हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 97 ☆ नयी सोच के साथ-साथ… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  नयी सोच के साथ-साथ…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 97 ☆

☆ नयी सोच के साथ-साथ… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

बदलाव बहुत जरूरी होता है। मानव मन एक जैसी चीजों से बहुत जल्दी ऊबने लगता है। अब देखिए किस तरीके से कंप्यूटर, मोबाइल, आई फोन अपडेट हो रहे हैं। जिसका भी प्रयोग करो वही मैसेज देता हुआ मिल जाएगा स्वयं को बदलिए। सारे डिजिटल फॉर्म समय के साथ आगे बढ़ रहे हैं। बस सैटिंग करते बननी चाहिए। ये शब्द भी कितना उपयोगी है जन्म से लेकर मृत्यु तक सब कुछ सैटिंग्स के भरोसे ही चल रहा है। चलते रहो, रुको नहीं यही तो मूल मंत्र है तरक्की का। हम लोग चाँद से लेकर मंगल तक  की दूरी करते हुए निरंतर अपडेट हो रहे हैं। 

वक्त बहुत कीमती होता है, ये सभी जानते हैं। इसके बदलते ही न सिर्फ  लोगों के व्यवहार बदलते हैं, वरन स्वयं का भी व्यवहार बदल जाता है। जिसका समय अच्छा हुआ वहीं अहंकार  के चंगुल में फस कर दम तोड़ने लगता है और अपना रवैया दूसरों के प्रति सख्त कर देता है।

समय के साथ लोग अपनी पसंद बदलने लगते हैं, कारण साफ है; एक को ही महत्व देने से वो सिर पर चढ़ जाता है तथा इस बात का भी डर बना रहता है कि कहीं वही सब कुछ  लेकर चंपत न हो जाए सो अधिकारी वर्ग समय – समय पर अधीनस्थों को  उनकी सही जगह दिखाते रहते हैं।

खैर ये बात अलग है कि वक्त का तकाजा तो एक न एक  दिन सबका होगा तब  मूल्याँकन ईश्वर करेंगे। जिसकी सुनवाई कहीं नहीं होगी।

वस्तु वही रहती है केवल परिस्थिति हमारा नजरिया बदल देती है। जब आपको प्यास लगी हो तब कोई खाने को कितना भी अच्छा पदार्थ दे वो रुचिकर नहीं लगेगा। इसी तरह जब व्यक्ति भूखा हो तो उसे  कोई भी सत्संग नहीं भाता। कहने का अर्थ यह है कि आवश्यकता के अनुसार ही  वस्तु की उपयोगिता निर्धारित होती है।

हमारा दृष्टिकोण भी परिस्थिति जन्य  होता है। कई बार न चाहते हुए भी  समझौता आवश्यक होता है। अकर्मण्य लोगों के साथ रहने से कहीं बेहतर ऐसे लोगों का साथ होता है जो कुछ न कुछ करते हैं, भले ही जल्दबाजी और ज्यादा लाभ के चक्कर में कई ग़लतियाँ भी कर बैठते हों।

यदि कोई बार – बार प्रश्न पूछे तों उत्तर देते समय कभी विचलित न हों क्योंकि कठिन घड़ी में  ही  आपके सही उत्तरों  का मूल्याँकन होता है। अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक रखें। याद रखें प्रश्न व उत्तर का साथ चोली- दामन  के सरीखा होता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 107 ☆ गीतिका – कहाँ लौट फिर आते दिन ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं भावप्रवण गीतिका  “कहाँ लौट फिर आते दिन”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 107 ☆

☆ गीतिका – कहाँ लौट फिर आते दिन  ☆ 

सुख – दुख बीते हैं अनगिन

कहाँ लौट फिर आते दिन।।

 

उम्र बीत गई यूँ ही मित्रो

ताक धिना धिन – धिन- धिन – धिन।।

 

इच्छा और अपेक्षाओं ने

तोड़ दिया है अपना मन।।

 

अपनी धुन में रहे मस्त वह

सदा चुभाई उसने पिन।।

 

