हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ कविता ☆ – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

☆  कविता ☆

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध वरिष्ठ  साहित्यकार  श्री रमेश सैनी जी  की  जी की सार्थक कविता “कविता ”।  कविता के सृजन की पृष्ठभूमि  पर सृजित एक कविता।) 

 

कविता को गढ़ना नहीं पड़ता

कविता रचती है अपने आपको

रचती है अपने समय को

तोड़ती है भ्रम

कवि होनें का

कविता बनाती है, अपना संसार

जिसमें बसती है,असंख्य रचनाये

 

मां ने देखा है

असहनीय दर्द के बाद

पहली बार नर्स की गोद में

अभी- अभी जन्में शिशु को

 

पहली बारिश में भीगते हुए

देखता है,  चुम्बकीय नजरों से

जवान होता हुआ लड़का

सोलह साल की लड़की को

 

जरा सी आहट होने पर

पकड़े जाने के भय से

छुपा लेती है किताब को

जवान लड़की, क़ि कोई

पढ़ न ले छुपा प्रेमपत्र

 

चिड़िया चहक उठती है

चूजे की पहली उड़ान पर

कुहुक उठती है कोयल

आम में जब आते है बौर

 

कविता फूटती है, जब

किसान करता है,  आत्महत्या

मौसम के बेईमान होने पर

 

लड़की मार दी जाती है

करती है,  जब किसी से प्रेम

 

नहीं रोक पाती है, जब कविता

जब रोका जाता है,  किसी को

पानी भरने से

गांव के एकमात्र कुएं से

 

पानी तो पानी,पर उसमें भी

खींच दी जाती है लकीर

पर कविता नहीं खींच पाती

अपने बीच कोई रेखा

 

कविता स्पर्श करना चाहती है

ऐसे क्षणों को

जिनमे प्यार हो,दुःख हो,सुख हो

और हो अपनापन।

 

© रमेश सैनी , जबलपुर 

मोबा . 8319856044

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ तुम पत्थर भी बन जाती हो..!! ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

☆ तुम पत्थर भी बन जाती हो..!! ☆
(प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी  की  नारी पर एक भावप्रवण कविता । ) 

 

नारी तुम चलो तो,
नदिया सी बहती हो।
सब कुछ समेटे हुए,
आँचल में छिपाती हो।
मिट्टी, काँटे, कंकड़
पत्थर को तोड़ती हो।
अपनी गर्भ में अमूल्य
मोतियों को पालती हो।

नारी तुम रुकी तो,
पहाड़ सी बन जाती हो।
आँधी, तूफान या हो
ज्वालामुखी सहती हो।
अनगिनत बहते झरने
आँखों में बसाती हो।
भूस्सखन हो चाहे कितने
जड़ बन जाती हो।

हे नारी…!!
तुम मोम बन जाती हो,
और कभी मोम से
पत्थर भी बन जाती हो..!!

© सुजाता काळे
पंचगनी, महाराष्ट्रा।
9975577684

 

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हिन्दी साहित्य – कविता -☆ मोलकी ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

☆ मोलकी ☆

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। डॉ मुक्ता जी के ये शब्द  “अनजान बालिका, दुल्हन नहीं ’मोलकी’ ” कहलाती है। निःशब्द हूँ । बेहतर है आप स्वयं यह कविता पढ़ कर टिप्पणी दें।) 

 

औरत का वजूद ना कभी था

ना होगा कभी

उसे समझा जाता है कठपुतली

मात्र उपयोगी वस्तु

उपभोग का उपादान

जिस पर पति का एकाधिकार

मनचाहा उपयोग करने के पश्चात्

वह फेंक सकता है बीच राह

और घर से बेदखल कर

उस मासूम की

अस्मत का सौदा

किसी भी पल अकारण

नि:संकोच कर सकता है

 

आजकल

भ्रूण-हत्या के प्रचलन

और घटते लिंगानुपात के कारण

लड़कियों की खरीदारी का

सिलसिला बेखौफ़ जारी है

 

