हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 127 – लघुकथा – संस्कारों की बुवाई… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है नवीन पीढ़ी में संस्कारों के अंकुरण हेतु विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “संस्कारों की बुवाई…”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 127 ☆

☆ लघुकथा – संस्कारों की बुवाई 

सत्य प्रकाश और उसकी पत्नी धीरा बहुत ही संस्कारवान और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। एक ही बेटा है तनय वह भी बाहर पढ़ते हुए अपनी पसंद से शादी कर सुखद जीवन बिता रहे थे।

गाँव में सत्य प्रकाश को बहुत चाहते थे क्योंकि उनकी बातें व्यर्थ नहीं होती थी और न ही कभी असत्य का साथ देते थे।

वर्क फ्रॉम होम होने के कारण बेटा बहू अपने पाँच साल के बेटे यश को लेकर घर आए। दादा – दादी के प्यार से यश बहुत खुश हुआ। दिन भर धमाचौकड़ी मचाने वाला बच्चा दादा जी के साथ सुबह से उठकर उनसे अच्छी बातें सुनता, पूजा-पाठ में भी बड़े लगन के साथ रहता और जिज्ञासा वश  दिनभर दादा – दादी से प्रश्न करता रहता।

समय बीतता जा रहा था। उनका भी मन लग गया। बेटा बहु देरी से सो कर उठते थे। आज तनय जल्दी सो कर उठा। तो देखा कि दादा दादी और पोता मिलकर भगवान की आरती कर रहे हैं और बराबरी से मंत्र का उच्चारण उनके साथ उसका बेटा यश भी कर रहा है।

तनय आश्चर्य से देखने लगा बहुत अच्छा सा महसूस किया।

अपने पापा को आरती देकर यश चरण स्पर्श करता है तो तनय  खुशी से झूम उठता है।

और अपने पिताजी की ओर देखने लगता है। सत्य प्रकाश जी कहने लगे… बेटा मैंने संस्कारों की बुवाई कर दिया है। इसे किस तरह बढ़ाना है तैयार करना है यह तुम्हारे ऊपर है।

और हाँ इसका फायदा भी तुम्हें ही मिलेगा।

बरसों बाद आज माँ पिता के चरण स्पर्श कर तनय गले से लग गया।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ रद्दी वाला ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “रद्दी वाला।)

☆ आलेख ☆ रद्दी वाला ☆ श्री राकेश कुमार ☆

रद्दी शब्द उर्दू भाषा से है, परंतु हमारी रोजमर्रा के बोलचाल में बहुतायत से उपयोग होता हैं। दैनिक समाचार पत्र पढ़ने के बाद अनुपयोगी हो जाते हैं। इन सबको रद्दी वाले को विक्रय कर दिया जाता हैं। आज की युवा पीढ़ी समाचार पत्र पढ़ने के स्थान पर मोबाईल से ही पूरी जानकारी ले लेती हैं। वैसे हमारे मोबाईल पर भी बहुत रद्दी एकत्र हो जाती हैं। उसको साफ़ करने में भी काफ़ी समय देना पड़ता हैं।

वर्षों पूर्व ये लोग पैदल घूम घूम कर आवाज़ लगाते थे “रद्दी वाला” बाद में साइकिल या ठेले पर घर का अनुपयोगी समान खरीद कर ये ही लोग ले जाते हैं।

ये लोग पहले आधा किलो के बांट से तौल कर ले जाते थे, अब भी एक किलो के बांट का प्रयोग करते हैं। हाथ ठेले/रिक्शे पर चलने वाले इलेक्ट्रॉनिक तराजू भी लेकर चलते हैं। मुंबई प्रवास के समय रद्दी वालों की दुकानें भी देखने को मिली। आप उनको फोन कर बुला सकते है वो घर से रद्दी ले जाते हैं।

घर में पड़े कबाड़ और टूटे फूटे सामान को लेकर वो हमारे घर को स्वच्छ रखने में भी सहयोग कर रहे हैं। अब तो वास्तु शास्त्री भी घर में कबाड़ रखने से मना करते हैं। वर्तमान में पेपर को रिसाइकल किया जाता है, जिसमें इन सबका बड़ा योगदान हैं।

