हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 14 – हमारी इटली यात्रा – भाग 2 ☆ ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…हमारी इटली यात्रा – भाग 2)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 14 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – हमारी इटली यात्रा – भाग 2 ?

(अक्टोबर 2017)

रोम में घूमते हुए हम अपने पसंदीदा और चयनित स्थानों को प्रतिदिन देखने निकलते। यहाँ आप सबसे एक बात साझा करती हूँ आप अगर किसी ट्रैवेलिंग कंपनी के साथ जाते हैं तो वे आपको दिखाएँगे तो सभी महत्त्वपूर्ण स्थान पर विस्तार से देखने का समय नहीं दिया जाता। जिस कारण आप अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान पर पर्याप्त समय रुककर उसका आनंद नहीं ले पाते। यही कारण है कि हम अपनी यात्रा की व्यवस्था स्वयं करते हैं। दौड़-भागकर आप किसी भी स्थान को देखने का आनंद पूर्ण रूप से नहीं ले सकते।

अब हमारा दूसरा पड़ाव था वैटीकन सिटी।

हमारे रिसोर्ट के शटल गाड़ी ने हमें सुबह – सुबह ही स्टेशन ले जाकर उतार दिया। हमें पता था वह दिन हमारे लिए लंबा और थकाने वाला था तो हम भरपेट नाश्ता करके ही निकले। समय पर ट्रेन आने पर हम वैटीकन शहर पहुँचे।

यह शहर थोड़ी ऊँचाई पर स्थित है। अर्थात पहाड़ी इलाका है। यह सारा शहर ऊँची दीवार से घिरा हुआ है। संसार का यह सबसे छोटा शहर और सबसे छोटा देश भी है। परंतु यहाँ जाने के लिए वीज़ा की आवश्यकता नहीं होती।

कैथोलिक ईसाई धर्म के लोगों के लिए यह स्थान धार्मिक स्थल है। इस छोटे शहर में काफी हलचल रहती है। यह न केवल ईसाई धर्म गुरु पोप का निवास स्थान है बल्कि यह सुंदर और ऐतिहासिक संरचनाओं के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है। ईसाई धर्म के लोगों के बकेट लिस्ट में यहाँ आने की उत्कट इच्छा अवश्य होती है।

यह हमारा सौभाग्य ही है कि हमें इस ऐतिहासिक स्थान पर पर्यटन करने का अवसर मिला।

वैटीकन के मुख्य तीन हिस्से हैं। सेंट पीटर्स बैसिलिका, सिस्टीन चैपेल और वैटिकन पेलेस

इसमें विशाल संग्रहालय है। इस संग्रहालय में तीन हज़ार वर्ष पूर्व की वस्तुएँ भी देखने को मिलती हैं।

बैसिलिका का हर कोना आकर्षक चित्रकारी से परिपूर्ण है। दीवारें, छत पर सभी जगहों पर सुंदर चित्रकारी है। कहीं – कहीं पर विशाल कालीन भी दीवारों पर दिखाई देते हैं। यहाँ अत्यंत रंगीन और आकर्षक चित्रकारी के सुंदर नमूने दिखाई देते हैं। ये चित्रकारी रोम साम्राज्य के विस्तार, उसकी संस्कृति और समाज का दर्शन कराते हैं।

अगर आप पोप के निवास स्थान का भ्रमण करना चाहते हैं तो लोकल उनकी अपनी बसें चलती हैं जो सब तरफ काँच से बनी पारदर्शी होती है। जो यात्रियों को वहाँ की सैर कराती है। इन सबके लिए टिकट है। भीतर उनका अपना प्रेस है, बिशप और पोप का आवास स्थान है, सुंदर उद्यान है। कई आकर्षक फव्वारे हैं। बस से उतरने की इजाजत नहीं होती। भीतर कई प्कार के फूल दिखाई दिए। बस में साथ चलनेवाले गाइड ने बताया कि वहाँ के बगीचों में जो फूल दिखाई देते हैं वे संसार के विभिन्न राज्यों से लाए गए हैं। भीतर भरपूर स्वच्छता दिखाई दी। इमारतें चमक रही थीं क्योंकि निरंतर सफाई की जाती है। वैटीकन सिटी घूमने में भी कई घंटे लगते हैं।

यहाँ हज़ारों की संख्या में पर्यटक आते हैं। विभिन्न दालानों में भयंकर भीड़ दिखाई देती है। विभिन्न चित्रकारी और अन्य सुंदर वस्तुओं को देखते हुए जब हम आगे बढ़ रहे थे तो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि चल नहीं रहे थे बल्कि भीड़ के धक्के से बस आगे बढ़ते जा रहे थे। विभिन्न प्रकार की गंध से पूरा वातावरण विचित्र सा हो रहा था। हम और अधिक वहाँ न रुक सके और खुले विशाल परिसर की ओर निकल पड़े।

वैटिकन सिटी सन 1929 में टाइबर नदी के किनारे आज के इस रूप में स्वतंत्र पहचान के साथ स्थापित किया गया। यह मूल रूप से कैथोलिक चर्च के रूप में चौथी शताब्दी में निर्माण किया गया था। यहाँ पादरी पीटर चौक है जो विशाल, भव्य तथा बैसीलस का एक हिस्सा है। इस शहर में एक पुस्तकालय भी है जहाँ पुराने ऐतिहासिक पुस्तकें जो पैपरस पर लिखे गए थे उपलब्ध हैं।

इस सुंदर आकर्षक छोटे से शहर को देखने के लिए एक दिन का कार्यक्रम बनाकर ही जाना चाहिए। शाम को सात बजे हमारे रिसोर्ट की शटल बस रेल्वे स्टेशन पर आती थी। हम पाँच बजे के करीब ही वैटिकन सिटी से निकल गए। हम चलकर स्टेशन पहुँचे। मौसम में ठंडक थी इसलिए चलते हुए परेशानी नहीं हुई। समय पर ट्रेन से शटल बस में बैठकर रिसोर्ट पहुँचे। हम इतने थक गए थे कि उस रात हम जल्दी ही सो गए। हमारे रिसोर्ट में भोजन पकाने की पूरी सुविधा थी। यह एक फ्लैट जैसी व्यवस्था है। हम अपना भोजन पकाकर ही खाते थे जिससे देश का स्वाद परदेस में भी मिलता रहा।

क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

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ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 13 -हमारी इटली यात्रा – भाग 1 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…हमारी इटली यात्रा… का भाग 1 – )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 13 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… हमारी इटली यात्रा – भाग 1 ?

(अक्टोबर 2017 )

सफ़र करना किसे नहीं भाता है पर सफ़र के दौरान अगर सभी इंद्रियों का उचित उपयोग करें तो हम न केवल दृश्य देखने का आनंद ले सकते हैं बल्कि नए लोगों से परिचय भी बढ़ा सकते हैं। मैं ये दोनों बातें अपने अनुभव से कह रही हूँ। इससे सफ़र का आनंद भी बढ़ जाता है।

अपने पाठकों के साथ मैं अपना एक सुंदर स्मरणीय अनुभव साझा करना चाहूँगी।

वर्ष 2017 अक्टोबर हम इस वर्ष इटली और ग्रीस घूमने गए थे। पहला पड़ाव रोम था। हमारे रहने की व्यवस्था एयरपोर्ट से पचास किलो मीटर दूर एक सुंदर गॉल्फ क्लब रिज़ोर्ट में की गई थी।

शहर से दूर होने के कारण इस रिज़ोर्ट से रोज़ सुबह दो बार मुख्य मेट्रो रेलवे स्टेशन तक यात्रियों को ले जाने की व्यवस्था रखी गई थी। शाम को साढ़े सात बजे फिर वहीं से यात्रियों को रिज़ोर्ट वापस ले आने की व्यवस्था भी थी। इस व्यवस्था के कारण सभी रोज़ कहीं न कहीं सैर करने निकलते। सारा दिन दर्शनीय स्थानों तक यात्रा करते आनंद लेते और संध्या होते ही लौट आते। मेट्रो रेलवे की सुविधा उपलब्ध होने के कारण खास टैक्सी द्वारा यात्रा करने की भी आवश्यकता नहीं होती है जिससे काफी समय और धन की बचत भी होती है।

हम 14 अक्टोबर 2017 रोम पहुँचे। दूसरे दिन हम लोकल विज़िट के लिए रवाना हुए।

हम सबसे पहले कोलेज़ियम देखना चाहते थे! इस शहर के दर्शनीय आकर्षक स्थानों के फ़ेहरिस्त में कोलेजियम सर्वोपरि था।

बचपन से इतिहास में इसकी तस्वीरें और अन्य ऐतिहासिक पुस्तकों में ग्लैडियटर्स की लड़ाइयों के बारे में भी खूब पढ़ा था इसलिए हम उसे साक्षात आँखों से देखकर उस इतिहास को जीना चाहते थे।

यहाँ पूरे परिसर का अगर आप चक्कर काटना चाहते हैं तो दस -पंद्रह लोगों के समूह के साथ एक गाइड साथ चलता है और वह विस्तार से जानकारी देता है। इसके लिए बड़ी रकम भी टिकट के लिए देनी पड़ती है। हमें इटालियन भाषा आती नहीं अतएव अंग्रेज़ी में बोलने वाले गाइड के साथ हम भी हो लिए।

अब घर से बाहर निकले हैं तो खास जगहें तो देखनी ही है फिर जेब की ओर ध्यान देंगे तो आनंद लेने से दूर हो जाएँगे। यह सोचकर हमने भी बड़ी कीमत अदा की और गाइड के साथ हो लिए। यह तय कर लिया कि कहीं और एडजस्ट करेंगे ताकि आर्थिक संतुलन न बिगड़े।

यह कलोज़ियम 70 ईसा पूर्व जनता के मनोरंजन के लिए बनाया गया था। इसे बनने में भी काफी समय लगा था। यह एक विशालकाय एम्फ़ीथियेटर था। यह संसार का सबसे बड़ा एम्फीथिएटर था जो आज रोम शहर के मध्य में स्थित है। यह विशाल गोलाकार में बनाई गई चार मंज़िला इमारत है।

आज से दो हज़ार पूर्व रोम का योरोप के कई राज्यों पर भयंकर दबदबा रहा है। यूरोप के अधिकांश राज्य काथ्रेज जिसे हम आज स्पेन कहते हैं, ग्रीस तथा ईजिप्ट (अफ्रीका) आदि तक सब पर रोम का ही प्रभुत्व रहा है। इस राज्य को इटली नाम बाद में दिया गया और रोम उसकी राजधानी बनी। उस समय वहाँ के निवासी रोमन कहलाते थे। आज रोम को लोकल रोमा कहते हैं।

उनकी सभ्यता, आर्थिक लेन-देन व व्यापार, राजनैतिक परिपाटी, विशाल सैन्य दल और खुला समाज अपने काल में उसे इतिहास के पृष्ठों पर अलग दर्ज़ा देता रहा है।

कोलेज़ियम के स्थायित्व को मद्देनजर नज़र रखते हुए उसका निर्माण पहाड़ के पास किया गया था।

इसकी ऊँचाई 50 मीटर थी और भीतरी खुला हिस्सा 180 मीटर लंबा। यहाँ एक समय में पचास हज़ार दर्शक बैठ सकते थे। अंडाकार में निर्मित यह अद्भुत संरचना उस समय की वास्तु कला के महत्त्व को दर्शाता है।

कोलेज़ियम के भीतर सामने की सीटें खास अतिथियों और सेनेटॉर्स के लिए आरक्षित होती थी। आम जनता के लिए मनोरंजन निःशुल्क होता था।

प्रारंभ में कोलेजियम में पानी भरा जाता था, जिसमें छोटे जहाजों के आपसी युद्ध के खेल दिखाए जाते थे। बाद में इस व्यवस्था को रद्द किया गया।

अरेना के भीतर ग्लैडियटर्स, जंगली जानवर आदि के निवास की व्यवस्था थी। नीचे उनके आने-जाने के गुप्त मार्ग बने थे। पशुओं के लिए जालीदार चैंबर्स बने होते थे। अधिकतर ग्लैडियटर्स दास ही होते थे। अफ्रीका से बब्बर शेरों को लाकर, ग्लैडियटर्स के साथ भिड़ाया जाता था। ये सब खूंखार खेल थे। इस कोलेजियम में हज़ारों पशु और लाखों ग्लैडियटर्स की मनोरंजन के नाम पर बलि चढ़ाई गई थी।

इस पूरे परिसर को देखने के लिए हमें चार घंटे लगे। पुराने ज़माने में जब वहाँ खेल होता था तो हर आर्च के नीचे आकर्षक मूर्तियाँ लगी होती थीं। भीतर भी पर्याप्त छोटे -छोटे फव्वारे सजावट के रूप में लगाए गए थे। जनता के लिए पीने के पानी की व्यवस्था भी थी। इस पूरे कोलेजियम में अस्सी द्वार थे जहाँ से आम जनता आना जाना करती थी। कोलेजियम आज अपनी आँखों से देखकर इस बात का अनुमान लगाना कठिन हो रहा था कि दो हज़ार वर्ष पूर्व यह जाति एक तरफ अति सभ्य और उन्नत थी कि इस तरह का विशाल और अद्भुत संरचना करने में सक्षम थी और वहीं दूसरी ओर बर्बरता की मात्रा भी अपनी चरम सीमा पर थी।

स्त्री – पुरुष सभी इस स्थान पर आकर हत्या और बर्बरतापूर्ण होने वाले इन खेलों के चश्मदीद गवाह हुआ करते थे। संभवतः क्रूरता अब उनके खून में थी तभी तो जूलियस सीज़र को निहत्थे हाल में छुरा भोंककर मारते समय उनके निष्ठुर करीबियों के हाथ नहीं काँपे थे।

 मनुष्य के मन पर उन सब बातों का प्रभाव पड़ता है जो वह नियमित देखता है। भूखे पशुओं के साथ जब ग्लैडियटर्स भिड़ते थे तब वे लहुलुहान हो जाते थे। हिंस्र और वह भी भूखे शेर के सामने भला मनुष्य कब तक टिक पाता। अगर ग्लैडियटर अत्यंत शक्तिशाली होता था तो वह संपूर्ण प्रहार के साथ पशु को मार गिराता। भीड़ तालियाँ बजाती और प्रसन्न होती। ग्लैडियटर्स की जयजयकार होती। पर फिर भी वह और अन्य अनेक युद्ध लड़ने के लिए दास का जीवन जीता ही रहता और प्रशिक्षण पाता रहता था। कई बार ग्लैडियटर्स आपस में साथ रहते और प्रशिक्षण लेते हुए अच्छे मित्र बन जाते। फिर बढ़िया खेल की उपमा देकर दो दोस्तों को मैदान पर उतारा जाता। इस दृश्य को देखने के लिए विशाल भीड़ एकत्रित होती, खेल लंबा चलता, दोनों वार से बचते रहते फिर भीड़ वार करने और घायल करने के लिए दोनों को प्रोत्साहित करती। आखिर दो दोस्तों में से एक क्षत-विक्षत की हालत में धराशाई हो जाता और राजा अपना अंगुष्ठा नीचे की ओर कर देता जिसका अर्थ होता मार डालो। फिर एक ही वार से अपने ही मित्र की विवशता से हत्या करनी पड़ती। सोचकर देखिए दो हज़ार वर्ष पूर्व मनुष्य किस हद तक निष्ठुर था।

 फिर समय ने करवट बदली। यह अत्यंत दुख की बात है कि भयंकर आगजनी और भूकम्प के कारण कोलेजियम आज खंडहर बन गया। शायद क्रूरता की इति इसी तरह संभव थी। हम जब कोलेजियम देखने गए तब भारी मात्रा में वहाँ रिस्टोरेशन के काम चल रहे थे।

इटली जाने से पूर्व हमने स्वदेश में रहते ही पसंदीदा स्थानों के इतिहास के पन्ने पलटे थे, कुछ अंग्रेज़ी में बने डाक्यूमेंट्री फ़िल्म्स भी देखी थी जिस कारण कोलेज़ियम की भव्यता, वहाँ होनेवाले खेलों और प्रदर्शनों का अंदाज़ लगा सके।

हम कोलेजियम के भीतर सीढ़ियाँ चढ़ते उतरते और बरामदों में चलते हुए बहुत थक चुके थे। हमें लौटते हुए शाम हो गई थी।

योरोप के हर शहर में हॉप ऑन हॉप ऑफ बसों की व्यवस्था होती है। हम भी इसी बस से रेल्वे स्टेशन पहुँचे और वहाँ से रिसोर्ट।

हमने एक इटालियन पिज्जा हाउस में वहाँ का लोकल व्हेज पिज्जा खाया, तुलनात्मक दृष्टि से हमारे देश में बिकनेवाला पिज्जा अधिक स्वादिष्ट है। वहाँ के लोग बड़ी मात्रा में गोमांस खाते हैं इसलिए मांसाहारी भोजन से हमने दूर रहना उचित समझा। चिकन खाने की यहाँ लोगों को आदत नहीं है।

इटली वैसे अपने इतिहास के कारण ही पर्यटकों की भीड़ एकत्रित करने में सक्षम है अन्यथा यहाँ के लोगों की भाषा, बर्ताव, विदेशियों के प्रति दृष्टिकोण खास सकारात्मक नहीं है। वहाँ के लोग बिल्कुल अंग्रेजी नहीं बोलते या समझते। अधिकतर लोग साधारण शिक्षित हैं अतएव साधारण नौकरी ही करते हैं। आसपास के यूरोपीय देशों में युरोरेल द्वारा यात्रा करते हुए काम पर जाते हैं।

