मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 100 – अष्टविनायक…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य # 100 ?

☆ अष्टविनायक…! 

मोरगावी मोरेश्वर

होई यात्रेस आरंभ

अष्ट विनायक यात्रा

कृपा प्रसाद प्रारंभ….!

 

गजमुख सिद्धटेक

सोंड उजवी शोभते

हिरे जडीत स्वयंभू

मूर्ती अंतरी ठसते….!

 

बल्लाळेश्वराची मूर्ती

पाली गावचे भूषण

हिरे जडीत नेत्रांनी

करी भक्तांचे रक्षण….!

 

महाडचा विनायक

आहे दैवत कडक

सोंड उजवी तयाची

पाहू यात एकटक….!

 

थेऊरचा चिंतामणी

लाभे सौख्य समाधान

जणू चिरेबंदी वाडा

देई आशीर्वादी वाण…!

 

लेण्याद्रीचा गणपती

जणू निसर्ग कोंदण

रुप विलोभनीय ते

भक्ती भावाचे गोंदण….!

 

ओझरचा विघ्नेश्वर

नदिकाठी देवालय

नवसाला पावणारा

देई भक्तांना अभय….!

 

महागणपती ख्याती

त्याचा अपार लौकिक

रांजणगावात वसे

मुर्ती तेज अलौकिक….!

 

अष्टविनायक असे

करी संकटांना दूर

अंतरात निनादतो

मोरयाचा एक सूर….!

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117,विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ विदुषी घोषा… ☆ सौ कुंदा कुलकर्णी ग्रामोपाध्ये ☆

सौ कुंदा कुलकर्णी

? मनमंजुषेतून ?

☆ विदुषी घोषा… ☆ सौ कुंदा कुलकर्णी ☆ 

ऋग्वेद काळात अनेक ऋषिका होऊन गेल्या. त्यातील घोषा या विदुषी ची कथा आपण ऐकूया.

घोषा ही दीर्घतामस ऋषींची नात व कक्षीवान ऋषींची कन्या. ऋषींच्या आश्रमात ती सगळ्यांची लाडकी होती पण दुर्दैवाने लहानपणीच तिच्या सर्व अंगावर कोड उठले. त्यामुळे तिने लग्नच केले नाही. अध्यात्मिक साधनेत तिने स्वतःला गुंतवून टाकले. तिला अनेक मंत्रांचा साक्षात्कार झाला. तिने स्वतः अनेक मंत्र आणि वैदिक सूक्ते रचली. ऋग्वेदाच्या दशम मंडलात तिने दोन पूर्ण अध्याय लिहिले आहेत. प्रत्येक अध्यायात 14/ 14 श्लोक आहेत. आणि सामवेदामध्ये सुद्धा तिचे मंत्र आहेत.

ती साठ वर्षांची झाली. त्यावेळेला तिच्या एकदम लक्षात आले की आपल्या पित्याने अश्विनीकुमारांच्या कृपेमुळे आयुष्य, शक्ती आणि आरोग्य प्राप्त केले होते. आपणही अश्विनीकुमार यांना साकडे घालू.

अश्विनी कुमार यांना प्रसन्न करून घेण्यासाठी घोषाने उग्र तप केले.”अभूतं गोपा मिथुना शुभस्पती प्रिया

अर्यम्णो  दुर्या अशीमहि ” अश्विनीकुमार प्रसन्न झाले आणि त्यांनी तिला वर मागण्यास सांगितले. तिच्या इच्छेनुसार त्यांनी तिचे कोड नाहीसे केले  व ती रूपसंपन्न यौवना बनली. त्यानंतर तिचा विवाह झाला. तिला दोन पुत्र झाले. त्यांची नावे तिने घोषेय आणि सुहस्त्य अशी ठेवली. दोघांना तिने विद्वान बनवले. युद्ध कौशल्यात देखील ते निपुण होते.

