हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 07 ☆ समझौते… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “समझौते।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 07 ☆ समझौते… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

आओ कुछ

पढ़ डालें चेहरे

फेंक दें उतार कर मुखौटे।

 

पहचानें पदचापें

समय की

कुल्हाड़ी से काटें जंजीरें

तमस के चरोखर में

खींच दें

उजली सी धूप की लकीरें

 

सूरज से

माँगें पल सुनहरे

तोड़ें रातों से समझौते ।

 

पत्थरों पर तराशें

संभावना

सूने नेपथ्य को जगाकर

उधड़े पैबंद से

चरित्रों को

मंचों से रख दें उठाकर

 

हुए सभी

सूत्रधार बहरे

जो हैं बस बोथरे सरौते।

 

ऊबड़-खाबड़ बंजर

ठूँठ से

उगते हैं जिनमें आक्रोश

बीज के भरोसे में

बैठे हैं

ओढ़ एक सपना मदहोश

 

चलो रटें

राहों के ककहरे

गए पाँव जिन पर न लौटे।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 65 ☆ मातृ दिवस विशेष – गीत – अनमोल प्यार… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है मातृ दिवस पर आपका एक स्नेहिल गीत – अनमोल प्यार

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 65 ✒️

?  मातृ दिवस विशेष – गीत – अनमोल प्यार… ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

मां तेरे अनमोल प्यार को,

आज समझ मैं पाई हूं ।

श्रद्धा सुमन क़दमों पर तेरे ,

अर्पित करने आई हूं  ।।

 

घर के काम सभी तू करती ,

चूड़ियां बजती थीं छन – छन ,

भोर से पहले तू उठ जाती ,

पायल बजती थी छन – छन ,

गोद में लेकर चक्की पीसती ,

मैं प्रेम सुधा से नहायी हूं ।

मां तेरे —————————- ।।

 

बादल गरजते बिजली चमकती ,

वह सीने से चिपकाना ,

आंखों में आंसुओं को छुपाना ,

मेरे दर्द से कराहना ,

याद आता है रह-रहकर ,

बचपन ,

कैसे तुम्हें सतायी हूं ।

मां तेरे —————————– ।।

 

मैं हूं बाबूजी की बेटी ,

तू भी किसी की बेटी है ,

हम तो चहकते हैं चिड़ियों से ,

तू क्यों उदास बैठी है ,

तेरे क़दमों में बसे स्वर्ग को ,

आज देख मैं पायी हूं ।

मां तेरे —————————– ।।

 

गर्भवती हुई पहली बार मैं ,

तब तेरा एहसास हुआ ,

नौ महीने कोख में संभाला ,

दुखों का ना आभास हुआ ,

सीने से सलमा को लगा लो ,

भले ही मैं पराई हूं ।।

मां तेरे —————————— ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 66 – किस्साये तालघाट… भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 66 – किस्साये तालघाट – भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शाखा में मंगलवार का कार्यदिवस चुनौतियों को टीमवर्क के द्वारा परास्त करने के रूप में सामने आया और विषमताओं और विसंगतियों के बावजूद शाखा की हार्मोनी अखंड रही. इस दैनिक लक्ष्य को पाने के बाद स्टाफ विश्लेषण में व्यस्त हो गया. जो दैनिक अपडाउनर्स थे, उन्होंने अपराध बोध के बावजूद दोष रेल विभाग और राज्यपरिवहन को सुगमता से दान कर दिया. पर इस शाखा में एक लेखापाल महोदय भी थे. वैसे दैनिक तो नहीं पर साप्ताहिक अपडाउनर्स तो वो भी थे पर इसे असामान्य मानते हुये उन्होंने DUD याने डेली अपडाउनर्स से इशारों इशारों में बहुत कुछ कह भी दिया. अगर चाहते तो प्रशासनिक स्तर पर नंबर दो होते हुये समस्या के हल की दिशा में संवाद भी कर सकते थे पर उनका यह मानना था कि ये सब तब तक शाखाप्रबंधक के कार्यक्षेत्र में आता है जब तक कि यह दायित्व उनके मथ्थे नहीं पड़ता. ऐसी स्थिति स्थायी रूप से उन्होंने कभी आने नहीं दी और स्थानापन्न की स्थिति में भी प्रदत्त फाइनेंशियल पॉवर्स का प्रयोग सिर्फ पेटीकेश के वाउचर्स पास करने तक ही सीमित रखा. लेखापाल के पद पर उन्होंने स्वयं ही अपना रोल स्ट्रांग रूम और अपनी सीट तक सीमित करके रखा था. याने उनका कार्यक्षेत्र अटारी और वाघा बार्डर के बीच ही सीमित था.                  