हम जिस रिज़ोर्ट में रुके थे वहाँ हमारे साथ एक दंपति कैरोलीन और डेनिस भी थे। वे आस्ट्रेलिया के ऑरेंज काऊँटी नामक स्थान से आए थे। वे भी कोलेजियम देखने निकले थे। रिजो़र्ट के शटल में बैठते ही हमारा परिचय उनके साथ हुआ और हमारी मानसिक कैमेस्ट्री मैच होती नज़र आई! कैरोलीन बहत्तर वर्ष की थीं और डेनिस चौहत्तर वर्ष के। परंतु दोनों ही फाइन ऍन्ड फिट थे।

दोस्ती हुई और दस दिन हम सब साथ -साथ घूमते रहे! दोनों पति-पत्नी हँसमुख और मिलनसार थे। डेनिस को मज़ाक करने की अच्छी आदत थी जिसके कारण सैर करते समय वक्त अच्छा कटता था! हम हर स्थान पर साथ – साथ एक परिवार की तरह रहे। समय -समय पर भारतीय सूखा नाश्ता जैसे चकली, च्यूड़ा, लड्डू, नमकीन आदि हम उनके साथ शेयर करते रहे और उन्हें बहुत आनंद आया। वे हमारे नाती शिवेन के फैन भी हो गए।

© सुश्री ऋता सिंह

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #141 – “यात्रा वृतांत – बौद्ध धर्म की समृद्ध परंपराओं की धरोहर बाघ गुफाएं” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बाल साहित्य  – “यात्रा वृतांत– बौद्ध धर्म की समृद्ध परंपराओं की धरोहर बाघ गुफाएं)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 141 ☆

 ☆ “यात्रा वृतांत– बौद्ध धर्म की समृद्ध परंपराओं की धरोहर बाघ गुफाएं” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

बाघ गुफाएं जैसा कि इनके नाम से विदित होता है कि ये बाघ के रहने की गुफाएं हैं। आपने ठीक पहचाना। इनका यह नाम इसी वजह से पड़ा है। ये गुफाएं अपनी प्राचीन समृद्ध परंपरा, अपनी संस्कृति और अपने समृद्ध इतिहास के पन्नों से 10 वीं शताब्दी में विलुप्त हो गई थी। या यूं कहें कि बौद्ध धर्म को भुला दिया जाने के कारण उनकी ऐतिहासिक धरोहर को भुला दिया गया था। इसी कारण इन गुफाओं में बाघ रहने लगे थे।

इतिहास की के आंधी पानी के थपेड़े खाकर यह जंगली इतिहास में तब्दील हो गई थी। जिसे मानव इतिहास की वर्तमान सभ्यता ने भुला दिया था। वह तो भला हो लेफ्टिनेंट डेंजरफील्ड का जिन्हों ने इन्हें खोज कर हमारे सम्मुख ला दिया। चूंकि ये गुफाएं बाघों के आवास का प्रमुख स्थान बन चुकी थी, इस कारण इन्हें बाघ गुफाएं कहा गया।

प्राचीन मालवा के महिष्मति अर्थात वर्तमान महेश्वर के महाराजा सुबंधु के एक ताम्रपत्र पर एक विशेष तथ्य का उल्लेख मिलता है। जिसके अनुसार महाराज सुबंधु ने बौद्ध विहार को विशेष अनुदान प्रदान किया था। जिसके अनसरण में गुफाओं का कल्याण कर कल्याण विहार की रचना की गई थी।

प्राचीन मालवा क्षेत्र तथा वर्तमान मध्यप्रदेश के धार जिले के कुक्षी तहसील में बाघ नामक नदी बहती है। यह नदी इंदौर से 60 किलोमीटर दूर बहती है। जिस के विंध्य पर्वत के दक्षिणी ढलान पा बाघ गांव के पास यह गुफाएं शैल पर उत्कीर्ण की गई है।

इस स्थान पर मेघनगर रेलवे स्टेशन से ट्रेन द्वारा तथा यहां से सड़क मार्ग से 42 किलोमीटर दूर, धार से 140 किलोमीटर दूर तथा कुक्षी से 18 किलोमीटर उत्तर में बस द्वारा या निजी साधन से यहां जाया जा सकता है। इंदौर और भोपाल से हवाई जहाज से यहां आ सकते हैं।

यह बाघ गुफाएं अजंता- एलोरा की तर्ज पर बनी हुई है। इन्हें एक ही शैल से उत्कीर्ण करके बनाया गया है। जिसे शैल उत्कीर्ण वास्तुकला कहते हैं। यह भवन निर्माण की उन्नत व पच्चीकारी की बेहतरीन शैली थी। जिसमें बिना नींव, छत और दीवार के एक ही शैल को तराश कर बरामदा, कक्ष, आराधना कक्ष, विहार, प्रार्थना स्थल आदि बनाए जाते हैं।

यह गुफाएं बौद्ध धर्म की अनुपम ऐतिहासिक धरोहर है। प्राचीन समय में बौद्ध भिक्षुओं के प्रचार-प्रसार, शिक्षा-दीक्षा, उपासना, अर्चना, निर्माण महा निर्माण, विहार, प्रति विहार, आराधना, ध्यान स्थल, ध्यान उपासना आदि के कक्ष, बरामदे, कमरे, प्रदक्षिणा स्थल को ध्यान में रखकर बनाया गया है।

क्योंकि प्राचीन काल में समुद्र से व्यापार करने वाले व्यापारी इसी मार्ग से होकर जाते थे। इनके ठहरने, विश्राम करने तथा शिक्षा-दीक्षा के साथ-साथ उपासना करने के लिए आहार विहार के लिए यहां उत्तम व्यवस्था थी। इसलिए यह देश विदेश से जुड़ी हुई थी।

धार के कुक्षी में स्थित ये बाघ वफाएं भी इसी उद्देश्य बनाई गई थी। ये गुफाएँ प्राचीन मालवा प्रांत की शिक्षा-दीक्षा की बेहतरीन व्यवस्था को भी प्रदर्शित करती है। यहां 9 गुफाएं एक ही शैल पर अलग-अलग उत्कीर्ण की गई है। इन 9 गुफाओं में बौद्ध भिक्षुओं के आहार-विहार, उपदेश, प्रवचन, श्रवण के उद्देश्य से बनाई गई थी। वे यहां रहकर बौद्ध धर्म का अनुपालन कर उसका प्रचार-प्रसार कर सके।

इन 9 गुफाओं की अपनी-अपनी महत्ता और स्वरूप के हिसाब से इनमें लंबे-चौड़े बरामदे, कोठियां, शैलकृत स्तूप, चैत्य, बुद्ध प्रतिमा, बोधिसत्व, अलौकिक, मैत्रेय, नृत्यांगना, वाद्य कक्ष सहित अनेक पक्षों के दृश्यांकन अंकित है। इन 9 गुफाओं में से दो, तीन, चार, पांच एवं साथ में भित्ति चित्र बने हुए हैं। इन्हें सुरक्षा की दृष्टि से संरक्षित करके पृथक कर दिया गया है।

गुफा संख्या दो सर्व प्रसिद्ध भित्ति चित्र वाली गुफा है। इसमें पद्माणी बुद्ध का चित्र अंकित है। इस चित्र की मुखाकृति सौम्य है। इसका शरीर पुष्पा व आभूषण से सुसज्जित है। अर्धमूंदे हुए नेत्र उसकी सौम्यता को दुगुणित कर देते हैं।

यह बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं को प्रदर्शित करते हैं। यहां बुद्ध, धर्म चक्र, उपदेशक, बोधिसत्व, निर्माण, महानिर्वाण, प्रभामंडल, स्थिति प्रज्ञा की बेहतरीन मुद्रा में स्थित है।

इसी तरह गुफा संख्या दो को पांडव गुफा कहते हैं। गुफा संख्या 4 रंगमहल कहलाती है। तीसरे नंबर की गुफा हाथीखाना कहलाती है। गुफा संख्या 4 और 5 बेहतरीन अवस्था में है। इनमें से कुछ चित्र स्पष्ट है। कुछ प्राय नष्ट व धुँधले हो गए हैं।

चौथी गुफा जिसे रंगमहल कहते हैं। वह एक चैत्य स्थल है। वहां बौद्ध भिक्षुओं के स्मृति चिन्ह, अवशेष व प्रतीक संरक्षित रखे जाते थे। यहां पर बुद्ध की पद्मासन लगी प्रतिमा स्थापित है। यह अस्पष्ट होती जा रही है।

पांचवी गुफा में अनेक चित्र हैं। बुद्ध का सुंदर चित्र स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। शेष चित्र धुँधले हो गए हैं। इस गुफा में 5 कमरे हैं। इनमें चित्रांकन किया गया है। इसमें फल, फूल, पत्तियां, बेल, बूटे, कमल, पशु, पक्षी का यथा स्थान चित्रण हुआ है।

इन गुफाओं के चित्रों की कुछ अन्य विशेषताएं भी है। इनमें बौद्ध धर्म के अलावा भी जीवन के विविध आयामों का चित्रांकन हुआ है। इसमें नृत्य, गायन, अश्वरोहण, गजा रोहण, प्रेम, विरह, दुख, संताप आदि का अंकन बखूबी देखा जा सकता है।

प्रकृति का चित्रण इसके अंदर अद्भुत रूप से समाया हुआ है। फूल, लता, पत्तियां, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी आदि का रोचक समन्वय चित्रों में देखा जा सकता है।

जीवन के विविध आयाम यथा- सुख-दुख, संताप, रोष, प्रेम के साथ-साथ लज्जा, वात्सल्य, प्रेम, ममता, विनय, स्नेह,शीलता, शौर्य, दीनता, लाचारी, भय, शांत, श्रंगार, हर्ष रूद्र,वीर आदि भाव को चित्रों में महसूस किया जा सकता है।

आप से आग्रह हैं कि आप गुफाओं को देखने और महसूस करने के लिए इनकी सैर अवश्य करें। ताकि आप हमारी अपनी विरासत का जान कर, इसकी पुरातन वास्तु भवन शैली की तन मन में सहेज सके। ताकि आप और हम भारत की प्राचीन धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक विरासत को जान समझ सके।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

03-02-2023 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 12 ☆ नर्मदा परिक्रमा ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…नर्मदा परिक्रमा – )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 13 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… नर्मदा परिक्रमा ?

हमारे जीवन का हर अध्याय अपने समय पर ही खुलता है और पूर्ण भी होता है। कुछ बातें ऐसी होती हैं जो समय आने पर ही संभव होती हैं और समझ में भी आती हैं।

हमारा रिटायर्ड शिक्षिकाओं का एक छोटा – सा समूह है जिसे हम यायावर दल कहते हैं क्योंकि हम सब रिटायर होने के बाद निरंतर कहीं ना कहीं घूमने के लिए निकल पड़ते हैं। इस दल में पचहत्तर वर्षीया शिक्षिका सबसे उत्साही हैं।

कुछ समय से आपस में हम सभी नर्मदा परिक्रमा की बात कर रहे थे और लो 2022 आते-आते मानो सभी के मन की बात खुलकर सामने आ गई और 5 मार्च हम 4 सहेलियाँ नर्मदा परिक्रमा के लिए निकल पड़ीं।

सच पूछा जाए तो इस परिक्रमा के विषय में विशेष कोई जानकारी हमें नहीं थी। यह अवश्य ज्ञात था कि एक पवित्र नदी के चारों तरफ एक परिक्रमा पूर्ण करना हिंदू धर्म के अंतर्गत एक तीर्थ यात्रा ही है। बस तो उसी अनुभव को प्राप्त करने के लिए हम लोग निकल पड़े।

मन में एक आस्था थी। हमें यह विश्वास भी था कि कुछ अलग, कुछ हटकर और कुछ विशेष करने के लिए जा रहे थे। साथ में मन में खास कोई अपेक्षाएँ भी नहीं थीं कि हमें किस तरह के दृश्यों का या परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। पर जो कुछ मिला, जो देखा जो अनुभव किया वह सब न केवल अद्वितीय और अनोखा है बल्कि अविस्मरणीय भी।

हम चार सहेलियों ने एक इनोवा बुक किया और 3500 किलोमीटर की यात्रा बाय रोड करने का निर्णय लिया क्योंकि हमारे पास वह शारीरिक बल, क्षमता और संकल्प करने की दृढ़ता नहीं थी कि हम यह यात्रा पदयात्रा के रूप में पूर्ण करते जबकि यह यात्रा लोग पदयात्रा के रूप में ही पूर्ण करते हैं।

हम पुणे से 5 मार्च को प्रातः ओंकारेश्वर के लिए रवाना हुए। यह 603 किलोमीटर की दूरी है। हमें वहाँ पहुँचने में रात हो गई। वहीं पर हमसे ट्रैवेल एजेंट श्री मयंक भाटे मिलने आए जो मूल रूप से इंदौर के निवासी हैं। इस परिक्रमा की सारी व्यवस्था उनके द्वारा ही की गई थी। रात को भोजन कर एक साधारण होटल में रात बिताने के लिए हम सब उपस्थित हुए।

दूसरे दिन प्रातः नर्मदा स्नान कर वहीं घाट पर पूजा -अर्चना कर ज्योतिर्लिंग के दर्शन के लिए रवाना हुए। हमने नाव द्वारा मंदिर जाने का निर्णय लिया। वैसे यदि यात्री चाहें तो एक बड़ा पुल है उसे भी पार कर चलकर मंदिर में जा सकते हैं। हमें नर्मदा में नौका विहार का भी आनंद लेना था इसलिए हम लोगों ने नाव से ही जाना उचित समझा।

यहाँ एक और आवश्यक बात की जानकारी देना चाहूँगी कि नियमानुसार परिक्रमा करने वाले जब घाट पर पूजा अर्चना करते हैं तो वहाँ पर पंडित आपसे एक संकल्प करवाते हैं। उस संकल्प के आधार पर जिस घट में आप पानी लेकर पूजा करते हैं उसे लेकर दूसरे दिन गुजरात के भरूच डिस्ट्रिक्ट अंकलेश्वर में समुद्र में उस पानी को छोड़ना होता है। नर्मदामाता भी वहीं तक अपनी यात्रा बनाए रखती हैं। हाँ जाने के लिए 4 घंटे नाव से यात्रा करने की आवश्यकता होती है। उस नाव में काफी भीड़ होती है। लाइफ जैकेट की कोई व्यवस्था नहीं होती और साथ ही साथ कितने दिनों में समुद्र में जाकर नाव पहुँचेगी इसकी भी कोई गारंटी नहीं होती। कारण बड़ी भीड़ होती है। इसलिए हम चारों सहेलियों ने संकल्प ना करते हुए ज्योतिर्लिंग का दर्शन कर एक और रात ओंकारेश्वर में बिताकर वहाँ से दूसरे दिन राजपिपल्या होते हुए शहादा पहुँचे।

रास्ते में हम भटियाण बुजुर्ग नामक गाँव के एक संत का दर्शन करने गए। वे 99 वर्षीय हैं। पचास -साठ वर्ष पूर्व पदयात्रा करने निकले थे फिर किसी साधु की सेवा में सारा जीवन वहीं रह गए। वे दक्षिणा के रूप में दस रुपये ही लेते हैं और सभी को भुने चने और इलायचीदाने (साखरफुटाणे)देते हैं।

दोपहर को हम नर्मदालय में भारती ठाकुर के आश्रम पहुँचे। भारती ठाकुर पिछले कई दशकों से बंजारों के बच्चों को शिक्षित करने तथा उनकी देखभाल में जुटी हैं। उनसे मुलाकात तो न हो सकी पर उनका आश्रम देखकर और समाज सेवाभाव देखकर हम सब निःशब्द हो गए। उस रात हम शहदा में रुके। भारती ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस और माँ शारदा की भक्ति करती हैं और मिशन से जुड़ी हुई हैं।

केदारेश्वर, पुष्पदंतेश्वर महादेव मंदिर, शूलपाणी मंदिर स्वामी नारायण मंदिर, रंगावधूत नारेश्वर होते हुए नारेश्वर आश्रम में निवास के लिए एक रात रुके।

यहाँ पर नर्मदापरिक्रमा पद यात्री रात के समय रुकते हैं। हम प्रातः स्नान करने गए तो वहाँ कुछ गेरवावस्त्र धारी नदी को स्वच्छ करते हुए दिखाई दिए। वे फूल, निर्माल्य, दीया आदि वस्तुएँ एकत्रित करते दिखे। नदी के प्रति समर्पित भाव देखकर हम भी अभिभूत हुए।

अगले दिन हम नारेश्वर दर्शन, कुबेर भंडारी दर्शन कर गरुड़ेश्वर में रुके। आपको बता दें कि यह स्थान सरदार सरोवर से केवल छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यात्री स्टैच्यू ऑफ यूनिटी भी देखने के लिए जा सकते हैं।

अगले दिन हम गरुड़ेश्वर मंदिर वासुदेव सभा मंडप, दत्त मंदिर, जल कोटि – सहस्र धारा, राज राजेश्वर मंदिर अहिल्याबाई फोर्ट अहिल्या घाट देखने के लिए माहेश्वर पहुँचे।

नर्मदा नदी के किनारे बसा यह शहर अपने बहुत ही सुंदर व भव्य घाट तथा माहेश्वरी साड़ियों के लिये प्रसिद्ध है। घाट पर अत्यंत कलात्मक मंदिर हैं जिनमें से राजराजेश्वर मंदिर प्रमुख है।