दुष्टों की कर सदा उपेक्षा

फिर ना मारेंगे ये फन।।

 

कौन है अपना कौन पराया

सबमें खिलता एक सुमन।।

 

बीता बचपन गई जवानी

उम्र बीत गई है पचपन।।

 

पेड़ लगा ले इस धरती पर

श्वासों का है यही चमन।।

 

जैसे पेड़ फलों से झुकता

मद में प्यारे कभी न तन।।

 

गर्मी लू से जब तप जाते

मन को भाते बरसें घन।।

 

अच्छा कर ले समय नहीं है

कब उड़ जाए पक्षी बन।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 154 ☆ व्यंग्य – सेवा का मेवा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  व्यंग्य सेवा का मेवा

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 154 ☆

? व्यंग्य – सेवा का मेवा ?

प्रभु मेरा अच्छा मित्र था. पढ़ने लिखने में ज्यादा होशियार न था पर था प्रतिभाशाली. कालेज के हर आयोजन में वह हिस्सेदारी करता था. भाषण प्रतियोगिता हो. या कालेज का कोई सेवा प्रकल्प हो. बाढ़ पीड़ितो की लिये मदद के लिये कालेज के युवाओ की  टोली बनाकर चंदा जुटाना हो. ठंड में वृद्धाश्रम के लिये ऊनी वस्त्र, कम्बल इत्यादि खरीदने से लेकर बांटने तक वह  मित्रो की टोली के साथ सदैव आगे रहता था. उसकी इस नेतृत्व क्षमता के चलते मोहल्ले के चौराहे पर  गणेशोत्सव. दुर्गोत्सव. होली के सार्वजनिक आयोजनो में धीरे धीरे स्वतः ही उसका वर्चस्व बनता गया. प्रभु जहां भी. जिस किसी आयोजन के लिये अपने दल बल के साथ. छपी हुई रसीद बुक के साथ चंदा लेने निकलता. वह आशा से अधिक ही धन एकत्रित कर लाता. चंदा देने वालो को कार्यक्रम में पधारने का निमंत्रण. आयोजन के बाद उन तक प्रसाद पहुंचाना. कार्यक्रम में चंदा देने वालो के परिवार से किसी सदस्य के आने पर उन्हें विशिष्ट महत्व देने की कला के चलते लोग उससे प्रसन्न रहते. अखबारो में कार्यक्रम की रिपोर्टिंग में भी दान दाताओ का नाम प्रमुखता से छपवा कर वह दान दाताओ का किंचित आभार व्यक्त करना न भूलता था. उसकी लोगों से संबंध बनाने की योग्यता असाधारण थी.कार्यक्रम के बाद बचे हुये चंदे से पार्टी करने से उसे जरा भी गुरेज न था. ऐसी पार्टियो में वह  मित्रों को भी बुलाया ही करता था. वह कहता यह सेवा की मेवा है. पढ़ने में वह एवरेज ही रहा होगा पर परीक्षा में येन केन प्रकारेण उसे ठीक ठाक नम्बर मिल ही जाते थे.

समय पंख लगाकर उड़ता गया. कालेज की शिक्षा पूरी कर सब अपनी अपनी जिंदगी की दौड़ में भाग लिये. किसी को कहीं नौकरी मिल गई तो किसी को कहीं. मित्रों के विवाह हो गये. जब तब दीपावली आदि त्यौहारो की छुट्टियों में मित्र कभी शहर लौटते तो जो पुराने साथी मिलते उनसे बाकी सबके हाल चाल पता होते. ऐसे ही कभी पता चला कि प्रभु की कहीं भी नौकरी नही लग सकी थी पर वह  शहर  छोड़कर जो गया तो कभी वापस ही नही लौटा. न ही किसी को कभी उसके विषय में कोई जानकारी मिल सकी कि वह कहां है क्या कर रहा है ?