हम में से अधिकतर इनको हेय दृष्टि से देखते है, और वो सम्मान नहीं देते जिसके वो हकदार हैं। हमे हमेशा ये लगता है, कि वो लोग कम तोलते और बेईमानी करते हैं। उनकी आर्थिक दृष्टि को देखते हुए नहीं लगता की वो इस व्यापार से कोई बहुत अधिक धनार्जन करते हैं। शायद हमारा नजरिया गलत हो सकता हैं। रद्दी वाले को अपनी रद्दी नज़र से ना देखकर एक सहयोगी के रूप में देखना ही उचित होगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #143 ☆ शुद्र माशा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 143 ?

☆ शुद्र माशा  

भांडताना राग झाला जर अनावर

टाकतो देऊन त्याला मी सुळावर

 

गोडधोडाला जरा झाकून ठेवू

शुद्र माशा नजर त्यांची तर गुळावर

 

ज्ञान गीतेचे दिले भाषेत सोप्या

केवढे उपकार ज्ञानाचे जगावर

 

एवढा ताणून धरला प्रश्न साधा

येत नाही अजुन गाडी ही रुळावर

 

काळजाचे कैक तुकडे तूच केले

तेच तुकडे प्रेम करती बघ तुझ्यावर

 

तिमिर आहे फक्त आता सोबतीला

चंद्र गेला डाग ठेउन काळजावर

 

कर्म संधी चल म्हणाली सोबतीने

ज्योतिष्याच्या राहिलो मी भरवशावर

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

ashokbhambure123@gmail.com

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 93 – गीत – गीतों का यह गुलाब जल ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – गीतों का यह गुलाब जल…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 93 – गीत – गीतों का यह गुलाब जल✍

लो !यह

गीतों का गुलाब जल को अपने मन पर।

 

वैसे तुम खुशबू की बेटी रूपगंध  से भरा खजाना

पर कस्तूरी पास रखी है ब्राह्मण ने यह कभी न जाना।

 

तुम्हें बताऊँ तुममें क्या है, सुधा सिंधु जियो नील गगन पर।

 

तुम्हें कौन सा संबोधन हूं वह मेरी साधों की सीता

चंद्रप्रिया कह तुम्हें पुकारूँ

गायत्री गीतों की गीता

 

अनगिन चित्र उभरते रहते,  कभी नजर डालो मन घन पर।

 

तुम्हें देख संकोच सिहरता संयम, नियम बना लेता है

मेरे जैसा सन्यासी भी

गीत रूप के गा देता है

 

आखिर ऐसा क्यों होता है,

कभी नजर डालो जीवन पर।

 

लो ! यह

गीतों का गुलाब जल छिड़को अपने मन पर।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 95 – “गतिशील हो गई हैं…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “गतिशील हो गई हैं…”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 95 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “गतिशील हो गई हैं”|| ☆

परी बनी ,हरी-हरी

सी पहिन साडियाँ

सिल्की दिखा किये हैं

सुबह की पहाडियाँ

 

हौले से तह किये

लगीं जैसे दुकान में

ठहरी प्रसन्नता हो ।

खुद के मकान में

 

चिडियों की चहचहाहटों

के खुल गये स्कूल

 पेड़ों के साथ पढ ने

आ जुटीं झाडियाँ

 

धुँधला सब दिख रहा है

यहाँ अंतरिक्ष में

खामोश चेतना जगी है वृक्ष-वृक्ष  में

 

जैसे बुजुर्ग, बादलों

के झूमते दिखें

लेकर गगन में श्वेत-

श्याम बैल गाडियाँ

 

गतिशील हो गई हैं

मौसम की शिरायें

बहती हैं धमनियों में

ज्यों खून सी हवायें

 

या कोई वैद्य आले

को  लगा देखता

कितनी क्या ठीक चल

रहीं , सब की नाडियाँ

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

14-06-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 142 ☆ गर हौसले बुलंद हों… ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय एवं विचारणीय संस्मरण गर हौसले बुलंद हों…”।)  

