हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #136 ☆ संपन्नता मन की ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख संपन्नता मन की । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 136 ☆

☆ संपन्नता मन की

संपन्नता मन की अच्छी होती है; धन की नहीं, क्योंकि धन की संपन्नता अहंकार देती है और मन की संपन्नता संस्कार प्रदान करती है। शायद इसलिए ही धनी लोगों में अहंनिष्ठता के कारण ही मानवता नहीं होती। वे केवल हृदय से ही निर्मम नहीं होते; उनमें औचित्य-अनौचित्य व अच्छे-बुरे की परख भी नहीं होती। वे न तो दूसरों की भावनाओं को समझते हैं; न ही उन्हें सम्मान देना चाहते हैं। सो! वे उन्हें हेय समझ उनकी उपेक्षा करते हैं और हर पल नीचा दिखाने में प्रयासरत रहते हैं। इसलिए दैवीय गुणों से संपन्न व्यक्ति को ही जग में ही नहीं; जन-मानस में भी मान-सम्मान मिलता है। लोग उससे प्रेम करते हैं और उसके मुख से नि:सृत वाणी को सुनना पसंद करते हैं, क्योंकि वह जो भी कहता व करता है; नि:स्वार्थ भाव से करता है तथा उसकी कथनी व करनी में अंतर नहीं होता। वे भगवद्गीता के निष्काम कर्म में विश्वास करते हैं। जिस प्रकार वृक्ष अपना फल नहीं खाते; पथिक को छाया व सबको फूल-फल देते हैं। बादल भी बरस कर प्यासी धरती माँ की प्यास बुझाते हैं और अपना जल तक भी ग्रहण नहीं करते। इसलिए मानव को भी परहिताय व निष्काम कर्म करने चाहिए। ‘अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी, ऐ दिल ज़माने के लिए’ से भी यही परोपकार का भाव प्रकट होता है। मुझे स्मरण हो रहा है एक प्रसंग– जब मीरा जी मस्ती में भजन कर रही थी, तो वहां उपस्थित एक संगीतज्ञ ने उससे राग के ग़लत प्रयोग की बात कही। इस पर उसने उत्तर दिया कि वह अनुराग से कृष्ण के लिए गाती है;  दुनिया के लिए नहीं। इसलिए उसे राग की परवाह नहीं है।

‘ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या’ ब्रह्म ही केवल सत्य है। उसके सिवाय इस संसार में सब मिथ्या है, परंतु माया के कारण ही वह सत्य भासता है। शरतचंद्र जी का यह कथन कि ‘मित्रता का स्थान यदि कहीं है, तो वह मनुष्य के मन को छोड़कर कहीं नहीं है’ से स्पष्ट होता है कि मानव ही मानवता का सत्पात्र होता है। परंतु उसके मन की थाह पाना आसान नहीं। उसके मन में कुछ और होता है और ज़ुबाँ पर कुछ और होता है। मन चंचल है, गतिशील है और वह पल भर में तीनों लोगों की यात्रा कर लौट आता है।

‘वैसे आजकल इंसान मुखौटा धारण कर रहता है। उस पर विश्वास करना स्वयं से विश्वासघात करना है।’ दूसरे शब्दों में मन से अधिक छल कोई भी नहीं कर सकता। इसलिए कहा जाता है कि यदि गिरगिट की तरह रंग बदलने वाला कोई है, तो वह इंसान ही है। यही कारण है कि आजकल गिरगिट भी इंसान के सम्मुख शर्मिंदा है, क्योंकि वह उसे पछाड़ आगे निकल गया है। यही दशा साँप की है। काटना उसका स्वभाव है, परंतु वह अपनी जाति के लोगों को पर वार नहीं करता। परंतु मानव तो दूसरे मानव पर जानबूझ कर प्रहार करता है और प्रतिस्पर्द्धा में उसे पछाड़ आगे बढ़ जाना चाहता है। इस स्थिति में वह किसी के प्राण लेने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करता। दुष्टता में इंसान सबसे आगे रहता है, क्योंकि वह मन के हाथों की कठपुतली है। अहंनिष्ठ मानव की सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है और उसे सावन के अंधे की भांति केवल हरा ही हरा दिखाई देता है। वह अपने परिवार के इतर कुछ सोचता ही नहीं और स्वार्थ हित कुछ भी कर गुज़रता है। मानव का दुर्भाग्य है कि वह आजीवन यह नहीं समझ पाता कि उसे सब कुछ यहीं छोड़ कर जाना है। मेरी स्वरचित पंक्तियाँ ‘यह किराए का मकाँ है/ कौन कब तक ठहर  पाएगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे!/खाली हाथ तू जाएगा’ इसी तथ्य को उजागर करती हैं। काश! इंसान उक्त तथ्य को आत्मसात् कर पाता तो  संसार में धर्म, जात-पाति व अमीर-गरीब आदि के झगड़े न होते और न ही किसी प्रकार का पारस्परिक वैमनस्य, भय व आशंका मन में उपजती।