विश्वास है कि आदिगुरु शंकराचार्य तथा पंडित मण्डन मिश्र का प्रसिद्ध शास्त्रार्थ यहीं हुआ था। इस शहर को महिष्मती नाम से भी जाना जाता था। कालांतर में यह महान देवी अहिल्याबाई होल्कर की भी राजधानी रही है। देवी अहिल्याबाई होलकर के कालखंड में बनाए गए यहाँ के घाट सुंदर हैं और इनका प्रतिबिंब नदी में और खूबसूरत दिखाई देते हैं। संध्या के समय जब किले में रोशनी की जाती है तो सारा परिसर जगमगा उठता है।

अहिल्याबाई घाट पर स्नान करने की सुविधा उपलब्ध है। हम स्नान व माता की पूजा कर किला व अहिल्याबाई होल्कर के निवास स्थान का दर्शन करने गए। अहिल्याबाई शिव मंदिर में आज भी नर्मदा की मिट्टी से 108 लिंग बनाकर उनकी पूजा की जाती है और तत्पश्चात विसर्जित कर दिया जाता है। यह प्रथा अहिल्याबाई के समय से आज तक चलती आ रही है। वहीं पर बाल गोपाल के लिए बना हुआ सोने के झूले का दर्शन भी मिला।

इतिहास गवाह है कि एक विधवा स्त्री ने किस तरह माता नर्मदा पर आस्था रखते हुए अपनी प्रजा के लिए कितना काम किया। माहेश्वर में आज जो साड़ियाँ बनती हैं इस कार्य को अहिल्याबाई ने ही स्त्रियों को कुटीर उद्योग सिखाने और स्वावलंबी बनाने के लिए प्रारंभ किया था। वे अत्यंत न्यायप्रिय रानी थीं।

उस रात हम मंडलेश्वर गोंधवलेकर महाराज नेमावर आश्रम में संध्यारती के लिए पहुँचे। प्रसाद भी अनेक पदयात्रियों के साथ ग्रहण किया और उन सबसे बातचीत करने, उनके अनुभव जानने का अवसर मिला।

इसके अगले दिन हम जबलपुर पहुँचे। यह हमारी यात्रा का नौवां दिन था। हम लोगों ने कभी आश्रमों में रात गुज़ारी तो कभी साधारण व उपलब्ध होटलों में। सभी स्थान पर ताज़ा भोजन और स्नान के लिए गरम पानी अवश्य मिला। साफ़ – सुथरा स्थान आवास के लिए उपलब्ध कराए गए।

आज भेड़ाघाट नामक अलग स्टेशन है। भेड़ाघाट में नर्मदा का विशाल प्रवाह देखने को मिला। तीव्र गति से प्रवाहित होता स्वच्छ जल आपको आकर्षित करेगा। यहाँ नौका विहार और केबल कार की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। विविध रंग के संगमरमर के बीच से गुज़रती नाव और आकर्षक दृश्य आपको आह्लादित कर देंगे। संध्या के समय ग्वारी घाट जबलपुर में माता नर्मदा की अद्भुत सुंदर संध्यारती होती है। हम सबने इसका भी आनंद लिया। लोगों की नदी के प्रति आस्था ही उसे जीवित बनाती है। यहाँ नौका विहार के लिए नावों को खूब सजाया जाता है और संध्यारती से पूर्व लोग नौका विहार करते हैं।

दूसरे दिन सुबह धुआँधार जल प्रपात और चौंसठ योगिनी मंदिर दर्शन के लिए गए। चौंसठ योगिनी मंदिर हज़ार वर्ष पुराना मंदिर है। शिव -पार्वती की मूर्तियों के साथ चौंसठ अन्य मूर्तियाँ भी हैं। पुराण के अनुसार एक संपूर्ण पुरुष बत्तीस कलाओं से युक्त होता है और स्त्री भी बत्तीस कलाओं से युक्त होती है। दोनों के संयोग से बनते हैं चौंसठ। तो ये माना जा सकता है कि चौंसठ योगिनी शिव और शक्ति जो सम्पूर्ण कलाओं से युक्त हैं उन के मिलन से प्रकट हुई हैं। अन्य कई कथाएँ भी हैं। आज यह खंडहर मात्र है। औरंगज़ेब ने इन मूर्तियों को क्षति पहुँचाई थी।

हमारी यात्रा के दौरान भारी संख्या में हमें पदयात्री मिलते रहे। ये पदयात्री दिन में पच्चीस से तीस किलोमीटर चलते हैं। कुछ भक्त नंगे पैर चलते हैं। प्रातः सात बजे चलना प्रारंभ करते हैं और सूर्यास्त से पूर्व किसी आश्रम में रात गुज़ारने के लिए पहुँच ही जाते हैं।

समस्त मार्ग में पदयात्रियों को लोग जल, बिस्कुट, अल्पाहार देकर उनकी सेवा करते हैं।

समस्त राज्य में परिक्रमायात्रियों के लिए लोगों के मन में गहन श्रद्धा भाव परिलक्षित होता है।

स्त्री-पुरुष सभी निर्भय होकर यात्रा करते हैं। उनकी पीठ पर एक हैवरसैक होता है। जिसमें दो जोड़े वस्त्र, थाली, गिलास, चम्मच, चादर आवश्यक दवाइयाँ होती हैं। एक योगासन मैट का रोल होता है जिसे वे सोने के लिए काम में लाते हैं। साथ में मोबाइल और एक लाठी होती है। एक डोलची लेकर चलते हैं जिसमें जल भरकर रखते हैं। सभी यात्री बिना रुपये – पैसे के चलते हैं। अन्य लोग उन्हें धर्म के नियमानुसार दक्षिणा देते रहते हैं। पद यात्री श्वेत वस्त्र धारण किए हुए होते हैं। इससे उन्हें पहचानना भी आसान हो जाता है। प्रत्येक यात्री एक अद्भुत आस्था लेकर चलता है और उसे भी 3500 किलोमीटर की यात्रा पूरी करनी पड़ती है।

शूलपाणी का इलाका घने जंगल का इलाका है। यहाँ पक्की सड़क अवश्य बनाई गई है पर यह बंजारों का गाँव है, वे मुख्य सड़क से बहुत दूर जंगल के भीतर निवास करते हैं। पच्चीस -तीस किलोमीटर के परिसर में न रुकने का स्थान है न पानी की सुविधा। पर पदयात्री तो इसी मार्ग से चलते हैं। उनका अनुभव है कि नौ किलोमीटर की दूरी से मोटरसाइकिल पर सवार लोग पानी, चाय, बिस्कुट आदि देने के लिए आते हैं। यह सेवा भाव ही है जो सनातन धर्म की शक्ति है।

अगली सुबह हम अमरकंटक के लिए रवाना हुए। यह यात्रा काफी लंबी थी। हमें पहुँचते रात हो गई। यहाँ रामकृष्ण मठ में हमारे रहने की व्यवस्था की गई थी। हम रात की आरती में सम्मिलित होने के लिए नर्मदामाता मंदिर पहुँचे। सुंदर तथा विशाल परिसर, जल से भरे कई कुंड दिखाई दिए। रात के आठ बजे आरती प्रारंभ हुई। समस्त परिसर आलोकित था मानो नर्मदा माता स्वयं वहाँ उपस्थित थीं।

हर स्थान पर हमें अनुभव रहा कि माता हर समय साथ चल रही हैं। जल में उतरे तो वह हमें बुलाती हैं मानो कहती हैं -आओ मुझसे गले लगो। तट पर हों तो वह स्वयं बढ़कर हम तक आती हैं। मन के भीतर एक अद्भुत शांति का अहसास होता है जिसे हम शब्दों में नहीं व्यक्त कर सकते। स्नान करते हुए हर श्रद्धालु कहता है माता आओ।

दूसरे दिन प्रातः कपिल धारा और दूध धारा जल प्रपातों का हमने दर्शन किया। यहाँ कुछ गुफाएँ हैं जहाँ ऋषि कपिल और ऋषि दुर्वासा तपस्या करते थे। कहा जाता है कि ऋषियों की तपस्या में व्यवधान उत्पन्न न हो इस कारण माता ने अपने प्रवाह को अन्यत्र मोड़ लिया।

हम माता की बगिया नामक स्थान देखने पहुँचे। यह नर्मदा नदी का उद्गम स्थल है। एक छोटा सा कुंड मात्र दिखाई देता है और जल पृथ्वी में समा जाता है। आगे डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर जल बाहर निकलकर अपने पूर्ण व विस्तृत रूप में नदी बनकर बहने लगता है। इस स्थान में श्रद्धालु माता को साड़ी पहनाते हैं जो सिंबॉलिक होता है। कई स्थानों पर साड़ी टंगी हुई दिखाई देती है।

हमारी अगली यात्रा अब नरसिंहपूर से होशंगाबाद की ओर प्रारंभ हुई। होशंगाबाद को अब नर्मदापुरम कहा जाता है। यहाँ एक सुंदर स्वच्छ घाट है, नाम है सेठानी घाट। हम दोपहर को पहुँचे इसलिए केवल नर्मदा माता का दर्शन मात्र कर सके। तेज़ धूप और गर्मी का प्रकोप भारी पड़ने लगा था।

नर्मदापुरम से आगे एक लच्छोरा नामक गाँव है। यहाँ पुणे की प्रतिभाताई चितळे रहती हैं। हम उनसे मिलने गए। वे कई वर्ष पूर्व नर्मदा परिक्रमा करने निकली थीं। इस अवसर पर उन्हें जो अनुभव मिला तो वे सब कुछ छोड़कर अपने पति के साथ नर्मदा के तट पर घर बनाकर रहने लगीं। आज वे उन लोगों की सेवा करती हैं जो पदयात्रा करते हुए परिक्रमा करते हैं। ऐसे कई यात्री और श्रद्धालु हैं जो नदी के तट पर से ही यात्रा करते हैं। यह और भी कठिन यात्रा है। बीहड़ जंगल, भरी हुई अन्य छोटी नदियों तथा पहाड़ और असमतल मार्ग का उन्हें सामना करना पड़ता है। ऐसे लोग अक्सर प्रतिभाताई के घर रुकते हैं। उन्हें पूर्ण आराम और निःशुल्क सेवा प्रदान की व्यवस्था चितळे दंपति स्वयं करते हैं। संपूर्ण समर्पण का उत्कृष्ट उदाहरण हैं चितळे दंपति। नर्मदा मैया का श्रद्धालुओं के प्रति सेवा भाव और स्नेह का दर्शन आप यहाँ कर सकते हैं। वरना गृहस्थ जीवन उत्सर्गित करके कोई इस तरह सेवा कैसे भला कर सकता है!!

अब तक हमारी यात्रा के बारह दिन निकल चुके थे। हम एक रात हरदा में रहे। पट्टभिराम मंदिर का दर्शन किया जो अपने आप में एक अद्भुत सुंदर पुरातन मंदिर है। पदयात्री यहाँ भी अमरकंटक से लौटते समय रुकते हैं और निःशुल्क आवास, भोजन, स्नान आदि की सुविधाएँ पाते हैं।

हमारी यात्रा अब समाप्ति की ओर थी। हम लौटकर ओंकारेश्वर आए, इस बार हमें गजानन महाराज के आश्रम में एक कमरा मिल ही गया। यह नर्मदा नदी के तट से थोड़ी दूरी पर स्थित है। स्वच्छ तथा सुलभ व्यवस्था जिसके लिए एक छोटी -सी रकम ली जाती है। परंतु जो पदयात्री होते हैं उन्हें प्राथमिकता दी जाती है और उनके लिए सभी सुविधाएँ निःशुल्क हैं।

फिर एक बार मैया के जल में स्नान करने का हम सबको स्वर्णिम अवसर मिला। स्नान के बाद वस्त्र बदलने के लिए हर घाट पर छोटे -छोटे अस्थायी कमरे जैसा बना हुआ होता है जहाँ सभी जाकर गीले वस्त्र बदल सकते हैं। अबकी बार हम सब चलकर ऊँचे पुल पर चलकर ओंकारेश्वर मंदिर में दर्शन करने गए। अपनी भक्ति और आस्था से भोलेनाथ का उत्तम दर्शन हम सबने पाया। अभिषेक का भी अवसर मिला।

अगले दिन हम उज्जैन के लिए निकले। दो दिन दो ज्योतिर्लिंग के दर्शन को हमने अपना अहो भाग्य माना।

हमारी यह संपूर्ण यात्रा न केवल सुखद रही बल्कि विश्वास दृढ़ हो गया कि चाहे कोई कितना भी प्रयास कर ले, गुलाम बना लिया अत्याचार कर लिया, तलवारें चला लीं, मंदिरों को क्षति पहुँचाई पर सनातन धर्म न डिगा।

देश की हर नदी पूजनीय है। वह जीवन दान देती है। वह माता है। हम सबका पोषण करती है। यही कारण है कि भारत आज भी हिंदुत्व को जीवित रखने में सक्षम है।

दुनिया में हर जगह नदियाँ बहती हैं, उसके किनारे ही दुनिया बसती है पर भारतीय संस्कृति ने नदियों को, पेड़ों को जंगलों को जीवित माना है। उनकी पूजा की जाती है और आज भी करते हैं। कर्नाटक में विशाल मंदिर है जहाँ बनशंकरी की पूजा होती है। इसी माता बनशंकरी ने हनुमान जी का मार्ग दर्शन किया था और वे लंका तक जा पहुँचे थे। यह आस्था ही तो है जो हमारे धर्म को जीवित रखती है।

दुनिया हेवन माँगती है, जन्नत माँगती है ताकि मरने के पश्चात भी आनंद लिया जा सके परंतु सनातन धर्म कर्मों के बल पर मोक्ष का मार्गदर्शन करता है।

जीवन के अंत में जिसने जन्म दिया उसीमें एकाकार हो जाने की उत्कट इच्छा ही सनातन धर्म है। ।

नर्मदे हर, नर्मदे हर, नर्मदे हर!

अनायासेन मरणं विना दैन्येन जीवनम्। देहान्ते तव सायुज्यं देहि मे परमेश्वरम् ॥

© सुश्री ऋता सिंह

28/3/2022

फोन नं 9822188517, ईमेल – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 11 ☆ मसाईमारा की रोमांचक यात्रा ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…मसाईमारा की रोमांचक यात्रा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 11 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… मसाईमारा की रोमांचक यात्रा ?

नेशनल जॉग्राफ़ी और एनीमल प्लैनेट पर हमेशा ही जानवरों को देखना और उनके बारे में जानकारी हासिल करते रहना मेरा पुराना शौक है। फिर कहीं मन में एक उत्साह था कि किसी दिन इन्हें अपनी नजरों से भी देखें। वैसे तो जब चाहो इन पशुओं के दर्शन चिड़ियाघर में तो कभी भी हो सकते हैं पर मेरी तमन्ना थी कि इन प्राणियों को प्राकृतिक खुले स्थान में ही इन्हें देखूँ। और यह इच्छा ईश्वर ने बहुत जल्दी पूर्ण भी कर दी।

सितंबर का महीना सवाना में माइग्रेशन मन्त कहलाता है। हमने इसी कालावधि के दौरान कीनिया जाने का निर्णय लिया।

कीनिया, तानजेनिया , आदीसाबाबा या किसी भी अफ्रीकन देशों में यात्रा करने से पूर्व पर्यटकों को yellow fever से बचाव करने के लिए इंजेक्शन लेने की बाध्यता होती है। यह इंजेक्शन सरकारी अस्पताल से लेनी पड़ती है। इसके बाद जो प्रमाणपत्र सरकार की ओर से मिलता है उसे यात्रा के दौरान अपने साथ रखने की आवश्यकता भी होती है। उन दिनों इस इंजेक्शन के लिए मुम्बई जाना पड़ता था। इस इंजेक्शन की अवधि दस वर्ष की होती है। आजकल बड़े शहरों में यह सुविधा उपलब्ध है।

सन 2012 सितंबर हम मुम्बई से इथियोपिया के लिए रवाना हुए। आदिसाबाबा वहाँ की राजधानी है। हम पहले वहाँ उतरे, बड़ी संख्या में स्थानीय लोगों को देखकर अच्छा लगा कि अपने देश में सब प्रकार के काम वे ही संभाल रहे हैं। हँसमुख, मिलनसार तथा विदेशियों के साथ आतिथ्यपूर्ण उनका व्यवहार हमें अच्छा लगा। दो घंटे के हॉल्ट के बाद हम मोम्बासा के लिए रवाना हुए।

इथियोपिया से जब हवाई जहाज़ ने उड़ान भरी तो कुछ समय बाद ही पायलट ने अनाउंस किया कि हम किलमिनजारो के पास से गुज़रते हुए जाएँगे अतः सभी यात्री अपने -अपने कैमरे संभाल लें। साथ ही वे जानकारी भी दे रहे थे कि अफ्रीका का यह सबसे ऊँचा पर्वत है जहाँ बर्फ भी पड़ती है। जलवायु परिवर्तन के कारण अब इसके ऊपर से बर्फ की मात्रा कम होती जा रही है। कीबो मावेनज़ी और शीरा ये किलमिनज़ारो के तीन मुख्य ज्वालामुखीय मुख हैं। इस पर्वत की ऊँचाई 5895 मीटर है और यह संसार का एकमात्र ऐसा पर्वत है जो केवल एक मात्र चोटी के साथ खड़ा है। यह पर्वत तानज़ेनिया के भूभाग पर है। हमने जानकारी के साथ -साथ खूब तस्वीरें भी खींची। यह इस यात्रा के दौरान मिला हुआ पहला बोनस था जिसकी हमने अपेक्षा भी नहीं की थी।