घोषाने जी सूक्ते रचली याचा अर्थ असा आहे की,”हे अश्विनी देवा आपण

अनेकांना रोगमुक्त करता.आपण अनेक रोगी लोकांना आणि दुर्बलांना नवीन जीवन देऊन त्यांचे रक्षण करता. मी तुमचे गुणगान करते .आपण माझ्यावर कृपा करून माझे रक्षण करा आणि मला समर्थ बनवा. पिता आपल्या मुलांना उत्तम शिक्षण देतो तसे उत्तम शिक्षण, आणि ज्ञान तुम्ही मला  द्या. मी एक ज्ञानी आणि बुद्धिमान स्त्री आहे. तुमचे आशीर्वाद मला दुर्दैवा पासून वाचवतील. तुमच्या आशीर्वादाने माझ्या मुलांनी आणि नातवांनी चांगले जीवन जगावे. तिच्या तपश्‍चर्येने प्रसन्न होऊन  अश्विनी कुमारांनी तिला मधुविद्या  दिली . वैदिक अध्यापन शिकवले. रुग्णांना रोगमुक्त  करण्यासाठी , अनुभव, ज्ञान मिळवण्यासाठी, त्वचेच्या आजारापासून बरे होण्यासाठी गुप्‍त शिक्षण विज्ञान शिकवले.

अशाप्रकारे कोडा सारख्या दुर्धर रोगाने  त्रासलेल्या या घोषाने वेदांचे रहस्य उलगडून दाखवण्याचे सर्वतोपरी प्रयत्न केले. तिने एकाग्रतेने अभ्यास केला आणि तिला वैदिक युगातील धर्मप्रचारिका ब्रह्मवादिनी घोषा हे स्थान प्राप्त झाले. अशा या बुद्धिमान, धडाडीच्या वैदिक स्त्रीला शतशत नमन.

© सौ. कुंदा कुलकर्णी ग्रामोपाध्ये

क्यू 17,  मौर्य विहार, सहजानंद सोसायटी जवळ कोथरूड पुणे

मो. 9527460290

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#120 ☆ जैसे-जैसे उथली होती गई नदी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज  नर्मदा जयंती के पुनीत अवसर पर प्रस्तुत है भावप्रवण रचना “जैसे-जैसे उथली होती गई नदी…”)

☆  तन्मय साहित्य  #120 ☆

☆ जैसे-जैसे उथली होती गई नदी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

जैसे-जैसे उथली होती गई नदी

वैसे-वैसे अधिक उछलती गई नदी।

 

अपने मौसम में, प्रभुता पा बौराई

तोड़ दिए तटबंध, मचलती गई नदी।

 

तीव्र वेग से आगे बढ़ने की चाहत

प्रतिपल तिलतिल कर के ढलती गई नदी। 

 

हवस भरे मन में कब सोच समझ रहती             

उद्वेलन में रूप बदलती गई नदी।

 

उतरा ज्वर यौवन का तन-मन शिथिल हुआ

मदहोशी में, खुद को छलती गई नदी।

 

बनी कोप भाजन अपनों से ही वह जब

है अंजाम किए के, जलती गई नदी।

 

तेवर सूरज के सहना भी तो  जायज

हो सचेत यूँ  स्वयं सुधरती गई नदी।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से#13 ☆ गीत – देह महक उठी— ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन। ) 

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर गीत  “देह महक उठी”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 13 ✒️

?  गीत – देह महक उठी —  डॉ. सलमा जमाल ?

(गीत बसंत)

देह महक उठी ,

स्वासों की सुगंध में ।

छाया ऋतुराज बसंत ,

गीत और छंद में ।।

 

व्याप्त है चहुं ओर ,

अनुपमता निसर्ग की ,

धरती पर छटा आज ,

बिखरी है स्वर्ग की ,

प्रसन्नता मानव ,

विहग – खग – वृंद में ।

छाया ————————— ।।

 

सुरभित हुईं दिशाएं ,

परिणति दृष्टि विनिमय ,

देख कर मौन प्रणय ,

गगन भी आज विस्मय ,

कूकती – कोयलिया ,

अमराई के झुंड में ।

छाया ————————– ।।

 

बसंती भोर में ,

दिग्दिगंत पूर्ण मधुमय ,

गा रहे नव पल्लव ,

रति का इतिहास तन्मय ,

गुंजित भ्रमावली ,

कानन – कुंज – निकुंज में ।

छाया ————————— ।।

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 96 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 7 – जो जैसी करनी करें … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 96 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 7 – जो जैसी करनी करें … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

जो जैसी करनी करें, सो तैसों फल पाय।

बेटी पौंची राजघर, बाबैं बँदरा खाय॥

शाब्दिक अर्थ :- बुरे काम करने का फल  भी बुरा ही मिलता है। बुरे सोच के साथ किसी अच्छी वस्तु की प्राप्ति नहीं हो सकती है। ऐसी ही एक सुकन्या से विवाह की इच्छा रखने वाले बुरे विचार के साधू (बाबैं) को बंदरों (बँदरा) ने काट खाया और सुकन्या का विवाह साधू की जगह राजकुमार से हो गया।

