हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ बोलते चित्र… ☆ श्री विजयानन्द विजय ☆

श्री विजयानन्द विजय

☆ हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ बोलते चित्र… ☆ श्री विजयानन्द विजय ☆ 

” आपको याद है, वहाँ..उस कोने पर एक बड़ा-सा कार्टूूून लगा करता था। ” – अखबार के पन्ने पलटते हुए उसने दुकानदार से पूछा। 

मोतीझील चौक पर कपड़ों की वह सबसे बड़ी दुकान थी। पच्चीस-तीस साल बाद एक बार फिर इस शहर में आना हुआ, तो इस जगह आने से वह खुद को रोक नहीं पाया था। 

” हाँ, मगर वो तो पच्चीस-तीस साल पहले की बात है साहब। ” – दुकानदार ने उसकी ओर देखते हुए कहा।

” सही कहा। मैं उसी समय की बात कर रहा हूँ ।तब हम जिला स्कूल में पढ़ा करते थे। रविवार को शाम में जब हमें हॉस्टल से छुट्टी मिलती थी, तो हम सीधे यहाँ चले आते थे, बस उस कार्टून को देखने …। ” – स्कूली दिनों की उसकी स्मृतियाँँ सहसा ताजा हो आई थीं।

नजर सामने वाले चौक की ओर गयी। बाप रे ! कितनी भीड़ रहने लगी है अब यहाँ। ऊँचे-ऊँचे जगमगाते मॉल, बड़ी-बड़ी दुकानें और शोरूम्स की लंबी और अंतहीन श्रृंखला। आधुनिकीकरण की आँधी ने शहर के अधिकांश पुरातन अवशेषों को या तो मिटा दिया है, या नयेपन की चादर से ढँक लिया है।

” हाँ बिल्कुल। मुझे भी याद आ रहा है।” – दुकानदार ने बातचीत का क्रम जारी रखा।

” जानते हैं, हॉस्टल में पूरे हफ्ते हमारी चर्चा का एक विषय यह भी हुआ करता था कि इस हफ्ते कल्याणी चौक पर किस राजनीतिक और सामाजिक विषय पर कार्टून लगेगा। ” – दुकानदार से वह अब कुछ ज्यादा ही औपचारिक हो चला था और स्कूली दिनों की भूली-बिसरी यादों में खो गया था…।

” हम्म…! “

” बड़े सटीक, चुटीले और मारक होते थे वे कार्टून। “

” हाँ बिल्कुल। “

” अच्छा, क्या नाम था उस कार्टूनिस्ट का ? ” –  नाम उसे याद नहीं आ रहा था, इसलिए वह दुकानदार से पूछ बैठा।

” मथुरा जी नाम था उनका। वहाँ सामने पान की एक दुकान थी उनकी। उसी की छत पर वे कार्टून बनाकर लगाया करते थे। कमाल के कलाकार थे। कमाल का प्रेजेंस ऑफ माइंड था। मगर दुर्भाग्य है कि उनकी अगली पीढ़ी ने उनकी विरासत को नहीं सँभाला। वरना आज भी वहाँ….। ” –  बोलते-बोलते दुकानदार संजीदा हो गया और उधर ही देखने लगा, जहाँ कभी मथुरा जी के कार्टून लगा करते थे। 

वहाँ आज एक बड़ा-सा फ्लेक्स बोर्ड टँगा था, जिसमें रंग-बिरंगे डिजाइनर कपड़े पहने हुए लड़के और लड़कियों के मुस्कुराते चेहरे थे। लोगों की भूख और माँग अब पूरी तरह बदल चुकी थी।

 ” असल में, जो सच हमें नहीं दीखता या जो हम देखना नहीं चाहते, उसे हमारी आँखों में उँगली डालकर दिखाने का काम करते हैं ये कार्टून। ” – आज अखबार में छपे एक कार्टून की ओर देखते हुए उसने दुकानदार से कहा।

” सही कहा भाई साहब। मीडिया और अखबारों की हालत तो आप देख ही रहे हैं। ये अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं।आज हमें मथुरा जी और आर के लक्ष्मण जैसे लोगों की ही जरूरत है, जो आँखों में उँगली डालकर नहीं, बल्कि कान उमेठकर लोगों को सच दिखा सकें। ” – समाज के चौथे स्तंभ की भहराती स्थिति पर दुकानदार की चिंता स्वाभाविक थी।

