हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #79 – कस्तूरी कुण्डल बसे, मृग ढूँढे बन माँहि!! ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #79 – कस्तूरी कुण्डल बसे, मृग ढूँढे बन माँहि!! ☆ श्री आशीष कुमार

 एक बार भगवान दुविधा में पड़ गए। लोगों की बढ़ती साधना वृत्ति से वह प्रसन्न तो थे पर इससे उन्हें व्यावहारिक मुश्किलें आ रही थीं। कोई भी मनुष्य जब मुसीबत में पड़ता,तो भगवान के पास भागा-भागा आता और उन्हें अपनी परेशानियां बताता। उनसे कुछ न कुछ मांगने लगता। भगवान इससे दुखी हो गए थे।

अंतत: उन्होंने इस समस्या के निराकरण के लिए देवताओं की बैठक बुलाई और बोले- देवताओं !! मैं मनुष्य की रचना करके कष्ट में पड़ गया हूं। कोई न कोई मनुष्य हर समय शिकायत ही करता रहता है, जिससे न तो मैं कहीं शांति पूर्वक रह सकता हूं,न ही तपस्या कर सकता हूं। आप लोग मुझे कृपया ऐसा स्थान बताएं जहां मनुष्य नाम का प्राणी कदापि न पहुंच सके।

प्रभू के विचारों का आदर करते हुए देवताओं ने अपने-अपने विचार प्रकट किए।

गणेश जी बोले- आप हिमालय पर्वत की चोटी पर चले जाएं।

भगवान ने कहा- यह स्थान तो मनुष्य की पहुंच में है। उसे वहां पहुंचने में अधिक समय नहीं लगेगा।

इंद्रदेव ने सलाह दी कि वह किसी महासागर में चले जाएं।”

वरुण देव बोले आप अंतरिक्ष में चले जाइए।

भगवान ने कहा- एक दिन मनुष्य वहां भी अवश्य पहुंच जाएगा।

भगवान निराश होने लगे थे। वह मन ही मन सोचने लगे- क्या मेरे लिए कोई भी ऐसा गुप्त स्थान नहीं है, जहां मैं शांतिपूर्वक रह सकूं ?

अंत में सूर्य देव बोले- प्रभू !! आप ऐसा करें कि मनुष्य के हृदय में बैठ जाएं। मनुष्य अनेक स्थान पर आपको ढूंढने में सदा उलझा रहेगा। पर वह यहाँ आपको कदापि न तलाश करेगा।

ईश्वर को सूर्य देव की बात पसंद आ गई। उन्होंने ऐसा ही किया। वह मनुष्य के हृदय में जाकर बैठ गए। उस दिन से मनुष्य अपना दुख व्यक्त करने के लिए ईश्वर को ऊपर, नीचे, दाएं,बाएं,आकाश, पाताल में ढूंढ रहा है पर वह मिल नहीं रहे। मनुष्य अपने भीतर बैठे हुए ईश्वर को नहीं देख पा रहा है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 89 – आनंदाने नाचू या ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 89 – आनंदाने नाचू या ☆

 

आनंदाने नाचू या।

खूप खूप मज्जा करू या।।धृ।।

 

आज शाळेला सुट्टी लागली।

झिलमिल दिव्यांची दिवाळी आली।

दोस्त सारे जमवू या।।१।।

 

दिव्या दिव्यांनी ज्योत पेटवू।

रांगोळ्यांनी अगण सजवूं ।

आकाशी कंदील लावू या।।२।।

 

तेल, सुगधी उटणे लावू।

मोती साबण अगं ण  लावू।

नवीन कपडे घालू या।।३।।

 

सुंदर तोरण दारा लावू।

मातीचे रे किल्ले बनवू।

लक्ष्मी पुजन करू या।।४।।

 

चकली करंज्या शकंरपाळी।

चिवडा लाडू पुरण पोळी।

छान छान फराळ खाऊ या ।।५।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 120 ☆ बहुत तकलीफ़ होती है ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख बहुत तकलीफ़ होती है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 120 ☆

