हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 150 ☆ व्यंग्य – उल्लू बनाओ मूर्ख दिवस मनाओ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  व्यंग्य उल्लू बनाओ मूर्ख दिवस मनाओ

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 150 ☆

? व्यंग्य – उल्लू बनाओ मूर्ख दिवस मनाओ  ?

किशमिश, काजू, बादाम सब महज 300रु किलो,  फेसबुक पर विज्ञापन की दुकानें भरी पड़ी हैं। सस्ते के लालच में रोज नए नए लोग ग्राहक बन जाते हैं।  जैसे ही आपने पेमेंट किया दुकान बंद हो जाती है। मेवे नहीं आते, जब समझ आता है की आप मूर्ख बन चुके हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इस डिजिटल दुकानदारी के युग की विशेषता है कि मूर्ख बनाने वाले को कहीं भागना तक नहीं पड़ता, हो सकता है की वह आपके बाजू में ही किसी कंप्यूटर से आपको उल्लू बना रहा हो।

सीधे सादे, सहज ही सब पर भरोसा कर लेने वालों को कभी ओ टी पी लेकर, तो कभी किसी दूसरे तरीके से जालसाज मूर्ख बनाते रहते हैं।

राजनैतिक दल और सरकारें, नेता और रुपहले परदे पर अपने किरदारों में अभिनेता,  सरे आम जनता से बड़े बड़े झूठे सच्चे वादे करते हुए लोगों को मूर्ख बनाकर भी अखबारों के फ्रंट पेज पर बने रहते हैं।

कभी पेड़ लगाकर अकूत धन वृद्धि का लालच, तो कभी आर्गेनिक फार्मिंग के नाम पर खुली लूट, कभी बिल्डर तो कभी प्लाट के नाम पर जनता को मूर्ख बनाने में सफल चार सौ बीस, बंटी बबली, नटवर लाल बहुत हैं। पोलिस, प्रशासन को बराबर धोखा देते हुए लकड़ी की हांडी भी बारम्बार चढ़ा कर अपनी खिचड़ी पकाने में निपुण इन स्पाइल्ड जीनियस का मैं लोहा मानता हूं।

अप्रैल का महीना नए बजट के साथ नए मूर्ख दिवस से प्रारंभ होता है, मेरा सोचना है की इस मौके पर पोलिस को मूर्ख बनाने वालों को मिस्टर नटवर, मिस्टर बंटी, मिस बबली जैसी उपाधियों से नवाजने की पहल प्रारंभ करनी चाहिए। इसी तरह बड़े बड़े धोखाधड़ी के शिकार लोगों को उल्लू श्रेष्ठ, मूर्ख श्रेष्ठ, लल्लू लाल जैसी उपाधियों से विभूषित किया जा सकता है।

इस तरह के नवाचारी कैंपेन से धूर्त अपराधियों को, सरल सीधे लोगों को मूर्ख बनाने से किसी हद तक रोका जा सकेगा।

बहरहाल ठगी, धोखाधड़ी, जालसाजी से बचते हुए हास परिहास में मूर्ख बनाने  और बनने में अपना अलग ही मजा है,  इसलिए उल्लू बनाओ, मूर्ख दिवस मनाओ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #110 – बाल कथा – लू की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर बाल कथा – “लू की आत्मकथा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 110 ☆

☆ बाल कथा – लू की आत्मकथा ☆ 

मैं लू हूं. लू यानी गरम हवा. गरमी में जब गरम हवा चलती है तब इसे ही लू चलना कहते हैं. क्या आप मुझे जानते हो ? नहीं ना ? तो चलो, मैं आज अपने बारे में बता कर आप को अपनी आत्मकथा सुनाती हूं.

अकसर गरमी के दिनों में गरम हवा चलती है. इसे ही लू चलना कहते हैं. इस वक्त वातावरण का तापमान 40 डिग्री से अधिक हो जाता है. यह तापमान आप के शरीर के तापमान 37 डिग्री से ​अधिक होता है.

इस ताप पर शरीर की स्वनियंत्रित तापमान प्रणाली शरीर का काम ठीकठाक ढंग से  करती है. इस का काम शरीर का तापमान 37 डिग्री बनाए रखना होता है. यदि वातावरण का तापमान इस ताप से ज्यादा हो जात है और आप लोग गरमी में बाहर निकल कर खेलते हैं तो तब तुम्हारे शरीर की यह प्रणाली सक्रिय हो जाती है. इस वकत् यह शरीर से पसीना बाहर निकालती रहती है  तुम्हारे शरीर का तापमान 37 डिग्री बनाए रखा जा सकें.

पसीना आने से शरीर का तापमान सामान्य हो जाता है. पसीना हवा से सूख जाता है. इस से शरीर में पानी की कमी होने लगती है. इस वकत आप को प्यास लगने लगती है.यदि आप समयसमय पर पानी पीते हो तो शरीर में पानी की पूर्ति हो जाती है.

कभीकभी इस का उल्टा हो जाता हैत. आप समयसमय पर पानी नहीं पीते हो तो शरीर में पानी की कमी हो जाती है. इस दौरान धूप में खेलने या गरम हवा के संपर्क में आने से शरीर में पानी की कमी होने से वह अपने सामान्य तापमान को बनाए रखने के लिए अधिक पसीना निकाल नहीं पाता है. इस के कारण शरीर का तापमान बढ़ जाता है. शरीर के इस तरह तापमान बढ़ने को लू लगना कहते हैं.

लू लगने का आशय आप के शरीर का तापमान अधिक बढ़ जाना होता है. इस दौरान शरीर अपने तापमान को बनाए रखने में असमर्थ हो जाता है. इस से शरीर को बहुत नुकसान होता हैं. शरीर में पानी की कमी हो जाती है. इस से आप का खून गाढ़ा हो जाता है. जिस से रक्त संचरण में रूकावट आती है. इस रूकावट की वजह से चक्कर आना, उल्टी होना, बेहोशी होना, आंखे जलना जैसी शिकायत होने लगती है. यह सब लू लगने के लक्षण होते हैं.

यदि लू लगने के बाद भी धूप में रहा जाए तो कभीकभी इनसान की मृत्यु हो जाती है. इस कारण गरमी में लू की वजह से कई जनहानि होती रहती है. मगर, आप सोच रहे होंगे कि मैं यानी लू बहुत खतरनाक होती हूं. नहीं भाई, आप का यह सोचना गलत है. मेरे चलने से ही समुद्र के पानी का वाष्पन होता है. इसी की वजह से बरसात आने की संभावना पैदा होती हैं. यदि मैं न होऊं तो आप बहुत सारे काम रूक जाए.

