हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #227 – 114 – “राह में कोई मेहरवान कद्रदान मिलता है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल राह में कोई मेहरवान कद्रदान मिलता है…” ।)

? ग़ज़ल # 114 – “राह में कोई मेहरवान कद्रदान मिलता है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

शायरों ने कहा दिलों में मुहब्बत होती है,

हमने कहा जनाब इंसानी क़ुदरत होती है।

*

आती है जवानी जिस्म परवान चढ़ता है,

दिलफ़रेब अन्दाज़ उनकी ज़रूरत होती है।

*

राह में कोई मेहरवान कद्रदान मिलता है,

बहकना-बहकाना मजबूर फ़ितरत होती है। 

*

जिंस बाज़ार में खुलते हैं सफ़े दर सफ़े,

अरमानों की खुलेआम बग़ावत होती है।

*

मुहब्बतज़दा दिलों में झाँकता है ‘आतिश’

आशिक़ी फ़रमाना सबकी क़ुदरत होती है।

*

दिलों में मुहब्बत का खेल शुरू होता है,

ज़हन में ग़ुलाम परस्त हसरत होती है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 106 ☆ मुक्तक – ।।वंदना, मां सरस्वती, मां शारदे, मां वीणापाणी, की।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 106 ☆

☆ मुक्तक – ।।वंदना, मां सरस्वती, मां शारदे, मां वीणापाणी, की।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

हे मां ,हंसवाहिनी, मां शारदे आए तेरी शरण में,

कल्याण कर हमारा, हम सबको तार दे।

 *

हे मां विद्या की देवी मानवता ज्ञान की पुकार है,

स्नेह से दुलार दे, सब के लिए सरोकर दे।

 *

तू ही मां सरस्वती, है बुद्धि प्रदाती,

आए हम तेरे द्वारे, सबको ज्ञान का नव प्रकाश दे।

 *

हे मां वीणापाणी तू निकाल हर विकार दे,

हर मन में भाव परोपकार दे, ऐसा विचारों में उद्धार दे।

 *

तू जगतारिणी, तू है दया प्रेम की देवी,

महिमा आपार तेरी, इस भवसागर से पार दे।

 *

हे मां वागेश्वरी, जगतपालिनी, कमल पर तू विराजित,

कष्ट सबका उतार दे, अपने आशीष का हमें उपहार दे।

 *

हे मां श्वेतवस्त्र धारण, पुस्तकें तेरे ही तो कारण,

आए तेरे वंदन को, अंतर्मन को तू झंकार दे।

 *

हे मां मधुरभाषिणी, वीणावादिनी, ह्रदय के अंधेरे को,

तू सूर्य का उज्जवल प्रकाश दे।

 *

हे मां भुवनेश्वरी, तेज तेरा असीम अनंत आपार,

तुझसे होता है आलोकित सम्पूर्ण संसार, हर शत्रु को तू संहार दे।

 *

तुझको शीश वंदन करते हैं, पूजा अर्चना तेरी करते हैं,

हे मातेश्वरी, बस अपना हाथ शीश पर वार दे।

हम सब को सुधार दे। बस ये एक उपकार कर।।

बस ये एक उपहार दे।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 168 ☆ बदलते मौसम में घिर रही हैं… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक अप्रतिम रचना  – “बदलते मौसम में घिर रही हैं ..। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘बदलते मौसम में घिर रही हैं  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

मुसीबतों से बचा वतन को जो अपने खुद को बचा न पाये

उन्हीं की दम पै हैं दिख रहे सब ये बाग औ’ घर सजे सजाये

तुम्हारे हाथों है अब ये गुलशन सब इसकी दौलत भरा खजाना

जिसे ए बच्चों बचा के रखना तुम्हें औ’ आगे इसे बढ़ाना ॥

 *

बदलते मौसम में घिर रही हैं घने अंधेरों से सब दिशाएँ है

तेज बारिश कड़कती बिजली कँपाती बहती प्रबल हवाएँ भची है

भगदड़ हरके दिशा में समाया मन में ये भारी डर है

न जाने कल क्या समय दिखाये, मुसीबतों से भरा सफर है।

 *

मगर न घबरा, कदम-कदम बढ़ निराश होके न बैठ जाना

बढ़ा के साहस, समझ के चालें, तुम्हें है ऐसे में पार पाना।

चुनौतियों को जिन्होंने जीता उन्हीं का रास्ता खुला रहा है

बहादुरों, तुम बढ़ो निरन्तर, जमाना तुमको बुला रहा है।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #223 ☆ स्वास्थ्य, पैसा व संबंध… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख स्वास्थ्य, पैसा व संबंध। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 223 ☆