☆ बहुत तकलीफ़ होती है

‘लोग कहते हैं जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो तकलीफ़ होती है; परंतु जब कोई अपना पास होकर भी दूरियां बना लेता है, तब बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है।’ प्रश्न उठता है, आखिर संसार में अपना कौन…परिजन, आत्मज या दोस्त? वास्तव में सब संबंध स्वार्थ व अवसरानुकूल उपयोगिता के आधार पर स्थापित किए जाते हैं। कुछ संबंध जन्मजात होते हैं, जो परमात्मा बना कर भेजता है और मानव को उन्हें चाहे-अनचाहे निभाना ही पड़ता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला नहीं रह सकता और वह कुछ संबंध बनाता है; जो बनते-बिगड़ते रहते हैं। परंतु बचपन के साथी लंबे समय तक याद आते रहते हैं, जो अपवाद हैं। कुछ संबंध व्यक्ति स्वार्थवश स्थापित करता है और स्वार्थ साधने के पश्चात् छोड़ देता है। यह संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति अस्थायी होते हैं, जो दृष्टि से ओझल होते ही समाप्त हो जाते हैं और लोगों के तेवर भी अक्सर बदल जाते हैं। परंतु माता-पिता व सच्चे दोस्त नि:स्वार्थ भाव से संबंधों को निभाते हैं। उन्हें किसी से कोई संबंध-सरोकार नहीं होता तथा विषम परिस्थितियों में भी वे आप की ढाल बनकर खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं, आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पक्षधर बने रहते हैं। सो! आप उन पर नेत्र मूंदकर विश्वास कर सकते हैं। आपने अंग्रेजी की कहावत सुनी होगी ‘आउट आफ साइट, आउट ऑफ मांइड’ अर्थात् दृष्टि से ओझल होते ही उससे नाता टूट जाता है। आधुनिक युग में लोग आपके सम्मुख अपनत्व भाव दर्शाते हैं; परंतु दूर होते ही वे आपकी जड़ें काटने से तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करते। ऐसे लोग बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, जो केवल मौसम बदलने पर ही नज़र आते हैं। वे गिरगिट की भांति रंग बदलने में माहिर होते हैं। इंसान को जीवन में उनसे सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे अपने बनकर, अपनों को घात लगाते हैं। सो! उनके जाने का इंसान को शोक नहीं मनाना चाहिए, बल्कि प्रसन्न होना चाहिए।

वास्तव में इंसान को सबसे अधिक दु:ख तब होता है, जब अपने पास रहते हुए भी दूरियां बना लेते हैं। दूसरे शब्दों में वे अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं तथा पीठ में छुरा घोंपते हैं। आजकल के संबंध कांच की भांति नाज़ुक होते हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते ही दरक़ जाते हैं, क्योंकि यह संबंध स्थायी नहीं होते। आधुनिक युग में खून के रिश्तों पर भी विश्वास करना मूर्खता है। अपने आत्मज ही आपको घात लगाते हैं। वे आपको तब तक मान-सम्मान देते हैं, जब तक आपके पास धन-संपत्ति होती है। अक्सर लोग अपना सब कुछ उनके हाथों सौंपने के पश्चात् अपाहिज-सा जीवन जीते हैं या उन्हें वृद्धाश्रम में आश्रय लेना पड़ता है। वे दिन-रात प्रभु से यही प्रश्न करते हैं, आखिर उनका कसूर क्या था? वैसे भी आजकल परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं, क्योंकि संबंध-सरोकारों की अहमियत रही नहीं। वे सब एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। प्राय: वे ग़लत संगति में पड़ कर अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं।

