हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 19 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग -2 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 19 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 2 ?

(26 मार्च 2024)

सुबह 9 बजे आज से थिंप्फू की  हमारी यात्रा प्रारंभ हुई। हम जल्दी ही नाश्ता करके निकल पड़े। गाड़ी में बैठते ही हम लोगों ने गणपति जी की प्रार्थना की, माता का सबने स्मरण किया। तत्पश्चात साँगे ने अपनी प्रार्थना भूटानी भाषा में गाई।ये प्रार्थना नाभी से कंठ तक चढ़ती अत्यंत गंभीर स्वरवाले शब्द प्रतीत हुए।फिर उसने बौद्ध प्रार्थना गाड़ी में लगाई जो अत्यंत मधुर थी।

सर्व प्रथम हम बुद्ध की एक विशाल मूर्ति का दर्शन करने गए। इसे डोरडेन्मा बुद्ध मूर्ति कहा जाता है। यहाँ कोई प्रवेश शुल्क नहीं होता है। इस विशाल बुद्ध की मूर्ति की ऊँचाई 169 फीट है।

यह संसार की सबसे ऊँची और विशाल बुद्ध मूर्ति है। शांत सुंदर मुख,  आकर्षक मुखमुद्रा अर्ध मूदित नेत्र मन को भीतर तक शांत कर देनेवाली मूर्ति।

यह एक खुले परिसर में बना हुआ है।परिसर भी बहुत विशाल है। समस्त परिसर पहाड़ों से ढका हुआ  है।फिर कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर मंदिर के भीतर प्रवेश किया जाता है। भीतर बुद्ध की कई मूर्तियाँ हैं और एक विशाल मूर्ति मंदिर के गर्भ गृह में है।

पीतल के कई  बर्तनों में प्रतिदिन ताज़ा पानी बुद्ध की मूर्ति के सामने रखते हैं।फल आदि रखने की भी प्रथा है। भीतर प्रार्थना करने की व्यवस्था है। हर धर्म के अनुयायी यहाँ दर्शन करने आते हैं।परिसर के चारों ओर कई सुंदर सुनहरे रंग की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। ये मूर्तियाँ स्त्रियों की हैं।संपूर्ण परिसर शांति का मानो प्रतीक है। हर दर्शक मंदिर की परिक्रमा अवश्य करता है।सीढ़ियों के बाईं ओर विशाल हाथी की मूर्ति बनी हुई है जिसका संबंध गौतम बुद्ध के जन्म से भी है। मंदिर के भीतर तस्वीर लेने की इजाज़त नहीं है।

यह मूर्ति शाक्यमुनि बुद्धा कहलाती है।

यह भूटान के चौथे राजा जिग्मे सिंग्ये वाँगचुक के साठवें जन्म दिवस के अवसर पर पहाड़ी के ऊपर बनाई गई  विशाल मूर्ति है। यह संसार का सबसे विशाल बुद्ध  मूर्ति है।इसके अलावा यहाँ एक लाख छोटे आकार की बुद्ध प्रतिमाएँ भी हैं। कुछ आठ इंच की हैं और कुछ बारह इंच की प्रतिमाएँ हैं।ये काँसे से बनाई मूर्तियाँ हैं, जिस पर सोने की पतली परत चढ़ाई गई  है। इस मंदिर का निर्माण 2006 में प्रारंभ हुआ था और सितंबर 2015 में जाकर कार्य पूर्ण हुआ।

इसके बाद हम भूटान की सांस्कृतिक जन जीवन की झलक पाने के लिए एक ऐसे स्थान पर गए जिसे सिंप्ली भूटान कहा जाता है। यहाँ प्रवेश शुल्क प्रति पर्यटक एक हज़ार रुपये है।

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि भूटान का राष्ट्रीय रोज़गार का स्रोत पर्यटन है जिस कारण हर एक व्यक्ति पर्यटक को देवता के समान समझता है।पर्यटक का सम्मान करते हैं, खूब आवभगत भी करते हैं।

भूटान में हर स्थान पर प्रवेश शुल्क कम से कम पाँच सौ रुपये हैं या हज़ार रुपये हैं कहीं -कहीं पर पंद्रह सौ भी है।इस दृष्टि से यह राज्य बहुत महँगा है।

कोई पर्यटक जब भूटान जाने की तैयारी करता है तो उससे यह बात कोई नहीं बताता कि एन्ट्री फी कितनी होती है।इस आठ दिन की ट्रिप में हमने प्रति व्यक्ति साढ़े पाँच हज़ार रुपये केवल प्रवेश शुल्क के रूप में दिया है।सहुलियत यह है  कि यह मुद्राएँ भारतीय रुपये के रूप में स्वीकृत हैं। मेरी दृष्टि में यह बहुत महँगा है। पर जिस राज्य के पास खास कुछ उत्पादन का ज़रिया न हो तो यही एक मार्ग रह जाता है।

खैर जो घूमने जाता है वह खर्च भी करता है इसमें दो मत नहीं। यहाँ यह भी बता दूँ कि भारतीय रुपये तो बड़ी आसानी से स्वीकार करते हैं और बदले में छुट्टे पैसे अगर लौटाने हों तो वह भूटानी मुद्रा ही देते हैं।भूटानी मुद्रा को नोंग्त्रुम (न्गुलट्रम) कहा जाता है। भारतीय एक रुपया भूटानी एक नोंग्त्रुम के बराबर है।

यहाँ गूगल पे नहीं चलता।

जिस तरह हमारे देश में कच्छ उत्सव मनाया जाता है ठीक वैसे ही यहाँ कृत्रिम रूप में एक विशाल स्थान को भूटानी गाँव में परिवर्तित किया गया। इस स्थान का नाम है सिंप्ली भूटान।

यहाँ  हमारा स्वागत थोड़ी- सी वाइन देकर किया गया। वाइन पीने से पूर्व हमसे कहा गया कि हम अपनी अनामिका और अंगूठे को वाइन में डुबोएँ तथा हवा में उसकी बूँदों का छिड़काव करें। जिस प्रकार हम भोजन पकाते समय  अग्निदेव को अन्न समर्पित करते हैं या भोजन से पूर्व इष्टदेव को अन्न समर्पित करते हैं ठीक उसी प्रकार उनके देश में इस तरह देवता को अन्न -जल का समर्पण किया जाता है।

उसके बाद हमें वहाँ की लोकल बेंत की टोपी (हैट) पहनाई गई और खुले हिस्से में ले जाकर मिट्टी से घर बनाने की प्रथा दिखाई गई।इस प्रक्रिया में जब धरती को एक विशिष्ट प्रकार के भारी औज़ार से पीटते हैं ताकि घर की फर्श समतल हो जाए तो वे निरंतर धरती माता से क्षमा याचना करते हैं कि “हमारी आवश्यकता के लिए हम धरती को औज़ार से पीट रहे हैं। जो जीवाणु घायल हो रहे हैं या मर रहे हैं हम उन सबसे क्षमा माँगते हैं। ” यह एक सुमधुर गीत के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। कितनी सुंदर कल्पना है और ऐसे समर्पण के भाव मनुष्य को ज़मीन से जोड़े रखते हैं।

इसके पश्चात हमें भूटानी रसोई व्यवस्था से परिचय करवाया गया। आटा पीसने का पत्थर, नूडल बनाने की लकड़ी के बर्तन, चार मिट्टी के बनाए लिपे -पुते चूल्हे, भोजन पकाने के बर्तन, लोकल फलों से तथा भुट्टे से वाइन बनाने की प्रक्रिया आदि स्थान दिखाए गए।यद्यपि आज सभी के घर गैस के चूल्हे हैं पर यह उनके ग्रामीण जीवन से जुड़ी वस्तुएँ हैं।

इस देश में कई प्रकार के मुखौटे पहनकर नृत्य करने का एक त्योहार होता है। हमने विविध प्रकार के मुखौटे देखे। उनमें अधिकतर राक्षस के मुखौटे  ही थे। उनका यह विश्वास है कि ऐसे मुखौटे पहनकर जब वे नृत्य करते हैं तो नकारात्मक उर्जाएँ समाप्त हो जाती हैं। उनके कुछ तारवाले वाद्य रखे हुए थे। हमें उन्हें बजाने और मधुर ध्वनियों को सुनने का मौक़ा मिला। ये हमारे देश के संतूर जैसे वाद्य थे।

तत्पश्चात हमें एक खुले आंगन में ले जाया गया जहाँ उनकी कलाकृति से वस्तुएँ निर्माण की जाती हैं। पर्यटक उन वस्तुओं को खरीद सकते हैं।पाठकों को बता दें कि भूटानी पेंटिंग, मूर्तियाँ, लकड़ी छील कर बनाई वस्तुएँ सभी कुछ काफी महँगी होती है। अधिकतर पैंटिंग सिल्क के कपड़े पर विशिष्ट प्रकार के रंग से की जाती है। इन्हें बनने में बहुत समय लगता है और ये अत्यंत सूक्ष्म काम होते हैं। कुछ पैंटिंग तो लाख रुपये के भी दिखाई दिए। हम चक्षु सुख लेकर आगे बढ़ गए।

इसी स्थान पर एक विकलांग नवयुवक अपने पैरों से लकड़ी छीलकर गोलाकार में कुछ आकृतियाँ बना रहा था। उसी स्थान पर उसके द्वारा बनाई गई कई आकृतियाँ छोटी – छोटी कीलों पर लटकी हुई थीं। हम सहेलियों ने भी कई आकृतियाँ खरीदीं। हमारे मन में उस विकलाँग नवयुवक की प्रशंसा करने का यही उपाय था। वह न बोल सकता था न अपने  हाथों का उपयोग ही कर सकता था।उसने कलम भी अपने पैरों की उँगलियों में फँसाई और खरीदी गई हर आकृति पर हस्ताक्षर भी किए। कहते हैं राजमाता ने उसे पाला था और यह कला उसे  सिखाई थी।

हम आगे बढ़े। एक खुले आँगन में पुरुष के गुप्त अंग की कई विशाल आकृतियाँ बनी हुई थीं।भूटान में प्रजनन की भारी समस्या है। इसलिए वे मुक्त रूप से पुरुष के गुप्त अंग अर्थात शिश्न की पूजा करते हैं। कई  घरों के बाहर, दुकानों में, तथा एक विशिष्ट मंदिर में यह देखने को मिला। हमें जापान में भी इस तरह का अनुभव मिला था।नॉटी मंक नामक एक मंक का मंदिर भी बना हुआ है जो पारो में है।

अब हमें भूटानी नृत्य और संगीत का दर्शन कराने ले जाया गया। वहाँ के स्थानीय  स्त्री -पुरुष, स्थानीय पोशाक में एक साथ नृत्य प्रदर्शन करते हैं और पर्यटकों को भी सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित करते हैं।यहाँ हमें भुट्टे के ऊपर जो रेशे होते हैं उसे उबालकर काली चाय दी गई  और साथ में मीठा पुलाव ( दोनों की मात्रा बहुत थोड़ी होती है। यह केवल उनकी संस्कृति की झलक मात्र के लिए  है) यह सब कुछ एक घंटे के लिए ही होता है।

 सिंपली भूटान में भूटानी संस्कृति की झलक का आनंद लेकर हम जब बाहर निकले तो डेढ़ बज चुके थे।

हमने दोपहर के समय भूटानी व्यंजन लेने का निर्णय लिया। भूटान में मांसाहारी और शाकाहारी मोमो बड़े चाव से खाए जाते हैं। नूडल्स भी यहाँ का प्रिय भोजन है। इसके अलावा लोग लाल चावल खाना पसंद करते हैं। यह चावल न केवल भूटान की विशेषता है बल्कि अत्यंत पौष्टिक भी माना जाता है। स्थानीय लोग इस चावल के साथ अधिकतर चिकन या पोर्क करी खाते हैं। पाठकों को इस बात को जानकर आश्चर्य भी होगा कि कई स्थानीय लोग निरामिष भोजी भी हैं।

होटलों में भारतीय व्यंजन भी बड़ी मात्रा में उपलब्ध होते हैं। हमने लाल चावल, रोटी और शाकाहारी कुकुरमुत्ते की तरीवाली सब्ज़ी मँगवाई। साथ में स्थानीय सब्ज़ी की सूखी और तरीवाली सब्ज़ियाँ भी मँगवाई।हमने साँगे और पेमा से भी कहा कि वे भी हमारे साथ भोजन करें।

 भोजन के दौरान हमें साँगे ने बताया कि भूटान में पुरुष एक से अधिक पत्नियाँ रख सकते हैं। वर्तमान राजा के पिता जो अब राज्य के कार्यभार से मुक्त हो चुके थे,  उन्होंने चार शादियाँ की थीं।आज वे राजकार्य से मुक्त होकर एक घने जंगल जैसे इलाके में संन्यास जीवन यापन कर रहे हैं।

सभी रानियाँ अलग -अलग महलों में रहती हैं। राजमाता उनकी दूसरी पत्नी हैं। वे काफी समाज सेवा के कार्य हाथ में लेती हैं।भूटान के लोग नौकरी के लिए खास देश के बाहर नहीं जाते। उनकी जनसंख्या कम होने के कारण वे अपने देश में रहकर देश की सेवा करना अपना कर्तव्य समझते हैं। हर किसी को रोज़गार मिल ही जाता है। मूलरूप से वे राष्ट्रप्रेमी हैं।

सुस्वादिष्ट भोजन के बाद हम टेक्सटाइल संग्रहालय पहुँचे। इस स्थान पर भूटान के बुनकरों की जानकारी दी गई  है तथा विभिन्न वस्त्र के कपड़े की बुनाई तथा सिलाई कैसे होती है इसकी विस्तृत जानकारी स्लाइड द्वारा भी दी गई है। संग्रहालय दो मंज़िली इमारत है और काफी वस्त्रों का प्रदर्शन भी है। इस संग्रहालय को राजमाता ने ही बनवाया था। आज यहाँ प्रवेश शुल्क प्रति व्यक्ति ₹500 है।

संग्रहालय स्वच्छ सुंदर और आकर्षक है।

अब तक चार बज चुके थे। हमें चित्रकारी देखने के लिए आर्ट ऍन्ड कल्चर सेंटर जाना था। इस स्थान पर छात्र रेशम के कपड़ों पर तुलिका से रंग भरकर अपने चित्र को सुंदर बनाते हैं।अधिकतर चित्र बुद्ध के जीवन से संबंधित होते हैं।यहाँ कई छात्र तल्लीन होकर चित्रकारी भी कर रहे थे। यहाँ ऊपर एक कमरे में कई  नक्काशीदार बर्तन आदि प्रदर्शन के लिए रखे गए थे।छोटी -सी जगह पर हर छात्र अपने आवश्यक वस्तुओं को लेकर तन्मय होकर अपने चित्र को सजा रहा था। उन्हें हमारी उपस्थिति से कोई फ़र्क नहीं पड़ा। यह भूटान का आर्ट कॉलेज है।

अब दिन के छह बज गए।हम भी थक गए  थे।अब होटल लौटकर आए।कमरे में आकर हम सखियों ने चाय पी।पेमा और साँगे को भी चाय पीने के लिए आमंत्रित किया।चाय के साथ हमने उन्हें भारतीय नमकीन भी खिलाए जिसे खाकर वे अत्यंत प्रसन्न भी हुए।उनके जाने पर आठ बजे तक हम सखियाँ ताश खेलती रहीं।

क्रमशः… 

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 15 – संस्मरण # 9 – भुलक्कड़ बाबू ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भुलक्कड़ बाबू)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 15 – संस्मरण # 9 – भुलक्कड़ बाबू ?

कुछ लोग अत्यंत साधारण होते हैं और साधारण जीवन जीते हैं फिर भी वह अपनी कुछ अमिट छाप छोड़ जाते हैं। ऐसे ही एक अत्यंत साधारण व्यक्तित्व के साधारण एवं सरल स्वभाव के व्यक्ति थे बैनर्जी बाबू।

बनर्जी बाबू का पूरा नाम था आशुतोष बैनर्जी। हम लोग उन्हें बैनर्जी दा कहकर पुकारते थे। उनकी पत्नी शीला बनर्जी और मैं एक ही संस्था में कार्यरत थे। हम दोनों में वैसे तो कोई समानता ना थी और ना ही विषय हमारे एक जैसे थे लेकिन हम उम्र होने के कारण हमारी अच्छी दोस्ती हो गई थी। शीला विज्ञान विषय पढ़ाती थी और मैं हिंदी।

शीला कोलकाता की निवासी थी। यद्यपि हिंदी भाषा के साथ दूर तक उसका कोई संबंध नहीं था पर मेरी कहानियाँ वह बड़े चाव से पढ़ती थी। वह अंग्रेज़ी कहानियाँ पढ़ने में रुचि रखती थी फिर चाहे वह बच्चों वाली पुस्तक एनिड ब्लायटन ही क्यों न हो। अगाथाक्रिस्टी की कहानियाँ और शिडनी शेल्डन उसे प्रिय थे। अपने बच्चों के साथ हैरी पॉटर की सारी कहानियाँ भी वह पढ़ चुकी थीं। वह इन सभी लेखकों की कहानियाँ रात भर में पढ़ने का प्रयास करती थी। दूसरे दिन एक साथ जब हम विद्यालय की बस में बैठकर यात्रा करते तब उन कहानियों की मूल कथा वह मुझे सुनाती। कभी-कभी इन कहानियों से हटकर उसके पति बनर्जी साहब के कुछ रोचक किस्से भी सुनाया करती थी।

बनर्जी दा को न जाने हमेशा किस बात की हड़बड़ी मची रहती थी। जब भी वह मिलते कहीं जल्दी में जाते हुए सारस की – सी डगें भरते हुए या तीव्रता से अपनी पुरानी वेस्पा पर सवार दिखते थे। चलो चलो जल्दी करो उनका तकिया कलाम ही था। हर बात के लिए वे इस वाक्य का उपयोग अवश्य करते थे। हर बात में हड़बड़ी, हर बात में जल्दबाज़ी और अन्यमसस्क रहना ही उनकी खासियत थी। इसीलिए शीला के पास अक्सर हमें सुनाने के लिए बैनर्जी दा के रोज़ाना नए किस्से भी हुआ करते थे।