” बिल्कुल, आज जरूरत है ऐसे लोगों की, जो हमारी सुन्न होती जा रही चेतना को जगा सकें। वैसे भी, जब शब्द अपना अर्थ और असर खोने लगें, तो कार्टूनों और चित्रों के सहारे एक पीढ़ी को मानसिक रूप से अपाहिज होने से तो बचाया ही जा सकता है। ” उसने कहा। 

उसकी नजरें अभी भी सामने वाली छत पर मथुरा जी के कार्टूनों को तलाश रही थीं..।

© श्री विजयानन्द विजय

आनंद निकेत बाजार समिति रोड पो. – गजाधरगंज बक्सर (बिहार) – 802103

मो. – 9934267166 ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #128 – लघुकथा – “भ्रष्टाचार की सजा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है पुरस्कृत पुस्तक “चाबी वाला भूत” की शीर्ष बाल कथा  “भ्रष्टाचार की सजा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 127 ☆

☆ लघुकथा – “भ्रष्टाचार की सजा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’  

अखबार हाथ में लेते ही उसे वह पल याद याद आ गया जब वह कलेक्टर साहब के पास गया था।

“क्यों भाई दो लाख रुपए की रिश्वत मांगी और मुझे पता भी नहीं चला!”

“सरजी! वह क्या है ना, आप का भी हिस्सा था उसमें।”

“मगर दो लाख रुपए क्यों मांगे? इसीलिए उसने शिकायत की और अखबार में भी दे दिया- ‘रजिस्ट्रार ने रजिस्ट्री पर रोक लगाई! भ्रष्टाचार में मांगे दो लाख’ “

“सरजी वह पाँच करोड रुपए लेकर सरकार रेट पर जमीन की पच्चीस लाख रुपए में रजिस्ट्री करवा रहा था। कम से कम इतना तो हमारा हक बनता है।”

“मगर शिकायत हुई तो तुम्हें सजा जरूर मिलेगी,” जैसे कलेक्टर साहब ने कहा तो उसका हाथ ब्रीफकेस पर मजबूती से कस गया। मगर दूसरे ही पल उसने ना जाने क्या सोचकर भी ब्रीफकेस पर पकड़ ढीली करके उसे साहब के घर पर ही छोड़ दिया।

यह स्मृति में आते ही उसने अखबार का पन्ना खोला। पहले पृष्ठ पर खबर छपी थी। ‘भ्रष्ट रजिस्टार का इंदौर स्थानांतरण”। 

यह पढ़ते ही उसके चेहरे पर धीरे-धीरे मुस्कान फैलती गई।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

07-10-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रश्नपत्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना सम्पन्न हो गई है। 🌻

अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी  

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रश्नपत्र ??

बारिश मूसलाधार है। ….हो सकता है कि इलाके की बिजली गुल हो जाए। ….हो सकता है कि सुबह तक हर रास्ते पर पानी लबालब भर जाए। ….हो सकता है कि कल की परीक्षा रद्द हो जाए।…आशंका और संभावना समानांतर चलती रहीं।

अगली सुबह आकाश निरभ्र था और वातावरण सुहाना। प्रश्नपत्र देखने के बाद आशंकाओं पर काम करने वालों की निब सूख चली थी पर संभावनाओं को जीने वालों की कलम पूरी रफ़्तार से दौड़ रही थी।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – हताशा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक लघुकथा ‘‘हताशा’’)

☆ लघुकथा – हताशा ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल 

‘अरे देखो तो, यह आदमी क्या कर रहा है?’

‘अरे पगला गया है ससुरा, भला ऐसा आचरण कोई करता है, पेड़ों के फूल नोंच-नोंच कर सड़क पर फेंक रहा है, यह पागलपन नहीं है तो क्या है यार!’

लोग देख रहे थे. एक बौखलाया  सा आदमी फूलों की डालियों से फूल नोंच-नोंचकर सड़क पर फेंक रहा है. साथ में अपने सिर के बाल भी नोंचता जा रहा है. लोगों ने फिर कानाफूसी की- यह पागलपन का दौर-दौरा है या कुछ और, कितनी मेहनत से इसने फूल उगाए थे और अब…’

अब वह आदमी अपनी बड़ी-बड़ी आंखें निकालकर चिल्लाने लगा- “आप लोग ही मेरी इस दुर्दशा के जिम्मेवार हैं. आपलोग यदि रोज़-रोज़ इन फूलों को तोड़कर नहीं ले जाते तो मैं कदापि इस अंजाम तक नहीं पहुंचता, मेरी बगिया ही उजाड़ दी आप लोगों ने, अरे फूलों के हत्यारे हो तुम. फूल दरख्तों पर ही अच्छे लगते हैं. तुम्हारी जेबों में ठुसे हुए नहीं…समझे कुछ’

लोग उसकी इस दलील पर भौंचक्के थे.