वैसे आप कुछ सावधानियां रख कर मुझे से बच सकते हो. आप चाहते हो कि मैं आप को नुकसान नहीं पहुंचाऊं तो आप को कुछ बातों का ध्यान रखना होगा. गरमी के दिनों में खूब पानी पी कर बाहर खेलना चाहिए. जब भी बाहर जाओ तब सिर पर सफेद कपड़ा या टोपी लगा कर बाहर जाओं. दिन के समय सीधी धूप में न रहो. खूब पानी या तरल पदार्थ पी कर तुम मुझ से और मेरे प्रभाव से बच सकते हो.

बस ! यही मेरी छोटीसी आत्मकथा हैं. यह तुम्हें अच्छी लगी होगी. मैं समझती हूं कि अब आप मुझे अच्छी तरह से समझ गए होंगे. मैं ठीक कह रही हूं ना ?

हां. अब ज्यादा गरदन मत हिलाओं. मैं समझ गई हूं कि तुम समझ गए हो. इसलिए अब मैं चलती हूं. मुझे अपने जिम्मे के कई काम करना हैं. कहते हुए लू तेजी से चली गई.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

13/05/2019

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 102 ☆ गीत – तुझको स्वयं बदलना होगा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपका एक गीत  “तुझको स्वयं बदलना होगा”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 102 ☆

☆ गीत – तुझको स्वयं बदलना होगा ☆ 

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।

जीवन की हर बाधाओं से

हँसते – हँसते लड़ना होगा।।

 

कर्तव्यों से हीन मनुज जो

अधिकारों की लड़े लड़ाई।

प्रकृति के अनुकूल न चलता

आत्ममुग्ध हो करे बड़ाई।

झूठे सुख के लिए सदा ही

देख रहा ना पर्वत – खाई।

धन  – संग्रह की होड़ लगी है

मन कपटी है चिपटी काई।

 

हे मानव ! तू सँभल ले अब भी

तुझको स्वयं भुगतना होगा।

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।।

 

जो सन्तोषी इस धरती पर

वह ही सुख का मूल्य समझता।

वैभवशाली, धनशाली का

सबका ही सिंहासन हिलता।

उद्यम कर, पर चैन न खोना

अपना लक्ष्य बनाकर चलना।

परहित – सा कोई धर्म नहीं है

देवदूत बन सबसे मिलना।

 

समय कीमती व्यर्थ न खोना

तुझको स्वयं समझना होगा।

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।।

 

सामानों की भीड़ लगाकर

अपने घर को नरक बनाए।

सारा बोझा छूटे एक दिन

उल्टे – पुल्टे तरक चलाए।

उगते सूरज योग करें जो

उनकी किस्मत स्वयं बदलती।

कर्म और पुरुषार्थ , भलाई

यहाँ – वहाँ ये साथ हैं चलतीं।

 

परिस्थितियां जो भी हों साथी

तुझको स्वयं ही ढलना होगा।

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #105 – वातानुकुलित…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 105 – वातानुकुलित…! 

एका आलिशान वातानुकुलीत

दुकानाच्या आत

निर्जीव पुतळ्यांना

घातलेल्या रंगीबेरंगी

कपड्यांना पाहून,

मला माझ्या बापाची

आठवण येते…

कारण,

मी लहान असताना,

नेहमी माझ्यासाठी

रस्त्यावरून कपडे खरेदी

करताना,

माझा बाप माझ्या

चेह-यावरून हात

फिरवून त्याच्या

खिशातल्या पाकिटाला

हात लावायचा…

आणि

वातानुकुलीत

दुकानातल्या कपड्यांपेक्षा

रस्त्यावरचे कपडे

किती चांगले असतात

हे किती सहज

पटवून द्यायचा…

खिशातलं एखादं चाॅकलेट

काढून तेव्हा तो हळूच

माझ्या हातात ठेवायचा…

आणि

माझ्या मनात भरलेले कपडे

तेव्हा तो माझ्या नजरेतूनच ओळखायचा…

आम्ही कपडे खरेदी करून

निघाल्यावरही

माझा बाप चार वेळा

मागं वळून पहायचा

आणि

“एकदा तरी आपण

ह्या आलिशान दुकानातून कपडे

खरेदी करू”

इतकंच माझ्याकडे पाहून

बोलायचा…

पण आता,

मला त्या निर्जीव पुतळ्यानां घातलेल्या..

रंगीबेरंगी कपड्यांच्या

किंमतीचे लेबल पाहून…

माझ्या बापाचं मन कळतं

आणि त्यांनं तेव्हा…

डोळ्यांच्या आड लपवलेलं पाणी

आज माझ्या डोळ्यांत दाटून येतं…

कारण,

मी माझ्या लेकरांला

रस्त्यावरून कपडे

खरेदी करताना,

त्याच्यासारखाच मी ही

तेव्हा

किलबिल्या नजरेने

ह्या दुकानांकडे पहायचो…

आणि

ह्या रंगीबेरंगी कपड्यांची

स्वप्नं तेव्हा मी नजरेमध्ये साठवायचो…

अशावेळेस,

नकळतपणे

माझा हात

माझ्या लेकरांच्या चेह-यावर

कधी फिरतो कळत नाही…

आणि

पाकिटातल्या पैशांची

संख्या काही बदलत नाही…

परिस्थितीची ही गोळा बेरीज

अजूनही तशीच आहे

आणि

मनमोकळं जगणं

अजून…

वातानुकुलीत व्हायचं आहे..

 

(टीप.. कविता आवडल्यास नावासहीतच फाॅरवर्ड करावी ही नम्र विनंती )

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#125 ☆ हक न छीनें परिश्रम का…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना  “हक न छीनें  परिश्रम का….”)

☆  तन्मय साहित्य  #125 ☆

☆ हक न छीनें  परिश्रम का…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

घाम, सूरज का तपाये

बारिशें, जी भर भिंगाये

निठुर जाड़ा तो जड़ों तक

शीत में तन-मन कँपाये।

 

वे सदा रहते खुले में

खेत में खलिहान में

गुनगुनाते साथ श्रम के

चाय के बागान में,

बेबसी भीतर दबे दुखदर्द

ये किसको सुनाए…..