मोम्बासा में उतरने से पूर्व ही हमने अपने फोन में वहाँ के सिमकार्ड डाल लिए थे। यह सिमकार्ड हमें अपने देश के ही ट्रैवेल एजेंट से मिला था। इस सुविधा के कारण एयरपोर्ट पर उतरते ही साथ वहाँ के ट्रैवेल एजेंट ने हमें फोन किया और एक्जिट गेट के पास हमारे नाम का प्लैकार्ड लिए वे स्वागत के लिए तैनात मिले। हँसमुख, मिलनसार जाति। स्त्री-पुरुष में कोई भेद न रखनेवाली जाति।

हम खाली हाथ ही एक्जिट गेट पर पहुँचे क्योंकि हमारे दो सूटकेस दूसरे फ्लाइट में चले गए थे जो दूसरे दिन शाम तक पहुँचने वाले थे। हम हमेशा अपनी दवाइयाँ और दो जोड़े कपड़े अपने हैंडबैग में लेकर ही चलते हैं। ऐसे समय पर ये अनुभव बड़े काम आते हैं।

हमारे रहने के लिए एक अत्यंत सुंदर होटल में व्यवस्था थी यह सारी व्यवस्था ऑनलाइन एजेंट द्वारा ही की गई थी। ये सारी ऑनलाइन बुकिंग बलबीर कई वर्षों से करते आ रहे हैं जिस कारण हम आराम से अपनी इच्छानुसार विश्वभ्रमण कर पाते हैं।

यहाँ के होटल का मैनेजर मूल रूप से भारतीय था जो चार पीढ़ी पहले गुजरात से युगांडा में रहने आया था। इदियामीन के भय से पलायन कर अब इनका परिवार मोम्बासा में आ बसा था।

दूसरे दिन हमें अपने सूटकेस के मोम्बासा पहुँचने का संदेश मिला,जिसे लेने के लिए हमें एयरपोर्ट जाना पड़ा। एयरपोर्ट शहर से बहुत दूर था। हमने होटल के मैनेजर से कोई गाड़ी मँगवाने के लिए कहा। होटल के मैनेजर ने गाड़ी मँगवाई। हमने दाम देना चाहा तो उसने कहा, अपने देशवासी आज मेरे इस देश में मेरे मेहमान हैं , इसे हमारी तरफ से सहायतार्थ योगदान समझें। उसने हाथ जोड़कर कहा तो हम मना न कर सके। यहाँ यह कहना ज़रूरी समझती हूँ कि कीनिया एक ग़रीब देश है फिर भी मेहमाननवाज़ी में वे पीछे नहीं रहते।

यह इस यात्रा के दौरान मिला हुआ दूसरा बोनस था।

तीसरे दिन प्रातः पाँच बजे हम होटल से रवाना हुए और एक लोकल एयरपोर्ट पहुँचे। वहाँ से हम एक छोटे – से 6 सीटर विमान द्वारा मसाईमारा सवाना के लिए रवाना हुए। यह विमान 17000 फुट की ऊंँचाई से अधिक ऊपर उड़ नहीं सकता इसलिए जब हम सवाना की तरफ पहुँचे तो हमें मारा रिवर में दरियाई घोड़े और मुँह खोलकर अपने शरीर को धूप में सेंकते हुए ढेर सारे मगरमच्छ नज़र आए। मन आनंदित हुआ, अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था ! मानो आँखें सपना देख रही थीं। विमान थोड़ा और नीचे उतरा तो खुले मैदान में हमें ज़ीब्रा और विल्डरबीस्ट घास चरते हुए दिखाई दिए। कुछ हाथियों के झुंड भी हमें पेड़ों की शाखाओं को तोड़ते और पत्तों को खाते हुए दिखाई दिए।

अचानक विमान नीचे उतरा। ना कोई एयरपोर्ट और न ही कोई रनवे ! मैदान के बीचोबीच!!

हमें विमान से नीचे उतारा गया। कुछ दूरी पर हिरणों के झुंड निर्विकार चित्त से घास चर रहे थे। मनुष्य को देखने का उन्हें कोई उत्साह नहीं था। अचानक खुले मैदान पर हमें उतारकर विमान जैसे अचानक उतरा था वैसे ही अचानक चार यात्रियों को लेकर उड़ान भरकर निकल गया।

मन में क्षण भर के लिए घबराहट- भी हुई कि कहीं हम पर शेरों ने आक्रमण कर दिया तो ? पर यह डर मनुष्य के हृदय का डर था। शेर अधिकतर अंधकार होने पर ही शिकार करते हैं। दिन में अठारह घंटे वे सोते हैं। एक और सच्चाई तो यह है कि पशु अकारण किसी पर हमला नहीं करते और मनुष्य उनके भोजन की सूची में भी नहीं हैं।

खैर ,हमारे स्वागत में चारों तरफ से खुली हुई लाल कपड़े से ढकी सीटों वाली जीप और चालक हमें लेने के लिए तैयार खड़े थे। यह उस रिसोर्ट द्वारा भेजा गया था जहाँ पर हम पाँच दिन रहने जा रहे थे। हमारे साथ एक फ्रेंच परिवार भी था। जीप का चालक मसाई जाति का था। वहीं का निवासी था। कामचलाऊ अंग्रेजी बोल लेता था। उसने हमें ऊपर से मारा नदी में खड़े दरियाई घोड़े और मगरमच्छों का दर्शन कराया। वे नीचे पानी में और पास की कीचड़ वाली जगह पर थे। और हम काफी ऊपर खड़े थे ताकि हम आराम से उन्हें देख सकें वरना दरियाई घोड़े आक्रमण करने में बहुत होशियार होते हैं। यह दर्शन हमारे लिए तीसरा बोनस साबित हुआ।

हम अपने होटल की ओर रवाना हुए। जाते समय कई विल्डरबीस्ट और ज़ीब्रा हमें नज़र आए। हमें देख कर भी उन्होंने हमें अनदेखा कर दिया। हमें उनमें रुचि थी, उन्हें हममें नहीं। कुछ दूरी पर हमें जिराफ़ का परिवार नजर आया और इन सब के बीच में दौड़ते हुए बबून भी दिखाई दिए।

एक अलग प्रकार के भयमिश्रित रोमांच के साथ हम अपने रिसोर्ट पहुंँचे। हमें जीप चालक ने जानकारी देते हुए बताया कि लाल कपड़े मसाई जाति के लोगों का वस्त्र है। वे गाय पालते हैं और उन्हें चराने के लिए खुले मैदानों पर ले जाते हैं। उनके पास अपनी सुरक्षा के लिए तीर- धनुष्य और भाला होता है। किसी समय वे जानवरों का शिकार करते थे। पर अब नहीं क्योंकि उन जानवरों को देखने के लिए हज़ारों की संख्या में पर्यटक आते हैं और मसाई लोगों को जीविका मिलती है। जंगली पशु उन लाल कपडे़वालों से दूर रहते हैं। पर्यटकों की सुरक्षा हेतु गाड़ी में भी इसीलिए लाल कपड़े रखे जाते हैं। उसने हमें दस फीट की दूरी से शेर के झुंड का दर्शन करवाने का आश्वासन दिया और कहा कि न तो हम उन्हें देखकर शोर मचाएँ न गाड़ी से नीचे उतरने का प्रयास ही करें। यह स्थान उन जानवरों के लिए है। वे अपनी टेरिटरी में किसी और का हस्तक्षेप बिल्कुल सहन नहीं करते। हम सबने चालक की हर बात गाँठ बाँध ली।

हमारा सामान हमारे लिए आरक्षित कमरे में ले जाया गया। यह मारा नदी से काफी ऊपर बनाए गए आवासीय व्यवस्था थी। लकड़ी से बने एक – एक विशाल प्लेटफार्म पर भारी भरकम सख्त – मजबूत टेंट लगाए गए थे। टेंट के भीतर सभी असबाब मजबूत लकड़ी से बने थे। टेंट के भीतर एक अलमारी, एक विशाल पलंग, मेज़- कुर्सी, तथा स्वच्छता गृह बनाया हुआ था। टेंट को बंद करने के लिए मोटे ज़िप लगे थे। और उस पर एक और मोटा कपड़ा लगाया हुआ था। टेंट के भीतर हवा के लिए जालीदार खिड़की सी बनी हुई थी। किसी पशु के लिए सीढ़ी चढ़कर टेंट तक आना सहज न था। इसलिए सारे टेंट ऊँचे प्लेटफार्म पर ही बनाए हुए थे। टेंट के सामने खुली जगह थी जहाँ से नदी में डुबकी लिए हुए आलसी दरियाईघोड़ों की आँखें दिखाई दे रही थीं।

हमें बताया गया था कि रात के नौ के बाद बिजली बंद कर दी जाती है क्योंकि दरियाई घोड़े रात होने पर अँधेरे में टेंट के आसपास घास खाने आते हैं। कई बार वे अपनी पीठ रगड़ने के लिए टेंट लगाए गए भारी भरकम खंभों का उपयोग करते हैं। घास खाते हैं तो खूब आवाज़ करते हैं। मुँह खोलते हैं तो दो बड़े नुकीले दाँत दिखाई देते हैं। भयंकर से दिखते हैं।

हर यात्री को सुरक्षा के लिए टॉर्च दिया जाता है। आवश्यकता पड़ने पर टेंट के भीतर बने झरोखों से टॉर्च दिखाए जाने पर पास ही सुरक्षा के लिए तैनात मसाई मदद के लिए पहुँच जाते हैं।

दोपहर के समय खुले मैदान पर एक बबूल के वृक्ष के नीचे अस्थाई रसोई की व्यवस्था के तहत हमें भोजन खिलाया गया। हम छह लोग थे। कई प्रकार के फल, सलाद, उबले आलू, तथा मांसाहारी पदार्थ परोसे गए।

यह सितंबर का महीना था। वर्षा समाप्त हो चुकी थी और सवाना हरा-भरा था। एक जिराफ़ पास के एक विशाल बबूल के वृक्ष के पत्ते इत्मीनान से सूँथ-सूँथकर खा रहा था। पास ही कुछ छोटे -बड़े बबून घूम रहे थे। हमें बताया गया था कि हम उन्हें किसी प्रकार का कोई भोजन न डालें। हमारा भोजन उनका भोजन न था।

हम सभी जानवरों के क्रियाकलापों को नज़दीक से देखना चाहते थे इसलिए

भोजन करते ही साथ कई जीप उन्हें देखने के लिए तीन बजे के क़रीब निकल पड़ीं।

हर जीपचालक के पास वॉकी- टॉकी था। वे एक दूसरे को जानवरों का पता बताते चलते रहे। एक पेड़ पर हमें जिराफ का मृत शावक दिखाई दिया। उसकी निचली टहनी पर एक बड़ा तेंदुआ सोया हुआ था। ये पशु अपने शिकार को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें मारने के बाद पेड़ पर टाँग देते हैं। फिर फुर्सत से खाते रहते हैं। ऐसा दृश्य एनिमल प्लेनेट में टी वी पर अवश्य देखा था पर आज साक्षात सामने ही अपनी आँखों से देख रहे थे।

इसके तुरंत बाद किसी ने हमारे चालक को सिंह के एक झुंड की खबर दी। हम उत्साहपूर्वक उन्हें देखने गए। एक विल्डरबीस्ट का शिकार कर दल का लीडर एक सिंह उसका पूरा आनंद ले रहा था और दस – बारह सिंहनियाँ पास में ही मांस खाने के लिए प्रतीक्षा कर रही थीं। हमने खुले में दस फीट की दूरी से इन हिंस्र पशुओं को देखने का आनंद लिया। हमसे स्पष्ट कहा गया था कि हम न तो ऊँची आवाज़ में बोलेंगे न गाड़ी से नीचे उतरेंगे। हम सबने आलस में अंगड़ाई लेती शेरनियाँ देखीं। शेर महाराज को भोजन का अकेले में आनंद लेते हुए देख हम सब रोमांचित हो उठे। सच में एक राजा के समान!

इतने में हमारे चालक को खबर दी गई कि कहीं दो चीते भी नज़र आए हैं। हमारे चालक ने गाड़ी घुमाई और हम उस दिशा में चल पड़े। काफी दूर जाने पर एक ऊँची चट्टान पर हमें दो चीते दिखाई दिए। वे एक दूसरे को प्यार से चाट रहे थे। तेंदुए और चीते में फर्क है। चीते की आँखों के नीचे दो धारियां होती हैं।

हमें लौटते हुए विलंब हो रहा था, सूर्यास्त भी हो रहा था। एक जगह पर चालक ने गाड़ी रोक दी और कहा सामने देखिए। मैदान में हमें ज़मीन में बनाए गए बिलों में से लकड़बग्घे निकलते हुए दिखे। ये पूरा कुनबा साथ रहता है। एक वयस्क मादा बच्चों को संभालती है। खुले मैदान के बीचोबीच जीप रुकी और हमने लकड़बग्घों के झुंड को देखा।

दूसरे दिन सुबह- सुबह हम रवाना हुए मारा रिवर देखने के लिए जहांँ पर नदी के इस पार से उस पार पशु जाया करते हैं। इसे वे माइग्रेशन कहते हैं। यह माइग्रेशन हर साल होता है जब भारी वर्षा के पश्चात मारा रिवर एकदम उफनती हुई दिखाई देती है , तब नदी के इस पार से उस पार पशु जाते हैं। यह माइग्रेशन मौसम के अनुसार घास चरने और नवजात शावकों को जन्म देने का मौसम होता है।

हम बड़े उत्साह से नदी किनारे पहुंँचे। कुछ दूरी से हमने देखा कि बड़ी संख्या में विल्डर बीस्ट खड़े थे और धीरे-धीरे कवायद करती हुई उनकी बढ़ती संख्या नदी के किनारे जमा हो रही थी। हमें जीप चालक ने बताया कि जब हजारों की संख्या में विल्डरबीस्ट जमा हो जाते हैं तब वे एक साथ नदी को पार करने का कार्य करते हैं। नीचे नदी में काफी सारे मगरमच्छ घूम रहे थे। यह उनका ब्रेकफास्ट टाइम था। वे पशुओं के माइग्रेशन की ताक में रहते हैं।

विल्डरबीस्ट अभी पानी में छलाँग मारने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। उधर बड़ी संख्या में दौड़ते हुए और कई विल्डरबीस्ट जमा हो रहे थे। सारा वातावरण पशुओं के दौड़ने के कारण धूल से भरता जा रहा था। उन सबके रंभाने की आवाज़ से वातावरण गुंजायमान हो रहा था। हम कुछ दूरी पर अपने कैमरे संभालकर दिल थाम कर बैठे थे कि कब वह अद्भुत दृश्य देखने को मिलेगा। दूसरी तरफ बड़ी संख्या में ज़ीब्रा दिखाई दे रहे थे जो पानी पीने के लिए नदी पर आना चाहते थे लेकिन मगरमच्छों को देखकर भयभीत हो रहे थे।

फिर अचानक एक अद्भुत घटना घटी। हमने देखा एक विल्डर बिस्ट ने पानी में छलाँंग लगाई , उसके छलांँग लगाने के एक मिनिट बाद ही हजारों की संख्या में अनेकों विल्डरबीस्टों ने भी नदी में छलाँग लगाई परंतु उस एक मिनट के अंतर में पहला विल्डरबीस्ट भूखे मगरमच्छों का शिकार हो गया। पानी लाल – सा हो गया और मगरमच्छों में माँस के लोथड़े छीनने की स्पर्धा शुरू हो गई।

उधर अपने योग्य भोजन पाकर मगरमच्छ व्यस्त हो गए ,इधर अन्य विल्डरबीस्ट मौका पाकर नदी पार कर गए। समस्त वातावरण में भयंकर कोलाहल मचा था, पानी की छींटे ऊपर तक आ रही थीं, ऐसा लग रहा था मानो महायुद्ध छिड़ा हो। घंटे भर बाद सारे विल्डरबीस्ट और उनके बाद ज़ीब्रा नदी पार कर गए। अब नदी शांत हो गई। मगरमच्छ भरपेट भोजन कर अब धूप सेंकने तट पर आ गए और अपना जबड़ा खोलकर बैठ गए।

दरियाई घोड़े अपने पूरे शरीर को पानी में डुबोकर केवल अपनी आँखों को पानी के ऊपर रखकर सारे दृश्य का अवलोकन करने लगे। यहाँ एक और नई बात की जानकारी मिली कि अब घास खानेवाले दरियाई घोड़ा मांसाहारी होने लगे हैं। वे भी मौका पाकर माइग्रेट करनेवाले पशुओं के मांस का बड़े मज़े से स्वाद लेते हैं। वे अत्यंत आक्रामक और भयंकर प्राणी हैं।

तीसरे दिन हम मसाई विलेज देखने गए। उस गाँव की मुखिया एक वृद्धा स्त्री थी। हमारे आने की खबर मिलते ही साथ वे गीत गाने लगीं। शब्द तो हम पकड़ न पाए पर संयुक्त स्वर में उत्साह था,आतिथ्य की झलक थी और थी गीत में मिठास। हमें इस तरह का अद्भुत स्वागत बहुत भाया। मुखिया के दो बेटों ने गाँव के द्वार पर ऊँची -ऊँची छलाँग लगाकर हमारा स्वागत किया। यही उनकी प्रथा और संस्कृति है।

बीस से चालीस परिवार गोलाई में मिट्टी और लकड़ी से घर बनाते हैं। हर घर में जानवरों की चौड़ी चमड़ी लगी हुई है जिसपर वे सब सोते हैं। घर के भीतरी हिस्से में बुजुर्ग सोते हैं और बच्चों को लेकर युवा दरवाज़े की ओर वाले कमरे में सोते हैं।