दस वर्ष शीला के साथ काम करते हुए तथा एक साथ काफी वक्त साथ बिताने के कारण दोनों परिवार में एक पारिवारिक संबंध – सा ही जुड़ गया था। कई किस्सों के हम गवाह भी रहे और खूब लुत्फ़ भी उठाए। पर उनके हजारों किस्सों में से कुछ चिर स्मरणीय और हास्यास्पद तथा रोचक किस्सों का मैं यहाँ जिक्र करूँगी।

शीला की दो बेटियाँ थीं। काजोल और करुणा। काजोल बड़ी थी और अभी हमारे ही स्कूल में दसवीं कक्षा की बोर्ड की परीक्षा देकर छुट्टियों के दौरान बास्केटबॉल की ट्रेनिंग ले रही थी। वह शीला के साथ ही आना-जाना करती थी। अप्रैल का महीना था नया सेशन शुरू हुआ था पर 10वीं की बोर्ड परीक्षा समाप्त होने के बाद भी छात्रों को स्कूल में आकर खेलने की इजाज़त थी। करुणा दूसरे विद्यालय में पढ़ती थी।

खेलते – खेलते एक दिन काजोल छलाँग मारती हुई बास्केट में बॉल डालने का प्रयास कर रही थी कि वह गिर पड़ी और उसका दाहिना पैर टखने के पास से टूट गया। शीला ने बनर्जी दा को फोन पर इस बात की जानकारी दी। काजोल का पैर टूट जाने की खबर सुनाकर उसने उन्हें यह भी बताया कि वह पास के अस्पताल में पहुँचे। शीला ने अस्पताल का नाम भी बताया।

हम पहले ही बता चुके हैं कि बनर्जी दा हमेशा ही अन्यमनस्क रहते थे। न जाने हड़बड़ी में उन्होंने क्या सुना वे जल्दबाजी में अस्पताल तो पहुँचे पर वहाँ पूछताछ की खिड़की पर वे करुणा बनर्जी के बारे में ही पूछते रहे। जब उन्हें पता चला कि उस नाम का कोई पेशेंट वहाँ नहीं है तो वह उस इलाके के हर अस्पताल में चक्कर काटते रहे। पर काजोल नाम उनके ध्यान में आया ही नहीं।

उधर शीला घायल बेटी को लेकर एक्सरे रूम में बैठी रही। जब दो-तीन घंटे तक बनर्जी दा का कुछ पता ना चला तो उसने फिर घर पर फोन किया तो किसी ने फोन नहीं उठाया। उन दिनों मोबाइल का कोई प्रचलन हमारे देश में नहीं था। केवल लैंडलाइन की सुविधा ही उपलब्ध थी। शीला समझ गई कि उसके पति निश्चित ही हमेशा की तरह हड़बड़ी में कहीं और पहुँच गए होंगे। उस दिन शीला को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। घर जाने पर जब असलियत का पता चला तो शीला बनर्जी दा पर बस बरस ही पड़ी।

एक बार शीला बहुत बीमार पड़ी। शाम के समय स्कूल छूटने के बाद कुछ सहकर्मी महिलाएँ विद्यालय की बस पकड़ कर शीला से मिलने उसके घर पहुँची।

घंटी बजी। शीला को तेज बुखार था वह बिस्तर से उठ न सकी। बनर्जी दा अभी-अभी शीला के लिए दवाइयाँ लेकर घर लौटे थे। वे बाहर पहने गए कपड़े बदल रहे थे। घंटी बजते ही वे जल्दबाज़ी में कपड़े पहने और दरवाज़ा खोलकर सबका स्वागत किया। महिलाओं को शीला के कमरे में ले गए।

उन्हें देखते ही साथ सभी महिलाएँ अपनी आवाज़ दबाए हँसने लगीं। बनर्जी दा उन्हें शीला के पास बेडरूम में बिठाकर सब के लिए उत्साहपूर्वक चाय बनाने चले गए। फिर ट्रे में चार प्याली चाय लेकर वे आए। महिलाएँ

तब भी हँसती हुई नज़र आईं। शीला को हमेशा ही अपने पति की अन्यमनस्कता और हड़बड़ी की आदत की चिंता रहती थी। उसने जब बनर्जी दा की ओर देखा तो पता चला कि अपने पजामे की जगह पर उन्होंने अलगनी से शीला का पेटीकोट उठाकर पहन लिया था और शर्ट के नीचे से उसका नाड़ा लटक रहा था। वह बेचारी शर्म के मारे गड़ी जा रही थी। तीन-चार दिनों के बाद जब वह स्कूल आई तो किसी से वह आँख न मिला पाई।

चूँकि शीला भी नौकरीपेशा थी इसलिए बनर्जी दा घर से टिफन लेकर दफ्तर जाते थे। दोपहर की छुट्टी में वे घर नहीं जाते थे। उस दिन शाम को जब दफ्तर से छूटे तो टिफिन की अपनी थैली उठाए घर चले आए। शीला ने जब टिफन धोने के लिए थैला खोला तो उसमें से दो ईनो सॉल्ट की काँच की बोतलें निकलीं। एक में पीले रंग का तरल पदार्थ था और दूसरे में मल। जब उसने बनर्जी दा से पूछा तो वे झेंप से गए, ” बोले शायद मैं शर्मा साहब की थैली गलती से उठा लाया हूँ। शाम को दफ्तर छूटने से थोड़ी देर पहले ही उनका बड़ा बेटा यह थैला रख कर गया था। सुना है उनके छोटे बेटे को जॉन्डिस हुआ है।

शीला को समझने में देरी न लगी कि अपनी थैली टिफन बॉक्स समेत पति महोदय वहीं दफ्तर में छोड़ आए थे और शर्मा जी के बेटे के स्टूल टेस्ट के लिए दी जाने वाली बोतलों वाली थैली उठा लाए थे। दूसरे दिन दफ्तर में बनर्जीदा की खूब खिंचाई हुई और टिफन बॉक्स ना रहने के कारण बाहर जाकर भोजन खाना पड़ा।

एक बार बनर्जी दा और शीला स्कूटर पर बैठ कर किसी मित्र के घर के लिए निकले थे। उस मित्र के घर जाने से पहले एक रेलवे लाइन पड़ती थी। उस वक्त जब वे वहाँ पहुँचे तो रेलवे लाइन का फाटक बंद हो गया था। पाँच – सात मिनट के बाद रेलगाड़ी वहाँ से गुज़रने वाली थी। भीड़ – भाड़ वाली जगह पर स्कूटर पर बैठे रहने से बेहतर शीला ने स्कूटर से उतरकर थोड़ी देर खड़ी रहना पसंद किया। उसने बनर्जी दा की कमर से अपना हाथ हटा लिया और वहाँ स्कूटर के पास खड़ी हो गई। थोड़ी देर बाद जब फाटक खुला बनर्जी दा हड़बड़ी में बिना शीला को लिए फाटक पार कर आगे निकल गए। जब तक शीला उन्हें पुकारती वह काफी दूर पहुँच चुके थे। पीछे से कुछ लोगों ने जाकर हॉर्न बजाया और बनर्जी दा को बताया कि आपकी पत्नी फाटक के उस पार छूट गई हैं। तब वे फिर फाटक के पास लौट कर आए। उस दिन शीला इतनी नाराज़ हुई कि उसने बनर्जी दा से कहा कि तुम हमारे मित्र के घर चले जाओ मैं एक रिक्शा पकड़ कर घर जा रही हूँ। उनसे कह देना मेरी तबीयत ठीक नहीं।

हमारे विद्यालय में एक बार प्रधानाचार्य ने हस्बैंड ईव कार्यक्रम का आयोजन रखा। इस कार्यक्रम का उद्देश्य था कि सभी विवाहिता शिक्षिकाओं के पतियों का आपस में मेलजोल हो। यह एक छोटा – सा कार्यक्रम था और उन दिनों के लिए यह एक नई कल्पना थी। सभी बहुत उत्साह और कुतूहल से इस ईव की प्रतीक्षा कर रहे थे। हमारे विद्यालय में शिक्षिकाओं की संख्या ही अधिक थी। संस्था की खासियत भी यही थी कि विद्यालय को विशिष्ट ढंग से हर कार्यक्रम के लिए सजाया जाता था। उस दिन भी उस हस्बैंड ईव के लिए विद्यालय के प्रांगण को पार्टी लुक दिया गया और इसके लिए शिक्षिकाओं को जल्दी बुलाया गया।

शीला बनर्जी दा की कमीज़ मैचिंग टाई, सूट व पतलून बिस्तर पर रख आई थी। साथ में दो जोड़े जूते भी बिस्तर के पास फर्श पर रखकर आई थी। साफ हिदायतें भी दी थी कि वे जो उचित लगे वह जोड़े पहन लें।

सभी हस्बैंड खास तैयार होकर आए। महफिल जमी, कई पार्टी गेम्स का आयोजन किया गया था। टग ऑफ वॉर, म्यूजिकल चेयर, हाउज़ी, आदि खेलों द्वारा सबका मनोरंजन भी किया गया। विभिन्न खेलों में जीते गए लोगों को पुरस्कृत भी किया गया। एक खास पुरस्कार ऐसे व्यक्ति के लिए था जो पार्टी में सबसे अलग हो और उठकर दिखे। और यह पुरस्कार बनर्जी दा को ही मिला कारण था वे दो अलग रंग व डिजाइन के शूज़ पहनकर विद्यालय आए थे। शीला ने जब उन्हें गेट से भीतर आते देखा तो उसे खुशी हुई कि उसके पति महोदय ठीक-ठाक तैयार होकर ही आए थे पर जब पुरस्कार की घोषणा हुई वह बेचारी मारे शर्म के पानी – पानी हो गई।

हमारे विद्यालय की प्रधानाचार्य बहुत बुद्धि मती तथा व्यवहारकुशल थीं। उन्होंने बड़े करीने से परिस्थिति को संभाल लिया और माइक पर बैनर्जी दा का नाम घोषित करती हुई बोली, “दूसरों पर हँसना बड़ा आसान होता है पर जो व्यक्ति अपने आप पर दूसरों को हँसने का मौका देता है वह इस संसार का सबसे बड़ा विनोदी व्यक्ति होता है और आज इस पुरस्कार के हकदार श्रीमान बनर्जी हैं। “

बनर्जी दा के सिर में बहुत कम बाल थे। यह कहना अतिशयोक्ति ना होगी कि वे गंजे ही थे। लेकिन घंटों आईने के सामने खड़े होकर बड़े करीने से अपने सात आठ बाल जो अब भी सिर पर बचे हुए थे उन्हें बाईं तरफ से दाईं तरफ कंघी फेरकर सेट किया करते थे।

जाड़े के दिन थे। नारियल का तेल जम गया था। रविवार का दिन था तो कोई जल्दी भी नहीं थी। शीला बाज़ार गई थी। बनर्जी दा ने नारियल तेल की बोतल धूप में रखी ताकि तेल गल जाए। उसी बोतल के साथ उनकी बड़ी बेटी काजोल ने अपने एन.सी.सी के जूते चमकाने के लिए काली पॉलिश भी धूप में रख छोड़ी थी। बनर्जी दा नहा- धोकर आए और अन्यमनस्कता से हड़बड़ी में बिना आईने में देखे सिर पर तेल लगाने के बजाय जूते की पॉलिश लगा ली। उस पॉलिश में किसी प्रकार की कोई गंध न थी जिस कारण उन्हें तेल और पॉलिश के बीच का अंतर समझ में नहीं आया। वैसे भी वह अन्यमनस्क प्राणी थे।

शीला के साथ उस दिन मैं भी बाजार गई थी। सामान लेकर कॉफी पीने के लिए हम उसके घर पहुँचे तो बनर्जी दा ने ही दरवाजा खोला। उनका गंजा सिर जूते के काले पॉलिश से तर हो रहा था और वे वीभत्स- से दिख रहे थे। मेरी तो ऐसी हँसी छूटी कि मैं खुद को रोक न सकी पर शीला उनके इस अन्यमनस्कता से बहुत परेशान थी। पर चूँकि मैं ही उसके साथ थी तो गुस्सा थूककर वह भी ज़ोर – ज़ोर से हँस पड़ी। बनर्जी दा फिर से नहाने चले गए।

काजोल उन दिनों चंडीगढ़ में पी.जी.आई में मेडिकल की पढ़ाई कर रही थी। शीला और बनर्जी दा उससे मिलने जा रहे थे। वे दोनों दिल्ली स्टेशन पहुँचे। दिल्ली से शताब्दी नामक रेलगाड़ी चलती थी। सुबह शताब्दी नाम से कई ट्रेनें चलती थीं। पाँच -दस मिनट के अंतर में शताब्दी नामक ट्रेन अलग-अलग प्लेटफार्म से भी छूटती थीं। प्रातः 6:30 बनर्जी दा और शीला चंडीगढ़ जाने के लिए रवाना हुए। स्टेशन पर पहुँचे हड़बड़ी में वे दोनों एक शताब्दी नामक ट्रेन में बैठ गए। सीट नंबर देखा तो वे भी खाली ही मिले। लंबी यात्रा के कारण दोनों थके हुए थे। उस दिन शीला ने भी ज्यादा ध्यान ना दिया। गाड़ी चल पड़ी। घंटे भर बाद जब टीसी आया तो पता चला कि वे अमृतसर जाने वाली गाड़ी में सवार थे। अब क्या था शताब्दी जहाँ अगले स्टेशन पर रुकने वाली थी उस स्टेशन तक का किराया तो उनको देना ही पड़ा साथ ही निर्धारित दिन और समय पर वे दोनों चंडीगढ़ न पहुँच सके।

एक और मजेदार किस्सा पाठकों के साथ साझा करती हूँ। दफ्तर के किसी कॉन्फ्रेंस के लिए बनर्जी दा को कोलकाता जाना था। फ्लाइट का टिकट था दफ्तर के कुछ और भी दूसरे लोग साथ जाने वाले थे। तीन दिन का काम था। उनके दोस्त ने टिकट अपने पास ही रखा क्योंकि बनर्जी दा भुलक्कड़ स्वभाव के आदमी थे। शीला ने पति महोदय को दफ्तर के लोगों के साथ बातचीत करते हुए सुना था वह निश्चिंत थी कि वे समय पर एयरपोर्ट पहुँच जाएँगे। शाम को 6:00 बजे की फ्लाइट थी बनर्जी दा 3:30 बजे घर से निकले 5:30 बजे वे घर भी लौट आए। बाद में पता चला कि उनकी फ्लाइट सुबह 6:00 बजे की थी ना कि शाम के 6:00 बजे की।

पतिदेव से विस्तार मालूम होने पर शीला ने तो अपना सिर ही पीट लिया।

बैनर्जी दा को गुज़रे आज कई वर्ष बीत चुके। शीला ने भी संस्था छोड़ दी और वह कोलकाता लौट गई पर मेरे पास बैनर्जी दा की हड़बड़ी और अन्यमनस्कता के इतने किस्से हैं कि मैं जब याद करती हूँ तो मुझे ऐसा लगता है कि कल की बातें हैं। हँसी के वे पल थे तो बड़े ही सुखद ! बनर्जी दा तो आज हमारे बीच नहीं हैं पर उनकी याद आज भी ताजा है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 14 – संस्मरण # 8 – जब पराए ही हो जाएँ अपने ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – जब पराए ही हो जाएँ अपने)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 14 – संस्मरण # 8 – जब पराए ही हो जाएँ अपने?

जिद् दा सऊदी अरब का एक सुंदर शहर है। चौड़ी छह लेनोंवाली सड़कें, साफ – सुथरा शहर, बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल, यूरोप के किसी शहर का आभास देने वाला सुंदर सजा हुआ शहर। यह शहर समुद्र तट पर बसा हुआ है। कई यात्रियों की यह चहेती शहर है। हर एक किलोमीटर की दूरी पर सड़क के बीच गोल चक्र सा बना हुआ है जिस पर कई सुंदर पौधे और घास लगे हुए दिखाई देते हैं। रात के समय सड़कें अत्यंत प्रकाशमय है। सब कुछ झिलमिलाता सा दिखता है। जगह-जगह पर विभिन्न प्रकार के आकारों की लकड़ी और पत्थर आदि से बनाई हुई आकृतियां दिखाई देती हैं। यह आकृतियाँ शहर को सजाने के लिए खड़ी की जाती हैं। यहाँ तक कि सड़कों पर बड़े-बड़े झाड़ फानूस भी  लगे हुए दिखाई देते हैं।

जिद् दा  ऐतिहासिक दृष्टिकोण तथा धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण शहर है।  इस शहर से 40 -50 किलोमीटर की दूरी पर मक्का नामक धर्म स्थान है। मुसलमान धर्म को मानने वाले निश्चित रूप से जीवन में एक बार अपने इस दर्शनीय तीर्थस्थल पर अवश्य आते हैं। इसे वे हज करना कहते हैं और हज करनेवाला व्यक्ति हाजी कहलाता है।

भारत से भी प्रतिवर्ष 25 से 30 लाख लोग मक्का जाते हैं। जब तीर्थ करने का महीना आता है, जिसे रमादान कहते हैं तो हर एक एयरलाइन हर हाजी की यात्रा को आसान बनाने के लिए टिकटों की दरें घटा देता है। यह सुविधा केवल हाजियों के लिए ही होती है। जिद् दा शहर में उतरने के बाद हाजियों के लिए बड़ी अच्छी सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। मुफ़्त खाने- पीने की व्यवस्था हवाई अड्डे से कुछ दूरी पर ही की जाती है। अलग प्रकार के कुछ टेंट से बने होते हैं जहाँ इनके इमीग्रेशन के बाद इन हाजियों को बिठाया जाता है। यहीं से बड़ी संख्या में बड़ी-बड़ी बसें छूटती  हैं। चाहे यात्री किसी भी देश का निवासी हो,  जो हाजी होता है उसके लिए अनुपम व्यवस्था होती ही है और इन्हीं बसों के द्वारा उन्हें मक्का तक पहुँचाया जाता है हर देश की ओर से जिद्दा में एजेंट्स मौजूद होते हैं और वही हर देश से आने वाले हाजियों की सुख – सुविधाओं की व्यवस्था व्यक्तिगत रूप से करते हैं। कुछ लोग बिना एजेंट के भी यात्रा करते हैं।क्योंकि वहाँ की भाषा अरबी भाषा है जिसे बाहर से आने वाले नहीं बोल पाते हैं तो एजेंट के साथ होने पर आसानी हो जाती है।