जब पुराने जमाने में शाखाप्रबंधक को बैंक ने “ऐजेंट”पदनाम नवाजा था तब उनका रुतबा किसी राजा के सूबेदार से कम नहीं होता था. बैंक परिसर के ऊपर ही उनका राजनिवास हुआ करता था और यह माना जाता था कि लंच/डिनर/शयन के समय के अलावा उनका रोल शाखा की देखरेख करना ही है. बैंक परिसर के बाहर अगर वे शहर और बाजार क्षेत्र में भी जायें तो उनका पहला उत्तरदायित्व बैंक के वाणिज्यिक हितों का संरक्षण और प्रमोशन ही होना चाहिए. उस जमाने में बैंक विशेषकर अपने बैंक के “ऐजेंट”का रुतबा जिले या तहसील के सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारियों से कम नहीं माना जाता था. पर जब भारतीय जीवन निगम ने अपने घुमंतू बिजनेस खींचको को यही परिचय नाम दिया तो बैंक में ऐजेंट का पद भी रातोंरात “शाखाप्रबंधक” बन गया और बैंक के इस प्रतिष्ठित और महत्वपूर्ण पद की मानमर्यादा की रक्षा हुई. लगा जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी का दौर खत्म हुआ और ईस्ट टू वेस्ट और नार्थ टू साउथ सिर्फ और सिर्फ एक नाम से बैंकिंग के नये दौर की शुरुआत हुई जो आजादी के बाद बने भारत की तरह ही बेमिसाल और अतुलनीय थी. कश्मीर से कन्याकुमारी तक सिर्फ भारत ही नहीं हमारा बैंक भी एक ही है और हमारी कहानियां भले ही कुछ कुछ अलग लगती हों, हमारे धर्म, जाति, भाषा और प्रांतीयता के अलग होते हुये भी ये बैंक का मोनोग्राम ही है जिसके अंदर से हम जैसे ही गुजरते हैं, एक हो जाते हैं. आखिर हम सबकी सर्विस कंडीशन्स और वैतनिक लाभ भी तो एक से ही हैं. विभिन्नता पद और लेंथ ऑफ सर्विस में भले ही हो पर भावना में हमारे यहाँ बैंक के लिए जो मैसेंजर सोचता है, वही मैनेजर भी सोचता है कि यह विशाल वटवृक्ष सलामत रहे, मजबूत रहे और सबकी उम्मीदों को, सबके वर्तमान और भविष्य को संरक्षित करता रहे.

नोट: इस भावना में तालघाट शाखा के लेखापाल का परिचय अधूरा रह गया जो अगले भाग में सामने लाने की कोशिश करूंगा. इन महाशय के साथ का सौभाग्य हमें भी प्राप्त हुआ था तो ये चरित्र काल्पनिक नहीं है, पर नाम की जरूरत भी नहीं है. हो सकता है हममें से बहुत लोग इस तरह की प्रतिभाओं से रूबरू हो चुके हों. पर उनके व्यक्तित्व को चुटीले और मनोरंजक रूप में पेश करना ही इस श्रंखला का एकमात्र उद्देश्य है. किस्साये तालघाट जारी तो रहेगा पर अगर आप सभी पढ़कर इसके साथ किसी न किसी तरह जुड़े तो प्रोत्साहन मिलेगा.

अपडाउनर्स की यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 182 ☆ जगणे… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 182 ?

💥 जगणे… 💥 सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

आयुष्याचे सिंहावलोकन करताना,

किती सुंदर भासतंय सारंच,

जन्म चांदीचा चमचा घेऊन,

लाडाकोडातलं बालपण,

मंतरलेली किशोरावस्था….

भारावलेलं तरूणपण!

समंजस प्रौढत्व

साठी कधीची उलटून गेली,

तरी आताशी लागलेली,

वृद्धत्वाची चाहूल!

सुंदर,सुखवस्तू,आरामशीर आयुष्य !

किंचित वाईट ही वाटतं,

काहीच कष्ट न केल्याचं,

वाळूतून तेल न काढल्याचं !

पदरात पडलेलं प्रतिभेचं,

अल्प स्वल्प दान…आणि

त्यासाठीच भाळावर लिहिलेल्या,

चार दोन व्यथा!

आणि कुणाविषयी कुठलीच ईर्षा

न बाळगताही,

स्वतःचं सामान्यत्व स्वीकारूनही,

स्वयंघोषितांकडून,

या कवितेच्या प्रांगणातही,

अनुभवलेली कुरघोडी,

निंदानालस्ती …..या वयातही !

पण हल्ली सुखदुःख,

समानच वाटायला लागलंय!

अखेर पर्यंत….

जगावं की मनःपूत,

मस्त कलंदरीत….