इस बुन्देली कहावत के पीछे जो कहानी है वह बड़ी मजेदार है, आन्नद लीजिए। सुनार नदी के किनारे बसे रमपुरवा गाँव में एक बड़ा पुराना शिवालय था। गाँव के लोगों की मंदिर में विराजे भगवान शिव पर अपार श्रद्धा थी। गामवासी प्रतिदिन सुबह सबेरे नदी में स्नान करते और फिर भोले शंकर को जल ढारकर अपने अपने काम से लग जाते। एक दिन एक साधू कहीं से घूमता घामता गाँव में आया और उसने मंदिर में डेरा डाल दिया। मंदिर की और शिव प्रतिमा की साफ सफाई के बाद वह भजन गाने लगा। गाँव वालों को अक्सर भजन गाता,मंजीरा बजाता  यह सीधा साधा साधू बहुत पुसाया और वे उसे प्रतिदिन कुछ कुछ न कुछ भोजनादी सामग्री भेंट में देने लगे। इस प्रकार साधू ने मंदिर के पास एक कुटिया बना ली और वहीं रम गया। गाँव के लोग अक्सर साधू से अपनी समस्या पूंछते, बैल गाय घुम जाने अथवा अन्य परेशानियों का उपाय पूंछते और साधू उसका समाधान बताता। गाँव की महिलाएँ और कन्याएँ भी कहाँ पीछे रहती वे भी अपने दांपत्य सुख को लेकर या विवाह के बारे में साधू से पूंछती  और साधू उन्हे उनके मनवांछित जबाब दे  देता। इस प्रकार साधू की कीर्ति आसपास के अनेक गाँवों में फैल गयी।  रमपुरवा गाँव से कोई पांचेक मील दूर सुनार नदी किनारे एक और गाँव था बरखेड़ा। इस गाँव में एक विधवा ब्राम्हणी, अपनी सुंदर युवा पुत्री के साथ, रहती थी । पुत्री विवाह योग्य हो गई थी पर गरीबी के कारण उसका विवाह नहीं हो पा रहा था। जब विधवा ब्राम्हणी और कन्या ने ने इस साधू की ख्याति सुनी तो वे भी, रमपुरवा गाँव  के शिवालय साधू से मिल, विवाह  के बारे में जानने पहुँची। साधू उस सुंदर कन्या पर रीझ गया और उससे विवाह करने का इच्छुक हो गया किन्तु साधू होने के कारण वह ऐसा कर नहीं सकता था। अत: उसने विधवा ब्राम्हणी से कहा कि कन्या का भाग्य बहुत खराब है और इस पर सारे बुरे ग्रहों की कुदृष्टि है। इसके निवारण का उपाय करने वह स्वयं अमावस्या के दिन बरखेड़ा गाँव आयेगा। नियत तिथी को साधू विधवा ब्राम्हणी के घर पहुँचा और उसने उसकी छोटी सी झोपड़ी कों देख कर कहा इस जगह रहने से इस कन्या का विवाह जीवन भर न होगा अत: यह झोपड़ी  छोडनी पडेगी। विधवा ब्राम्हणी बिचारी पहले से ही गरीब थी नई झोपड़ी बनाने पैसा कहाँ से लाती इसलिए उसने साधू से कोई दूसरा उपाय बताने को कहा। साधू तो मौके कि तलाश में ही था उसने सलाह दी कि कन्या को एक पेटी में बंद कर नदी में बहा दो एकाध दिन बाद कन्या किनारे लग कर बरखेड़ा गाँव वापस आ जाएगी और इससे बुरे ग्रहों की कुदृष्टि का दोष दूर हो जाएगा और इसका विवाह किसी धनवान से हो जाएगा तथा ससुराल में कन्या राज करेगी। विधवा ब्राम्हणी कन्या का उज्ज्वल भविष्य की सोचकर इस योजना के लिए तैयार हो गई। अमावस्या की काली अंधेरी रात को साधू ने विधवा ब्राम्हणी के साथ मिलकर कन्या को एक बक्से में बंद कर नदी में डाल दिया और स्वयं अपनी कुटिया की ओर तेज गति  चल पड़ा। कुटिया में पहुँच कर वह कल्पना में डूब गया कि कुछ समय में वह बक्सा बहता हुआ आवेगा और फिर वह उसे यहाँ से बहाकर कहीं  दूर ले जाएगा और फिर उस सुंदर कन्या से विवाह कर अनंत सुख भोगेगा। इधर बक्सा बहते बहते नदी के दूसरे किनारे की तरफ चला गया।  कुछ दूर घने जंगल में एक राजकुमार शिकार खेल रहा था उसने इस बहते बक्से को देखा और उसे अपने सिपाहियों की मदद से बाहर निकलवाकर उत्सुकतावश खोला। जैसे ही उसने बक्सा खोला तो उसमे से वह सुंदर कन्या निकली। कन्या ने राजकुमार को अपनी आप बीती और साधू के कुटिल चाल की बात सुनाई। राजकुमार ने उसकी दुखभरी कहानी सुनकर उससे विवाह करने की इच्छा दर्शायी और अपने साथ राजमहल चलने को कहा। कन्या राजकुमार की बातों से सहमत हो गई। तब राजकुमार ने जंगल से एक दो खूंखार बंदरों को पकड़ उन्हे बक्से में बंद कर पुनः नदी में छोड़ दिया। यह बक्सा बहता बहता साधू की कुटिया के पास जैसे ही पहुँचा साधू ने बक्से को रोका और बड़ी कामना के साथ खोला। बक्सा खुलते ही दोनों बंदर बाहर निकल कर साधू पर झपट पड़े और उसे काट काटकर बुरी तरह घायल कर दिया। तभी से यह कहावत चल पड़ी है। इसी से मिलती जुलती एक और कहावत है :-