☆ संस्मरण  # 142 ☆ ‘गर हौसले बुलंद हों…’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

देश की पहली माइक्रो फाइनेंस ब्रांच में काम करते हुए हमने महसूस किया कि  – ‘गर हौसले बुलंद हों तो’  – गरीब निरक्षर महिलाएं, जो बैंक विहीन आबादी में निवास करती है, जो लोन लेने के लिए साहूकारों के नाज- नखरों को सहन करती हुई लोन लेती थीं, जो बैंकों से लोन लेने के बारे में स्वप्न में भी नहीं सोच सकतीं थ , ऐसी महिलाओं के आर्थिक उन्नयन में माइक्रो फाइनेंस की अवधारणा मील का पत्थर साबित हुई थी।

किसी ने कहा है ” कमीं नहीं है कद्र्ता की ….कि अकबर करे कमाल पैदा ….

इस भाव को स्व सहायता समूह से जुडी महिलाओं ने समाज को बता दिया।

माइक्रो फाइनेंस की अवधारणा   में रिमोट एरिया एवं बैंक विहीन आबादी के स्व सहायता समूह की महिलाओं के आर्थिक उन्नयन हेतु छोटे छोटे लोन  दिये  जाते  हैं ,लोन देते समय सेवाभाव एवं परोपकार की भावना होना बहुत जरूरी होता है , लोन राशि की उपयोगिता के सर्वे , जांच एवं इन महिलाओं की इनकम जेनेरेटिंग गतिविधियों का माइक्रो फाइनेंस ब्रांच में काम करते हुए हमने बार बार  सर्वे/अवलोकन किया ,हमारे द्वारा किये गए सर्वे से लगा कि इस आवधारणा से कई  जिलों  की हजारों महिलाओं में न केवल आत्म विश्वास पैदा हुआ बल्कि इन स्माल लोन ने उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत बनाया।

“बेदर्द समाज और अभावों के बीच कुछ कर दिखाना आसान नहीं होता पर इन महिलाओं के होसले बुलंद हुए  …..”

एक गांव  में एक खपरेल मकान में चाक पर घड़े को आकार देती ३० साल की बिना पढी़ लिखी लखमी प्रजापति को भान भी नहीं रहा  होगा कि वह अपनी जैसी उन हजारों महिलाओं के लिए उदाहरण  हो सकती है जो अभावों के आगे घुटने टेक देती है , दो बच्चों की माँ लक्ष्मी  ने जब देखा कि रेत मजदूर पति की आय से कुछ नहीं हो सकता तो उसने बचपन में अपने पिता के यहाँ देखा कुम्हारी का काम करने का सोचा , काम इतना आसान नहीं था लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी, महीनों की लगन के बाद उसने ये काम सीखा और आज वह छै सौ रूपये रोज कमा रही है इस प्रकार स्व सहायता समूह से जुड़ कर अपने परिवार का उन्नयन कर देवर की शादी का खर्चा भी  उसी ने उठाया और बच्चों को अच्छे स्कूल में भी पढ़ाया। 

शमा विश्वकर्मा भी ऐसी ही जीवंत खयालों वाली महिला मिली जिसने बिना पढ़े लिखे रहते हुए भी हार  नहीं मानी और अपने पैरों पर खड़ी हो गई , उसने बताया था कि पहले रेशम केंद्र में मजदूरी करने जाती थी तो ७०० / मिलते थे लेकिन हमारे  स्वसहायता समूह  ने रेशम कतरने  की मशीन का लोन दिया तो मशीन घर आ गई मशीन घर पर होने से यह फायदा हुआ कि काम के घंटे ज्यादा मिल गए और वह ८०००/ से ज्यादा कमाने लगी है ….. 