गाँव के मुखिया के घर में प्रातः दो पत्थरों को घिसकर आग जलाई जाती है फिर यही आग लकड़ी की सहायता से दूसरे घरों तक पहुँचाई जाती है। यह प्रतिष्ठा , प्रभुत्व और एकता का प्रतीक माना जाता है।

भोजन में वे भूना मांस और गाय का कच्चा दूध पीते हैं। घर के भीतर लकड़ी और मिट्टी के कुछ पात्र रखे हुए दिखाई दिए। गाँव की युवा स्त्रियाँ लकड़ी से पशुओं की तराश कर मूर्ति बनाते हैं। वृद्धा पशुओं की खाल से वस्त्र और हड्डियों से माला बनाती हैं। पास की छोटी क्यारियों में औषधीय वनस्पतियाँ उगाती हैं। गाँव के पुरुष मवेशियों को चराने के लिए ले जाते हैं। प्यास लगने पर गाय के गले में तीर से छेद कर थोड़ा खून निकालकर पीते हैं। फिर उस स्थान पर वनस्पतियाँ हाथ से मसलकर लगा देते हैं। ऐसा करने पर रक्त का प्रवाह थम जाता है और घाव नहीं होता। इसके बारे में टीवी पर जानकारी मिली थी अब साक्षात देखने को भी मिला। गाँव की मुखिया ने मेरे गले में अपने गले का हार डाला इसका अर्थ उनकी प्रसन्नता व्यक्त करना है ऐसा हमें बताया गया। मुझे मसाई महिलाओं के साथ नृत्य करने का अद्भुत मौका मिला। यह इस यात्रा के दौरान मिला चौथा बोनस था।

मसाई में वैसे तो गर्मी के मौसम में पानी की कमी होती है, पर भारी वर्षा के बाद नदी भर उठती है। तब प्राणियों के प्रजनन की भी तैयारी शुरू होती है। मसाई की महिलाएँ भी गाढ़े लाल रंग के वस्त्र पहनती हैं। घुटने के नीचे का हिस्सा खुला रहता है। बाकी शरीर एक बड़े वस्त्र से ढका रहता है। वे अपने घर के आसपास जो औषधीय पौधे उगाती हैं उन्हें सुखाकर धुआँ निर्माण करते हैं और उससे अपने घुंघराले बाल और शरीर को स्नान कराने जैसे धुएँ से भर देते हैं। इन पौधों के जलने से एक सुगंध उत्पन्न होती है इसके कारण उनके शरीर स्वच्छ हो जाते हैं। सिर के घुंघराले बालों में जूँ नहीं पड़ते।

मसाई गाँव के बच्चे पास के कनाडियन स्कूल में पढ़ने जाते हैं। यहाँ कनाडा सरकार ने मसाई जनता को सिविलाइज्ड बनाने की जिम्मेदारी ली है साथ ही उनके बच्चों को पौष्टिक भोजन, औषधि आदि भी दी जाती है। साथ ही साथ प्रकृति की पूजा करने वाली यह मसाई जाति की अगली पीढ़ी अंग्रेज़ी तो सीख ही रही है साथ में ईसाई धर्म में परिवर्तित भी होती जा रही है। अगर देखा जाए तो वे अपनी जड़ों से ,मूल संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं।

चौथे दिन दिन हम गैंडे देखने गए। अफ्रीकी गैंडों की नाक के ऊपर दो खड्गनुमा सींग होते हैं। ये वास्तव में बाल हैं और इसमें औषधीय गुण होते हैं। इसी कारण चोरी -छिपे इन पशुओं का शिकार किया जाता है। गैंडे घासखोर प्राणी हैं इसलिए जहाँ ऊँची घास होती है वे उसी इलाके में पाए जाते हैं। वन सुरक्षा या रेंजर गैंडे प्रजाति की सुरक्षा में सतर्कता से तैनात रहते हैं। उस दिन केवल हम दोनों ही थे। हम सुबह पाँच बजे ही निकल गए। हमारे साथ पैक्ड नाश्ता और फ्लास्क में भरकर गर्म कॉफी की व्यवस्था दी गई थी। साथ ही कुछ फल, तश्तरियाँ ,पानी की बोतलें, काँटे -चम्मच,छुरी, बटर, सॉफ्ट ड्रिंक के टेट्रापैक एक बड़े से थर्मोकोल के बक्से में पैक कर के दिया गया।

काफी यात्रा के बाद जीप चालक हमें ऐसे स्थान पर ले गया जहाँ नज़दीक से हम गेंडों को देख सकें। गेंडे भी आक्रमक होते हैं। वे अकेले ही घूमते हैं। मादा गैंडा अपने बच्चे के साथ दिखाई देती है। नर मादा केवल तब साथ होते हैं जब प्रजनन या मैथुन क्रीड़ा का मौसम होता है।

हमने दो गर्भवती मादाएँ देखीं जो सुरक्षा के घेरे में रखी गई थीं। हम उन्हें गाड़ी से उतरकर पास जाकर देख सके क्योंकि उनका सेवक उनके साथ ही था। यह एक अद्भुत रोमांचक और अविस्मरणीय अनुभव था हमारे लिए। गेंडे की गर्भावस्था पंद्रह से सोलह माह तक चलती है। शिशु के जन्म के बाद वह तुरंत खड़ा हो जाता है और माँ का ही दूध पीता है। माँ अपने शावक को दो वर्ष तक दूध पिलाती है।

इतनी नज़दीक से गैंडों को देखना इस यात्रा के दौरान मिला पाँचवा बोनस था। लौटते समय दस बज चुके थे। हम एक ऊँची चट्टान के ऊपर जा बैठे। चालक ने दरी बिछाई, फिर साथ लाए गए थर्मोकोल के बक्से से निकालकर हम तीनों ने नाश्ता खाया। चालक ने मसाई लोगों के जीवन के बारे में कई जानकारियाँ दीं। जैसे एक कबीले के लोग अपने कबीले की लड़की से विवाह नहीं कर सकते। दूसरे दूर गाँव की लड़की ब्याहकर लाई जाती है। लड़की अपने साथ दहेज़ के रूप में गायें लाती हैं। नई दुल्हन का कबीले में स्वागत होता है और कई दिनों तक उत्सव मनाया जाता है। उसने यह भी कहा कि आजकल लड़के पढ़ लिखकर , अंग्रेज़ी सीखकर कंप्यूटर पर काम करना सीखने लगे हैं। पर पढ़े लिखे लड़के कबीला छोड़कर अलग शहरों में पक्का घर बनाकर रहते हैं तथा नौकरी करते हैं। इस कारण अब मसाई कबीले घटते जा रहे हैं।

अब हम रिसोर्ट की ओर लौटने लगे, इतने में चालक को वॉकी -टॉकी में एक कॉल आया। उसने तुरंत गाड़ी घुमाई और हमें ऊँचे ऊँचे वृक्षों के बीच ले गया। वहाँ कुछ वृक्षों पर और कुछ नीचे मैदान पर विशाल गिद्धों का झुंड दिखाई दिया जो तीव्र गति से किसी मरे ज़ीब्रा के बचे- खुचे मांस नोचकर खा रहे थे। अद्भुत दृश्य था। आपस में लड़ भी रहे थे और खाते जा रहे थे। यह हमारी यात्रा के दौरान मिला छठवाँ बोनस था।

पाँचवे दिन हम सभी को दोपहर के भोजन के बाद मसाई के विशाल मैदान का चक्कर लगाने के लिए ले जाया गया। बड़ी संख्या में हाथी के झुंड, जिराफ़ उनके बच्चे , ज़ीब्रा दिखाई दिए। दोपहर को तेज़ धूप थी। एक अद्भुत दृश्य देखने को मिला अधिकतर ज़ीब्रा जोड़े में दिखाई दिए और दोनों दो दिशाओं में मुख किए खड़े थे। चालक ने समझाया कि जब ज़ीब्रा एक जगह पर खड़े होते हैं तब आगे और पीछे से किसी आक्रमण से बचने के लिए वे इस तरह खड़े होते हैं। ऐसा करके वे अपने को सुरक्षित कर लेते हैं मुश्किल पड़े दो दौड़ने लगते हैं। हम जब आवास की ओर लौटने लगे तो हमें बड़ी संख्या में शुतुरमुर्ग के झुंड दिखाई दिए। वे तीव्र गति से बस दौड़ रहे थे। जीपचालक ने उनके पीछे जीप दौड़ाई तो उन्होंने अपनी गति बढ़ा दी। हमने ही फिर चालक को उनका पीछा करने से मना किया। हमें यह अनुचित लगा।

हम अब अपने आवास की ओर लौटने लगे। भारी संख्या में विशाल मोटे सींगवाले जंगली भैंस जुगाली करते हुए बैठे थे। उनका आकार विशाल ,तगड़े और भयंकर दिख रहे थे। भोजन के बाद वे सब बैठ जाते हैं और जुगाली करते हैं। वे भी सब झुंड में रहते हैं।

उस दिन शाम को सभी पर्यटकों के लिए शुतुरमुर्ग नृत्य का आयोजन किया गया था। यह नृत्य मसाई जाति के पुरुष ही दिखाते हैं। साथ ही मसाई जाति के नृत्य संगीत आदि का आयोजन भी था।

छठवें दिन ही सुबह को आठ बजे हम उसी स्थान पर लौटकर आए जहाँ हम उतरे थे। कुछ ही समय में विमान आया और हमने अपनी आँखों में अति मनमोहक वन्य जीवन के सुखद दृश्य को सदा के लिए समाहित कर नई ऊर्जा ,नए दृष्टिकोण, नई जानकारी लिए अपनी उड़ान भरी!!

माइग्रेशन के इस दृश्य को देखकर तीन बातें मैंने अपने जीवन में सीखी –

  1. अपने जीवन में कुछ कठिन निर्णय स्वयं को ही लेने पड़ते हैं।
  2. समाज में रहने के लिए कभी – कभी भय को पीछे छोड़कर अगुआ भी बनना पड़ता है जो दूसरों के लिए आदर्श बन जाता है।
  3. अपने कौम, अपने देश के लिए शहीद भी होना पड़ता है।

मनुष्य के जीवन में साधारण से महान बनने की यह यात्रा कठिन अवश्य होती है पर सुखदाई भी।

आज कैमरे में कैद तस्वीरें आनंद दे जाते हैं।

© सुश्री ऋता सिंह

27/9/2012, 1.25 am, मोम्बासा

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #140 – “यात्रा वृतांत – दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बाल साहित्य  – “यात्रा वृतांत– दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 140 ☆

 ☆ “यात्रा वृतांत– दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

जैसे ही मिट्ठू मियां को मालूम हुआ कि मैं, मेरी पत्नी और पुत्री प्रियंका पशुपतिनाथ मंदिर मंदसौर और एलोरा की तर्ज पर बना मंदिर धर्मराजेश्वर देखने जा रहे हैं वैसे ही उसने मुझसे कहा, “मालिक! मैं भी चलूंगा।”

मगर मेरा मूड उसे ले जाने का नहीं था। मैंने स्पष्ट मना कर दिया, “मिट्ठू मियां! मैं इस बार तुम्हें नहीं ले जाऊंगा।”

मिट्ठू मियां कब मानने वाला था। मुझसे कहा, “मुझे पता है नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर देखने जाते वक्त बहुत परेशानी हुई थी।” यह कह कर उसने मेरी ओर देखा।

मैं कुछ नहीं बोला तो उसने कहा, “मैं कैसे भूल सकता हूं कि आप हवाई अड्डे के अंदर कैसे मुझे ले गए थे। वह तरकीब मुझे याद है,” उसने कहा, “हवाई जहाज में आप मुझे हैण्डबैग में भरकर ले गए थे। वहां मेरा जी बहुत घबराया था। मगर मैं चुप रहा। मुझे हवाई जहाज की यात्रा करना थी।”

“हां मुझे मालूम है,” मैंने कहा तो मिट्ठू मियां बोला, “इस बार मैं चुप रहूंगा। आप जैसा कहोगे वैसा करूंगा। मगर आपके साथ जरूर चलूंगा,” उसने तब तक बहुत आग्रह किया जब तक हम जीप लेकर चल न दिए।

मैं उसका आग्रह टाल न सका। झट से ‘हां’ में गर्दन हिला कर सहमति दे दी।

तब खुश होकर मिट्ठू मियां हमारी जीप में सवार हो गया। मगर, उसे जीप बहुत धीरे-धीरे चलती हुई लग रही थी। वह बोला, “आप जीप थोड़ी तेज चलाइए। मैं आपकी जीप के साथ उड़ता हूं। देखते हैं कि कौन तेज चलता है?” कह कर मिट्ठू मियां उड़ गया।

मैंने उसकी बात मान ली और जीप तेज चला दी। मगर मिट्ठू बहुत तेज उड़ रहा था। वह जीप से कहीं आगे निकल गया। इस तरह हम नीमच से निकलकर 55 किलोमीटर दूर मंदसौर यानी दशपुर पहुंच गए।

यहां शिवना नदी के किनारे पशुपतिनाथ का मंदिर स्थित है। जिसके अंदर चमकते हुए तांबे की उग्र चट्टान को तराश कर बनाई गई अष्टमुखी शिव प्रतिमा के हमने दर्शन किए। यह मूर्ति 11.25 फीट ऊंची तथा 64065 किलो 525 ग्राम वजनी पत्थर से निर्मित है। इसमें जीवन की आठों दिशाओं को शिव के मुखमंडल द्वारा दर्शाया गया है।

इस अद्भुत मूर्ति को देखकर मिट्ठू मियां के मुंह से निकल पड़ा, “मालिक! यह तो नेपाल के पशुपतिनाथ की चार मुखी मूर्ति से बहुत बड़ी व अद्भुत मूर्ति है।”

मैं भी चकित था, “वाकई! बहुत अद्भुत मूर्ति हैं,” कहते हुए मैंने मिट्ठू मियां को कैमरा दिया। वह उसे लेकर ऊंचा उड़ गया। उसने मंदसौर के पशुपतिनाथ के 111 फीट ऊंचे मंदिर का बहुत ऊंचाई से हमें दर्शन करा दिए।

इस अद्भुत मंदिर को देखकर मैं, मेरी पत्नी और बेटी- हम सब बहुत खुश हुए। हम कई फोटो लिए। वे बहुत ही सुंदर आए थे।

चूंकि हमें यहां से 122 किलोमीटर दूर चंदवासा जाना था। यह मंदसौर जिले की शामगढ़ तहसील में स्थित है। यहीं से धमनार और वहां की गुफाएं 3 किलोमीटर दूर पड़ती है। यह स्थान शामगढ से मंदिर 22 किलोमीटर दूर है। इस कारण हमने जीप स्टार्ट की ओर चल दिए। ताकि समय से हम दर्शनीय स्थान पर पहुंच सकें।

मिट्ठू मियां को उड़ने की आदत थी। वह जीप के साथ-साथ उड़ता जा रहा था। वह हमसे रेस लगा रहा था। मगर हर बार हम हार जाते थे। क्योंकि मिट्ठू मियां हवा में सीधा उड़ रहा था। हम भीड़ भरे रास्ते और सड़क पर चल रहे थे। इस कारण हम उससे पीछे रह जाते।

इस तरह मिट्ठू मियां से रेस लगाते हुए हम जैसे ही शामगढ़ से चंदवासा पहुंचे मिट्ठू मिया ने उड़ते-उड़ते ही कहा, “मालिक! मुझे धर्मराजेश्वर का अद्भुत मंदिर दिखाई दे रहा है।”

मैंने मिट्ठू मियां को बुलाकर उसे कैमरा पकड़ा दिया। वह ड्रोन कैमरे की तरह कैमरा लेकर उड़ पड़ा। जैसे हम धमनार पहुंचे वैसे ही धर्मराजेश्वर मंदिर को देखकर चकित रह गए।

चंदन गिरी की पहाड़ियों की एक चट्टान को तराश कर यह शिव मंदिर बनाया गया था। इस मंदिर को 104 गुणा 67 फीट लंबाई-चौड़ाई और 30 मीटर की गहराई को एक चट्टान को तराश कर यानी खोद कर बनाया गया था। यह दृश्य ऊंचाई से बहुत अद्भुत लग रहा था।

किसी चट्टान को ऊपर से तराश कर खोदते जाना, साथ ही उसे मुख्य मंदिर के साथ साथ-साथ सात लघु मंदिर की शक्ल में उभारना, अद्भुत कला कौशल का काम है। इस तरह एक चट्टान को तराश कर बनाए जाने वाले मंदिर या गुफा को शैल उत्कीर्ण शैली या शैल वास्तुकला कहते हैं। यह बहुत ही वैज्ञानिक और बुद्धिमत्ता का काम है।

मिट्ठू मियां इस मंदिर के ऊपर उड़ते हुए बोला, “वाह! यह मंदिर एलोरा के कैलाश मंदिर की तरह तराश कर बनाया गया अद्भुत मंदिर है।”

तब अचानक मेरे मुंह से निकल गया, “इस मंदिर व एलोरा के कैलाश मंदिर में कुछ तो अंतर होगा?” मेरे यह कहते ही मिट्ठू मियां एक शिलालेख के पास पहुंच गया।