चंद सिक्कों में

खरीद कर लायी गयी

रिश्तों के व्याकरण से

अनजान बालिका

दुल्हन नहीं ’मोलकी’ कहलाती

और वह उसकी जीवन-संगिनी नहीं

सबकी सम्पत्ति समझी जाती

जिसे बंधुआ-मज़दूर समझ

किया जाता

गुलामों से भी

बदतर व्यवहार

 

भूमंडलीकरण के दौर में

‘यूज़ एंड थ्रो’

और‘तू नहीं और सही’

का प्रचलन सदियों से

बदस्तूर जारी है

और यह है रईसज़ादों का शौक

जिसमें ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ ने सेंध लगा

लील लीं परिवार की

अनन्त,असीम खुशियां

और पर-स्त्री संबंधों की आज़ादी

कलंक है भारतीय संस्कृति पर

जाने कब होगा इन बुराईयों का

समाज से अंत ‘औ’ उन्मूलन

शायद! यह लाइलाज हैं

नहीं कोई इनका समाधान

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य – हिन्दी कविता – ? टूट गया बंजारा मन ? – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

? टूट गया बंजारा मन ?

(प्रस्तुत  है जीवन की कटु सच्चाई  एवं रिश्तों के ताने बाने को उजागर करती कविता।  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।)

 

माना रिश्ता जिनसे दिल का

दे बैठा मैं तिनका-तिनका

दिल के दर्द,कथाएँ सारी

रहा सुनाता बारी-बारी

सुनते थे ज्यों गूँगे-बहरे

कुछ उथले कुछ काफी गहरे

 

मतलब सधा,चलाया घन.

टूट गया बंजारा मन.

 

भाषा मधुर शहद में घोली

जिनकी थी अमृतमय बोली

दाएँ में ले तीर-कमान

बाएँ हाथ से खींचे कान

बदल गए आचार-विचार

दुश्मन-सा सारा व्यवहार

उजड़ा देख के मानस-वन.

टूट गया बंजारा मन.

 

जिस दुनिया से यारी की

उसने ही गद्दारी की

लगा कि गलती भारी की

फिर सोचा खुद्दारी की

धृतराष्ट्र की बाँहों में

शेष बची कुछ आहों में

किसने लूटा अपनापन.

टूट गया बंजारा मन.

 

कैसे अपना गैर हो गया

क्योंकर इतना बैर हो गया

क्या सचमुच वो अपना था

या फिर कोई सपना था

अपनापन गंगा-जल है

जहाँ न कोई छल-बल है

ईर्ष्या से कलुषित जीवन.

टूट गया बंजारा मन.

 

वे रिश्तों के कच्चे धागे

आसानी से तोड़ के भागे

मेरे जीवन-पल अनमोल

वे कंचों से रहे हैं तोल

छूट रहे जो पीछे-आगे

जोड़ रहा मैं टूटे धागे

उधड़ न जाए फिर सीवन.

टूट रहा बंजारा मन.

 

बाहर भरे शिकारी जाने

लाख मनाऊँ पर ना माने

अनुभव हीन, चपल चितवन

उछल रहा है वन-उपवन

‘नाद रीझ’ दे देगा जीवन

 

यह मृगछौना मेरा मन

विष-बुझे तीर की है कसकन.

टूट गया बंजारा मन.

 

© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ बेटियां शची रति दुर्गा लक्ष्मी और सरस्वती बनें ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

☆ बेटियां शची रति दुर्गा लक्ष्मी और सरस्वती बनें ☆

 

बेटियां जब आतीं घर आंगन महकातीं,

जब वह चिड़ियों सा चहकतीं गुनगुनाती।

मन के घर आंगन में निज प्यार बिखेरतीं,

अपना होने का निरंतर अहसास दिलातीं।।

 

पैदा होते ही वो जनक की जानकी बनतीं,

राम की सीता कृष्ण की राधा  बन जातीं।

प्रतीक होतीं मां बाप के आन बान शान की,

फिर किसी और के घर की शान बन जातीं।।

 

बेटियां तो पिता की आंखों का तारा,

मां के हृदय में ही सदा रहा करतीं।

देर जब हो जाए उनके आने में घर,

मां बाप की चिंता भी बना करतीं।।

 

