काळजाला भिडते असे काही तेव्हा शब्दात मांडले जातेच असे नाही…
मग डोळेच येतात धावून नि भावनेचा ओघ घेतात सामावून.. क्षणभर होते त्यांची कालवाकालव अन आसवांची करतात जमवाजमव..
तरारलेले अश्रू पूर्ण डोळे एकेक थेंब ओघळू लागतात..
पाहशील का एकदाच डोळयात माझ्या,दिसतेय का तुला अर्थपूर्ण हळवी भावना असे मुके हुंदके सांगत असतात.. ओथंबलेली डोळ्यातली आसवं पापणीच्या किनाऱ्यावर जलबिंदूची नक्षी काढतात..
अन तर्जनी नकळत फिरते तिथे अलगद अलवारपणे टिपून घेते किनाऱ्यावर साचलेले अश्रूबिंदू…
एखादा उन्मळून वाहिलेला भावनेचा कड गालावरून जेव्हा स्यंदन करत ओघळतो..
भर भावुकतेचा वाहून गेला तरी सल त्याचा उरी टोचतच राहतो…
आणि आणि या आवेगाची आठवण जेव्हा जेव्हा त्या क्षणाला येते तेव्हा तेव्हा ही अशीच आसवांची रिमझिम बरसून जाते…
मन गलबलून येते नि…
काळजाला भिडते असे काही तेव्हा शब्दात मांडले जातेच असे नाही.
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘भगवान का क्या सरनेम है?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 116 ☆
☆ लघुकथा – भगवान का क्या सरनेम है? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
कक्षा में टीचर के आते ही विद्यार्थी ने एक सवाल पूछा – मैडम! नेम और सरनेम में क्या ज़्यादा इम्पोर्टेंट होता है?
‘मतलब’? – मैडम सकपका गईं फिर थोड़ा संभलकर बोली – यह कैसा सवाल है निखिल?
पापा कहते हैं कि किसी को उसके सरनेम से बुलाना चाहिए, नाम से नहीं। सरनेम इम्पोर्टेंट होता है।
लेकिन क्यों? नाम से बुलाने में कितना अपनापन लगता है। नाम हमारी पहचान है। माता- पिता कितने प्यार से अपने बच्चे का नाम रखते हैं।
मैम! पर पापा कहते हैं कि सरनेम हमारी सच्ची पहचान होता है। हम किस जाति के हैं, धर्म के हैं, यह सरनेम से ही पता चलता है। दूसरों को इसका पता तो चलना चाहिए।
अच्छा स्कूल में आपस में दोस्ती करने के लिए नाम पूछते हो या सरनेम? वैशाली! तुम बताओ।
मैम! नेम पूछते हैं।
मेरे पापा ने बताया कि सरनेम हमारा गुरूर है, नेम से बुलाओ तो सरनेम हर्ट हो जाता है। वह बड़ा होता है ना! – अक्षत ने कहा।
कक्षा के एक बच्चे ने कुछ कहने के लिए हाथ उठाया। हाँ बोलो क्षितिज! मैडम ने कहा।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका कीhttps://www.e-abhivyakti.com/wp-admin/post.php?post=53412&action=edit# प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “श्रद्धा लभते ज्ञानम्…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 146 ☆
☆ श्रद्धा लभते ज्ञानम्… ☆
जब कोई वस्तु या व्यक्ति हमारी कल्पना के अनुरूप होता है, तो अनायास ही उसकी हम उसकी ओर आकर्षित होने लगते हैं। मानव की यह प्रवृत्ति तब घातक सिद्ध होने लगती है,जब यह एक तरफा होकर, जुनून की हद तक बढ़ जाए, इस समय मनुष्य, विवेक से अंधा होकर सही गलत का फर्क भूल जाता है और मन में वांछित पाने की चाहत और बलवती हो जाती है।
वनवास के दौरान माता सीता भी स्वर्ण मृग के प्रति आकर्षित हुईं जबकि वो ये जानती थीं कि ऐसा होना संभव नहीं है और तो और भगवान श्री राम भी उनकी इच्छा पूरी करने के लिए चल दिये। ये सब आकर्षण का माया जाल है जिसके प्रभाव से बड़े – बड़े संत महात्मा भी नहीं बच सके।
लगभग सभी जीव जंतु स्नेह की भाषा समझते हैं। खासकर मनुष्य जो ईश्वर की अनुपम कृति है वो हमेशा सुखद वातावरण ही चाहता है। ये बात अलग है कुछ लोग परिस्थितियों के आगे घुटने टेक देते हैं तो वहीं कुछ संघर्ष कर विजेता के रूप में सबके प्रेरक बनते हैं। कहा जाता है- श्रद्धा लभते ज्ञानम्। सही है जब हमारी सोच विकसित होगी तभी श्रद्धा, विश्वास और धैर्य पनपेंगे। क्या आपने कभी सोचा कि हममें से अधिकांश लोग सकारात्मक पोस्ट ही क्यों पढ़ते हैं व शेयर करते हैं ?