☆ स्वास्थ्य, पैसा व संबंध… ☆

आप जिस वस्तु पर आप ध्यान देना छोड़ देते हैं, नष्ट हो जाती है–चाहे वह स्वास्थ्य हो, पैसा हो या संबंध; यह तीनों आपकी तवज्जो चाहते हैं। जब तक आप उन्हें अहमियत देते हैं, आपका साथ देते हैं और जब आप उनकी ओर ध्यान देना बंद कर देते हैं, वे मुख मोड़ लेते हैं तथा अपना आशियाँ बदल लेते हैं। वे स्वार्थी हैं तथा तब तक आप के अंग-संग रहते हैं, जब तक आप उन्हें पोषित करते हैं अर्थात् उनके साथ अमूल्य समय व्यतीत करते हैं।

स्वस्थ बने रहने के लिए व्यायाम की आवश्यकता होती है और यह दो प्रकार का होता है। व्यायाम से आप शारीरिक रूप से स्वस्थ रहेंगे और सकारात्मक सोच व चिंतन-मनन से मानसिक रूप से दुरुस्त रहेंगे, जो जीवन का आधार है। वास्तव में शरीर तभी स्वस्थ रह सकता है– यदि मन स्वस्थ व जीवंत हो और उसका चिंतन सार्थक हो। दुर्बल मन असंख्य रोगों का आग़ार है। भय, चिंता आदि मानव को तनाव की स्थिति में ले जाते हैं, जो भविष्य में अवसाद की स्थिति ग्रहण कर लेते हैं। यह एक ऐसा भंवर है, जिससे    बाहर आना नामुमक़िन होता है। यह एक ऐसा चक्रव्यूह है, जिसमें मानव प्रवेश तो कर सकता है, परंतु बाहर निकलना उसके वश में नहीं होता। वह आजीवन उस भूल-भुलैया में भटकता रहता है और अंत में दुनिया से अपने सपनों के महल के साथ रुख़्सत हो जाता है। इसलिए इसे मानसिक स्वास्थ्य से अधिक अहमियत प्रदान की गई है।

मन बहुत चंचल है और पलभर में तीन लोगों की यात्रा कर लौट आता है। उसे वश में रखना बहुत कठिन होता है। मन भी लक्ष्मी की भांति चंचल है, एक स्थान पर नहीं टिकता। परंतु बावरा मन अधिकाधिक धन कमाने में अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है और भूल जाता है कि यह ‘दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख़्स यहाँ है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जाएगा।’ इतना ही नहीं, वह इस तथ्य से भी अवगत होता है कि ‘खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा।’  और यह भी शाश्वत् सत्य है कि तूने जो कमाया है/  दूसरा ही खायेगा।’ परंतु बावरा मन स्वयं को इस मायाजाल से मुक्त नहीं कर पाता। जब तक साँसें हैं, तब तक रिश्ता है और साँसों की लड़ी जिस समय टूट जाती है; रिश्ता भी टूट जाता है। ‘जीते जी तू माया में राम नाम को भूला/ मौत का समय आया, तो राम याद आएगा ‘–इन पंक्तियों में छिपा है जीवन का सार। जब तुम पैदा भी नहीं हुए थे, यह किसी दूसरे की संपत्ति थी और जब तुम मर जाओगे, तो भी  यह किसी दूसरे की होगी। एक अंतराल के लिए यह तुम्हें प्रयोग करने के लिए मिली है। यह प्रभु की संपदा है; किसी की धरोहर नहीं। आज सुबह यह संदेश व्हाट्सएप पर सुना तो हृदय सोचने को विवश हो गया कि इंसान क्यों स्वयं को इस मायाजाल के विवर्त से मुक्त नहीं कर पाता, जबकि वह जानता है कि ‘कलयुग केवल नाम अधारा।’ पैसा तो  हाथ की मैल है और वक्त में सामर्थ्य है कि वह मानव को किसी भी पल अर्श से फ़र्श पर ला सकता है। इसलिए हमें पैसे की नहीं, वक्त की अहमियत को स्वीकारना चाहिए। पैसा इंसान को अहंवादी बनाता है, संबंधों में दूरियाँ लाता है और दूसरों की अहमियत को नकारना उसकी दिनचर्या में शामिल हो जाता है। पैसा ‘हॉउ से हू’ तक लाने का कार्य करता है। जब तक इंसान के पास धन-संपदा होती है, सब उसे अहमियत देते हैं। उसके न रहने पर वह ‘हू आर यू ‘ तक पहुँच जाता है। सो! आप अनुमान लगा सकते हैं कि पैसा कितना बलवान, शक्तिशाली व प्रभावशाली है। यह पलभर में संबंधों को लील जाता है। इसके ना रहने पर सब अपने पराए हो जाते हैं तथा मुख मोड़ लेते हैं, क्योंकि पैसा सबको एक लाठी से हाँकता है। जब तक मानव के पास धन रहता है, उसके कदम धरा पर नहीं पड़ते। वह आकाश की बुलंदियों को छू लेना चाहता है तथा अपने सुख-ऐश्वर्य व खुशियाँ दूसरों से साँझा नहीं करना चाहता।