इस सृष्टि की भी वही तो सृष्टा होतीं,

आंचल में दूध आंखों में पानी रखतीं।

ससुराल जा कर भी बाबुल की होतीं,

मां बाप का गौरव बन सम्मान बढ़ातीं।।

 

बेटियां कभी श्रुति तो कभी सृष्टि होतीं,

तन से ससुराल पर मन से मायके होतीं।

तन से कठोर पर मन से कोमल बनतीं,

पर छुप छुप कर बाबुल के लिए रोतीं।।

 

ससुराल में जब बेटियां दु:खी रहतीं,

मा बाप के हृदय में शूल चुभता रहता।

जब बेटियां ससुराल में सुखी रहतीं,

मां बाप का हृदय सदा खिला रहता।।

 

बेटियां दुर्गा लक्ष्मी सरस्वती बनतीं,

तो मां बाप  निश्चिंत हुआ करते हैं।

जब बेटियां अबला बन जातीं हैं तो,

मां बाप सदा चिंतित रहा करते हैं।।

 

दहेज, शोषण, घरेलू हिंसा न होंगे नियंत्रित,

यदि बेटियां अपने पैरों पर खड़ी नहीं होंगी।

लालची जुआरी चरित्रहीन करेंगी नियंत्रित,

जब बेटियां सशक्त और आत्म निर्भर होंगी।।

 

बेटियां शची रति दुर्गा लक्ष्मी सरस्वती बने,

निज मां बाप की आन बान और शान बने।

उन्हें अबला बन कर जीते तो ज़माना बीता,

अब वे सबल बन राष्ट्र का अभिमान बनें।।

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

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कविता
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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ दरार ☆ – डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

☆ जगह ☆

(प्रस्तुत है डॉ कुंवर प्रेमिल जी  की एक बेहतरीन एवं विचारणीय लघुकथा। आखिर सारा खेल जगह का  ही तो है । ) 

 

उसके पास कुल जमा ढाई कमरे ही तो  है। एक कमरे में बहू बेटा सोते हैं तो दूसरे में वे बूढा – बूढी। उनके हिस्से में एक  पोती भी है जो पूरे पलंग पर लोटती  है।  बाकी बचे आधे कमरे में उनकी रसोई और उसी में उनका गृहस्थी का आधा  अधूरा सामान ठुसा पड़ा है।

कहीं दूसरा बच्चा आ गया तो…..पलंग  पर दादी अपनी पोती को खिसका -खिसका कर दूसरे बच्चे के लिए जगह बनाकर देखती है।

बच्ची के फैल – पसर कर सोने से हममें से एक ☝ जागता एक सोता है। दूसरे बच्चे  के आने पर हम दोनों को ही रात ? भर जागरण करना पड़ेगा……बूढा  कहता।

तब तो हमारे लिए  इस पलंग पर कोई जगह ही नहीं रहेगी।

तीसरी पीढ़ी जब जगह बनाती है तो पहली पीढ़ी अपनी जगह गँवाती है। सारा खेल इस जगह का ही तो है। देखा नहीं एक -एक इंच जगह के लिए कैसी हाय तौबा मची रहती है। दादी सोच रही थी।

न जाने कैसी हवा चली है कि आजकल बहुएं,  बच्चों को अपने पास सुलाने का नाम ही नहीं  लेती। यदि वे अपनी बच्चों को अपने पास सुला लेती तो थोड़ी बहुत जगह हम बूढा बूढी को भी नसीब  हो जाती।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल 
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ अब मुझे सपने नहीं आते ☆ – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

☆  अब मुझे सपने नहीं आते ☆

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध  साहित्यकार  श्री रमेश सैनी जी  की  सार्थक, सटीक एवं  सामयिक कविता  “अब मुझे सपने नहीं आते”।)

 

अब मुझे सपने नहीं आते

उन्होंने आना कर दिया है बंद

उनका नहीं

दोष मेरा ही है

वे तो आना चाहते है

अपने नए-नए रंग में

पर मैने ही मना कर दिया है

मत आया करो मेरे द्वार

फिर भला कौन आएगा

अपमानित होंने के लिए

 

