हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.१०॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.१०॥ ☆

 

यत्र स्त्रीणां प्रियतमभुजोच्च्वासितालिङ्गितानाम

अङ्गग्लानिं सुरतजनितां तन्तुजालावलम्बाः

त्वत्संरोधापगमविशदश चन्द्रपादैर निशीथे

व्यालुम्पन्ति स्फुटजललवस्यन्दिनश चन्द्रकान्ताः॥२.१०॥

 

छरहरी , भरे देह की , पूर्ण यौवन

रदनपंक्ति जिसकी गँसी कुंद कलि सी

पके बिंब फल से  , अधर सुगढ़ जिसके

चकित वनमृगी सी , सरल दृष्टि जिसकी

गहन नाभि , कटि क्षीण , औ” पीन स्तन

नितंबिनि , विनम्रा , अलसगामिनी जो

दिखे युवतियों बीच ऐसी कोई ज्यों

विधाता की मानो प्रथम नारि कृति हो

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – त्रिकाल ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

?️? संजय दृष्टि – त्रिकाल ??️

कालजयी होने की लिप्सा में,

बूँद भर अमृत के लिए,

वे लड़ते-मरते रहे,

उधर हलाहल पीकर,

महादेव, त्रिकाल भये!

हलाहल की आशंका को पचाना, अमृत होने की संभावना को जगाना है।

?️ ? सभी मित्रों को महाशिवरात्रि की हार्दिक बधाई। महादेव की अनुकंपा आप सब पर बनी रहे। नम: शिवाय! ??️

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 79 – हाइबन- धुआंधार जलप्रपात ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- धुआंधार जलप्रपात। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 79☆

☆ हाइबन- धुआंधार जलप्रपात ☆

संगमरमर एक सफेद व मटमैले रंग का मार्बल होता है। मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले से 20 किलोमीटर दूर भेड़ाघाट में इसी तरह के मार्बल पहाड़ियों के बीच नर्मदा नदी बहती है। नदी के दोनों किनारों की ऊंचाई 200 फीट के लगभग है।

भेड़ाघाट का दृश्य रात और दिन में अलग-अलग रूप में दर्शनीय होता है। रात में चांदनी जब सफेद और मटमैले संगमरमर के साथ नर्मदा नदी में गिरती है तो अद्भुत बिंब निर्मित करती है। इस कारण चांदनी रात के समय में नर्मदा नदी में नौकायन करना अद्भुत व रोमांचक होता है।

दिन में सूर्य की किरणें नर्मदा नदी के साथ-साथ संगमरमर की चट्टानों पर अद्भुत बिंब निर्मित करती है। सूर्य की रोशनी में नहाई नर्मदा नदी और संगमरमर की उचित चट्टानों के बीच नौकायन इस मज़े को दुगुणीत कर देती है।

इसी नदी पर एक प्राकृतिक धुआंधार जलप्रपात बना हुआ है। इस प्रपात में ऊंचाई से गिरता हुआ पानी धुएं के मानिंद   वातावरण में फैल कर अद्भुत दृश्य निर्मित करता है। यहां से नर्मदा नदी को निहारने का रोमांच और आनंद ओर बढ़ जाता है। इसी दृश्य प्रभाव के कारण इसका नाम धुआंधार जलप्रपात पड़ा है।

यह स्थान पर्यटकों का सबसे मन पसंदीदा स्थान है। आप भी एक बार इस स्थान के दर्शन अवश्य करें।

नदी का स्वर~

मार्बल पर दिखे

सूर्य का बिंब।

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-01-21

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 65 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – चतुर्थ अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है चतुर्थ अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 65 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – चतुर्थ अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज आप पढ़िए चतुर्थ अध्याय का सार। आनन्द उठाएँ।

 डॉ राकेश चक्र

अध्याय 4

चौथा अध्याय दिव्य ज्ञान

श्री कृष्ण भगवान ने अपने सखा अर्जुन से अष्टांग योग का दिव्य ज्ञान कुछ इस तरह दिया

प्रथम बार सूरज सुने, यह अविनाशी योग।

सूरज से मनु और फिर,बना इच्छु- संजोग।। 1

 

योग रीत ये चल रही, सदा-सदा से जान।

लोप हुआ कुछ काल तक, तुम्हें पुनः यह ज्ञान।। 2

 

वर्णन जो तुझसे किया, यही पुरातन योग।

तू मेरा प्रिय भक्त है, अति उत्तम संयोग।। 3

अर्जुन उवाच

जन्म हुआ प्रभु आपका, इसी काल में साथ।

सूर्य जन्म प्राचीन है, कैसे मानूँ बात।। 4

 

तेरे-मेरे जन्म तो, हुए अनेकों बार।

मुझे विदित,अनभिज्ञ तुम,प्रियवर पाण्डु कुमार।।5

 