अक्सर ज़िदंगी के रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोगों की बातों में आकर हम अपनों से उलझ जाते हैं। मुझे स्मरण हो रहे हैं कलाम जी के शब्द ‘आप जितना किसी के बारे में जानते हैं; उस पर विश्वास कीजिए और उससे अधिक किसी से सुनकर उसके प्रति धारणा मत बनाइए। कबीरदास भी आंखिन-देखी पर विश्वास करने का संदेश देते हैं; कानों-सुनी पर नहीं। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।’ इसलिए उनकी बातों पर विश्वास करके किसी के प्रति ग़लतफ़हमी मत पालें। इससे रिश्तों की नमी समाप्त हो जाती है और वे सूखी रेत के कणों की भांति तत्क्षण मुट्ठी से फिसल जाते हैं। ऐसे लोगों को ज़िंदगी से निकाल फेंकना कारग़र है। ‘जीवन में यदि मतभेद हैं, तो सुलझ सकते हैं, परंतु मनभेद आपको एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देते। वास्तव में जो हम सुनते हैं, हमारा मत होता है; तथ्य नहीं। जो हम देखते हैं, सत्य होता है; कल्पना नहीं। ‘सो! जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकार कीजिए। दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मूल्यों से समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चले आइए।’ महात्मा बुद्ध की यह सीख अनुकरणीय है।

‘ठहर! ग़िले-शिक़वे ठीक नहीं/ कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्ती को लहरों के सहारे।’ समय बहुत बलवान है, निरंतर बदलता रहता है। जीवन में आत्म-सम्मान बनाए रखें; उसे गिरवी रखकर समझौता ना करें, क्योंकि समय जब निर्णय करता है, तो ग़वाहों की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए किसी विनम्र व सज्जन व्यक्ति को देखते ही यही कहा जाता है, ‘शायद! उसने ज़िंदगी में बहुत अधिक समझौते किए होंगे, क्योंकि संसार में मान-सम्मान उसी को ही प्राप्त होता है।’ किसी को पाने के लिए सारी खूबियां कम पड़ जाती हैं और खोने के लिए एक  ग़लतफ़हमी ही काफी है।’ सो! जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए; जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए। हर क्षण, हर दिन शांत व प्रसन्न रहिए और जीवन से प्यार कीजिए; आप ख़ुद को मज़बूत पाएंगे, क्योंकि लोहा ठंडा होने पर मज़बूत होता है और उसे किसी भी आकार में ढाला नहीं जा सकता है।

यदि मन शांत होगा, तो हम आत्म-स्वरूप परमात्मा को जान सकेंगे। आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत् है। परंतु बावरा मन भूल गया है कि वह पृथ्वी पर निवासी नहीं, प्रवासी बनकर आया है। सो! ‘शब्द संभाल कर बोलिए/ शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/  एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी सदैव मधुर वाणी बोलने का संदेश देते हैं। जब तक इंसान परमात्मा-सत्ता पर विश्वास व नाम-स्मरण करता है; आनंद-मग्न रहता है और एक दिन अपने जीवन के मूल लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेता है। सो! परमात्मा आपके अंतर्मन में निवास करता है, उसे खोजने का प्रयास करो। प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि तुम्हारे जीवन को रोशन करने कोई नहीं आएगा। आग जलाने के लिए आपके पास दोस्त के रूप में माचिस की तीलियां हैं। दोस्त, जो हमारे दोषों को अस्त कर दे। दो हस्तियों का मिलन दोस्ती है। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘जो आपके पास चलकर आए सच्चा दोस्त होता है; जब सारी दुनिया आपको छोड़कर चली जाए।’ इसलिए दुनिया में सबको अपना समझें;  पराया कोई नहीं। न किसी से अपेक्षा ना रखें, न किसी की उपेक्षा करें। परमात्मा सबसे बड़ा हितैषी है, उस पर भरोसा रखें और उसकी शरण में रहें, क्योंकि उसके सिवाय यह संसार मिथ्या है। यदि हम दूसरों पर भरोसा रखते हैं, तो हमें पछताना पड़ता है, क्योंकि जब अपने, अपने बन कर हमें छलते हैं, तो हम ग़मों के सागर में डूब जाते हैं और निराशा रूपी सागर में अवगाहन करते हैं। इस स्थिति में हमें बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है। इसलिए भरोसा स्वयं पर रखें; किसी अन्य पर नहीं। आपदा के समय इधर-उधर मत झांकें। प्रभु का ध्यान करें और उसके प्रति समर्पित हो जाएं, क्योंकि वह पलक झपकते आपके सभी संशय दूर कर आपदाओं से मुक्त करने की सामर्थ्य रखता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 119 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 119 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

