डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा लड़की की माँ।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 103 ☆

☆ लघुकथा –लड़की की माँ — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

अरे! जल्दी चलो सब, बारात दरवाजे पर आ गई है। भारी भरकम साड़ी पहने और कंधे पर बड़ा सा पर्स टांगे वह तेज कदमों से मुख्य द्वार की ओर चल दी। बैंड-बाजों की तेज आवाजें उसकी धड़कन बढ़ा रही थीं। द्वार तक पहुंचते पहुंचते वह कई बार मन में दोहरा चुकी थी – लड़के के माता – पिता, बहन – बहनोई सबके पाँव पखारने हैं, पहले जल से, फिर दूध से और कपड़े से पैरों को पोंछना है। उसके बाद सभी महिलाओं को हल्दी – कुंकुम लगाना है। ना जाने कितनी परीक्षाएं उसने पास की थीं पर आज का यह पाठ पता नहीं क्यों बड़ा कठिन लग रहा है। बेटी के ससुरालवालों ने कहलाया था कि हमारे यहाँ द्वार-  पूजा में लड़की की माँ ही सबके पाँव पखारती है। बेटी का खुशी से दमकता चेहरा देख वह यंत्रवत काम करती जा  रही थी।

वह हांफ रही थी तेज चलने से नहीं, भीतरी द्वंद्व से। सब कुछ करते हुए कहीं कुछ खटक रहा है। दिमाग के किसी एक कोने में उथल –पुथल मची हुई थी जिसने उसे बेचैन कर रखा है। उसके विचार और वास्तविकता के बीच  भयंकर द्वंद्व  चल रहा है। परंपरा और अपनी आधुनिक सोच के मकड़जाल में वह घुट रही थी। दिल कहा रहा था – जैसा बताया है, करती जा चुपचाप, अपनी बेटी की खुशी देख, बस –।  ये सब परंपराएं हैं, सदियों से यही हो रहा है लेकिन दिमाग वह तो मानों घन बजा रहा था – सारी रस्में लड़की की माँ के लिए ही बनी हैं? क्यों भाई? दान – दहेज, लेना – देना सब लड़कीवालों के हिस्से में? वह बेटी की माँ है तो? क्यों बनाईं ऐसी रस्में?‘ कन्यादान’  शब्द सुनते ही ऐसा लग रहा है मानों किसी ने छाती पर घूंसा मार दिया हो, रुलाई फूट पड़ रही है बार- बार, कुछ उबाल सा आ रहा है दिल में। ऐसा अंतर्द्वंद्व जिसे वह किसी से बाँट भी नहीं सकती। जिससे कहती वही ताना मारता – अरे ! यही तो होता आया है। लड़कीवालों को झुककर ही रहना होता है लड़केवालों के सामने। हमारे यहाँ तो — इसके आगे सामनेवाला जो रस्मों की पिटारी खोलता, वह सन्न रह जाती। उसके पिता का कितना रोब- दाब था समाज में लेकिन फेरे के समय वर पक्ष के सामने सिर झुकाए समर्पण की मुद्रा में बैठे थे।

उसने अपने को संभाला – नहीं- नहीं, यह ठीक नहीं है। इस समय अपनी शिक्षा,अपने पद को दरकिनार कर वह एक लड़की की माँ है, एक सामान्य स्त्री और कुछ नहीं ! पर दिमाग कहाँ शांत बैठ रहा था उसकी बड़ी – बड़ी डिग्रियां उसे कुरेद रही थीं, उफ! काश डिलीट का एक बटन यहाँ भी होता, उसने विचार झटक दिए। वह तेजी से मुख्य द्वार पर पहुँची। द्वार पर वर, बेटी के सास – ससुर, नंद – ननदोई, उनके पीछे रिश्तेदार और पूरी बारात खड़ी थी। सजे – संवरे,  उल्लसित  चेहरे। पाँव पखारने की रस्म के लिए वे सब अपनी चप्पल उतारकर खड़े थे। मुस्कुराते हुए चेहरे से उसने मेहमानों का स्वागत किया और झुक-  झुककर, वर, उसके माता – पिता , बहन – बहनोई के  पाँव धोए, पहले पानी से फिर दूध से और साफ कपड़े से पोंछती  जा रही थी। उसे लग रहा तथा कि पढ़े – लिखे जवान बच्चों में से कोई तो कहेगा – नहीं, आप हमारे पैर मत छुइए। पर कोई नहीं बोला। समाज द्वारा लड़की की माँ के लिए बनाई गई रस्मों पर उसकी आँखों में  आँसू छलक उठे। 

उसकी छलकती आँखें खुद को अपने बेटे की शादी में वधू के माता – पिता के पैर पखारते, आरती करते देख मुस्कुरा रही थीं।

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments