हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 100 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 11 – …लरका रोबैं न्यारे खौं ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 100 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 11 – …लरका रोबैं न्यारे खौं ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अथ श्री पाण्डे कथा (1)

पांडे रोबैं रोटी खौं, पांडेन रोबैं धोती खौं, लरका रोबैं न्यारे खौं।

शाब्दिक अर्थ :- विपन्नता की स्थिति में खान पान और रहन सहन पूरा अस्त व्यस्त हो जाता है।

कोपरा नदी के किनारे बसे खेजरा गाँव में सजीवन पाँडे अपनी पत्नी रुकमणी व पुत्र भोला के साथ शिव  मंदिर के बाड़े में छोटी सी कुटिया बनाकर रहते थे। सजीवन पाँडे बड़े भुनसारे उठते, झाड़े जाते, नित्य क्रिया से फुरसत हो कोपरा नदी में 5-6 डुबकी लगा स्नान करते। स्नान के पूर्व अपनी  धोती को धोकर सुखाने के लिए बगराना न भूलते। ऐसा नहीं था की सजीवन पाँडे के पास इकलौती धोती थी, उनके पास धोती, कुर्ता और गमछा एक और सेट था, जिसे वे बड़ा संभालकर रखते और जब कभी कोई बड़ा जजमान उन्हे कथा पूजन में बुलाता तो इन कपड़ों को पहन माथे पर बड़ा सा त्रिपुंड टीका लगाकर, काँख में पोथी पत्रा दबाकर बड़े ठाट से जजमानी करने जाते। जजमानी में जाते वक्त उनकी इच्छा होती की जजमान दान दक्षिणा में एक सदरी दे दे तो उनका कपड़ों का सेट पोरा हो जाय। लोधी पटेलों और काछियों की इस गरीब बसाहट में उनकी इच्छा न तो भगवान ही सुनते और न ही जजमान। यदाकदा सजीवन पाँडे अपने साथ पंडिताइन व एकलौते पुत्र भोला को भी ले जाते। पंडिताइन तो अपने बक्से में  से बड़ी सहेज कर रखी गई साफ सुथरी साड़ी निकाल कर पहन लेती।  पंडिताइन के जीवन में यही अवसर होता जब वे नारी श्रंगार का संपूर्ण सुख भोगती, साड़ी को पेटीकोट पोलका के साथ पहनती और माथे पर टिकली बिंदी पैरों में महावर लगाती। इस पूरे श्रंगार से पंडिताइन का गोरा मुख चमक उठता और सजीवन पाँडे भी उनके रूप की प्रशंसा कर उठते पर यह कहते हुये कि भोला की अम्मा तुम्हें कोई सुख न दे पाया उनकी आँखे गीली हो जाती गला रूँध जाता। ऐसे में पंडिताइन ही सजीवन पाँडे को ढाढ़स बँधाती और कहती भोला के दद्दा चिंता ना करों हमारे दिन भी बहुरेंगे, शंकर भगवान कृपा करेंगे, आखिर बारा बरस में घूरे के दिन भी फिरत हैंगे। अम्मा दद्दा तो साज सँवर जाते पर  भोला  के भाग में चड्डी बनियान ही थी उस दिन सुबह सबरे से अम्मा भोला के कपड़े उतार बड़े जतन से धोती और सूखा देती तब तक  भोला नंग धड़ंग रहते और घर से बाहर न निकलते। उगारे भोला कुटिया के एक कोने में बैठे बिसुरते रहते। जाने के ठीक पहले उन्हे भी नहला धुलाकर चड्डी बनियान में सुसज्जित कर दिया जाता। कुलमिलाकर शिवालय के शंकरजी की पिंडी की सेवा व आसपास के गाँवों की जजमानी से सजीवन पाँडे की घर ग्रहस्ती चल रही थी या कहें कि घिसट रही थी  और उन पर यह कहावत कि “पाँडे रोबैं रोटी खौं, पाँडेन रोबैं धोती खौं, लरका रोबैं न्यारे खौं” (विपन्नता की स्थिति में खान पान और रहन सहन पूरा अस्त व्यस्त हो जाता है) तो फिट ही बैठती।