उन दिनों मेरे पति बलबीर सऊदी अरब के इसी जिद् दा शहर में काम किया करते थे। मुझे अक्सर वहाँ आना – जाना पड़ता था। मैं भारत में ही अपनी बेटियों के साथ रहा करती थी। प्रतिवर्ष मुझे तीन -चार बार  वहाँ जाने  का अवसर मिलता था इसलिए वहाँ  की नीति और नियमों से भी मैं परिचित हो गई थी। वहाँ के नियमानुसार मैं भी हवाई अड्डे पर उतरने से पूर्व काले रंग का बुर्खा पहन लिया करती थी जिसे वहाँ के लोग अबाया कहते हैं। माथे पर लगी बड़ी बिंदी को हटा देती थी क्योंकि वहाँ के निवासी बिंदी को हराम समझते हैं। मैंने उन सब नियमों का हमेशा पालन किया ताकि कभी किसी प्रकार की मुश्किलों का सामना ना करना पड़े।

जो लोग स्थानीय न थे उन्हें चेहरे पर चिलमन या पर्दा डालने की बाध्यता न थी। अतः केवल काले कपड़े से सिर ढाँककर घूमने की छूट थी। पहले पहल वहाँ के नियम – कानून देखकर मैं भी घबरा गई थी पर धीरे-धीरे आते – जाते मुझे भी उन सबकी आदत – सी पड़ गई फिर अंग्रेजी में कहावत है ना बी अ  रोमन व्हेन यू आर ऐट रोम

इससे किसी भी प्रकार की मुसीबतों से हम बचते हैं।

इस देश में स्त्रियों को वह आजादी नहीं दी जाती है जो हमें अपने देश में देखने को मिलती है। यदि हम उनके नियमों का सही रूप से पालन करते हैं तो सब ठीक ही रहता है अब सालभर  में कई बार आते जाते मैं काले पहनावे में स्त्रियों को देखने और स्वयं भी उसी में लिपटे रहने की आदी हो चुकी थी।

2003 के दिसंबर का महीना था मैं अपनी छुट् टी जिद् दा में बिताकर अब घर लौट रही थी। हवाई अड् डे में इमीग्रेशन के बाद मैं अन्य यात्रियों के साथ कुर्सी पर जा बैठी इमीग्रेशन के लिए जब मैं कतार में खड़ी थी तब एक वृद्ध व्यक्ति को विदा करने के लिए कई भारतीय आए हुए थे। वे सबसे गले मिलते और आशीर्वाद देते। उनके  मुँह से शब्द अस्पष्ट  फूट रहे थे। आँखों पर मोटे काँच का  चश्मा था। आँखों से बहते आँसू और काँपते हाथ निरंतर उपस्थित लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे।

इमीग्रेशन  के बाद वे भी  एक कुर्सी पर जाकर बैठ गए। उनके कंधे पर एक छोटा -सा अंगोछा था जिससे वे अपनी आँखें बार-बार पोंछ रहे थे। मेरा हृदय अनायास ही उनकी ओर आकर्षित हुआ। मैंने देखा वे अकेले ही थे इसलिए मैंने उनकी बगल वाली कुर्सी के सामने अपना केबिन बैग रखा और पानी की एक बोतल खरीदने चली गई। जाते समय उस बुजुर्ग से मैंने अपने बैग की निगरानी रखने के लिए प्रार्थना की। (वैसे एयरपोर्ट पर अनएटेंडड बैग्स की तलाशी ली जाती है। मेरे बैग पर मेरा नाम और घर का लैंडलाइन नंबर लिखा हुआ था। उन दिनों यही नियम प्रचलन में था।)

लौट कर देखा बुजुर्ग की आँखों से निरंतर आँसू बह रहे थे। उनके पोपले मुँह वाले पिचके गाल आँसुओं से तर थे। उनकी ठुड् ढी पर सफेद दाढ़ी थी जो हजामत ना करने के कारण यूं ही बढ़ गई थी। उन्हें रोते देख मैं उनके बगल में बैठ गई। बोतल खोलकर गिलास में पानी डालकर उनके सामने थामा फिर बुजुर्ग के हाथ पर हाथ रखा तो सांत्वना के स्पर्श ने उन्हें जगाया और उन्होंने काँपते हाथों से गिलास ले लिया।  दो घूँट पानी पीकर शुक्रिया कहा। बुजुर्ग के काँपते ओंठ और कंपित स्वर ने न जाने क्यों मुझे भीतर तक झखझोर दिया। न जाने मुझे ऐसा क्यों लगा कि वह इस शहर में अपनी कुछ प्रिय वस्तु छोड़े जा रहे थे। उनका इस ढलती उम्र में इस तरह मौन क्रंदन करना मेरे लिए जिज्ञासा का कारण बन गया। मैंने फिर एक बार बाबा को स्पर्श किया और उनसे पूछा, “बाबा क्या किसी प्रिय व्यक्ति को इस शहर में छोड़कर जा रहे हैं ?” उन्होंने मेरे सवाल का कोई उत्तर नहीं दिया बस रोते रहे।

 विमान के छूटने का तथा यात्रियों को द्वार क्रमांक 12 पर कतार बनाकर खड़े होने के लिए निवेदन किया गया। सभी से कहा गया कि वे अपने पासपोर्ट तथा बोर्डिंग पास तैयार रखें। लोगों ने तुरंत द्वार क्रमांक 12 पर एक लंबी कतार खड़ी कर ली। हम मुंबई लौट रहे थे। एयर इंडिया का विमान था। जिद् दा से मुंबई का सफर तय करने के लिए 5:30 घंटे लगते हैं। अभी सुबह के 10:00 बजे थे 11:00 बजे हमारा विमान उड़ान भरने वाला था। हम 4:30 बजे मुंबई पहुँचने वाले थे। अनाउंसमेंट के बाद भी जब बाबा ना उठे तो मैंने भी उनके साथ हो लेने का निश्चय किया।  हवाई अड्डे के मुख्य द्वार से काफी दूर विमान खड़े किए जाते थे। वहाँ तक पहुँचाने के लिए हवाई अड्डे द्वारा नियोजित सुंदर बसों की व्यवस्था थी। जब आखरी बार यात्रियों को बस में बैठने के लिए अनाउंसमेंट किया गया तब मैंने उनसे कहा बाबा चलिए हमारे विमान के उड़ान भरने का समय हो गया। वे  कुछ ना बोले। कंधे पर एक थैला था, हाथ में एक  लाठी। वे लाठी  टेकते हुए आगे बढ़ने लगे। मैं भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। पासपोर्ट और बोर्डिंग पास दिखाने के लिए कहा गया। मैंने उनके कुरते की जेब से झाँकते पासपोर्ट और टिकट निकाल कर उपस्थित अफसर को दिखाया और हम आखरी बस की ओर अग्रसर हुए।

न जाने क्यों बुज़ुर्ग के प्रति मेरे हृदय में  एक दया की भावना सी उत्पन्न हो रही थी। वे असहाय और किसी दर्द से गुज़र रहे थे। साथ ही उनके बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करने की मेरे मन में लालसा सी जागृत हो गई थी। बुज़ुर्ग भी मेरे द्वारा दी गई सहायता को चुपचाप स्वीकारते चले गए। अब दोनों के बीच एक अपनत्व की भावना ने जन्म ले लिया था।*

बस में बैठते ही मैंने फैसला कर लिया था  कि मैं भी उस बुजुर्ग के साथ वाली सीट पर बैठने के लिए एयरहोस्टेस से निवेदन करूँगी ताकि यात्रा के साढ़े पाँच घंटों में और कुछ जानकारी उनसे हासिल कर सकूँ। ईश्वर ने मेरी सुन ली कहते हैं ना जहाँ चाह वहीं राह। एयरहोस्टेस ने तुरंत मेरी सीट  बदल दी और बुजुर्ग की बगल वाली सीट मिल गई। मुझे देखकर बुजुर्ग ने एक छोटी – सी मुस्कान दी।  मानो वे अपनी प्रसन्नता जाहिर कर रहे थे। मैंने अपनी सीट पर  बैठने से पहले उनकी  लाठी ऊपर वाले खाने में रख दी साथ ही अपना केबिन बैग भी। बैठने के बाद  पहले बेल्ट बाँधने में उनकी सहायता की, उनके हाथ काँप रहे थे।संभवतः कुछ अकेले यात्रा करने का भय था, कुछ आत्मविश्वास का अभाव भी। फिर अपनी बेल्ट लगा ली। इतने में एयर होस्टेस ने हमें फ्रूटी का पैकेट पकड़ाया। मैंने दो पैकेट लिए और बुजुर्ग की ओर एक पैकेट बढ़ाया।

मेरी छोटी – छोटी सेवाओं ने बुजुर्ग के दिल में मेरे लिए खास जगह बना दी। अब उनका रोना भी बंद हो चुका था। मैं भी आश्वस्त थी और अब जिज्ञासा ने प्रश्नावलियों का रूप ले लिया था। मन में असंख्य सवाल थे जिनके उत्तर यात्रा के दौरान इन साढ़े पाँच  घंटों में ही मुझे हासिल करना था।

मैंने ही पहला सवाल पूछा, फिर दूसरा, फिर तीसरा और फिर चौथा …..

थोड़ी देर बाद मैं चुप हो गई,  बिल्कुल चुप और बुज़ुर्ग बस बोलते रहे, बस बोलते ही चले गए। उन्होंने जो कुछ मुझसे कहा आज मैं उन सच्चाइयों को आप पाठकों के सामने रख रही हूँ। उन्हें सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे शायद इन घटनाओं  के सिलसिले को पढ़कर आपका हृदय भी  द्रवित हो उठे। मैं इस कहानी में बुजुर्गों का नाम तथा पहचान गुप्त रखना चाहूँगी क्योंकि किसी की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाना उचित नहीं है।

—–

बुजुर्ग का बेटा मुंबई शहर में टैक्सी चालक था।काम ढूँढ़ने के लिए  सत्रह वर्ष की उम्र में वह इस शहर में आया था। वह जब सफल रूप से पर्याप्त धन कमाने लगा तो वह अपने माता – पिता को भी गाँव से मुंबई ले आया था। माता-पिता गाँव में दूसरों के खेत में मज़दूरी करके अपना गुज़ारा करते थे। बेटा बड़ा हुआ तो  उसका विवाह किया गया। अब तो उसके बच्चे भी कॉलेज में पढ़ रहे थे। बुजुर्ग की पत्नी और  बहू के बीच अब धीरे-धीरे  अनबन होने लगी थी। संभवतः कम जगह, बढ़ती महंगाई ने रिश्तों में दरारें पैदा कर दीं। अनबन  की मात्रा इतनी बढ़ गई कि बुज़ुर्ग के बेटे ने उन्हें अलग रखने का फैसला किया।

2000 के फरवरी माह की एक सुहानी शाम के समय बुजुर्गों का बेटा अपने माता-पिता के लिए हज करने के लिए मक्का मदीना भेजने की व्यवस्था कर आया।वे अत्यंत प्रसन्न हुए अपने बेटे – बहू को आशीर्वाद देते  नहीं थकते थे। उनकी खुशी का कोई ठिकाना न था। बुजुर्ग और उनकी पत्नी ने अपने सपने  में भी कभी नहीं सोचा था कि उन्हें हज पर जाने का मौका मिलेगा। बेटे से पूछा कि इतने पैसों का प्रबंध कैसे हो पाया तो उसने कहा कि उसने अपना घर गिरवी रखा है। वह अपने माता पिता को लेकर हज कर आना चाहता है।उनके पड़ोसी  उनसे मिलने आते और उनके सौभाग्य की सराहना करते।  बूढ़ा अपने बेटे बहू की प्रशंसा करते ना थकते।

फिर वह सुहाना दिन भी आ गया। बुजुर्ग और उनकी पत्नी अपने बेटे के साथ छत्रपति शिवाजी अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे पर पहुँचे। कोई फूलों का गुच्छा देता तो कोई फूलों की माला पहनाता। अनेक पड़ोसी और  रिश्तेदार उन्हें  विदा करने एयरपोर्ट आए थे।

 बुजुर्ग ने अपनी जिंदगी बड़े कष्टों में गुजारी थी तभी तो उनका बेटा 17 वर्ष की उम्र में उत्तर प्रदेश के एक गाँव से उठकर रोज़गार की तलाश में मुंबई आया था। उन्होंने कभी भी नहीं सोचा था कि वह कभी हज करने जा सकेंगे। दो वक्त की रोटी जहाँ ठीक से नसीब ना हो वहाँ इतना बड़ा खर्च कैसे किया जा सकता है भला?  पर बेटे ने तो वह सपना पूरा करना चाहा जो कभी आँखों ने देखे भी न थे।

हवाई यान ने उड़ान भरी। मां-बाप और सुपुत्र चले मक्का। 10 मार्च 2001 व्यवस्थित योजना के मुताबिक सुचारू रूप से सब कुछ होता रहा। जिद् दा हवाई अड् डे  से बस में बैठकर अन्य यात्रियों के साथ उसी दिन रात को तीनों मक्का पहुँचे।

बुजुर्ग और उनकी पत्नी की खुशी की सीमा न थी वह तो मानो स्वर्ग पहुँच गए थे। अल्लाह के उस दरवाजे पर आकर उस दिन खड़े हुए जहाँ नसीब वाले ही पहुँच सकते थे। मक्का में यात्रियों और हाजियों की भीड़ थी बेटे ने हिदायत दी थी कि वे एक दूसरे के साथ ही रहे साथ ना छोड़े।

बुजुर्ग और उनकी पत्नी अनपढ़ थे। मजदूरी करके जीवन काटने वाला व्यक्ति दुनिया की रीत भला क्या समझे उसके लिए तो दो वक्त की रोटी पर्याप्त होती है मक्का का दर्शन हो गया काबा के सामने खड़े अल्लाह  से दुआएँ माँग रहे थे। अपने बेटे की लंबी उम्र और सफल जीवन के लिए दुआएँ कर रहे थे। उन्हें क्या पता था कि वह उसी स्थान पर कई दिनों तक खड़े-खड़े बेटे की प्रतीक्षा ही करते रहेंगे।

 मक्का में दो दिन बीत गए। बेटा उसी भीड़ में कहीं खो गया। भाषा नहीं आती थी। किसी तरह अन्य भारतीयों हाजियों की सहायता लेकर  पुलिस से गुमशुदा बेटे की शिकायत दर्ज़ कराई।  बुजुर्ग की पत्नी का रो-रोकर हालत खराब हो रही थी।

गायब होने से पहले बेटे ने अपने वालिद के हाथ में पाँच सौ रियाल रखे थे और कहा था थोड़ा पैसा अपने पास भी रखो अब्बा।

पुलिस ने छानबीन शुरू की। बुजुर्ग के पास न पासपोर्ट  था, न वीज़ा,न हज पर आने की परमिट पत्र।भाषा आती न थी। घर से बाहर ही कभी मुंबई  शहर में अकेले कहीं नहीं गए थे यह तो परदेस था। पति-पत्नी भयभीत होकर काँपने लगे, पत्नी रोने लगी।पर पुलिस को तो नियमानुसार अपनी ड्यूटी करनी थी।

पुलिस ने कुछ दिनों तक उन्हें जेल में रखा क्योंकि उन पर बिना पासपोर्ट के पहुँचने का आरोप था। पर छानबीन करने पर कंप्यूटर पर उनका पासपोर्ट नंबर और नाम मिला तो मान लिया गया कि उनका पासपोर्ट कहीं खो गया। उन्होंने अपने बेटे का नाम और मुंबई का पता बताया तो पता चला कि उस नाम के व्यक्ति की जिद् दा  से एग्जिट हो चुकी थी।

एक और एक जोड़ने पर बात स्पष्ट हो गई। बुजुर्ग और उनकी पत्नी से पिंड छुड़ाने के लिए उन्हें मक्का तक ले आया और उन्हें धोखा देकर उनका पासपोर्ट तथा टिकट लेकर स्वयं भारत लौट गया।

बात यही॔ खत्म नहीं हुई। घर का जो पता दिया गया था उस पते अब उस नाम का कोई व्यक्ति नहीं रहता था। बूढ़े को याद आया कि उसके रहते ही उस घर को देखने कुछ लोग आए थे। तब बेटे ने बताया था कि वह घर गिरवी रख रहा था बुजुर्ग को क्या पता था कि बेटे और बहू के दिमाग में कुछ और शातिर योजनाएँ चल रही थीं।

उधर भारतीय एंबेसी लगातार बुजुर्ग के परिवार को खोजने की कोशिश कर रही थी। इधर बुजुर्ग और उनकी पत्नी  की हालत खराब हो रही थी। एक तो बेटे  द्वारा दिए गए धोखे का गम था, दूसरा बुढ़ापे में विदेश में जेल की हवा खानी पड़ी। अपमान और ग्लानि के कारण बुजुर्ग की पत्नी की तबीयत दिन-ब-दिन खराब होने लगी थी। पुलिस की निगरानी में आश्रम जैसी जगह में उन्हें रखा गया था। यहाँ उन हाजियों को रखा जाता था जो हज करने के लिए मक्का तो पहुँच जाते थे पर उनके पास पर्याप्त डॉक्यूमेंट ना होने के कारण वे लौटकर अपने देश नहीं जा पाते। यह लोग अधिकतर इथियोपिया,चेचनिया इजिप्ट या अन्य करीबी देशों से आने वाले निवासी हुआ करते थे। फिर कुछ समय बाद वे  इसी देश में रह जाते थे।

बुजुर्ग और उनकी पत्नी गरीब जरूर थे पर उनकी अपनी इज्जत थी उनके गाँव के निवासी, मुंबई के पड़ोसी सब मान करते थे वरना मुंबई के हवाईअड् डे पर फूल लेकर  उनसे मिलने क्यों आते? यह तो हर हज पर जाने वाले व्यक्ति का अनुभव होता है उसे विदा करने और लौट आने पर स्वागत करने के लिए असंख्य लोग आते हैं।

तीन  महीने बीत गए।  बुजुर्ग और उनकी पत्नी अब मक्का से जिद् दा लाए गए। उसी शहर में कुछ ऐसे भारतीय थे जो जिद् दा शहर में नौकरी के सिलसिले में कई सालों से रह रहे थे वे साधारण नौकरी करते थे तथा बड़े-बड़े फ्लैट किराए पर लेकर कई लोग एक साथ रहा करते थे। उन लोगों में कुछ टैक्सी चालक थे कुछ टेलीफोन के लाइनमैन तो कुछ फिटर्स तथा कुछ बड़ी दुकान में सेल्समैन। सभी अपने-अपने परिवारों को भारत में छोड़ आए थे और वहीं सारे पुरुष एक साथ भाई – बंधुओं की तरह रहा करते थे।