जन्म नहीं प्राकृत मेरा, नहीं मनुज सादृश्य।

मैं अविनाशी अजन्मा, शक्ति-योग प्राकट्य।। 6

 

धर्म हानि जब- जब बढ़ी, बढ़ता गया अधर्म।

तब-तब माया-योग से, रचा नया ही धर्म।। 7

 

साधु जनों का सर्वदा,किया परम् उद्धार।

दुष्टों के ही नाश को, प्रकटा बारम्बार।। 8

 

मुझे अलौकिक मानकर, जो जानें सुख पाँय

मैं हूँ अविनाशी अमर, भक्त सदा तर जाँय। 9

 

राग-द्वेष,भय-क्रोध से, हो जाता है मुक्त।

साधक मेरी भक्ति का,भाव समर्पण युक्त।।

 

सब ही मेरी शरण में, सबके भाव विभिन्न।

फल देता अनुरूप में, कभी न होता खिन्न।। 11

 

करते कर्म सकाम जो, मिलें शीघ्र परिणाम।

देवों को वे पूजते, मुझे न करें प्रणाम।। 12

 

तीन गुणों की यह प्रकृति, सत, रज, तम आयाम।

वर्णाश्रम मैंने रचे, मैं सृष्टा सब धाम।। 13

 

कर्म करूँ जो भी यहाँ, पड़ता नहीं प्रभाव।

कर्म फलों से मैं विरत, सत्य जान ये भाव।। 14

 

दिव्य आत्मा संत जन, हुए पुरातन काल।

कर तू उनका अनुसरण,नित्य बनाकर ढाल।। 15

 

समझ न पाते मोहवश,बुधि जन कर्माकर्म।

कर्म बताऊँ शुभ तुझे, ये ही मानव धर्म।। 16

 

कर्म कौन हैं शुभ यहाँ, ये मुश्किल है काम।

कर्म, विकर्म, अकर्म का, जान सुखद परिणाम।। 17

 

कर्म सदा परहित करें, ये ही मानव धर्म।

लाभ-हानि में सम रहें, नहीं करें दुष्कर्म।। 18

 

इन्द्रिय-सुख की कामना, रखें न मन में ध्यान।

ऐसे ज्ञानी जगत में, होते बड़े महान।। 19

 

कर्म फलों के फेर में, पड़ें न ज्ञानी लोग।

ऐसे मानव जगत में, रहते सदा निरोग।। 20

 

माया के रह बीच में,स्वामि- भाव का त्याग।

कर्म गात निर्वाह को, गाए मेरा राग।। 21

 

अपने में संतुष्ट जो, द्वेष कपट से दूर।

लाभ-हानि में सम रहे, ऐसे मानव शूर।। 22

 

आत्मसात जिसने किया,अनासक्ति का भाव।

ऐसा ज्ञानी को मिले, हरि पद पंकज-ठाँव।। 23

 

जो मुझमें लवलीन है, पाए भगवत धाम।

यज्ञ यही है सात्विकी, भजें ईश का नाम।। 24

 

देव यज्ञ कुछ कर रहे, पूजें देवी-देव।

ज्ञानी-ध्यानी पूजते, ब्रह्म परम् महदेव।। 25

 

इन्द्रिय संयम हम करें, भजें प्रभू का नाम।

राग-द्वेष से विरत जो,  करें भस्म सब काम।। 26

 

चेष्टा जो इन्द्री करें, करें ब्रह्म का ज्ञान।

प्राणों के व्यापार का, योगी करते ध्यान।। 27

 

कुछ योगी परहित करें, कुछ करते तप यज्ञ।

करें योग अष्टांग कुछ, कुछ हैं ग्रंथ- गुणज्ञ।। 28

 

प्राण वायु का हवि करें, करते प्राणायाम।।

प्राण गती वश में रखें, लेवें प्रभु का नाम।। 29

 

प्राणों को ही प्राण में, योगी करते ध्यान।

पाप-शाप सारे मिटें , यज्ञ करें कल्यान।। 30

 

फलाभूत यज्ञादि से, करें ईश कल्यान।

यज्ञ न करते जो मनुज, भोगें कष्ट महान।। 31

 

वर्णन वेदों में हुआ, कतिपय यज्ञ- प्रकार।

तन, मन इन्द्री ही करें, निष्कामी उपचार।। 32

 

सब यज्ञों में श्रेष्ठतर, ज्ञान यज्ञ है ज्येष्ठ।

ज्ञान करे विज्ञान को, बने आत्मा श्रेष्ठ। 33

 

ज्ञानी पुरुषों को सदा, कर दण्डवत प्रणाम।

जान, ज्ञान के मर्म को, दें उपदेश महान।। 34

 

