प्रेमाची परिभाषा…प्रेम , विरह, वेड आणि युद्ध यांची एक अतिशय हृदयस्पर्शी कहाणी..” द कोड ऑफ लव्ह ” या इंग्रजी पुस्तकाचा मराठी अनुवाद मेघना जोशी यांनी सहज सोप्या हळूवार शब्दांमध्ये आणला आहे. या पुस्तकाचे मूळ लेखक अँड्रो लिंकलेटर यांनी ही सत्यकथा अतिशय कौशल्याने आणि संवेदनशीलतेने लिहिली आहे. असे हे पुस्तक माझ्या वाचनात आले..
1939 सालचा वसंत ऋतू…सुंदर तरुणी पामेला किराज व देखणा पायलट डोनाल्ड हिल याला भेटते व पाहताच क्षणी कलिजा खलास झाला या उक्तीनुसार ते दोघे एकमेकांच्या प्रेमात पडतात. पण दुस-या महायुद्धामुळे त्यांचा विवाह लांबणीवर पडतो. आनंद, दुःख, नैराश्य, चैतन्य अश्या अनेक रूपांमधून तिने प्रेमाचा अनुभव घेतला. पण हे प्रेम मात्रं तिला सहजासहजी मिळाले नाही. पण तिच्या या प्रेमावरच्या एकनिष्ठेनेच त्या एकमेव बंधनाला एक खोली आणि उत्कटता प्राप्त करून दिली. महायुद्धाने त्यांना परस्परांपासून वेगळे केले. त्यांचे युद्धा नंतर परत येणे हेच एवढे वेगळे होते की नंतरच्या पिढीमध्ये अश्या प्रकारचा वेगळेपणा सापडणे केवळ अशक्यच होते. हे स्पष्ट पुस्तक वाचताना जाणवते.
डोनाल्डची नेमणूक हाँगकाँगला होते आणि तेथे भविष्यातला संभाव्य धोका लक्षात घेऊन तो डायरी लिहायला सुरुवात करतो. डायरी मधील सुरुवातीच्या शब्दांमध्येच त्याने स्पष्ट लिहिले आहे की त्याला त्या क्षणांपासून सर्व घटनांची नोंद का ठेवावीशी वाटली? पण त्याने त्यातला मजकूर मात्रं सांकेतिक भाषेत लिहिला आणि ती भाषा मात्र रहस्यमय आकड्यांची असते. डायरी मधील पहिल्याच ओळीमधून डायरी लिहिणा-याची दूरदृष्टी दिसून येते. डोनाल्डचा दृष्टीकोन मात्रं वेगळा होता. त्याच्या बाबतीत जे काही घडेल त्याच्या तो नोंदी ठेवायचा. त्याच्या स्वभावाची आणखी एक खासियत होती ती म्हणजे काही घटना गोष्टी लपवण्याकरता सांकेतिक भाषेची मदत घेतली होती. सुरूवातीला त्याने गुपिते लिहिण्याकरता शाॅर्टहँडचा वापर केला पण काहीच महिन्यानंतर त्याला आपला मजकूर वाचली जाण्याची भीती वाटू लागली तेव्हा त्याने त्यावर सांकेतिक शब्दांचे वेष्टण चढवले व मजकूरा भोवती एक गूढ वलयं निर्माण केलं त्यामुळे तो खूपच गुंतागुंतीचा बनला. फक्त त्याला एकट्यालाच तो वाचणे शक्य होते. पण त्याचे शेवटचे शब्द हे तिच्या नावाभोवतीच गुंफले होते…तर ती होती फक्त आणि फक्तच पामेला..!! ती डायरी म्हणजे त्याचे गुपित..