एक और गाँव की दो महिलाओं  ने तो सहकारिता की वह मिसाल पेश की जिसकी जितनी तारीफ की जाय  कम है , गाँव की अपने जैसी दस महिलाओं ने स्व सहायता समूह बनाकर लोन लिया फिर सिकमी (लीज) पर खेती करने लगीं , समूह की सब महिलाएं खेतों में हल चलने के आलावा वह सब काम भी करती है जो अभी तक पुरुष करते थे …….. इसके बाद इन महिलाओं  ने गांव में  शराब की दुकान के सामने जनअभियान चला कर गांव से शराब की दुकान हटवा दी और गांव के किसानों के घरों में आशा की किरणें फैला दीं ।

शाखा के सर्वे और फालोअप  के ये दो चार उदाहरण से हमें पता चला कि स्वसहायता समूह की महिलाएं बड़े से बड़े काम करने में अग्रणी भूमिका निभा सकतीं हैं, यदि इन्हें अच्छा मार्गदर्शन और प्रोत्साहन दिया जाए। जब इन सब महिलाओं से बात की गई तो उनका  कहना था कि ….गरीबी अशिक्षा  कुपोषण आदि की समस्याओं से सब कुछ डूबने की निराश भावना से उबरने के लिए जरूरी है कि गाँव एवं शहरों में हो रहे बदलाव को महिलाएं सकारात्मक रूप में स्वीकार करें।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 86 ☆ # फादर्स डे पर छोटी बेटी का प्यार # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है पितृ दिवस पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# फादर्स डे पर छोटी बेटी का प्यार #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 86 ☆

☆ # फादर्स डे पर छोटी बेटी का प्यार # ☆ 

पापा कैसे होंगे सोच रही हूँ

अपने खयालों में खोज रही हूँ

सीने से लगाके रख्खा था आपने

आप हो सागर,

मै बनके लहर रोज रही हूँ

 

वो ‘स्लेट ‘ पर मुझको बारहखड़ी लिखाना

वो उंगली में चाक लेकर सिखाना

जहां चूक हुई उसको दिखाना

फिर से वही शब्द दुबारा लिखाना

 

वो ‘मोटी’ का हम पर गुर्आना

वो ‘डोडो’ का चालाकी से इतराना

वो ‘टिंकू’ का लड़ना, हम सबको लड़वाना

आपका मुझे गोद में लेकर,

सबको समझाना

 

स्कूल से आकर, कुछ भी खाकर

‘डोडो’ और मै सो जाते थे

‘बड़ी ताई’ और टिंकू

चुगली लगाते थे

मम्मी जब हम पर चिल्लाती थी

बच्चें है कहकर मम्मी से बचाते थे

 

स्कूल, कालेज में

मनमर्जी से पढ़ने दिया

अपने कॅरीयर को

मर्जी से चुनने दिया

राह की बाधाओं से

स्वयं को लड़ने दिया

जीवन में आत्मनिर्भर

बनने दिया

 

आपका हमारे सर पर वरदहस्त है

सुख सुविधाएं सब मस्त है

खुशियां ही खुशियां है जीवन में

अपने संसार में सब व्यस्त है

 

आज फादर्स डे पर

आपकी याद आई है

संग संग पुरानी यादें लाई है

आपसे कितनी दूर हूँ

इसलिए आंखें भर आईं हैं

 

पापा, आप सदा मुस्कुराते रहें

गीत लिखकर गाते रहें

दुःख छुये ना आपका दामन

अपनी कविताओं से

सबको लुभाते रहें  /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे #85 ☆  अर्थ असेल काही जर तर… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 85 ? 

☆  अर्थ असेल काही जर तर… ☆

कसे सांगू सांगा तुम्ही, गोड महिमा भक्तीचा

भक्ती-विना होत नाही, मार्ग मोकळा मुक्तीचा…!!

 

 मार्ग मोकळा मुक्तीचा, करा धावा श्रीप्रभुचा

तोच आहे वाली आता, अन्य कोणी न कामाचा…!!

 

 अन्य कोणी न कामाचा, सर्व लोभी इथे नांदती

अर्थ असेल काही जर तर, मैत्री मग आग्रहे साधती…!!

 

 मैत्री मग, आग्रहे साधती, धर्म हा लोप पावला

अंध-वृत्ती वर आली,  सुज्ञ इथेच  वेडावला…!!

 

 सुज्ञ इथेच  वेडावला, पाश-मोह आवळला

जाण इतुकीही न आता,  ज्ञान-दीप मावळला…!!