जब तुम जानो मर्म को, नहीं करोगे मोह।

ज्ञान बुद्धि चेतन करे, हटे हृदय अवरोह।। 35

 

सदा ज्ञान ही श्रेष्ठ है, करता नौका पार।

पापी भी सब तर गए, उत्तम हुए विचार।। 36

 

जैसे जलकर अग्नि में, ईंधन होता भस्म।

वैसे ही ये ज्ञान भी, करे पाप को भस्म।। 37

 

ज्ञान जगत में श्रेष्ठ है, इससे बड़ा न कोय।

पावन होता वह मनुज,खोट रहे ना कोय।। 38

 

ज्ञान ही करता स्व विजय, हो वही जितेंद्रिय।

ज्ञान बढ़ाए भक्ति को, जीवन बने अनिन्द्रिय।। 39

 

जो प्रभु भक्ति नहीं करें , रहें संशयाधीन।

लोक और परलोक में, रहें सदा ही दीन।। 40

 

कर ले बुद्धि समत्व तू, लगा मुझी में ध्यान।

अर्पित प्रभु को जो करें, उनका हो कल्याण।। 41

 

ज्ञान बढ़ा अर्जुन सखा, बुद्धि करो संशुद्ध।

संशय भ्रम को काट तू, करो धर्म का युद्ध।। 42

 

 इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता के चतुर्थ अध्याय ” दिव्य ज्ञान” का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ(समाप्त)।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.९॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.९॥ ☆

 

नेत्रा नीताः सततगतिना यद्विमानाग्रभूमीर

आलेख्यानां सलिलकणिकादोषम उत्पाद्य सद्यः

शङ्कास्पृष्टा इव जलमुचस त्वादृशा जालमार्गैर

धूमोद्गारानुकृतिनिपुणा जर्जरा निष्पतन्ति॥२.९॥

 

हे बन्धु इन चिन्ह को ध्यान रखकर

लख शंख औ” पद्म के चित्र द्वारे

श्री हीन मेरे विरह से भवन लख

समझना कमल , क्षीण बिन रवि सहारे

तब हस्ति शावक सदृश रूप धर मेघ

रुकते कथित रम्य क्रीड़ा शिखर पर

खद्योत दल सम प्रभा क्षीण विद्युत

नयन से निरखना भवन में पहुंचकर

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 86 – पगडंडी सी लचक कहाँ … ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना पगडंडी सी लचक कहाँ …। )

☆  तन्मय साहित्य  #86 ☆

 ☆ पगडंडी सी लचक कहाँ … ☆

पगडंडी सी लचक कहाँ

डामर की सड़कों में

कहाँ नजाकत रही आज

लड़की औ’ लड़कों में।।

 

संशय सदा बना रहता

स्त्रीलिंग पुल्लिंग का

कटे बाल और जींस शर्ट में

खा जाते धोखा,

मुश्किल अंतर करना अब

छुटकों और बड़कों में।

कहाँ नजाकत रही आज

लड़की औ’ लड़कों में।।

 

संबोधन भी बदल गए

अपनी भाषा भूले

भगदड़ मची हुई, मन में

आकाश कुसुम छू लें,

रंगबिरंगे स्वप्न,अधजगी

निद्रा पलकों में।।

कहाँ नजाकत रही आज

लड़की औ’ लड़कों में।।

 

घर का स्वाद कर दिया

पिज्जा बर्गर ने गायब

मैगी नूडल बने हुए हैं

अब घर के नायब,

नहीं स्वाद अब रहा

दाल-सब्जी के तड़कों में।

कहाँ नजाकत रही आज

लड़की औ’ लड़कों में।।

 

कहाँ कहकहे, रौनक

बिसरायें समूह मधुगान

अब न रहा दादा जी का

घर में वैसा सम्मान,

हवा हवाई रौबदार

दादू की झिड़कों में।

कहाँ नजाकत रही आज

लड़की औ’लड़कों में।।

 

आयातित फैशन का

बढ़ता हुआ कुटिल व्यापार

भ्रमित पीढ़ी को काम नहीं

बेकारी से लाचार,

उलझी युवा शक्ति है

बेफिजूल की शर्तों में।

कहाँ नजाकत रही आज

लड़की औ’ लड़कों में।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 37 ☆ लोग इतने क्यों बेचैन है ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता लोग इतने क्यों बेचैन है। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 37 ☆