समय चक्र चलता रहा, भोला पाँडे इन्ही विपन्न परिस्थितियों में, अपने बाप सजीवन पाँडे की पंडिताई में सहायता करते हुये, हिन्दी व संस्कृत का अल्प ज्ञान ले, किशोर हो चले। गाँव में कोई स्कूल न था और हटा अथवा दमोह जहाँ पढ़ाने लिखाने की अच्छी व्यवस्था थी वहाँ भोला को भेज पाने की न तो सजीवन पांडे की आर्थिक हैसियत थी और न ही कोई जजमान या रिश्तेदार का घर जहाँ भोला को रख अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाया जा सके। उनकी उम्र कोई 14-15 वर्ष रही होगी कि सजीवन पाँडे को पुत्र के ब्याह की चिंता होने लगी। घर में तो भारी विपन्नता थी अत: पंडिताइन ने भोला का ब्याह तय करने में पति को सलाह देते हुये कहा कि भोला के दद्दा लरका को ब्याव ऐसी जागा करिओ जो कुलीन घर के होयं और खात पियत मैं अपनी बरोबरी के होयं। हमाइ बऊ कैत हती कै “सुत ऐसे घर ब्याहिए, जो समता में होय। खान पान बेहार में मिलता –जुलता होय।।“ सजीवन पाँडे को पत्नी की सलाह भा गई और साथ ही उन्हे  पास ही के गाँव इमलिया  के एक उच्च कुल के गरीब  ब्राह्मण व अपने बाल सखा राम मिलन तिवारी की याद आई। फिर क्या था बजाय संदेसन खेती करने के सजीवन पांडे अपने मित्र से मिलने इमलिया चले गए और उनकी कन्या से अपने पुत्र के विवाह की चर्चा  घुमा फिरा कर छेड  घर वापस आ गये। राम मिलन तिवारी  अपने बाल सखा का मंतव्य न समझ सके पर उनकी धर्मपत्नी जो ओट में बैठी दोनों मित्रों की बात सुन रही थी सब समझ गई। सजीवन पाँडे के वापस जाते ही उसने राम मिलन तिवारी से उनके मित्र के घर आने का कारण बताया और पुत्री के विवाह की चर्चा आगे बढ़ाने ज़ोर डाला। दोनों मित्र एक बार फिर मिले और भोला पाण्डेय का ब्याह तय कर दिया। राम मिलन तिवारी  बड़े कुलीन ब्राह्मण थे अत: उनके घर लक्ष्मी कभी कभार ही आती, लेकिन गाँव के लोगों ने इमलिया के इस सुदामा पर बड़ी कृपा करी और लड़की का ब्याह भोला पाँडे से करवाने पूरी सहायता करी। लोधी पटेलों ने  अन्न चुन्न दे दिया तो काछी सब्जी भाजी लेता आया। बजाजी ने दो चार जोड़ी  कपड़ा लत्ता की व्यवस्था कर दी तो कचेर ने टिकली बिंदी चूड़ी और श्रंगार का समान दे दिया। गाँव भर के युवा बारात के सेवा टहल के लिए आगे आए। राम मिलन तिवारी मौड़ी के ब्याह में कुछ खास दहेज न दे पाये बस किसी तरह नेंग- दस्तूर पूरे कर दिये। सजीवन पाँडे भी यारी दोस्ती के फेर में पड़ गए और पंडिताइन के लाख समझाने- बुझाने पर भी अपने मित्र से कुछ माँग न सके। ब्याह की भावरें पड़ी, बारातियों ने पंगत में पूरी, सुहारी, आलू की रसीली सब्जी में डुबो डुबोकर खाये और पचमेर की जगह केवल लड्डू बर्फी का आनंद लिया। सब्जी में आलू के टुकड़े ढूंढने से मिलते पर बारातियों ने उफ्फ न करी, हाँ । पत्तल की भोजन सामग्री खतम होती कि उसके पहले ही दोनों में गौरस परस दिया गया फिर क्या था बारात में आए पंडित रिश्तेदारों और खेजरा के अन्य ग्रामीणों  ने चार चार पूरी मींजकर गौरस में डाली और 5 मिनिट में ही उसे सफाचट कर गए। पंगत को भोजन का आनंद लेते देख राम मिलन तिवारी  बड़े प्रसन्न हुये और हुलफुलाहट में पूछ बैठे और कुछ महराज। उनका इतना कहना था कि पंगत में से आवाज आई दो-दो पूरी शक्कर के साथ और हो जाती तो सोने में सुहागा हो जाता। चिंतित राम सजीवन कुछ कहते  या पंगत में बिलोरा होता उसके पहले ही इमलिया के घिनहा बनिया बोल पड़े जो आज्ञा महराज और धीरे से बाहर निकल अपनी दुकान से एक बोरी शक्कर उठा लाये। फिर क्या था इधर पंगत शक्कर  के साथ दो दो  पूरी और उदरस्त कर रही थी कि चुन्नु नाई ने यह बोलते हुये पंगत समाप्त करने की सोची “समदी माँगे दान दायजौ, लरका माँगै जोय.सबै बाराती जो चहें अच्छी पंगत होय॥“ उधर राम मिलन आखों मे कृतज्ञता का भाव लिए घिनहा बनिया की ओर ताक रहे थे और मन  ही मन सोच रहे थे कि लड़की को अच्छा वर मिला तो लड़के को सुंदर कन्या मिली बराती भी गाँव वालों के सहयोग से अच्छी पंगत पा गए बस समधी ही दान दहेज से वंचित रह गए। पर उनके बस में दान दहेज देना न था। घर की विपन्नता में दो जून की रोटी का जुगाड़ हो जाता यही बहुत था। वे बारबार बांदकपुर के भोले शंकर जागेशवरनाथ और हटा की चंडी माता का सुमरन कर रहे थे कि सजीवन पाण्डेय उनके पास विदा लेने आ पहुँचे। अश्रुपूरित आखों से राममिलन तिवारी ने अपने बाल सखा की ओर देखा और फिर नए समधी और दामाद भोला पांडे  को साष्टांग दंडवत कर प्रणाम किया। रुँधे गले से उनके मुख से बस इतना ही निकला कि महराज हमाई स्थिति से आप परचित हो कोनौ कमी रै गई होय और अनुआ होय  तो क्षिमा करियों। इतना कह वे अपनी गरीबी के  दुर्भाग्य पर फूट फूट कर रो पड़े। सजीवन पांडे ने समधी को गले लगाया और दुरागमन की बात आगे कभी करने की कह विदा ली।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी #23 – ☆ कथा – कहानी # 23 – असहमत और पुलिस अंकल : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆ ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ  में असहमत के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)   

