हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #128 ☆ व्यंग्य – घर आया मेहमान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘घर आया मेहमान’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 128 ☆

☆ व्यंग्य – घर आया मेहमान

मुरली बाबू उस वक्त आनन्द और सुकून की स्थिति में थे। सुबह का खुशनुमा शान्त माहौल, लॉन की हरयाली, हाथ में चाय का प्याला और बतयाने के लिए बगल में पत्नी। कलियुग में इससे ज़्यादा और क्या चाहिए? तभी गेट के सामने ऑटो रुका। मुरली बाबू के कान खड़े हुए। इतने सबेरे कौन मेहमान अवतरित हुए? गर्दन उठाकर देखा तो ऑटो से उतरता आदमी अपरिचित लगा। आधे मिनट बाद वे सज्जन मुरली बाबू और उनकी पत्नी के चरणों से लग गये। पूरे दाँत चमका कर बोले, ‘पहचाना नहीं, सर? मैं चिन्टू, आपके साले नन्दू भाई का दोस्त। दीदी तो मुझे अच्छी तरह से जानती हैं। पिछली बार आप ससुराल आए थे तो मैंने आपके चरण छुए थे।’

मुरली बाबू को कुछ कुछ याद आया। चिन्टू बाबू कुर्सी ग्रहण करके बोले, ‘यहाँ यूनिवर्सिटी में कॉपी जाँचने आया हूँ। छः-सात दिन का काम है। यहाँ कहीं भी रुक जाता, दो चार दोस्त हैं, लेकिन सोचा मौका मिला है तो सर और दीदी के साथ चार छः दिन बिता लूँ।ऐसा मौका फिर कहाँ मिलेगा? नन्दू भाई ने भी कहा था कि जब जीजाजी हैं तो कहीं और क्यों ठहरना? कहीं और ठहरोगे तो उनको बुरा लगेगा।’

चिन्टू बाबू प्रेम से जम गये। नाश्ते के बाद स्नान हुआ। मुरली बाबू अपनी चप्पल ढूँढ़ने लगे तो पता चला वह चिन्टू बाबू के चरणों में है। थोड़ी देर में चिन्टू बाथरूम में टँगे, मुरली बाबू के तौलिए से बदन पोंछते प्रकट हुए। हँस कर बोले, ‘मैं हमेशा तौलिया चप्पल रखना भूल जाता हूँ। बाजार तरफ जाऊँगा तो तौलिया खरीद लूँगा। चप्पल तो थोड़ी देर को चाहिए।’

दीदी से बोले, ‘दीदी, टिफिन दे दीजिएगा। लौटते लौटते शाम हो जाएगी। पता नहीं वहाँ खाने पीने की कोई ठीक जगह है या नहीं। परदेस में वैसे भी थोड़ा सावधान रहना चाहिए।’

वे कॉपी जाँचने के अपने हथियार लेकर विदा हुए। शाम को लौटे तो थके थके कुर्सी में धँस गये। बोले, ‘थकाने वाला काम है।’

मुरली बाबू का बारह साल का बेटा टीनू उनके आगमन का कारण जानकार उत्सुक था। बोला, ‘अंकल, आप कॉपी चेक करने आये हैं?’

चिन्टू बाबू ने उत्साह से जवाब दिया, ‘हाँ बेटा।’

टीनू ने पूछा, ‘एक दिन में कितनी कॉपियाँ चेक कर लेते हैं?’

चिन्टू बाबू बोले, ‘अरे यहां बड़े कानून- कायदे हैं। दिन भर में सत्तर कॉपियों से ज्यादा नहीं देते। हम तो दिन भर में आराम से डेढ़ सौ कॉपियाँ खींच देते हैं।’

टीनू आँखें फैलाकर बोला, ‘डेढ़ सौ चेक कर सकते हैं? इतनी सारी कैसे पढ़ लेते हैं?’

चिन्टू बाबू गर्व से बोले, ‘पढ़ना क्या है? थोड़ा थोड़ा देख लेते हैं। हंडी के एक चावल से पूरी हंडी की हालत का पता चल जाता है। एक नजर में समझ में आ जाता है कि लड़का कितने पानी में है।’

टीनू बोला, ‘स्टूडेंट आलू-चावल होते हैं क्या?’