अब मुझे नींद भी नहीं आती

जब नींद नहीं आती तो

भला सपनों क्या काम

 

समय के थपेड़ों ने कर दिया है

गहरे तक मजबूत

आदत सी पड़ गयी है

सपनों के बिना जीने की

 

कभी -कभी आ जाती है

झपकी या नींद

तब संभाल लेता हूँ

चिकोटी काट कर

कहीं सपने बस न जाएँ

मेरी आँखों में, क्योंकि

पहले ही बसा लिया था

गरीबी हटाओ और

अच्छे दिन आने वाले है

इन सुबह आने वाले सपनों को

विश्वास करता था, इस अंधविश्वास पर

होते हैं सच, सुबह वाले सपने

 

पर अब आ गया है समझ

अपनी आँखों को

रखता हूँ खुली

और सपनों को

आँखों से दूर

*

© रमेश सैनी , जबलपुर 

मोबा . 8319856044

 

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हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ चलो….अब भूल जाते हैं ☆ – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

☆ चलो….अब भूल जाते हैं ☆

(प्रस्तुत है सुश्री मालती मिश्रा  जी  की  एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता।)

 

जीवन के पल जो काँटों से चुभते हों

जो अज्ञान अँधेरा बन

मन में अँधियारा भरता हो

पल-पल चुभते काँटों के

जख़्मों पे मरहम लगाते हैं

मन के अँधियारे को

ज्ञान की रोशनी बिखेर भगाते हैं

चलो!

सब शिकवे-गिले मिटाते हैं

चलो….

सब भूल जाते हैं….

 

अपनों के दिए कड़वे अहसास

दर्द टूटने का विश्वास

पल-पल तन्हाई की मार

अविरल बहते वो अश्रुधार

भूल सभी कड़वे अहसास

फिर से विश्वास जगाते हैं

पोंछ दर्द के अश्रु पुनः

अधरों पर मुस्कान सजाते हैं

चलो!

सब शिकवे-गिले मिटाते हैं

चलो….

सब भूल जाते हैं….

 

अपनों के बीच में रहकर भी

परायेपन का दंश सहा

अपमान मिला हर क्षण जहाँ

मान से झोली रिक्त रहा

उन परायेसम अपनों पर

हम प्रेम सुधा बरसाते हैं

संताप मिला जो खोकर मान

अब उन्हें नहीं दुहराते हैं

चलो!

सब शिकवे-गिले मिटाते हैं

चलो…..

सब भूल जाते हैं…..

 

©मालती मिश्रा ‘मयंती’✍️
दिल्ली
मो. नं०- 9891616087

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ कविता ☆ – सुश्री सुषमा सिंह

सुश्री सुषमा सिंह 

☆ कविता ☆

(प्रस्तुत है सुश्री सुषमा सिंह जी की भावप्रवण कविता “कविता” ।  सुश्री सुषमा सिंह जी की कविता काव्यात्मक परिभाषा के लिए मैं निःशब्द हूँ। कविता छंदयुक्त हो या छंदमुक्त हो यदि कविता में संवेदना ही नहीं तो फिर कैसी कविता? )

 

प्राणों को नवजीवन दे, जड़ में भी स्पंदन भर दे

दर्द, चुभन, शूल हर ले, मन को रंगोली के रंग दे

उसको कहते हैं कविता

 

हर नर को जो राम कर दे, शबरी के बेरों में रस भर दे

जो हर राधा को कान्हा दे, हर-मन को जो मीरा कर दे

उसको कहते हैं कविता

 

तम जीवन में ज्योति भर दे, मूकता को भी कंपन दे

भावनाओं को जो मंथन दे, प्रियतम को मौन निमंत्रण दे

उसको कहते हैं कविता

 

संबंधों को जो बंधन दे, संस्कृति संस्कार समर्पण दे

भटकन को नई मंज़िल दे, जीवन संकल्पों से भर दे

उसको कहते हैं कविता

 

डगमग पैरों को थिरकन दे, सिखर धूप फागुन कर दे

मन में नई उमंग भर दे, सुंदर सपनों को सच कर दे

उसको कहते हैं कविता

 