परंतु सब संबंध स्वार्थ के होते हैं, जो धनाश्रित होते हैं, परंतु आजकल तो यह अन्योन्याश्रित हैं। इंसान भूल जाता है कि यह संसार मिथ्या है; नश्वर है और पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर है। इसलिए उसे माया में उलझे नहीं रहना चाहिए, बल्कि प्रभु के साथ शाश्वत् संबंध बनाए रखना ही कारग़र उपाय है। ‘सुमिरन कर ले बंदे/ यह तेरे साथ जाएगा।’ प्रभु नाम ही सत्य है और अंतकाल वही मानव के साथ जाता है।

संबंध ऐसे बनाओ कि आपके चले जाने के पश्चात् भी लोग आपका अभाव अनुभव करें और परदा गिरने के पश्चात् भी तालियाँ निरंतर बजती रहें। परंतु आजकल संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति होते हैं। नज़रें घुमाते ही वे सदैव के लिए ओझल हो जाते हैं, क्योंकि अक्सर लोग स्वार्थ साधने हेतू संबंध स्थापित करते हैं। मानव को ऐसे लोगों से दूर रहने की सलाह दी जाती है, क्योंकि वे अपने बनकर अपनों पर घात लगाते व निशाना साधते हैं।

दूसरी ओर यदि आप पौधारोपण करने के पश्चात् उसे खाद व पानी नहीं देते, तो वह मुरझा जाता है; पल्लवित-पोषित नहीं हो पाता। उसके आसपास कुकुरमुत्ते उग आते हैं, जिन्हें उखाड़ना अनिवार्य होता है, अन्यथा वे ख़रपतवार की भांति बढ़ते चले जाते हैं। एक अंतराल के पश्चात् बाड़ ही खेत को खाने लगती है। इसी प्रकार संबंधों को पोषित करने के लिए समय, देखभाल और संबंध बनाए रखने के लिए स्नेह, त्याग, समर्पण व पारस्परिक सौहार्द की दरक़ार होती है। यदि हमारे अंतर्मन में ‘मैं अर्थात् अहं’ का अभाव होता है, तो वे संबंध पनप सकते हैं, अन्यथा मुरझा जाते हैं। ‘मैं और सिर्फ़ मैं’ का भाव तिरोहित होने पर ही हम शाश्वत् संबंधों को संजोए रख सकते हैं। वहाँ अपेक्षा व उपेक्षा का भाव समाप्त हो जाता है। आत्मविश्वास व परिश्रम सफलता प्राप्ति का सोपान है। सो! स्वास्थ्य, पैसा व संबंध तीनों की एक की दरक़ार है। यदि हम समय की ओर ध्यान देते हैं, तो यह संबंध स्वतंत्र रूप से पनपते है, अन्यथा दरक़िनार कर लेते हैं। आइए! मर्यादा में रहकर सीमाओं का अतिक्रमण ना करें और उन्हें खुली हवा में स्वतंत्र रूप से पल्लवित होने दें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

19 जनवरी 2024

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विचार (1) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – विचार (1) ? ?