हाँगकाँगचे युद्ध अश्या प्रकारे सुरू झाले होते की ते फार काळापर्यंत टिकणारेही नव्हते. त्याचे दूरगामी परिणाम डोनाल्डच्या उभ्या आयुष्यावर कायमचे झाले. त्याला प्रत्यक्ष युद्धानंतर युद्ध कैद्यांच्या छावणी मध्ये नेण्यात आले. आणि हा माणूस सर्वच बाबतीत कायमचा आणि पूर्णपणेबदलून गेला. युद्धा पूर्वीचा आणि युद्धा नंतरचा डोनाल्ड यामध्ये एक महत्त्वाचा दुवा होता तो म्हणजे त्याची ती डायरी आणि त्याचे पामेलावरचे प्रेम….या दोन गोष्टी मरेपर्यंत त्याच्या जवळ होत्या..
डोनाल्ड युद्धाहून परत येतो पण युद्ध कैदी असताना त्याचा अतोनात शारीरिक व मानसिक छळ झालेला असतो. त्याचा परिणाम त्याच्या मनावर व आयुष्यावरही होतो. त्या आठवणी आयुष्यभर त्याचा पिच्छा पुरवतात…पामेलाला मनापासून वाटते की डोनाल्डला समजून घेण्यासाठी त्याच्या डायरीतील रहस्ये समजून घेतली पाहिजे. हे रहस्यमय आकडे पामेलाला उलगडता येतील? त्याची सांकेतिक भाषा तिला जाणून घेता येईल?..
आपल्या प्रेमाला जाणून घेण्याची एका शोधाची ही सत्यकथा…त्याच्या या डायरीचे रहस्य त्याच्या मृत्युनंतरही काही वर्षे तसेच होते…!!
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ुद से जीतने की ज़िद्द। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 177 ☆
☆ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द☆
‘खुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ मुझे ख़ुद को ही हराना है। मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ वाट्सएप का यह संदेश मुझे अंतरात्मा की आवाज़ प्रतीत हुआ और ऐसा लगा कि यह मेरे जीवन का अनुभूत सत्य है, मनोभावों की मनोरम अभिव्यक्ति है। ख़ुद से जीतने की ज़िद अर्थात् निरंतर आगे बढ़ने का जज़्बा, इंसान को उस मुक़ाम पर ले जाता है, जो कल्पनातीत है। यह झरोखा है, मानव के आत्मविश्वास का; लेखा-जोखा है… एहसास व जज़्बात का; भाव और संवेदनाओं का– जो साहस, उत्साह व धैर्य का दामन थामे, हमें उस निश्चित मुक़ाम पर पहुंचाते हैं, जिससे आगे कोई राह नहीं…केवल शून्य है। परंतु संसार रूपी सागर के अथाह जल में गोते खाता मन, अथक परिश्रम व अदम्य साहस के साथ आंतरिक ऊर्जा को संचित कर, हमें साहिल तक पहुंचाता है…जो हमारी मंज़िल है।
‘अगर देखना चाहते हो/ मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो / आसमान को’ प्रकट करता है मानव के जज़्बे, आत्मविश्वास व ऊर्जा को..जहां पहुंचने के पश्चात् भी उसे संतोष का अनुभव नहीं होता। वह नये मुक़ाम हासिल कर, मील के पत्थर स्थापित करना चाहता है, जो आगामी पीढ़ियों में उत्साह, ऊर्जा व प्रेरणा का संचरण कर सके। इसके साथ ही मुझे याद आ रही हैं, 2007 में प्रकाशित ‘अस्मिता’ की वे पंक्तियां ‘मुझ मेंं साहस ‘औ’/ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं/ मैं आकाश की बुलंदियां’ अर्थात् युवा पीढ़ी से अपेक्षा है कि वे अपनी मंज़िल पर पहुंचने से पूर्व बीच राह में थक कर न बैठें और उसे पाने के पश्चात् भी निरंतर कर्मशील रहें, क्योंकि इस जहान से आगे जहान और भी हैं। सो! संतुष्ट होकर बैठ जाना प्रगति के पथ का अवरोधक है…दूसरे शब्दों में यह पलायनवादिता है। मानव अपने अदम्य साहस व उत्साह के बल पर नये व अनछुए मुक़ाम हासिल कर सकता है।
‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती’… अनुकरणीय संदेश है… एक गोताखोर, जिसके लिए हीरे, रत्न, मोती आदि पाने के निमित्त सागर के गहरे जल में उतरना अनिवार्य होता है। सो! कोशिश करने वालों को कभी पराजय का सामना नहीं करना पड़ता। दीपा मलिक भले ही दिव्यांग महिला हैं, परंतु उनके जज़्बे को सलाम है। ऐसे अनेक दिव्यांगों व लोगों के उदाहरण हमारे समक्ष हैं, जो हमें ऊर्जा प्रदान करते हैं। के•बी• सी• में हर सप्ताह एक न एक कर्मवीर से मिलने का अवसर प्राप्त होता है, जिसे देख कर अंतर्मन में अलौकिक ऊर्जा संचरित होती है, जो हमें शुभ कर्म करने को प्रेरित करती है।
‘मैं अकेला चला था जानिब!/ लोग मिलते गये/ और कारवां बनता गया।’ यदि आपके कर्म शुभ व अच्छे हैं, तो काफ़िला स्वयं ही आपके साथ हो लेता है। ऐसे सज्जन पुरुषों का साथ देकर आप अपने भाग्य को सराहते हैं और भविष्य में लोग आपका अनुकरण करने लग जाते हैं… आप सबके प्रेरणा-स्त्रोत बन जाते हैं। टैगोर का ‘एकला चलो रे’ में निहित भावना हमें प्रेरित ही नहीं, ऊर्जस्वित करती है और राह में आने वाली बाधाओं-आपदाओं का सामना करने का संदेश देती है। यदि मानव का निश्चय दृढ़ व अटल है, तो लाख प्रयास करने पर, कोई भी आपको पथ-विचलित नहीं कर सकता। इसी प्रकार सही व सत्य मार्ग पर चलते हुए, आपका त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता। लोग पगडंडियों पर चलकर अपने भाग्य को सराहते हैं तथा अधूरे कार्यों को संपन्न कर सपनों को साकार कर लेना चाहते हैं।
‘सपने देखो, ज़िद्द करो’ कथन भी मानव को प्रेरित करता है कि उसे अथवा विशेष रूप से युवा-पीढ़ी को उस राह पर अग्रसर होना चाहिए। सपने देखना व उन्हें साकार करने की ज़िद, उनके लिए मार्ग-दर्शक का कार्य करती है। ग़लत बात पर अड़े रहना व ज़बर्दस्ती अपनी बात मनवाना भी एक प्रकार की ज़िद्द है, जुनून है…जो उपयोगी नहीं, उन्नति के पथ में अवरोधक है। सो! हमें सपने देखते हुए, संभावना पर अवश्य दृष्टिपात करना चाहिए। दूसरी ओर मार्ग दिखाई पड़े या न पड़े… वहां से लौटने का निर्णय लेना अत्यंत हानिकारक है। एडिसन जब बिजली के बल्ब का आविष्कार कर रहे थे, तो उनके एक हज़ार प्रयास विफल हुए और तब उनके एक मित्र ने उनसे विफलता की बात कही, तो उन्होंने उन प्रयोगों की उपादेयता को स्वीकारते हुए कहा… अब मुझे यह प्रयोग दोबारा नहीं करने पड़ेंगे। यह मेरे पथ-प्रदर्शक हैं…इसलिए मैं निराश नहीं हूं, बल्कि अपने लक्ष्य के निकट पहुंच गया हूं। अंततः उन्होंने आत्म-विश्वास के बल पर सफलता अर्जित की।
