखा गया है यह डा संजीव कुमार ही बता सकेंगे.

डा संजीव कुमार स्त्री स्वर के सशक्त व मुखर हस्ताक्षर हैं. वे काश्मीरी महिलाओ पर हुये आतंकी अत्याचारो के खिलाफ संवेदना से सराबोर एक नही अनेक रचनाये करते दिखते हैं.

उदाहरण स्वरूप..

लुता चुकी हूं,

अपना सब कुछ,

अपना सुहाग,

अपना बेटा, अपनी बेटी,

अपना घर,

पर पता नही कि मौत क्यों नही आई ?

ये वेदना जाति धर्म की साम्प्रदायिक सीमाओ से परे काश्मीरी स्त्री की है. ऐसी ही ढ़ेरो कविताओ को आत्मसात करना हो तो “खामोशी की चीखें” पढ़ियेगा, किताब अमेजन पर भी सुलभ है.  

 

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गुड़ – भाग-1 ☆ श्री राकेश कुमार

श्री राकेश कुमार

(ई- अभिव्यक्ति में श्री राकेश कुमार जी का स्वागत है। भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से अतीत और वर्तमान को जोड़ता हुए रोचक आलेख “गुड़” की श्रृंखला  का पहला भाग।)   

☆ आलेख ☆ गुड़ – भाग -1 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज स्थानीय समाचार पत्र में एक ब्रांडेड गुड़ का विज्ञापन छपा था “डॉ. गुड़” तो अचंभा लगा कि गुड़ जैसे खाद्य पदार्थ को विज्ञापन की क्या आवश्यकता आ गई ? ब्रांड का नाम ही रखना था तो “वैद्य गुड़” कर सकते थे। ये तो वही बात हो गई गुरु (वैद्य) गुड़ रह गया चेला (डॉ.) शक्कर हो गया। माहत्मा गांधी ने सही कहा था “अंग्रेज देश में ही रह जाए परंतु अंग्रेज़ी वापिस जानी चाहिए”, लेकिन हुआ इसका विपरीत अंग्रेज़ तो चले गए और अंग्रेज़ी छोड़ गए।

देश में हापुड़ को गुड़ की मंडी का नाम दिया गया है। दक्षिण भारत में तो अंका पली का डंका बजता हैं। उत्तर भारत को सबसे बड़ा आई टी केंद्र गुरुग्राम भी तो गुड़ का गांव (गुड़गांव) ही था। कुछ वर्ष पूर्व दैनिक पेपर में अनाज और अन्य जिंसों की भाव तालिका प्रतिदिन छपा करती थी, आज की युवा पीढ़ी क्रय करने से पूर्व मूल्य पर कम ही ध्यान देती हैं।

हर चमकने वाली वस्तु सोना नहीं होती है, यही बात शक्कर (चीनी) पर भी लागू होती है। गुड़ सोना है,और चीनी चांदी है। हालांकि ये बात शुगर लॉबी वालों को हज़म नहीं होगी, उनके निज़ी स्वार्थ जो  जुड़े हैं। खांडसारी कुटीर उद्योग को तो शुगर इंडस्ट्री कब का चट कर गई।

अब लेखनी को विराम देता हूँ, गुड़ की चाय पीने के बाद दूसरा भाग लिखूंगा।

अगले सप्ताह पढ़िए गुड़ की चाय पीने के बाद का अगला भाग ….. 

© श्री राकेश कुमार 

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 109 – लघुकथा – अधिकार ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा  “अधिकार”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 109 ☆

? लघुकथा – अधिकार ?