अब मैं कुल्हाड़ी लेकर इसकी समूची डालियां भी काटूंगा. न रहे बांस न रहे बांसुरी’ आप लोग फूलों के दुश्मन हो तो मेरे भी दुश्मन हो. अरे दुश्मनों इन पेड़ों ने क्या बिगाड़ा था तुम्हारा जो इनको पुष्पहीन करके हंस रहे हो. लोग उसकी हताशा को पहचान पाते, इसके पहले वह कुल्हाड़ी लेकर पेड़ों पर पिल पड़ा. ठक-ठक करती कुल्हाड़ी चल रही थी. उनकी जेबों में ठुंसे फूल कुम्हला रहे थे.

पूरा वातावरण श्री हीन हो गया था.

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 143 – गुब्बारे की कीमत ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी सामाजिक समस्या बाल विमर्श पर आधारित एक हृदयस्पर्शी लघुकथा “🎈गुब्बारे की कीमत 🎈”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 143 ☆

🌺लघु कथा 🎈गुब्बारे की कीमत 🎈

एक गुब्बारे वाला बरसों से बगीचे में गुब्बारे बेचकर अपनी जिंदगी की गाड़ी चला रहा था। एक साइकिल पर रंग-बिरंगे गुब्बारे सजाए वह बगीचे में इधर से उधर घूमता रहता था। सभी बच्चे उसका इंतजार करते थे। जिसके पास पैसे होते थे,  वे गुब्बारा ले लेते।

अभी कुछ दिनों से एक मासूम सी पांच वर्ष की बच्ची वहां खेलने आया करती थी। अपने टूटे-फूटे खिलौने लिए एक जगह बैठकर खेलती रहती थी। गुब्बारे देख उसका भी मन होता था। बार-बार वहां आती और देख कर चली जाती थी।

आज बड़ी हिम्मत करके आई और बोली… बाबा मुझे भी एक गुब्बारा दे दो पैसे मैं कल लाकर दूंगी। उसकी मासूमियत देखकर गुब्बारे वाले ने उसको एक गुब्बारा दे दिया और बड़े कड़े शब्दों में कहा… कल पैसे जरुर ले आना।

आज शाम को गुब्बारे वाला फिर बगीचे में आया। सभी बच्चों ने खेलकूद के बाद कुछ खाया। गुब्बारा खरीदा और अपने – अपने घर की ओर चले गए। पर वह बच्ची दिखाई नहीं दी।

गुब्बारे वाले ने एक बच्ची को धीरे से बुलाकर पूछा… तुम्हारे साथ जो कल एक बच्ची आई थी वह नहीं आई।

बच्ची ने कहा… अब कभी नहीं आएगी उसकी मां ने उसे गुब्बारा के लिए सजा दिया है।

सामने से देखा दोनों हाथ जले आंसुओं की धार, बाल बिखरे, वह एक महिला के साथ चली आ रही थी। आते ही वह महिला बोली… यह तुम्हारे पैसे अब कभी इसे गुब्बारा नहीं देना।

यह कह कर वह पीछे पलट कर चली गई।

बच्ची से पूछने पर पता चला उसकी अपनी मां मर गई है। यह सौतेली मां है। पिताजी तो हर समय बाहर रहते हैं और मां हमेशा कहती हैं इसकी मां तो मर गई, इसे छोड़ गई मेरे सिर पर, देखना किसी दिन नाक कटवायेगी।

थोड़ी देर बाद गुब्बारे वाला अपने सारे गुब्बारे स्वयं फोड़ चुका था और भारी मन से घर की ओर चल पड़ा।

फिर कभी बगीचे में उसने गुब्बारे नहीं बेचे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 107 ☆ लघुकथा – क्या था यह ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘क्या था यह ?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 106 ☆