करैं बुराई सुख चहै, कैसें पाबैं कोय। 

बोबैं बीज बबूर कौ, आम कहाँ से होय॥

यह तो सनातन परम्परा चली आ रही है। जो जैसा भी कार्य करता है उसे वैसा ही फल मिलता है। बुरे काम करने का नतीजा भी बुरा ही होता है। बुराई  के काम करने के बाद  यदि  कोई सुख चाहता है तो उसे सुखी जीवन जीने कैसे मिल सकता है। बबूल (बबूर) का बीज बोने से आम का पेड़ नहीं उग सकता।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी #19 – परम संतोषी भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ कथा – कहानी # 19 – परम संतोषी भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

शाखा के निरीक्षण के प्रारंभ होने के साथ साथ ये कहानी जब आगे बढ़ती है तो संतोषी जी की पद्मश्री प्रतिभा, इंस्पेक्शन प्रारंभ होने के अगले दिन से ही सामने आना प्रारंभ हो जाती है. यहां पर अवश्य ही कुछ पाठक, इंस्पेक्शन अधिकारियों की खातिरदारी के नाम पर मदिरापान, निरामिष महाभोज और दूसरी तरह तरह की कल्पनाओं के सागर में गोते लगाने लगे होंगे पर इन सब प्रचलित परंपरागत स्वागत से कहीं अलग संतोषी जी की प्रक्रिया थी. इसके लिये आपको, उनकी निज़ता का सम्मान करते हुये, उनके परिवार के बारे में सूचना देना आवश्यक है. संतोषी साहब को देशी उपचार का ज्ञान अपने दादाजी और दादीजी के माध्यम से मिला था. तबियत की सामान्य नासाजी, अनमनापन, सर्दी जुकाम, सामान्य ज्वर और अपच, पेट साफ नहीं होना याने इनडाइजेशन के लिये उनके पैतृक परिवार में और उनके साथ चल रहे न्यूक्लिक परिवार में भी, कभी भी डॉक्टर की सेवाएं नहीं ली जाती थीं. इसका अनुभव हमेशा संतोषी जी को परिवार के बाहर, बैंक की दुनियां में भी काम आता था. दूसरी बात यह कि वे तीन विदुषी और पाक कला में दक्ष पुत्रियों के लाडले पिता थे. पुत्रों कों पुत्ररत्न की उपाधि से सम्मानित करने की हमारी परंपरा, बेटियों के लिये किसी विशेषण का उपयोग नहीं करती पर ये वास्तविकता है कि बेटियाँ रत्न नहीं घरों की रौनक हुआ करती हैं और ये वही समझ पाते हैं जो बेटियों के पिता बनने का सौभाग्य पाते हैं. तो संतोषी जी की तीनों बेटियों की पाक कला में पूरे भारत के दर्शन हुआ करते थे. सुस्वादु और तड़केदार पंजाबी डिशों से लेकर सेहत और स्वाद दोनों की परवाह करती दक्षिण भारतीय डिशों से अक्सर उनका घर महका करता था. स्वादिष्ट भोजन की खुशबू , लोगों को हमेशा से ही चुंबक की तरह अपनी ओर खींचती आई है और यह भी एक तरह की धनात्मक ऊर्जा का स्त्रोत होती है. भोजन की पाकशाला में एक मेन्यू बहुत स्ट्रिक्टली प्रतिबंधित था और वह था नॉन वेजेटेरियन फुड. पूरे संतोषी परिवार का पूरे दृढता से ये मानना था कि जब शाकाहार में ही इतनी विविधता और स्वाद है तो किसी निर्बल का सहारा अपने स्वाद के लिये क्यों लिया जाय।