चिन्टू बाबू झेंप कर बोले, ‘मेरा वो मतलब नहीं। उदाहरण दे रहा था। घर छोड़कर यहाँ आये हैं। ज्यादा कॉपियाँ दें तो जल्दी खतम करके आगे बढ़ें। दूसरी यूनिवर्सिटी भी जाना है।’

फिर मुरली बाबू की तरफ मुँह घुमा कर बोले, ‘सर, यह हम लोगों का सीजन है। तीन चार यूनिवर्सिटी भी हो लिये तो बीस पचीस हजार खड़े हो जाएँगे। सब्जी-भाजी का इंतजाम हो जाएगा।’

दो-तीन दिन बाद एक शाम लौटे तो बड़े दुखी थे। बोले, ‘आज मैंने कॉपियों का एक बंडल ज्यादा ले लिया तो मुझे उल्टी सीधी बातें सुनायीं। कहने लगे आपने ज्यादा क्यों ले लिया। अब बताइए हमारा क्या कसूर है? आपने दे दिया तो हमने ले लिया। आप नहीं देते तो हम कहाँ से ले लेते? इस यूनिवर्सिटी का काम धाम ठीक नहीं है। यहां टीचर की इज्जत नहीं है।’

फिर एक दिन लौटे तो उनके बीस इक्कीस साल के सुपुत्र साथ थे। हँसते हँसते बोले, ‘मैं पंद्रह बीस दिन से घर से निकला हुआ हूँ। इस बीच घर में खबर नहीं दे पाया तो वाइफ ने घबराकर इसे ढूँढ़ने के लिए भेज दिया। वहीं यूनिवर्सिटी में भेंट हुई। बात यह है सर, कि मोबाइल मैं रखता नहीं क्योंकि कहीं भी छूट जाता है और टेलीफोन बूथ ढूँढ़ने में आलस लगता है।’

सुपुत्र एक रात पिताजी के साथ काट कर दूसरे दिन निश्चिन्त विदा हुए।

जिस दिन काम खत्म हुआ उस दिन चिन्टू बाबू कुछ उदास थे। मुरली बाबू से बोले, ‘ज्यादा नहीं, सात हजार का ही बिल बना, सर। चलो, जो भी मिल जाए। अभी दो यूनिवर्सिटी और बाकी हैं।’

फिर हँसकर बोले, ‘आपसे बतायें, बड़ा गड़बड़ हुआ,सर। मेरा चश्मा घर पर ही छूट गया था इसलिए कॉपियाँ जाँचने में काफी दिक्कत हुई। बेटा भी लेकर नहीं आया। खैर कॉपियाँ तो किसी तरह जँच गयीं, लेकिन बिल बनाने के लिए एक टीचर का चश्मा माँगना पड़ा। बिल गलत बन जाता तो बड़ा नुकसान हो जाता।’

चलते वक्त दीदी के पाँव छू कर बोले, ‘दीदी, अब अगले साल आऊँगा, तब फिर आपके हाथ का प्रसाद पाऊँगा।’

दीदी घबरा कर बोलीं, ‘अगले साल हमारा साउथ घूमने जाने का प्लान है। शायद हम लोग उस वक्त घर पर नहीं रहेंगे।’

चिन्टू निश्चिन्त भाव से बोले, ‘आप पड़ोस में चाबी दे दीजिएगा। घर में तो सब चीज मैंने देख ही ली है। गैस रहेगी ही। मैं खटर-पटर करके चार रोटी सेंक लूँगा। आपसे फोन पर बात करके सब ‘सेट’ कर लूँगा।’

फिर बोले, ‘ऐसा करूँगा, वाइफ को साथ लेता आऊँगा। वे किचन सँभाल लेंगीं। उनका भी घूमना हो जाएगा।’

इस तरह अगले साल फिर आने का वादा करके चिन्टू बाबू खुशी खुशी इस घर से किसी दूसरे घर के लिए विदा हुए।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ English translation of Urdu poetry couplets of Pravin ‘Aftab’ # 80 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

English translation of Urdu poetry couplets of Pravin ‘Aftab’ # 80 ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of Pravin Aftab # 80 ☆

(Today, enjoy some of the Urdu poetry couplets written and translated in English by Pravin ‘Aftab’.  Pravin ‘Aftab’ is nick name of Capt. Pravin Raghuvanshi.)

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

यादों के मिजाज भी

बड़े अजीब हुआ करते हैं,

कोई पास ना हो फिर भी

वो बहुत करीब होते हैं…

☆ ☆ ☆ ☆ ☆ 

Moods of memory happen

to be intriguingly strange,

Even if, there is no one near,

they’re passionately close…!

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

अगर फिर किसी मोड़ पर मिलूँ

तो मुँह जरूर फ़ेर लेना 

वरना, पुराना इश्क है, अगर दुबारा

मिले तो कयामत ही आ जाएगी …

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

If I ever meet you at some point

you must turn away your face…

It’s an age-old love, meeting again,

will certainly result in catastrophe…!