“उनको खुदा मिले,

खुदाकी है जिन्हे तलाश”..म्हणत !

मरेपर्यंत जिवंतच रहावे !

 

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆ व्हाय नाॅट आय?… सुश्री वृंदा भार्गवे ☆ परिचय – सौ. अक्षता गणेश जोशी ☆

सौ. अक्षता गणेश जोशी

(सौ. अक्षता गणेश जोशी आपलं ई-अभिव्यक्तीवर हार्दिक स्वागत)

अल्प परिचय

शिक्षण – बी. ए. (इतिहास) आवड – वाचनाची आवड आहे… ऐतिहासिक वाचन आवडते… वाचलेल्या पुस्तकावर अभिप्राय लेखनचा प्रयत्न करते…

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ व्हाय नाॅट आय?… सुश्री वृंदा भार्गवे ☆ परिचय – सौ. अक्षता गणेश जोशी ☆

पुस्तक परिचय

पुस्तकाचे नाव – व्हाय नॉट आय?

लेखिका – वृंदा भार्गवे.

पृष्ठ संख्या – २५२

अमेय प्रकाशन

मूल्य – २५०₹

जन्मतः माणसाला सुदृढ, निरोगी,धडधाकट आयुष्य मिळणे म्हणजे दैवी देणगीच म्हणावी लागेल. ती टिकवणे आपल्याच हातात आहे असे जरी आपल्याला वाटत असले तरी एखादी व्यक्ती त्याला अपवाद असू शकते. वयाच्या सातव्या वर्षी डॉक्टरांच्या एका चुकीमुळे पाणीदार डोळ्याच्या देखण्या देवू ची (देवकी) दृष्टी गेली.याचा परिणाम त्वचा,दात, केस,वर्ण या सगळ्यावर झाला.एवढं सगळं होऊन ही तिने आणि तिच्या आईने जिद्द सोडली नाही…

सत्य घटनेवर आधारित असणारी ही आहे “उजेडयात्रा”… कादंबरी,कथा,अनुभव कथन कशात ती बसू शकेल याची कल्पना नाही. ही संघर्ष आणि जिद्दीची प्रेरणादायी कथा आहे हे मात्र नक्की!!

“अंधारावर उजेड कोरणाऱ्या मायलेकीची कहाणी…”

लेखिकेने अतिशय सुरेख शब्दात घडलेल्या घटनांचे वर्णन केले आहे. घटना डोळ्यासमोर उभ्या राहतात. डोळ्यांत पाणी तरळते…देव सुद्धा एखाद्याची किती परीक्षा घेत असतो…की मागच्या जन्मी चे पाप-पुण्या चा तर्क वितर्क आपण जोखत असतो… देवू च्या यातना सोसण्याला परिसीमा नाहीच…पण त्याहीपेक्षा तिचे स्वावलंबी होणे जास्त मनाला वेधून जाते…

तिने घरच्यांच्या विरोधात जाऊन जातीबाह्य विवाह केला.दोन्ही बाजूंनी तसा विरोधच…सासरे आणि नवऱ्याच्या पाठिंब्यामुळे एम.ए. करून इतिहासात बी.एड.केले. नवरा पुढे एम.फिल.कर असे म्हणत होता पण तिने शिक्षण थांबवून शिक्षकीपेशा स्वीकारला…

पंधरा वर्षाच्या संसारात दोन मुली मोठी रेणू 10 वर्षांची आणि धाकटी देवू (देवकी)साडेतीन वर्षांची.

काही तासापूर्वी तिच्याशी बोलत असणारा तिचा नवरा ज्याचे पोट थोडे दुखत असल्याचे निमित्त होऊन अकस्मातच गेला…ती आणि तिच्या मुली एकदमच बिचाऱ्या झाल्या. तिची शाळेतील नोकरी होती तरीही…

नवरा गेल्या नंतर सासरी होणारी मानसिक कुचंबणा,निराशेचे वातावरण तिला तिच्या मुलीचे भविष्य घडवण्यासाठी नको होते म्हणून मुलींना घेऊन ती माहेरी आली. बहिणीचे लग्न झाले होते, भावांनीही वेगळे संसार थाटले होते.लहानपणी भावा-बहिणींमधले प्रेम, परस्परांसाठी जीव तुटणे ही ओढ कोठे तरी हरवली आहे असे जाणवले…तिच कमतरता आई वडिलांच्या नजरेत जाणवली… सर्वार्थाने ती एकटी पडली होती. सगळीकडून तिला व्यवहारिकतेचे अनुभव येऊ लागले.तिने लक्षात ठेवले ते माणसाचे तत्वज्ञान… माणस जपायला पाहिजेत पण माणस वेगळी आणि नातलग वेगळे हे समजलेच नाही…