तुझसे अब कहते बना, होती जब है शाम।

प्यारा सा अहसास है, लेना तेरा नाम।।

 

खोज बहुत की सत्य की, करते रहे प्रचार।

संत कबीर ने कर दिया, धर्म पर ही प्रहार।

 

तेरी अपनी सोच है, मेरी अपनी सोच।

सोच सोच कर बोलना, लगे न दिल पर मोच।।

 

कविता में ही रच दिया, तूने सब संसार।

शब्द शब्द से झलकता, तेरा प्यार अपार।।

 

उनकी वाणी कह रही, मीठा मीठा बोल।

 सबकी वाणी हो मधुर, यह जीवन का मोल।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 109 ☆ राधा नाम सुनत हरि धावें…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “राधा नाम सुनत हरि धावें….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 109 ☆

☆ राधा नाम सुनत हरि धावें….

राधा नाम देत सुख सारे, मनवांछित फल पावें

जाको नाम जपें खुद कृष्णा, निशदिन नाम बुलावें

रास विहारिनि नवल किशोरी, मोहन को अति भावें

राधे राधे जपिये प्यारे, कृष्णा सुन झट धावें

पाना है गर मोहन को तो, निशदिन राधे  गावें

राधे कह “संतोष”मिलेगा, सुख-शान्ति घर लावें

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 113 – भावगंध…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 113 – विजय साहित्य ?

☆ भावगंध…!  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

पांडुरंग सदाशिव

साने कुलोत्पन्न मूर्ती

साहित्याने जोपासली

देशभक्ती आणि स्फूर्ती……!

 

जन्म दिनी आज वाहे

आठवांची शब्द माला

देण्या विचार साधना

जन्म गुरूजींच्या झाला….!

 

कर्मभूमी खान्देशची

संस्था आंतर भारती

अभिजात साहित्याचे

साने गुरुजी सारथी……!

 

बाल मनावर केली

संस्कारांची रूजवात

आई श्यामची नांदते

प्रत्येकाच्या अंतरात….!

 

जातीभेद, अस्पृश्यता

घणाघाती केले वार

भूमिगत होऊनीया

केला स्वातंत्र्य प्रचार…..!

 

गोष्टी अमोल लिहिल्या

पत्रे श्यामची गाजली

मुले धडपडणारी

हाक कर्तव्याची भली…..!

 

सोन्या मारुती,आस्तिक

क्रांती, इस्लामी संस्कृती

सती,संध्या त्रिवेणीने

केली विश्वात जागृती…..!

 

स्वप्न आणि सत्य कथा

शेला रामाचा विणला

मानवांचा इतिहास

अंतरंगी त्या भिनला….!

 

केले चरीत्र लेखन

हिमालय विचारांचे

स्वर्गातील माळ शब्दी

दिले ज्ञान गीतांचे…….!

 

गोष्टीरूप विनोबाजी

सोनसाखळीचे रंग

तत्त्वज्ञानी हळवेला

वास्तवाचा भावगंध…..!

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! रामाची निर्मल सीता व लक्ष्मी ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

? चं म त ग ! ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

? रामाची निर्मल सीता व लक्ष्मी ! ? 

“काय पंत, आज तुमच्या घरातून t v चा आवाज नाही आला सकाळ पासून !”

“अरे मोऱ्या वैताग आणला आहे नुसता या tv वाल्यांनी !”

“काय केबल गेली की काय तुमची पंत ?”