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

Pravin ‘Aftab’

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 126 ☆ शून्योत्सव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 126 ☆ शून्योत्सव ?

शून्य उत्सव है। वस्तुतः महोत्सव है। शून्य में आशंका देखते हो, सो आतंकित होते हो। शून्य में संभावना देखोगे तो  प्रफुल्लित होगे। शून्य एक पड़ाव है आत्मनिरीक्षण के लिए। शून्य अंतिम नहीं है। वैसे प्रकृति में कुछ भी अंतिम नहीं होता। जीवन, पृथ्वी सब चक्राकार हैं। प्रकृति भी वृत्ताकार है। हर बिंदु परिधि की इकाई है और हर बिंदु में नई परिधि के प्रसव की क्षमता है। प्रसव की यह क्षमता हर बिंदु के केंद्र बन सकने की संभावना है।

यों गणित में भी शून्य अंतिम नहीं होता। वह संख्याशास्त्र का संतुलन है। शून्य से पहले माइनस है। शून्य के बाद प्लस है। माइनस में भी उतना ही अनंत विद्यमान है, जितना प्लस में। शून्य पर जल हिम हो जाता है। हिम होने का अर्थ है, अपनी सारी ऊर्जा को संचित कर काल, पात्र, परिस्थिति के अनुरूप दिशा की आवश्यकतानुसार प्रवहमान होना। शून्य से दाईं ओर चलने पर हिम का विगलन होकर जल हो जाता है। पारा बढ़ता जाता है। सौ डिग्री पारा होते- होते पानी खौलने लगता है। बाईं ओर की यात्रा में पारा जमने लगता है। एक हद तक के बाद हिमखंड या ग्लेशियर बनने लगते हैं। हमें दोनों चाहिएँ-खौलता पानी और ग्लेशियर भी। इसके लिए शून्य होना अनिवार्य है।

शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य में विलाप सुननेवाले नादान हैं। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए कानों को ट्यून करना होगा। अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी।

स्मृति में अपनी एक रचना कौंध रही है-

शून्य अवगाहित / करती सृष्टि,

शून्य उकेरने की / टिटिहरी कृति,

शून्य के सम्मुख / हाँफती सीमाएँ,

अगाध शून्य की / अशेष गाथाएँ,

साधो…!

अथाह की / कुछ थाह मिली

या फिर शून्य ही / हाथ लगा?

शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाएँ। अपने अपने शून्य का रसपान करें। शून्य में शून्य उँड़ेलें, शून्य से शून्य उलीचें।…इति।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह #81 ☆ मुक्तिका – सुभद्रा ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘मुक्तिका – सुभद्रा ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 81 ☆ 

☆ मुक्तिका – सुभद्रा ☆

वीरों का कैसा हो बसंत तुमने हमको बतलाया था।

बुंदेली मर्दानी का यश दस दिश में गुंजाया था।।

 

‘बिखरे मोती’, ‘सीधे सादे चित्र’, ‘मुकुल’ हैं कालजयी। 

‘उन्मादिनी’, ‘त्रिधारा’ से सम्मान अपरिमित पाया था।।

 

रामनाथ सिंह सुता, लक्ष्मण सिंह भार्या तेजस्वी थीं। 

महीयसी से बहनापा भी तुमने खूब निभाया था।।

 

यह ‘कदंब का पेड़’ देश के बच्चों को प्रिय सदा रही। 

‘मिला तेज से तेज’ धन्य वह जिसने दर्शन पाया था।।

 

‘माखन दादा’ का आशीष मिला तुमने आकाश छुआ। 

सत्याग्रह-कारागृह को नव भारत तीर्थ बनाया था।।

 

देश स्वतंत्र कराया तुमने, करती रहीं लोक कल्याण। 

है दुर्भाग्य हमारा, प्रभु ने तुमको शीघ्र बुलाया था।।

 

जाकर भी तुम गयी नहीं हो; हम सबमें तुम ज़िंदा हो। 

आजादी के महायज्ञ को तुमने सफल बनाया था।।

 

जबलपुर की जान सुभद्रा, हिन्दुस्तां की शान थीं।  

दर्शन हुए न लेकिन तुमको सदा साथ ही पाया था।।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१५-२-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुस्तक चर्चा – आत्मानंद साहित्य #110 ☆ ‌सोनपरी – श्री रमेश सिंह यादव ‘मौन’ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 110 ☆