इन तीन  महीनों में इन्हीं लोगों ने दौड़ भाग कर इंडियन एंबेसी से पत्र व्यवहार किया पैसे इकट्ठे किए कागजात बनवाए और बुजुर्गों को जिद् दा  ले आए। बुजुर्ग की उम्र सत्तर से ऊपर थी और उनकी पत्नी अभी सत्तर से कम। वे दिन रात प्रतीक्षा में रहते। जिन लोगों ने उन्हें अपने साथ रखा था वे जानते थे बुज़ुर्ग का बेटा उन्हें ले जाने के लिए यहाँ छोड़ कर नहीं गया था। उसकी तो साज़िश थी उन से पीछा छुड़ाने का। बुजुर्ग इस सच्चाई को कुछ हद तक मान भी लेते लेकिन उनकी पत्नी इस बात को मानने को तैयार नहीं थी।  वे दोनों इसी गलतफ़हमी में थे कि उनका बेटा कहीं खो गया था।

पत्नी का रो – रो कर बुरा हाल हो रहा था। जिस तरह पानी बरसने के बाद कुछ समय बीतने पर जमीन ऊपर से सूख तो जाती है पर भीतर तक लंबे समय तक उसमें  गीलापन बना रहता है।ठीक उसी तरह बूढ़ी की हर साँस से दर्द का अहसास होता था। अब रोना बंद हो गया पर साँसें भारी हो उठीं।

उनके इर्द-गिर्द रहनेवाले वे सारे लोग उनके आज अपने थे। एक बाप अपने कलेजे के टुकड़े को न छोड़ पाएगा पर माँ-  बाप को बोझ समझनेवाला शायद उन्हें छोड़ सकता है।यह किसी धर्मविशेष की बात नहीं है, वरना स्वदेश में इतने वृद्धाश्रम न होते।

बुजुर्गों की पत्नी की तबीयत बिगड़ती गई और माह भर सरकारी अस्पताल में रहने के बाद अपने नालायक बेटे को याद करते – करते उसने दम तोड़ दिया। धर्मपत्नी की मय्यत को वहीं मिट्टी दी गई क्योंकि भारत में अब बेटे का भी पता न था और हाथ में किस प्रकार के कोई डॉक्यूमेंट लौटने के लिए नहीं थे। घर बेचकर किस शहर को वह चला गया था यह तो खुदा ही जानता था।  बुजुर्ग अब अकेले रह गए पत्नी की मौत ने मानो उनकी कमर ही तोड़ दी। वे भी  उसी के साथ जाना चाहते थे मगर मौत अपनी मर्जी से थोड़ी आती है। उनका कलेजा हरदम मुँह को आ जाता था पर शायद उन्हें अभी और दुख झेलने थे।

सारे अन्य भारतीय लोगों के बीच रहते और इंडियन एंबेसी के निर्णय का वे रास्ता देखते रहे।

आज वही दिन था जब जिद् दा शहर से हमेशा के लिए वे विदा हो  रहे थे।  अपनी औलाद ने पिंड छुड़ाने के लिए इतनी दूर लाकर छोड़ा था और जिनके साथ उनका रिश्ता भी नहीं वे  अपनों से बढ़कर निकले। पराए देश में एक असहाय दंपति का साथ दिया,  उनकी सेवा की,  सहायता की, आश्रय दिया।  यहां तक कि बुजुर्ग की पत्नी का अंतिम संस्कार भी नियमानुसार किया। बुजुर्ग के लिए एंबेसी जाते रहते और अंत में विभिन्न एजेंटों की सहायता से पासपोर्ट बनाकर वीजा की व्यवस्था करके एग्जिट का वीजा लेकर आए। वह आज उनके कितने अपने थे उनके साथ पिछले छह महीने रहते-रहते ऐसा अहसास हुआ कि संसार का सबसे बड़ा रिश्ता प्रेम का रिश्ता है।  जिद् दा शहर में रहने वाले लोग चाहे भारत के किसी भी राज्य के हों,  चाहे जिस किसी धर्म के हों उनमें प्रेम है, एकता है। वे सब मिलजुलकर सभी त्यौहार मनाते हैं। खुशी और ग़म में एक दूसरे का साथ देते हैं।

बुजुर्ग की आँखें चमक उठी और बोले यह सब जो मुझे छोड़ने आए थे वह सब हिंदू, मुसलमान और ईसाई लोग थे। पर उन सब की एक ही जाति और धर्म है और वह है मानवता। फिर बुजुर्ग ने अल्लाह का शुक्रिया करते हुए कहा कि मैं तो जिद् दा की पुलिस, सरकार, राजा सबको धन्यवाद देता हूं क्योंकि सब ने हमारी बहुत देखभाल की।

विमान को उड़ान भरे पाँच घंटे हो गए हमें पता ही न चला। एक बार फिर से सीट बेल्ट बाँधने का अनाउंसमेंट हुआ और मुझे अहसास हुआ कि हम छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर उतरने जा रहे थे। मेरा दिल एक बार इस चिंता से धड़क उठा और समझ में नहीं आ रहा था कि मैं बुजुर्ग से कैसे पूछूँ फिर भी साहस जुटाकर मैंने उनसे पूछ लिया कि मुंबई उतर कर वे  कहाँ जाएँगे। तब उन्होंने अपनी जेब से काँपते हाथों से एक लिफाफा निकाला जिसमें एक महिला की तस्वीर थी और उसका पता लिखा हुआ था।

विमान उतरा,  हम इमीग्रेशन की ओर निकले। औपचारिकता पूरी  करने के बाद अपना सामान बेल्ट पर से उतारकर ट्रॉली पर रखा और बाहर आए। एक मध्यवयस्का महिला एक व्हीलचेयर  लेकर खड़ी थी। हम जब थोड़ा और आगे बढ़े तो  उस महिला ने बुजुर्ग को आवाज लगाई, “अब्बाजान मैं रुखसाना!” और वह एक सिक्योरिटी के अफसर के साथ बुजुर्ग के पास आई। बड़े प्यार से उन्हें गले लगाई मीठी आवाज में बोली, “अब्बाजान  घर चलिए। सब आपका इंतजार कर रहे हैं।

 मैंने उनसे पूछा,”रुखसाना जी बाबा को कहाँ ले जा रही हैं ? “

उन्होंने मेरी ओर ऊपर से नीचे  एक बार देखा फिर पूछा, ” आपका परिचय?”  मैंने भी झेंपते  हुए कहा, ” बस कुछ घंटों का साथ था बाबा के साथ। मैं भी यात्री हूँ।

बाबा बोले,”  रुखसाना बेटा साढ़े पाँच  घंटों में यह सफ़र कैसे कटा पता ही न चला।अगर ये ख़ार्तून ना मिलतीं तो यह सफ़र मेरे लिए तय करना बड़ा मुश्किल होता। आपने पूछा था ना कि मैं क्या पीछे छोड़े जा रहा हूँ ? मैं  अपनों को छोड़ आया हूँ जिन्होंने मुझे आज अपने देश लौटने का मौका दिया।  इसलिए मैं अपने आँसू रोक न पा  रहा था। अगर आप ना मिलतीं तो शायद  इसी तरह रोता रहता। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया,आपने बोझ हल्का करने में मदद की।

रुखसाना ने अपने पर्स से अपना पहचान पत्र निकाला ‘सोशल वर्कर मुंबई’।  बाबा का नया घर था वृद्धाश्रम! जिद् दा के  बच्चों ने ही यह व्यवस्था  की थी जिनके साथ उनका कोई खून का रिश्ता नहीं था।

बाबा ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर पूछा आपने अपना नाम क्या बताया बेटा ?

 मैं जोर से हँस पड़ी, मैंने कहा “बाबा मैंने तो आपको मेरा परिचय दिया ही ना था। “

 तब तक हम तीनों बाहर  पहुंच गए थे जहाँ टैक्सी मिलती है। मैंने बाहर आने पर झुककर बाबा को प्रणाम किया और कहा “मैं भी आपकी हिंदू बेटी हूँ। फिर मिलूँगी आपसे।”

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ “चला बालीला…” – भाग – ७ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

☆ “चला बालीला…” – भाग – ७ ☆ सौ राधिका भांडारकर 

आज सकाळीच सतीश ने टी टेबलवर एक मस्त एक्सायटिंग घोषणा केली. “आजचा कार्यक्रम आहे बाली हाय क्रुझ. आपण सनसेट डिनर क्रुझ बुक केली आहे.”

वाॅव! बाली आणि समुद्र सफारी शिवाय परतायचे हे केवळ अशक्य!

बाली बेनोवा बंदर (जिथून  आमची क्रुझ सुरू होणार होती) आमच्या वास्तव्यापासून एक-दीड तासाच्या अंतरावर होते. आम्हाला बाली हाय क्रुझतर्फे  पिक अप आणि ड्रॉप होता.  दुपारी साडेतीन वाजता आम्ही निर्गमन करणार होतो त्यामुळे सकाळी आम्ही बरोबर आणलेले थेपले, दशम्या, बेसन वड्या, चिवडा, घारगे असे विविध पदार्थ खाऊन लाईट (?) लंच घेतले. बऱ्याच दिवसांनी पत्ते खेळलो, डॉब्लर्स नावाचा एक लहान मुलांचा पण अतिशय गमतीदार असा मानसिक तत्परता वाढविणारा  खेळही खेळलो. OLDAGE IS DOUBLE CHILDHOOD चाच जणू काही  अनुभव घेतला म्हणा ना!

बरोबर साडेतीन वाजता आमची सहा जणांची रंगीन टीम मस्त नटून थटून बेनोवा बंदरकडे जायला तयार झाली. आमची पिकअप कार आलेलीच होती. नेहमीप्रमाणेच गणवेशातला रुबाबदार हसतमुख पण नम्र ड्रायव्हर स्वागतास तयार होताच.

रस्त्यावरून जाताना प्रमोदच्या आणि ड्रायव्हरच्या नेहमीप्रमाणेच मस्त गप्पा चालू होत्या. भाषेचा अडसर कसाबसा पार करत गप्पा रंगल्या होत्या. तो सांगत होत, “इंडोनेशियामध्ये ८७% मुस्लिम आहेत पण बाली हे एकमेव असे बेट आहे की इथे ९०% हिंदू धर्मीय आहेत. हिंदू देवदेवतांची पूजा करणारे आहेत आणि हिंदू धर्माचा अभिमान बाळगणारे आहेत. घरोघरी हिंदू रिती परंपरा येथे पाळल्या जातात.”

अशा रितीने गप्पागोष्टी करत, फळाफुलांनी नटलेली वनश्री पहात, चौका-चौकातली शिल्पे आणि वास्तुकलेचे भव्य दर्शन घेत आम्ही बेनोवा बंदर वर पोहोचलो.  तिथले वातावरणच पर्यटन पूरक होते. सागर किनाऱ्यावर अनेक लहान-मोठी जहाजे नांगर टाकून उभी होती. आमच्यासारखेच अनेक उत्सुक  पर्यटक देशोदेशाहून  तिथे आलेले होते.अर्थात सारेच अत्यंत उत्साही आणि आनंदी मूडमध्ये  होते. आमची सनसेट डिनर क्रुझ संध्याकाळी  साडेपाचला सुटणार होती. जवळजवळ साडेतीन तासाची समुद्रसफर होती आणि डिनरसह संगीत, नृत्य असा भरगच्च कार्यक्रम बोटीवर असणार होता. तत्पूर्वी आम्हाला तिथे एक मधुर, शीतल स्वागत पेय देण्यात आलं. काउंटर वर आम्ही आमची तिकिटे घेतली प्रत्येकी ११ लाख इंडोनेशियन रुपये! जवळजवळ प्रत्येकी साडेसहा हजार भारतीय रुपये.  सर्व कारभार अतिशय शिस्तपूर्ण आणि नीटनेटका होता. सगळ्यांना सांभाळून बोटीपर्यंत नेले जात होते.  रुबाबदार वातावरण, सुसज्ज रेस्टॉरंट,सागराचं आणि आकाशाचं खुलं  दर्शन देणारा मस्त सुरक्षित डेक आणि सोबतीला हलकेच बालीनीज पारंपारिक वाद्य संगीत. एका वेगळ्याच वातावरणात गेल्याचा अनुभव आम्हाला मिळत होता.

ठीक साडेपाच वाजता बोटीने किनारा सोडला आणि त्या हिंदी महासागरातली ती अविस्मरणीय सफर सुरू झाली. निळे व्योम आणि आप या निसर्गतत्त्वांचा किती अनाकलनीय परिणाम मनावर होतो हे प्रत्यक्ष अनुभवत होतो. काही वर्षांपूर्वी आसाम मध्ये ब्रह्मपुत्रा नदीच्या दर्शनाने जी समाधीस्थ अवस्था काही क्षणापुरती का होईना पण जाणवली होती अगदी तशीच या सागर दर्शनाने पुनश्च जाणवत होती.” सागरा प्राण तळमळला.. सागरा…” अगदी नेमके हेच वाटत होते. खरं सांगू ?निसर्ग इतका अथांग, अफाट असतो की आपलं अस्तित्व त्याच्यासमोर फक्त कणभराचंच असल्यासारखं वाटतं! निसर्गासमोर सारं “मी पण” अहंकार, गर्व स्वतःविषयीच्या कल्पना, (गैर) सारं सारं काही क्षणात गळून पडतं.  मनाच्या खोल गाभाऱ्यात “कोहम” नाद घुमत राहतो.

आता माथ्यावरील निळ्या आकाशातले रंग बदलू लागले होते. बोट समुद्राच्या मध्यभागी आलेली होती. किनाऱ्यावरची घरे आणि हळूहळू पेटत चाललेले दूरचे दिवे हे सुद्धा खूप आकर्षक भासत होते.पश्चिम दिशेला ढळणार्‍या सूर्याने आकाशात केशरी, जांभळे रंग, उधळले होते मावळणाऱ्या सूर्यकिरणांतून पाण्यावर हलकेच तरंगणारे ते सोनेरी रंग पाहतांना कुसुमाग्रजांच्या कवितांच्या ओळी आठवल्या.

आवडतो मजला अफाट सागर

अथांग पाणी निळे

निळ्या जांभळ्या जळात केशर

सायंकाळी मिळे..

हवेतला  तो गुलाबी गारवा! स्तब्ध होत होतं सारं.. मन, डोळे जणूं अमृत प्राशन केल्यासारखे तृप्त होत होते. हलके हलके काळोखात बुडत चाललेला दिवस जणू काही उद्याचा नवा प्रकाश घेऊन येण्याचं आश्वासन देऊनच परतत होता. थोड्यावेळापूर्वीचा प्रकाशातला तो रोमँटिक निसर्ग कसा नि:शब्दपणे गूढ होत चालला होता.

ठीक साडेसात वाजता क्रुझ वर डिनर सुरू झाले. सोबत मस्त संगीत. आमच्याबरोबरचे युवक— युवतींचे मेळावे  अगदी धुंद, उत्तेजित झाले होते. आणि त्यांच्या समवेत त्यांना पाहताना नकळत आम्ही आमच्या गतकाळात जात होतो. कुठेतरी आजच्या आणि कालच्या काळाशी तुलनाही करत होतो. पण त्या क्षणी मात्र त्यांचं हे तारुण्य, जगणं, जीवन साजरं करणं पाहून निश्चितच हरखूनही गेलो होतो. त्यांचा प्रवास आमचा प्रवास निराळा होता. त्यांचं बाली पर्यटन आणि आमचं बाली पर्यटन यात खूप फरक होता. फरक ऊर्जेचा होता, मस्ती, भोगणं इतकच नव्हे तर खाण्यापिण्यातलाही होता. भरभरून जगणं आणि खूप काही जगून झाल्यानंतरच जगणं यातला फरक होता. समान फक्त एकच होतं. अनुभव. आनंदाचा, रिफ्रेश होण्याचा, रिक्रिएशनचा.

भरभरून खायला होतं. गरमागरम, आकर्षक आणि चविष्ट पदार्थांची रेलचेल होती.शौकीनांसाठी जलपानही होते. एकंदरच इंडोनेशियन जेवणाचा थाट औरच होता. उत्सुकतेपोटी आम्ही निरनिराळे पदार्थ चाखून पाहिले. काही आवडले, काही बेचव  वाटले. पण एकंदर अन्नसेवनाचा यज्ञ कर्म मजेत पार पडला.

त्यानंतर खास क्रुझ वरील सर्व पाहुण्यांसाठी  मनोरंजनाचा कार्यक्रम होता. अर्थातच संगीत आणि नृत्य. मुळातच बालीयन हे कलासक्तच आहेत. संगीत, नृत्य, नाट्य, अभिनय हे त्यांच्या धमन्यातूनच वाहत असावं.

बालीनीज नृत्य पाहण्याची आम्हालाही फार उत्सुकता होती.

बालीनीज  नृत्य हे लोक परंपरेचं प्रतीक आहे. शास्त्रोक्त पद्धतीची ती एक अतिशय मनोरम अशी नृत्यकला आहे. बालीनीज नृत्याच्या माध्यमातून नाट्यमयरीत्या हिंदू परंपरा, तसेच रामायण— महाभारतातील कथांची अतिशय मनोहारी मांडणी केली जाते. अनेक वाईट गोष्टींचे, विकारी वृत्तींचे (एव्हिल स्पिरिट्स) दमन हा विषय या नृत्याच्या माध्यमातून अतिशय प्रभावीपणे सादर केला जातो. या संपूर्ण नृत्यात हस्त,पाद, मान, बोटे, डोळे यांच्या कलापूर्ण हालचालीतून प्रेक्षकांसमोर पौराणिक कथा उलगडत जाते.  चांगल्या गोष्टींचा वाईट गोष्टींवर, सत्याचा असत्यावर,  देववृत्तीचा असुर वृत्ती वर विजय कसा होतो याचं अत्यंत आकर्षक देहबोली आणि मुद्राभिनयातून केलेलं प्रकटीकरण पाहताना प्रेक्षक थक्क होतात.

या बालीनीज नृत्या मागे अनेक वर्षांचा इतिहासही आहे. पंधराव्या शतकापासून बालीनीजची सांस्कृतिक परंपरा काहीशी बदलू लागली आणि हिंदू धर्मीय एक प्रकारच्या या नृत्य कलेतून एकत्र यायला लागले, अधिक जोडले जाऊ लागले.