यह भावों की निर्झरिणी है,जिस पथ  यह बहती जाती है

मरुथल को यह मधुबन कर दे, इसको कहते हैं कविता

 

आखर  आखर हों भाव भरे, हर-मन बस ऐसा हो जाए

तो चलो  रचें ऐसी कविता, हर मानव मानव हो जाए।

 

© सुषमा सिंह

बी-2/20, फार्मा अपार्टमेंट, 88, इंद्रप्रस्थ विस्तार, पटपड़गंज डिपो, दिल्ली 110 092

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ साहित्यिक सम्मान की सनक ☆ – श्री मनीष तिवारी

श्री मनीष तिवारी 

☆ साहित्यिक सम्मान की सनक ☆

(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर ही नहीं ,अपितु राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध साहित्यकार -कवि  श्री मनीष तिवारी जी  की यह कविता  जो आईना दिखाती है उन समस्त  तथाकथित साहित्यकारों को जो साहित्यिक सम्मान की सनक से पीड़ित हैं ।  यह उन साहित्यिकारों पर कटाक्ष है जो सम्मान की सनक में किसी भी स्तर तक जा सकते हैं।  संपर्क, खेमें,  पैसे और अन्य कई तरीकों से प्राप्त सम्मान को कदापि सम्मान की श्रेणी में रखा ही नहीं जा सकता।

साथ ही मुझे डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के पत्र  की  निम्न  पंक्तियाँ  याद आती हैं  जो उन्होने  मुझे आज से  37  वर्ष पूर्व  लिखा था  – 

“एक बात और – आलोचना प्रत्यालोचना के लिए न तो ठहरो, न उसकी परवाह करो। जो करना है करो, मूल्य है, मूल्यांकन होगा। हमें परमहंस भी नहीं होना चाहिए कि हमें यश से क्या सरोकार।  हाँ उसके पीछे भागना नहीं है, बस।”)    

 

सच कह रहा हूँ भाईजान

मेरी उम्र को मत देखिए

न ही बेनूर शक्ल की हंसी उड़ाइए

आईये

मैं आपको बतलाऊँ

मेरी साहित्यिक सनक को देखिए

सम्मान के कीर्तिमान गढ़ रही है,

जिसे साहित्य समझ में नहीं आता

मेरे साहित्य को पढ़ रही है।

 

सनक एकदम नयी नयी है

नया नया लेखन है

नया नया जोश है,

मैं क्या लिख रहा हूँ

इसका मुझे पूरा पूरा होश है।

 

सब माई की कृपा है

कलम घिसते बनने लगी

कितनी घिसना है

कहाँ घिसना है

कैसी घिसना है

ये तो मुझे नहीं मालूम

पर घिसना है तो घिस रहे हैं।

 

हमने कहा- भाईजान जरूर घिसिये

पर इतना ध्यान रखिये

आपके घिसने से कई

समझदार साहित्यकार पिस रहे हैं।

वे अकड़कर बोले,

मेरा हाथ पकड़कर बोले-

आप बड़े कवि हैं

हम पर व्यंग्य कर रहे हैं

अत्याचार कर रहे हैं

आपको नहीं मालूम

पूरी दुनिया के पाठक

मेरी साहित्यिक सनक की

जय जयकार कर रहे हैं।

 

मेरा अभिनंदन कर रहे हैं

मैं उन्हें बाकायदा धनराशि देता हूँ

पर वे लेने से डर रहे हैं।

जबकि मैं जानता हूँ

मेरे जैसे लोगो का

अभिनन्दन करने वाले

अपना घर भर रहे हैं।

 

हमारी रचनाएं अनेक देशों में

साहित्यिक रक्त पिपासुओं द्वारा

भरपूर सराही जा रही हैं।

घनघोर वाहवाही पा रही हैं।

 

हमने कहा- भाईसाब

मेरा ये ख्याल है

इसी सनकी प्रतिभा का तो हमें मलाल है।

जो कविता हमें और

हमारे साहित्यिक कुनबे को

समझ में नहीं आ रही है

आपकी सर्जना को

सिरफिरी दुनिया सिर पर उठा रही है।

 

आखिर आप क्यों?