कारण साफ है, हर व्यक्ति मानसिक सुकून चाहता है। जैसी संगत होगी वैसा ही हमारा स्वभाव बनने लगता है अतः केवल अच्छाई से जुड़ते हुए आगे बढ़ते चलें, परिणाम सुखद होगा।
अधिकतर लोग पैसे के लिए हाय- हाय करते दिखते हैं, पूरी उम्र बीत जाने के बाद भी वही ढाक के तीन पात। कारण साफ है कि आप ने अपने कार्यों का मूल्यांकन कभी नहीं किया अन्यथा आपको पैसे की तलाश में भटकना नहीं पड़ता।
यहाँ पर भी श्रद्धा आपकी सहेली बन आत्मविश्वास बढ़ाने का कार्य खूबसूरती से करेगी। अपने अंदर हुनर पैदा करें और उसे तराशने में पूरे मनोयोग से जुट जाएँ। देखते ही देखते कई राहें आपके सामने होगीं और कार्य से अधिक का परिणाम अवश्य मिलेगा। बस बोले नहीं कार्य करें क्योंकि कार्य जब बोलेंगे तभी शुभ फल मिलेंगे और कर्म ,धर्म व मर्म सभी आप के अनुसार चलने लग जायेंगे।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – कला एवं साहित्य में स्वास्थ्य चेतना…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 209 ☆
आलेख – कला एवं साहित्य में स्वास्थ्य चेतना…
कहा गया है कि धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया और चरित्र गया तो सब कुछ गया. यद्यपि यह उक्ति चरित्र के महत्व को प्रतिपादित करते हुये कही गई है किन्तु इसमें कही गई बात कि “स्वास्थ्य गया तो कुछ गया” रेखांकित करने योग्य है. हमारा शरीर ही वह माध्यम है जो जीवन के उद्देश्य निष्पादित करने का माध्यम है. स्वस्थ्य तन में ही स्वस्थ्य मन का निवास होता है. और निश्चिंत मन से ही हम जीवन में कुछ कर सकते हैं. कला और साहित्य मन की अभिव्यक्ति के परिणाम ही हैं. स्वास्थ्य और साहित्य का आपस में गहरा संबंध होता है. स्वस्थ साहित्य समाज को स्वस्थ रखने में अहम भूमिका अदा करता है. साहित्य में समाज का व्यापक हित सन्नहित होना वांछित है. और समाज में स्वास्थ्य चेतना जागृत बनी रहे इसके लिये निरंतर सद्साहित्य का सृजन, पठन पाठन, संगीत, नाटक, फिल्म, मूर्ति कला, पेंटिंग आदि कलाओ में हमें स्वास्थ्य विषयक कृतियां देखने सुनने को मिलती हैं. यही नहीं नवीनतम विज्ञान के अनुसार मनोरोगों के निदान में कला चिकित्सा का उपयोग बहुतायत से किया जा रहा है. व्यक्ति की कलात्मक अभिव्यक्ति के जरिये मनोचिकित्सक द्वारा विश्लेषण किये जाते हैं और उससे उसके मनोभाव समझे जाते हैं. बच्चों के विकास में कागज के विभिन्न आर्ट ओरोगामी, पेंटिग, मूर्ति कला, आदि का बहुत योगदान होता है. स्वास्थ्य दर्पण, आरोग्य, आयुष, निरोगधाम, आदि अनेकानेक पत्रिकायें बुक स्टाल्स पर सहज ही मिल जाती हैं. फिल्में, टी वी और रेडियो ऐसे कला माध्यम है जिनकी बदौलत साहित्य और कला का व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है.जाने कितनी ही उल्लेखनीय हिन्दी फिल्में हैं जिनमें रोग विशेष को कथानक बनाया गया है. अपेक्षाकृत उपेक्षित अनेक बीमारियों के विषय में जनमानस की स्वास्थ्य चेतना जगाने में फिल्मों का योगदान अप्रतिम है.