आपल्याला सगळे झिडकारत आहेत असे वाटू लागले.विरंगुळा काय तो दोन मुलींचा.रेणू अगदी नवऱ्यावर देखणी शांत,खळीदार हसणं… बाबा गेल्यावर उदास-गप्प गप्प रहायची, आता आपले हक्काचे नाही याची समज तिला लवकर आलेली.रेणूचा धाकटी म्हणजे देवू वर विलक्षण जीव. देऊ चे डोळे म्हणजे तिचा अँसेट… अतिशय बोलके,मोठाले डोळे, काळ्याभोर पापण्या प्रचंड मोठया,आकाशीसर पाश्र्वभूमीवर काळ्या रंगाची बुब्बुळ… दोघीना रंगाचे भारी वेड…

तिला स्वतःला आर्टिस्ट व्हायचे होत पण एक वेगळंच आयुष्य तिच्या वाट्याला आलेलं…पण दोन्ही मुलीना मात्र त्यांच्या आवडीने जगू द्यायचे अस ठरवलेलं पण हे स्वप्न नियतीने पुन्हा उध्वस्त केलेले… ९ ऑक्टोबर १९९३ ला देवू ला अचानक सर्दी खोकला  झाला. त्यातच ताप  आला.अंगावर काढण्यापेक्षा बालरोगतज्ज्ञ यांच्या कडे घेऊन गेली.

त्या रस्त्याने त्या दवाखान्यात जात नव्हती तर ती तिच्या गोंडस,सुंदर पाणीदार डोळ्याच्या मुलीच्या आयुष्याची शोकांतिका लिहायला चालली होती.

औषध घेऊन ही ताप कमी येत नव्हता.घसा लालसर झाला शरीरावर ही डाग दिसू लागले,एक डोळा लाल झाला. पुन्हा डॉक्टरानी तेच औषध सुरू ठेवा असे सांगितले. तापाचे प्रमाण पुन्हा कमी जास्त होत गेले.पण डोळे मात्र लाल, त्यातून येणारा पांढरा स्त्राव,पूर्ण शरीरावर भयंकर रँश.वरचा ओठ पूर्णपणे सुजलेला…एका विचित्र संकटाची चाहूल तर नाही ना…

रक्ताची तपासणी करून आणून द्या मगच समजेल… तोपर्यंत सेपट्रन हे औषध चालू ठेवा…हे औषध अगदी ओळखीचे झालं होत. तपासणी मध्ये मलेरिया झाले एवढंच समजले. डॉक्टरानी ताबडतोब अँडमिट करायला सांगितले. 26 तारखेला डॉक्टरांनी देवू चा नवाच आजार जाहीर केला.”STEVENS JOHNSON SYNDROME”  तिला तर समजलेच नाही. काळजी करू नका.ट्रीटमेंट बदलू असे डॉक्टर म्हटत. देवू च्या सर्वांगावर पडलेले लाल डाग आता काळ्या डागात परावर्तित झालेले.”ममा, रोज नवा फुगा तयार होतो बघ…”ती फोडाला फुगा म्हणायची… आता तिच्या डोळ्यांकडे पाहवत नव्हते.ऍडमिट केल्यापासून सलायन,अनेकदा ब्लड काढण्यासाठी सुया टोचल्या जायच्या.पण देवू एकदाही रडली नाही. हे सगळं सहन करण्याच्या पलीकडे होते.देवू साठी आणि देवू च्या आईसाठी… या सगळ्यात तिला तिच्या धाकट्या दिराची मदत झाली.वेगवेगळे डॉक्टर यायचे ते सांगतात ते ऐकायचे त्यांच्या दृष्टीने तिची वेगळी केस असायची… अगदी हैद्राबादला मध्ये तिला दाखवले एक तर डोळ्यात आलेला कोरडेपणा आणि गेलेली दृष्टी… प्रत्येकाची वेगळी औषधे आणि त्यांचे चार्जेस….

(देवू च्या सुरुवातीच्या आयुष्यात जे वेदनादायी प्रसंग आले ते मला लिहणे सुद्धा त्रासाचे झाले जे याही पेक्षा तिने कोणावरही राग,दोष न देता सहन केले…खरच काय म्हणावे तिच्या सहनशक्तीला…)