समय की द्रुत गति हमें पछाड़ती रही. पुराने साथियो के मिलने पर किसकी कहां नौकरी लगी. कब कहां शादी हुई से  बदलती हुई बातो की विषय वस्तु किसके बच्चे कहां क्या कर रहे हैं ?  कौन, कब रिटायर होकर कहां बस रहा है तक आ पहुंची. फेसबुक से कई बिछुड़े साथियो को ढ़ूंढ़ निकाला गया. कालेज मेट्स के व्हाट्स अप ग्रुप बन गये.

सेवानिवृति के बाद टी वी देखने के चैनल्स बदल गये थे. फिल्मो की जगह अधिक समय आस्था और संस्कार चैनल्स के प्रवचनो में गुजरने लगा था. सेवा निवृति से एक साथ बड़ी राशि मिली. बच्चो की जबाबदारियां पूरी हो चुकी थीं. तो पत्नी ने सुझाया क्यो न कुछ पूंजी किसी सेवाश्रम को दान दी जाये. बात अच्छी लगी. टीवी पर दिखाये जा रहे प्रभुसेवा धाम का नाम. पता. बैंक खाता नम्बर नोट किया. दान राशि बैंक में जमा कर संतोष अनुभव किया. तीसरे ही दिन डाक से रसीद आ गई. साथ ही संस्थान की पत्रिका प्रभु कृपा और मिश्री के प्रसादम का पेकेट और कभी संस्थान का सेवाश्रम भ्रमण करने का प्रस्ताव भी था. मैं प्रभावित हुआ. फिर तो आये दिन किसी मधुर कण्ठी युवती का फोन आने लगा जो किसी न किसी प्रयोजन से और चंदा भेजने का आग्रह करती.

संयोगवश एक बार एक विवाह आयोजन के सिलसिले में उस महानगर जाना हुआ जहां प्रभुसेवा धाम था. सोचा चलो देख ही आयें. कि हमारे दान का किस तरह सदुपयोग हो रहा है. हमने मात्र एक फोन किया और  संस्थान की गाड़ी  बताये हुये समय पर हमें लेने हमारे होटल आ गई. एक सेवा दात्री युवा लड़की ने कार का दरवाजा खोल हमें बैठाया और सेवा गतिविधियो की जानकारी देती हुई हमें संस्थान तक ले आई. फिर एक अन्य सेविका हमें सेवाधाम में भर्ती मरीजो से मिलवाती हुई गुरु जी के केंद्रीय आश्रम ले आई. हम सपत्नीक प्रभावित थे और गुरूजी से मिलने के इंतजार में पंक्ति बद्ध थे.हमारानम्बर आया तो प्रभु श्री से हमारा साक्षात्कार हुआ. अरे तुम ! प्रभु श्री ने कहा. प्रभुश्री मेरे गले लग गये. उनके आस पास के सेवादार चौंके. मैं हतप्रभ हुआ. यह तो  वही कालेज वाला प्रभु है !

प्रभु मुझे अपने आवास पर ले गया जिसे वह कुटिया कह रहा था. उसने बताया कि जब कालेज से निकलने पर उसे नौकरी नही मिल सकी तो वह यहां राजधानी चला आया. और यह सेवा प्रकल्प प्रारंभ किया.सरकारी अनुदान योजनाओ का लाभ मिला और एक नेता जी व एक सेठ जी के सहयोग से इस जमीन पर यह आश्रम खड़ा किया. टैक्स की छूट के लिये बड़े लोग व कार्पोरेट जगत खूब दान देते हैं.  उस राशि को सुनियोजित तरीके सदुपयोग करके सेवा भी करता हूं और उसी में मेवा भी खाता हूं. एक ही बेटी है जिसकी शादी कर दी है और उसके लिये भी केटरेक्ट के हर आपरेशन पर शासकीय अनुदान  की योजना का लाभ उठाते हुये नैना सेवा चिकित्सालय खोल दिया है. ये संस्थान अनेको युवाओ को रोजगार दे रहे हैं. जन सेवा कर रहे हैं और लोगो की परमार्थ के लिये दान देने की भावना का उपयोग करते हुये शासकीय स्वास्थ्य योजनाओ में भी सहयोग कर रहे हैं. प्रभु से बिदा लेते हुये मेरे मुंह में उसकी सेवा की मेवा की मिश्री का प्रसादम था और मैं कुछ बोलने की स्थिति में नही था.   