फिल्म आनंद में कैंसर के विषय में, फिल्म ‘पा’ में औरो नाम के एक बच्चे की कहानी है जिसकी उम्र 13 साल है और जिसे प्रोजेरिया नाम की बीमारी हो जाती है. इस बीमारी में व्यक्ति बहुत तेजी से बूढ़ा होने लगता है. फिल्म गुप्त रोग में स्त्री पुरुष संबंधो के बारे में, फिल्म तारे जमीन पर में ईशान अपने बोर्डिंग स्कूल में कुछ भी ठीक से नहीं कर पाता है, सौभाग्य से, एक नया कला शिक्षक उसे यह पता लगाने में मदद करता है कि उसे डिस्लेक्सिया है और वह उसकी क्षमता को पहचानने में मदद करता है, फिल्म हिचकी में रानी मुखर्जी ने एक ऐसी टीचर का किरदार निभाया जिसे टॉरेट सिंड्रोम हैं. इस बीमारी में महिलाओं को बार-बार हिचकी आने के चलते बोलने और समझने में दिक्कत होती है. इसी तरह पिकू में कांस्टीपेशन का, गजनी में एमनेसिया नामक बीमारी का, माई नेम इज खान में एस्परगर सिंड्रोम को लोगों के सामने पेश किया गया. एस्परगर सिंड्रोम एक तरह का परवेसिव डेवलपमेंट डिसऑर्डर है. इसका मरीज गुमनामी में रहना पसंद करता है. शुभ मंगल सावधान में नपुंसकता पर, ए दिल है मुश्किल में टर्मिनल कैंसर पर, जनजागृति पैदा करने में कलात्मक सफलता देखने मिलती है.ढ़ेरों फिल्में स्वास्थ्य के विभिन्न पहलुओ पर केंद्रित हैं. साहित्य में हम देखते हैं कि अनेक उपन्यास कहानियां समय समय पर नायक या नायिका की टी बी, कैंसर या किसी अन्य बीमारी पर केंद्रित होने के कारण मर्मांतक, हृदय स्पर्शी और काल जयी बन गयी. स्वास्थ्य संबंधी साहित्य अत्यंत लोकप्रिय है. हर अखबार कोई न कोई स्वास्थ्य परिशिष्ट या स्तंभ अवश्य चलाता है. इस पृष्ठभूमि के संदर्भ में मेरा अभिमत है कि कला एवं साहित्य में स्वास्थ्य चेतना हमेशा से बनी रही है. किन्तु समय के साथ यह और जरूरी हो गया है कि कला एवं साहित्य में स्वास्थ्य संदर्भो पर और काम किये जायें. कोरोना आपदा एक आकस्मिक वैश्विक स्वास्थ्य समस्या का विस्फोट था. रचनाकारों ने इसका सकारात्मक उपयोग किया. लाकडाउन में लोगों को खूब समय मिला. मैंने कोरोना काल के व्यंग्य लेखों का संग्रह लाकडाउन नाम से संपादित किया. कोरोना जनित कविताओ के कई संग्रह अनेक प्रकाशनो से छपे हैं. पिछले दिनों में योग, इम्युनिटी बढ़ाने के नुस्खों पर भी बहुत सारा लिखा गया है.