“अरे केबलला काय धाड भरल्ये मोऱ्या ?  व्यवस्थित चालू आहेत सगळे चॅनेल्स !”

“पंत, मग तुमचा खास सखा सोबती आज मुका कसा काय बुवा ?”

“अरे काय सांगू तुला मोऱ्या, कुठलेही चॅनेल लावा सगळीकडे बजेट, बजेट आणि फक्त बजेट.  दुसरा विषयच नाही या लेकांना.  नुसता उच्छाद आणलाय सगळ्यांनी.”

“पंत, बजेट हाच सध्याचा एकमेव गरम विषय आहे आणि त्यावर हे चॅनेलवाले आपली पोळी भाजून घेत असतील तर त्यात नवल ते काय ?”

“तू म्हणतोस ते बरोबर आहे रे,  पण ज्यांना “अर्थसंकल्प” हा  शब्द सुद्धा नीट उच्चारता येत नाही, असे लोक वायफळ चर्चा करून आपल्याला अर्थकारण समजावणार ? “

“पंत सध्या दिवसच तसे आलेत, त्याला आपण तरी काय करणार ?”

“काय करणार म्हणजे, सरकारचा रिमोट जरी कुठूनही चालत असला, तरी आपल्या t v चा रिमोट आपल्या हातातच असतो ना ? मग ती वायफळ चर्चा ऐकण्यापेक्षा केला बंद t v. आता कसं शांत शांत वाटतंय !”

“पंत त्यात तुमचेच नुकसान नाही का?”

“माझे कसले बुवा त्यात नुकसान ? उलट आता बजेटच्या आधीच विजेचे दर वाढलेत, मग t v बंद करून मी एक प्रकारे पैशाची बचतच नाही का करतोय ?”

“अहो पंत, पण सरकारने कर सवलत किती दिली, काय स्वस्त होणार, काय महाग होणार हे तुम्हाला कसे कळेल ?”

“कसे म्हणजे, पेपर मधून, जो मी रोज सकाळी वाचायच्या आधी लंपास करून तूच  वाचतोस, होय ना ?”

“काय पंत मी…. “

“अरे मस्करी केली मी तुझी.  बर ते सगळे सोड, पण तुला माहीत आहे का, बजेट हा शब्द कुठून आला ते ? “

“नाही खरच माहीत नाही मला, कळायला लागल्या पासून अर्थसंकल्पाला इंग्रजी मधे बजेट म्हणतात एव्हढेच ठाऊक आहे.”

“तुला सांगतो मोऱ्या, अरे ‘बजेट’ या शब्दाची निर्मिती फ्रेंच शब्द ‘बुजेत’पासून झाली. या शब्दाचा अर्थ ‘चामड्याची पिशवी’ असा होतो. फ्रेंच मंडळी पैसे सुरक्षित ठेवण्यासाठी चामड्याच्या पिशवीचा पूर्वी वापर करत असतं आणि या पिशवीला ते ‘बुजेत’ म्हणत.  बजेट हा शब्द प्रचलित होण्या मागे एक गमतीदार किस्सा आहे, बरं का मोऱ्या !”

“कोणता किस्सा पंत ?”

“मोऱ्या, १७३३ साली इंग्लंडचे माजी अर्थमंत्री, सर रॉबर्ट वॉलपोल वार्षिक अर्थसंकल्प सादर करण्यासाठी त्यांच्या संसदेत आले असतांना, त्यांनी स्वत:सोबत एक चामड्याची पिशवी देखील आणली होती. याच पिशवीत त्यांनी अर्थसंकल्पाचे कागदपत्र ठेवले होते. ती पिशवी उघडतांना  त्यांनी ‘बुजेत इज ओपन’ असे म्हटले. परंतु ‘बुजेत’ हा शब्द त्यांनी अशा प्रकारे उच्चारला की सभागृहातील इतर मंडळींना तो ‘बजेट’ असा ऐकू आला आणि तेव्हा पासून जगभरात बजेट हाच शब्द प्रचलित झाला बघ !”