 

 ज्ञान-दीप मावळला,  राज सहज बोलला

कृष्ण-भक्ती सोज्वळ, स्मरा श्रीगोविंदाला…!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 22 – मठातली साधना ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 22 – मठातली साधना ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

वराहनगर मठात श्री रामकृष्ण संघाचं काम सर्व शिष्य नरेंद्रनाथांच्या मार्गदर्शनाखाली करत होते. उत्तर भारतातले आखाड्यातले साधू बैरागी, वैष्णव पंथातले साधू समाजाला परिचित होते. पण शंकराचार्यांच्या परंपरेतल्या संन्याशांची फार माहिती नव्हती. त्यामुळे वराहनगर मठातल्या तरुण संन्याशांबद्दल समाजाची उपेक्षित वृत्ती होती. चांगले शिकले सवरलेले असून सुद्धा काही उद्योगधंदा न करता, संन्यास घेऊन हे तरुण लौकिक उन्नतीचा मार्ग दूर ठेवत आहेत, हे पाहून लोक खेद करत, उपेक्षा करत, कधी अपमान करत. तिरस्कार करत. कधी कधी कणव येई, तर कधी टिंगल होई.

पण प्रवाहाच्या विरुद्ध जाऊन काही करायचे म्हणजे असेच सर्व गोष्टींना सामोरे जावे लागते. समाजाने स्वीकारे पर्यन्त, बदल होण्याची वाट बघत हळूहळू पुढे जावे लागते. तसे सर्व शिष्यांमधे हा वाट पाहण्याचा संयम होता. दूरदर्शीपणा होता. कारण तसे ध्येय ठरवूनच त्यांनी घरादारचा त्याग केला होता आणि संन्यस्त वृत्ती स्वीकारली होती. हे तरुण यात्रिक अध्यात्म मार्गावरचे एकेक पाऊल पुढे टाकत चालले होते. भारताच्या आध्यात्मिक जीवनात संन्यस्त जीवनाचा सामूहिक प्रयोग नवा होता.

“आपल्याला सार्‍या मानवजातीला आध्यात्मिक प्रेरणा द्यायची आहे, तेंव्हा आपला भर तत्वांचा, मूल्यांचा,आणि विचारांचा प्रसार करण्यावर हवा. संन्यास घेतलेल्यांनी किरकोळ कर्मकांडात गुंतू  नये”. असे मत नरेंद्रनाथांचे होते. या मठातलं जीवन, साधनेला वाहिलेलं होतं.

शास्त्रीय ग्रंथांचा अभ्यास, संस्कृत ग्रंथ व धर्म आणि अध्यात्म संबंधित ग्रंथांचे वाचन होत असे. हिंदूधर्म याबरोबर ख्रिस्तधर्म आणि बुद्धधर्म यांचाही अभ्यास केला जात होता. या धर्मांचा तुलनात्मक अभ्यास व्हायचा. इथे धर्मभेदाला पहिल्यापासूनच थारा नव्हता असे दिसते. शंकराचार्य आणि कांट यांच्या तत्वज्ञानाचा तौलनिक अभ्यास पण इथे होत होता. हे सर्व अनुभवास आल्यानंतर जाणकारांची उपेक्षा जरा कमी झाली आणि जिज्ञासा वाढली.

कधी ख्रिस्त धर्माचे प्रचारक मिशनरी येत त्यांच्या बरोबर चर्चेत हिंदू धर्माच्या तुलनेत ख्रिस्त धर्म कसा उणा आहे ते चातुर्याने आणि प्रभावी युक्तिवादाने नरेंद्र पटवून देत असत. ख्रिस्ताचे खरे मोठेपण कशात आहे तेही समजाऊन सांगत. हे विवेचन ऐकून धर्मोपदेशक सुद्धा थक्क होऊन जात.