निरीक्षण में आये सहायक महाप्रबंधक दक्षिण भारतीय थे और एसी टू में यात्रा करने के बावजूद पर्याप्त नींद न लेने के कारण परेशान थे. उत्तर भारत की शीत ऋतु भी उन्हेँ रास नहीं आ रही थी. इन विषमताओं से उन्हें, सरदर्द, जुकाम और इनडाइजेशन तीनों की शिकायत हो गई थी. निरीक्षण में उनके साथ आये मुख्य प्रबंधक शुद्ध पंजाबी संस्कृति में पके पकवान थे. तो इडली सांभर और छोले भटूरे का तालमेल नहीं बैठ पाता था. पर निरीक्षण का काम नियमानुसार बंटा हुआ था और बैठने की जगह भी उस हिसाब से भूतल और प्रथम तल में अलग अलग थी तो आमना सामना सुबह की गुडमार्निंग के बाद यदाकदा ही होता था.

संतोषी साहब ने निरीक्षण करने आये सहायक महाप्रबंधक महोदय की अस्वस्थता, उड़ती चिडिया के पर  गिनने की दक्षता के साथ समझ लिया था और उनके अविश्वास और ना नुकर के बावजूद अपने देशी इलाज से उनकी सारी परेशानी उड़न छू कर दी. स्वस्थ्य होना हर प्रवासी की ज़रूरत होती है जिसे पाकर सहायक महाप्रबंधक, संतोषी जी के अनुरागी बन गये. उसके बाद अगला कदम उनके लिये नियमित रूप से घर के बने दक्षिण भारतीय, शाकाहारी भोजन की व्यवस्था थी जो सिर्फ उनके लिये की जाती गई. निरीक्षण अधिकारी, संतोषी साहब के इस व्यवहार से परम संतुष्ट हो गये और संतोषी जी को बजाए ब्रांच के अपनी निरीक्षण टीम का हिस्सा मानने का सम्मान दिया. जब उन्होंने शाखा के मुख्य प्रबंधक महोदय से संतोषी जी के आतिथ्य की मुक्त कंठ से सराहना की तो मुख्य प्रबंधक भी बोल उठे कि सर,संतोषी साहब को हमने आप लोगों के लिये ही रिजर्व कर दिया है और जब भी आपको उनकी सहायता या सानिध्य की आवश्यकता पड़े,आप निस्संकोच मुझे निर्देश दें या आप उन्हें भी डायरेक्ट बुला सकते हैं.

“ड्राइफ्रूट्स”  बैंक सहित अन्य कार्यालयों का वह अघोषित खर्च होता है जो विशिष्ट अधिकारियों के आगमन पर किया जाता है. ये ऐसा अवसर भी होता है,जब इस बहाने ड्राई फ्रुट्स के स्वाद से बाकी लोग भी परिचित होते हैं. शाम की चाय इनके बिना “हाई टी” का तमगा नहीं पा सकती. इसका एक अघोषित नियम यह भी है जब मेजबान और मेहमान साथ बैठकर हाई टी का आनंद ले रहे हों तो भुने हुये काजू प्लेट से उठाने का अनुपात 1:4 होना चाहिए याने मेजबान एक : मेहमान चार.

इंस्पेक्शन तो अभी चलेगा और परम संतोषी कथा भी. इंस्पेक्शन फेस करने का पहला मूलमंत्र यही है कि कंजूसी मत करो क्योंकि आपकी जेब से नहीं जा रहा है.

यही मूलमंत्र कथा का अच्छा पाठक होने का भी है कि ताली ज़रूर बजाइये वरना आपको मूर्ति याने बुत समझा जा सकता है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 120 ☆ वृत्त – मेनका ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 120 ?