या काळात तिला नवऱ्याची प्रकर्षाने उणीव भासली कारण तो फार्मासिस्ट होता…त्याच्या मुळे तिच्या देवू वरचे संकट तरी टळले असते… पण ती आठवण सुद्धा व्यक्त करायला सवड नव्हती….या दिवसात तिच्या सोबत तिचे आई वडील असूनही नव्हते आणि नसूनही होते.तिच्या मात्र सारख्या दवाखान्याच्या चकरा असायच्या.देवू कोणतेही आढे वेढे न घेता जायची.ज्यावेळी तिला कधीच दिसणार नाही हे कळाले तेव्हा निरागस मुलीने आईची समजूत घातली आणि तिलाच धीर दिला,”ममा तू रडतेस, मी चालेन हं… पण मला आता गाड्या दिसणार नाहीत… मी त्रास देणार नाही, शहण्यासारखी वागेन…तू मला काठी आणून दे.”  या सगळ्यात तिचा धाकटा दीर आणि धाकटा भाऊ यांची साथ मिळाली.आणखी बऱ्याच लोकांचे सहकार्य मिळाले ते सहानभूती म्हणून नाही तर देवू आणि तिच्या आईची जिद्द बघून…काळकर काका फ्रान्सहून येताना देवू साठी प्रिझर्व्हेटिव्ह फ्री टीअर ड्रॉप्स च्या ट्यूब आणल्या(डोळ्यातला ओलावा कायम टिकून ठेवण्यासाठी) एकही पैसा घेतला नाही, वावीकर बाईनी ब्रेल किट च हातात सोपवलं,देवू ला ब्रेल शिकवायची…

माणूसवेडी देवू कोणी आले की तिला प्रचंड आनंद व्हयचा.स्पर्शा चे ज्ञान तिला आता चांगले अवगत झाले होते.घरातल्या घरात ती सहज वावरू लागली… गप्प राहणाऱ्यातली मुळीच नव्हती ती.देवू ला आईच्या शाळेतच घातले. आई तिला पुस्तक मोठ्या ने वाचून दाखवत असत.एकक शब्द आणि त्याचा अर्थ…तिचे मार्क नेहमी छान असायचे…तिची हुशारी बघून इतर मुलांमध्ये न्यूनगंड येईल म्हणून तिचे प्रत्येक विषयातले मार्क कमी केले. हे कळल्यावर देवू च्या आईला खूप वाईट वाटले.पण त्या काही बोलू शकल्या नाहीत…पण काही शिक्षक असे ही होते की तिला योग्य मार्गदर्शन करत तिच्यावर त्यांचा जीव होता कारण ती हुशार आणि बुद्धीमान म्हणून नव्हे,तर तिला प्रत्येक गोष्ट आत्मसात करण्याची मनस्वी ओढ होती. असे चांगले वाईट अनुभव आले तरी त्या दोघी पुन्हा नव्याने सज्ज होत…तिच्या रेणू दि ची ही साथ खूप मोलाची होती.

देवू सातवीच्या वार्षिक परीक्षेत चारी तुकड्या मधून पहिली आली. सेमी इंग्लिश मिडीयम च्या वर्गासाठी निवडलेल्या मुलांच्या यादीत तिचा पहिला क्रमांक होता.तिची स्मरण शक्ती अफलातून होती.स्वतःचे वेळापत्रक स्वतः आखून त्याप्रमाणे पूर्तता झाली पाहिजे हा तिचा कटाक्ष असे.दहावी ला तिला 86% मार्क मिळाले. देवू च्या यशात नँब ने प्रचंड सहाय्य केले.तिथल्या लोकांनाही देवू चे वेगळे जाणवले असावे.फोन केल्यावर,”बोला देवू ची आई”काय हवं नको ते विचारायचे. दक्षिणेतल्या अंदमान सफरीसाठी महाराष्ट्र राज्यातून काही अपंग विद्यार्थ्यांची निवड करण्यात आली त्यात देवू चा ही समावेश होता.ती व्यवस्थित जाऊन आली ही…

देवू ने आर्ट्स ला ऍडमिशन घेतले. इकॉनॉमिक्स हा विषय तिला खूप आवडतो.शाळेतल्या प्रमाणे तिला कॉलेजमध्ये मैत्रिणी ही खूप छान मिळात गेल्या… “10 वी 12 वी त पहिलं येणं नाही ग एवढं क्रेडीटेबल… मला माणसांसाठी, त्यांच्या सुखासाठी काहीतरी करायचंय,त्यासाठी भरपूर शिकू दे ग मला’असे ती म्हणयची. देवूला संशोधनात रस आहे… जे तिला करावेसे वाटते त्याची पूर्तता झाली असे लेखिकेने दाखविले आहे…

या सगळ्या यशात देवू ला तिला आई, बहीण आणखी खूप जणांची साथ लाभली असली तरी तिची अभ्यासू वृत्ती, जिद्द, स्वतः चे विचार मांडण्याचे धाडस,सगळ्याच गोष्टीत शिस्तबद्धता…या तिच्या गुणांचे योगदान खूप महत्वाचे आहे…

हे प्रेरणादायी पुस्तक वाचनीय आहे.

धन्यवाद!!