मैं अपने पहले कविता संग्रह आक्रोश से यह कविता उदृत करना चाहता हूं…
अस्पताल
जिंदगी कैद है यहाँ आक्सीजन के सिलेंडर में
उल्टी लटकी है सिलाइन ग्लूकोज या खून की बोतल में
शुगर कोटेड हैं टेबलेट्स और कैप्सूल,
पर जिंदगी बड़ी कड़वी है.
माँस के लोथड़े में, इंजेक्शन की चुभन
जाने कैसी तो होती है अस्पताल की गंध.
सफेद नर्स, डाक्टर- ज्यादा बगुले, कुछ हंस
गले में झूलता स्टेथेस्कोप,
क्या सचमुच सुन पाता है
कितना किसका जिंदगी से नाता है
अनेक व्यंग्य लेखों में भी सहज ही मेरा स्वास्थ्य संबंधी लिखना होता रहा है. उदाहरण के तौर पर मेरा एक व्यंग्य छपा था मेरे परिवार का स्वास्थ्य अभियान, जिसमें स्वास्थ्य उपकरणो के बाजारवाद पर कटाक्ष किया गया है. एक अन्य व्यंग्य है ब्रांडेड वर वधू जिसमें कल्पना की गई है कि मेडिकल रिपोर्टस मिलाकर कम्प्यूटर जी शादियां तय करेंगे जिससे आर एच पाजिटिव निगेटिव लड़के लड़कियों की शादी से थैलेसिमा जैसी समस्याओ का निदान हो सकेगा. ब्लड टेस्ट, प्रदूषण और स्वास्थ्य पर उसके दुष्प्रभाव आदि लेख भी लिखे गये.
जनसंख्या नियंत्रण, कुपोषण के विरुद्ध अभियान, शिशु स्वास्थ्य, शिशु मृत्यु दर को कम करने, चेचक नियंत्रण, पोलियो नियंत्रण आदि आदि मुद्दों पर नुक्कड़ नाटक हमने देखे हैं. गिरिराज शरण अग्रवाल की प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित किताब स्वास्थ्य व्यवस्था पर व्यंग्य में वे लिखते हैं ” अस्पताल हो और वह भी सरकारी तो उसका अलग आनंद है, बस आपमें इस अद्भुत पर्यटन स्थल का आनंद लेने की क्षमता होना चाहिये.
परसाई जी के व्यंग्य निंदा रस से अंश पाठ उद्धृत करना चाहता हूं…
निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा खून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशियाँ पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है। संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। ‘मौसम कौन कुटिल खल कामी’- यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा कांइयाँ होता है। हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है।
स्वास्थ्य विज्ञान की एक मूल स्थापना तो मैंने कर दी। अब डॉक्टरों का कुल इतना काम बचा कि वे शोध करें कि किस तरह की निंदा में कौन से और कितने विटामिन होते हैं, कितना प्रोटीन होता है। मेरा अंदाज है, स्त्री संबंधी निंदा में प्रोटीन बड़ी मात्रा में और शराब संबंधी निंदा में विटामिन बहुतायत में होते हैं. परसाई जी ने अपने अनेक व्यंग्य लेखों में स्वास्थ्य विषयक विसंगतियां उठाई हैं. उदाहरण के तौर पर बम और बीमारी, बुखार आ गया, चीनी डाक्टर भागा, रामभरोसे का इलाज, निठल्ले की डायरी में अनेक प्रसंगों में परसाई जी के स्वास्थ्य चेतना संदर्भ मिलते हैं. शरद जोशी जी के प्रतिदिन में अनेक मौकों पर, रवीन्द्र नाथ त्यागी जी के व्यंग्यो में अनेकानेक संदर्भो में, मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में सहज रुप से अनेक प्रसंगों में हमें नायक या नायिका या रचना के किरदारों की बीमारियों के वर्णन मिलते है.तत्कालीन स्वास्थ्य व्यवस्थाओ, अंधविश्वास, रूढ़ियों पर प्रहार, पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के स्वास्थ्य, खानपान में भेदबाव को हमेशा से रचनाकारो ने इंगित किया है. और समाज को समय से आगे लाने में अपनी लेखनी से प्रयासरत रहे हैं.