आजकल अपने बनाए रिकॉर्ड तोड़ कर नए रिकॉर्ड स्थापित करने के कितने उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। कितनी सुखद अनुभूति के होते होंगे वे क्षण… कल्पनातीत है। यह इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि ‘वे भीड़ का हिस्सा नहीं हैं तथा अपने अंतर्मन की इच्छाओं को पूर्ण कर सुक़ून पाना चाहते हैं।’ यह उन महान् व्यक्तियों के लक्षण हैं, जो अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचान कर अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर नये मील के पत्थर स्थापित करना चाहते हैं। बीता हुआ कल अतीत है, आने वाला कल भविष्य तथा वही आने वाला कल वर्तमान होगा। सो! गुज़रा हुआ कल और आने वाला कल दोनों व्यर्थ हैं, महत्वहीन हैं। इसलिए मानव को वर्तमान में जीना चाहिए, क्योंकि वर्तमान ही सार्थक है… अतीत के लिए आंसू बहाना और भविष्य के स्वर्णिम सपनों के प्रति शंका भाव रखना, हमारे वर्तमान को भी दु:खमय बना देता है। सो! मानव के लिए अपने सपनों को साकार करके, वर्तमान को सुखद बनाने का हर संभव प्रयास करना श्रेष्ठ है। इसलिए अपनी क्षमताओं को पहचानो तथा धीर, वीर, गंभीर बन कर समाज को रोशन करो… यही जीवन की उपादेयता है।
‘जहां खुद से लड़ना वरदान है, वहीं दूसरे से लड़ना अभिशाप।’ सो! हमें प्रतिपक्षी को कमज़ोर समझ कर कभी भी ललकारना नहीं चाहिए, क्योंकि आधुनिक युग में हर इंसान अहंवादी है और अहं का संघर्ष, जहां घर-परिवार व अन्य रिश्तों में सेंध लगा रहा है; दीमक की भांति चाट रहा है, वहीं समाज व देश में फूट डालकर युद्ध की स्थिति तक उत्पन्न कर रहा है। मुझे याद आ आ रहा है, एक प्रेरक प्रसंग… बोधिसत्व, बटेर का जन्म लेकर उनके साथ रहने लगे। शिकारी बटेर की आवाज़ निकाल कर, मछलियों को जाल में फंसा कर अपनी आजीविका चलाता था। बोधि ने बटेर के बच्चों को, अपनी जाति की रक्षा के लिए, जाल की गांठों को कस कर पकड़ कर, जाल को लेकर उड़ने का संदेश दिया…और उनकी एकता रंग लाई। वे जाल को लेकर उड़ गये और शिकारी हाथ मलता रह गया। खाली हाथ घर लौटने पर उसकी पत्नी ने, उनमें फूट डालने की डालने के निमित्त दाना डालने को कहा। परिणामत: उनमें संघर्ष उत्पन्न हुआ और दो गुट बनने के कारण वे शिकारी की गिरफ़्त में आ गए और वह अपने मिशन में कामयाब हो गया। ‘फूट डालो और राज्य करो’ के आधार पर अंग्रेज़ों का हमारे देश पर अनेक वर्षों तक आधिपत्य रहा। ‘एकता में बल है तथा बंद मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक़ की’ एकजुटता का संदेश देती है। अनुशासन से एकता को बल मिलता है, जिसके आधार पर हम बाहरी शत्रुओं व शक्तियों से तो लोहा ले सकते हैं, परंतु मन के शत्रुओं को पराजित करन अत्यंत कठिन है। काम, क्रोध, लोभ, मोह पर तो इंसान किसी प्रकार विजय प्राप्त कर सकता है, परंतु अहं को पराजित करना आसान नहीं है।
मानव में ख़ुद को जीतने की ज़िद्द होनी चाहिए, जिस के आधार पर मानव उस मुक़ाम पर आसानी से पहुंच सकता है, क्योंकि उसका प्रति-पक्षी वह स्वयं होता है और उसका सामना भी ख़ुद से होता है। इस मन:स्थिति में ईर्ष्या-द्वेष का भाव नदारद रहता है… मानव का हृदय अलौकिक आनन्दोल्लास से आप्लावित हो जाता है और उसे ऐसी दिव्यानुभूति होती है, जैसी उसे अपने बच्चों से पराजित होने पर होती है। ‘चाइल्ड इज़ दी फॉदर ऑफ मैन’ के अंतर्गत माता-पिता, बच्चों को अपने से ऊंचे पदों पर आसीन देख कर फूले नहीं समाते और अपने भाग्य को सराहते नहीं थकते। सो! ख़ुद को हराने के लिए दरक़ार है…स्व-पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ कर, जीव- जगत् में