तसे या शास्त्रोक्त पारंपारिक नृत्याचे अनेक प्रकार आहेत बारोंग, फ्रॉग, जॉग, जेगॉग,लेंगोंग काकॅक वगैरे. आणि प्रत्येक नृत्य प्रकारची वैशिष्ट्ये निराळी आहेत. विषय निराळे आहेत, पोशाख वेगळे आहेत. आमच्यासमोर बोटीवर जे नृत्य सादर होत होते ते बारोंग प्रकारातले होते.यात राधाकृष्णाची प्रेमलीला होती.

पुरुष आणि स्त्रियांचा नृत्य करताना परिधान केलेला पोशाख ही आकर्षक होता. या पोशाखाचे दोन भाग असतात. वरचा व खालचा कमरेपासून पायापर्यंतचा. वरच्या भागाला सॅश म्हणतात व खालच्या भागाला केन म्हणतात. संपूर्ण पोशाखाला साबुक असे म्हणतात. आणि प्रामुख्याने कपड्याचा रंग सोनेरी असतो. डोक्यावर टोपेग नावाचा लाकडी कला कुसरीचा मोठा गोल मुकुट असतो. बाकी गळ्यात, हातात केसात, फुलांच्या,खड्यांच्या  माळा घातलेल्या असतातच. नाचताना त्यांच्या हातात कधी पंखे, कधी फुलांच्या कुंड्याही असतात. एकंदर हा डान्स अतिशय नयनरम्य असतो. हे नृत्य बघत असताना मला केरळमधील कथकली, मोहिनीअट्टम किंवा ओडिसी नृत्याची प्रामुख्याने आठवण झाली.  देशोदेशीच्या कला कुठेतरी समानतेच्या धाग्याने जोडलेल्या असतात हे नक्कीच.

तर मित्रांनो!अशा रितीने  चौफेर आनंदाचा अनुभव घेत आम्ही रात्री अकरा वाजता घरी परत आलो.आमच्या बाली सफरीचा हा समारोपाचा टप्पा होता.  दुसऱ्या दिवशी दुपारी एक वाजता आमची परतीची फ्लाईट होती.डेनसपार ते सिंगापूर ते मुंबई.

बाली बेटावरचा अविस्मरणीय आनंदाचा अनुभव घेऊन आता भारतात परतायचे होते. या आठ दिवसात इंडोनेशियातील बाली या निसर्गरम्य बेटाशी आमचं एक आनंददायी आणि भावनिक नातच जुळून आलं होतं.  इथला निसर्ग, हिंदी महासागराचे विहंगम नजारे, इथली संस्कृती,  परंपरा, कला आणि माणसं यांच्याशी एक रेशीम धागा नकळत जुळला गेला होता.

बाली हे जसं देवांचं बेट तसं बाली हे स्वप्नांचंही बेट आहे.  इथे प्रत्येकासाठी काहीतरी आहे. शांतता आणि विश्रांतीच्या शोधात आलेल्या पर्यटकांसाठी समुद्राच्या लाटा पाहणे, सूर्योदय, सूर्यास्त पाहणे, पोहण्याचा मनसोक्त आनंद लुटणे हे सारं काही आहे. तरुणांसाठी इथे आनंददायी नाईट लाईफ आहे, आकर्षक मार्केट्स आहेत! हिरवीगार जंगले आहेत, कायाकिंग,सर्फरायडींग ,स्कुबा डायव्ह पॅरासेलिंग सारख्या साहसी सागरी क्रीडा आहेत. भौतिकता आणि आध्यात्मिकता यांची झालेली एक विलक्षण सरमिसळही इथे पाहायला मिळते.

आयुष्याच्या शेवटच्या टप्प्यावरची आमची ही बाली सहल आमच्यासाठी नक्कीच आनंदाची ओंजळ ठरली. वयाची आठवण ठेवूनही आम्ही या बेटावरचा प्रत्येक क्षण बेभानपणे जगलो मात्र. आणि जगणं हे किती आनंददायी आहे हा मंत्र घेऊन आणि आता पुढची सहल कुठे असे ठरवतच  भारतात परतलो. आमच्या विमानाने बालीची भूमी सोडली आणि उंच आकाशात झेप घेतली. पुन्हा एकदा वरून दिसणाऱ्या अथांग महासागराचे आणि गगनचुंबी गरुड विष्णूच्या शिल्पाचे निरोपाचे दर्शन घेतले आणि भारताच्या दिशेने .,”चला आता आपल्या घरी, आपल्या देशी” या भावनिक ओढीने आणि इतक्या दिवसांच्या मित्र—मैत्रीणीच्या,सहवासाच्या  विरहाची हुरहुर बाळगत परतीच्या प्रवासासाठीही आनंदाने  तयार झालो.

इथेच बाली सहलीची सफल संपूर्ण कहाणी समाप्त!

— समाप्त — 

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ “चला बालीला…” – भाग – ६ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

☆ “चला बालीला…” – भाग – ६ ☆ सौ राधिका भांडारकर 

— Fire Dance 

फायर डान्स —अग्नि नृत्य म्हणजे बाली बेटावरचे एक प्रमुख आकर्षण.

समुद्रकिनाऱ्यावर उतरत्या संध्याकाळी या नृत्याचे भव्य सादरीकरण असतं. बीचवर जाण्याच्या सुरुवात स्थानापर्यंत आम्हाला हॉटेलच्या शट्ल सर्विस ने सोडले.  उंच टेकडीवरून आम्हाला समुद्राचे भव्य दर्शन होत होते. ज्या किनाऱ्यावर हे अग्नी नृत्य होणार होते तिथपर्यंत पोहोचाण्याचा रस्ता बराच लांबचा, डोंगरावरून चढउताराचा, पायऱ्या पायऱ्यांचा होता.  सुरुवातीला कल्पना आली नाही पण जसजसे पुढे जात राहिलो तसतसे जाणवले की हे फारच अवघड काम आहे.  त्यापेक्षा आपण खालून किनाऱ्यावरून चालत का नाही गेलो? तो रस्ता जवळचा असतानाही— असा प्रश्न पडला. अर्थात त्याचे उत्तर यथावकाश आम्हाला मिळालेच. ती कहाणी मी तुम्हाला नंतर सांगेनच.  तूर्तास आम्ही धापा टाकत जिथे नृत्य होणार होते तिथे पोहोचलो.

बरोबर संध्याकाळी सहा वाजता हे अग्नी नृत्य सुरू झाले. चित्र विचित्र ,रंगी बेरंगी,चमचमणारी वस्त्रं ल्यायलेले, अर्धे अधिक उघडेच असलेले नर्तक आणि नर्तिकांनी हातात पेटते पलीते असलेली चक्रे फिरवून नृत्याला सुरुवात केली. समोर सादर होत असलेल्या त्या नृत्य क्रीडा, पदन्यास आणि ज्वालांशी लीलया चाललेले खेळ खरोखरच सुंदर तितकेच चित्तथरारक होते.  आपल्याकडच्या गोंधळ, जागर यासारखाच लोकनृत्याचा तो एक प्रकार होता. संगीताला ठेका होता. अनेक आदिवासी नृत्यंपैकी  हे एक नृत्य.साहस आणि कला यांचं अद्भुत मिश्रण होतं.

लख लख चंदेरी तेजाची न्यारी दुनिया

झळाळती कोटी ज्योती या….

या जुन्या गाण्याचीही आठवण झाली. 

काळोखात चाललेलं आभाळ, लाटांची गाज, मऊ शुभ्र वाळू यांच्या सानिध्यात चाललेलं ते अग्नी प्रकाशाचे नृत्य फारच प्रेक्षणीय होतं. उगाच  काहीसं भीषण आणि गूढही वाटत होतं.एक तास कसा उलटला ते कळलंही नाही.

परतताना मात्र आम्ही आल्यावाटेने गड चढत जाण्यापेक्षा सरळ वाळूतून चालत जायचे ठरवले. तिथल्या स्थानिक माणसाने आम्हाला एवढेच सांगितले,” अर्ध्या तासात समुद्राला भरती येईल. मात्र दहा ते पंधरा मिनिटात तुम्ही शटल पॉईंट ला पोहोचालच.  जा पण सांभाळून..” 

मग असे आम्ही सहा वृद्ध वाळूतून चालत निघालो.  वाळूतून चालणारे फक्त आम्हीच असू.बाकी सारे मात्र ज्या वाटेने आले त्याच वाटेने जाऊ लागले.

हळूहळू लक्षात आले वाळूच्या अनंत थरातून चालणे  सोपे नव्हते.  पाय वाळूत रुतत होते.  रुतणारे पाय काढून पुढची  पावले टाकण्यात भरपूर शक्ती खर्च होत होती. अंधार वाढत होता.समुद्र पुढे पुढे सरकत होता. आमच्या सहा पैकी सारेच मागे पुढे झाले होते. समुद्राच्या भरतीची वेळ येऊन ठेपत होती.

विलासला फूट ड्रॉप असल्यामुळे तो अजिबात चालूच शकत नव्हता.  आम्ही दोघं खूपच मागे राहिलो.  मी विलासला हिम्मत देत होते. थोड्या वरच्या भागात येण्याचा प्रयत्न करत होतो पण विलास एकही पाऊल उचलूच शकत नव्हता आणि तो वाळूत चक्क कोसळला. त्या विस्तीर्ण समुद्राच्या वाळूत, दाटलेल्या अंधारात आम्ही फक्त दोघेजण! आसपास कुणीही नाही. दोघांनाही आता जलसमाधी घ्यावी लागणार हेच भविष्य दिसत होतं. मी हाका मारत होते…” साधना, सतीश प्रमोद हेल्प हेल्प”

मी वाळूत उभी आणि विलास त्या थंडगार वाळूत त्राण हरवल्यासारखा निपचीत पडून. एक भावना चाटून गेली.

We have failed” आपण उंट नव्हतो ना…

कुठून तरी  साधना धडपडत कशीबशी आमच्याजवळ आली मात्र. सतीश ने माझी हाक ऐकली होती. समोरच बीच हाऊस मधून त्यांनी काही माणसांना आमच्यापर्यंत जाण्यास विनंती  केली.. दहा-बारा माणसं धावत आमच्या जवळ आली.  सतीशच्या प्रसंगावधानाचे कौतुक वाटले. कारण त्याने त्याच क्षणी जाणले होते की हे एक दोघांचं काम नव्हे. मदत लागणार.मग त्या माणसांनी कसेबसे विलासला उभे केले आणि ओढत उंचावरच्या पायऱ्या पर्यंत आणले. तिथून एका स्विमिंग बेड असलेल्या खुर्चीवर विलासला झोपवून पालखीत घालून आणल्यासारखे शटल पॉईंट पर्यंत नेले. हुश्श!!आता मात्र आम्ही सुरक्षित होतो. चढत जाणाऱ्या समुद्राला वंदन केले. त्याने त्याचा प्रवाह धरुन ठेवला होता का? त्या क्षणी ईश्वर नावाची शक्ती अस्तित्वात आहे याची जाणीव झाली.  आमच्या मदतीसाठी आलेली माणसं मला देवदूता सारखीच भासली. जगाच्या या अनोळखी टोकावर झालेल्या मानवता दर्शनाने आम्ही सारेच हरखून गेलो. श्रद्धा, भक्ती आणि प्रेम या संमिश्र भावनांच्या प्रवाहात मात्र वाहून गेलो. या प्रसंगाची जेव्हा आठवण येते तेव्हा एकच जाणवते, देअर इज नो शॉर्टकट इन  लाईफ

बिकट वाट वहिवाट नसावी धोपट मार्ग सोडू  नको..हेच खरे.

शरीराने आणि मनाने खूप थकलो होतो गादीत पडताक्षणीच झोप लागली.

दुसऱ्या दिवशीची सकाळ छान प्रसन्न होती. विलास जरा नाराज होता कारण कालच्या थरारक एपीसोडमध्ये त्याचा मोबाईल मात्र हरवला.पण आदल्या दिवशी ज्या दुर्धर प्रसंगातून आम्ही दैव कृपेने सही सलामत सुटलो होतो,  त्या आठवणीतच राहून निराश, भयभीत न होता दुसऱ्या दिवशी आमची टीम पुन्हा ताजीतवानी  झाली. सारेच पुढच्या कार्यक्रमाचे बेत  आखू लागले.

आज सकाळी कर्मा कंदारा— विला नंबर ६७ च्या खाजगी तरण तलावावर जलतरण करण्याचा आनंद मनसोक्त लुटायचा हेच ठरवले.

अवतीभवती हिरव्या गच्चपर्णभाराचे वृक्ष आणि मधून मधून डोकावणारी  पिवळ्या चाफ्याची गोजीरवाणी झाडे यांच्या समवेत तरण तलावात पोहतानाचा आनंद अपरंपारच होता.

अनेक वर्षांनी इथे, बालीच्या या नयनरम्य पार्श्वभूमीवर, सुरुवातीला काहीशा खोल पाण्यात झेप घेताना भयही वाटलं.  पण नंतर वयातली ३०/४० वर्षं जणू काही आपोआपच वजा झाली आणि पोहण्याचा मनमुराद आनंद लुटू शकलो. झाडं, पाणी आणि सोबतीला आठवणीतल्या कविता. 

थोडं हसतो थोडं रुसतो 

प्रत्येक आठवण 

पुन्हा जागून बघतो ।।

 

अशीच मनोवस्था झाली होती. 

सिंधुसम हृदयात ज्यांच्या

रस सगळे आवळले हो

आपत्काली अन् दीनांवर

घन होउनी जे वळले हो

जीवन त्यांना कळले हो..

बा.भ. बोरकरांच्या या कवितेतले ‘जीवन कळणारे’ ते म्हणजे जणू काही आम्हीच होतो हीच भावना उराशी घेऊन आम्ही तरण तलावातून बाहेर आलो.

असे हे  बालीच्या सहलीत वेचलेले संध्यापर्वातले खूप आनंदाचे क्षण!!

तसा आजचा दिवस कष्टमय, भटकण्याचा नव्हता. जरा मुक्त,सैल होता. 

इथल्या स्थानिक लोकांशी गप्पा करण्यातली एक आगळी वेगळी मौज अनुभवली. 

ही गव्हाळ वर्णीय,, नकट्या नाकाची, गोबर्‍या गालांची, मध्यम उंचीची, गुगुटीत ईंडोनेशीयन  माणसं खूप सौजन्यशील, उबदार हसतमुख आणि आतिथ्यशीलही  आहेत.

भाषेचा प्रमुख अडसर होता.कुठलीही  भारतीय भाषा त्यांना अवगत असण्याचा प्रश्नच नव्हता. पण इंग्रजीही त्यांना फारसं कळत नव्हतं. ते त्यांच्याच भाषेत संवाद साधण्याचा प्रयत्न करत होते. पण गंमत सांगते,भाषेपेक्षाही मुद्राभिनयाने, हातवारे, ओठांच्या हालचालीवरूनही प्रभावी संवाद घडू शकतो याचा एक गमतीदार अनुभवच आम्ही घेतला.

सहज आठवलं ,पु.ल.  जेव्हा फ्रान्सला गेले होते तेव्हा दुधाच्या मागणीसाठी त्यांनी शेवटचा पर्याय म्हणून कागदावर चक्क एका गाईचे चित्रच काढून दाखवलं होतं. तसाच काहीसा प्रकार आम्ही येथे अनुभवला. 

बाली भाषेतले काही शब्द शिकण्याचा खूप प्रयत्न केला पण लक्षात राहिला तो एकच शब्द सुसु.

बाली भाषेत दुधाला सुसू म्हणतात. 

पण त्यांनीही आपले ,’नमस्कार, शुभ प्रभात, कसके पकडो वगैरे आत्मसात केलेले शब्द, वाक्यं, त्यांच्या पद्धतीच्या उच्चारात बोलून दाखवले. माणसाने माणसाशी जोडण्याचा खरोखरच तो एक भावनिक क्षण होता!

या भाषांच्या देवघेवीत आमचा वेळ अत्यंत मजेत मात्र गेला आणि त्यांच्या प्रयत्नपूर्वक मोडक्या तोडक्या  इंग्लिश भाषेद्वारे बाली विषयी काही अधिक माहितीही मिळाली.

राजा केसरीवर्माने या बेटाचे नाव बाली असे ठेवले.

बाली या शब्दाचा अर्थ त्याग.

बाली या शब्दाचे मूळ, संस्कृत भाषेत आहे आणि या शब्दाचा सामर्थ्य, शक्ती हाही एक अर्थ आहे.आणि तो अधिक बरोबर वाटतो.

आणखी एक गमतीदार अर्थ त्यांनी असा सांगितला की बाली म्हणजे बाळ.  बालकाच्या सहवासात जसा स्वर्गीय आनंद मिळतो तसेच स्वर्गसुख या बाली बेटावर लाभते.

बाली बेटावरच्या स्वर्ग सुखाची कल्पना मात्र अजिबात अवास्तव नव्हतीा हे मात्र खरं!!

संध्याकाळी कर्मा ग्रुप तर्फे झिंबरान बीच रिसॉर्टवर आम्हाला कॉम्प्लिमेंटरी डिनर होते.जाण्या येण्यासाठी त्यांच्या गाड्या होत्या.

संगीत ,जलपान आणि गरमागरम पदार्थांची रेलचेल होती.वातावरणात प्रचंड मुक्तता होती. खाणे पिणे आणि संगीत ,सोबत तालबद्ध संगीतावर जमेल तसे केवळ नाचणे.  थोडक्यात वातावरणात फक्त आनंद आणि आनंदच होता आणि या आनंदाचे डोही आम्हीही अगदी आनंदे डुंबत  होतो.LIVE AND LET LIVE.

बाॅबी मॅक फेरीनच्या गाण्यातली ओळ ओठी आली..