‘काश! जीवन परिंदो जैसा होता/ सारा जग अपना आशियां होता।’ यदि मानव के हृदय में संकीर्णता का भाव नहीं होता, तो वे भी अपनी इच्छानुसार संसार में कहीं भी अपना नीड़ बनाते । सो! हमें भी अपनी संतान पर अंकुश न लगाकर उन्हें शुभ संस्कारों से पल्लवित करना चाहिए, ताकि उनका सर्वांगीण विकास हो सके। वे कर्त्तव्यनिष्ठ हों और उनके हृदय में प्रभु के प्रति आस्था, बड़ों के प्रति सम्मान भाव व छोटों के प्रति स्नेह व क्षमा भाव व्याप्त हो। पति-पत्नी में सौहार्द व समर्पण भाव हो और परिजनों में अजनबीपन का एहसास न हो। हमें यह ज्ञान हो कि कर्त्तव्य व अधिकार अन्योन्याश्रित हैं। इसलिए हमें दूसरों के अधिकारों के प्रति सजग रहना आवश्यक है। हमें समाज में सामंजस्य अथवा सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की स्थापना हेतू सत्य को शांत भाव से स्वीकारना होगा तथा झूठ व मिथ्या को त्यागना होगा। सत्य अटल व शिव है, कल्याणकारी है, जो सदैव सुंदर व मनभावन होता है, जिसे सब धारण करना चाहते हैं। जब हमारे मन में आत्म-संतोष, दूसरों के प्रति सम्मान व श्रद्धा भाव होगा, तभी जीवन में समन्वय होगा। इसलिए इच्छाओं पर अंकुश लगाना आवश्यक है, क्योंकि आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं; इच्छाएं नहीं। यदि हमारे कर्म यथोचित होंगे, तभी हमारी इच्छाओं की पूर्ति संभव है।

जीवन में संयम का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। जो व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि पर अंकुश नहीं रख पाता, तो उससे संयम की अपेक्षा करना निराधार है; मात्र कपोल-कल्पना है। महात्मा बुद्ध की यह सोच अत्यंत श्लाघनीय है कि ‘यदि कोई आपका अनादर कर रहा है, तो शांति स्थापित होने तक आपको उस स्थान को नहीं छोड़ना चाहिए।’ सो! आत्म-संयम हेतू वाणी पर नियंत्रण पाना सर्वश्रेष्ठ व सशक्त साधन है। वाणी माधुर्य से मानव पलभर में शत्रु को मित्र बना सकता है और कर्कश व कटु शब्दों का प्रयोग उसे आजीवन शत्रुता में परिवर्तित करने में सक्षम है। यह शब्द ही महाभारत जैसे बड़े-बड़े युद्धों का कारण बनते हैं। 

हर वस्तु की अधिकता हानिकारक होती है,भले वह चीनी हो व अधिक लाड़-प्यार हो। इसलिए मानव को संयम से व्यवहार करने व अनुशासन में रहने का संदेश दिया गया है। ‘आप दूसरों से वैसा व्यवहार कीजिए, जिसकी आप उनसे अपेक्षा करते हैं, क्योंकि जीवन में वही लौट कर आपके पास आता है’ में दिव्य अनुकरणीय संदेश निहित है। इसलिए बच्चों को शास्त्र ज्ञान, परमात्म तत्व में आस्था व बुज़ुर्गों के प्रति श्रद्धा भाव संजोने की सीख देनी चाहिए। बच्चे अपने माता-व गुरुजनों का अनुकरण करते हैं तथा जैसा वे देखते हैं, वैसा ही व्यवहार करते हैं। इसलिए हमें फूंक-फूंक कर कदम रखने चाहिए, ताकि हमारे कदम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर न हों और हमें किसी के सम्मुख नीचा न देखना पड़े। हमें मन का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए, क्योंकि जहाँ वह हमारा पथ-प्रशस्त करता है, वहीं भटकन की स्थिति उत्पन्न करने में भी समर्थ है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #135 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 135 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