☆ कथा – कहानी # 23 – असहमत और पुलिस अंकल : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

पुलिस इंस्पेक्टर जॉनी जनार्दन, असहमत के पिताजी के न केवल सहपाठी थे, बल्कि गहरे दोस्त भी थे और हैं भी.जब तक उनकी पोस्टिंग, असहमत और उनके शहर में रही, असहमत के लिये मौज़ा ही मौजा़ वाली स्थिति रही बस एक कष्ट के अलावा. और ये कष्ट था उनकी धुप्पल खाने का. अब आप यह भी जानना चाहेंगे कि ये धुप्पल किस चिड़िया का नाम है और पुलिसकर्मियों से इसका क्या संबंध है. दर असल ये असहमत की पीठ पर लगाया जाने वाला पुलिस अंकल का स्नेहसिक्त प्रसाद है जो पुलिसिया हाथ की कठोरता के कारण असहमत को जोर से लगता था. इसका, असहमत के फेल होने, गल्ती करने या अवज्ञा करने से कोई संबंध नहीं था. ऐसा भी नहीं है कि ये प्रणाम नहीं करने से मिलता था, बल्कि ये प्रणाम के बाद मिलने वाला पुलसिया प्रसाद था जो बैकबोन को हलहला देता था. पर बदले में असहमत भी इसका पूरा फायदा उठाता था, अपने हमउम्रों पर धौंस जमाने में. उसकी दिली तमन्ना थी कि जानी जनार्दन अंकल की पुलसिया मोटरसाइकिल पर वो भी उनके साथ बैठकर शहर घूमे ताकि नहीं जानने वाले भी जान जायें कि इस असहमत रूपी नारियल को कभी फोड़ना नहीं है. ये तो पुलिस थाने के परिसर में बने मंदिर में चढ़ा नारियल है जो भगवान को पूरी तरह से समर्पित कर दिया गया है. इसका प्रसाद नहीं बंटता बल्कि उनका ज़रूर (प्रसाद) बंटता है जो ऐसा सोचते भी हैं. जब भी जॉनी पुलिस अंकल घर आते उनकी चाय पानी की व्यवस्था असहमत की जिम्मेदारी होती और यहां “चाय पानी” का मतलब सिर्फ पहले पानी और फिर कम शक्कर वाली चाय उपलब्ध कराना ही था, दूसरी वाली चाय पानी इंस्पेक्टर साहब स्वयं बाहर से करने के मामले में आत्मनिर्भर थे.