संवादिनी – सौ. अक्षता जोशी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 03 – निरर्थक सब संधान  हुए… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – निरर्थक सब संधान  हुए।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 03 – निरर्थक सब संधान  हुए… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

लक्ष्य न कोई सधा

निरर्थक सब संधान हुए

 

योजनाएँ तो बनीं

किन्तु विपरीत दिशाएँ थीं

भ्रूणांकुर के पहले ही

पनपीं शंकाएँ थीं

ऊषा की बेला में

दिनकर के अवसान हुए

 

उड़ने से पहले कट जाती

डोर पतंगों की

भुनसारे से खबरें आतीं

हिंसा, दंगों की

पलने से पहले ही

सपने लहूलुहान हुए

 

बच्चों के मुख से गायब है

अरुणारी लाली

नागफनी के आतंकों से

सहमी शेफाली

क्रूरताओं के रोज

चाटुकारी जयगान हुए

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 79 – जीवन के हैं रंग निराले… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण  रचना “जीवन के हैं रंग निराले…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 79 – जीवन के हैं रंग निराले…

जीवन के हैं रंग निराले।

कहीं अँधेरे कहीं उजाले।।

 

घूम रहा कोई कारों में,

कहीं पगों में पड़ते छाले।

 

रहता कोई है महलों में,

किस्मत में लटके हैं ताले

 

प्रजातंत्र भी अजब खेल है,

जन्म कुंडली कौन खँगाले।

 

नेताओं की फसल उगी है,

सब सत्ता के हैं मतवाले।

 

कहने को समाज की सेवा,

दरवाजे पर कुत्ते पाले।

 

गंगोत्री से बहती गंगा,

राहों में मिल जाते नाले।

 

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 08 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग ४ पौंटा साहब  ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग चार – )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 08 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग ४ – पौंटा साहब  ?

(वर्ष 1994)

अपने जीवन के कुछ वर्ष चंडीगढ़ शहर में रहने को मिले। यह हमारे परिवार के लिए सौभाग्य की बात थी क्योंकि यह न केवल एक सुंदर,सजा हुआ शहर है बल्कि हमें कंपनी की ओर से कई प्रकार की सुविधाएँ भी उपलब्ध थीं।

बर्फ पड़ने की खबर मिलते ही हम सपरिवार ड्राइवर को साथ लेकर शिमला के लिए निकल पड़ते थे। चूँकि हिमाचल की सड़कें पहाड़ी हैं हम जैसे लोगों के लिए वहाँ गाड़ी चला पाना संभव ही नहीं होता। कई होटल भी हैं तो रहने की भी अच्छी व्यवस्था हमेशा ही होती रही। संभवतः यही कारण है कि हिमाचल का अधिकांश दर्शननीय स्थान देखने का हमें सौभाग्य मिला।

अब स्पिति हमारे बकेटलिस्ट में है!

हम सभी को श्वेतिमा से लगाव है अतः श्वेत बर्फ से ढकी चोटियाँ हमें मानो पुकारती थीं और हम अवसर मिलते ही रवाना हो जाते थे।

चंडीगढ़ के निवासी ऐसे ट्रिप को अक्सर शिवालिक ट्रिप नाम देते हैं क्योंकि यह शिवालिक रेंज के अंतर्गत पड़ता है।

शिमला, कसौली, कुफ्री,चैल, तत्तापानी कालका,सोलन, परवानु आदि सभी स्थानों के दर्शन का भरपूर हमने आनंद लिया।

इस वर्ष हम कुल्लू मनाली के लिए रवाना हुए। चंडीगढ़ से 120 कि.मी. की दूरी पर डिस्ट्रिक्ट सिरमौर है। यहाँ एक प्रसिद्ध गुरुद्वारा है जिसका नाम है पौंटासाहब। हमने सबसे पहले यहीं अपना पहला पड़ाव डाला। यद्यपि दूरी 120 किलोमीटर की ही थी पर फरवरी के महीने में अभी भी कड़ाके की ठंडी थी, सुबह ओस और धुँध के कारण गाड़ी शीघ्रता से आगे नहीं बढ़ पा रही थी। रास्ते भी घुमावदार थे। अँधेरा भी जल्दी ही हो जाने के कारण हमने उस रात वहीं रुकने का मन बनाया।

पौंटा साहब का असली नाम था पाँव टिका। गुरु गोविन्द सिंह जी एक समय इस स्थान पर अपने घोड़े पर सवार होकर अपनी सेना के साथ यहाँ उतरे थे। उन दिनों वे सिक्ख धर्म का प्रचार कर रहे थे। मुगलों द्वारा भारी मात्रा में धर्म परिवर्तन ने ज़ोर भी पकड़ रखा था। ऐसे समय अपने देशवासियों को एकत्रित करना और समाज की सुरक्षा के लिए तैयार रहना उस समय के देशवासियों की बड़ी ज़िम्मेदारी थी। गुरु गोविंद सिंह जी जो सिक्ख सम्प्रदाय के दसवें गुरु थे, इस तरह घूम-घूमकर लोगों को जागरूक करने और सिक्ख धर्म का प्रचार करने निकलते थे।