“पंत, फारच मनोरंजक आहे हा बजेट शब्दाचा इतिहास ! बजेट शब्दा बद्दल तुम्हाला इतकी माहिती आहे पण खऱ्या बजेट मध्ये तुम्हाला खरच इंटरेस्ट नाही याचेच जरा नवल….. “

“अरे मोऱ्या इंटरेस्ट असला काय आणि नसला काय, रोजच्या खर्चाची तोंडमिळवणी करणे भाग आहे ना ? आणि मला असे एक तरी उदाहरण सांग ना, की अमुक एका बजेट नंतर अमुक तमुक गोष्टींच्या किमती खाली आल्या म्हणून ?”

“तसच काही नाही पंत, काही काही गोष्टी खरच स्वस्त…… “

“होतात तात्पुरत्या, परत ये रे माझ्या मागल्या ! नंतर तुझ्या माझ्या सारख्या सामान्य माणसाला त्याची सवय होवून जाते !  You know,  public memory is very short.”

“हो, पण आपल्या बजेटची साऱ्या जगात चर्चा होते आणि…… “

“त्याचा जागतिक अर्थकारणावर परिणाम होतो वगैरे, वगैरे, असेच ना ? अरे पण म्हणून बजेट वाचतांना कविता वाचून आणि कथा सांगून कितीही साखरपेरणी केली, तरी प्रत्यक्ष महागाईचा सामना करतांना सामान्य माणसाचे  तोंड कडवट होतेच, त्याचे काय ? “

“तुम्ही म्हणता ते बरोबरच आहे पंत पण…… “

“पण बिण सगळे सोड, मला एक सांग, आपण कितीही संकल्प केले तरी आपल्या खिशातल्या अर्थाला ते झेपायला नकोत का? अरे आपल्या घरचे महिन्याचे बजेट  सांभाळतांना घरच्या होम मिनिस्टरची काय हालत होते, हे तुला मी वेगळे सांगायची गरज आहे का ?”

“हो बरोबर पंत, या बाबतीत सगळ्याच होम मिनिस्टरना माझा सलाम ! महागाईचा कितीही भडका उडाला, तरी घरातले बजेट सांभाळणे त्याच  जाणोत ! पंत पटल तुमच म्हणण.”

“पटल ना मोऱ्या, मग आता आमचा तू नेलेला आजचा पेपर आणून दे बरं मुकाट, कारण t v बंद केल्याने तोच आता माझा सखा सोबती !”

“तरी पण तुमच्या सारख्या सिनियर सिटीझनने “बुजेत” मध्ये इंटरेस्ट न दाखवणे मला नाही पटत पंत !”

“अरे त्यात न पटण्या सारखं काय आहे मोऱ्या ? सगळ्या बजेट मधे तेच तेच तर असत.  एका हाताने दिल्या सारखे करायचे आणि दुसऱ्या मार्गाने दोन हातांनी वेगळ्याच नावाने काढून घ्यायच ! आता तो आकडयांचा खेळ नकोसा वाटायला लागलाय. अरे पूर्वी  लाखावर किती शून्य सांगताना दमछाक व्हायची आणि बजेटचे सगळे आकडे लाख करोड मधे !  मग माझ्यासारख्या पामराचे काय होईल याची तू कल्पनाच केलेली बरी.”

“पंत, तरी पण माझा मुख्य प्रश्न उरतोच ना !”

“तू तसा ऐकण्यातला नाहीस ! तुला आता शेवटचे एकच सांगतो, निर्मल मनाच्या कुठल्याही रामाच्या सीतेने जरी अर्थसंकल्प मांडला, तरी त्याला त्या त्या वेळचे विरोधक नांव ठेवणार आणि त्या त्या वेळचे राज्यकर्ते मांडलेल्या बजेटची प्रशंसा करणार, हा आजपर्यंतचा इतिहास आणि अलिखित नियम आहे ! त्यामुळे बजेट चांगले का वाईट या फ़ंदात न पडता, घरातले “बुजेत” सांभाळणाऱ्या घरच्या लक्ष्मीला माझे शतशः प्रणाम !”