 DONT WORRY BE HAPPY

OOH OH OH

– क्रमश: भाग सहावा 

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ “चला बालीला…” – भाग – ५ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

☆ “चला बालीला…” – भाग – ५ ☆ सौ राधिका भांडारकर 

चांडी सार पासून सानुर एक दीड तासावरच आहे.(by road)  बॅगा पॅक करून, भरपेट नाश्ता करून आम्ही निघालो. दोन निळ्या रंगाच्या स्वच्छ आणि आरामदायी टॅक्सीज आमच्यासाठी हजरच होत्या ऐटदार गणवेशातले हसतमुख ड्रायव्हर्स  आमच्यासाठी स्वागताला उभे  होते. दीड दोन तासातच आम्ही आमच्या कर्मा रॉयल सानुर रिसॉर्टला पोहोचलो.  पुन्हा एक सुंदर अद्ययावत सुविधांचा बंगला.  सभोवताली आल्हाददायी रोपवाटिका आणि जलतरण तलाव. इथे एक आवर्जून सांगावसं वाटतं की प्रत्येक शयनगृहात शयनमंचावर चाफ्याची फुले पसरलेली होती आणि हिरव्या पानांच्या कलात्मक रचनेत वेलकम असे लिहिले होते. मन छान गुलाबी होउन गेले हो!

वातावरणात काहीशी उष्णता आणि दमटपणा असला तरी थकवा मात्र जाणवत नव्हता. मन ताजे प्रफुल्लित होते. एका वेगळ्याच सुगंधी, मधुर आणि थंड पेयाने आमचे शीतल स्वागतही झाले. प्रत्येक टप्प्याटप्प्यावर आम्ही ८० च्या उंबरठ्यावरचे सहा जण नकळतच वय विसरत होतो हे मात्र खरे.

इथे आम्ही फक्त एकच दिवस थांबणार होतो.

संध्याकाळी जवळच असलेल्या सिंधू बीचवर जायचे आम्ही ठरवले. इथल्या अनेक दुकानांची नावे, समुद्रकिनार्‍यांची नावे, अगदी माणसांची विशेषनामेही  संस्कृत भाषेतील आहेत.  पुराणातल्या व्यक्तींची नावे आहेत.  जरी बालीनीज लिपीतल्या पाट्या वाचता येत नसल्या तरी इंग्लिश भाषांतरातील भगवान, कृष्णा, महादेव सिंधू अशी नावे कळत होती.नावात काय आहे आपण म्हणतो पण परदेशी गेल्यावर आपल्या भाषेतलं नाव आपुलकीचं नातं लगेच जोडतं.

संध्याकाळी बीचवर फिरायचे व तिथेच रेस्टॉरंट मध्ये स्थानिक खाद्यपदार्थांचा आस्वाद घ्यायचा आम्ही ठरवले. हा समुद्रकिनारा काहीसा चौपाटी सदृश होता. पर्यटकांची गर्दी होती. फारशी स्वच्छता ही नव्हती. फेरीवाले, किनाऱ्यावरची दुकाने ,हॉटेल्स यामुळे या परिसरात गजबज आणि काहीसा व्यापारी स्पर्श होता.  पण बाली बेट हे खास सहल प्रेमींसाठीच असल्यामुळे वातावरणात मात्र मौज मजा आनंद होता.  तिथे चालताना मला पालघरच्या केळवा बीचची आठवण झाली. रोजच्या कमाईवर उदरनिर्वाह करणारी गरीब विक्रेती माणसं, यात अधिक तर स्त्रियाच होत्या.  इथे भाजलेली कणसे आणि शहाळी पिण्याचा काहीसा ग्रामीण आनंद आम्ही लुटला. पदार्थ ओळखीचे जरी असले तरी चावीमध्ये बदल का जाणवतो? इथले मीठ तिखट, आपले मीठ तिखट हे वेगळे असते का? की जमीन, पाणी, अक्षांश रेखांश या भौगोलिक घटकांचा परिणाम असतो? देशाटन करताना या अनुभवांची खरोखरच मजा येते.

इथल्या फेरीवाल्यांकडे आम्ही अगदी निराळीच कधी न पाहिलेली न खाल्लेली अशी स्थानिक फळे ही  चाखली. मॅंगो स्टीन नावाचे वरून लाल टरफल असलेले टणक फळ फारच रसाळ आणि मधुर होतं .फोडल्यावर आत मध्ये लसणाच्या पाकळ्यासारखे छोटे गर होते. काहीसं किचकट असलं तरी हे स्थानिक फळ आम्हाला खूपच आवडलं. 

बालीमध्ये भरपूर फळे मिळतात.  अननस, पपनस, पपया, फणस, आंबे पेरू या व्यतिरिक्त इथली दुरियन (काटेरी फणसासारखं पण लहान ), लाल रंगाचं केसाळ मधुर चवीचं राम्बुबुटन,टणक  टरफल फोडून आत काहीसा करकरीत सफरचंदासारखा गर असलेले सालक.. असा बालीचा  रानमेवा खाऊन आम्ही तृप्त झालो. 

 पाणी प्यावं बारा गावचं, चाखावा रानमेवा देशोदेशीचा—— असंच म्हणेन मी.

सी फुड साठी प्रसिद्ध असलेलं हे बाली बेट.  शाकाहारी लोकांसाठी भरपूर पर्याय असले तरी मासे प्रेमी लोकांसाठी मात्र येथे खासच मेजवानी असते असे म्हटले तर ते चुकीचे नाही.

समुद्रकिनाऱ्यावर आम्ही असे खात पीत भरपूर भटकलो. सहा म्हातारे तरुण तुर्क!  

आता आम्हाला  स्थानिक मासे खाण्याचा आनंद लुटायचा होता. मेरीनो नावाचे एक बालीयन रेस्टॉरंट आम्हाला आवडले.  किनाऱ्यावरचे सहा जणांचे टेबल आम्ही सुरक्षित केले. कसलीच घाई नव्हती. आरामशीर मासळी भोजनाचा आनंद लुटायचा हेच आमचे ध्येय होते. सारेच स्वप्नवत होते. समुद्राची गाज ,डोक्यावर ढगाळलेलं आकाश आणि टेबलावर मस्त तळलेले खमंग चमचमीत ग्रेव्हीतले मोठे झिंगे( प्राॅन्स) , टुना मासा आणि इथला प्रसिद्ध बारा मुंडी मासा. सोबतीला सुगंधी गरम आणि नरम वाफाळलेला भात आणि हो.. सोनेरी जलपानही. रसनेला आणखी काय हवे हो? गोड गोजीर्‍या बालीयन लेकी आम्हाला अगदी प्रेमाने वाढत होत्या! बाळपणीच्या, तरुणपणीच्या आठवणीत रमत आम्ही सारे तृप्तीचा ढेकर देत फस्त केले.  वृद्धत्वातही शैशवाला जपण्याचा अनुभव अविस्मरणीय होता. नंतर पावसाच्या सरी बरसु लागल्या. भिजतच आम्ही मुख्य रस्त्यावर आलो आणि टॅक्सी करून रिसॉर्टवर परतलो. जेवणाचे बिल अडीच लाख आयडिआर, आणि टॅक्सीचे बिल तीस हजार आयडिआर. धडाधड नोटा मोजताना आम्हाला खूपच मजा वाटायची.

आता आमच्या सहलीचे तीनच दिवस उरलेले होते आणि या पुढच्या तीन दिवसाचा आमचा मुक्काम कर्मा कंदारा येथे होता. कंदारा मधली  कर्मा ग्रुपची ही प्रॉपर्टी केवळ रमणीय होती. निसर्ग, भूभागाची नैसर्गिक उंच सखलता, चढ-उतार जसेच्या तसे जपून इथे जवळजवळ ७० बंगले बांधलेले आहेत. आमचा ६७ नंबरचा बंगला फारच सुंदर होता.आरामदायी, सुरेख डेकाॅर, सुविधायुक्त, खाजगी जलतरण तलाव, खुल्या आकाशाखाली ध्यानाची केलेली व्यवस्था वगैरे सगळं मनाला प्रफुल्लित करणार होतं. रिसेप्शन काउंटर पासून आमचा बंगला काहीसा दूर होता. पण इकडून तिकडे जायला बग्या होत्या.  एकंदरीत इथली सेवेतली तत्परता अनुभवताना समाधान वाटत होते. बारीक डोळ्यांची गोबर्‍या गालांची, चपट्या नाकांची, ठेंगणी गुटगुटीत बाली माणसं आणि त्यांची कार्यक्षमता प्रशंसनीय होती. त्यांच्या बोलण्या वागण्यात एक प्रकारचा उबदारपणा होता.  वास्तविक फारसे उद्योगधंदे नसलेला हा प्रदेश. शेती, मच्छीमारी या व्यतिरिक्त पर्यटन हाच त्यांचा मुख्य व्यवसाय.  त्यांचे सारे जीवन हे देशोदेशाहून येणाऱ्या पर्यटकांवरच अवलंबून. त्यामुळे पर्यटकांना जास्तीत जास्त कसे खूश ठेवता येईल  यावरच त्यांचा भर असावा.

यानिमित्ताने दक्षिण पूर्व आशिया खंडातल्या इंडोनेशियाबद्दलही माहिती मिळत होती. इथल्या बाली  बेटावर आमचं सध्याचं वास्तव्य होतं. मात्र जकार्ता राजधानी असलेला  इंडोनेशिया म्हणजे जवळजवळ १७००० बेटांचा समूह हिंदी आणि पॅसिफिक महासागरात पसरलेला आहे. हिंदू आणि बुद्ध धर्माचे वर्चस्व असले तरी ८७ टक्के लोक मुस्लिम आहेत. जवळजवळ तीन शतके इथे डच्यांचे राज्य होते. १७ ऑगस्ट १९४५ साली नेदरलँड पासून ते स्वतंत्र झाले आणि प्रेसिडेन्शिअल युनिटरी स्टेट ऑफ द रिपब्लिक ऑफ इंडोनेशिया म्हणून ओळखले जाऊ लागले जगातली तिसरी मोठी लोकशाही येथे आहे २००४  पासून जोकोविडो हे इंडोनेशियाचे अध्यक्ष आहेत. अनेक नैसर्गिक आपत्ती, भौगोलिक विषमता, जात, धर्म भाषेतील अनेकता सांभाळत इंडोनेशियाची इकॉनॉमी ही जगात सतराव्या नंबर वर आहे. 

इथल्या वास्तव्यातलं आमचं आजचं प्रमुख आकर्षण होतं ते म्हणजे बाली फायर डान्स . अग्नी नृत्य.  याविषयी आपण पुढच्या भागात वाचूया.

 – क्रमशः भाग पाचवा  

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-१२ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-१२ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

(षोडशी शिलॉन्ग)

प्रिय पाठकगण,

आपको विनम्र होकर अन्तिम बार कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)

मित्रों, हमने पिछले भाग में शिलॉन्ग की यात्रा की। परंतु सफर कोई भी हो, शॉपिंग किये बगैर वह पूर्णत्व प्राप्त नहीं कर सकती। हर स्थान पर कुछ न कुछ विशिष्ट चीजें होती हैं ही, उनकी खोज बीन कहाँ और कैसे करना है इसका जन्मजात ज्ञान महिला मण्डली को बिलकुल होता ही है| इसलिए पुरुषमंडली को अब लम्बी लम्बी दूरियाँ काटना और शॉपिंग की बैग उठाना, इन गतिविधियों के लिए मानसिक एवं शारीरिक रूप से तैय्यारी करते हुए सजग रहना है| 

शॉपिंग

डॉन बॉस्को संग्रहालय के भीतर एक दुकान है, वहां मेघालय की स्मरणिका के रूप में काफी कुछ खरीदा जा सकता है| ग्राहकों के लिए इस दुकान में बजट के अनुसार बांस, बेंत की चीज़ें, स्वेटर, शॉल और अन्य बहुत सारी वस्तुएं उपलब्ध हैं! हमने यहाँ बहुत सारी चीजें खरीदीं| परन्तु यहाँ का मुख्य सस्ता और मनभाया बाज़ार है पोलिसबाज़ार! शहर के बीचोंबीच भरनेवाला यह बाजार हमेशा भीड़-भाड़ से भरा होता है! फुटपाथ पर लगी ज्यादातर दुकानें स्वयंसिध्दा स्त्रियां ही चलाती हैं| अत्यंत सक्षम, आत्मविश्वास से समृद्ध परन्तु मृदुभाषी ऐसी विविध आयु की स्त्रियों को देखकर मुझे विलक्षण आश्चर्य मिश्रित कौतुहल हुआ| मित्रों, आपको फिर एक बार याद दिलाती हूँ, इस स्त्री-सक्षमता के दो प्रमुख कारण हैं, आर्थिक स्वातंत्र्य और साक्षरता! यहाँ की लड़कियों को “चिंकी” इस नाम से चिढ़ाने वाले लोगोंने यहाँ प्रत्यक्ष आकर देखना चाहिए और आत्मचिंतन करते हुए खुद को प्रश्न पूछना चाहिए कि, प्रत्येक क्षेत्र में यहाँ की स्त्रियां अव्वल क्यों हैं? यहाँ बार्गेनिंग करने की काफी कुछ गुंजाईश है, इसलिए महिलावर्ग शॉपिंग के मनमाफिक आनंद का उपभोग ले सकती हैं! शॉपिंग करने पर थकावट आयी हो तो एक बढ़िया कॅफे और बेकरी है(Latte love cafe), वहां sangeet sunte hue आराम से बैठिये और क्षुधाशांति कीजिये! हमने यहाँ के पोलीस बाजार में बहुत खरीददारी की, कपडे, स्वेटर, शॉल, बेंत की चीज़ें और बहुत कुछ!

अब मैं ऐसे दो रेस्तरां के बारे में बताती हूँ, जो मुझे भाए थे| एक था डॉकी से सोहरा के प्रवास में खोजा हुआ, खाना और नाश्ता इत्यादि के लिए काफी चॉईस था, साथ ही प्राकृतिक तथा स्वच्छ वातावरण और बहुत ही अदब से पेश आने वाला हॉटेल स्टाफ! रेस्तरां का नाम था ‘Ka Bri War Resort’| दूसरा था सोहरा (चेरापुंजी) का प्रसिद्ध रेस्तरां, ‘Orange Roots’| यह पर्यटकों का पसंदीदा रेस्तरां है| यहाँ हमेशा ही भीड़ लगी रहती है, बाहर ही प्रवेशद्वार से सटे हुए एक ब्लैकबोर्ड पर लिखा हुआ मेन्यू पढ़ लीजिये और ऑर्डर देकर ही अंदर जाइये। आप कहाँ बैठे है, इसकी जानकारी दरवाजेपर खड़ी रिसेप्शनिस्ट को दे दीजिये! अंदर सर्वत्र स्त्री साम्राज्य, आपके सामने कुछ ही देर में स्वादिष्ट खाना अथवा नाश्ता आ जायेगा| अलावा इसके प्रवेशद्वार के बाहर एक छोटी दूकान भी है, विभिन्न स्वाद वाली चाय (पाउडर और पत्ती), मसाले (ज्यादातर कलमी) और अन्य सामान यहाँ उपलब्ध है।

शिलॉन्ग के निवासी होटल 

हमने ‘D Blanche Inn’ इस शिलॉन्ग में स्थित होटल में २ दिन वास्तव्य किया| इस सुन्दर होटल का परिवेश दर्शनीय था। चारों ओर हरियाली और नीले पहाड़ थे और होटल परिसर में खूबसूरत वृक्षलताएँ और फूल खिले थे। होटल साफ सुथरा और सुख सुविधाओंसे परिपूर्ण था। खाना और नाश्ता उपलब्ध था | दूसरा था ‘La Chumiere’ गेस्ट हाऊस, पुराने ज़माने के किसी धनी व्यक्ति के विशाल दो मंजिला बंगले को अब गेस्ट हाउस में परिवर्तित कर दिया गया है! बंगले के कमरे बड़े और सुख सुविधायुक्त हैं| बंगले का संपूर्ण परिसर हरियाली और विभिन्न प्रकारके सुंदर और रंगबिरंगे फूलों से सुशोभित है| मैंने यहाँ के बगीचे में आराम से टहलते हुए सुबह चाय का मज़ा लिया| बंगले में ही ऑर्डर देकर खाना और नाश्ता उपलब्ध था, दोनों ही बहुत स्वादिष्ट थे| मेरे घर के लोग जब डेविड स्कॉट ट्रेल करने के लिए सुबह ८ से शाम के ५ बजने तक बाहर गए थे, तब मैं इस बंगले में बड़े ही आराम से रिलॅक्स कर रही थी|  

खासी लोगोंकी खास खासी भाषा

मेघालय की तीन जनजातियों की खासी (Khasi), गारो (Garo), जैंतिया (Jaintia) तथा अंग्रेजी ये सरकारमान्य भाषा हैं| खासी भाषा के बारे में हमें सॅक्रेड फॉरेस्ट के गाईड ने बताया कि एक ख्रिश्चन धर्मगुरू ने इस भाषा के लिए 23 अंग्रेजी मूल-अक्षरों का (चित्र दिया है) उपयोग करके खासी भाषा के लिए एक अलग लिपि बनाई! अब यह लिपि खासी भाषा के लिए मेघालय में हर जगह (यहां तक कि स्कूलों और कॉलेजों में भी) प्रयोग की जाती है। इसके अलावा यहां अंग्रेजी का प्रयोग प्रचलित है।

शिलॉन्ग हवाईअड्डा

हमारा अंतिम डेस्टिनेशन शिलॉन्ग हवाईअड्डा (एयर पोर्ट) था, अजय ने हमें वहां छोड़ा| हवाईअड्डे के कोने में मेघालय की संस्कृति दर्शानेवाली छोटी सी सुंदर झोंपड़ी बनाई गयी थी, साथ ही वहां बांस की चीजें रखी थीं, खास फोटो खींचने के लिए! हमने वहां तुरंत फोटो खींचे| हमारा आरक्षण शिल्लोंग से कोलकोता तथा वहां से मुंबई ऐसे दो हवाईजहाजों का था| यहाँ से इंडिगो एअरलाईन्स का हवाईजहाज दोपहर ४ बजे जाने वाला था, परन्तु ४.४५ बजे ज्ञात हुआ कि गहरे कोहरे के कारण या वह यहाँ नहीं उतर पायेगा| हम उदास और हताश थे, तभी इंडिगो के स्टाफ ने हमें बुलाया और बताया “हम आप लोगों के लिए गुवाहाटी से दिल्ली या कोलकोता और आगे मुंबई ऐसे २ हवाईजहाजों में आप के सफर की व्यवस्था करेंगे”| हम तुरंत ही उनकी सूचना का पालन करते हुए उनकी ही कॅब से गुवाहाटी हवाईअड्डे पर पहुंचे (लगभग ३ घंटों में ११० किलोमीटर) और अंत में गुवाहाटी से दिल्ली और दिल्ली से मुंबई ऐसे रात्रि १० बजे पहुँचने की बजाय दूसरे दिन सुबह ६ बजे घर पहुंचे| हमें जरूर असुविधा हुई, परन्तु मैं इंडिगो एअर लाईन्स के स्टाफ की आभारी हूँ, उन्होंने अत्यंत तत्परता से, खुद होकर हमारा यह पूरा सफर निःशुल्क उपलब्ध किया| हम गुवाहाटी से मुंबई ऐसा सीधा हवाईजहाज का सफर करते तो शायद बेहतर होता, ऐसा बाद में महसूस हुआ| परन्तु आखिरकार हमारी यह यात्रा भी सफल और संपूर्ण हुई और ११ दिनों के बाद होम स्वीट होम इस प्रकार पुनश्च फिर एक बार मुझे मेरे ही घर से नए सिरे से नयी नयी प्रीत हुई|

हमने मेघालय का थोडा ही (बहुतांश उत्तर की ओर का) भाग देखा, परन्तु संपूर्ण समाहित हो कर! इसका अधिकांश श्रेय मैं मेरे जमाई उज्ज्वल (बॅनर्जी) और मेरी पोती अनुभूती के नियोजन को (इसमें होम स्टे और गेस्ट हाऊस में बड़ा मज़ा आया, साथ ही उपलब्ध समय में अच्छे स्पॉट्स देखे) और साथ ही मेरी बेटी आरती को दूंगी| जाते हुए मेरे मन में दुविधा थी कि यह सफर मैं कर पाऊँगी या नहीं, लेकिन इन तीनों ने मुझे इतना संभाला, मैं तो कहूँगी, कदम कदम पर! इसीलिये मेघालय मुझे इतना जँचा और इतना भाया| अर्थात अपने इतने निकटस्थ व्यक्तियों के प्रति आभार प्रकट कैसे और क्यों करना, इस दुविधा में हम अक्सर वह करते ही नहीं, परन्तु मैं इन तीनों का बहुत शुक्रिया अदा करती हूँ! यहीं सच है क्यों कि, यह मेरे दिल के अंदर की आवाज़ है!!!