☆ लघुकथा – क्या था यह ? — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

अरे !  क्या हो गया है तुझे ? कितने दिनों से अनमयस्क – सा  है ?  चुप्पी क्यों साध ली है तूने। जग में एक तू ही तो है जो पराई पीर समझता है। जाने – अनजाने सबके दुख टटोलता रहता है। क्या मजाल की तेरी नजरों से कोई बच निकले। तू अक्सर बिन आवाज रो पड़ता है और दूसरों को भी रुला देता है। कभी दिल आए तो  बच्चों सा खिलखिला भी उठता है। तू तो कितनों की प्रेरणा  बना और ना जाने  कितनों के हाथों की धधकती मशाल। अरे! चारण कवियों की आवाज बन तूने ही तो राजाओं को युद्ध में विजय दिलवाई। कभी मीरा  के प्रेमी मन की मर्मस्पर्शी आवाज बना, तो कभी वीर सेनानियों के चरणों की धूल। तूने ही सूरदास  के वात्सल्य को मनभावन पदों में पिरो दिया  और  विरहिणी नागमती की पीड़ा को कभी काग, तो कभी भौंरा बन हर स्त्री तक पहुँचाया। समाज में बड़े- बड़े बदलाव,  क्रांति कौन कराता है? तू ही ना!

देख ना, आज  भी कितना कुछ घट रहा है आसपास तेरे। ऐसे में सब अनदेखा कर मुँह सिल लिया है या गांधारी बन बैठा। मैं जानता हूँ तू ना निराश हो सकता है न संवेदनहीन। तूने ही कहा था ना – ‘नर हो ना निराश करो मन को’। तुझे चलना ही होगा, चल उठ, जल्दी कर। मानों किसी ने कस के झिझोंड़ दिया हो उसे। कवि मन हकबकाया  – सा इधर – उधर  देख रहा था। क्या था यह ? अंतर्मन की आवाज या सपना?

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “तू किस मिट्टी की बनी है माँ?” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक लघुकथा ‘‘तू किस मिट्टी की बनी है माँ?’’)

☆ लघुकथा – “तू किस मिट्टी की बनी है माँ?” ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल 

“मेरी जुराबें कहां हैं माँ?”

“मेरी गणित की किताब नहीं मिल रही है माँ.”

“मेरा टिफिन लगा दिया न माँ!”

“दूध वाला गेट पर खड़ा है माँ?”

“पापा, कच्छा-बनियान ढूंढ़ रहे हैं माँ.”

“चाय-बिस्कुट कब दोगी माँ?”

“ऑटो आ गया है. हम स्कूल जा रहे हैं. गेट बंद कर देना माँ.”

“आज महरी नहीं आयेगी. इतने सारे बर्तन कैसे मांजोगी माँ?”

“गैस आयी, दरवाज़ा खोलिए न माँ.”

“शाम को मेरे दोस्त आयेंगे, कुछ अच्छा-सा बना दोगी न माँ.”

“दादा-दादी के लिए गरम-गरम चपातियां बना दो न माँ.”

“मां आज स्कूल की फीस चाहिए, फीस के अलावा कुछ अतिरिक्त पैसे भी दे दिया करो न माँ.”

“मां बनिया सामान नहीं देता, पिछली उधारी मांगता है माँ.”

“मां सबकी तीमारदारी करती हो, तुम कभी बीमार नहीं पड़ती क्या माँ?”

“पापा भी तुम्हें कभी-कभी डांटते हैं. फिर मुस्कुरा कैसे लेती हो माँ?”

“मां, तू सोती कब है, उठती कब है, तू किस मिट्टी की बनी है माँ?”

“सारी विपत्तियां झेलने के लिए एक अकेली ही क्‍यों जिंम्मेवारी निभाती हो मां… सिर्फ मेरी ही नहीं, कभी-कभी तो तुम पूरे परिवार की ही बन जाती हो माँ.”

(कथा बिंब, हरिगंधा से साभार)

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – लम्बी कहानी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज का साधना मंत्र  – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि –  लघुकथा – लम्बी कहानी ??

यह दुनिया की सबसे लम्बी कहानी है। इसे गिनीज बुक में दर्ज़ किया गया है,.’ जानकारी दी जा रही थी।

उसके मन में विचार उठा कि पहली श्वास से पूर्णविराम की श्वास तक हर मनुष्य का जीवन एक अखंड कहानी है। असंख्य जीव, अनंत कहानियाँ..। हर कहानी की लम्बाई इतनी अधिक कि नापने के लिए पैमाना ही छोटा पड़ जाए।…फिर भला कोई कहानी दुनिया की सबसे लम्बी कहानी कैसे हो सकती है..?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “अदरक के पंजे” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “अदरक के पंजे”)

☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “अदरक के पंजे” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