एक छोटे से गांव में अखबार से लेकर तालाब, मंदिर और सभी जगहों पर चर्चा का विषय था कि कमला का बेटा गांव का पटवारी बन गया है।

कमला ने अपने बेटे का नाम बाबू रखा था। कमला का बचपन में बाल विवाह एक मंदबुद्धि आदमी से करा दिया गया था। दसवीं पास कमला पहले ही दिन पति की पागलपन का शिकार हो गई और फिर मायके आने पर घर वालों ने भी अपनाने से इंकार कर दिया। पड़ोस में अच्छे संबंध होने के कारण उसने अपनी सहेली के घर शरण ली।

फिर आंगनबाड़ी में आया के रूप में काम करने लगी। अपना छोटा सा किराए का मकान ले रहने लगी।

कहते हैं अकेली महिला के लिए समाज का पुरुष वर्ग ही दुश्मन हो जाता है। गांव के ही एक पढे-लिखे स्कूल अध्यापक ने सोचा मैं इसको रख लेता हूं। इसका तो कोई नहीं है मेरी तीन लड़कियां है। उसका खर्चा पानी इसके खर्च से आराम से चलेगा और पत्नी को भी पता नहीं चलेगा।

गुपचुप आने जाने लगा। कमला मन की भोली अपनी तनख्वाह पाते ही उसे दे देती थी। सोचती कि मेरा कोई तो है जो सहारा बन रहा है।

धीरे-धीरे गांव में बात फैलने लगी मजबूरी में दोनों को शादी करनी पड़ी। एक वर्ष बाद कमला को पुत्र की प्राप्ति हुई, परंतु उसके दुख का पहाड़ तो टूट पड़ा। बच्चा जब साल भर का हुआ तब उसे शाम ढलते ही दिखाई नहीं देता था।

कमला ने सोचा मेरे तो भाग्य ही फूटे हैं। आदमी अब तो दूरी बनाने लगा कि खर्चा पानी इलाज करवाना पड़ेगा।

धीरे-धीरे दोनों अलग हो होने लगे वह फिर अपने परिवार के पास चला गया। रह गई कमला अकेले अपने बाबू को लेकर। समय पंख लगा कर उड़ा जैसे तैसे दूसरों की मदद से पढ़ाई कर बाबू बी.काम. पास हुआ।

तलाक हो चुका था, कमला और अध्यापक का। पटवारी फार्म भरने के समय वह चुपचाप पिताजी के नाम और माता जी के नाम दोनों जगह कमला लिखा था। हाथ में पटवारी की नियुक्ति का कागज ले जब वह घर जा रहा था। रास्ते में पिताजी ने सोचा शायद बेटा माफ कर देगा, परंतु बाबू ने पिताजी की तरफ देख कर गांव वालों के सामने कहा…. मरे हुए इंसान का अधिकार खत्म हो जाता है। अपने लिए मरा शब्द और अधिकार बाबू के मुंह से, सुनकर कलेजा मुंह को आ गया।

आरती की थाल लिए कमला कभी अपने बाबू को और कभी उसके नियुक्ति पत्र में लिखें शब्दों को देख रही थीं । अश्रुं की धार बहने लगी सीने से लगा बाबू को प्यार से आशीर्वाद की झड़ी लगा दी। पूरे अधिकार से स्वागत करते हुए कमला खुश हो गई।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 120 ☆ भरवसा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 120 ?

☆ भरवसा ☆

तुझ्या डोळ्यांत आरसा

तिथे अंधार हा कसा

 

मेंदू लागला पोखरू

नाही झोपत पाखरू

एक ध्यास मनामध्ये

एका फुलाची लालसा

 

नाते फूल पाखराचे

आहे मला जपायचे

दोघे मिळून जपुया

पिढीजात हा वारसा

 

फूल होता या कळीचे

भाग्य फुले डहाळीचे

गंध दूरवर जाई

होई पाकळ्यांचा पसा

 

जाई काट्याला शरण

त्याच्या सोबती मरण

क्षणभंगुर आयुष्य

नाही त्याचा भरवसा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ एकच सत्य… ☆ श्री शरद कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ एकच सत्य… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆ 

कर दोन तरी,

नमस्कार एक.

दोन्हीं डोळ्यातले,

भाव एकएक.

दोन पायांखाली,

वाट एकएक.

भक्ती प्रणय वेगळे,

प्रेम एकएक.

मीरा राधा वेगळीही,

श्याम एकएक.

भिन्नता वेगळी,

संकल्पना एकएक.

जरी प्रार्थना वेगळ्या,

असो मागणेही एक.

तुझ्या माझ्यातले द्वैत,

व्हावे एकएक.

न उरावे अद्वैत,

सत्य समजावे एक.

 

© श्री शरद  कुलकर्णी

मिरज

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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