प्रिय पाठक गण, मेघालय के ११ दिनों की यात्रा का वर्णन इतना लम्बा होगा और उसके १२ भाग लिखूँगी ऐसा मैंने सपने में भी सोचा नहीं था| परन्तु अब इस यात्रा को विराम देनेका समय आ गया है!   

अगली यात्रा के वर्णन का अवसर जब आयेगा तब आपसे अवश्य भेंट होगी, तब तक फ़िलहाल अन्तिम बार खुबलेई! (khublei) यानि खास खासी भाषा में धन्यवाद!)

प्रिय मित्रों, मेरी मेघालय यात्रा की श्रंखला के सब भाग आप तक पहुँचाने वाले ‘www.e-abhivyakti.com’ के प्रमुख सम्पादक श्री हेमंत बावनकर तथा उनकी टीम का दिल से शुक्रिया अदा करती हूँ ! 

टिप्पणी

*लेख में दी जानकारी लेखिका के अनुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| यहाँ की तसवीरें (कुछ को छोड़) व्यक्तिगत हैं!

*गाने और विडिओ की लिंक साथ में जोड़ रही हूँ, (लिंक अगर न खुले तो, गाना/ विडिओ के शब्द यू ट्यूब पर डालने पर वे देखे जा सकते हैं|)

खासी, गारो और जैंतिया जनजातियों का फ्यूजन नृत्य

What A Wonder #Meghalaya | Meghalaya Tourism Official

*** इस संपूर्ण प्रस्तुति में समावेश किये चित्र एवं गानों की लिंक केवल अभ्यास मात्र तक ही सीमित हैं|     

© डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मनोवेधक मेघालय…भाग – १० ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

? मी प्रवासिनी ?

☆ मनोवेधक  मेघालय…भाग – १० ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

(षोडशी शिलॉन्ग)

प्रिय वाचकांनो,

आपल्याला लवून अखेरचा कुमनो! (मेघालयच्या खास खासी भाषेत नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कसे आहात आपण?)

मंडळी, आपण मागील भागांत शिलॉन्गची सफर केली. पण सफर कुठलीही का असेना, शॉपिंग केल्याशिवाय ती पूर्णत्वाला येतच नाही. प्रत्येक ठिकाणी कांही ना कांही विशिष्ट वस्तू असतातच, त्यांचा शोध कुठे आणि कसा घ्यायचा याचे उपजत ज्ञान महिलावर्गाला असतेच असते. तेव्हां पुरुषमंडळींनी लांबलचक पायपीट करणे आणि ब्यागा उचलणे या गोष्टींची मानसिक आणि शारीरिक तयारी करून सिद्ध व्हावे!

शॉपिंग

डॉन बॉस्को संग्रहालयात एक दुकान आहे, तिथे मेघालयची स्मरणिका म्हणून बऱ्याच गोष्टी घेता येतील. बांबू अन वेताच्या वस्तू, स्वेटर, शाली आणि बरंच कांही असलेल्या या दुकानांत तुमच्या बजेट प्रमाणे तुम्ही वस्तू विकत घेऊ शकता! आम्ही इथे बरीच खरेदी केली. मात्र इथली मुख्य स्वस्त आणि मस्त अशी बाजारपेठ म्हणजे पोलिसबाजार! शहराच्या मधोमध असलेली ही जागा सतत गजबजलेली असते! फुटपाथवर असलेली बहुतेक दुकाने स्वयंसिध्दा स्त्रियाच चालवतात. अत्यंत सक्षम, आत्मविश्वासाने समृद्ध पण मृदुभाषी अशा या विविध वयाच्या स्त्रिया बघून मला खूप अप्रूप वाटले. मित्रांनो परत एकदा आठवण करून देते, या स्त्री सक्षमतेची दोन मुख्य कारणे म्हणजे आर्थिक स्वातंत्र्य आणि साक्षरता! येथील मुलींना “चिंकी” म्हणून हिणवणाऱ्या लोकांनी इथे प्रत्यक्ष भेट द्यावी अन आत्मचिंतन करीत स्वतःलाच प्रश्न विचारावा की, प्रत्येक क्षेत्रात येथील स्त्रिया अव्वल का आहेत? इथे घासाघीस (बार्गेनिंग) करण्यास भरपूर वाव आहे, त्यामुळे महिलावर्गाला शॉपिंगचा मनमुराद आनंद उपभोगता येईल! शॉपिंग करून दमला असाल तर एक देखणे कॅफे आणि बेकरी आहे (Latte love cafe), तिथे  संगीत ऐकत निवांत बसा आणि क्षुधा शांत करा! आम्ही येथील पोलीस बाजारात बरीच खरेदी केली. कपडे, स्वेटर, शाली, वेताच्या वस्तू आणि बरेच काही!

आता मला आवडलेल्या मेघालय येथील दोन रेस्टॉरंटची माहिती देते. एक होते डॉकी ते सोहरा प्रवासात गावलेले. जेवण, नाश्ता इत्यादीकरता भरपूर चॉईस, शिवाय निसर्गरम्य अन स्वच्छ परिसर आणि अतिशय अदबीने वागणारा हॉटेल स्टाफ! रेस्टॉरंटचे नांव होते “Ka Bri War Resort”. दुसरे होते सोहरा (चेरापुंजी) येथील प्रसिद्ध रेस्टॉरंट, “Orange Roots”. हे पर्यटकांचे आवडते रेस्टॉरंट, इथे गर्दी नेहमीचीच, बाहेरच प्रवेशद्वाराजवळ एका काळ्या फळ्यावर लिहिलेला मेन्यू वाचायचा, अन ऑर्डर देऊनच आत शिरायचे. आपण कुठे बसतोय याची माहिती दारातील रिसेप्शनिस्टला दिली की झाले! आत सर्वत्र स्त्रियांचेच साम्राज्य, तुमच्यासमोर काही वेळातच स्वादिष्ट जेवण किंवा नाश्ता येणार. शिवाय प्रवेशद्वाराच्या बाहेर एक छोटे दुकान देखील आहे, विविध चवींचा चहा (पावडर व पत्ती), मसाले (मुखतः कलमी)आणि इतर वस्तू इथे मिळतात.

शिलॉन्ग येथील निवासी हॉटेल्स

आम्ही D Blanche Inn या शिलॉन्ग येथील हॉटेल मध्ये २ दिवस वास्तव्य केले. या टुमदार हॉटेलचा परिसर निसर्गरम्य होता. भोवताली हिरवाई अन निळे डोंगर, तसेच हॉटेलच्या आवारात सुंदर वृक्षवल्ली अन फुलझाडे बहरलेली होती. हॉटेल स्वच्छ अन सुख सुविधांनी परिपूर्ण होते. जेवण आणि नाश्ता उपलब्ध होते. दुसरे होते La Chumiere गेस्ट हाऊस, जुन्या काळचा, कुणा श्रीमंत व्यक्तीचा प्रशस्त दुमजली बंगला आता गेस्ट हाऊस मध्ये परिवर्तित करण्यात आलाय! बंगल्यातील खोल्या मोठ्या अन सुखसोयीयुक्त आहेत. बंगल्याचे संपूर्ण आवार हिरवाई अन विविध प्रकारच्या सुंदर आणि रंगीबेरंगी फुलांनी सुशोभित आहे. मी इथल्या बगीच्यात सकाळी रमतगमत चहा घेतला. बंगल्यातच ऑर्डर देऊन जेवण आणि नाश्ता उपलब्ध होता, दोन्ही अतिशय चविष्ट होते. आमच्या घरची मंडळी जेव्हा डेविड स्कॉट ट्रेल करता सकाळी ८ ते संध्याकाळी ५ पर्यंत बाहेर होती, तेव्हा मी या बंगल्यात निवांतपणे रिलॅक्स करीत होते.

खासी लोकांची खास खासी भाषा

मेघालयातील तीन जनजातींची खासी (Khasi), गारो (Garo), जैंतिया (Jaintia) अन इंग्रजी या सरकारमान्य भाषा आहेत. खासी भाषेविषयी आम्हाला सॅक्रेड फॉरेस्ट येथील गाईडने सांगितले की एका ख्रिश्चन धर्मगुरूने या भाषेकरिता इंग्रजी मुळाक्षरांचा वापर करून खासी भाषेकरता एक स्वतंत्र लिपी तयार केली (चित्र दिले आहे) यात २३ इंग्रजी मुळाक्षरे आहेत! आता खासी भाषेकरिता ही लिपी मेघालयात सर्वत्र (शाळा-कॉलेज मध्ये देखील) वापरली जाते. याशिवाय येथे इंग्रजीचा वापर प्रचलित आहे.

शिलॉन्ग विमानतळ

आमचे अंतिम डेस्टिनेशन शिलॉन्ग विमानतळ होते, अजयने आम्हाला विमानतळावर सोडले. तिथे एका कोपऱ्यात मेघालयची संस्कृती दर्शवणारी छोटीशी सुबक झोपडी बनवलेली होती तसेच बांबूच्या वस्तू ठेवल्या होत्या, खास फोटो काढण्यासाठी! आम्ही तिथे लगेच फोटो काढले. शिलॉंग ते कोलकोता अन तेथून मुंबई अशा २ विमानांचे आमचे आरक्षण होते. येथून इंडिगो एअरलाईन्सचे विमान दुपारी ४ वाजता सुटणार होते, मात्र ४.४५ वाजता कळले की दाट धुक्यामुळे हे विमान इथे येणार नाही, आम्ही विमनस्क आणि हताश होतो, तशातच इंडिगोच्या स्टाफने आम्हाला बोलावले व आम्ही तुमच्यासाठी गुवाहाटी ते दिल्ली किंवा कोलकोता अन पुढे मुंबई अशी २ विमानांत तुमच्या प्रवासाची सोय करू असे सांगितले. आम्ही तडक त्यांच्या सूचना पाळीत त्यांच्याच कॅबने गुवाहाटी विमानतळावर गेलो (सुमारे ३ तासात ११० किलोमीटर) अन अखेर गुवाहाटी ते दिल्ली अन दिल्ली ते मुंबई असे, रात्री १० ला पोचायचे ते दुसऱ्या दिवशी सकाळी ६ ला घरी पोचलो. आमची गैरसोय नक्कीच झाली, मात्र मी इंडिगो एअर लाईन्सच्या स्टाफचे आभार मानते, त्यांनी अत्यंत तत्परतेने स्वतः होऊन आमचा हा सर्व प्रवास निःशुल्क उपलब्ध करून दिला. आम्ही गुवाहाटी ते मुंबई हा सरळ विमानप्रवास करावयास पाहिजे होता असे नंतर वाटले. मात्र शेवटी आमची ही देखील यात्रा सफल आणि संपूर्ण झाली अन ११ दिवसांनी होम स्वीट होम या रीतीने मी पुनश्च एकदा माझ्याच घराच्या प्रेमात (बेडवर) पडले!

आम्ही मेघालयचा थोडाच (बहुतांश उत्तरेकडील) भाग पाहिला, पण संपूर्ण समरस होऊन! याचे बहुतेक श्रेय माझा जावई उज्ज्वल (बॅनर्जी) आणि माझी नात अनुभूती यांच्या नियोजनाला तसेच माझी मुलगी आरती हिला देईन. यात होम स्टे व गेस्टहाऊस ने खूप मजा आणली, तसेच उपलब्ध वेळात चांगले स्पॉट्स बघितलेत. जातांना मी द्विधा मनस्थितीत होते की, मला हा प्रवास झेपेल किंवा नाही, पण या तिघांनी मला खूप सांभाळून घेतलं, मी तर म्हणेन अगदी पावला-पावलाला, अन म्हणूनच मेघालय मला इतके पावले अन भावले. अर्थात आपल्या इतक्या जवळच्या व्यक्तींचे आभार कसे मानायचे म्हणून आपण बहुदा ते करत नाही, पण मी मात्र ते अगदी मनापासून मानते, किंबहुना ते मनाच्या आतल्या हळव्या कोपऱ्यातूनच आलेले आहेत!!!

मंडळी, मेघालयच्या ११ दिवसांच्या प्रवासाचे वर्णन इतके लांबेल आणि त्याचे १० भाग लिहीन असे मला कल्पनेत सुद्धा वाटले नव्हते, मात्र आता या प्रवासाला विराम देण्याची वेळ आली आहे!

पुढील प्रवासवर्णनाचा योग येईल तेव्हा येईल!

खासी, गारो और जैंतिया जनजातियों का फ्यूजन नृत्य

What A Wonder #Meghalaya | Meghalaya Tourism Official

तोपर्यंत सध्यातरी शेवटचे खुबलेई! (khublei) म्हणजेच खास खासी भाषेत धन्यवाद!)

प्रिय मैत्रांनो, माझ्या मेघालय प्रवासाच्या मालिकेचे सर्व भाग तुमच्यापर्यंत पोचवणाऱ्या ‘ई अभिव्यक्ती:मराठी’ चे प्रमुख संपादक श्री हेमंत बावनकर आणि त्यांच्या टीमला मनःपूर्वक धन्यवाद देते!

*लेखात दिलेली माहिती लेखिकेचे अनुभव आणि इंटरनेट वर उपलब्ध माहिती यांच्यावर आधारित आहे. इथले फोटो (काही अपवाद वगळून) व्यक्तिगत आहेत!

* या संपूर्ण सादरीकरणात समाविष्ट केलेली चित्रे व गाण्याची लिंक केवळ अभ्यासापुरतीच मर्यादित आहेत.

– समाप्त –

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ “चला बालीला…” – भाग – ४ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

☆ “चला बालीला…” – भाग – ४ ☆ सौ राधिका भांडारकर 

आमच्या रिसॉर्टला लागूनच समुद्रकिनारा असल्यामुळे आम्ही सकाळी समुद्रावरच फेरफटका मारला. ढगाळ वातावरणामुळे सूर्योदयाचा आनंद मात्र मनासारखा घेता आला नाही.  पण एकंदर सारे सुखद होते.

एक मच्छीमार त्याची छोटीशी नाव समुद्रात ढकलून काहीसा आत जाऊन मासेमारी करत होता. थोड्यावेळाने तो परतला आणि त्याच्या जाळ्यात अडकलेली मासळी तो सोडवू लागला.  किनाऱ्यावर बोट खेचली, तिला उलटी करून त्यातले पाणी रेती उपसले.  पसरलेल्या जाळ्यांची नीट घडी घालून सारे आवरले आणि पकडलेल्या मासळीची थैली घेऊन तो परतला.  संपूर्ण भिजला होता. कमरेला आपल्या कोळ्यांसारखेच घट्ट वस्त्र आणि डोक्यावर आडवी टोकदार टोपी.  एकटाच मन लावून काम करत होता.  कदाचित मिळालेल्या मासळीवरच त्याची आजच्या दिवसाची उपजीविका असेल.  पण तो त्रासलेला, थकलेला वाटला नाही.  कर्तव्यनिष्ठ, जीवनाला सामोरा जाणारा धीट दर्यावर्दीच भासला.  पुन्हा एकदा वाटलं, देश कोणताही असू दे, माणूस भले रंगा रूपाने वेगळा असू दे, पण माणूस हा माणूसच असतो. भाव भावनांचं, जगण्याचं एकच रसायन.  प्रवासामध्ये असे वैचारिक दृष्टिकोन आपोआपच विस्तृत होत जातात.वसुधैव कुटुंबकम*याचा अर्थ कळतो.  एक सांगायचं राहिलंच!  त्या मच्छीमाराच्या टोपलीतले ताजे मासे पाहून आम्हा सगळ्यांनाच त्याच्याकडून एक तरी फ्रेश कॅच घ्यावा आणि मस्त भारतीय पद्धतीने तेलावर परतून खावा असे वाटले.  आम्हाला पाकखाना  व्यवस्था होती.  मात्र तेल, मीठ, तिखट आणावे लागले असते आणि त्यासाठी पुन्हा काही हजार आयडिआर लागले असते! म्हणून ती खमंग, चमचमीत कल्पना नाईलाजाने आम्ही सोडूनच दिली.