गैया बछिया संग में, बैठे बाल गुपाल।

बंसी मधुर बजा रहे, नाच रहे हैं ग्वाल ।।

 

झांकी सुंदर लग रही,कृष्ण मुरारी श्याम।

प्यार करें मन मोहना, श्यामा मेरा नाम।।

 

धुन बंसी की सुन रहे,ग्वाल बाल है साथ।

मधुर मधुर मोहक बजे,लिए मुरलिया हाथ।।

 

दृश्य कैसा सुहावना, नदी बह रही शांत।

हरियाली सुंदर लगे,मोहित होता प्रांत।।

 

बहती पावन है नदी,दृश्य बड़ा है खास।

कृष्ण निहारे प्यार से,सदा नेह की आस।।

 

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #124 ☆ एक पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं   “एक पूर्णिका… । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 124 ☆

☆ एक पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा ☆

कैसे अब  हम  प्यार   लिखें

कैसे  दिल    बेकरार   लिखें

 

प्रश्न  उठाते   जो  नियत  पर

कैसे   उन्हें   सत्कार    लिखें

 

गल  रहा उल्फत  का कागज

अब  कैसे  हम  श्रृंगार   लिखें

 

लिखता   रहा   खतायें    मेरी

उस  पर  क्या अशआर  लिखें

 

है “संतोष” अहसास का रिश्ता

कैसे   आखिर   इंकार    लिखें

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #128 – पैलतीरी… ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 129 – विजय साहित्य ?

☆ पैलतीरी… ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

पैलतीरी विठू 

कळे कर्मातून

वळे शब्दातून, 

पदोपदी. . . !

 

पैलतीरी भक्ती

काळजाची छाया

जपतोय माया, 

उराउरी. . . !

 

पैलतीरी भाव

नात्यांचे गणित

हातचे राखून,

सोडवितो. . . . !

 

पैलतीरी मोक्ष

संवादाचा नाद

टाळातोच वाद,

 अनाठायी. . . !

 

पैलतीरी संत

अनुभवी धडा

चुकांचाच पाढा,

वाचू नये. . . . !

 

पैलतीरी वारी

पिढ्यांचे संचित

होई संस्कारित, 

कृतीतून. . . . !

 

पैलतीरी मेळा

नाते भावनांचे

जाते वेदनांचे, 

भारवाही .. . . . !

 

पैलतीरी छंद

यशोकिर्ती ध्यास

कर्तव्याची  आस, 

लागलेली. . . . !

 

पैलतीरी हरी

सदा सालंकृत

शब्द  आलंकृत ,

 काव्यामाजी . . . !

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 103 ☆ भावना में संभावनाओं का खेल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “भावना में संभावनाओं का खेल”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 103 ☆

☆ भावना में संभावनाओं का खेल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

कहते हैं मन पर विजय प्राप्त हो जाए तो सब कुछ अपने वश में किया जा सकता है। पर क्या किया जाए यही तो चंचल बन मारा- मारा फिर रहा है। समस्या कितनी भी बड़ी क्यों न हो वो अपने साथ समाधान लेकर चलती है। आज नहीं तो कल व्यक्ति लक्ष्य को हासिल कर ही लेगा बस ध्यान में ये रखना होगा कि हमें सकारात्मक चिंतन करते हुए सबको एक सूत्र में जोड़ते हुए चलना है।