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ बाल कविता: जयपुर बनारस परिन्दा एक्सप्रेस ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

 ☆ बाल कविता: जयपुर बनारस परिन्दा एक्सप्रेस☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

गौरैया, तू चलना काशी

तेरे बिन है वहाँ उदासी।

जयपुर में सब उड़ती रहती

जाने किच किच गा क्या कहती?

अशोक ने है डाल सजायी,

तुझे बुलाया, छाँह बिछायी।

मीठी नीम ने धुन सुनाई,

पत्तियों की पायल बजाई।

इस डाली से उस डाली पर

पंख चलाती फुदक फुदक कर।

गौरैया क्या करती दिनभर?

ले चल मम्मी पापा के घर।

बनारस में कोई नहीं है ?

रिश्ते नाते सभी यहीं हैं ?

खाती चुन चुन कर तू दाने

और परिन्दे हैं पहचाने ?

जयपुर छोड़ बनारस आ जा

दाना दादी देगी, खा जा।

चल वहाँ भी छत की मुड़ेड़ है

आँगन में तुलसी के पेड़ है।

किस बात पर हो गई कुट्टी ?

काशी चल, जयपुर से छुट्टी !

♣ ♣ ♣ 

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो:9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #107 – मोबाइल☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 107 – मोबाइल 

मराठी कविता ‘मोबाईल’ प्रत्येकाने एकदा तरी ऐकावी अशी कविता…. 

यूट्यूब लिंक वर क्लिक करा  👉 मोबाइल  

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#129 ☆ कविता – कितना चढ़ा उधार… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता “कितना चढ़ा उधार…”)

☆  तन्मय साहित्य  #129 ☆

☆ कविता – कितना चढ़ा उधार… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

एक अकेली नदी

उम्मीदें

इस पर टिकी हजार

नदी खुद होने लगी बीमार।

 

नहरों ने अधिकार समझ कर

आधा हिस्सा खींच लिया

स्वहित साधते उद्योगों ने

असीमित नीर उलीच लिया

दूर किनारे हुए

झाँकती रेत, बीच मँझधार।

नदी खुद…..

 

सूरज औ’ बादल ने मिलकर

सूझबूझ से भरी तिजोरी

प्यासे कंठ धरा अकुलाती

कृषकों को भी राहत कोरी

मुरझाती फसलें,

खेतों में पड़ने लगी दरार।

नदी खुद……

 

इतने हिस्से हुए नदी के

फिर भी जनहित में जिंदा है

उपकृत किए जा रही हमको

सचमुच ही हम शर्मिंदा हैं

कब उऋण होंगे

हम पर है कितना चढ़ा उधार

नदी खुद होने लगी बीमार।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 24 ☆ कविता – बुन्देली गीत – बसन्त आऔ ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक बुंदेली गीत  “बसन्त आऔ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 24 ✒️

?  कविता – बुन्देली गीत – बसन्त आऔ — डॉ. सलमा जमाल ?

बसन्त आओ बसन्त आओ,

भरकैं टुकनिया फूल लाऔ ।

खुसी मनातीं नई नवेली ,

परदेस सें संदेसो आऔ ।।

 

खेतन में है सरसों फूलो ,

अमराई पे डर गऔ झूलो ,

मंजरी चहूं दिशा मेहकाबे ,

कोयल ने पंचम सुर घोलो ,

बेला बखरी में है फूलो ,

धरती पे स्वर्ग उतर आऔ ।

बसन्त ———————- ।।

 

चारऊं ओर महकत है पवन ,

है सोभा मधुमास अनन्त ,

बखरी ओ वन में बगरो बसन्त ,

पल में महक उठे दिगदिगंत ,

सब रे पच्छी करत हैंकलरव,

गुनगुन करत जो भौंरा आऔ ।

बसन्त ———————- ।।

 