 

मुँह अंधेरे जब उठे

चिंता सताए पेट की

निगल, बासी कौर कुछ

ड्योढ़ी चढ़े फिर सेठ की,

झिड़कियों को अनसुना कर

पसीने में वे बहाए…….

 

राज-मिस्त्री मजदूरों के

साथ असंगठित हैं जो

करें चिंता श्रमजीवी

समुदाय की अधपेट हैं वो

हक न छीनें परिश्रम का

उसी से अट्टालिकाएँ…..

 

वे सदा मुस्तेद सीमा पर

अथक अविराम से

युद्ध या हो विभीषिकाएँ

डोर ये ही थामते,

मौसमों से जूझते, पथ में

कई है विषमताएँ…….

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 19 ☆ कविता – वृक्ष की पुकार ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक कविता  “वृक्ष की पुकार”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 19 ✒️

?  कविता – वृक्ष की पुकार —  डॉ. सलमा जमाल ?

रुकती हुई,

सांसो के मध्य,

कल सुना था मैंने,

कि तुमने कर दी,

फिर एक वृक्ष की,

” हत्या “

इस कटु सत्य का,

हृदय नहीं,

कर पाता विश्वास,

” राजन्य “

तुम कब हुए, नर पिशाच ।।

 

अंकित किया, एक प्रश्न ?

क्यों ? केवल क्यों ?

इतना बता सकते हो,

तो बताओ ? क्यों त्यागा,

उदार जीवन को ?

क्यों उजाड़ा,

रम्य वन को ? क्यों किया,

हत्याओं का वरण ?

अनंत – असीम,जगती में

क्या ? कहीं भी ना,

मिल सकी, तुम्हें शरण ? ।।

 

अच्छा होता

तुम, अपनी

आवश्यकताएं,

तो बताते,

शून्य, – शुष्क,

प्रदूषित वन जीवन,

की व्यथा देख,

रोती है प्रकृति,

जो तुमने किया,

क्या वही थी हमारी नियति ?।।

 

शैशवावस्था में तुम्हें,

छाती पर बिठाए,

यह धरती,

तुम्हारे चरण चूमती,

रही बार-बार,

रात्रि में जाग – जाग

कर वृक्ष,

तुम्हें पंखा झलते रहे बार-बार,

तब तुम बने रहे,

सुकुमार,

अपनी अनन्त-असीम,

तृष्णाओं के लिए,

प्रकृति पर करते रहे

अत्याचार ।।

 

हम शिला की

भांति थे,

निर्विकार,

तुम स्वार्थी –

समयावादी,

और गद्दार,

तभी वृद्ध,

तरुण – तरुओं,

पर कर प्रहार,

आयु से पूर्व,

उन्हें छोड़ा मझधार,

रिक्त जीवन दे,

चल पड़े

अज्ञात की ओर,

बनाने नूतन,

विच्छन्न प्रवास ।।

 

किस स्वार्थ वश किया,

यह घृणित कार्य ?

क्या इतना सहज है,

किसी को काट डालना,

काश !

तुम कर्मयोगी बनते,

प्रकृति के संजोए,

पर्यावरण को बुनते,

प्रमाद में  विस्मृत कर,

अपना इतिहास,

केवल बनकर रह

लगए, उपहास ।।

 

काश ! तुमने सुना होता,

धरती का, करुण क्रंदन,

कटे वृक्षों का,

टूट कर बिखरना,

गिरते तरु की चीत्कार,

पक्षियों की आंखोंका, सूनापन,

आर्तनाद करता, आकाश,

तब संभव था, कि तुम फिर,

व्याकुल हो उठते,

पुनः उसे, रोपने के लिए ।।

 

अपना इतिहास,

बनाने का करते प्रयास,

तब तुम, वृक्ष हत्या,

ना कर पाते अनायास ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 101 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 12 – घर में कबहुँ ना मिलैं… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 101 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 12 – घर में कबहुँ ना मिलैं… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अथ श्री पाण्डे कथा (2)

घर में कबहुँ ना मिलैं, नाम मान नौं निद्धि ।

जब ही जाय बिदेस नर, पाय मान अरु सिद्धि ॥

शाब्दिक अर्थ :- प्राय: अपने घर- गाँव में रहकर आदमी को मान-सम्मान और समृद्धि प्राप्त नहीं होती है। जब आदमी अपना घर छोड़कर परदेश चला जाता है, तब उसे वहाँ पर्याप्त मान-सम्मान और सफलता प्राप्त हो जाती है

ऐसा नहीं है कि सजीवन पांडे शुरू से ही विपन्न थे। उनके पिता रामायण पांडे निवासी थे महोबा के और जब सजीवन पांडे 2-3 वर्ष के रहे होंगे तब खेजरा आ बसे। हुआ यों कि रामायण पांडे अपनी पत्नी और बेटे को लेकर तीर्थ यात्रा करने जगन्नाथ पुरी गए। अंग्रेजों के जमाने में दमोह के जंगल बहुत थे व  बड़े घने थे। इमारती लकड़ी के लिए सागौन, साज, सलईया आदि बहुतायत में थे तो हर्र, बहेरा, आँवला, लाख और खैर  जैसी वनोपज़ भी दमोह के जंगलों से निकलती। खेती किसानी के लिए सुनार नदी की घाटी का उपजाऊ काली मिट्टी वाला हवेली क्षेत्र तो दो फ़सली खेती के लिए ब्यारमा घाटी प्रसिद्ध थी। इसी वनोपज़ और खेती से रुपया कमाने की लालच में बहुत से अंग्रेज भी दमोह आ बसे। रामायण पांडे ने दमोह की ख्याति अपने सहयात्रियों से सुनी और  लौटते में अकारण ही दमोह उतर गए सोचा देखते हैं कोई काम धंधा नौकरी  मिल जाये। रात उन तीनों ने स्टेशन के प्लेटफार्म पर गुजारी और सुबह सबेरे स्नान ध्यान कर  धवल धोती व अंग वस्त्र धारण कर अपने उन्नत ललाट  को सुंदर  त्रिपुंड सुसज्जित कर रामायाण दमोह का चक्कर लगाने निकल पड़े। स्टेशन से बाहर निकल उन्होने सीधी सड़क पकड़ी और बस स्टैंड होते हुये बेला ताल के आगे निकल जटाशंकर स्थित शंकरजी के मंदिर  पहुँच गए। जटाशंकर की पहाड़ी व हरियाली ने रामायण का मन मोह लिया और भोले शंकर के मंदिर के सामने बैठ वे सस्वर में लिंगाष्टक स्त्रोतम का पाठ करने लगे। उनके  मधुर सुर व संस्कृत के  उच्चारण से प्रभावित अनेक भक्तगण रामायण पांडे को घेर कर बैठ गए व ईशभक्ति सुन  भाव विभोर हो उठे। भजन पूजन कर रामायण जटाशंकर की पहाड़ी से बाहर निकले ही थे की बेलाताल के पास निर्जन स्थान पर कुछ लठैतों ने उन्हे घेर लिया और अता पता पूंछ डाला।