ये सही है कि रहिमन इस संसार में भाँति- भाँति के लोग किन्तु हमें अपनी मंजिल को पाना ही होगा। भावनाओं का महत्व अपनी जगह सही है लेकिन हर जगह इसकी उपस्थित खटकती है। हमको मिलकर आगे बढ़ना होगा। कटीले तारों की बाड़ी बनाकर खेतों की रक्षा की जाती है परन्तु पैदावार बढ़ाने हेतु खाद का सहारा लेना पड़ता है। जीवन के निर्णय भी इन कार्यों से अछूते नहीं हैं। समय- समय पर परीक्षा देनी होती है। एक तरह कुँआ तो दूसरी ओर खाई ऐसे में कुशल खिलाड़ी तेजी दौड़ते हुए कुछ कदम पीछे की ओर करता है फिर पूरे मन से जोर लगाते हुए लक्ष्य की ओर पहुँच जाता है।

ऐसा ही होना चाहिए। कुछ करो या मरो जैसा जज़्बा रखने वालों को मंजिल मिलती है। अनावश्यक मोबाइल पर रोजगार सर्च करने में समय लगाने से बेहतर है किसी स्किल पर कार्य करें।

सफल व्यक्ति कार्य करते नहीं है वे तो टीम  बनाते हैं जो उनके लिए कार्य करती रहती है। टीम को मोटिवेट व विल्डअप करते हुए टीम लीडर स्वयं की पहचान बनाने लगता है। लगातार किसी कार्य को करते रहें अवश्य ही विजयी भवः का आशीर्वाद प्रकृति देने लगती है।

संख्या बल की उपयोगिता को समझते हुए समय- समय पर समझौते भी करने पड़ते हैं क्योंकि समय पर जब सचेत नहीं होंगे तो थोड़े -थोड़े लोग आपस में जुड़कर लकड़ी का गट्ठा बना लेंगे जो एकता और शक्ति दोनों के बलबूते पर बिना दिमाग़ के कार्यों की ओर भी प्रवत्त हो सकता है।समय रखते अच्छे विचारों को एक प्लेटफॉर्म पर सच्चाई व सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा हेतु आगे आना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, chhayasaxena2508@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 163 ☆ व्यंग्य – कांच के शो रूम में शो ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय व्यंग्य – कांच के शो रूम में शो।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 163 ☆

☆ व्यंग्य – कांच के शो रूम में शो ☆

राम भरोसे बड़ा प्रसन्न था। कारण जानना चाहा, तो पता चला कि उसे सूचना का अधिकार मिल गया है। अर्थात् अब सब कुछ पारदर्शी है। यूं तो ’इस हमाम में हम सब नंगे है’, पर अब जो नंगे न हों, उन्हे नंगे करने का हक भी हम सब के पास है।  वैसे झीना-पारदर्शीपन, कुछ कुछ सेक्स अपील से संबंधित प्रतीत होता है, पर यह पारदर्शीता उस तरह की नहीं है। सरकारी पारदर्शिता के सूचना के अधिकार के मायने ये हैं, कि कौन क्या कर रहा है, क्यों कर रहा है, कैसे कर रहा है? यह सब, सबके सामने उजागर होना चाहिये। मतलब ये नहीं कि कोई तो ’राम भरोसे’ हो, और कोई ’सुखी राम’ बन जाये। कोई ’रामसिंग’ हो और कोई ’दुखीराम।’ कोई ’राम लाल’ तो और कोई कालू राम बनकर रह जावे- जब सब राम के बंदे हैं, तो सबको बराबर के अधिकार हैं। सबकों पता होना चाहिये कि उनके वोट से चुनी गई सरकार, उन्हीं के बटोरे गये टैक्स से उनके लिये क्या काला-सफेद कर रही है। सीधे शब्दों में अब सब कांच के घरों में बैठे हैं। वैसे इसका भावार्थ यह भी है कि अब कोई किसी पर पत्थर न उछाले। मजे से कांच की दीवारों पर रेशमी पर्दे डालकर ए.सी. की ठंडी बयार में अफसर बियर पियें, नेता चाहें तो खादी के पर्दे डाल कर व्हिस्की का सेवन कर सकते हैं। रामभरासे को सूचना का अधिकार मिल गया है। जब उसे संदेह होगा कि कांच के वाताकूलित चैम्बर्स तक उसकी आवाज नहीं पहुंच पा रही है, तो यथा आवश्यकता वह, पूरे विधि विधान से अर्जी लगाकर परदे के भीतर का आँखों देखा हाल जानने का आवेदन लगा सकेगा। और तब, यदि गाहे बगाहे उसे कुछ सच-वच जैसा, मालूम भी हो गया, तो कृष्ण के अनुयायी माखन खाने से मना कर सकते हैं। यदि  टी.वी. चैनल पर सरासर कोई फिल्म प्रसारित भी हो जावे, तो उसे फर्जी बताकर, अपनी बेकसूरी सिद्ध करते हुये, एक बार पुनः लकड़ी की कढ़ाई चूल्हे पर चढ़ाने का प्रयास जारी रखा ही जा सकता है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘गलती से मिस्टेक (हास्य-व्यंग्य कविताएं)’ – प्रदीप गुप्ता ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है प्रदीप गुप्ता जी  की पुस्तक  “गलती से मिस्टेक (हास्य-व्यंग्य कविताएं)” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘गलती से मिस्टेक (हास्य-व्यंग्य कविताएं)’ – प्रदीप गुप्ता ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