मेरे पास एक विचार है

जो मैं दे सकता हूँ,

पर खरीदार नहीं मिलता..,

फिर सोचता हूँ

विचार के

अनुयायी होते हैं;

खरीदार नहीं..,

विचार जब बिक जाता है

तो व्यापार हो जाता है

और व्यापार

प्रायः खरीद लेता है

राजनीति, कूटनीति,

देह, मस्तिष्क और

विचार भी..,

विचार का व्यापार

घातक होता है मित्रो!

© संजय भारद्वाज  

(प्रातः 9 बजे, दि. 14.7.2017)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण का 51 दिन का प्रदीर्घ पारायण पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। 🕉️

💥 साधको! कल महाशिवरात्रि है। कल शुक्रवार दि. 8 मार्च से आरंभ होनेवाली 15 दिवसीय यह साधना शुक्रवार 22 मार्च तक चलेगी। इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे।💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #223 ☆ – हाइकू … – ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  हाइकू)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 223 – साहित्य निकुंज ☆

हाइकू… ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

जीना दुश्वार

होता रहा उनका

वक्त की मार

 बुद्धि से काम

राजनीति के दांव 

होगा संग्राम

होता अन्याय

अदालत में मिले

बच्ची को न्याय।

मासूमों पर

बलात्कार है होता

जीना दुश्वार

  होती नादानी

दिखता आकर्षण

जान गवानी।

ऐसी संतान

माता पिता लगते

बोझ समान।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #206 ☆ एक बाल गीत – बरखा रानी बड़ी सुहानी ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बाल गीत – बरखा  रानी  बड़ी  सुहानीआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 205 ☆

☆ एक बाल गीत – बरखा  रानी  बड़ी  सुहानी ☆ श्री संतोष नेमा ☆

बरखा  रानी  बड़ी  सुहानी

छम छम बरसाती  है पानी

बरखा  रानी  बड़ी  सुहानी

*

बरसे जब आती  हरियाली

खुशी किसान झूमते माली

प्यासे  पपीहे झूम के  बोलें

आगई  अब  रुत  मस्तानी

बरखा  रानी  बड़ी  सुहानी

*

मेढक टर टर कर चिल्लायें

पशु – पक्षी   झूमें   इतराएं

गाँवों में खेलते खूब गपन्नी

नानी  सुनाती  नई  कहानी

बरखा  रानी  बड़ी  सुहानी

*

इक कागज की नाव बनाते

पानी  में  जब  उसे   बहाते

चली हवा बादल जब गरजे

पानी  में  तब  नाव  समानी

बरखा  रानी   बड़ी  सुहानी

*

कोयल  मीठे  गीत  सुनाती

पक्षी कलरव  सबको भाती

कारे  बदरा  झूम- झूम कर

बरसें   खूब  जमीं   हर्षानी

बरखा  रानी  बड़ी  सुहानी

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 213 ☆ क्रांतीज्योतीची गौरवगाथा…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 213 – विजय साहित्य ?

क्रांतीज्योतीची गौरवगाथा…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

समाज नारी साक्षर करण्या

झटली माता साऊ रे .

क्रांतीज्योतीची गौरवगाथा

खुल्या दिलाने गाऊ रे . . . !

*

सक्षम व्हावी, अबला नारी

म्हणून झिजली साऊ रे

ज्योतिबाची समता यात्रा

पैलतीराला नेऊ रे . . . . !

*

कर्मठतेचे बंधन तोडून

शिकली माता साऊ रे

शिक्षण, समता, आणि बंधुता

मोल तयाचे जाणू रे. . . . !

*

कधी आंदोलन, कधी प्रबोधन

काव्यफुलांची गाथा रे

गृहिणी मधली तिची लेखणी

वसा क्रांतीचा घेऊ रे. . . . !

*

दीन दलितांसाठी जगली

यशवंतांची आऊ रे

दुष्काळात धावून गेली

हाती घेऊन खाऊ रे . . . . !