जंगल में फैली है खुसहाली ,

सुखी भऔ बगिया कौ माली,

धरा की सुन्दर छटा अनोखी ,

झूमत रस में डाली – डाली ,

लरका खेलत दै – दै ताली ,

‘सलमा ‘ पतझर खौ मौं चिढ़ाऔ।

बसन्त ———————- ।।

 

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 106 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 17 – झाँसी गरे की फाँसी, दतिया गरे को हार… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ कथा-कहानी # 106 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 17 – झाँसी गरे की फाँसी, दतिया गरे को हार… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

(कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए)

अथ श्री पाण्डे कथा (17)  

झाँसी गरे की फाँसी, दतिया गरे को हार।

ललितपुर कबहूँ न छोडिये जब लौ मिले उधार।।

इस बुन्देली लोकोक्ति के  शाब्दिक अर्थ का अंदाज तो पढने से ही लग जाता है। आप यह भी कह सकते हैं कि झांसी गले की फाँसी इसलिए है क्योंकि वहाँ के लोगो का स्वभाव गड़बड़ है और दतिया के लोग प्रेमी और मिलनसार है इसलिए यह कस्बा लोगों को उसी प्रकार प्रिय है जैसे गले में हार। हार का तात्पर्य नौलखा से ही है यह न मानियेगा कि शिव के गले का हार है। और ललितपुर के व्यापारियों के क्या कहने वे तो ग्राहकों को मनचाहा सामान उधार थमा देते हैं. इस लोकोक्ति से एक बात तो साफ़ है प्रेमी जनों  और मिलनसारिता की प्रसंशा युगों युगों से होतो आई है और अगर उधार सामान मिलता रहे तो ऐसे शहर में लोग न केवल बसना पसंद करते हैं वरन उसे छोड़कर जाना भी नहीं चाहते. दूसरी बात चार्वाक का सिद्धांत माननेवाले भले चाहे कम हों लेकिन कहावतों और लोकोक्तियों में भी “यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत” ने यथोचित स्थान बुंदेलखंड के पथरीले प्रदेश में बना ही लिया था। एक बात और बैंकिंग प्रणाली के तहत भारत में वैयक्तिक उद्देश्य जैसे ग्रह निर्माण ऋण, पर्सनल लोन आदि का चलन तो तो पिछले 20 वर्षों से बढ़ा है पर बुंदेलखंड में शायद यह सदियों पुराना है ।

इस बुन्देली लोकोक्ति को मैंने असंख्य बार असंख्य लोगों से सुना होगा। यह इतनी प्रसिद्ध व व्यापक है कि हिंदी के विख्यात कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी आत्मकथा के प्रथम खंड क्या भूलू क्या याद करूँ में इसका न केवल उल्लेख किया है वरन  झांसी गले की फाँसी है इसे सिद्ध करने आप बीती दो चार अप्रिय घटनाओं का वर्णन भी खूब  किया है, बच्चन जी दतिया गए नहीं, सो उन्होंने यह तो नहीं बताया कि दतिया गले का हार क्यों है पर ललितपुर में उधार खूब मिलता था इसका जिक्र उन्होंने अपनी इस आत्मकथा में पितामह की ललितपुर से प्रयाग वापिसी को याद कर जरूर किया है ।

यह लोकोक्ति अपने आप में ऐतिहासिक सन्दर्भों को समेटे हुए हैं। बुंदेलखंड का बड़ा भूभाग बुन्देला शासकों के आधीन रहा हैं। मुगलकालीन भारत में दतिया के बुंदेला राजा मुग़ल बादशाह के मनसबदार रहे हैं । दतिया के राजाओं की मुगल बादशाह के प्रति निष्ठा थी अतः दतिया पर बाहरी आक्रमण नहीं होते थे । दतिया के राजा  मुग़ल सेना के साथ युद्ध में जाते और विजयी होने पर इनाम इकराम से नवाजे जाते। युद्ध में वे अपने साथ क्षेत्रीय निवासियों को भी सैनिक के रूप में ले जाते, यह सैन्य बल प्राय निम्न वर्ग से आता और इस प्रकार निम्न वर्ग को अतिरिक्त आमदनी होती। राजा महाराजा अपने सैनिकों को लेकर मुग़ल सेना के साथ युद्ध में जाते और विजयी होने पर इनाम इकराम से नवाजे जाते ।युद्ध में कमाए इसी धन से वे अपनी रियासतों में महलों, मंदिरों, बावडियों, तालाबों आदि का निर्माण कराते । इसके फलस्वरूप दतिया जैसे छोटे कस्बेनुमा स्थानों में लुहार, बढई, कारीगार आदि आ बसे होंगे और उनकी आमदनी से व्यापार आदि फैला होगा और यही दतिया की खुशहाली का कारण बन दतिया गरे का हार लोकोक्ति की उत्पति का कारण बन गया होगा।