पुस्तक: गलती से मिस्टेक

रचनाकार: प्रदीप गुप्ता 

प्रकाशक: निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 37 शिवराम कृपा, विष्णु कॉलोनी, शाहगंज आगरा-20 उत्तर प्रदेश  मो 94580 09531

समीक्षक : ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

किसी के पास हंसने-हंसाने व गुदगुदाने का समय नहीं है – ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

आज के जमाने में जब जिंदगी रफ्तार से दौड़ रही है किसी के पास हंसने-हंसाने व गुदगुदाने का समय नहीं है। आज की व्यस्तम जिंदगी में हास्य व्यंग्य की रचनाएं भी कम लिखी जा रही है। ऐसे समय में ‘गलती से मिस्टेक’ हास्य व्यंग्य की कविताओं का संग्रह का प्रकाशित होना ठीक वैसा ही है जैसे तपती दोपहर में वर्षा की ठंडी फुहार या हवा का चलना। जिससे हमें बहुत ही राहत मिलती है।

गलती से मिस्टेक के रचनाकार प्रदीप गुप्ता की यह तीसरी पुस्तक है। जिसका विमोचन अंतरराष्ट्रीय पत्र लेखन मुहिम के सम्मान समारोह में पिछले दिनों सवाई माधोपुर में हुआ था। 

आकर्षित शीर्षक वाली इस पुस्तक- गलती से मिस्टेक, में रचनाकार ने समाज में व्याप्त अव्यवस्था, विसंगतियों, विडंबनाओं, पाखंड, राजनीति आदि पर अपनी कविता के माध्यम से तीखा प्रहार करने की कोशिश की है। रचनाओं में अतिरंजना, विविधता, बिम्ब, व्यंग्य, हास्य आदि के द्वारा कटाक्ष को उभारने की सफल कोशिश की है।

कभी-कभी हम जो बातें सीधे ढंग से व्यक्त नहीं कर पाते हैं उसे हास्य और व्यंग्य द्वारा मारक ढंग से व्यक्त कर देते हैं। इसी को मद्देनजर रखते हुए रचनाकार ने व्यक्ति, जीव, जानवर, भाव, विभाव, परिस्थिति,  स्थितियों, बंद, व्यवस्था, सामाजिक रीतिरिवाज, कार्य-व्यवहार, रीति’नीति आदि पर धारदार व्यंग्य व हास्य कविताएं प्रस्तुत की हैं।

मुझको लगता है कि अब तो बेचारी 

पढ़ाई भी खुद ही शरमा जाएगी।

क्योंकि नेतागिरी भी अब

कॉलेज में पढ़ाई जाएगी।।

गुंडागर्दी, झूठ, बेईमानी और 

गिरगिट की तरह रंग बदलने की कला 

भी वही सिखाई जाएगी ।।

जैसे व्यंग्य व हास्य कविताएं इस संकलन में आकर्षक साज-सज्जा से युक्त सफेद कागज पर त्रुटिरहित मुद्रण के साथ प्रकाशित की गई हैं। कवि की अपनी कविताओं पर अच्छी पकड़ है। वे हास्य-व्यंग्य की रचनाओं को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं।एक सौ पांच पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य ₹150 वाजिब है। इस पुस्तक का हास्य-व्यंग्य की दुनिया में भरपूर स्वागत किया जाएगा। ऐसा विश्वास है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