 

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

११-०२-२०२२

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #88 ☆ ब्रेक और ब्रेकर… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “लेखा जोखा… ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 88 ☆ ब्रेक और ब्रेकर… 

सीरियल देखते हुए बीच ब्रेक में कितने सारे कार्य हो जाते हैं। 20- 22 मिनट के अंतराल में 4 ब्रेक होने से सोचने – समझने का मौका मिलता है। दिमाग जो सीरियल में घुसा रहता है अचानक से फिर धरातल में लौटता है। सोचिए अगर ये ब्रेक न होता तो हम पूरी तरह से उसी समस्या में डूब कर मनोरोगी बन चुके होते। अब समझ में आया कि आधे घण्टे  की पढ़ाई के बाद ब्रेक क्यों लेना चाहिए। कोई भी कार्य हो समय- समय पर रिलेक्स करना ही चाहिए।

रोड में तरह- तरह के ब्रेकर इसीलिए बनाये जाते हैं ताकि भागती हुई गाड़ी कन्ट्रोल में रह सके। ऐसा ही कुछ इस बार के चुनावों में भी देखने को मिल रहा है किसी को पहली बार टिकट के रूप में ब्रेक मिल रहा है तो किसी का चुनावी करियर भी दाँव पर लगा हुआ है। उसे किसी भी सूची में टिकट नहीं दिया गया। वो बस बेसब्री से इंतजार किए जा रहा है कि शायद  बाद में कोई लाभ मिलेगा। इस सबमें प्रत्याशी किस दल का नुमाइंदा है ये भी तय नहीं रहता है। दरसल टिकट ही उनके जीवन मूल्य व राष्ट्रवाद को तय करता है। इन सबमें मतदाता कहाँ खो जाता है , उसकी सारी योजनाओं व उम्मीदों में लगा हुआ ब्रेक कब दूर होगा,  वर्चुअल रैली सुनने के लिए बैठी भीड़ बस इंतजार में रहती है कि मंत्री जी की वाणी में विराम लगे और वो वहाँ से उठकर अपने बैठने की कीमत व भोजन पा सके। दरसल लोगों को एकत्रित करके लाने का ये सिलसिला शुरू से ही चला आ रहा है।

सारे दौर के नामांकन के बाद भी जिनकी गाड़ी को गति नहीं मिलती है, वे राज्यसभा की ओर निगाह जमा लेते हैं आखिर उनकी सेवा का प्रतिफल तो मिलना ही चाहिए। लोग गठबंधन पर गठबंधन किए जा रहे हैं। मजे की बात इन चुनावों में विचारों के मूल्यों को प्रमुखता न देकर टिकट को वरीयता मिल रही है। इसी की कीमत पर मूल्यों का निर्धारण हो रहा है। मतदाता भी किसकी ओर से बोलें, किसके गुणगान करें ये उन्हें आखिरी समय पर ही पता चलेगा। कुछ भी कहें इस व्यवस्था ने मतदाताओं को जागरूक तो बना ही दिया है। अब उन्हें किस का बटन दबाना है, ये तो वक्त किस करवट बैठता है यही तय करेगा। वे तो चुनावी आंकड़ों के विश्लेषण पर नजर जमाए हुए हैं। 

सकारात्मकता का यही लाभ होता है कि अवसरवादी भी अवसरों की तलाश में आखिरी दम तक एड़ी चोटी का जोर लगाने से नहीं चूकता है। कुछ भी कहें इस बार परिवार बाद, भाई – भतीजा बाद पर लगाम कसी है। उम्मीद है कि अगले चुनावों में जातिगत समीकरणों पर भी रोक लगेगी। हम सब बस मतदाता है ये चिंतन जिस दिन मतदाता करने लगेंगे उस दिन से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सही मायनों में जनजागरण शुरू होगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #106 – लघुकथा- राम जाने ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं प्रेरणास्पद लघुकथा  “राम जाने।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 106 ☆

☆ लघुकथा- राम जाने☆ 

बाबूजी का स्वभाव बहुत बदल गया था। इस कारण बच्चे चिंतित थे। उसी को जानने के लिए उनका मित्र घनश्याम पास में बैठा था, “यार! एक बात बता, आजकल तुझे अपनी छोटी बेटी की कोई फिक्र नहीं है?”