जब तक पुलिस अंकल की पोस्टिंग शहर में रही, “चाचू तो हैं कोतवाल, अब डर काहे का” वाली हैसियत और औकात बनी रही. पहचान के लोग डराये नहीं जाते बल्कि अपने आप डरते थे और लिहाज करते थे. यहाँ लिहाज़ का मतलब धृष्टता पर होने वाली ठुकाई को विलंबित याने सुअवसर आने पर इस्तेमाल करना था क्योंकि चंद दिनों की चांदनी के बाद अंधेरी रात का फायदा भले ही असहमत उठा ले पर सबेरा होने पर बचना मुश्किल हो ही जाना है आखिर वो दुर्योधन का बहनोई जयद्रथ तो है नहीं. असहमत जानता था कि पुलिस अंकल के ट्रांसफर हो जाने के बाद ये सारे दुष्ट कौरव और पीड़ित पांडव भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी होने के सपने देख रहे हैं. अतः असहमत ने ऐसे लोगों की लिस्ट बनाना शुरु कर दिया जो आगे चलकर उसके लिये खतरा बन सकते थे. लिस्ट असहमत की फोकट का सिक्का जमाने की आदत के कारण थोड़ी लंबी जरूर थी पर योजनाबद्ध तरीके से कम की जा सकती थी जिसका प्लान तैयार था.

कहानी जारी रहेगी….

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 123 ☆ होळी एक सण… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 123 ?

☆ होळी एक सण… ☆

होळी एक सण–

रंगाचा,

 

लहानपणी असते अपूर्वाई,

भिजवण्याची, भिजवून घेण्याची!

लाल, हिरवे,निळे, गहिरे रंग—

माखवलेलं अंग,

चित्र विचित्र सोंगं—

फिरत असायची गल्लो गल्ली !

 

आदल्या दिवशीची पेटलेली होळी,

पुरणपोळी, पापड,कुरडई, भजी,

अग्नीत सोडून दिलेला नैवेद्य,

नारळ,पैसे —-

इडापिडा टळो….साप विंचू पळो!

हुताशनी पौर्णिमेचा उत्सव….

शिव्या…बोंबा…आणि

ज्वाळा..धूर….एक खदखद….

 

होळी ला पोळी आणि धुलवडीला नळी….अर्थात मटणाची….

 सारं कसं साचेबंद…

तेच तेच…तसंच तसंच…

किती दिवस??किती दिवस??

 

 उद्याची होळी वेगळी असेल जरा…

धगधगतील मनाच्या दाही दिशा….उजळून निघेल कोपरा..

कोपरा..

 

नको होळी…लाकडं जाळून केलेली…

नकोच रंग…पाण्याचा अपव्यय करणारे ….

खुसखुशीत पुरणपोळी…तुपाची धार…सारंच सुग्रास!

 

एक साजूक स्वप्न—–

रंगाचा सोहळा डोळे भरून पहाण्याचा…

हिरवी पाने, पिवळा सोनमोहोर, लालचुटूक, पांगारा आणि गुलमोहर, निळा गोकर्ण, पांढरे, भगवे, गुलाबी बोगनवेल…

फुललेत रस्तोरस्ती….

तेच माखून घ्यावेत मनावर आणि

निःसंग पणे साजरा करावा वसंतोत्सव!

होळी एक सण…रंगाचा!

 करूया साजरा न जाळता न भिजता!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 25 – सजल – भोर की किरणें खिली हैं… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है दोहाश्रित सजल “भोर की किरणें खिली हैं… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 25 – सजल – भोर की किरणें खिली हैं… 

समांत- आरे

पदांत- अपदांत

मात्राभार- 14

 

है तिरंगा फिर निहारे ।

देश की माटी पुकारे।।

 

थाम लें मजबूत हाथों,

मातु के हैं जो दुलारे ।

 

सैकड़ों वर्षों गुलामी,

बहते घाव थे हमारे ।

 

भगत सिंह,सुभाष गांधी,

हैं सभी जनता के प्यारे।

 

स्वराज खातिर जान दी,

हँसते-हँसते हैं सिधारे। १५

 

देश की उल्टी हवा ने,

बाग सारे हैं उजारे।

 

सीमा पर रक्षक डटे हैं,

कर रहे हैं कुछ इशारे।

 

बाँबियों में फिर छिपे हैं

मिल सभी उनको बुहारे।

 

हैं पचहत्तर साल गुजरे,

खुशी से हँसते गुजारे।

 

भोर की किरणें खिली हैं,

रात में चमके सितारे ।

 

निर्माण-की वंशी बजी,

देश को मिल कर सँवारे ।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

02 अगस्त  2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा #111 – “ठहरना जरूरी है प्रेम में” (काव्य संग्रह)  – अमनदीप गुजराल ‘विम्मी’ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री अमनदीप गुजराल ‘विम्मी’  की पुस्तक “ठहरना जरूरी है प्रेम में”  की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 111 ☆