हिंदी साहित्य में स्वाइन फ्लू फैला रहे हैं,

और अफसोस

उस बीमारी को समझकर भी

लोग तालियां बजा रहे हैं।

 

आप क्या समझते हैं

आपके तथाकथित सृजन और पठन से

श्रोता जाग रहे हैं,

आपको पता ही नहीं आपका नाम सुनते ही

श्रोता दहशत में हैं और भाग रहे हैं।

आयोजकों के पीछे डंडा लेकर पड़े हैं,

हाल खाली है और दरवाजे पर ताले जड़े हैं।

 

लगता है विदेशियों ने

साहित्यिक षड्यंत्र रचा दिया है

जैसे पूरी दुनिया ने

भारतीय बाजार पर कब्ज़ा कर

कोहराम मचा दिया है।

 

ये लाईलाज बीमारी है

आपके अनर्गल प्रलाप को सम्मानित कर भारत के

गीत, ग़ज़ल, व्यंग्य, कथा, कहानी और

नाटक को कुचलने की तैयारी है।

 

आप अपने सम्मान पर गर्वित हैं, ऐंठे हैं

आपको पता नहीं

आप एक बारूद के ढेर पर बैठे हैं।

आपको पता नहीं चल रहा कि

आपकी दशा है या दुर्दशा है

आपको सम्मान का अफीमची नशा है।

 

आपको पता ही नहीं कि

आपके सम्मान के रंग में

कितनी मिली भंग है,

सच कहूं आपकी सृजनशीलता

पूरी तरह से नंग धड़ंग है।

 

मर्यादा का कलेवर आपके

तथाकथित अभिमान को ढक नहीं सकता

और, मेरे मना करने पर भी

आपका इस तरह लेखन रूक नहीं सकता।

 

आप अपनी वैचारिक विकलांगता

साहित्यिक विकलांगों के बीच में ही रहने दो

आप अपनी कीर्ती के कमल

गंदगी के कीच में ही रहने दो।

 

आपने हिंदी साहित्य का गला घोंटने

अपना जीवन अर्पित कर दिया,

परिणामस्वरूप स्वम्भू साहित्यकारों ने

आपको सम्मानित किया और चर्चित कर दिया।

आपके सम्मान से साहित्य के सम्रद्धि कलश भर नहीं सकते

और सायनाइट में भी डुबोने पर भी

आपके अंदर हलचल मचा रहे

साहित्यिक कीटाणु मर नहीं सकते।

 

आपकी गलतफहमी है

इक्कसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों के

साहित्यिक सांस्कृतिक अवदान में

आपका भी नाम लिखा जाएगा

ध्यान रखना

वास्तविक साहित्यिक समालोचक

आपको आईना दिखा जाएगा।

 

आप आत्ममुग्ध हो

अपने सम्मान से स्वयं अविभूत हो

आप सोचते हो कि

अनन्तकाल तक जीते रहोगे

भूत नहीं बन सकते,

प्रेमचंद, परसाई, नीरज, महादेवी, दुष्यंत और

जयशंकर प्रसाद के वंशज

आपके तथाकथित साहित्य को

अलाव में भी फेंक दें पर

आप भभूत नहीं बन सकते।

 

मैंने पढ़ा है-

दूषित धन की कभी शुद्धि नहीं हो सकती

ऐसे ही

दूषित विचारों के रचनाकार की

शुद्ध बुद्धि नहीं हो सकती।

आपकी इस तरह की सृजनशीलता से

राष्ट्र की वैचारिक अभिवृद्धि नहीं हो सकती।

 

आपका पेन सामाजिक, सांस्कृतिक,

कुरीतियों, कुप्रथाओं पर

अमोघ बाण नहीं हो सकता

आप जैसे सनकियों से

राष्ट्र का कल्याण नहीं हो सकता।

 

हे ! माँ सरस्वती

या तो इनकी कलम को

शुभ साहित्य से भर दीजिये

या इन्हें तथाकथित साहित्यिक सम्मान की

सनक से मुक्त कर दीजिए।

 

©  पंडित मनीष तिवारी, जबलपुर

 

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