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय सहावा — आत्मसंयमयोग — (श्लोक ११ ते २०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय सहावा — आत्मसंयमयोग — (श्लोक ११ ते २०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।

नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्‌ ॥ ११ ॥

*

रणभूमीवर अपुले आसन

कुश मृगचर्म वस्त्र पसरून

अतिउच्च नाही अति नीच ना

स्थिर तयाची करावी स्थापना ॥११॥

*

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।

उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥ १२ ॥

*

आरुढ आसनावरती व्हावे

गात्रे-चित्त क्रिया वश करावे

मनासिया एकाग्र करावे

योगाभ्यासे मन शुद्ध करावे ॥१२॥

*

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।

सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌ ॥ १३ ॥

*

स्थिराचल ठेवुनी कायामस्तकमान 

कायामने अपुल्या अचल स्थिरावुन

नासिकाग्रावरी एकाग्र दृष्टीला करुन

अन्य दिशांना मुळी  ना अवलोकुन ॥१३॥

*

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।

मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥ १४ ॥

*

व्रत आचरता ब्रह्मचर्य असावे निर्भय शांत

मनास घालुन आवर व्हावे माझ्या ठायी चित्त ॥१४॥

*

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।

शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥ १५ ॥

*

मनावरी संयम योग्याचा निरंतर आत्मा मज ठायी

परमानंद स्वरूपी शांती तयाला निश्चित प्राप्त होई ॥१५॥

*

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।

न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ १६ ॥

*

आहार जयाचा अति अथवा अनशन जो करितो 

अतिनिद्रेच्या आहारी जो वा सदैव जागृत राहतो

सिद्ध होई ना योग तयांना जाणुन घेई कौंतेया

सम्यक आचरणाचे जीवन योगा साध्य कराया ॥१६॥

*

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ १७ ॥

*

युक्त आहार युक्त विहार युक्त यत्न कर्मात 

युक्त निद्रा युक्त जागृति दुःखनाशक योग सिद्ध  ॥१७॥

*

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।

निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥ १८ ॥

*

अंकित केले चित्त होता स्थिर परमात्म्यात

भोगलालसा लयास जाते तोचि योगयुक्त ॥१८॥

*

यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।

योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥ १९ ॥

*

पवन नसता वहात जैसा दीप न चंचल  

जितचित्त योगी तैसा परमात्मध्यानी अचल ॥१९॥

*

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।

यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥ २० ॥

*

योगाभ्यासे निरुद्ध केले चित्त होत उपरत

ध्याने  साक्षात्कारी प्रज्ञा परमात्म्यात संतुष्ट ॥२०॥

– क्रमशः भाग तिसरा

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 137 ☆ लघुकथा – सलमा बनाम सोन चिरैया ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा सलमा बनाम सोन चिरैया। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 137 ☆

☆ लघुकथा – सलमा बनाम सोन चिरैया ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

सलमा बहुत हँसती थी, इतना कि चेहरे पर हमेशा ऐसी खिलखिलाहट जो उसकी सूनी आँखों पर नजर ही ना पड़ने दे। गद्देदार सोफों, कीमती कालीन और महंगे पर्दों से सजा हुआ आलीशान घर।तीन मंजिला विशाल कोठी, फाईव स्टार होटल जैसे कमरे। हँसती हुई वह हर कमरा दिखा रही थी –‘ये बड़े बेटे साहिल का कमरा है, न्यूयार्क में है, गए हुए आठ साल हो गए, अब आना नहीं चाहता यहाँ।’ 

फिर खिल-खिल हँसी — ‘इसे तो पहचान गई होगी तुम —सादिक का गिटार, बचपन में तुम्हें कितने गाने सुनाता था इस पर, उसी का कमरा है यह, वह बेंगलुरु में है- कई महीने हो गए उसे यहाँ आए हुए। मैं ही गई थी उसके पास।’ वह आगे बढ़ी – ‘यह गेस्ट रूम है और यह  हमारा बेडरूम —-। ‘पति ?’ – — अरे तुम्हें तो पता ही है सुबह नौ बजे निकलकर रात में दस बजे ही वह घर लौटते हैं’ – वही हँसी, खिलखिलाहट, आँखें छिप गईं।

‘और यह कमरा मेरी प्यारी सोन चिरैया का’– सोने -सा चमकदार पिंजरा कमरे में बीचोंबीच लटक रहा था, जगह – जगह छोटे झूले लगे थे | सोन चिरैया इधर-उधर उड़ती, झूलती, दाने चुगती और पिंजरे में जा बैठती। 

सलमा बोली – ‘दो थीं एक मर गई। कमरे का दरवाजा खुला हो तब भी वह उड़कर बाहर नहीं जाती।यह अकेली कब तक जिएगी पता नहीं ?’

इस बार उसकी आँखें बोली  थीं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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