परमात्म-सत्ता अनुभव करने की; दूसरों के हितों का ख्याल रखते हुए उन्हें दु:ख, तकलीफ़ व कष्ट न पहुंचाने की; नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने की … यही वे माध्यम हैं, जिनके द्वारा हम दूसरों को पराजित कर, उनके हृदय में प्रतिष्ठापित होने के पश्चात्, मील के नवीन पत्थर स्थापित कर सकते हैं। इस स्थिति में मानव इस तथ्य से अवगत होता है कि उस के अंतर्मन में अदृश्य व अलौकिक शक्तियों का खज़ाना छिपा है, जिन्हें जाग्रत कर हम विषम परिस्थितियों का बखूबी सामना कर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे …”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर बाल गीत – “चलो वक्त के साथ चलो…”. आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 162 ☆
☆ एक पूर्णिका – “चलो वक्त के साथ चलो…” ☆ श्री संतोष नेमा ☆
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीयएवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है नवरात्र पर्व पर आपकी एक कविता – “बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली)”।
साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 62
हनुमान प्राकट्य दिवस विशेष – बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली)… डॉ. सलमा जमाल
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “उठा पटक के मुद्दे…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 143 ☆
☆ मंजिल की तलाश में… ☆
सलाहकार की फौज होने से कोई विजेता नहीं बन जाता, एक व्यक्ति हो पर सच्चा और समझदार हो तो मंजिल तक पहुँचा जा सकता है। नासमझी के चलते लोग ऐसी टीम गठित कर लेते हैं, जहाँ हर सिक्का खोटा होता है, अब खोटे से कुछ होने से रहा, सो खींचतान करते हुए अपनी जगह पर मशीनी साइक्लिंग करते नज़र आते हैं। ऐसी दशा में वजन भले ही कम हो किन्तु दिशा बदलने से रही।
चाणक्य ने चंद्रगुप्त द्वारा नए साम्रज्य की स्थापना कर दी किन्तु अविवेकपूर्ण व्यक्ति न तो स्वयं बढ़ेगा न दूसरों को बढ़ने देगा। केवल धक्का- मुक्की के बल पर भला शिखर पर विराजित हुआ जा सकता है।
यदि आपमें नेतृत्व की क्षमता न हो तो जरूरी नहीं कि मुखिया बनें आप ऐसी टीम के साथ जुड़कर कार्य कर सकते हैं जहाँ बुद्धिमत्ता पूर्वक निर्णय लिए जा रहे हों। देश निर्माण में लगे रहना, विश्व बंधुत्व को बढ़ावा, तकनीकी विकास, आर्थिक उदारता के साथ अपने को विश्व का मुखिया बना लेना। कदम दर कदम चलते रहने का ही परिणाम है।
तेरा- मेरा छोड़कर मिल बाँट कर रहना सीखिए। सब कुछ केवल मेरा हो ये प्रवृत्ति जब तक मन से नहीं जायेगी तब तक मानसिक शांति नहीं मिल सकती। जो लोग साथ रहने की आदत रखते हैं वे हमेशा मुस्कुराते हुए हर परिस्थितियों का सामना करते जाते हैं। कोई भी वस्तु या क्षण स्थायी नहीं होता इसमें बदलाव होना स्वाभाविक है अतः किसी वस्तु के प्रति अनावश्यक मोह नहीं पालना चाहिए, कैसे योग्य बनें इस पर चिंतन करते हुए स्वयं को निखारते रहें। अनायास ही जब प्रकृति आपसे दी हुई सुविधाएँ वापस लेने लगे तो समझ जाइये की वक्त बदल रहा है सो अभी भी समय है बदलिए। पुरानी बातों का ढ़िढोरा पीटने से कुछ नहीं होगा।