रामायण बोले कि  भैया हम तो महोबे के रहने वाले हैं और काम धंधा की तलाश में दमोह आए हैं।

लठैतों में से एक ने पूंछा तो इतने सजधज कर जटाशंकर काय आए और ज़ोर ज़ोर से भजन काय गा  रय हते।

घाट घाट का पानी पिये रामायण समझ गए कि दाल में कुछ काला है और उन्होने मधुरता से जबाब दिया भैया हम तो कौनौ काम धन्धा मिल जाय जा प्रार्थना ले के भोले के दरबार में आए हते।

रामायण की बात पर लठैत को भरोसा न हुआ उसने पूंछा कि मंदिरन में पुजारी बनबे की इच्छा तो नई आए।

रामायण ने उन्हे भलीभांति संतुष्ट कर सीधे स्टेशन की ओर रुख किया और दमोह के किसी अन्य मंदिर में पुजारी बनने का सपना छोड़ दिया।

शाम को रामायण ने गल्ला मंडी के ओर रुख किया। रास्ते में वे हनुमान गढ़ी के मंदिर जाना न भूले पर भगवान से मन ही मन प्रार्थना की और उच्च स्वर में हनुमान चालीसा पढ़ने की हिम्मत न जुटा पाये।  गल्ला मंडी में रोजगार के दो ही साधन थे पल्लेदारी जो रामायण के बस की न थी और दूसरी मुनीमी जिसके लिए आढ़तिया अंग्रेजी भाषा का जानकार चाहते थे और अंग्रेजी में तो  रामायण ‘करिया अच्छर भैंस बिरोबर थे। हताश और निराश रामायण अंधेरा होने के पहले ही स्टेशन लौट आए।

दूसरे दिन दोपहर में रामायण ने  स्टेशन के पास स्थित कुछ लकड़ी के टालों की ओर रुख किया। इमारती लकड़ी और वनोपज़ के ठेकेदार जात से खत्री थे और दमोह में  रेल्वे लाइन आने के बाद लखनऊ से आ बसे थे। खत्री ठेकेदार ने रामायण को बड़े अदब से कुर्सी पर बैठा कर पूंछा-

‘प्रोहितजी क्या चाहिये, कहाँ से आना हुआ।‘

‘सेठजी हम महोबे के रहने वाले हैं रोजगार की तलाश में दमोह आए हैं।‘ रामायण ने उत्तर दिया।

‘क्या काम कर सकते हो।‘ ठेकेदार ने पूंछा

‘सेठजी हिन्दी, संस्कृत और गणित का ज्ञान है मुनीमी की नौकरी मिल जाये तो कृपा होगी।‘

‘प्रोहितजी हमारा धंधा तो अंग्रेजों से चलता है, उनसे अंग्रेजी में लिखापढ़ी करने वाला मुनीम चाहिये।‘

‘सेठजी मुझे अंग्रेजी तो बिल्कुल नहीं आती। बच्चों तो पढ़ाने का काम ही दे दो।‘ रामायण बोले

‘प्रोहितजी बच्चे भी अब अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते हैं उन्हे हिन्दी और संस्कृत पढ़ाने से क्या लाभ।‘

‘सेठजी कोई काम आप ही बताओ जो मैं कर सकता हूँ।‘ कातर स्वर में रामायण बोले

‘प्रोहितजी जंगल से हमारा माल आता है वहाँ हिसाब किताब रखने के काम में अंग्रेजी की जरूरत नहीं है। आप वो काम करने लगो। दस रुपया महीना पगार दूंगा पर रहना जंगल में पड़ेगा।‘ ठेकेदार ने कहा। 

 ‘सेठजी मेरा बच्चा छोटा है और पंडिताइन को दमोह में किसके भरोसे छोडुंगा।  मैं तो अब निराश हो गया हूँ। कल वापस महोबा चला जाऊँगा।‘ ऐसा कह कर रामायण बड़े दुखी मन से स्टेशन वापस आ गए।

रामायण स्टेशन पहुँचे ही थे की पंडिताइन का रोना धोना चालू हो गया। बड़ी मुश्किल से उन्होने बताया  ‘तुमाए निकरबे के बाद टेशन मास्टर के दो आदमी आए रहे और धमका के गए हैं की जा जागा खाली कर देओ।‘

रामायण ने पूंछा ‘गाली गलोज तो नई करी।‘

पंडिताइन के सिर हिलाने  पर वे तुरंत ही स्टेशन मास्टर के कक्ष की ओर चल पड़े।

स्टेशन मास्टर के कक्ष की ओर जाते जाते रामायण को बार बार पंडिताइन का रोना याद आ रहा था। हालांकि गाली गलोज की बात पर पंडिताइन ने कुछ स्पष्ट नहीं कहा था फिर भी उन्होने अंदाज़ तो लगा ही लिया कि सरकारी नौकर बिना ऊल जलूल बोले सरकारी फरमान नहीं सुनाते। एक बार तो उनकी इच्छा हुयी कि स्टेशन मास्टर को खरी खोटी सुनाये और उसके दोनों आदमियों की भालिभांति ठुकाई कर दें पर अपनी विपन्नता और परदेश का ध्यान कर उन्होने चित्त को शांत किया, आँखे पोंछी और आगे चल दिये।

स्टेशन मास्टर का नाम गया प्रसाद चौबे है और वे मथुरा के रहने वाले हैं इतना जान रामायण की थोड़ी आशा बंधी और वे दरवाजा खटखटा कर स्टेशन मास्टर के कक्ष में घुसे और सबसे पहले स्वस्ति वाचन कर गया प्रसाद चौबे का अभिवादन किया।