गुरु गोविंद सिंह जी कहीं भी अधिक समय तक नहीं रुकते थे। पर इस स्थान पर वे चार वर्ष से अधिक समय तक रुके रहे। जिस कारण इस स्थान को पाँव टिका कहा गया। अर्थात गुरु के पाँव अधिक समय तक टिक गए। इसका रूप बदला और यह पौंटिका कहलाया। फिर समय के चलते इसका नामकरण हुआ और यह पौंटासाहब कहलाया।

उन दिनों सिरमौर के राजा मेदिनी प्रकाश थे। वे सिक्ख समुदाय के साथ एक मित्रता का हाथ बढ़ाना चाहते थे। उन्होंने ही गुरुगोविंद सिंह जी को सिरमौर में आने का आमंत्रण दिया था।

गुरुगोविंद सिंह के साथ उनकी बड़ी फौज भी हमेशा साथ चलती थी। सभी के रहने के लिए एक उत्तम स्थान आवश्यक था। राजा मेदिनी प्रकाश ने विशाल स्थान घेरकर एक सुरक्षित किले की तरह इस स्थान का निर्माण कराया, साथ ही भीतर एक विशाल गुरुद्वारा भी बनवाया। यमुना के तट पर बसा यह गुरुद्वारा आज जग प्रसिद्ध है।

यह स्थान न केवल सिक्ख सम्प्रदाय का धार्मिक स्थल है बल्कि इस स्थान का ऐतिहासिक महत्त्व भी है। यहीं पर लंबे अंतराल तक रहते हुए गुरु गोविन्द सिंह जी ने दशम ग्रंथ की रचना की थी। उनका पुत्र अजीत सिंह का जन्म भी यहीं हुआ था।

यहाँ सोने की एक पालकी है जिसे भक्तों ने गुरुद्वारे को उपहार स्वरूप में दिया था।

गुरुद्वारे के भीतर दो मुख्य स्थान हैं जिन्हें तलब असथान और दस्तर असथान कहते हैं। असथान का अर्थ है स्थान। तलब असथान में कार्यकर्ताओं को तनख्वाह बाँटी जाती थी। दस्तर असथान में पगड़ी बाँधने की रस्म अदा की जाती थी।

गुरुद्वारे के पास ही माता यमुना का मंदिर स्थापित है। यहाँ एक बड़ा हॉल है जहाँ कवि सम्मेलन आयोजित किया जाता था। इसी स्थान पर गुरु गोविंद सिंह जी के रहते हुए कविता लेखन की स्पर्धा का आयोजन भी किया जाता था। यहाँ एक संग्रहालय भी है जिसमें कई पुरातन वस्तुएँ रखी गई हैं। गुरुगोविंद सिंह जी की कलम भी यहाँ देख सकते हैं। उनके द्वारा उपयोग में लाई गई कई वस्तुएँ यहाँ देखने को मिलेंगी।

 यहाँ बड़ी संख्या में न केवल सिक्ख आते हैं बल्कि अन्य पर्यटक भी दर्शन के लिए आते रहते हैं। यहाँ आकर एक बात बहुत स्पष्ट समझ में आती है कि ईश्वर एक है, एक ओंकार। बड़ी मात्रा में लंगर की यहाँ सदा व्यवस्था रहती है। सब प्रकार के लोग,सब जाति के,वर्ग के लोग एक साथ बैठकर लंगर में प्रसाद का आनंद लेते हैं। यहाँ दिन भर बड़ी संख्या में लोगों की भीड़ रहती है।

यमुना के तट पर होने के कारण प्रकृति का सुंदर दृश्य सब तरफ देखने को मिलता है।

आज इस शहर में कई प्रकार के उद्योग प्रारंभ किए गए हैं। रहने के लिए कई बजेट होटल भी उपलब्ध है।

पौंटासाहब कुल्लू से 360 किमी की दूरी पर है। रास्ते में अगर आप रुकते हुए ढाबों के भोजन का आनंद लेते चलें तो दर्शन करने के लिए भी पर्यटक यहाँ रुकते जाते हैं। रास्ते में आपको शॉल बनने के छोटे- छोटे कुटीर उद्योग करते लोग मिल जाएँगे।