हर घटना कुछ न कुछ सिखाती है व हमें अवसर प्रदान करती है खुद को सिद्ध करने का। अतः किसी एक क्षेत्र में प्रयास करते रहें जब तक मंजिल न मिल जाए।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है श्री लक्ष्मण यादव ‘लक्ष्मण’ जी की पुस्तक “गजल की संरचना और नेपाल की हिंदी गज़लेंकी समीक्षा।)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘गजल की संरचना और नेपाल की हिंदी गज़लें’ – श्री लक्ष्मण यादव ‘लक्ष्मण’ ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆
पुस्तक- गजल की संरचना और नेपाल की हिंदी गज़लें
रचनाकार- लक्ष्मण यादव ‘लक्ष्मण’
प्रकाशक- सुमन पुस्तक भंडार, सुखीपुर-5, लड़कन्हाँ, सिरहा नेपाल
पृष्ठ संख्या-152
मूल्य-₹250
समीक्षक ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’
☆ समीक्षा – गजल संरचना की बेहतरीन पुस्तक ☆
गजल का अपना मिजाज होता है। इसी मिजाज के चलते इसके नियम दृढ़ होते हैं। जिसके परिपालन से गजल में वजन बढ़ जाता है। तभी जाकर बेहतरीन गजल का प्रत्येक शेर अपने आप में संपूर्ण होता है। इसे सुनने के बाद श्रोता आह और वाह कर उठते हैं।
इसी वजह से गजल लिखना, आरंभ में बहुत कठिन कार्य होता है। जब आप इसकी रग-रग से वाकिफ हो जाते हैं तब इससे सरल काव्य रचना कोई नहीं होती है। यही कारण है कि जो एक बार ग़ज़ल लिखना शुरु कर देता है तब वह दूसरी काव्य विधा की ओर नहीं जाता है।
यही वजह है कि प्रत्येक काव्य रचयिता अपने जीवन में एक ना एक बार गजल लिखने की कोशिश करता है। यदि वह इसमें कामयाब हो जाता है तो ग़ज़ल का होकर रह जाता है। यदि इस दौरान अन्य काव्य-रचना लिखता है तो उसमें भी वजन बढ़ जाता है।
इसी कारण से हरेक देश में गजल और उसकी संरचना पर अनेक पुस्तकें लिखी गई है। इसी तारतम्य में हमारे समक्ष नेपाल की एक पुस्तक- गजल की संरचना और नेपाल की हिंदी गज़लें, समीक्षार्थ रूप से रखी हुई है। इस पुस्तक को नेपाल की ग़ज़लकार लक्ष्मण यादव ‘लक्ष्मण’ ने लिखा है।
पुस्तक में नेपाल की हर छोटे-बड़े रचनाकार, हिंदी के समर्थक, कवि, कहानीकार आदि ने अपने पत्रों से इस पुस्तक को आशीर्वाद प्रदान किया है। जो इसके आरंभिक पृष्ठों पर प्रकाशित हैं। यह पुस्तक सात अध्याय और उसके पांच से अधिक उपाध्याय में विभक्त है।
नेपाल में हिंदी की पृष्ठभूमि कैसी है? वहां पर गजल का विकास क्रम किस प्रकार का हुआ है? इस प्रथम अध्याय में गजल, अर्थ, परिभाषा, अरबी, फारसी, उर्दू, हिंदी गजलों के बारे में जानकारी दी गई है।
गजल की बात हो और उसके प्रकार का उल्लेख न किया जाए, यह नहीं हो सकता है। दूसरा अध्याय इसी पर केंद्रित है। जहां पर भाव, तुकान्त, राग-विराग आदि अनेक आधारों पर ग़ज़ल के अंतर को बारीकी से समझाया गया है।
गजल की संरचना का उल्लेख किए बिना ग़ज़ल की पुस्तक अधूरी होती है। जब संरचना की बात हो तो उसकी विशेषता, आंतरिक और बाहरी संरचना का उल्लेख होना बहुत जरूरी होता है। इसे के द्वारा गजल के अंग- मतला, रदीफ काफिया, मिशरा, तखुल्लुम, शेर, मकता और गजल की जमीन को समझा जा सकता है।