☆ “ठहरना जरूरी है प्रेम में” (काव्य संग्रह)  – अमनदीप गुजराल ‘विम्मी’ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – ठहरना जरूरी है प्रेम में (काव्य संग्रह) 

कवियत्री… अमनदीप गुजराल ‘विम्मी’ 

बोधि प्रकाशन, जयपुर, १५० रु, १०० पृष्ठ

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव

जब किसी अपेक्षाकृत नई लेखिका की किताब आने से पहले ही उसकी कविताओ का अनुवाद ओड़िया और मराठी में हो चुका हो, प्रस्तावना में पढ़ने मिले कि ये कवितायें खुद के बूते लड़ी जाने वाली लड़ाई के पक्ष में खड़ी मिलती हैं, आत्मकथ्य में रचनाकार यह लिखे कि ” मेरे लिये, लिखना खुद को खोजना है ” तो किताब पढ़ने की उत्सुकता बढ़ जाती है. मैने अमनदीप गुजराल विम्मी की “ठहरना जरूरी है प्रेम में ” पूरी किताब आद्योपांत पढ़ी हैं.

बातचीत करती सरल भाषा में, स्त्री विमर्श की ५१ ये अकवितायें, उनके अनुभवों की भावाभिव्यक्ति का सशक्त प्रदर्शन करती हैं.

पन्ने अलटते पलटते अनायास अटक जायेंगे पाठक जब पढ़ेंगे

” देखा है कई बार, छिपाते हुये सिलवटें नव वधु को, कभी चादर तो कभी चेहरे की “

या

” पुल का होना आवागमन का जरिया हो सकता है, पर इस बात की तसल्ली नहीं कि वह जोड़े रखेगा दोनो किनारों पर बसे लोगों के मन “

अथवा

” तुम्हारे दिये हर आक्षेप के प्रत्युत्तर में मैंने चुना मौन “

और

” खालीपन सिर्फ रिक्त होने से नहीं होता ये होता है लबालब भरे होने के बाद भी “

माँ का बिछोह किसी भी संवेदनशील मन को अंतस तक झंकृत कर देता है, विम्मी जी की कई कई रचनाओ में यह कसक परिलक्षित मिलती है…

” जो चले जाते हैं वो कहीं नही जाते, ठहरे रहते हैं आस पास… सितारे बन टंक जाते हैं आसमान पर, हर रात उग आते हैं ध्रुव तारा बन “

अथवा…

” मेरे कपड़ो मेंसबसे सुंदर वो रहे जो माँ की साड़ियों को काट कर माँ के हाथों से बनाए गये “

 और एक अन्य कविता से..

” तुम कहती हो मुझे फैली हुई चींजें, बिखरा हुआ कमरा पसन्द है, तुम नही जानती मम्मा, जीनियस होते हैं ऐसे लोग “

“ठहरना जरूरी है प्रेम में” की सभी कविताओ में बिल्कुल सही शब्द पर गल्प की पंक्ति तोड़कर कविताओ की बुनावट की गई है. कम से कम शब्दों में भाव प्रवण रोजमर्रा में सबके मन की बातें हैं. इस संग्रह के जरिये  अमनदीप गुजराल संभावनाओ से भरी हुई रचनाकार के रूप में स्थापित करती युवा कवियत्री के रूप में पहचान बनाने में सफल हुई हैं. भविष्य में वे विविध अन्य विषयों पर बेहतर शैली में और भी लिखें यह शुभकामनायें हैं. मैं इस संग्रह को पाठको को जरूर पढ़ने, मनन करने के लिये रिकमेंड करता हूं. रेटिंग…पैसा वसूल, दस में से साढ़े आठ.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆”शेरू” ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक आलेख – “शेरू.)

☆ आलेख ☆ “शेरू☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज हमारे एक समूह में शेर पर लंबी चर्चा हुई, तो हमारा शेरू (पालतू कुत्ता) भी कहने लगा कि हम पर भी कभी चर्चा कर लिया करो, हम कोई धोबी के कुत्ते तो है नहीं, जो कि “ना घर के ना घाट के” कहलाये। हमे उसकी बात में दम लगा। शेरू फिर कहने लगा वैसे तो हर कुत्ता अपनी गली का शेर होता है, लेकिन चूंकि वो सोसाइटी के फ्लैट में रहता है इसलिए उसे अपने फ्लोर का शेर कह सकते हैं।

शेरू आजकल बहुत प्रसन्नचित्त रहता है, जबसे चुनाव आयोग ने मतदान की तिथियों की घोषणा की वो खुशी के मारे फूला नहीं समा रहा है।