31-03-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – opkshatriya@gmail.com

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 113 ☆ विश्व पर्यावरण दिवस विशेष – मैं रोज ही पृथ्वी दिवस मनाता हूँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 113 ☆

☆ विश्व पर्यावरण दिवस विशेष – मैं रोज ही पृथ्वी दिवस मनाता हूँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

मैं रोज ही पृथ्वी दिवस मनाता हूँ

मुझे मिलते हैं षटरस

नए पौधे रोपने से

सींचने से

उन्हें बढ़ता हुआ देखकर

हँसता हूँ, मुस्कराता हूँ

मैं घर की छत पर भी पौधे लगाता हूँ

और पार्कों आदि में भी

बाँटता हूँ उन्हें

जो पृथ्वी से करते हैं प्यार

मैं रोपता हूँ नन्हे बीज

बनाता हूँ पौध

पृथ्वी सजाने सँवारने के लिए

पर विज्ञापन नहीं देता अखबारों में

मैं कई तरह के बीजों को

डाल देता हूँ

रेल की पटरियों के किनारे

ताकि कोई बीज बनकर

हरियाली कर सके

मेरे घर के पास भी

साक्ष्य के लिए उगे हैं

बहुत सारे अरंडी के पौधे

जो हरियाली करते हैं

हर मौसम में

 

मेरे यहाँ आते हैं नित्य ही

सैकड़ों गौरैयाँ, बुलबुल, कौए, फाख्ता, कबूतर,

तोते, नन्ही चिड़िया, बन्दर और गिलहरियां आदि

पक्षियों के कई हैं घोंसले

मेरे घर में

गौरैयाँ तो देती रहती हैं

ऋतुनुसार बच्चे

चींचीं करते स्वर और माँ का चोंच से दाना खिलाना

देता है बहुत सुकून

मेरा घर रहता है पूरे दिन गुलजार

सोचता हूँ मैं कितना सौभाग्यशाली हूँ

जो आते हैं मेरे घर नित्य मेहमान

आजकल तो कोयल भी आ जाती हैं कई एक

मैं सुनता हूँ सबके मधुर – मधुर गीत – संगीत

ऐसा लगता है मुझे कि

यही हैं मेरे आज और कल हैं

मिलती है अपार खुशी

भूल जाता हूँ सब गम, चिंताएँ

और तनाव

 

मैं बचाता हूँ नित्य ही पानी

हर तरह से

यहाँ तक कि आरओ का खराब पानी भी

जो आता है पोंछें के, शौचालय या कपड़े धोने के काम

 

मैं करता हूँ बिजली की बचत रोज ही

पंखे या कूलर से चलाता हूँ काम

नहीं लगवाया मैंने एसी

एक तो बिजली का खर्च ज्यादा

दूसरे उससे निकलीं गैसें कर रही हैं वायु में घोर प्रदूषण

नहीं ही ली कार

चला इसी तरह संस्कार

यही है मेरी प्रकृति और संस्कृति

 

मैं बिजली और पानी की बचत कराता हूँ अपने आसपास भी

समरसेबल के बहते पानी को

बंद कराकर

लोगों को याद नहीं रहता कि

अमूल्य पानी और बिजली की क्या कीमत है

मुझे नहीं लगती झिझक कि कोई क्या कहेगा

बहता हुआ पानी कहीं भी है दिखता

मैं तुरत बंद करता हूँ गली, रेलवे स्टेशन आदि की टोंटियां

और साथ ही जलती हुई दिन स्ट्रीट लाइटों को

 

आओ हम एक दिन क्या

रोज  ही पृथ्वी दिवस मनाएँ

धरती माँ को सजाएँ

करें सिंगार

यही दे रही है हमें नए – नए उपहार

भर रही पेट हर जीव का

पृथ्वी माँ !