चौबे जी उनके संस्कृत उच्चारण से प्रसन्न हुये और आने का कारण पूंछा। रामायण ने अपनी पूरी व्यथा उन्हे बताई , पर पंडिताइन के साथ हुयी घटना को बड़ी खूबी से छुपा लिया,  और कोई नौकरी देने का आग्रह किया।

‘महराज अभी तो स्टेशन में कोई जगह खाली है नहीं, हाँ एक काम पर आपको रखा जा सकता हैं।‘

‘बताइए साहब बताइए’ थोड़े से आशान्वित रामायण बोले

‘अभी आप स्टेशन में कुछ साहबों के घर पीने का पानी भरने लगो।‘ चौबेजी बोले

‘महराज हम तो पंडिताई करने वाले हैं हमे आप पानी पांडे न बनाओ।‘ रामायण थोड़े अनमने होकर बोले

‘पंडितजी पानी भरने के साथ साथ स्टेशन के बाहर बनी शंकरजी की मड़ैया में पूजा भी करना।‘ 

‘इतने में नई जगह कहाँ गुजर बसर हो पाएगी  साहब।‘ रामायण ने प्रत्युत्तर में कहा

‘अरे भाई महीने के पाँच रुपये हम स्टेशन से दे देंगे और कुछ साहब लोग दे देंगे फिर शंकरजी की मड़ैया में पूजा से कुछ दान दक्षिणा भी मिलती रहेगी।‘ चौबेजी ने आश्वस्त करने की कोशिश करी।

‘हुज़ूर पक्की नौकरी का बंदोबस्त हो जाता तो अच्छा रहता।‘ रामायण ने लगभग चिरौरी करते हुये कहा।

‘पंडितजी अभी पानी भरने का काम करो फिर कभी कोई बड़ा गोरा साहब स्टेशन पर आयेगा तो उनसे पक्की नौकरी की भी बात करेंगे। अंग्रेज साहब भी अच्छी संस्कृत सुन कर खुश हो जाते हैं।‘ चौबेजी बोले

इस बात से रामायण को भविष्य की आशा बंधी और उन्होने हाँ कर दी। अब महोबा के पंडित रामायण पांडे दमोह रेल्वे स्टेशन पर पानी पांडे कहलाने लगे। भजन गाते गाते स्टेशन और दो तीन साहबों के घर पीने का पानी भरते और रेल गाड़ी का समय होने पर शंकरजी की मड़ैया पर बैठ आने जाने वाले यात्रियों आशीर्वाद देते बदले में दान दक्षिणा पाते।

समय बीतता गया और छह माह बाद महा शिवरात्रि आयी। रामायण पांडे ने  दमोह रेल्वे स्टेशन पर पानी पांडे का अपना दायित्व झटपट सुबह सबेरे ही पूरा किया और  शंकरजी की मड़ैया को, पंडिताइन की मदद से,  गाय के गोबर से लीपा, छुई मिट्टी से पोता, फूल पत्ती से सजाया और फिर स्नान कर त्रिपुंड लगा कर शंकरजी की पूजा करने बैठ गये। उनके भजन और मंत्रोच्चारण ने लोगों को आकर्षित किया और देखते ही देखते  भक्तों की अच्छी खासी भीड़  शंकरजी की मड़ैया  पर एकत्रित हो गई और दोपहर होते होते भंडारे की व्यवस्था भी जन सहयोग से हो गई।

दूसरे दिन सुबह सुबह दो तीन ग्रामीण रामायण पांडे से मिलने स्टेशन आ पहुँचे और हिरदेपुर के ठाकुर साहब का बुलौआ का समाचार उन्हे दिया। रामायण पांडे अपना काम निपटा कर जब हिरदेपुर पहुँचे

‘आइये पंडितजी महाराज पायँ लागी’ कहकर ठाकुर साहब ने  रामायण पांडे का स्वागत किया।

रामायण ने भी ‘खुसी  रहा का’ आशीर्वाद दिया, स्वस्ति वाचन किया और बुलाने का कारण पूंछा।

‘पंडितजी महराज ऐसों है की काल हमने आपके दर्शन टेशन पर शंकर जी की मड़ैया पर करे हते। हमाएं इते भी पुरखन को बनवाओं एक मंदर है और उसे लगी मंदर के नाव 10 एकड़ खेती की जमीन। हम चाहत हैं की हमाए पुरखन के मंदर की पूजा पाठ आप संभालो।‘ ठाकुर साहब बड़ी अदब से बोले।

रामायण मन ही मन प्रसन्न होकर बोले ‘जा बताओं आप कौन क्षत्री  हो, पेले हमे मंदर भी दिखा देओ।‘

ठाकुर साहब बोले ‘हम ओरें बुंदेला हैं और महाराजा छत्रसाल ने जब बाँसा पे आक्रमण कर उते के जागीरदार केशव राव दाँगी को हराओ तब जा गाँव हम ओरन के पुरखन की बीरता के कारन बक्शीश में  दओ रहो।‘

रामायण पांडे ने मंदिर का मुआयना किया हामी भरी और लौट कर स्टेशन मास्टर गया प्रसाद चौबे को सारा हाल सुनाया और हिरदेपुर के मंदिर में  पुजारी का काम करने के कारण स्टेशन पर पानी पाण्डे के दायित्व से मुक्ति माँगी। चौबे जी भी खुश हुये। अब रामायण पांडे दो मंदिरों की पूजा करने लगे। 10 एकड़ जमीन से जो आमदनी होती उससे मंदिर का और घर ग्रहस्ती का खर्चा चल जाता। धीरे धीरे रामायण पांडे की ख्याति आसपास के गांवों में भी फैल गई, अच्छी दान दक्षिणा मिलने लगी, पंडिताइन के गले, हांथ  और पैरों में चांदी के आभूषण शोभित होने लगे और उनकी पंडिताई चल निकली। इसलिए भाइयो यह कहावत बहुत प्रचलित है  ‘गाँव को जोगी जोगड़ा आन गाँव कौ सिद्ध।‘

 

 ©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 24 – असहमत और पुलिस अंकल : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ  में असहमत के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)   

☆ कथा – कहानी # 24 – असहमत और पुलिस अंकल : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