गजल की अपनी भाषा है। यह भाषा गजल की संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसमें किन शब्दों का कब और कहां उपयोग किया जाता है, यह भी महत्वपूर्ण होता है। इसका भी बारीकी से उल्लेख किया गया है।
गजल का संविधान अलग होता है। इसमें हिंदी काव्य की तरह मात्रा की गणना करने का अपना विधान है। कब और कहां मात्रा को गिराया जाता है? वह किस बहर पर रची जाएगी और उसके बहर के प्रकार क्या है? यह एक ग़ज़लकार ही बता सकता है।
इन्हीं प्रवृत्तियों का प्रस्तुतीकरण इस पुस्तक में किया गया है। साथ ही नेपाल के प्रसिद्ध गजलकारों और उनकी गज़लों को भी इस पुस्तक में शामिल किया गया है। चूंकि इस पुस्तक का लेखक नेपाल का निवासी है इस कारण इस पुस्तक में नेपाल के कुछ विशिष्ट शब्दों का समावेश हो गया है। इसके कारण वे पढ़ते समय हमारे दिमाग में खटकने लगते हैं। क्योंकि वह हमारे लिए नए होते हैं। इसके बावजूद गजल की संरचना समझने व सीखने के लिए यह बेहतरीन पुस्तक है। इसमें दो राय नहीं है।
इस बेहतरीन ग़ज़ल संरचना की पुस्तक लिखने के लिए रचनाकार लक्ष्मण यादव बधाई के पात्र हैं। उन्हें हमारी ओर से हार्दिक साधुवाद।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य –जूम और मीट की बहार है…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 204 ☆
व्यंग्य – जूम और मीट की बहार है…
लोकतंत्र में बिना चर्चा कोई काम नहीं होता. सबकी सहभागिता जरूरी है. सहभागिता के लिये मीटिंग आवश्यक हैं. कोरोना जनित नया जमाना वर्चुएल मीटिंग्स का है. जूम और मीट की बहार है.वर्क फ्राम होम का कल्चर फल फूल पनप रहा है. विकास की चर्चाओ के लिये सरकारी और साहित्य की असरकारी मीटिंग्स पोस्ट कोरोना युग में मोबाईल और लैपटाप्स पर ही सुसंपन्न हो रही हैं. जूम पर या गूगल मीट पर मीटींग्स के लिये पहले दिन और समय तय होता है. संबंधितो को व्हाट्सअप ग्रुप्स पर मीटिंग का संदेश दिया जाता है. यदि मीटिंग सरकारी है तब तो बडे साहब के चैम्बर में उनकी सीट के सामने की दीवार पर एक बड़ा सा मानीटर होता है. एक युवा साफ्टवेयर इंजीनियर पहले ब्राडबैंड सिग्नल, बैकग्राउंड दृश्य और साउंड क्वालिटी चैक करता है. फिर जिन अन्य मातहत कार्यालयों को मीटिंग में जोड़ना होता है, बारी बारी से उन्हें फोन करके उनसे संपर्क करता है जिससे जब साहबों की वास्तविक मीटिंग हो तो बेतार के तार निर्विघ्न जुड़े रहें. नियत समय से कुछ पहले से ही मातहत अपनी प्राग्रेस रिपोर्ट या प्रस्तावों के प्रतिवेदन तैयार करके, अपने कपड़े ठीक ठाक करके कैमरे के सम्मुख विराजमान हो जाते हैं. यदि मीटिंग बड़ी हुई यानी उसमें प्रदेश भर के कार्यालय जुड़ने वाले हुये तो आईडेंटीफिकेशन के लिये मातहत आफिसों के नाम की फलेक्स पट्टिकायें भी लगा दी जातीं है. इस बीच यदि कोई फरियादी जरुरी से जरूरी काम लेकर भी साहब से मिलना चाहता है तो सफेद ड्रेस में सज्जित दरबान उसे बाहर ही रोक देता है, और थोड़े रोब से बताता है आज साहब हेड आफिस से वीसी मतलब वर्चुएल कांफ्रेंस में हैं. आगंतुक समझ जाता है कि आज साहब पास होकर भी दूर वालों के ज्यादा पास हैं. आज उन तक फरियाद पहुंचाना मुश्किल है.