सूरज के ढलते ही वो टीवी के सामने अपना आसन लगा कर बैठ जाता हैं। जब तक टीवी चालू कर “राजनीतिक बहस” का चैनल नहीं लगता उसको चैन नहीं आती। जैसे जैसे बहस में तेज़ी आती है, वो भी अपनी वाणी से गुर्रा कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा देता है। कल हम टीवी चला कर वाट्स एप पर बिखरे हुए ज्ञान को समेटने लगे तो शेरू ने अपने पंजे से हमारा मोबाईल बिस्तर पर गिरा दिया। उसकी सोच भी सही है, जब इतनी बढ़िया बेवकूफी की बहस से मनोरंजन हो रहा है, तो उससे वंचित क्यों रहना चाहिए।

श्रीमती जी भी खुश हैं, टीवी देखते हुए शेरू को खाने में घर का बना हुआ कुछ भी परोस दो, वो बिना नखरे के खा लेता है। वरना शेरू को भी जब तक ऑनलाइन डॉग फूड ना मंगवा कर दो, वो भूखा रह लेता पर घर का बना भोजन नहीं खाता हैं। चलो टीवी की बहस सुनते हुए उसकी आदतों में सुधार आ रहा हैं। वैसे हम भी जब टीवी में मग्न होते हैं तो नापसंद वस्तुएं भी हज़म कर जाते हैं। शायद शेरू भी जाने अनजाने में हमसे ये सब सीख गया हो।                           कोविड की तीसरी लहर से पूर्व शेरू शाम को हमारे साथ बगीचे में सैर पर जाता था। वहाँ उसके समाज के लोग भी बड़ी संख्या में आते थे। वहाँ उनसे वो भी लंबी वार्तालाप कर लेता था।    

अब माहौल को देखते हुए जब सांयकालीन भ्रमण बंद है, तो शेरू को टीवी में बहस करते हुए लोग अपने समाज के ही लगते है। बिना किसी सार्थक विषय के एक दूसरे के कपड़े फाड़ने पर उतारू चंद लोग सड़क पर बिना किसी कारण के भौंकते हुए कुत्तों जैसा व्यवहार ही तो करते हैं।   

अब लेखनी को विराम देता हूँ, शेरू टीवी के सामने आसन लगा कर बैठ गया है। समय का बड़ा पाबंद है, हमारा शेरू।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 117 – लघुकथा – बेरंग होली…  ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा “*बेरंग होली… *”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 117 ☆

☆ लघुकथा – बेरंग होली … 

होली की मस्ती और रंगों की बौछार लिए होली का त्योहार जब भी आता श्रेया के मन पर बहुत ही कडुआ ख्याल आने लगता।

अभी अभी तो वह यौवन की दहलीज चढी थी।आस पडोस सभी श्रेया की खूबसूरती पर बातें किया करते थे।

उसे याद है एक होली जब उसने अपने दोस्तों और सहेलियों के साथ खेली। एक दोस्त जो कभी उससे बात भी नहीं कर सकता था आज वह भी उसके साथ होली खेल रहा था। मस्ती और होली की ठंडाई, होली के रंगों के बीच किसे कब ध्यान रहा कि श्रेया को ठंडाई के साथ नशे की पुड़िया पिला दिया गया।

झूमते श्रेया को लेकर दोस्त जो उसे पागलों की तरह चाहता था। पहले रंगों, गुलाल से सराबोर कर दिया और मौका देखते ही सूनेपन का फायद उठाया और श्रेया को  जिंदगी का वह मोड़ दे दिया जहां से उबर पाना उसके लिए बहुत ही मुश्किल था।

होश आने पर अपने आपको डॉक्टर की चेम्बर में पाकर बेकाबू हो कर रोने लगी।

मम्मी पापा को उसकी हालत देख समझते देर न लगी कि रंगो की सुंदरता पर होली में किसी ने अचानक होली को बेरंग कर दिया है।

एक अच्छे परिवार के लड़के से शादी के बाद श्रेया के जीवन में होली तो हर साल आती। मगर अपने जीवन की बेरंग होली को भूल न  पाई थी।

तभी उसका बेटा जो हाथों में पिचकारी लिए दौड़कर अपनी मम्मी श्रेया के पास आकर बोला… “पापा कह रहे हैं वह माँ आपको बिना रंगों की होली पसंद है। यह भी कोई रंग होता है। मैं आज आपको पूरे रंगों से रंग देता हूं। आप भूल जाओगी अपने बिना रंगों की होली।”

श्रेया को जो अब तक होली रंगों से अपने आप को बंद कर लेती थी। आज गुलाल से लिपीपुति अपने पतिदेव से बोली..” बहुत वर्ष हो गए गए मैंने आपको बेरंग रखा।”

“आइए हम रंगीन होली खेलते हैं।” श्रेया को पहली बार होली पर खुश देखकर पतिदेव मुस्कुराए और गुलाल से श्रेया का पूरा मुखड़ा रंग दिया।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 129 ☆ खोटे नाणे ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 129 ?