पुलिस अंकल जॉनी जनार्दन का ट्रांसफर तो हुआ पर प्रमोशन पर. जाना तो था ही और गये भी पर पहचान वालों को ये भरोसा देकर गये कि चंद महीनों की बात है. बापू ने चाहा तो जुगाड़ लग ही जायेगा भले ही “बापू” बेहिसाब लग जायें. यह बात असहमत द्वारा इस कदर प्रचारित की गई कि टीवी चैनल वालों की ब्रेकिंग न्यूज़ भी शर्म से पानी पानी हो जाय और कम से कम उन तक तो जरूर पहुंचे जो असहमत की तैयार लिस्ट में चमक रहे थे. समय धीरे धीरे हर घाव भर देता है. वो जलवे जो टेंपरेरी रहते हैं और व्यक्ति को गुब्बारे के समान फुला देते हैं, धीरे धीरे अपनी सामान्य अवस्था में येन केन प्रकारेण ला ही देते हैं. असहमत की लिस्ट के चयनित लोग भी सब कुछ हर होली के साथ भूलते गये और उनके और असहमत के संबंध सामान्य होते गये पर फिर भी असहमत के दिल में पुराने जल्वों की कसक बनी रही. पुलिस अंकल का इंतजार होता रहा पर वो आये नहीं और जब आये भी तो जनार्दन अंकल के नये रंग में जो असहमत के मोहभंग के लिए पर्याप्त था. दरअसल ये नया रूप सेवानिवृत्ति के बाद का था जब व्यक्ति माया, मोह, लिप्सा, घमंड जैसी भौतिक सुविधाओं को छोड़कर आध्यात्मिक होने के बजाय छद्म कर्मकांड के पाखंड में उलझता है और धार्मिक होने का भाव और भ्रम पाल लेता है. आध्यात्मिकता की यात्रा, अध्ययन, विश्लेषण, विश्वास, प्रेम, सहभागिता, सरलता और विनम्रता के पड़ाव पार करती है. ये प्रकृत्ति और स्वभाव का बोध है जो जीवन में पल दर पल विकसित होता है, ये ऐसी अवस्था नहीं है जो रिटायरमेंट के बाद प्राप्त होती है. दूसरी स्थिति छद्मवेशी धर्म से जुड़े कर्मकांड की होती है. व्यक्ति अपने सेवाकाल में सरकारी खर्चों और उचित/अनुचित सुविधाओं का उपभोग कर विभिन्न तीर्थों की यात्राओं का आनंद लेता है और रिटायरमेंट के बाद, मोक्षप्राप्ति के शार्टकट “बाबाओं” की शरण लेता है.

आस्तिकता का आचरण अलग होता है, मोक्ष या पापों के प्रायश्चित की प्रक्रिया में शार्टकट नहीं होता. ये जिज्ञासु के धैर्य, समर्पण और आत्मशुद्धि की सतत जारी परीक्षा है, नफरत, अहंकार और असुरक्षा इसमें अवरोधक और पथभ्रष्टता का काम करते हैं. नफरत है मतलब प्रतिहिंसात्मक प्रवृत्तियों का पोषण हो रहा है.

घर बनाने की वह प्रक्रिया जब गृहनिर्माण के कीमत निर्धारण सहित सारे फैसले बिल्डर करता है और बदले में आपको पैसे के अलावा किसी बात की चिंता नहीं करने की लफ्फाजी करता है, ये घर पाने का शार्टकट है. इसी तरह का काम बहुत सारे धर्म गुरु भी करते हैं जो आपको, पाप मुक्ति, आत्मशुद्धि और मोक्षप्राप्ति के छलावे में उलझाते हैं और स्वयं, बिल्डर के समान संपन्नता और विलासिता का उपभोग करते हैं. जनसेवा का साइनबोर्ड दोनों जगह पाया जाता है और भयभीत कर शोषण का फार्मूला भी.

जनार्दन अंकल जब लौटे तो रंग नया था, रूप नया था. भौंहों के खिंचाव की जगह माथे के तिलक ने ले ली थी. शान का प्रतीक मूंछें वापस तरकश में जा चुकी थीं. जब इस बार सपने और योजनाओं के टूटने से दुखित असहमत ने बहुत धीरे से “नमस्ते अंकल” कहा तो प्रत्युत्तर में धुप्पल की जगह, “खुश रहो बच्चा” का खुशनुमा एहसास पाया. चाल ढाल बातचीत का लहज़ा, वेशभूषा सब बदल गया था. बातों के टॉपिक विभाग की खबरों और शहर के असामाजिक तत्वों की जगह, बाबाजी के गुणगान पर केंद्रित हो गये थे.

असहमत की जिज्ञासा और बोलने की निर्भीकता ने फिर जिस वार्तालाप को जन्म दिया वो प्रस्तुत है.

“जनार्दन अंकल, पहले जब आप से मिलता था तो आपकी शान से मुझमें भी साहस और निर्भयता का संचार होता था. पर अब तो आपका ये नया रूप मुझे भी यह अनुभव कराने लगा है कि मैं भी पापी हूँ.”

अंकल की भंवे, भृकुटि बनते बनते बचीं पर अट्टाहास की प्रवीणता का पूरा उपयोग करते हुये कहा “जब जागो तभी सबेरा. बाबाजी ने मुझे सारी चिंताओं से मुक्त कर दिया है. उनकी शरण में जाने से मैं निश्चिंत हूँ कि उनके पुण्य प्रताप से मुझे पापों से मुक्ति मिलेगी, मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होगा. उनके प्रवचनों से मुझे शांति मिलती है वह बिल्कुल वैसी है जो किसी दुर्दांत अपराधी को पकड़ने से मिलती थी. पहले मैं भी इन असामाजिक तत्वों से निपटते निपटते कठोर बन गया था. तर्क कुतर्क को डंडे से डील करता था पर कभी कभी मेरे वरिष्ठों या नेताओं के आदेश मुझे विचलित कर देते थे पर ली गई शपथ और अनुशासन के नाम पर बंध जाता था. अब तो मैं मुक्त हूँ, बाबाजी की शरण ही मेरी अंतरात्मा को शुद्ध करेगी और सन्मार्ग याने मोक्ष की प्राप्ति की ओर। ले जायेगी.”

असहमत ने फ्राड करने वाले बिल्डरों का उदाहरण देते हुये, डरते डरते फिर एक सवाल दाग ही दिया “अंकल, अगर ये बाबाजी भी फ्राड निकले तो क्या होगा?”