☆ ‌पुस्तक चर्चा – सोनपरी – श्री रमेश सिंह यादव ‘मौन’ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

 

पुस्तक का नाम – सोनपरी 

रचना कार – श्री रमेश सिंह यादव ‘मौन’

विधा – हिंदी काव्य।

प्रकाशक – नोशन प्रेस

मूल्य– ₹ 135

उपलब्ध – अमेज़न लिंक  >> सोनपरी  फ्लिपकार्ट लिंक >> सोनपरी 

☆ पुस्तक चर्चा –  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

यह वृत्तांत नहीं है कोरा,

यह जीवन की जीवंत परिभाषा।

सोन परी अब लौट गई घर,

बची रही केवल अभिलाषा।

एहसास कराती मानवता की,

खुद मानवता की थी परिभाषा।

सोन परी थी सोने जैसी,

उम्मीद किरण की आशा।

असमय छोड़ गई वह सबको,

और हिया में दे गई पीर।

जब जब करता याद उसे,

तब मेरा मन होता अधीर।

लिखते पढ़ते  सोन परी को,

आंखें मेरी भर आई,।

उसके संग जो समय बिताया ,

मेरी स्मृतियों में उतर आई।

रचनाकार – सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

यूँ  तो हिंदी साहित्य जगत में रचनाएं होती रही है  जो विद्वत समाज द्वारा तथा पाठक वर्ग द्वारा सराही जाती रही है, उन्ही कृतियों के बीच कभी कभी ऐसे रचनाकार या उनकी कृतियां हाथों में  आ जाती है जो बरबस दिमाग से होती हुई दिल में उतर जाती है, और सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका होती आवरण पृष्ठ की जो सहज में ही पाठक को आकृष्ट तो करता ही है, लेखन सामग्री के बारे मूक शब्दों बहुत कुछ आभास करा देता है और यही उक्ति चरितार्थ होती दीख रही है सोनपरी के बारे में। बाकी ज्यादा लिखना तो कटोरी भर पानी में चांद को समेटने जैसा टिट्टिभ प्रयास है बाकी साहित्य का पूर्ण आनंद लेने के लिए इस कृति का आदि से अंत तक पढ़ना आवश्यक है, यह लेखक के दृढ़ इक्षाशक्ति का परिचायक भी है, इसके सारे अध्याय सोनपरी के जीवन का दर्शन है जो कभी गुदगुदाती है तो कभी भावुक कर जाती है।

यह हर पुस्तकालय की शोभा बढ़ाने में सक्षम है और हम कामना करते हैं कि साहित्यकार श्री रमेश सिंह यादव “मौन” जी इसी तरह साहित्य सेवा में तन्मयता के साथ अग्रसर हो कर  अपने साहित्य के द्वारा समाज के सही रास्ता दिखाते रहेंगे। हम उनके उज्वल भविष्य की मंगल मनोकामना करते हैं।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ अंतर्बोल ☆ सुश्री उषा जनार्दन ढगे ☆

सुश्री उषा जनार्दन ढगे

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? अंतर्बोल  ? ☆ सुश्री उषा जनार्दन ढगे ☆ 

फांदीवरी येऊनी बैसली

यौवना ही अशी एकांती

चलबिचल चाले अंतरात

मनी विचार दाटूनी येती..

वाटे तिजसी कुणीच नसावे

आज माझ्या अवतीभवती

गहिरे अंतर्बोल ह्रदयातले

पुस्तकामधूनही डोकाविती..

धुंदमंद मोकळ्या हवेत

निसर्गाचिया सान्निध्यात

अस्फुटसे बोल अंतरीचे

गूज-गुपीत राखी मनांत..

बंधही होती तरलशिथिल

हरपले जगताचेही भान

स्मरविव्हळ त्या शब्दांनी

झूलती बोल गाती आत्मगान..!

चित्र साभार – सुश्री उषा जनार्दन ढगे 

© सुश्री उषा जनार्दन ढगे

 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #130 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 17 – “ख़ैरात” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “ख़ैरात …”)

? ग़ज़ल # 17 – “ख़ैरात…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

बात तो उनसे होती है मगर वो बात नहीं होती,

अब वैसी दिलचस्प हमारी मुलाक़ात नहीं होती।

 

मसरूफ़ियत बन चुकी शातिर अन्दाज़ की सौतन 

साथ होकर भी कोई बात ए ज़ज़बात नहीं होती।

 

जुबां तो खूब चलती है दोनों की देर तलक,

अजीब बात है मगर कोई बात ही नहीं होती।

 