वर्चुएल मीटिंग को साहित्यकारों ने भी बहुत अच्छा प्रतिसाद दिया है. योग, नृत्य, ट्यूशन क्लासेज भी जूम और मीट प्लेटफार्म पर सक्सेजफुली चल रही हैं. अब साहित्य की गोष्ठियां मोबाईल से ही निपटा ली जाती है. इनवीटेशन, हाल बुकिंग, मंच माला माईक, चाय नाश्ता, सारी झंझटों से मुक्ति मिल गई है. वरचुएल मीट प्रारंभ होते ही जब अधिकाधिक लोग जुड़े होते हैं, अखबारी न्यूज के लिये स्क्रीन शाट ले लिये जाते हैं. चतुर लोग धीरे से अपना वीडीयो और माईक बंद करके दूसरे काम निपटा लेते हैं. कुछ तो मीटिंग साउंड भी बंद करके मोबाईल जेब के हवाले कर देते हैं, पर वर्चुएली मीटिंग से जुड़े रहकर समूह के साथ अपनी सालीडेरिटी बनाये रखते हैं. ऐसे साफ्टवेयर फ्रेंडली रचनाकार वर्चुएल बैकग्राउंड में किताबों से भरी लाईब्रेरी का चित्र लगाकर अपना प्रोफाईल कुछ खास बना लेते हैं. जो थोड़ा बुजुर्ग या अधेड़ उम्र के वरिष्ठ या गरिष्ट साहित्यकार होते हैं, यदि वे जूम फ्रेंडली नहीं होते कि मींटिंग के दौरान हैंण्ड रेज कर सकें, माईक चालू या बंद कर सकें और अपना कैमरा सेट कर सकें, तो मदद के लिये वे अपने साथ अपने नाती पोतों या युवा पीढ़ी से बेटे, बहू को पकड़ रखते हैं. यदि सब सैट करके बच्चे खिसक लिये तो ऐसे लोगों की प्रोफाईल पर सीलींग का पंखा देखने मिल सकता है. कभी कभी जब किचन की आवाजें जूम मीटिंग में सुनाई दें तो समझ लें किसी न किसी ऐसे ही व्यक्ति का माईक खुला हुआ है. प्रायः जब किसी ऐसे व्यक्ति के बोलने की बारी आती है तो माईक चालू करते ही वे शुरुवात करते हुये कहते हैं ” मेरी आवाज आ रही है न ! ” तब संचालक को बताना पड़ता है कि, जी हाँ आपकी पूरी आवाज आ रही है. सच तो यह है कि कभी कभार हुये आकस्मिक तकनीकी व्यवधान छोड़ दिये जायें तो फाईव जी के इस जमाने में आवाज तो सबकी पूरी ही आती है, ये और बात है कि सबकी आवाजें सुनी नहीं जातीं.जूम और मीट की बहार है. वर्चुएल मीटिंग का बड़ा लाभ यही है कि कार्यालयों की मीटिंग में जब डांट पड़ने लगती है तो आवाजें डिस्टर्ब कर ली जातीं हैं, साहित्यिक मीटींग्स में आत्ममुग्धता से भरे व्याख्यान खुद बोलो खुद सुनो बनकर रह जाते हैं क्योंकि आवाज आती तो है पर सुनना न सुनना दूसरे छोर पर बैठे व्यक्ति के हाथ होता है. अच्छी से अच्छी बातें तो हमेशा से हैं आ रही हैं, उन्हें सुन भी लें तो उन्हें ग्रहण करना तो सदा से हम पर ही निर्भर है.
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)