वहां पर जो शिलालेख उत्कीर्ण था, उससे पता चला कि एलोरा का कैलाश मंदिर दक्षिण भारतीय द्रविड़ शैली से निर्मित वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। वही दशपुर का धर्मराजेश्वर का यह शिव मंदिर उत्तर भारतीय नागरी शैली का उत्कृष्ट नमूना है। दोनों ही मंदिरों में बारीक पच्चीकारी, भित्ति चित्र, भित्ति पर उकेरी गई मूर्तियां तथा द्वार मंडप, सभा मंडप, अर्धमंडप, गर्भगृह, कलात्मक शिखर, मुख्य द्वार पर निर्मित भैरव व भवानी की प्रतिमा के अद्भुत दर्शन होते हैं।

अरावली की पहाड़ियों के पास स्थित चंदन गिरी की पहाड़ियों पर यत्र तत्र बिखरी पड़ी इन भारतीय संस्कृति की विरासत और अद्भुत वास्तुकला के नमूनों को देखकर हम चकित थे। तभी मिट्ठू मियां ने हमें चेताया, “मलिक, इस मंदिर को ही देखते रहोगे या यहां की बौद्ध धर्म की अद्भुत गुफाओं के भी दर्शन करोगे।”

समय तेजी से भाग रहा था। मैंने कहा, “क्यों नहीं।” यह कहते हुए हम मंदिर से झट से बाहर निकलें। इंडियन रॉक कट आर्किटेक्चर के अद्भुत नमूने की गुफाएं देखने चल दिए। 

जैसे ही टिकट लेकर हम अंदर गए वैसे ही मिट्ठू मिया ने हमें उस अद्भुत तथ्य से मुझे अवगत करा दिया। जिसकी जानकारी हमें नहीं थी।

“मालिक! एलोरा में 34 गुफाएं हैं। जिसने 5 जैन गुफाएं, 12 बौद्ध गुफाएं और 17 हिन्दू गुफाएं उल्लेखित हैं। इस तरह 34 गुफाएं बनी हुई है। मगर यहां तो 51 गुफाएं तो संरक्षित की गई है।”

“वाह!” मेरे साथ-साथ सभी ने कहा, “इसका मतलब यहां एलोरा और अजंता से ज्यादा गुफाएं बनी हुई हैं।” यह कहते हुए मैं एक गुफा के अंदर घुसा। वहां सभा मंडप, चैत्य, विहार आदि अनेक कक्ष व प्रार्थना स्थल बने हुए थे। इसके साथ अनेक कक्ष निर्मित थे। जिनमें प्राचीन समय की व्यापारी, बौद्ध भिक्षु आदि आहार-विहार के साथ देश विदेश में धर्म का प्रचार व शिक्षा-दीक्षा का कार्य किया करते थे।

इसके साथ साथ हमने अनेक गुफाओं के दर्शन किए।

चूंकि समय ज्यादा हो गया था, यह स्थान चंबल अभ्यारण्य के अंतर्गत आता है, यहां खाने-पीने व ठहरने के लिए कोई उत्तम व्यवस्था नहीं है। अतः हमें शीघ्र वापस लौट जाना पड़ा।

मगर वापस लौटते-लौटते मिट्ठू मियां ने एक अद्भुत दृश्य हमारे कैमरे में कैद करवा दिया। जिसके द्वारा हमें मालूम हुआ कि यहां तो 235 से अधिक गुफाएं बनी हुई है। मगर समय के थपेड़े व दसवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म के लोप हो जाने की वजह से ये सभी गुफाएं जंगली जानवरों की शरण स्थली बन गई थी। इस कारण कई स्थानों पर इस तरह बनी हुई गुफाओं को बाघ गुफाएं कहते हैं।

यह याद करते हुए मिट्ठू मियां हम वापस अपने घर लौट पड़े। मगर इस बार की हमारे यात्रा बहुत अद्भुत व यादगार रही थी। हमारे साथ-साथ मिट्ठू मियां और हम सभी बहुत खुश थे। कारण, सभी की गर्मी की छुट्टियाँ बहुत ही आनंददायक पर्यटन की सैर के साथ बीती थीं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

02-05-2023 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 09 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग ५ – आनंदपुर ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग पाँच – आनंदपुर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 09 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग पाँच – आनंदपुर ?

(वर्ष 1994)

चंडीगढ़ में रहते हुए एक बात समझ में आई कि बड़े – बड़े बंगलों में रहनेवाले लोग आसानी से किसी नए पड़ोसी से मित्रता नहीं करते। पर नए पड़ोसी के बारे में जानने की उत्कंठा अवश्य ही बहुत ज्यादा होती है उनमें। हम फ्लैटों में रहनेवालों की प्रकृति इससे अलग होती है।हम लोग तुरंत नए पड़ोसी की सहायता में जुट जाते हैं। हमें चंडीगढ़  जाने के बाद शुरू-शुरू में दिक्कत तो हुई पर समय के साथ कुछ लोगों से परिचय हो ही गया।

हमारे मोहल्ले में एक क्लब था जहाँ स्त्री , पुरुष सभी रमी खेलने आते थे। हम वहाँ जाने लगे तो कुछ मित्र बने। एक बैडमिंटन कोर्ट था तो दोस्त बनाने के लिए हमने सुबह बैडमिंटन खेलना प्रारंभ किया। अपने बच्चों को स्कूल भेजने के बाद कई हमउम्र महिलाएँ बैडमिंटन खेलने आती थीं। सच में उत्कंठित पड़ोसन अब खेल के बहाने हमारे मित्र बनने लगीं।

एक रविवार उन्होंने मुझे अपने साथ गुरुद्वारे जाने के लिए आमंत्रित किया,  मैंने भी सहर्ष उस आमंत्रण को स्वीकार किया।पंजाब का हर शहर गुरुद्वारों का विशाल गढ़ है। गुरुद्वारों के प्रति जितनी लोगों में आस्था है उतना ही करसेवा का जुनून भी है। इसे वे एक अनुष्ठान के रूप में करते हैं।

चंडीगढ़ शहर ,पंजाब और हरियाणा के बीच स्थित है। दोनों राज्यों की यह  राजधानी भी है इसलिए महत्वपूर्ण शहर बन गया है और यूनियन टेरीटरी भी है।बहुत ही सिस्टमैटिक रूप से शहर का निर्माण किया गया है। हर एक क्रॉस रोड पर गोल चक्कर है जो मौसमी फूलों ,पौधों से सजा रहता है।यहाँ ट्रैफिक लाइट की व्यवस्था नहीं थी। (अब भीड़ बढ़ने के कारण ट्रैफिक लाइट है।)

चंडीगढ़ से बीस किलोमीटर की दूरी पर पंचकुला नामक शहर पड़ता है। यह शहर हरियाणा का हिस्सा है।यहाँ एक प्रसिद्ध गुरुद्वारा है जिसे नाडासाहेब कहा जाता है।

इसका प्रांगण विशाल है। गुरु गोविंद सिंह जी भंगनी में मुगल सेना को हराकर आगे बढ़ते हुए इस स्थान पर आ पहुँचे थे। नाडा शाह  नामक एक सज्जन ने उनका स्वागत किया था। इसीलिए इस स्थान का नाम नाडासाहेब पड़ गया। यहाँ कुछ समय रुकने के बाद वे अपनी सेना के साथ आनंदपुर  के लिए रवाना हो गए थे।

इस विशाल गुरुद्वारे में हर महीने पूर्णिमा के दिन भारी भीड़ होती है। उत्तर प्रदेश से भी बड़ी संख्या में लोग दर्शन हेतु आते हैं।

इसके बगल में ही बड़ी इमारत है जहाँ हज़ारों की संख्या में लोग लंगर में भोजन ग्रहण करते हैं। पूर्णिमा का दिन विशाल उत्सव का दिन होता है।

उस दिन मुझे आनंद के सागर में हिलोरें लेने का अद्भुत आनंद मिला।करसेवा का वह आनंदमय सामुहिक कृति की स्मृतियाँ मुझे आज भी रोमांचित करती है।

पंजाबी भाषा तो ससुराल में रहते ही मैंने बोलना सीख लिया था पर लहजा तो चंडीगढ़ जाकर ही सीखने का अवसर मिला। बलबीर पंजाबी भाषा से कोसों दूर रहे हैं। नाम के आगे सिंह लिखा होने के कारण हर कोई उनसे पंजाबी में बातें करता  और वे मुस्कराकर रह जाते क्योंकि समझ न पाते तो उत्तर क्या देते भला!

बलबीर अपनी कंपनी के चीफ इन्टरनल  ऑडिटर थे। पंजाब, हरियाणा और हिमाचल तीनों राज्य के दौरे पर जाया करते थे। एकबार उन्हें  रोपड़  जाना था, यह पंजाब का एक महत्वपूर्ण शहर है। मुझे साथ ले जाना चाहते थे क्योंकि ग्रामीण पंजाबी समझना उनके बस की बात न थी। मैं तुरंत साथ चलने को तैयार हो गई। नेकी और पूछ -पूछ! चंडीगढ़ की पड़ोसियों से आनंदपुर गुरुद्वारे का बखान सुना था।बस मुझे तो गुरुद्वारे का दर्शन करना था।साथ चलने का निवेदन मानो नानकसाहब का बुलावा था।

आनंदपुर साहिब का निर्माण सन 1665 में सिक्खों के नौवें गुरु तेगबहादुर जी ने किया था। वे कीरतपुर से आए थे। इस गाँव का नाम मखोवल था। गुरु तेगबहादुर ने इसे चक्की नानकी नाम दिया जो उनकी माता का नाम था।

सन 1675 में गुरु तेगबहादुर पर औरंगज़ेब ने भीषण अत्याचार किए ।वे चाहते थे कि गुरु तेगबहादुर मुसलमान धर्म स्वीकार  कर लें।उनके बार – बार इन्कार करने पर उनका सिर धड़ से अलग कर दिया गया। इस शहीद गुरु के बेटे गोविंद दास को दसवें गुरु के रूप में नियुक्त किया गया। आज हम उन्हें गुरु गोविंद सिंह  के नाम से संबोधित करते हैं, स्मरण करते हैं। गुरुगोविंद सिंह जी ने ही इस गाँव का नाम चक्की नानकी  से बदलकर आनंदपुर रखा।

वह छोटा – सा गाँव अब शहर बनने लगा। सिक्ख समुदाय के लोग गुरुगोविंद सिंह जी की ओर बढ़ने लगे। बड़ी संख्या में लोग दसवें गुरु की ओर आकर्षित होते रहे। आनंदपुर सिक्ख समुदाय का महत्त्वपूर्ण गढ़ बनने लगा। पास पड़ोस के पहाड़ी रियासतों और मुगलों की चिंता बढ़ने लगी। गुरुगोविंद सिंह जी के साहस, शौर्य की बात प्रसिद्धी पाने लगी। मुगल शासक औरंगज़ेब ने बैसाखी के दौरान होनेवाली भीड़ पर पाबंदी लगा दी। सन 1699 में गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की और विशाल सैन्य बल एकत्रित कर ली। बड़ी मात्रा में हथियार भी एकत्रित कर लिए  गए। औरंगज़ेब और उसके मातहत जितने हिंदू राजा थे वे व्यग्र हो उठे। वे आनंदपुर को घेरना चाहते थे। इस कारण कई  युद्ध हुए।

सन 1700 से 1704 तक मुगलों के साथ कई बार भारी युद्ध हुए। मुगल सेना को मुँह की खानी पड़ी, कभी धूल चाटने की नौबत भी आई।1704 में आनंदपुर को जानेवाली सभी प्रकार की सुविधाओं पर मुगलों ने अंकुश लगा दिए। मई माह से दिसंबर तक भोजन आदि का मार्ग बंद कर दिए गए।कई सिक्ख सैनिक प्राण बचाकर अपने घर भाग गए। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि भारतीय नारी युद्ध मैदान से भागे हुए सैनिक की पत्नी बनकर जीने से विधवा होकर जीने को  अधिक श्रेष्ठ  मानती थीं।आवश्यकता पड़ने पर वे भी विरांगनाएँ तलवार लेकर निकल पड़ती थीं। जो सैनिक भागकर लौट आए थे उन्हें उनकी पत्नियों ने प्रताड़ित किया, धिक्कारा और वे सब लौटकर आए और युद्ध मैदान पर शहीद हो गए।

 युद्ध के अंत में आखिर औरंगजेब ने गुरुगोविंद सिंह को सपरिवार अपने अनुयायियों के साथ वहाँ से निकलने का मार्ग दिया। दो समूहों में बँटकर वे आनंदपुर से निकले। धोखा देने के स्वभाव से मजबूर मुगलों ने एक समूह पर आक्रमण किया और गुरु गोविंद सिंह के दोनों छोटे बच्चे और  माता गुजारी को घेर लिया। उनका बड़ा बेटा जोरावर सिंह जो आठ वर्षीय था  और फतेह सिंह  जो पाँच वर्ष का था उन्हें बंदी बना लिया गया। उन दोनों को बदले की भावना से जलनेवाले औरंगज़ेब ने ज़िंदा चुनवा दिया। माता गुजारी सदमें को न सह सकीं और उनका देहांत हो गया।

आज आनंदपुर एक विशाल और महत्वपूर्ण गुरुद्वारा है। देश के इतिहास में इसका महत्वपूर्ण स्थान भी है। विशाल ,भव्य इमारत है। संग्रहालय है। लंगर के लिए विशेष स्थान है। पास में ही छोटा सरोवर है। आज भी विभिन्न पर्वों के अवसर पर देश -विदेश से सिक्ख संप्रदाय के लोग यहाँ उपस्थित होते हैं। खासकर खालसा समुदाय के लोग बड़ी आस्था के साथ यहाँ आते हैं।

हमारा अहो भाग्य ही है कि चंडीगढ़ में रहते हुए हमें ऐसे विशेष स्थानों पर दर्शन का लाभ मिला।

इन सभी गुरुद्वारों की एक विशेषता है कि यहाँ स्वच्छता को बहुत महत्त्व दिया जाता है।यहाँ शोर नहीं होता। दिनरात पाठ की धुन जारी रहती है।अलग – अलग स्थान पर लोग इच्छानुसार कर सेवा करते रहते हैं। सभी शांति से दर्शन करते हैं। ठेलमठेल कभी दिखाई नहीं देती। लोग कतारों में खड़े होकर नामस्मरण करते दिखते हैं।

सभी लंगर में श्रद्धा से प्रसाद ग्रहण करते हैं। गुरुद्वारे में फूल,माला, नारियल आदि नहीं चढ़ाए जाते। गरम काढ़ा परसाद दिन भर सभी को बाँटा जाता है। हमें यहीं आकर ज्ञात हुआ कि काढ़ा परसाद का अर्थ है कढ़ाही में बनाया गया प्रसाद। हर घर में आटा, घी, गुड़ और पानी ये चारों वस्तुएँ उपलब्ध होती ही थीं। बाद में गुड़ की जगह खंड (शक्कर) का प्रयोग होने लगा। इस तरह भोग चढ़ाकर प्रसाद बाँटने की प्रथा बनी।

आज भी बड़ी मात्रा में काढ़ा प्रसाद ही बाँटते हैं। एक बार आप इस शांतिमय परिसर, आनंदमय वातावरण और स्वादिष्ट प्रसाद, सामूहिक लंगर का आनंद लेने गुरुद्वारे  में दर्शन हेतु अवश्य अवश्य जाएँ।

वाहे गुरु दा खालसा

वाहे गुरु दी फतेह।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 08 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग ४ पौंटा साहब  ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग चार – )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 08 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग ४ – पौंटा साहब  ?

(वर्ष 1994)

अपने जीवन के कुछ वर्ष चंडीगढ़ शहर में रहने को मिले। यह हमारे परिवार के लिए सौभाग्य की बात थी क्योंकि यह न केवल एक सुंदर,सजा हुआ शहर है बल्कि हमें कंपनी की ओर से कई प्रकार की सुविधाएँ भी उपलब्ध थीं।

बर्फ पड़ने की खबर मिलते ही हम सपरिवार ड्राइवर को साथ लेकर शिमला के लिए निकल पड़ते थे। चूँकि हिमाचल की सड़कें पहाड़ी हैं हम जैसे लोगों के लिए वहाँ गाड़ी चला पाना संभव ही नहीं होता। कई होटल भी हैं तो रहने की भी अच्छी व्यवस्था हमेशा ही होती रही। संभवतः यही कारण है कि हिमाचल का अधिकांश दर्शननीय स्थान देखने का हमें सौभाग्य मिला।

अब स्पिति हमारे बकेटलिस्ट में है!