दतिया के उलट ललितपुर तो पथरीला क्षेत्र है फिर वह नगर आकर्षक व प्रिय क्यों है ।शायद बंजर जमीन जहाँ साल में एक फसल हो और वनाच्छादित होने के कारण स्थानीय निवासियों की आमदनी साल में एक बार ही होने के कारण व्यापारियों ने अपना माल बेचने की गरज से उधार लेनदेन की परम्परा को पुष्ट किया होगा। उधार देने और उसकी वसूली में निपुण जैन समाज के लोग बुंदेलखंड में खूब बसे और फले फूले  और इस प्रकार “ललितपुर कबहूँ न छोडिये जब लौ मिले उधार” लोकोक्ती बन गई।

पर झाँसी गरे की फाँसी कैसे हो गई और अगर सचमुच झाँसी के लोग इतने बिगडैल स्वभाव के हैं तो इस शहर का तो नाम ही ख़त्म हो जाना था। शायद 1732 के आसपास मराठों का बुंदेलखंड में प्रवेश हुआ और झाँसी का क्षेत्र पन्ना नरेश छत्रसाल के द्वारा बाजीराव पेशवा को दे दिया गया । मराठे चौथ वसूली में बड़ी कड़ाई करते थे और झांसी के आसपास के रजवाड़ों में भी आम जनता को परेशान करते तो शायद इसी से झांसी गरे की फाँसी लोकोक्ती निकली होगी।प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की समाप्ति के बाद अंग्रेजों ने झाँसी में अपना अधिकारी नियुक्त किया। उस समय झाँसी एक लुटा पिटा वेचिराग शहर था। जनरल रोज ने जो क़त्ल-ए-आम किया था, उसमें हजारों लोग मारे गए थे। जो लोग किसी तरह बच गए, उन्होंने दतिया में शरण ले ली थी। वो इतने डरे हुए थे कि झांसी का नाम सुनते ही काँप जाते थे। जब कभी उनके सामने झांसी का जिक्र आता तो वे बस यही कहते “झांसी गले की फांसी, दतिया गले का हार”। जब अंग्रेजों से झांसी का राज्य नहीं सम्भला तो उन्होंने उसे सिंधिया को सौंप दिया। सिंधिया ने झांसी को फिर से बसाने में बड़ी मेहनत की। उसने लोगों का विश्वास जीतने के लिए अनेकों जनहित के कार्य किये, तब कहीं धीरे-धीरे लोगों का विश्वास सिंधिया पर हुआ और वे झांसी में बसने लगे और झासी में रौनक लौटने लगी। स्थिति के सामान्य होते ही अंग्रेजों की नियत पलट गई और उन्होंने सिंधिया पर झांसी को वापिस करने का दबाव डालना शुरू कर दिया। अंत में अंग्रेजों की दोस्ती और सद्भावना के नाम पर सिंधिया ने झांसी का राज्य अंग्रेजों को दे दिया, इसके बदले सिंधिया को ग्वालियर का किला वापिस मिला।

इन सब घटनाओं ने इस लोकोक्ति को जन्म दिया। जो कुछ भी कहानी हो बुंदेलखंड के लोग अपने अपने क्षेत्र गाँव कस्बे की तारीफ़ ऐसी ही कहावतों से करते हैं और अन्य कस्बों के लोगों का मजा लेते हैं।