यहाँ के लोगों का स्वभाव मिलनसार है। वे पर्यटकों की अच्छी देखभाल और आतिथ्य करते हैं। उनका स्वभाव भी सरल ही होता है। आपको यहाँ अधिकतर लोग रास्ते के किनारे उकड़ूँ बैठकर बतियाते दिखाई देंगे। सभी फुर्सत में दिखते हैं। शहरों – सी भागदौड़ यहाँ नहीं दिखती। इनके छोटे- बड़े पत्थर के घर आकर्षक दिखाई देते हैं। हर घर में खूब लकड़ियाँ स्टॉक करके रखी जाती हैं। इसका उपयोग ईंधन के रूप में होता है। ठंडी का मौसम लंबे समय तक चलने के कारण वे लकड़ियाँ जमा करते रहते हैं।

यहाँ के लोग भात तो खाते ही हैं साथ में कमलगट्टे का यहाँ प्रचुर मात्रा में उपयोग होता है। आप जैसे – जैसे गाँवों की पतली सड़को से गुजरेंगे आपको हींग के पौधों की खेती दिखाई देगी। जो हाल ही में प्रारंभ की गई है।

पौंटासाहब का दर्शन करके हम रोहतांग पास तक पहुँचे। वहाँ एक खास बात देखने को मिली कि ऊपर चलने से पहले ही वे पर्यटकों के हाथ में कपड़े की थैली पकड़ाते हैं ताकि उनके पर्यावरण की रक्षा हो सके और कचरा न फेंके जाएँ। यह एक बहुत बड़ी बात थी जो समय से बहुत पहले ही देखने को मिली। यह सतर्कता अभी चंडीगढ़ में भी नहीं थी।

हमारे परिवार का यह सौभाग्य ही रहा कि हमें दूसरी बार पौंटासाहब गुरुद्वारे का दर्शन करने का अवसर मिला। इस बार हम देहरादून से वहाँ पहुँचे थे। देहरादून से पौंटासाहब पचास कि.मी की दूरी पर स्थित है।

यह नानक साहब की असीम कृपा है कि हमें भारत के मुख्य गुरुद्वारों के दर्शन का सौभाग्य मिलता ही रहा है।

वाहे गुरु, वाहे गुरु बोल खालसा

तेरा हीरा जन्म अनमोल खालसा

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 212 ☆ कविता – व्यंग्यकार… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता  – व्यंग्यकार…

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 212 ☆  

? कविता – व्यंग्यकार?

परसाई का परचम थामे हुए

जोशी का प्रतिदिन संभाले हुए

स्पिन से गिल्लीयां उड़ाते हुए

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

विसंगतियो पर करते प्रहार

जनहित के, निर्भय कर्णधार

शासन समाज की गतिविधि के

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

गुदगुदाते कभी , हंसाते कभी

छेड़ते दुखती रग , रुलाते वही

आईना दिखाते,जगाते समाज

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

पिटते भी हैं, पर न छोड़े कलम

कबीरा की राहों पे बढ़ते कदम

सत्य के पक्ष में, सत्ता पर करते

कटाक्ष, विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

आइरनी , विट, ह्यूमर ,सटायर

लक्षणा,व्यंजना, पंच औजार

नित नए व्यंग्य रचते , धारदार

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

स्तंभ हैं, संपादक के पन्ने के

रखते सीमित शब्दों में विचार

करने समाज को निर्विकार

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

चुभते हैं , कांटो से उसको

जिस पर करते हैं ये प्रहार

रोके न रुके लिखते जाते

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

कविता करते, लिखते निबंध

व्यंग्य बड़े छोटे , या उपन्यास

हंसी हंसी में कह देते हैं बात बड़ी

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

चोरों की दाढ़ी का तिनका

ढूंढ निकालें ये हर मन का

दृष्टि गजब पैनी रखते हैं

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

ख्याति प्राप्त विद्वान हुए हैं

कुछ अनाम ही लिखा करे हैं

प्रस्तुत करते नये सद्विचार

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #188 ☆ ग्रहण… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 188 ?

लागले सूर्यास येथे ग्रहण आहे ?

चंद्र करतो चक्क त्याचे हरण आहे ?

पांढरे बगळे इथे आले चराया

देश म्हणजे एक मोठे कुरण आहे

साखरेचा रोग आहे अन् तरीही ?

दाबुनी खातो फुकटचे पुरण आहे

लाज वाटावी कशाला वाकण्याची

माय-बापाचेच धरले चरण आहे

भासला नाहीच तोटा अश्रुचाही

दोन भुवयांच्याच खाली धरण आहे

मार्ग भक्तीचाच आहे भावलेला

कृष्णवर्णी शाम त्याला शरण आहे

भरजरी वस्त्रात गेली जिंदगी पण

शेवटाला फक्त मिळते कफण आहे

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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