जनार्दन अंकल “साले की ऐसी तैसी कर दूंगा, पुलिस की नौकरी से रिटायर्ड हूँ पर अगर मुझे धोखा दिया तो वो ठुकाई होगी कि उसकी सात पुश्तें बाबागिरी का नाम नहीं लेंगी.”

असहमत का आखिरी सवाल, हमेशा की तरह बहुत खतरनाक था जिसका जवाब नहीं था.

“अंकल, बाबाजी तो वो प्रोडक्ट बेच रहे हैं जो उनके पास है ही नहीं.”

शायद इस सवाल के बाद, कुछ और लिखने की जरूरत नहीं है. समझने वाले समझ जायेंगे और नासमझ इस सवाल को ही या भी नज़रअंदाज़ करके आगे बढ़ जायेंगे..

 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 124 ☆ तू… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 124 ?

☆ तू… ☆

अशी कशी गं तू..

 

कधी  अशी कधी तशी….

अनाकलनीय वाटत  असतानाच–

समजतेस ,

बीजगणितासारखी,

सुटतेसही पटापट…..

आणि पैकी च्या पैकी मार्कस् मिळाल्याचा आनंद ही मिळवून देतेस……..  

तर कधी मेंदूत भुंगा सोडून देतेस…

अगदी रूक्ष होऊन सांगावंसं वाटतं तुला,

“बाई गं …पण हे सगळं तू मला का सांगते आहेस?”

 

तू आहेस  एक अस्वस्थ जीव…..

तुला काय हवंय हे तुलाच कळत नाही.

तुझं रडणं…तुझं चिडणं…

तुझं हे….तुझं ते….

 

मधेच जाणवतं तू समंजस झाल्याचं….

 

आज  अचानक  आठवली,

काॅलेज मधे  असताना वाचलेली…खांडेकरांची ययाती…

कधी तू देवयानी तर कधी शर्मिष्ठा…..

 

तपासून पहावं म्हटलं तर हाताशी

नसतात कुठलेही संदर्भ ग्रंथ……

आणि तू निसटतेस हातातून  पा-यासारखी…

 

बांधता येत नाही तुला शब्दात…

पण तू नायिका  असतेस……

एका  अद्भुत… गुढ  कादंबरी ची..

जिचा लेखक  अजून जन्माला यायचा  आहे…..

तो पर्यंत युगानुयुगे अशी च बेचैन… अस्वस्थ….कुठल्याही फ्रेममधे न बसणा-या…..

आकर्षक चित्रासारखी ……

तू अशी तू तशी तू कशी गं……

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक २० – भाग २ – कंबोडियातील अद्वितीय शिल्पवैभव ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २० – भाग २ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ कंबोडियातील अद्वितीय शिल्पवैभव ✈️

अंगकोर येथून आम्ही दा फ्रॉम इथे गेलो. दा फ्रॉम येथील शिल्पकाम राजा जयवर्मन सातवा याच्या काळात बाराव्या तेराव्या शतकात झाले. इथे त्याने आपल्या आईसाठी यज्ञगृह, ध्यानगृह उभारले होते. भगवान बुद्धाच्या आयुष्यातील विविध प्रसंग इथे कोरलेले आहेत. द्वारपाल, भूमी देवता, लायब्ररी, नृत्यालय, घोडेस्वारांची मिरवणूक, पुराणातील प्राणी असे सारे शिल्पकाम गाईडने दाखविल्यावरच आपल्याला दिसते. कारण महाप्रचंड वृक्षांनी आपल्या मगरमिठीमध्ये हे सारे शिल्पकाम जणू गिळून टाकले आहे. सावरीच्या ‌ कापसाची झाडे व एक प्रकारच्या अंजिराच्या जातीच्या झाडांनी या बांधकामातील  भेगा रुंद करीत आपली पाळेमुळे त्यात घुसवून या शिल्पांवर कब्जा केला आहे.अंजेलिना जोली या सुप्रसिद्ध अभिनेत्रीच्या ‘ टुम्ब रेडर’ (Tomb Raider) सिनेमाचे चित्रिकरण इथे झाले आहे. तेव्हापासून ती या जागेच्या प्रेमात पडली व तिने इथली एक मुलगी दत्तक घेतली आहे. तसेच इथले  एक गावही दत्तक घेतले आहे. सततच्या परकीय आक्रमणांमुळे तसेच स्वकीय क्रूरकर्मा, हुकुमशहा पॉल पॉट याच्या अत्याचारामुळे इथे फार मोठ्या प्रमाणावर अनाथ मुले आहेत. काही वेळा त्यांचा वाईट कामासाठी उपयोग केला जातो. या अनाथ मुलांना शिक्षण, निवारा देण्यासाठी जगातील अनेक संस्था कार्यरत आहेत. आम्ही गेलो त्या दिवशी आम्हाला ‘कंबोडियन ऑर्फन फॅमिली सेंटर ऑर्गनायझेशन’ या संस्थेतर्फे अनाथ मुलांचा पारंपारिक डान्स शो बघण्याचे आमंत्रण मिळाले होते. पण वेळेअभावी ते जमू शकले नाही.

बान्ते सराय या ठिकाणाचा शोध १९३६ साली लागला. गुलाबी सॅ॑डस्टोनमधील येथील शिल्पकाम अत्यंत सुबक, शोभिवंत आहे. मूर्तींभोवतीच्या महिरपींवरील नक्षी कमळे, पाने, फुले, फळे, पक्षी यांनी सुशोभित केली आहे. नंदीवर बसलेले उमा-महेश्वर, हिरण्यकश्यपूचा वध करणारा नृसिंह, इंद्राचा ऐरावत, सीता हरण, सुंद- उपसुंद यांची लढाई, भीम-दुर्योधन गदायुद्ध, शिवाचे तांडवनृत्य, सिंहरूपातील दैत्यावर नर्तन करणारी दुर्गा, शिवावर बाण मारणारा कामदेव, खांडववनाला लागलेल्या आगीवर पाऊस पाडणारा इंद्र, व त्या पावसाला अडविण्यासाठी अर्जुनाने उभारलेले बाणांचे छप्पर, कृष्णाने केलेला कंसवध, कुबेर,हंसावरील देवता अशा अनेक देखण्या शिल्पांनी सजलेले हे मंदिर इतर वास्तूंपेक्षा छोटे असले तरी  कलाकुसरीचा उत्कृष्ट नमुना आहे. माकड, गरुड, सिंह, अप्सरा, शंकराच्या मांडीवर बसलेली पार्वती, सज्जे, दरवाजांवरील छज्जे असे सारे सुंदर, उठावदार नक्षीकामाने, शिल्पकामाने इंच-इंच भरलेले आहे.युनेस्कोने जागतिक वारसा म्हणून जाहीर केलेल्या इथल्या शिल्पांचे संरक्षण, पुनर्बांधणी करण्यासाठी चीन, जपान, फ्रान्स असे अनेक देश मदत करीत आहेत. भारताच्या पुरातत्त्व खात्यातर्फे येथील दोन मंदिरात पुनर्निर्माणाचे काम करण्यात येत आहे. येथील अनेक मूर्ती चोरून विकण्यात आल्या आहेत तसेच पॉल पॉट याच्या कारकिर्दीत त्यांचा विध्वंसही करण्यात आला आहे.