पहले पूरी रात गुज़र ही जाती थी बातों में,

अब बात के इंतज़ार में ख़त्म रात नहीं होती।

 

जुबां उनकी अब खुलती है बहुत मुश्किल से,

आँखों आँखों में भी उनसे बात नहीं होती।

 

अश्कों से दामन भीग जाता था बातों-बातों में,

अब आँख भर आती हैं मगर बरसात नहीं होती।

 

बदल चुके जमाने के रिवाज कुछ इस क़दर,

किसी को ढाई हर्फ़ों की अता ख़ैरात नहीं होती।

 

दामन फैलाए बैठे हैं कब से इश्क़ की महफ़िल में,

आतिश दिल की दिल से कोई बात नहीं होती।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा 69 ☆ गजल – ’’अमर विश्वास के बल पर’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “अमर विश्वास के बल पर”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 69 ☆ गजल – ’अमर विश्वास के बल पर’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

सुनहरी जिन्दगी के स्वप्न देखे सबने जीवन भर

सुहानी भोर की पर रश्मियाँ कम तक पहुँच पाई।।

रहीं सजती सँवरती बस्तियाँ हर रात सपनों में

और दिल के द्वार पै बजती रही हर रोज शहनाई।।

भरी पैंगें सदा इच्छाओं ने साँसों के झूलों पर

नजर भी दूर तक दौड़ी सितारों से भी टकराई।।

मगर उठ-गिर के सागर की लहर सी तट से टकराके

हमेशा चोट खा के अनमनी सी लौट फिर आई।।

मगर ऐसे में भी हिम्मत बिना हारे जो जीते हैं

भरोसे की कली मन की कभी जिनकी न मुरझाई।।

कभी तकदीर से अपनी शिकायत जो नहीं करते

स्वतः हट जाती उनकी राह से हर एक कठिनाई।।

समय लेता परीक्षा पर किया करता प्रशंसा भी

विवश हार उससे जीत भी आती है शरमाई।।

अमर अपने सुदृढ़ संकल्प औ’ विश्वास के बल पर

सभी ने अपनी मनचाही ही सुखद मंजिल सदा पाई।।         

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

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 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #80 – जब राजा का घमंड टूटा ! ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #80 – जब राजा का घमंड टूटा ! ☆ श्री आशीष कुमार

एक राज्य में एक राजा रहता था जो बहुत घमंडी था। उसके घमंड के चलते आस पास के राज्य के राजाओं से भी उसके संबंध अच्छे नहीं थे। उसके घमंड की वजह से सारे  राज्य के लोग उसकी बुराई करते थे।

एक बार उस गाँव से एक साधु महात्मा गुजर रहे थे उन्होंने ने भी राजा के बारे में सुना और राजा को सबक सिखाने की सोची। साधु तेजी से राजमहल की ओर गए और बिना प्रहरियों से पूछे सीधे अंदर चले गए। राजा ने देखा तो वो गुस्से में भर गया । राजा बोला – ये क्या उदण्डता है महात्मा जी, आप बिना किसी की आज्ञा के अंदर कैसे आ गए?

साधु ने विनम्रता से उत्तर दिया – मैं आज रात इस सराय में रुकना चाहता हूँ। राजा को ये बात बहुत बुरी लगी वो बोला- महात्मा जी ये मेरा राज महल है कोई सराय नहीं, कहीं और जाइये।

साधु ने कहा – हे राजा, तुमसे पहले ये राजमहल किसका था? राजा – मेरे पिताजी का। साधु – तुम्हारे पिताजी से पहले ये किसका था? राजा– मेरे दादाजी का।

साधु ने मुस्करा कर कहा – हे राजा, जिस तरह लोग सराय में कुछ देर रहने के लिए आते है वैसे ही ये तुम्हारा राज महल भी है जो कुछ समय के लिए तुम्हारे दादाजी का था, फिर कुछ समय के लिए तुम्हारे पिताजी का था, अब कुछ समय के लिए तुम्हारा है, कल किसी और का होगा, ये राजमहल जिस पर तुम्हें इतना घमंड है।

ये एक सराय ही है जहाँ एक व्यक्ति कुछ समय के लिए आता है और फिर चला जाता है। साधु की बातों से राजा इतना प्रभावित हुआ कि सारा राजपाट, मान सम्मान छोड़कर साधु के चरणों में गिर पड़ा और महात्मा जी से क्षमा मांगी और फिर कभी घमंड ना करने की शपथ ली।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 90 – रेशीमगाठी ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 90 – रेशीमगाठी ☆

प्रेमाचे सार

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©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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