☆ वृत्त – मेनका ☆

 मी अशी का गोंधळाया लागले

बोल माझे अडखळाया लागले

 

वाट माझी वेगळी होती तरी

का बरे इकडे वळाया लागले

 

मेनका मोठी अनोखी अप्सरा

कन्यकेला आकळाया लागले

 

तू तिथे आहेस एकाकी जरी

चंद्र तारेही जळाया लागले

 

लावल्या पैजा जरी त्यांनी किती

मोल त्याचेही ढळाया लागले

 

वेगळी आहे कहाणी आपली

शेवटी आता कळाया लागले

 

ठेव तू बांधून पाण्याला तिथे

डोह आता खळखळाया लागले

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक १८ भाग २ – झांबेझीवर झुलणारी झुंबरं ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १८ भाग २ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ झांबेझीवर झुलणारी झुंबरं  ✈️

झांबिया म्हणजे पूर्वीचा उत्तर ऱ्होडेशिया. या छोट्या देशाभोवती अंगोला, कांगो, टांझानिया, मालावी, मोझांबिक, झिम्बाब्वे ( पूर्वीचा दक्षिण ऱ्होडेशिया ) आणि नामिबिया अशी छोटी छोटी राष्ट्रे आहेत. मे महिन्यापासून ऑगस्टपर्यंत इथले हवामान अतिशय प्रसन्न असते. सुपीक जमीन, घनदाट जंगले, सरोवरे, नद्या, जंगली जनावरांचे कळप, सुंदर पक्षी यांची देणगी या देशाला लाभली आहे. नद्यांवर धरणे बांधून इथे वीज निर्मिती केली जाते. तांब्याच्या खाणी,  झिंक, कोबाल्ट, दगडी कोळसा, युरेनियम, मौल्यवान रत्ने, हिरे तसेच उत्तम प्रतीचा ग्रॅनाइट व संगमरवरी दगड सापडतो.  गाई व मेंढ्यांचे मोठमोठे कळप आढळतात. तंबाखू, चहा-कॉफी ,कापूस उत्पादन होते.  १९६४ साली ब्रिटिशांकडून स्वातंत्र्य मिळाल्यापासून २७ वर्षें राष्ट्राध्यक्ष असलेल्या केनेथ कोंडा यांनी या राष्ट्राला प्रगतीपथावर नेले.

झांबिया आणि झिंबाब्वे यांच्या सरहद्दीवर असलेल्या महाकाय  व्हिक्टोरिया धबधब्याचा शोध, स्कॉटिश मिशनरी संशोधक डॉक्टर डेव्हिड लिव्हिंगस्टन यांना १८५५ मध्ये  लागला. त्यांनी धबधब्याला आपल्या देशाच्या राणी व्हिक्टोरियाचे नाव दिले.५६०० फूट रुंद आणि ३५४ फूट खोल असलेला हा धबधबा जगातील सात नैसर्गिक आश्चर्यांपैकी एक मानला जातो. युनेस्कोने त्याला वर्ल्ड हेरिटेजचा दर्जा दिला आहे.

आम्हाला व्हिक्टोरिया धबधब्याचे खूप जवळून दर्शन घ्यायचे होते. धबधब्याच्या पुढ्यातील डोंगरातून रस्ता तयार केला आहे. रस्ता उंच-सखल, सतत पडणाऱ्या पाण्यामुळे बुळबुळीत झालेला होता. आधारासाठी बांधलेले लाकडी कठड्याचे खांबही शेवाळाने भरलेले होते. मध्येच दोन डोंगर जोडणारा, लोखंडी खांबांवर उभारलेला छोटा पूल होता. गाईड बरोबर या रस्त्यावरून चालताना धबधब्याचे रौद्रभीषण दर्शन होत होते. अंगावर रेनकोट असूनही धबधब्याच्या तुषारांमुळे सचैल  स्नान घडले. शेकडो वर्षे अविरत कोसळणाऱ्या या धबधब्यामुळे त्या भागात अनेक खोल घळी ( गॉरजेस )  तयार झाल्या आहेत. धबधब्याचा नजरेत न मावणारा विस्तार, उंचावरून खोल दरीत कोसळतानाचा तो आदिम मंत्रघोष, सर्वत्र धुक्यासारखे पांढरे ढग….. सारेच स्तिमित करणारे. एकाच वेळी त्यावर चार-चार इंद्रधनुष्यांची झुंबरं झुलत होती. ती झुंबरं वाऱ्याबरोबर सरकत डोंगरकडांच्या झुडपांवर चढत होती. हा नयनमनोहर खेळ कितीही वेळ पाहिला तरी अपुराच वाटत होता. ते अनाघ्रात, रौद्रभीषण सौंदर्य कान, मन, डोळे व्यापून उरत होतं .स्थानिक भाषेत या धबधब्याला  ‘गडगडणारा धूर’ असं म्हणतात ते अगदी सार्थ वाटलं.