☆ खोटे नाणे ☆

मी मोत्यांचे तुला चारले होते दाणे

तरी असे का तुझे वागणे उदासवाणे

 

काढायाला भांडण उकरुन तुलाच जमते

शोधत असते नवीन संधी नवे बहाणे

 

तूच बोलते टोचुन तरिही हसतो केवळ

किती दिवस मी असे हसावे केविलवाणे

 

अंगालाही लागत नाही बदाम काजू

मिळता संधी काढत असते माझे खाणे

 

नजर पारखी होती माझी नोटांवरती

तरी कसे हे नशिबी आले खोटे नाणे

 

हा तंबोरा मला लावता आला नाही

तरी अपेक्षा सुरात व्हावे माझे गाणे

 

राग लोभ तो हवा कशाला जवळी कायम

नव रागाचे गाऊ आता नवे तराणे

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ संगीताचा विकास – भाग-३ ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

? सूर संगत ?

☆ संगीताचा विकास – भाग – ३ ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

४) आधुनिक कालखंड ~ इ.स. १८०० पासून

ख्याल गायनाचा भरपूर प्रसार व त्याचबरोबर वाद्यसंगीताची विलक्षण क्रान्ती या कालखंडांत दिसून येते.

संगीताचे स्वरलेखन, संगीत संस्थांच्या निरनिराळ्या परीक्षा, संगीतावरची पुस्तके आणि व्याख्याने यामुळे संगीत शास्त्राचा प्रचंड प्रसार झाला. पंडित विष्णू दिगंबर पलुस्कर, भातखंडेबुवा, विनायकराव पटवर्धन वगैरे संगीतज्ञांनी तर भारतीय संगीत प्रसाराचे व्रतच घेतले होते.

संगीताचा सतत अभ्यास व रियाज करून कलावंत वैयक्तिक विचाराने स्वतःची विशिष्ट गायनशैली तयार करतो.प्राचीन काळापासून ते अगदी आधुनिक काळांत एकोणीसाव्या शतकापर्यंत गुरूगृही राहून, गुरूची मनोभावे सेवा करीत संगीत साधना करण्याची प्रथा होती. गुरू त्यांची वैशिष्ठ्यपूर्ण गायनशैली शिष्याच्या गळ्यांत जशीच्या तशी उतरविण्याचा प्रयत्न करीत असे. यालाच त्या गायन शैलीचे घराणे म्हटले जाऊ लागले. अशा रीतीने काही प्रतिभावंत कलाकारांनी त्यांची स्वतंत्र गायनशैली शिष्यांकरवी

जतन करण्याचा प्रयत्न केला. ह्यातूनच आज प्रचलित असलेली किराणा, जयपूर, मेवाती, ग्वाल्हेर, आग्रा वगैरे एकूण १६ घराणी तयार झाली.

अब्दूलकरीमखाॅं साहेब हे किराणा घराण्याचे पट्टीचे गायक.

आपल्या सर्वांचे लाडके कै.भीमसेन जोशी (अण्णा, सवाई गंधर्व यांचे शिष्य), आघाडीच्या गायिका प्रभा अत्रे हे किराणा घराण्याचे गायक. अल्लादिया खाॅं यांचे जयपूर घराणे स्व.किशोरीताई अमोणकर यांनी त्यांच्या गायन कौश्यल्याने लोकप्रिय केले व आज अश्विनी भिडे देशपांडे या ते पुढे नेत आहेत. स्व.विनायकबुवा पटवर्धन, शरद्चंद्र आरोलकर, गोविंदराव राजूरकर हे ग्वाल्हेर घराण्याचे आघाडीचे गायक.

आधुनिक काळांत काही कलावंतांची मात्र कोणा एका घराण्याला चिकटून न राहता अनेक घराण्यांची वैशिष्ठ्ये लक्षात घेऊन स्वतःची शैली तयार करण्याची धडपड चालू असते.याचे एक उत्तम उदाहरण म्हणून कै.पंडित जितेंद्र अभिषेकीबुवांचा उल्लेख करणे  योग्य होईल. त्यांनी ग्वाल्हेर,आग्रा,अत्रौली अशा विविध घराण्यांची गायकी आत्मसात केली. आणि बुद्धीचातूर्याने स्वतःच्या गाण्याचा वेगळा ठसा उमटविला.जसे जयपूर घराण्यांतील एकारातील स्वरलगाव,आग्रा घराण्याची आकारयुक्त आलापी,किराणा घराण्याची मेरखंड पद्धतीने केलेली आलापी.उस्ताद बडे गुलाम अलीखाॅं यांच्या गायनांतील चपलता,मृदुता,भावुकता इत्यादी गुणविशेष त्यांनी उचलले तर ठुमरी पेश करताना पतियाळा घराण्याची पद्धत जवळ केली.