हिंदू धर्मातील इतर पंथांचाही इथे अभ्यास चाले. तत्वज्ञानाच्या आधुनिक विचारवंतांनाही इथे स्थान होते. जडवादी आणि निरीश्वरवादी विचारसरणीचा परिचय करून घेतला जात होता. फ्रेंच राज्यक्रांतीचं महत्व सुद्धा नरेंद्रनाथ समजाऊन सांगत असत. साधनेच्या जोडीला अभ्यास हे वराहनगरच्या मठाचं वैशिष्ठ्य होतं. श्री रामकृष्ण यांच्या गृहस्थाश्रमी शिष्यांना एकत्र यायला हा मठ एक स्थान झालं होत. हळूहळू लोकांच्या मनातील दुरावा कमी झाला होता.

तीर्थयात्रा ही आपली पूर्वापार चालत आलेली परंपरा आणि धार्मिक जीवनाचा एक भाग पण. शिवाय श्रीरामकृष्ण यांनीही एकदा संगितले होते, की, “संन्याशाने एका जागी स्थिर राहू नये. वाहते पाणी जसे स्वच्छ राहते, तसे फिरत राहणारा संन्यासी आध्यात्मिक दृष्ट्या स्थिर आणि निर्मळ राहतो”.

या मठातील गुरुबंधूंना तीर्थयात्रेची उर्मी येत असे. त्याप्रमाणे नरेंद्रनाथांना पण एका क्षणी वाटले की, आपणच नाही तर सर्व गुरुबंधूंनी पण परिभ्रमण करावे. अनुभव घ्यावेत, त्यातून शिकावे. त्यामुळे प्रत्येकाच्या आंतरिक शक्तींचा विकास होईल. वराहनगर मठ हा एक मध्यवर्ती केंद्र म्हणून असेल, कोणी कुठे ही गेलं तरी सर्वांनी या केंद्राशी संपर्कात राहावं. शशी यांनी हा मठ सांभाळण्याची जबाबदारी घेतली. दोन वर्षानी १८८८ मध्ये नरेंद्रने वराहनगर मठ अर्थात कलकत्ता सोडले आणि त्यांच्या परिव्राजक पर्वाचा प्रारंभ झाला.

सुरूवातीला ते वाराणशीला आले. प्रवासात ते आपली ओळख फक्त एक संन्यासी म्हणून देत. अंगावर भगवी वस्त्रे, हातात दंड व कमंडलू, खांद्यावरील झोळीत एकदोन वस्त्रे, एखादे पांघरुण एव्हढेच सामान घेऊन भ्रमण करत. शिवाय बरोबर ‘भगवद्गीता’ आणि ‘द इमिटेशन ऑफ ख्राईस्ट’ ही दोन पुस्तके असायची. रोख पैशांना स्पर्श करायचा नाही, कोणाकडे काही मागायचे नाही हे त्यांचे व्रत होते.

सर्व गुरुबंधुना पण ते प्रोत्साहित करू लागले की, भारत देश बघावा लागेल, समजावा लागेल. लक्षावधी माणसांच्या जीवनातील विभिन्न थरांमध्ये काय वेदना आहेत, त्यांच्या आकांक्षा पूर्ण न होण्याची कारणे काय आहेत ते शोधावे लागेल. हे ध्येय समोर ठेऊन ,भारतीय मनुष्याच्या कल्याणाचे व्रत घेऊन स्वामी विवेकानंद यांचे हिंदुस्थानात भ्रमण सुरू झाले.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 16 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 16 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

[२३]

माझ्या मित्रा! या वादळी रात्री,

दूर देशाच्या प्रेमाच्या प्रवासात तू आहेस ना?

 

आकाश निराश होऊन उच्छ्वास टाकते आहे

 

आज रात्रभर मला झोप नाही,

पुन्हा पुन्हा मी दार उघडतो,

अंधाराकडे पाहतो

 

मला तर काहीच दिसत नाही

 

कुठं बरं असेल तुझा रस्ता?

 

कुठल्या काळ्या नदीच्या

किनाऱ्यानं तू येत असशील?

 

भितीनं गोठवणाऱ्या रानाच्या आणि

भयचकित करणाऱ्या

कोणत्या दु:खमय दरीच्या

माझ्याकडं येणाऱ्या वाटेने तू येत असशील?

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

pmk2146@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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