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

Rakeshchakra00@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #112 – अष्टविनायक…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 112 – अष्टविनायक…! ☆

मोरगावी मोरेश्वर

होई यात्रेस आरंभ

अष्ट विनायक यात्रा

कृपा प्रसाद प्रारंभ….! १

 

गजमुख सिद्धटेक

सोंड उजवी शोभते

हिरे जडीत स्वयंभू

मूर्ती अंतरी ठसते….! २

 

बल्लाळेश्वराची मूर्ती

पाली गावचे भूषण

हिरे जडीत नेत्रांनी

करी भक्तांचे रक्षण….! ३

 

महाडचा विनायक

आहे दैवत कडक

सोंड उजवी तयाची

पाहू यात एकटक….! ४

 

थेऊरचा चिंतामणी

लाभे सौख्य समाधान

जणू चिरेबंदी वाडा

देई आशीर्वादी वाण…! ५

 

लेण्याद्रीचा गणपती

जणू निसर्ग कोंदण

रुप विलोभनीय ते

भक्ती भावाचे गोंदण….! ६

 

ओझरचा विघ्नेश्वर

नदिकाठी देवालय

 नवसाला पावणारा

देई भक्तांना अभय….! ७

 

महागणपती ख्याती

त्याचा अपार लौकिक

रांजणगावात वसे

मुर्ती तेज अलौकिक….! ८

 

अष्टविनायक असे

करी संकटांना दूर

अंतरात निनादतो

मोरयाचा एक सूर….! ९

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#135 ☆ लघुकथा – सच तो कह रही है फूलमती… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा “लघुकथा – सच तो कह रही है फूलमती…”)

☆  तन्मय साहित्य # 135 ☆

☆ लघुकथा – सच तो कह रही है फूलमती… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

खेत खलिहान से फसल घर में लाते ही मोहल्ले के पंडित जी के फेरे शुरू हो जाते। मौसम के मिज़ाज के अनुसार कभी पँसेरी दो पंसेरी गेहूँ, ज्वार, दालें कभी सब्जी-भाजी और कभी ‘सीधे’ में पूरी भोजन सामग्री की माँग इन पंडित जी की पूरे वर्ष बनी रहती।

इस वर्ष खरीफ की फसल सूखे की चपेट में आ गई और बाद में बेमौसम की बारिश व ओले आँधी की चपेट में आने से रबी की फसल भी आधे साल परिवार के खाने लायक भी नहीं हुई।

खाद, बीज व दवाईयों के कर्ज के बोझ से लदे कृषक रामदीन पत्नी फूलमती के साथ आने वाले समय की शंका-कुशंकाओं में डूबे बैठे थे, उसी समय पंडितजी काँधे पर झोला टाँगे घर पर पधार गए।

“कल्याण हो रामदीन! नई फसल का पहला हिस्सा भगवान के भोग के लिए ब्राह्मण को दान कर पुण्यभागी बनो और अपना परलोक सुधार लो यजमान”।

पहले से परेशान फूलमती अचानक फूट पड़ी – “पंडित जी बैठे-बिठाए इतने अधिकार से माँगते फिरते हो, क्या हमारे खेत की मेढ़ पर  आज तक भी आपके ये पवित्र चरण कभी रखे हैं आपने! आँधी-पानी, ओलों और सूखे  से पीड़ित  हम लोगों के दुख की घड़ी में हालचाल भी जानने की कोशिश की है कभी, ठंडी गर्मी व बरसात के वार झेलते खेत में मेहनत करते किसी किसान के श्रम को आँकने की भी कोशिश की है कभी आप ने? फिर किस नाते हर तीज त्योहार, परब-उत्सव पर हिस्सा माँगने चले आते हो”।

“पंडित जी!…पूरी जिंदगी बीत गई हाड़तोड़ मेहनत कर दान-पुन करते, फिर भी हमारा यह लोक ही नहीं सुधर रहा है और परलोक का ,झाँसा देकर इधर, आप हमें सब्जबाग दिखाते रहते हो और दूसरी तरफ सेठ-साहूकार और सरकारी साब लोग”।

“जाओ पंडित जी, थोड़ी मेहनत कर के रोटी कमाओ और खाओ तब असल में रोटी और मेहनत का सही स्वाद और महत्व समझ पाओगे”।

पंडित जी हतप्रभ से कुछ क्षण शांत रहे और फिर करुणाभाव से फूलमती की ओर एक नजर डाल कर वापस हो गए। आगे गली के एक कोने में काँधे का झोला फेंकते हुए मन ही मन कुछ बोलते हुए अपने घर की ओर लौट पड़े।

“सच तो कह रही है फूलमती”

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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