दिल्ली में स्वस्थ्य भारत ने ही वर्ष २०१९ में एक राष्ट्रीय लघुकथा संगोष्ठी का आयोजन किया था जिसमें स्वास्थ्य विषयक लघुकथायें ही पढ़ी गई थी. और यह गोष्ठी बहुचर्चित रही थी.
कला चिकित्सा के सिद्धांतों में मानवतावाद, रचनात्मकता, भावनात्मक संघर्षों को सुलझाना, आत्म-जागरूकता को बढ़ावा देना और व्यक्तित्व विकास शामिल है. एक पेशे के रूप में कला चिकित्सा का उदय स्वतंत्र रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में हुआ. शब्द “आर्ट थेरेपी” का प्रयोग 1942 में ब्रिटिश कलाकार एड्रियन हिल द्वारा किया गया था, उन्होंने तपेदिक से उबरने के दौरान पेंटिंग और ड्राइंग से स्वास्थ्य लाभों की खोज की थी.
साहित्य कला और स्वास्थ्य चेतना परस्पर गुंथे हुये विषय हैं. यद्यपि अब तक इस तरह किसी समालोचक ने स्वास्थ्य साहित्य को इस विभक्त करके कोई रेखांकन नही किया है. यह आयोजन साहित्य में नितांत नई समीक्षा दृष्टि है. मेरा अभिमत है कि इस दृष्टि को और विस्तार दिया जाये. स्वास्थ्य संबंधी कहानियां, कवितायें, व्यंग्य, नाटको के संग्रह प्रकाशित किये जा सकते हैं. युवा शोधार्थी इन धारणाओ में पी एच डी कर सकते हैं. जन स्वास्थ्य संसद जैसे और भी परिचर्चायें तथा आयोजन और होने चाहिये. जिससे लोगों में निरोगी काया के प्रति जागरूकता का वातावरण सृजित हो.