कंबोडिया हा शेतीप्रधान देश आहे. मेकॉ॑ग रिव्हर चीनमध्ये उगम पावून तिबेट, लागोस, बँकॉक, कंबोडियामधून व्हिएतनाममध्ये जाते. व साऊथ चायना समुद्राला मिळते.सियाम रीप शहरामध्ये ‘तोनले साप लेक’ या नावाचा ६० किलोमीटर लांब, ३६ किलोमीटर रुंद व १२मीटर खोल असलेला दक्षिण आशियातील सर्वात मोठा गोड्या पाण्याचा तलाव आहे .यात उदंड मासे मिळतात. मेकाँग नदीच्या पुरामुळे आजूबाजूची जमीन सुपीक होते. भाताची तीन- तीन पिके घेतली जातात. भात व मासे निर्यात केले जातात. या खूप मोठ्या तलावामध्ये पाण्यावर बांधलेली घरं आहेत. तलावात बोटीने सफर करताना आपल्याला ही घरे, हॉस्पिटल, शाळा, दुकाने, बाजार, गाई-गुरे असे सारे तरंगणारे गावच दिसते. ८० हजार लोकांची वस्ती या तलावात आहे असे गाईडने सांगितले.

कंबोडियामध्ये ऊस, कापूस,  रबर यांचे उत्पादन होते.केळी,  नारळ, आंबे,फणस, अननस, चिक्कू अशी फळे होतात. आम्हाला नोव्हेंबर महिन्यात उत्तम चवीचे आंबे व फणसाचे गरे खायला मिळाले. झाडांवर आंबे व फणस लटकत होते. दोन हातात न मावणाऱ्या शहाळ्यातील मधुर पाणी व कोवळे खोबरे खाऊन पोट भरले.गाडीतून प्रवास करताना अनेक ठिकाणी रस्त्यावरील विक्रेते कणसासारखे काहीतरी भाजून देताना दिसले. त्यांच्याभोवती गर्दीही होती. एकदा गाडी थांबवून आम्हीही अशा एका विक्रेत्याकडे गेलो. गाईडने सांगितले की हा ‘बांबू राइस’ आहे. आम्ही याला ‘कलांग’ असे म्हणतो.कोवळ्या बांबूच्या पोकळ नळीत तांदुळ, पाणी, खोबरेल तेल व बीन्स घालतात. गवताने त्याचे तोंड बंद करून तो बांबू विटांच्या भट्टीत भाताचे तूस जाळून त्यावर भाजत ठेवतात. विक्रेत्याने तो बांबू कणसासारखा सोलून त्यात बांबूचाच चमचा घालून खायला दिला. तो गरम, थोडासा चिकट भात चविष्ट होता. एकदा तेथील जेवणात आम्हाला एक वेगळ्या प्रकारची करी दिली. फ्लॉवर, गाजर ,बिन्स, बटाटे वगैरे अगदी थोड्या तेलावर परतून त्यात  सौम्य मसाले घातले होते.  टेबलावर प्रत्येकाला कमळासारखे सोललेले शहाळे ठेवले होते. शहाळ्याच्या पाण्यात या परतलेल्या भाज्या घातल्या व शहाळ्यातील कोवळ्या खोबऱ्याचे बारीक तुकडेही त्यात घातले होते. अशी ही वेगळी चविष्ट, छान करी आम्हाला मिळाली. उसाचा सुमधुर ताजा रस मिळाला.  तिथे केक केळीच्या पानात किंवा नारळाच्या कोवळ्या पानात गुंडाळून देण्याची पद्धत आहे .बीन्स किंवा साबुदाणा वापरून बनविलेल्या गोड सुपामध्ये ताज्या फळांचे बारीक तुकडे घालतात.

कंबोडियाच्या उत्तर भागात डायमंड, रुबी, सफायर, चांदी व सोने मिळते. गल्फ ऑफ थायलंडमध्ये तेल मिळते. चांदीच्या भांड्यांवरील नक्षीकाम, लाखेवरील नक्षीकाम यासाठी कंबोडिया प्रसिद्ध आहे. छोट्या, स्वच्छ गावातून सायकलवरून शाळेत जाणारी मुले आम्हाला पाहून हात उंचावून आनंद व्यक्त करीत होती. जपान, बँकॉक इथून मोटरबाईक आयात करून त्याला मागे रिक्षासारखे वाहन जोडून प्रवाशांची वाहतूक करतात. पुराच्या भीतीमुळे बहुतांश घरे स्टील्टवर उभारलेली असतात .घरांवर लाल, गुलाबी रंगाची उतरती स्वच्छ छपरे होती.ठिकठिकाणच्या पॅगोडांवरील कौले सोनेरी, निळसर, व विटकरी रंगाची होती. फुटबॉल, सॉकर व खमेर युद्धकलेतून जन्मलेले किक बॉक्सिंग लोकप्रिय आहे. एका हॉटेलमध्ये जेवणासोबत अप्सरा नृत्य बघायला मिळाले. त्यातील तरुणांनी सोवळ्यासारखे काष्ट्याचे धोतर व शर्ट आणि तरुणींनी  नऊवारीसारखे  काष्टयाचे वस्त्र कमरेभोवती गुंडाळून वरती ब्लाउज घातले होते. अतिशय संथ हालचालींमध्ये, तालवाद्य व दक्षिण भारतीय संगीतासारख्या गाण्यावर वेगवेगळ्या  छोट्या कथा त्यांनी सादर केल्या.

कंबोडिया_ भाग २ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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