हम सभी को श्वेतिमा से लगाव है अतः श्वेत बर्फ से ढकी चोटियाँ हमें मानो पुकारती थीं और हम अवसर मिलते ही रवाना हो जाते थे।

चंडीगढ़ के निवासी ऐसे ट्रिप को अक्सर शिवालिक ट्रिप नाम देते हैं क्योंकि यह शिवालिक रेंज के अंतर्गत पड़ता है।

शिमला, कसौली, कुफ्री,चैल, तत्तापानी कालका,सोलन, परवानु आदि सभी स्थानों के दर्शन का भरपूर हमने आनंद लिया।

इस वर्ष हम कुल्लू मनाली के लिए रवाना हुए। चंडीगढ़ से 120 कि.मी. की दूरी पर डिस्ट्रिक्ट सिरमौर है। यहाँ एक प्रसिद्ध गुरुद्वारा है जिसका नाम है पौंटासाहब। हमने सबसे पहले यहीं अपना पहला पड़ाव डाला। यद्यपि दूरी 120 किलोमीटर की ही थी पर फरवरी के महीने में अभी भी कड़ाके की ठंडी थी, सुबह ओस और धुँध के कारण गाड़ी शीघ्रता से आगे नहीं बढ़ पा रही थी। रास्ते भी घुमावदार थे। अँधेरा भी जल्दी ही हो जाने के कारण हमने उस रात वहीं रुकने का मन बनाया।

पौंटा साहब का असली नाम था पाँव टिका। गुरु गोविन्द सिंह जी एक समय इस स्थान पर अपने घोड़े पर सवार होकर अपनी सेना के साथ यहाँ उतरे थे। उन दिनों वे सिक्ख धर्म का प्रचार कर रहे थे। मुगलों द्वारा भारी मात्रा में धर्म परिवर्तन ने ज़ोर भी पकड़ रखा था। ऐसे समय अपने देशवासियों को एकत्रित करना और समाज की सुरक्षा के लिए तैयार रहना उस समय के देशवासियों की बड़ी ज़िम्मेदारी थी। गुरु गोविंद सिंह जी जो सिक्ख सम्प्रदाय के दसवें गुरु थे, इस तरह घूम-घूमकर लोगों को जागरूक करने और सिक्ख धर्म का प्रचार करने निकलते थे।

गुरु गोविंद सिंह जी कहीं भी अधिक समय तक नहीं रुकते थे। पर इस स्थान पर वे चार वर्ष से अधिक समय तक रुके रहे। जिस कारण इस स्थान को पाँव टिका कहा गया। अर्थात गुरु के पाँव अधिक समय तक टिक गए। इसका रूप बदला और यह पौंटिका कहलाया। फिर समय के चलते इसका नामकरण हुआ और यह पौंटासाहब कहलाया।

उन दिनों सिरमौर के राजा मेदिनी प्रकाश थे। वे सिक्ख समुदाय के साथ एक मित्रता का हाथ बढ़ाना चाहते थे। उन्होंने ही गुरुगोविंद सिंह जी को सिरमौर में आने का आमंत्रण दिया था।

गुरुगोविंद सिंह के साथ उनकी बड़ी फौज भी हमेशा साथ चलती थी। सभी के रहने के लिए एक उत्तम स्थान आवश्यक था। राजा मेदिनी प्रकाश ने विशाल स्थान घेरकर एक सुरक्षित किले की तरह इस स्थान का निर्माण कराया, साथ ही भीतर एक विशाल गुरुद्वारा भी बनवाया। यमुना के तट पर बसा यह गुरुद्वारा आज जग प्रसिद्ध है।

यह स्थान न केवल सिक्ख सम्प्रदाय का धार्मिक स्थल है बल्कि इस स्थान का ऐतिहासिक महत्त्व भी है। यहीं पर लंबे अंतराल तक रहते हुए गुरु गोविन्द सिंह जी ने दशम ग्रंथ की रचना की थी। उनका पुत्र अजीत सिंह का जन्म भी यहीं हुआ था।

यहाँ सोने की एक पालकी है जिसे भक्तों ने गुरुद्वारे को उपहार स्वरूप में दिया था।

गुरुद्वारे के भीतर दो मुख्य स्थान हैं जिन्हें तलब असथान और दस्तर असथान कहते हैं। असथान का अर्थ है स्थान। तलब असथान में कार्यकर्ताओं को तनख्वाह बाँटी जाती थी। दस्तर असथान में पगड़ी बाँधने की रस्म अदा की जाती थी।

गुरुद्वारे के पास ही माता यमुना का मंदिर स्थापित है। यहाँ एक बड़ा हॉल है जहाँ कवि सम्मेलन आयोजित किया जाता था। इसी स्थान पर गुरु गोविंद सिंह जी के रहते हुए कविता लेखन की स्पर्धा का आयोजन भी किया जाता था। यहाँ एक संग्रहालय भी है जिसमें कई पुरातन वस्तुएँ रखी गई हैं। गुरुगोविंद सिंह जी की कलम भी यहाँ देख सकते हैं। उनके द्वारा उपयोग में लाई गई कई वस्तुएँ यहाँ देखने को मिलेंगी।

 यहाँ बड़ी संख्या में न केवल सिक्ख आते हैं बल्कि अन्य पर्यटक भी दर्शन के लिए आते रहते हैं। यहाँ आकर एक बात बहुत स्पष्ट समझ में आती है कि ईश्वर एक है, एक ओंकार। बड़ी मात्रा में लंगर की यहाँ सदा व्यवस्था रहती है। सब प्रकार के लोग,सब जाति के,वर्ग के लोग एक साथ बैठकर लंगर में प्रसाद का आनंद लेते हैं। यहाँ दिन भर बड़ी संख्या में लोगों की भीड़ रहती है।

यमुना के तट पर होने के कारण प्रकृति का सुंदर दृश्य सब तरफ देखने को मिलता है।

आज इस शहर में कई प्रकार के उद्योग प्रारंभ किए गए हैं। रहने के लिए कई बजेट होटल भी उपलब्ध है।

पौंटासाहब कुल्लू से 360 किमी की दूरी पर है। रास्ते में अगर आप रुकते हुए ढाबों के भोजन का आनंद लेते चलें तो दर्शन करने के लिए भी पर्यटक यहाँ रुकते जाते हैं। रास्ते में आपको शॉल बनने के छोटे- छोटे कुटीर उद्योग करते लोग मिल जाएँगे।

यहाँ के लोगों का स्वभाव मिलनसार है। वे पर्यटकों की अच्छी देखभाल और आतिथ्य करते हैं। उनका स्वभाव भी सरल ही होता है। आपको यहाँ अधिकतर लोग रास्ते के किनारे उकड़ूँ बैठकर बतियाते दिखाई देंगे। सभी फुर्सत में दिखते हैं। शहरों – सी भागदौड़ यहाँ नहीं दिखती। इनके छोटे- बड़े पत्थर के घर आकर्षक दिखाई देते हैं। हर घर में खूब लकड़ियाँ स्टॉक करके रखी जाती हैं। इसका उपयोग ईंधन के रूप में होता है। ठंडी का मौसम लंबे समय तक चलने के कारण वे लकड़ियाँ जमा करते रहते हैं।

यहाँ के लोग भात तो खाते ही हैं साथ में कमलगट्टे का यहाँ प्रचुर मात्रा में उपयोग होता है। आप जैसे – जैसे गाँवों की पतली सड़को से गुजरेंगे आपको हींग के पौधों की खेती दिखाई देगी। जो हाल ही में प्रारंभ की गई है।

पौंटासाहब का दर्शन करके हम रोहतांग पास तक पहुँचे। वहाँ एक खास बात देखने को मिली कि ऊपर चलने से पहले ही वे पर्यटकों के हाथ में कपड़े की थैली पकड़ाते हैं ताकि उनके पर्यावरण की रक्षा हो सके और कचरा न फेंके जाएँ। यह एक बहुत बड़ी बात थी जो समय से बहुत पहले ही देखने को मिली। यह सतर्कता अभी चंडीगढ़ में भी नहीं थी।

हमारे परिवार का यह सौभाग्य ही रहा कि हमें दूसरी बार पौंटासाहब गुरुद्वारे का दर्शन करने का अवसर मिला। इस बार हम देहरादून से वहाँ पहुँचे थे। देहरादून से पौंटासाहब पचास कि.मी की दूरी पर स्थित है।

यह नानक साहब की असीम कृपा है कि हमें भारत के मुख्य गुरुद्वारों के दर्शन का सौभाग्य मिलता ही रहा है।

वाहे गुरु, वाहे गुरु बोल खालसा

तेरा हीरा जन्म अनमोल खालसा

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 07 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग तीन – पत्थर साहब लदाख ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग तीन – पत्थर साहब लदाख)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 07 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग तीनपत्थर साहब लदाख ?

(सितम्बर 2015)

2015 इस वर्ष हम रिटायर्ड शिक्षकों का यायावर दल ने लेह लदाख जाने का निर्णय लिया। सितंबर का महीना था। लेह-लदाख जाने के लिए यही समय सबसे उत्तम होता है।

चूँकि हम सभी साठ पार कर चुकीं थी तो यही निर्णय लिया कि मुंबई से डायरेक्ट लेह न जाकर हम श्रीनगर तक फ्लाइट से जाएँ और वहाँ से हम बाय रोड लेह-लदाख तक की यात्रा करें।

 इस निर्णय के पीछे एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारण था। लेह -लदाख समुद्री तल से 3500 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है जिस कारण ऑक्सीजन की मात्रा घटती जाती है। अगर सीधे लेह जाकर उतरते तो दो दिन ऑक्सीजन सिलिंडर के साथ अस्पताल में पड़े रहते। श्रीनगर से आगे बाय रोड जाने पर घटते ऑक्सीजन की मात्रा का अहसास ही नहीं होता। शरीर बाहरी जलवायु के अनुकूल होता जाता है।

श्रीनगर में हम दो रात रहे। तीसरे दिन हम कारगिल के लिए रवाना हुए। श्रीनगर से अट्ठाइस किलोमीटर की दूरी पर नौवीं शताब्दी में निर्मित अवन्तिपुर मंदिर के खंडहर को देखने के लिए हम लोग रुके।

 विशाल पत्थरों पर सुंदर और अद्भुत आकर्षक नक्काशी देखने को मिला। विशाल परिसर में फैला विष्णुजी और शिवजी के यहाँ कभी भव्य मंदिर हुआ करते थे। सुल्तानों ने इसे न केवल लूटा बल्कि तोड़- फोड़कर इसका विनाश भी किया। अब केवल खंडहर शेष है। यह खंडहर ही उसकी भव्यता का दर्शन कराता है।

 हम आगे सेबों से लदे बगीचों का आनंद उठाते हुए कारगिल पहुँचे। श्रीनगर से कारगिल 202 किलोमीटर के अंतर पर है। पाँच -छह घंटे पहुँचने में लगे।

हम कुछ दो बजे कारगिल पहुँचे। यह पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। इसे द्रास घाटी कहा जाता है। यहीं पर पाकिस्तान के साथ 26 जुलाई 1999 को युद्ध छिड़ा था।

आज यहाँ एक विशाल मेमोरियल बनाया गया है। यहाँ शहीद सैनिकों का बड़ा सा सूची फलक है। यहाँ युद्ध संबंधी डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी देखने का मौका मिला। हम आम नागरिक अपने घर में सुरक्षित होते हैं जबकि हमारी सेना दिन रात ठंडी-गर्मी में हमारी सुरक्षा में तैनात रहती है। इस बात का अहसास तब होता है जब वहाँ की शीतलहर को थोड़ी देर झेलकर हम काँप उठते हैं।

1999 के युद्ध में देश ने जीत हासिल की इस बात का न केवल हमें गर्व है बल्कि हमें खुशी भी है पर शहीद हुए जवानों की सूची देखकर तथा किन हालातों का हमारी सेना ने सामना किया था यह जानकर दिल दहल भी उठा। उन सबके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम सबका मस्तक झुक जाता है।

हमने दो रातें कारगिल में बिताई और वहाँ के अन्य दर्शनीय स्थल देखकर हम लोग नुब्रा वैली के लिए रवाना हुए।

पुणे से रवाना होने से पूर्व हरेक को एक – एक छोटी-सी पोटली दी गई थी। इन पोटलियों में विशेष औषधीय गुण युक्त कपूर थे। रास्ते भर हम कपूर सूँघते हुए श्वास-कष्ट से बचते हुए आगे बढ़ रहे थे। कपूर में ऑक्सीजन लेवल को नियंत्रण में रखने का गुण होता है। हम में से किसी को कोई कष्ट नहीं हुआ।

रास्ते अच्छे थे और लोकल चालक भी सतर्क और जानकार। घुमावदार सड़कें और दूर-दूर तक बर्फीली चोटियाँ आकर्षक दिखाई दे रही थीं। हमारी गाड़ी भी बीहड़ पहाड़ों के बीच से गुज़र रही थी। हर पहाड़ का रंग ऐसा मानो किसीने तूलिका फिरा दी हो। 

नुब्रा वैली जाने से पहले हम दुनिया के सर्वोच्च मोटरेबल रोड खारडुंगला पास पहुँचे। इसका असली नाम खारडूंगज़ा ला है। यह 18,380 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ पर जवानों के लिए एक सुंदर शिव मंदिर है। हमें कड़कड़ाती बर्फीली ठंड में बीस मिनट ही गाड़ी से बाहर रहने की इज़ाज़त थी। ऑक्सीजन लेवेल कम होने के कारण तबीयत बिगड़ने की संभावना होती है। हम सभी सहेलियाँ यहाँ लगे बोर्ड के सामने तस्वीरें खींचकर , शिव मंदिर में बाहर से ही दर्शन करके तुरंत गाड़ी में लौट आए।

खारडुंगला के बाद हम चांग ला पास से गुज़रे। यह 17800 फीट की ऊँचाई पर स्थित है।

खारडुंगला पास से 38 की.मी की दूरी पर पत्थर साहिब गुरुद्वारा है। यहाँ दूर -दूर तक रहने की कोई व्यवस्था नहीं है। न ही खाने -पीने के लिए कोई रेस्तराँ ही है बस एक सुंदर गुरुद्वारा है। हर आने-जाने वाली गाड़ी यहाँ अवश्य रुकती है। दर्शन करके ही आगे बढ़ती है।

गुरु नानक अपने सिद्धांतों का प्रचार करते हुए तिब्बत, भूटान, नेपाल होते हुए लदाख पहुँचे। लौटते समय वे इसी स्थान पर रुके थे।

वहाँ के लोग एक कथा सुनाते हैं कि एक राक्षस था जो वहाँ के लोगों को सताया करता था। लोकल लोग नानक जी को नानक लामा कहते हैं। तिब्बत के लोग उन्हें गुरु गोमका महाराज कहा करते हैं। यद्यपि लदाख के अधिकांश लोग बुद्ध धर्म के अनुयायी हैं पर वे गुरु नानक का भी सम्मान करते हैं।

एक दिन वे साधना में लीन थे कि पीछे से उस राक्षस ने एक विशाल और भारी पत्थर नानक जी को मारने के लिए ऊपर से लुढ़का दिया। पत्थर लुढ़ककर नानक जी की पीठ पर धँस गया। पर पत्थर मोम की तरह पिघल चुका था। पत्थर पर आज भी उनकी पीठ की निशानी है। नानक जी को चोट नहीं लगी यह देखकर राक्षस ने नीचे उतरकर पत्थर की दूसरी छोर पर लात मारी तो उसका पैर मोम जैसे पत्थर पर चिपक गया।

उसे समझ में आ गया कि नानक जी साधारण मनुष्य नहीं थे। वह वहाँ से चला गया और फिर उसने गाँववालों को कभी नहीं सताया।

वहाँ के निवासी उस पत्थर को बहुत महत्व देते थे। समय के साथ -साथ घटना पुरानी भी हो गई और भूली भी गई।

सन 1970 में जब लेह -नीमू सड़क निर्माण का कार्य शुरू हुआ तो वह पत्थर रोड़ा बन गया। आर्मी ने उसे हटाने का बहुत प्रयास किया। पर पत्थर टस से मस न हुआ। जब उस पत्थर को बम विस्फोटक द्वारा उड़ा देने का निर्णय लिया गया तो वहाँ के निवासी और कुछ लामाओं ने आकर ऐसा करने से उन्हें रोका। गुरु नानक लामा की कथा आर्मी चीफ को सुनाई गई और सबने मिलकर वहाँ पत्थर साहिब गुरुद्वारा का निर्माण किया।

आज इस गुरुद्वारे की देखरेख वहाँ की आर्मी ही करती है। साफ -सुंदर परिसर। विशाल ठंडे बर्फीले पर्वतमालाओं के बीच स्थित यह गुरुद्वारा पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है।

जिस दिन हम दर्शन के लिए गुरुद्वारा पहुँचे तो वहाँ अखंड पाठ समाप्त ही हुआ था। किसी कर्नल की पल्टन अपनी अवधि पूरी करके लदाख से शिफ्ट हो रही थी। इसलिए अखंड पाठ रखा गया था। साथ ही बहुत ही उम्दा लंगर का आयोजन भी था। उस दिन गुरुद्वारे में पल्टन के सभी लोग उपस्थित थे। उत्सव का वातावरण था। आने-जानेवाले पर्यटक भी लंगर में शामिल हुए थे। हम भी लंगर में शामिल हो गए।

हम सभी ने इस दर्शन को अपना सौभाग्य ही माना कि इतने दूर दराज स्थान पर हमें नानक जी के उस रूप का दर्शन मिला जो एक पवित्र पाषाण के रूप में है। वैसे गुरुद्वारों में सिवाए गुरु ग्रंथसाहब के किसी मूर्ति को रखने की प्रथा नहीं है। पर यहाँ यह पत्थर मौजूद है और यात्री पास जाकर दर्शन कर सकते हैं।

हम वहाँ से नुब्रा पहुँचे। हमारे रहने की बहुत ही उत्तम व्यवस्था की गई थी। नुब्रा में एक रात रहने बाद इसके आगे हमारी यात्रा बहुत लंबी थी। हम पैंगोंग त्सो देखने के लिए निकले। रास्ते में कहीं कहीं बायसन चरते हुए दिखाई देते। यहाँ के निवासी ज़मीन के नीचे गुफा जैसी जगह बनाकर रहते हैं ताकि सर्द हवा और बर्फ से बचे रहें। गाड़ी के चालक ने बताया कि बायसन पालनेवाले उनके दूध से चीज़ बनाने की कला सीख गए हैं। यहाँ लेह लदाख के सुदूर इलाकों में जीवन बहुत कठिन है। उद्योग के खास ज़रिए भी नहीं है।

हम सब पैंगोंग त्सो या लेक देखने पहुँचे। यहाँ पर भी प्रियंवदा के नेतृत्व में हमें आर्मी मोटर बोट में बैठकर विहार करने का 112 मौका मिला। यद्यपि पिछले पाँच वर्षों से वहाँ पर्यटकों के लिए नौका विहार की मनाही थी। पर प्रियंवदा के किसी परिचित आर्मी चीफ की सहायता से हम शिक्षकों को इजाज़त मिल गई और हम सबने इस विहार का आनंद भी लिया।

लेक के किनारे ही गणपति जी का छोटा-सा मंदिर है। उस दिन सुदैव से संकष्टी चतुर्थी का दिन था। हम सबने आरती की और टेन्ट की ओर बढ़े जहाँ हमारे रहने की व्यवस्था थी। न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि कदम – कदम पर ईश्वर इस यात्रा में हमारे साथ उपस्थित थे। जो कुछ देखना चाहा,करना चाहा बस वह जादू की तरह तुरंत सामने उपस्थित हो जाता। इसे ईश्वर की कृपा ही कहेंगे न!