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है डॉ. नीनासिंह सोलंकीजी के बाल कथा संग्रह “टीनू का पुस्तकालय” की पुस्तक समीक्षा।)
☆ बाल कथा संग्रह – ‘टीनू का पुस्तकालय‘ – डॉ. नीनासिंह सोलंकी ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆
कथा-संग्रह – टीनू का पुस्तकालय
उपन्यासकार- डॉ. नीनासिंह सोलंकी
प्रकाशक- संदर्भ प्रकाशन, भोपाल (मप्र) मोबाइल नंबर 94244 69015
पृष्ठ संख्या-72
मूल्य-₹ 200
समीक्षक- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’
☆ समीक्षा- प्रवाह से भरपूर कहानियां ☆
कहानी कहने का सलीका होना चाहिए। तब यह बात कोई मायने नहीं रखती है कि आप नए कथाकार हो अथवा पुराने। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। यह बात नवोदित कथाकार नीनासिंह सोलंकी पर फिट बैठती है।
टीनू का पुस्तकालय- आपका दूसरा कहानी संग्रह है। इस संग्रह में 12 कहानियां संग्रहित की गई हैं। प्रथम कहानी संग्रह की अपेक्षा दूसरे कहानी संग्रह में गुणात्मक रुप से सुधार हुआ है। भाषा, शैली, कथा, प्रवाह की दृष्टि से कहानी संग्रह बढ़िया बना है।
इसकी पहली कहानी-आदि के दादाजी, नाम से संकलित है। कहानी में दादाजी के महत्व को प्रतिपादित किया गया है। इस दृष्टि से कहानी बहुत ही अच्छी बनी है। इसका प्रवाह और अंत बहुत ही प्रभावी है।
पुस्तक आमुख के नाम की कहानी- टीनू का पुस्तकालय- पुस्तक की महत्व प्रदर्शित करती दूसरी कहानी है। यह पुस्तकालय के महत्त्व को रेखांकित करती है।
अनमोल उपहार- कहानी में उपहार के महत्व को प्रदर्शित करती हैं। यह कहानी बताती कैं कि विद्या से बढ़कर कोई उपहार नहीं होता है। अनमोल उपहार इसी महत्व को प्रदर्शित करती एक बेहतरीन कहानी है।
छोटी सी बात- पीती और नीति की दोस्ती के अनमोल पलों को प्रदर्शित करती है। छोटी सी बात पर दोस्ती टूट जाती है। फिर एक सहेली की सुझबुझ से वापस दोस्ती हो जाती है। यह संदेशपरक कहानी बढ़िया है।
बुलबुल समझ गई-में एक नए कथानक द्वारा पानी के महत्व को समझाया गया है। मध्यांतर के बाद वाला भाग ज्यादा उद्देशात्मक हो गया है। वही निया और मिनी की यात्रा- के बहाने ग्लोबल वार्मिंग और घटते ग्लेशियर के बारे में आपने बहुत ही बेहतर ढंग से कहानी में समझाया है।
मैरी क्रिसमस- एक स्वाभाविक गति से आगे बढ़ती हुई बेहतरीन कहानी है। इसमें कथा परवाह बहुत ही बेहतरीन हैं। वही बच्चों की किट्टी पार्टी- बड़ों की तर्ज पर बच्चों की किट्टी पार्टी एक नए कथानक पर रची गई है। इस नए कथानक पर रची गई कहानी बच्चों को बहुत पसंद आएगी।
चांद के पार- संवाद से भरपूर इस कहानी में बच्चों की जिज्ञासाओं का बहुत ही सहजता से उत्तर दिया गया है।
वही चीनी के दोस्त- बाल सुलभ जिज्ञासा के साथ पक्षियों से प्रेम जताती बेहतरीन कहानी है।
सूरज दौड़ गया- खेल प्रतियोगिता दौड़ पर आधारित एक अच्छी कहानी है। मगर प्लास्टर के बाद दौड़ना और प्रतियोगिता में भाग लेना कुछ हजम नहीं होता है। हेयर क्रेक के बाद बहुत दिनों तक दौड़ना मुश्किल है। यह एक तकनीकी पॉइंट है। इसके बावजूद कहानी बहुत बढ़िया बनी है।
अमरुद मीठे हैं- बच्चों की स्वाभाविक आदत के अनुसार एक बेहतरीन कहानी लिखी गई है। इसका घटनाक्रम भी स्वाभाविक लगता है।
कुल मिलाकर टीनू का पुस्तकालय की समस्त कहानियां अपने कथानक, भाषा, शैली, परवाह के साथ जिज्ञासायुक्त और बेहतरीन बनी है। पुस्तक की साजसज्जा, त्रुटिरहित छपाई बेहतरीन है। बच्चों के हिसाब से 72 पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य ₹200 कुछ ज्यादा है।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 131 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है “तन्मय के दोहे…”।)
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “यायावर यात्राएँ…”।)
जय प्रकाश के नवगीत # 05 ☆ यायावर यात्राएँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