क्रमश:…

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 29 – स्वर्ण पदक – भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।)   

☆ कथा कहानी # 29 – स्वर्ण पदक 🥇 – भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

स्वर्ण कांत के सफलता के इन सोपानों के बीच जहां उनकी राजधानी एक्सप्रेस अपने नाम के अनुसार आगे बढ़ रही थी, वहीं रजतकांत की शताब्दी सुपरफॉस्ट ट्रेन अलग रूट पर दौड़ रही थी, यहाँ आगे आगे भागतीे हॉकी की बाल पर कब्जा कर अपनी कुशल ड्रिबलिंग से आगे बढ़ते हुये रजतकांत स्नातक की डिग्री के बल पर नहीं बल्कि हॉकी पर अपनी मजबूत पकड़ के चलते इंडियन रेल्वे में स्पोर्ट्स कोटे में सिलेक्ट हो गये थे और फिर बहुत जल्दी रेल्वे की हॉकी टीम के कैप्टन बन चुके थे.

जैसे जैसे उनके खेल और कप्तानी में तरक्की होती गई, रेल्वे से मिलने वाली सुविधा और प्रमोशन में भी वृद्धि होती गई.हॉकी की टीम इंडिया में भी वे स्थायी सदस्य बन गये और हॉकी ने क्रिकेट के मुकाबले लोकप्रियता कम होने के बावजूद उन्हें राष्ट्रीय स्तर का सितारा बना दिया.

हाकी इंडिया नेशनल चैम्पियनशिप का आयोजन इस बार संयोग से विशालनगर में ही आयोजित होना निश्चित हुआ जहां स्वर्णकांत पदस्थ थे. रजत जहां भाई से मिलने का अवसर पाकर खुश थे वहीं स्वर्ण कांत न केवल बैंक की समस्याओं में उलझे थे बल्कि शाखा स्टॉफ से तालमेल न होने से भी परेशान थे. स्टॉफ उन्हें “स्वयंकांत” के नाम से जानने लगा था क्योंकि हर उपलब्धि सिर्फ स्वयं के कारण हुई मानकर वे इसे अपने नाम करने की प्रवृति से पूर्णतः संक्रमित हो चुके थे और non achievements के कई कारण, उन्होंने अपनी समझ से अपने नियंत्रक को समझाना चाहा जिसमें lack of sincerity and devotion by staff भी एक कारण था. पर नियंत्रक समझदार, परिपक्व और शाखा की उपलब्धियों के इतिहास से वाकिफ थे. उन्होंने स्वर्णकांत को कुशल प्रबंधकीय शैली में अच्छी तरह से समझा दिया था कि जो और जैसा स्टॉफ ब्रांच में मौजूद है, वही पिछले टीमलीडर के साथ मिलकर, झंडे गाड़ रहा था. Previous incumbent has tuned this branch so smoothly to attain the goal that industrial relations of this branch have become an example to tell others. पर ये सारी टर्मिनालॉजी और प्रवचन, स्वयंकांत प्रशिक्षण के दौरान सुनने के बाद विस्मृत कर चुके थे और संयोगवश अभी तक इनकी जरूरत भी नहीं पड़ी थी.

पराक्रम कथा जारी रहेगी.   क्रमशः …

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 129 ☆ गझल… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 129 ?

☆ गझल… ☆

शुद्ध पाण्या सोबतीही गाळ आला होता

चांगल्या मित्रा,तुझ्यावर आळ आला होता

 

चालताना थांबले मी त्या तिथे एकांती

ओळखीचा तो सुरंगी माळ आला होता

 

सातबारा दावला मी शेत होते माझे

बांगड्या भरण्यास की वैराळ आला होता

 

मर्द माझ्या मावळ्यांचे भाट गाती गाणे

झुंजले शर्थीत तेव्हा काळ आला होता

 

चौकटी मोडाच सा-या या ठिकाणी येण्या

विसरुनी जाऊ इथे चांडाळ आला होता

© प्रभा सोनवणे

२२ एप्रिल २०२२

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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