पैगोंग त्सो या लेक 134 कि.मी लंबा है। यह

समुद्री तल से 4350 मी.की ऊँचाई पर है। यह संसार का सबसे ऊँचाई पर स्थित खारे जल का स्रोत है।

इसके एक छोर पर चीन का कब्ज़ा है। इस लेक का पानी स्वच्छ ,पारदर्शी और आकर्षक है। लेक के किनारे स्थित पहाड़ों का प्रतिबिंब लेक के जल में इतना स्पष्ट दिखाई देता है कि आँखों पर विश्वास ही नहीं होता। यहाँ भयंकर सर्द हवा चलती है। ठंड के दिनों में लेक पर बर्फ की मोटी परत चढ़ जाती है। सारा पानी जम जाता है। इस लेक में किसी प्रकार के कोई जीव,मत्स्य आदि नहीं पाए जाते। यह खारे जल का स्रोत है।

अनेकों कमियों और अभावों के चलते भी हमारे रहने तथा भोजन आदि की व्यवस्था अति उत्तम थी। पर्यटकों के आने पर कई लोगों को रोज़गार भी मिल जाता है।

दूसरे दिन हम लदाख से लेह की ओर लौटने लगे। रास्ते में थ्री इडियट नामक सिनेमा में दर्शाए गए फुनसुख वांगडू की पाठशाला भी देखने गए। लोकल लोगों के नृत्य का कार्यक्रम देखने का अवसर मिला। उनके साथ हमारी सखियाँ नाच भी लीं। आनंदमय वातावरण था। सन ड्यू रेगिस्तान में दो कूबड़ वाले और लंबे बालवाले ऊँट की सवारी की गई। थोड़ी देर के लिए हम सब अपनी उम्र भूल ही चुके थे।

धीरे -धीरे लेह की ओर लौटते हुए कई बौद्ध विहार के हमने दर्शन किए। कुछ पहाड़ों की ऊँचाई पर स्थित हैं तो कुछ पहाड़ों की तराई में। हर एक मंदिर /विहार अपनी सुंदरता,शांति और भव्यता के कारण पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है।

वहाँ के निवासी सीधे -सरल और मिलनसार हैं। वे पर्यटकों की बहुत अच्छी देखभाल करते हैं। मृदुभाषी हैं। सभी बड़ी सरलता से हिंदी बोलते हैं।

गाड़ी के चालक से ही ज्ञात हुआ कि जब कड़ाके की सर्दी पड़ती है और पर्यटक भी नहीं होते तब वे हमारी सेना की सहायता के लिए सियाचिन की ओर निकल जाते हैं और तीन माह वे वहीं अच्छी रकम पाकर सामान ढोने का काम करते हैं। सियाचिन में भी एक निश्चित स्थान के बाद सेना की ट्रकें आगे नहीं बढ़ सकती हैं वहीं ये लदाखी काम आते हैं।

हमारे लौटने का समय आ गया था। दस – बारह दिन अत्यंत आनंद के साथ गुज़ारे गए। हम जिस भीड़भाड़ में रहते हैं,जहाँ सभी दौड़ते – से लगते हैं उस भीड़ से बिल्कुल हटकर एक अलग दुनिया की हम सैर कर आए थे। शांति, संतोष, सौंदर्य और सरलता का अगर दर्शन करना चाहते हैं तो लेह लदाख अवश्य जाएँ।

यह मेरा सौभाग्य ही है कि 2022 सितंबर के महीने में मैं अपने पति बलबीर को साथ लेकर फिर लेह- लदाख के लिए निकली। इस बार पत्थर साहब में बाबाजी का दर्शन साथमें किया।

ईश्वर के प्रति कृतज्ञ हूँ कि इस तरह दूर -दराज़ स्थानों के पवित्र मंदिर और गुरुद्वारों के दर्शन का मुझे निरंतर सौभाग्य मिलता आ रहा है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 06 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग दो – नांदेड़ ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग दो – नांदेड़

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 06 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग दो – नांदेड़ ?

(अगस्त 2014)

बीड़ जिले का एक छोटा सा शहर है, नाम है परलीवैजनाथ (परळीवैजनाथ)। इस शहर में BHEL का एक बड़ा विद्यालय है। मुझे इस विद्यालय में खेलों द्वारा भाषा सिखाने की विधि इस विषय से संबंधित वर्कशॉप लेने के लिए आमंत्रित किया गया था। कार्यक्रम पाँच दिन का था। एक अधिक दिन हाथ में रखकर रात की बस से मुझे छठवें दिन पुणे लौट आना था।

जाते समय रात के 7.30 बजे मैं स्लीपिंग वोल्वो बस में सवार हुई। रात भर का सफ़र था। सुबह 5.30 बजे बस परलीवैजनाथ पहुँचनेवाली थी। पुणे से परलीवैजनाथ का अंतर 372 कि.मी है। मैं आराम से ड्राइवर के पीछेवाली स्लीपिंग सीट में बैठ गई। बस चल पड़ी। यह जुलाई का अंतिम सप्ताह था। बाहर वर्षा हो रही थी।

हम कुछ पचास कि.मी. ही सफ़र कर पाए थे कि ज़ोर से एक झटका लगा। बस में सोए कुछ बच्चे झटका खाकर धम्म से बस की फ़र्श पर गिरे और ज़ोर से रोने लगे। बस डिवाइडर पर चढ़ गई थी। बस के दोनों ओर के ऑटोमेटिक दरवाज़े लॉक हो गए थे। खूब प्रयास के बाद जब दरवाजे नहीं खुले तो पीछे के एमरजेंसी द्वार से सबको नीचे उतारा गया।

मेरे लिए छलाँग मारकर नीचे उतरना किसी सर्कस से कम न था। वह दृश्य आज भी याद करने पर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मेरे हाथ पैर छिल गए पर अब पीछे मुड़कर देखना न था तो अन्य यात्रियों के साथ तेज़ बारिश में भीगती हुई अपना सामान लेकर मैं भी रास्ते के किनारे खड़ी रही। कहीं कोई शेड न था, हाई वे पर रोशनी तो होती नहीं तो अंधकार में ही ईश्वर को स्मरण करते हुए खड़ी रही।

थोड़ी देर में कुछ और वोल्वो बस आईं तो किसी को कहीं तो किसी को कहीं बिठा दिया गया। मुझे एक लालवाली एस.टी में बिठाया और कन्डक्टर ने कहा कि नगर में आपको स्लीपिंग कोच मिल जाएगी। इस बस की भी सारी सीटें भरी थीं।

कुछ घंटे दरवाज़े के पास वाली सीट पर बैठकर रात के कोई ग्यारह बजे नगर पहुँची तो वहाँ से फिर एक दूसरे वोल्वो में मुझे बिठा दिया गया और कहा कि शिरडी से फिर बस बदलनी पड़ेगी।

अब आगे बढ़ते रहने के अलावा कोई चारा न था। रात के एक बजे के करीब शिर्डी पहुँची तो वहाँ से परलीवैजनाथ जाने के लिए शेयरिंग में स्लीपिंग सीट मिली। मरता क्या न करता। एक बूढ़ी महिला के साथ कभी बैठकर तो कभी ढुलकी लेती हुई सुबह साढ़े सात बजे हम परलीवैजनाथ पहुँचे।

मुझे लेने के लिए एक शिक्षिका और दो शिक्षक आए हुए थे। शहर में एक छोटा रेल्वे स्टेशन है। रेल्वे स्टेशन के बाहर ही एक होटल में रहने की व्यवस्था थी। थोड़ा फ्रेश होकर दस बजे से वर्कशॉप प्रारंभ हुआ। न जाने कौन-सी शक्ति आ गई थी जो सारे दर्द भूल गई और जोश के साथ काम प्रारंभ किया।

छोटे शहर के सीधे -साधे सरल लोग, आनंद आया उन सबके साथ पाँच दिन वर्कशॉप लेते हुए। सबके साथ नीचे फर्श पर बैठकर महाराष्ट्रीय भोजन करते हुए आनंद आया। सत्तर शिक्षक थे। उन सबमें आत्मीयता थी, कोई दिखावा नहीं। मैं भी सबके साथ घुलमिल गई।

पाँचवे दिन कार्यक्रम समाप्त हुआ। विद्यालय ने धनराशि के चेक के साथ अनपेक्षित कई प्रकार के अन्य उपहार भी दिए, यह उनका बड़प्पन था। वे वर्कशॉप से अत्यंत प्रसन्न थे तथा छह माह बाद पुनः आने का लिखित आमंत्रण भी दिया।

वर्कशॉप के दौरान ही मैंने यों ही कहा था कि मुझे नांदेड जाने की बड़ी इच्छा है और लो! उसी दिन शाम को एक इनोवा गाड़ी और दो शिक्षक नांदेड जाने के लिए तैयारी करके आए।

हमें 105 कि.मी का फासला तय करना था। रास्ता भी खराब था। हम शाम को साढ़े चार बजे रवाना हुए और तीन घंटे में नांदेड पहुँचे।

यहाँ का परिसर अमृतसर के गुरुद्वारे से भी बड़ा है। स्वच्छ तथा आकर्षक गुरुद्वारा! सब कुछ सफेद संगमरमर का बना हुआ। परिसर में प्रवेश करते ही साथ एक अद्भुत शांति और आनंद का अनुभव हुआ।

इस गुरुद्वारे को हज़ूर साहब सचखंड कहा जाता है। यह भारत के मुख्य पाँच गुरुद्वारों में से एक है। यह गोदावरी नदी के किनारे बसा हुआ है।

1708 में सिक्खों के अंतिम तथा दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह जी अपने कुछ अनुयायियों के साथ पंजाब से नांदेड सिक्ख धर्म के प्रचार -प्रसार के लिए आए थे। वे यहीं पर कुछ काल तक रहे। कहा जाता है कि कुछ धार्मिक कारणों से नवाब वजीर शाह ने गुरु गोविंद सिंह की हत्या करवाने के लिए हमला करने दो आदमियों को भेजा था। एक हमलावर की गर्दन तो गुरु गोविन्द सिंह जी ने ही अपनी तलवार से छाँट दी और दूसरे को अनुयायियों ने मारा। 7 अक्टूबर 1708 गुरुगोविंद सिंह जी ने देह त्याग किया था। उनके साथ उनके प्रिय घोड़े ने भी अपनी जान दे दी थी। घोड़े का नाम दिलबाग था।

अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा था कि वे अब किसी उत्तराधिकार को गुरु चुनने के बजाए अपने पवित्र धर्म ग्रंथ को ही गुरु मानें। तब से ग्रंथ साहिब को गुरु ग्रंथ साहिब कहा जाने लगा। आपने ही इस शहर को अवचल नगर नाम दिया था।

आज जिस स्थान पर गुरुद्वारा बनाया गया है उस स्थान को सच खंड कहा जाता है। इसी स्थान पर गुरु गोविन्द सिंह जी की आत्मा पवित्र ज्योत में विलीन हो गई थी।

गुरुद्वारे का भीतरी कमरा अंगीठा साहिब कहलाता है। इसी स्थान पर गुरु गोविन्द सिंह जी का दाह संस्कार किया गया था। सौ साल से भी अधिक समय बीतने के बाद 1830 में पंजाब के प्रसिद्ध राजा रणजीत सिंह जी ने इस गुरुद्वारे का निर्माण करवाया था।

यह केवल धार्मिक स्थल ही नहीं अपितु हर भारतीय के लिए एक ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल भी है।

मराठी भाषा के तीन प्रसिद्ध कवि विष्णुपंत सेसा, रघुनाथ सेसा और वामन पंडित का जन्म भी इसी शहर में हुआ था।

महाराष्ट्र पंजाब से बहुत दूर है, इसलिए अपनी मृत्यु से पूर्व गुरुगोविंद सिंह जी ने एक अनुयायी संतोक सिंह को छोड़कर बाकी सभी को पंजाब लौट जाने के लिए कहा था और संतोक सिंह को लंगर चलाते रहने की ज़िम्मेदारी सौंपी थी। पर उनके अनुयायी पंजाब न लौटे और नांदेड़ में ही बस गए।

अनुयायियों ने अपने गुरु की याद में एक छोटा- सा मंदिर बनाया था जो सच खंड कहलाया। आज यहाँ बड़ी संख्या में सिक्ख समुदाय के लोग इस शहर में रहते हैं। प्रति वर्ष गुरु गोविन्द सिंह की जयंती मनाई जाती है। लाखों की संख्या में सभी भक्त आते हैं। यह शहर सिक्ख संप्रदायों का महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थान है।

गुरुगोविंद सिंह जी अपने घावों के ठीक न हो पाने की वजह से मृत्यु के ग्रास बनें थे।

1666 में जन्में इस महान गुरु ने 41 वर्ष की आयु तक मुगलों द्वारा हिंदुओं पर किए गए अत्याचार का सामना किया। उनके पिता गुरु तेगबहादुर सिंह (जो नौवें गुरु भी थे) और उनके चार पुत्र भी औरंगज़ेब के हाथों कष्ट पाकर शहीद हो गए थे। यही कारण था कि उन्होंने खालसा पंथ का निर्माण किया। इनका काम था मुग़लों के विरुद्ध हथियार उठाना। सभी सिक्ख संप्रदाय जो खालसापंथी थे वे कट् टरता से सभी धार्मिक नियमों का पालन करते थे। यहाँ आज भी भक्तों के माथे पर चंदन का टीका लगाए जाने की प्रथा है।

मंदिर के भीतरी भाग के एक कमरे में गुरुगोविंद सिंह जी के अस्त्र -शस्त्र तथा उनके द्वारा उपयोग में लाई गई वस्तुएँ हैं। यहाँ किसी का भी प्रवेश निषिद्ध है।

हम मंदिर के परिसर में पहुँचे तो जब अपने जूते चप्पल रखने एक निर्धारित स्टैंड पर गए तो एक सिक्ख सज्जन ने न, न कहने पर भी हमारे जूते -चप्पलों को अपने हाथ से उठाकर शेल्फ पर रखा और हमें टोकन दिया।

हम मंदिर में माथा टेककर जब लौट रहे थे तो उस समय रात के कुछ दस बजे होंगे। वे सज्जन जो जूते रख रहे थे अब मंदिर की ओर जा रहे थे। हमें देखकर सतश्रीआकाल कहा और मुस्कराहट के साथ आगे बढ़ गए। साथियों से पूछने पर पता चला कि वे नांदेड़ शहर के जाने-माने व्यापारी थे, जिनकी शहर में कई दुकानें थीं। वे प्रतिदिन सुबह सात से दस और शाम को सात से दस कार सेवा के लिए आते हैं। शायद यही सेवा की भावना उन्हें अहंकार से दूर रखती है। मिट्टी से जोड़े रखती है।

यहाँ रोज़ लंगर चलता है। रोटी, सब्जी,चावल कढ़ी, छोले ,राजमा आदि नियमित बनाए जाते हैं। लोग अपने समयानुसार आकर कार सेवा करते हैं। कोई सब्जी काटता है तो कोई रोटियाँ सेंक देता है। हज़ारों लोग रोज भोजन करने आते हैं। हज़ारों हाथ सेवाजुट भी रहते हैं।

यहाँ तस्वीर खींचने की मनाही है।

गुरुद्वारा एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ हर जाति धर्म, वर्ण का व्यक्ति दर्शन के लिए तथा लंगर का प्रसाद पाने के लिए जा सकता है।

रात के समय संगमरमर से बना विशाल मंदिर बहुत ही आकर्षक दिखाई दे रहा था।

मैं भावविभोर हो उठी। अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं उस पवित्र भूमि पर खड़ी थी जहाँ गुरु गोविंद सिंह जी का पार्थिव शरीर कभी रखा गया था। यह मेरा सौभाग्य ही था जो मैंने चाहा और मुझे मिला। शायद यही कारण था कि बस से उतरते समय जो चोटें लगी थीं वे सब ठीक हो गईं और सफल कार्यक्रम के बाद मैं दर्शन के लिए भी पहुँच गई।

रात को डेढ़ बजे हम वहाँ से रवाना हुए और प्रातः पाँच बजे होटल पहुँच गई।

आज जब अपनी इस अद्भुत यात्रा की बात सोचती हूँ तो यह विश्वास करने को विवश होती हूँ कि हमें ऐसी जगहों से बुलावा आता है और पहुँचने के मार्ग प्रशस्त हो जाते हैं जहाँ जाने का कभी ख्याल भी नहीं करते हैं हम। पर प्रभु के बुलावे की महिमा ही अद्भुत है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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