सड़क के किनारे बनी उस छोटी -सी गन्ने के रस की दुकान पर मैं प्रायः चला जाता हूँ। परिचित दुकानदार होने के नाते कुछ देर रुकता हूँ। ग्राहकों की ओर देखता हूँ। ग्राहक रस पीने की एक पूरी प्रक्रिया से गुजरते हैं। रसवाला जब ताजा गन्ना मशीन में डालता है तो ग्राहक का ध्यान मशीन के पास लगा होता है। पहली बार में मशीन से रस का एक फव्वारा -सा फूटता है। ( कुदरत ने कहाँ-कहाँ मीठे झरने छुपा रखे हैं। ) ढेर सारा गाढ़ा रस जब मशीन से बर्तन में गिरता है तो बिना पीए ही एक मिठास -सी महसूस होती है। पर यह मिठास गन्ने को दुबारा मशीन में डालने तक ही रहती है। जब गन्ने को तिबारा मशीन में डाला जाता है, तो मशीन से निकलने वाले रस में हल्की -सी कड़वाहट लगती है। रस पीने का मूड कुछ कम हो जाता है। और जब उसी गन्ने को चौथी बार मरोड़ते हुए मशीन से निकाला जाता है, तो ग्राहक हल्का -सा अपमानित-सा महसूस करता है। जैसे बड़े बाबू को किसी ने चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी समझकर सलाम कर दिया हो। कुछ लोग तो चौथी बार देखने के बजाय इधर-उधर मुंँह फेर लेते हैं। गन्ने में अब क्या रस निकलेगा! हाँ, छिलके का रस जरुर निकलता है। पीने का रस विरस होने लगता है।

एक बार मैंने रसवाले को सारी प्रक्रिया बताते हुए कहा -”  चौथी बार गन्ने को मशीन से मत निकाला करो। ग्राहक का ध्यान मशीन पर होता है, वह अपमानित -सा महसूस करता है। इससे उसे पुनः रस पीने की इच्छा नहीं होती। “

रसवाले ने कहा -” तुम ठीक कहते हो, पर चौथी बार से ही तो हमारा पेट भरता है। ”  उसने समझाते हुए बताया -” पहली बार में तो गन्ने की लागत निकलती है, दूसरे में दुकान का मेण्टेनस, तीसरे में पावर, बर्फ, पुलिस, कमेटीवाले निपटते हैं। हमें जो कुछ बचता है, वह चौथी बार में ही बचता है।”

” मगर इससे ग्राहक संतुष्ट नहीं होता। ”  मेरे इस कथन पर उसने मुझसे कहा -‘ शुरू में नहीं होता मगर बाद में होता है। तुमने चौथी प्रक्रिया ध्यान से नहीं देखी,  चौथी बार गन्ने को मरोड़कर जब हम मशीन में से निकालते  हैं, तब हम गन्ने के साथ एक अदरक का टुकड़ा भी डालते हैं। इससे ग्राहक के ईगो को एक संतुष्टि मिलती है। अदरक अपने चरपरे स्वाद से छिलके के रस को गन्ने के रस में इस तरह मिलाती है कि छिलके का रस गन्ने का रस बन जाता है और गन्ने का रस और जायकेदार बन जाता है। गन्ने का रस तो आप लोग पी लेते हो, हमें तो छिलकों पर ही गुजारा करना होता है। ”  एक पल रुककर वह कुछ उदास स्वर में फिर बोला –

” आजकल धन्धे में काम्पिटेशन बहुत हो गई है। जिसे काम नहीं मिलता, वह रसवंती की दुकान खोल लेता है। सीजन में तो इतनी दुकानें लगती है कि देश में जितने गन्ने नहीं होते उससे ज्यादा दुकानें गन्ने के रस की होती है। ऐसे में इस भीड़ में, छिलकों के सहारे ही टिके होते हैं। हमें इसी अदरक का सहारा होता है। गमों को जिस प्रकार हलके-फुलके चरपरे लमहें कम कर देते हैं,  ये चरपरी अदरक ,  जीने की हिम्मत देती है। हमारे लिए यही लक्ष्मी है, देवता है, जो इस बेकारी और महँगाई में भी पूरे परिवार को थामती है, सँभाले रखती है। “

” शायद इसीलिए कुदरत ने अदरक को पंजे दिए हैं……। “

और उसकी आँखों से खारा-सा, चरपरा-सा दो बूंद रस टपक पड़ा।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #169 ☆ कहानी ☆ नये क्षितिज ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी नये क्षितिज। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 169 ☆