पं.उल्हास कशाळकरांचाही स्वतंत्र शैलीचे गायक म्हणून उल्लेख करावा लागेल.त्यांनी गजाननबुवा जोशी यांजकडून ग्वाल्हेर घराण्याची तालीम घेतली,त्याचबरोबर जयपूर गायकीचे निवृत्तीबुवा सरनाईक, डी.व्ही.पलुस्कर, मास्टर कृष्णराव, कुमार गंधर्व  इत्यादी नामवंतांच्या गायकीचा प्रभाव त्यांच्या गायकीवर आहे.

मध्ययुगीन काळांत राजाश्रय असलेले संगीत नाटके, चित्रपट, आकाशवाणी, मागील पन्नास वर्षांत लोकप्रिय झालेले दूरदर्शन या प्रसारमाध्यमांमुळे  घरोघरी पोहोचले. रसिकांची नाट्यसंगीत, भक्तीगीते, अभंग गायन, भावगीते तसेच गझल, ठुमरी दादरा अशा उपशास्त्रीय संगीतात अधिकाधिक रुची उत्पन्न झाली. त्यामुळे ख्यालगायकीची मैफल असली तरी एखाद दोन राग पेश झाल्यानंतर प्रेक्षकांची भजन, नाट्यपद किंवा ठुमरी कलावंताने सादर करावी अशी फरमाईश असतेच.

भीमसेन जोशींनी “चलो सखी सौतनके घर जईये” ही गुजरी तोडीतील दृत बंदीश किंवा “रंग रलिया करत सौतनके संग” ही मालकंसमधील दृतबंदीश संपविल्यानंतर अण्णांचे तीर्थ विठ्ठल क्षेत्र विठ्ठल, इंद्रायणी काठी हे अभंग ऐकल्याशिवाय मैफल पूर्ण झाल्याचे समाधान होतच नव्हते.

आधुनिक तंत्रज्ञानामुळे आता जग जवळ आले आहे. संगीतांत अनेकविध नवेनवे प्रयोग होऊ लागले. फ्यूजन,रिमिक्स वगैरे. चित्रपट संगीताने तर संगीतविश्व पारच बदलून टाकले. भारतीय आणि पाश्चात्य वाद्यांचा मेळ पहावयास मिळतो. काही ठिकाणी तो चांगलाही वाटतो पण कधी कधी संगीतातील माधूर्य हरपून त्याची जागा गजराने घेतली आहे असे वाटते.

गुरूकूल पद्धतीने संगीत साधना करणे आज लुप्त झाले आहे.केवळ संगीतावरच लक्ष्य केंद्रीत करणे आजच्या काळांत अवघडच आहे.ज्ञानार्जन किती झाले यापेक्षा प्रसिद्धि केव्हा मिळेल याकडे अधिक लक्ष आहे.त्याचबरोबर मात्र शास्त्रीय संगीताचा अभ्यास व साधना करणारी युवा मंडळीही भरपूर आहेत.त्यामुळे वेदकाळी रोपण केलेला शास्त्रीय संगीताचा हा डेरेदार वृक्ष नवोदीत कलाकारांच्या खत~पाण्याने सतत बहरतच राहील यांत संशय नाही.

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 79 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 79 –  दोहे ✍

लज्जा, ममता, शीलता, साड़ी तीर्थ स्वरूप।

दुल्हन का घूंघट करे, आंचल मां का रूप।।

 

शील और सौंदर्य का, अद्वितीय प्रतिमान ।

धोती या साड़ी कहे, भारतीय परिधान ।।

 

वस्त्र व्यक्ति को सजाते, देते हैं पहचान ।

निर्भर करता व्यक्ति पर, रखे  वस्त्र का मान।।

 

एक नूर है आदमी, कपड़ा नूर हजार।।

व्यक्ति वस्त्र से कीमती, होता है व्यवहार।।

 

रुचि सुविधा के मुताबिक, लोग चुनें परिधान ।

आवेष्ठित सौंदर्य का, जगत करे सम्मान।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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