मार्गदर्शकाने नंतर झांबेझी नदीचा प्रवाह जिथून खाली कोसळतो त्या ठिकाणी नेले. तिथल्या खडकांवर निवांत बसून पाण्याचा खळखळाट ऐकला. जगातील सगळ्या नद्या या लोकमाता आहेत. इथे या लोकमातांना त्यांचे सौंदर्य आणि स्वच्छता जोपासून सन्मानाने वागविले जात होते.( जागोजागी कचरा पेट्या ठेवलेल्या होत्या ) आपण आपल्या लोकमातांना इतक्या निष्ठूरपणे का वागवितो हा प्रश्न मनात डाचत राहिला.

संध्याकाळी झांबेझी नदीतून दोन तासांची सफर होती. तिथे जाताना आवारामध्ये एकजण लाकडी वाद्य वाजवीत होता. मरिंबा(Marimba ) हे त्या वाद्याचे नाव.पेटीसारख्या  आकारातल्या लाकडी  पट्टयांवर दोन छोट्या काठ्यांनी तो हे सुरेल वाद्य वाजवीत होता. पट्टयांच्या  खालच्या बाजूला सुकलेल्या भोपळ्यांचे लहान-मोठे तुंबे लावले होते.

क्रूझमधून  झांबेझीच्या  संथ आणि विशाल पात्रात फेरफटका सुरू झाला. नदीत लहान-मोठी बेटं होती. नदीतले बुळबुळीत, चिकट अंगाचे पाणघोडे ( हिप्पो ) खडकांसारखे वाटत होते. श्वास घेण्यासाठी त्यांनी पाण्याबाहेर तोंड काढून जबडा वासला की त्यांचे  अक्राळविक्राळ दर्शन घडे.   एका बेटावर थोराड हत्ती, भलेमोठे झाड उपटण्याच्या प्रयत्नात होते. त्यांचे कान राक्षसिणीच्या सुपाएवढे होते .दुसऱ्या एका बेटावर अंगभर चॉकलेटी चौकोन असलेल्या लांब लांब मानेच्या जिराफांचे दर्शन घडले. काळे, लांब मानेचे बगळे, लांब चोचीचे करकोचे, विविधरंगी मोठे पक्षी, पांढरे शुभ्र बगळे, घारी, गरुड या साऱ्यांनी आम्हाला दर्शन दिले. निसर्गाने किती विविध प्रकारची अद्भुत निर्मिती केली आहे नाही?

सूर्य हळूहळू केशरी होऊ लागला होता. सूर्यास्त टिपण्यासाठी सार्‍यांचे कॅमेरे सज्ज झाले. दाट शांतता सर्वत्र पसरली आणि एका क्षणी झांबेझीच्या विशाल पात्रात सूर्य विरघळून गेला. केशरी झुंबरं लाटांवर तरंगत राहिली.

साधारण नव्वदच्या दशकापर्यंत आफ्रिकेला काळे खंड म्हटले जाई. आजही या खंडाचा काही भाग गूढ, अज्ञात आहे. सोनेरी- हिरवे गवत, फुलांचा केशरी, लाल, पांढरा, जांभळा, गुलाबी रंग, प्राणी आणि पक्ष्यांचे अनंत रंग, धबधब्याच्या धवलशुभ्र रंगावर झुलणारी इंद्रधनुष्ये, अगदी मनापासून हसून आपले स्वागत करताना तिथल्या देशबांधवांचे मोत्यासारखे चमकणारे दात….. सगळी रंगमयी दुनिया! हे अनुभवताना नाट्यछटाकार ‘दिवाकर’ यांची एक नाट्यछटा आठवली. ती भूमी जणू म्हणत होती,’ काळी आहे का म्हणावं मी? कशी छान, ताजी, रसरशीत, अगणित रंगांची उधळण करणारी सौंदर्यवती आहे मी!

भाग २ व झांबेझी समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथाएं–[1] बुद्धिजीवी [2] अपने बिल में ☆ डॉ. हंसा दीप ☆

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।

☆ लघुकथाएं – [1] बुद्धिजीवी [2] अपने बिल में ☆ डॉ. हंसा दीप 

☆ बुद्धिजीवी ☆

बस चली जा रही थी। अगले स्टॉप पर कुछ देर रुकी तो एक बहुत बूढ़ी महिला बस में चढ़ी। चूँकि कोई सीट खाली नहीं थी अत: वह डंडा पकड़े खड़ी रही। उसके पास वाली सीट पर एक बुद्धिजीवी-सा नवयुवक बैठा था। वह देख रहा था कि बस के बार-बार हिचकोले खाने से बुढ़िया को बड़ी दिक्कत हो रही थी। बेचारी बमुश्किल स्वयं को गिरने से बचा पा रही थी। उसने सोचा वह खड़ा हो जाए और बुढ़िया को बिठा दे पर न जाने क्यों वह उठा नहीं। सोचा, वह तो इतनी दूर से आ रहा है, वह क्यों उठे! और दूसरे यात्री भी तो हैं क्या कोई भी उसे बिठा नहीं सकता!

ऊँह बिठाना चाहता तो अब तक कोई बिठा ही देता, क्यों न वह ही उठ जाए! बिल्कुल, अब वह उठेगा और बुढ़िया को बिठा ही देगा। वह मन ही मन कई बार दुहरा चुका कि बुढ़िया से कहेगा– “माँजी आप बैठो…” और जब वह खड़ा होगा तो बस के सारे यात्री निश्चित ही उसकी दया से प्रभावित होंगे। सोचेंगे, कितना दयालु है यह! वह सोचता ही रहा और सोचते-सोचते उसे झपकी लग गयी। आँख खुली तब तक बुढ़िया उतर चुकी थी।

☆ अपने बिल में ☆

समर्थ जी बहुत खुश हैं। पिछले बीस सालों से विदेश में रहकर हिन्दी की सेवा कर रहे हैं परन्तु इन दिनों उनकी सेवा लोगों को दिखाई दे रही है। फेसबुक पर उनके पूरे पाँच हजार फ्रेंड्स हैं। पहले तो भारत जाकर रिश्तेदारों से मिल-मिला कर आ जाते थे पर इन दिनों भारत यात्रा की बात ही कुछ और है। फेसबुक के मित्र उनके लिये सम्मान समारोह रखते हैं। अब हर साल की एक भारत यात्रा पक्की कर ली है जिसमें कम से कम पच्चीस सम्मान समारोह न हो तो जाने का आनंद ही क्या! भारत से जब लौटते हैं तो अगली यात्रा के इंतज़ार में कई फूल मालाओं का वजन गर्दन पर महसूस होता रहता है। यहाँ की ठंड में मफलर पहनते हैं तो लगता है यह मफलर नहीं वे ही फूल हैं जो उन्हें इस ठंड में गर्मी दे रहे हैं। 

इस बार उन्हीं मित्रों में से एक मित्र अनादि बाबू विदेश की सैर पर आए। अनादि जी की दिली इच्छा थी कि जैसा सम्मान उन्होंने अपने मित्र समर्थ जी का भारत में किया वैसा ही शानदार कार्यक्रम अनादि बाबू के लिये यहाँ किया जाए। बस यहीं आकर समर्थ जी फँस गए क्योंकि वे जानते थे कि उनके अपने शहर में उनकी कितनी इज्जत है, उन्हें कोई घास तक नहीं डालता। अब वे फूलों के हार उन्हें गले में लिपटे साँप की तरह भयानक लग रहे थे व फूँफकारते हुए साँप उन्हें बिल में घुसने के लिये मजबूर कर रहे थे।

☆☆☆☆☆

© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 21 – सजल – राह देखता खड़ा सुदामा… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है बुंदेली गीत  “राह देखता खड़ा सुदामा … । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 21 – सजल – राह देखता खड़ा सुदामा …

समांत- ईते

पदांत- अपदांत

मात्राभार- 16

 

श्रमिक-रोज शंका में जीते ।

दुख के आँसू खुद ही पीते।।

 

राह देखता खड़ा सुदामा,

शासक के बस हुए सुभीते।

 

फल तो कई फले हैं लेकिन,

खाने को कब मिले पपीते।

 

अखबारों में छपी योजना,

तंत्र लगाते रहे पलीते।

 

तन-गरीब ऐसे हैं ढकते,

सुइ-धागों से थिगड़े सीते।

 

हर गरीब का जीना दूभर,

कैसे उनका जीवन बीते।

 

सबने पाल रखे हैं सपने।

पर उनके दिल दिखते रीते।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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