बाली इंडोनेशियन बेटावर मुक्तपणे हिंडताना जाणवत होता तो इथला  नयनरम्य निसर्ग !रम्य समुद्रकिनारे. पारंपारिक संस्कृती, सर्जनशीलता, कला, हस्तकला आणि इथल्या स्थानिक लोकांचा अस्सल उबदारपणा. बाली बेटावर फिरत असताना वेगळेपणा जाणवत असला तरी आपण भारतापासून दूर आहोत असे मात्र वाटत नाही. आंबा, केळी, नारळाची झाडे आपल्याला कोकण केरळची आठवण करून देतात.  हिरवीगार भाताची पसरलेली शेतं,  त्यावर अलगद पडलेले सूर्यकिरण आणि वातावरणात दरवळलेला आंबेमोहोराचा सुगंध हा अनुभव केवळ वर्णनातीत. डिसेंबर महिन्यातही आंब्याच्या झुबक्यांनी लगडलेले आम्रवृक्ष पाहताना मन आनंदित होते, थक्क होते.  रस्त्यावर जिकडे तिकडे बहरलेले गुलमोहर भारतातल्या चैत्र वैशाखाची आठवण करून देतात. टवटवीत विविध रंगाच्या बोगन वेली, पांढऱ्या आणि पिवळ्या चाफ्यांनी पानोपानी  बहरलेली झाडं  कॅमेरातली मेमरी संपवतात.  इथली जास्वंदी, एक्झोरा, झेंडू जणू काही  आपल्याशी संवाद साधतात.

“तुम्ही आणि आम्ही एकच आहोत” अशी भावना निर्माण करतात.

रस्त्याच्या कडेला असलेली दुकाने, फळवाले, खाद्यपदार्थांच्या गाड्या पाहताना तर वाटते हे सारं अगदी आपल्या देशातल्या सारखंच आहे.

रस्ते आखीव आणि रुंद असले तरी वाहनांची वर्दळ जाणवते. मात्र एक जाणवतं ते या वर्दळीला असलेली शिस्त.  अजिबात घाई नाही. नियम मोडण्याची वृत्ती नाही, हॉर्नचा कलकलाट, नाही सिग्नलचे इशारे काटेकोरपणे पाळणारा हा ट्रॅफिक मात्र अमेरिकन वाटतो.  चुकारपणे मनात येते हे इंडोनेशियन लोक मुंबई पुण्यात गाडी चालवू शकतील का?

इथली टप्पे असलेली लाल कौलारू घरे लक्षवेधीच आहेत. या घरांची बांधणी काहीशी चिनी, नेपाळी, हिमाचल प्रदेशीय वाटते.  हिंदू मंदिरे जशी आहेत तसेच इथे बौद्धविहारही आहेत. भिंतीवरची रंगीबेरंगी तिबेटियन कलाकारी आणि वास्तुकला इथे पहायला मिळतेच पण वैविध्य व निराळेपण जाणवतं ते चौकाचौकातली  हिंदू पुराणातल्या व्यक्तींची भव्य शिल्पे पाहताना. संगीत आणि नृत्यकलेसाठी हे बेट प्रसिद्ध आहे हे  इथल्या नृत्यांगना, वाद्यं यांची शिल्पं अधोरेखित करतात.  ही रस्त्यावरची शिल्पं अतिशय काळजीपूर्वक सांभाळलेली आहेत. कुठेही धूळ नाही, रंग उडालेले नाहीत.  बालीत हिंडताना नेत्रांना दिसणारा हा नजारा फारच सुखद वाटतो.

शहरीकरण आणि परंपरा यांची सुरेख सरमिसळ इथे आहे. कोकोमार्ट, अल्फा मार्ट सारखी सुपर मार्केट्स, ब्रँडेड दुकाने एकीकडे तर पारंपारिक कला, संस्कृती हिंदू धर्माचे वर्चस्व दाखवणारी मंदिरे आणि विहार, तसेच सर्वत्र पसरलेला अथांग सागर आणि झाडीझुडपातला निसर्ग एकीकडे.  मानवनिर्मित आणि निसर्ग यांची झालेली दोस्ती एक सुंदर संदेश देते.. विकास करा निसर्ग जपा 

चांडीसार मधला आजचा आमचा शेवटचा दिवस होता. दुसऱ्या दिवशी आम्ही सानुरला जाणार होतो.  तत्पूर्वी आमच्या रिसॉर्ट तर्फे समुद्रकिनारी असलेल्या रेस्टॉरंट मध्ये कर्मा सदस्यांना बार्बेक्यू आणि वाईन डिनर होतं. तरुण आणि ज्येष्ठ पर्यटकांसाठी ही एक मनोरंजक भेट(treat) होती. गंमत म्हणजे इथे रात्रीचे भोजनही संध्याकाळी पाच पासूनच सुरू होते आणि आठला संपते.  त्यामुळे आम्ही सकाळचे लंच घेतलेच नाही. या कॉम्प्लिमेंटरी डिनरचा आस्वादच पूर्णपणे घ्यायचा ठरवला आणि तो घेतलाही. समुद्राची गाज, सोबत बालीनियन लोक संगीत.. हेही काहीसे भारतीय संगीताच्या जवळपासचे आणि गरमागरम तंदुरी व्हेज नॉनव्हेज पदार्थ आणि सोबत रेड वाईनचा प्याला.  वाचकहो!  गैरसमज करून घेऊ नका पण अशा वातावरणात जीवन जगण्याचा हलका आणि चौफेर आनंद का घेऊ नये?”थोडासा झूम लो..”

आमच्याबरोबर आमच्यासारखेच सारे तरुण, म्हातारे पर्यटक मस्त रंगीन पणे या सहलीची मौज लुटत होते, वय विसरत होते  हे मात्र नक्की.

 – क्रमशः भाग चौथा 

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-११ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-११ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

(षोडशी शिलॉन्ग)

प्रिय पाठकगण,

आपको हर बार की तरह आज भी विनम्र होकर कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)

प्रिय मित्रों, पिछली बार हमने शिलॉन्गका सफर शुरू किया| अब हम शिलॉन्ग में स्थित कुछ और नयनाभिराम स्थल देखेंगे| तो फिर चलिए, बहुत देर तक चलने की तैयारी करें!

एलिफेंट जलप्रपात (Elephant falls)

शिलॉन्ग के उत्तर भाग में एक अन्य सर्वांगसुंदर ऐसा स्थान है, जो कि पर्यटकों ने देखना ही चाहिए, ऐसा एलिफेंट फॉल! इस जलप्रपात के निकट हाथी के आकार की एक विशाल चट्टान थी, इसलिए ब्रिटिशों ने इसका नाम रखा एलिफेंट फॉल| परन्तु अब इस निर्झर के पास वह कुंजर सम महाकाय चट्टान नहीं रहा क्योंकि, १८९७ के भूकंप में वह नष्ट हो गया| लेकिन उसका नामकरण जिस नाम से हुआ, वहीं नाम आज भी प्रचलित है! शहर के मध्य से ११ किलोमीटर अंतर पर स्थित यह त्रिस्तरीय जलप्रपात (यह जलप्रपात तीन चरणों में गिरता है) देखने हेतु वर्षा ऋतू में जाना बेहतर है, श्वेत दुग्ध जैसी सैकड़ों फेनिल धाराओं की लयबद्ध सप्तसुरों से पूरे क्षेत्र को निनादित कर देने वाले इस जलप्रपात का प्राकृतिक रमणीय दर्शन मंत्रमुग्ध कर देने वाला है। एक बार देखने पर दृष्टि हटती ही नहीं| अगर वर्षा ऋतू में जा रहे हैं, तो सीढ़ियों की उतरन ध्यानपूर्वक सम्हालते हुए एक स्तर देखिये, आँखों में समा जाये तो, नीचे उतरिये, दूसरा स्तर देखिये, फिर एक बार नीचे सीढ़ियों की उतरन, और सबसे गहरा तीसरा स्तर, जल का प्रवाह नीचे की ढलान में प्रवाहित होते हुए देखिए। सबसे नीचे इस मनोहरी तथा रमणीय नीलजलप्रपात का एकत्रित जल एक छोटेसे तालाब में समाहित होता है| तालाब के चारों ओर सदाहरित वनसम्पदा सदैव साथ में ही होती है! मित्रों, अब अगला कार्य कठिन ही समझिये, क्योंकि अब सीढ़ियां जो चढ़नी हैं! केवल निर्झर का ही नहीं बल्कि, उसे अनायास बाहुपाश में लेनेवाली नित्यहरित हरियाली का भी मनभावन दर्शन करते चलिए! खिलखिलाता हुआ यह झरना और उससे सटी, साथ देती हुई गहन हरीभरी पर्वतश्रृंखला! यह नेत्रदीपक और ‘पिक्चर परफेक्ट’ दृश्य नेत्रों और कैमरा में कैद कर लीजिये! ऐसा अभूतपूर्व दृश्य देखने के लिए शिलॉन्ग में पर्यटकों की भीड़ बड़ी संख्या में इकठ्ठी हो जाती है, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है!

डॉन बॉस्को संग्रहालय (Don Bosco Museum)

यह संग्रहालय शिलॉन्ग शहर के मध्यबिंदू से ५ किलोमीटर अंतर पर सेक्रेड हार्ट चर्च के विस्तृत परिसर में स्थित है| कलासक्त, इतिहास प्रेमी, नावीन्य की नयी मार्गिका खोजने वाले, मेघालय की संस्कृति के बारे में जानने के लिए उत्सुक, इन सभी प्रकार के युवा और वृद्ध पर्यटकों का इस भवन में प्रेम से स्वागत किया जाता है। प्रारम्भ में ही एक पथदर्शक हमें इस संग्रहालय में ७ मंजिलों में स्थित विविध बड़े कमरों (दर्शक दीर्घाओं) के बारे में संक्षिप्त जानकारी देता हैं| परन्तु बाहर खड़े होकर इस भव्य-दिव्य संग्रहालय की रत्ती भर भी कल्पना नहीं की जा सकती| इस विशाल ७ मंजली इमारत में सत्रह अलग-अलग सुरम्य दर्शक दीर्घाएँ हैं! इसमें क्या नहीं है यह पूछिए! कला भवन (आर्ट गॅलरी), हस्तकला, कलावस्तू, पोशाक, गहने और ईशान्य भारत के विविध जनजातियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले हथियारों का एक विस्तृत संग्रह यहां भर भर कर रखा गया है। संपूर्ण ईशान्य भारत के विहंगम दृश्यों की एकत्रित रम्य दर्शिका एक ही स्थान पर साध कर रखी है इस दर्शनीय संग्रहालय में!

यहाँ इतना कुछ देखने लायक है, कि पर्यटकों का संपूर्ण संतुष्ट होना काफी मुश्किल है! यह सब देखने के लिए एक पूरा दिन भी कम ही होगा! कितना कुछ नजरों में समाहित करें और फोटो भी कितने खींचें! “कुछ तो बाकी रह गया”, हमारी ऐसी अवस्था प्रत्येक मंजिल पर हो जाती है| इसीलिये अगर समय की कमी है तो, आप ब्रोशर को ध्यान से देखकर अपनी पसंद की मंजिलों का चयन कीजिये और जब तक संतुष्ट न हों तब तक उन्हें शांति से देखें। मैंने अपनी पसन्दानुरूप ‘आर्ट गॅलरी’ में मनमाफिक आनंदपूर्वक समय बिताया! इस इमारत का सबसे रोमांचक बिंदु निश्चित रूप से ७ वीं (शीर्ष/ऊपर वाली) मंजिल है “स्काय वॉक”| हम जब वहां पहुँचे तब थोड़े समय पहले बारिश आ चुकी थी, इसलिए मार्ग थोडासा फिसलन भरा था, यहाँ गोल गुम्बद के चारों ओर घूमकर शिलॉन्ग का मनमोहक नज़ारा देखना एक चरम मनोज्ञ अनुभव है। क्या देखना है, उस खास बिंदु पर लिखा है ही, अलावा इसके फोटो खींचना तो अनिवार्य है ही, परन्तु प्रिय मित्रों, सेल्फी लेते वक्त सावधानी बरतें! चौथी मंज़िल पर एक बढ़िया कॅफे है! उसीके बगल में ईशान्य भारत का ख़ूबसूरत दर्शन कराने वाली फिल्म एक छोटेसे सिनेमाघर में अवश्य ही देखना चाहिए। संक्षेप में बताऊँ तो यह भव्य दिव्य संग्रहालय ईशान्य भारत की सांस्कृतिक सम्पन्नता को दर्शाने वाली एक रेखात्मक चित्र-गैलरी ही समझ लीजिये!

कॅथेड्रल ऑफ मेरी हेल्प ऑफ ख्रिश्चनस

शिलॉन्ग में स्थित यह चर्च कॅथोलिक आर्कडिओसीस का कॅथेड्रल और शिलाँग के मेट्रोपॉलिटन आर्चबिशप के आसन के रूप में प्रसिद्ध है| शहर के मध्य बिंदु से केवल २ किलोमीटर दूर यह चर्च पर्यटकों की बहुत ही पसंदीदा जगह है| लगभग ५० वर्ष पूर्व निर्मित यह कॅथेड्रल शिलॉन्ग आर्कडिओसेस के साढे तीन लाख से भी अधिक कॅथलिक लोगों का मुख्य प्रार्थनास्थल है| उसमें पूर्व खासी हिल्स और री-भोई जिलों का भी समावेश है (कुल ३५ चर्च)| यह चर्च Laitumkhrah इस भाग में है| इस चर्च का नाम येशू के Mary the mother के नाम के पर दिया गया है| मदर मेरी के पुतले सहित यह शुभ्र धवल  संगमरमर की इमारत अति भव्य और शोभायमान दिखती है| इस चर्च की खासियत है ऊँची कमानें (मेहराब) और बेहतरीन रंगों से सुशोभित कांच की खिड़कियां! कॅथेड्रल के अंदर क्रॉस की कुछ सुंदर टेराकोटा स्टेशन्स हैं, जो येशू के जीवन की घटनाएं दर्शाती हैं| इस भाग में प्रमुख रूप से येशू ख्रिस्त की यातनाएं और मृत्यूविषयक चित्रों के दर्शन होते हैं| ये चित्र जर्मनी की एक कला संस्था ने तैयार किये हैं| साथ ही यहाँ पवित्र शास्त्र और संतों के जीवन के दृश्य चित्रित किये गए हैं| फ्रान्स में १९४७ साल में तैयार किये गए शीशे के अप्रतिम रंगीन दरवाजे इस चर्च की एक और विशेषता है! मुख्य वेदी के सामने बाँयी ओर शिलॉन्ग के पहले मुख्य बिशप ह्युबर्ट डी’रोसारियो की कब्र है| कब्र के आगे और मेरी तथा बाल येशू के पुतले के सामने एक और वेदी है| यहाँ के पवित्र वातावरण में कुछ समय शांति से बैठने का मन जरूर करता है! यहाँ हर महीने में नौ दिन विशेष भक्ति की जाती है| ऊँची पहाड़ी पर स्थित और वहीं उकेरा गया है ग्रोटो चर्च, जो कॅथेड्रल के ठीक नीचे स्थित है, हम इस ग्रोटो चर्च को भी भेंट दे सकते हैं|

वॉर्ड्’स लेक (Ward’s Lake)

यह सुंदर मानवनिर्मित तालाब शहर के मध्यभाग में राजभवन के निकट स्थित है| आसपास रम्य उपवन होने के कारण इस तालाब का परिसर सदैव छोटे बड़े लोगों से भरपूर भरा होता है| यहाँ का एक आकर्षण है, स्वचलित विभिन्न आकारों की नौकायन नौकाएँ। पैरों की मदद लेकर आराम से नियंत्रित की जाने वाली इन नौकाओं में सुख चैन से विहार कीजिये, साथ ही हरीभरी वृक्षलताओं का दर्शन करते करते नौकायन करते रहिये| तालाब के ऊपर इस पार्क तथा बोटॅनिकल गार्डन को जोड़ने वाला पुल है, इसके नीचे से नौका आगे ले जाएँ| इस तालाब में बगुलों की श्वेत पंक्तियाँ तैरती रहती हैं| नौका के निकट आते ही वें बिखर जाती हैं| सूरज के ढ़लते ही नौकायन बंद होता है, उसके बाद ही उनका संपूर्ण तालाब में स्वच्छंद विहार आरम्भ होता है! कुल मिलाकर यहीं सच है कि, कोई भी जानवर या पक्षी इंसानों पर भरोसा नहीं करता! नौकायन का आनंद उपभोगने के बाद इस तालाब के चारों ओर फैले उपवन की पगडंडियों पर बढ़िया चहलकदमी या सिर्फ रिलैक्स करने का भी मज़ा उठाइये। प्राकृतिक परिवेश और अत्यधिक साफ-सफाई इस पार्क को अवश्य ही देखने लायक बनाती है!

थंगराज गार्डन

यह विशाल उपवन भी बहुत सुरम्य है| विविध प्रकार के पेड़पौधों और फूलों की क्यारियों से फूला, प्राकृतिक सौंदर्य से अभीभूत या स्थान सचमुच ही देखने लायक है| अंदर प्रवेश करते ही क्या देखना चाहिए, इसका मार्गदर्शक बोर्ड नजर आता है| गार्डन में टहलते हुए आप देखेंगे कि, विशिष्ट स्थान पर स्थित वृक्षलताओं की जानकारी देने वाले बोर्ड हर जगह दिखाई देते हैं। उपवन को घेरा डालने वाली पगडंडियां और उनका बाड़(compound), नीचे नजर डालेंगे तो शिलॉन्ग का विहंगम नजारा देखते ही बनता है| सीढ़ियां चढ़नेपर विविध रंगों की वृक्षराजी दृष्टिगत होती है| यहाँ फोटो खींचने लायक बहुतसी सिनेमास्कोप जगहें हैं, साथ ही अंदर शीशे के घर में एक सुंदर नर्सरी (ग्रीनहाऊस) है!

प्रिय मित्रों, हमने आराम से चहलकदमी करते हुए शिलाँग का अद्भुत सफर किया| अभी भी ‘मुझे कुछ कहना है’| वह हम अगले अर्थात अन्तिम भाग में जानेंगे| फ़िलहाल कलम को विराम देती हूँ!

खुबलेई! (khublei) (यानि खास खासी भाषा में धन्यवाद!)

टिप्पणी – 

*लेख में दी जानकारी लेखिका के अनुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| यहाँ की तसवीरें व्यक्तिगत हैं!

*गाने और विडिओ की लिंक साथ में जोड़ रही हूँ| (लिंक अगर न खुले तो, गाना/ विडिओ के शब्द यू ट्यूब पर डालने पर वे देखे जा सकते हैं|)

Shillong city |Capital of Meghalaya | Informative Video

 

PYNNEH LA RITI || by kheinkor composed by apkyrmenskhem

© डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print