बाबू जी कुछ देर चुप रहे।

“क्या होगा फिक्र व चिंता करने से?” उन्होंने अपने मित्र घनश्याम से कहा, “मेरे बड़े पुत्र को मैं इंजीनियर बनाना चाहता था। उसके लिए मैंने बहुत कोशिश की। मगर क्या हुआ?”

“तू ही बता?” घनश्याम ने कहा तो बाबूजी बोले, “इंजीनियर बनने के बाद उसने व्यवसाय किया, आज एक सफल व्यवसायी है।”

“हां, यह बात तो सही है।”

“दूसरे बेटे को मैं डॉक्टर बनाना चाहता था,” बाबू जी बोले, “मगर उसे लिखने-पढ़ने का शौक था। वह डॉक्टर बन कर भी बहुत बड़ा साहित्यकार बन चुका है।”

“तो क्या हुआ?” घनश्याम ने कहा, “चिंता इस बात की नहीं है। तेरा स्वभाव बदल गया है, इस बात की है। ना अब तू किसी को रोकता-टोकता है न किसी की चिंता करता है। तेरे बेटा-बेटी सोच रहे हैं कहीं तू बीमार तो नहीं हो गया है?”

“नहीं यार!”

“फिर क्या बात है? आजकल बिल्कुल शांत रहता है।”

“हां यार घनश्याम,” बाबूजी ने एक लंबी सांस लेकर अपने दोस्त को कहा, “देख- मेरी बेटी वही करेगी जो उसे करना है। आखिर वह अपने भाइयों के नक्शे-कदम पर चलेगी। फिर मेरा अनुभव भी यही कहता है। वही होगा जो होना है। वह अच्छा ही होगा। तब उसे चुपचाप देखने और स्वीकार करने में हर्ज ही क्या है,” कहते हुए बाबूजी ने प्रश्नवाचक मुद्रा में आंखों से इशारा करके घनश्याम से पूछा- मैं सही कह रहा हूं ना?

और घनश्याम केवल स्वीकृति में गर्दन हिला कर चुप हो गया।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

07-02-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 145 ☆ कविता – रंगोली ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता रंगोली

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 145 ☆

? कविता – रंगोली ?

त्यौहार पर सत्कार का

इजहार रंगोली

उत्सवी माहौल में,

अभिसार रंगोली

 

खुशियाँ हुलास और,

हाथो का हुनर हैं

मन का हैं प्रतिबिम्ब,

श्रंगार रंगोली

 

धरती पे उतारी है,

आसमां से रोशनी,

है आसुरी वृत्ति का,

प्रतिकार रंगोली

 

बहुओ ने बेटियों ने,

हिल मिल है सजाई

रौनक है मुस्कान है,

मंगल है रंगोली

 

पूजा परंपरा प्रार्थना,

जयकार लक्ष्मी की

शुभ लाभ की है कामना,

त्यौहार रंगोली

 

संस्कृति का है दर्पण,

सद्भाव की प्रतीक

कण कण उजास है,

संस्कार रंगोली

 

बिन्दु बिन्दु मिल बने,

रेखाओ से चित्र

पुष्पों से कभी रंगों से

अभिव्यक्त रंगोली

 

धरती की ओली में

रंग भरे हैं

चित्रो की भाषा का

संगीत रंगोली

 

अक्षर और शब्दों से,

हमने भी बनाई

गीतो से सजाई,

कविता की रंगोली

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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