☆ लोग इतने क्यों बेचैन है  

खुश हो जा आज तू खामोश क्यों है,

देख तेरी शान में राह में लोगों ने फूल बिछाये हैं ||

कल तक जो लोग तेरे चेहरे से नफरत करते थे,

वे आज तुझे बार-बार कंधा देने को बेचेन हो रहे हैं ||

आज तो तेरी शान ही निराली है,

सब अदब से खड़े होकर तुझे हाथ जोड़ रहे हैं ||

बस एक पल ऑंखे खोल नजारा तो देख ले,

लोग तो तेरी एक झलक पाने को बेचैन हो रहे हैं ||

कल तक जो तेरी तरफ झांकते तक ना थे,

आज वो सब खिड़कियां खोलकर तुझे देखने को तरस रहे हैं ||

यादगार लम्हें हैं उसे देख वापिस आंख मूंद लेना,

एक ही मौका आता है जीवन में, लोगों के आंसू थम नहीं रहे हैं ||

जनाजे में कौन-कौन शामिल है,

एक झलक तो देख ले, इतने तो पराये भी कभी रूठते नहीं हैं ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पुरुष दिवस क्यों नहीं मनाते ? ☆ श्री आर के रस्तोगी

श्री आर के रस्तोगी

☆ पुरुष दिवस क्यों नहीं मनाते ? ☆ श्री आर के रस्तोगी☆ 

मना लिया है महिला दिवस सबने

पुरुष दिवस क्यों नहीं मनाते हो ?

महिलाओं को दे दी है आजादी,

पुरुषों को क्यों गुलाम बनाते हो ?

 

माना नारी चूल्हे में जलती है,

पर पुरुष भी धूप में जलता है।

मिली है जब आजादी नारी को,

तो पुरुष क्यों सबको खलता है?

 

आठ मार्च महिला दिवस निश्चित है,

पुरुष दिवस भी निश्चित होता।

अच्छा तो ये दिवस तब होता,

दोनों का दिवस एक दिन होता।।

 

दोनों के है जब समान अधिकार,

पुरुषों को क्यों नहीं ये मिलता।

जब चम्पा चमेली खिलती है,

पुरुष मन  क्यों नहीं खिलता।।

 

नारी जब पुरुष के बिन अधूरी है,

तब पुरुष दिवस क्यों मजबूरी है।

जब तक पुरुष दिवस नहीं मनेगा

तब तक महिला दिवस अधूरी है।

 

नर और नारी गृहस्थी के पहिए है,

तभी गृहस्थी की गाड़ी चलती है।

महिला दिवस मना लो केवल,

ये बात पुरुष को खलती है।।

 

आर के रस्तोगी गुरुग्राम

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 74 ☆ वो कोह ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं ।  सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “वो  कोह। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 74 ☆

☆ वो कोह ☆

दामन-ए-कोह ख़ुशी से तर था,

उसका ख़ियाबां-ए-ज़हन गुल से लबरेज़ था,

कि अचानक कहीं से एक ख़ुश-रू अब्र

उसके आसपास हलके से बरसने लगा

और कोह से उसने कहा,

“मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ!”

 

लाजमी था कोह का पैमाना-ए-मुहब्बत में

पूरी तरह से डूब जाना-

आखिर उसने नगमा-ए-इश्क कहाँ सुना था?

दोनों हाथ पकड़कर साथ घूमते,

अब्र

कभी कोह का माथा चूमता,

कभी उसे अपनी दिलकश बाहों में लेता,

कभी वो रक़्स-ए-मुहब्बत में मशगूल रहते…

 

अब्र तो आशिक-मिज़ाज था,

नया कोई अफसाना बुनने

चल पड़ा किसी और कोह की तरफ…

 

दामन-ए-कोह अब ग़म-ए-जुदाई से तर है,

उसके ख़ियाबां-ए-ज़हन के गुल मुरझा चुके हैं,

न उसे इंतज़ार है, न चाहत-ए-उल्फ़त,

ठोस है, सख्त है-

आ जाओ कोई

आंसू ही बरसा दो उसके

कि कोह होने पर उसे गुरुर तो हो!

 

कोह=hill

ख़ियाबां=bed of flowers

ख़ुश-रू = handsome

अब्र = cloud

रक़्स = dance

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अक्षर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि –अक्षर ☆

उद्भूत भावनाएँ,

अबोध संभावनाएँ,

परिस्थितिवश

थम जाती हैं,

कुछ देर के लिए

जम जाती हैं,

दुख, आक्रोश

अपने दाह से तपते हैं,

मन की भट्टी में

अपनी आँच पर पकते हैं,

लोहे-सा पिघलते हैं,

लावे-सा उफनते हैं,

आकार, कहन लिए

कागज़ पर उतरते हैं,

भावनाओं का संभूता

चक्र पूरा होता है,

साझा किए बिना

उत्कर्ष अधूरा होता है,

सुनो मित्र!

अभिव्यक्ति का कभी

मरण नहीं होता,

अक्षर का कभी

क्षरण नहीं होता।

©  संजय भारद्वाज

(24.12.18, रात्रि 11:07बजे )

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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