☆ कथा कहानी ☆ नये क्षितिज

शुभा अपना हाथ ऊपर उठाकर देखती है। त्वचा सूखी और सख़्त हो गयी है। उम्र का असर साफ दिखता है। शीशा उठाकर देखती है तो बालों में कई अधूरी-पूरी रजत-रेखाएँ दिखायी पड़ती हैं। चेहरा भी सख़्त हो गया है, पहले जैसा चिकनापन और मृदुता नहीं रही। सड़क पर चलते अब लोगों की निगाहें उसके चेहरे पर टिकती नहीं। सरकती हुई दूसरी चीज़ों की तरफ चली जाती हैं, जैसे वह भी सड़क पर चलती हज़ार सामान्य चीज़ों में से एक हो।

घर के बाहर कोने में वह नीम का दरख्त अब भी है जहाँ वह रोज़ सवेरे पिता की कुर्सी के बगल में दरी बिछाकर पढने बैठ जाती थी।  जब हवा चलती तो पत्तियों की सरसराहट से संगीत फूटता। पिता अपना काम-धाम निपटाते रहते और वह अपनी किताब, कॉपी, पेंसिल और स्केल से जूझती रहती। पढ़ने में वह तेज़ थी। कई बार पिता पूछते, ‘पढ़ लिख कर क्या बनेगी तू?’ शुभा का एक ही जवाब होता, ‘डॉक्टर बनूँगी, बाबा।’

पिता कहते, ‘अच्छी बात है। लेकिन पैसा-बटोरू डॉक्टर मत बनना। जिनके पास पैसा नहीं है उनके लिए भी कोई डॉक्टर चाहिए। एक बार मेरे सामने एक बूढ़े ने डॉक्टर से आँख की जाँच करायी। डॉक्टर जब फीस माँगने लगा तो बूढ़ा हक्का-बक्का हो गया। उसे पता ही नहीं था कि आँख की जाँच कराने की फीस लगती है। पैसा भी नहीं था उसके पास। डॉक्टर आगबबूला हो गया। जाँच का कार्ड छीन कर अपने पास रख लिया और बूढ़े को भगा दिया।’

अपनी कॉपी-किताब में उलझी शुभा को पिता की आधी बात समझ में आती है। कहती है, ‘तुम फिकर न करो बाबा। मैं सब का इलाज मुफ्त करूँगी।’

पिता हँसते, कहते, ‘देखूँगा। नहीं तो कान ऐंठने के लिए मैं तो हूँ ही।’

लेकिन पिता शुभा के कान ऐंठने के लिए रहे नहीं। एक दिन अपने भलेपन और भोलेपन की वजह से वे सड़क पर गुंडों से पिटते एक युवक को बचाने पहुँच गये। पचीसों लोग दर्शक बने यह तमाशा देख रहे थे। गुंडों के लिए यह इज़्ज़त का सवाल था। नतीजा यह कि पिता पेट में छुरे का वार झेल पर वहीं सड़क पर लंबे लेट गये और उन्हें वहाँ से तभी हटाया जा सका जब गुंडों ने अपना नाटक पूरा कर भद्र लोगों के लिए मंच खाली किया। सहायता उपलब्ध कराते तक बहुत देर हो चुकी थी।

शुभा को चौबीस घंटे नसीहत देने वाले पिता मौन हो गये और शुभा अचानक मजबूरन बड़ी हो गयी। चीनू और टीनू अभी नादान थे। वही कुछ करने लायक थी। माँ इस आघात से हतबुद्धि हो गयीं। उनका सारा आत्मविश्वास जाता रहा। अब दरवाज़े पर कोई भी आता तो ‘शुभी, शुभी’ चिल्लाकर पूरे घर को सिर पर उठा लेतीं। दुनिया और हालात का सामना करने का उनका सारा बल ख़त्म हो गया। ज़्यादातर वक्त वे अपने कमरे में कुहनी पर सिर रखे, आँखें बन्द किये लेटी रहतीं।

शुभा के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी। घर में दो नादान भाई थे जिन्हें पढ़ा-लिखा कर आदमी बनाना था। वर्तमान भले ही बिगड़ गया हो, भविष्य को सँवारना ज़रूरी था, अन्यथा अँधेरे की सुरंग कभी ख़त्म नहीं होगी। वह सवेरे दोनों भाइयों को डाँट-डपट  कर उठा देती और उन्हें  स्कूल के लिए तैयार होने को छोड़ उनके लिए टिफिन-बॉक्स तैयार करने में लग जाती। भाइयों के लिए वह बिलकुल पुलिस-इंस्पेक्टर बन गयी थी। स्कूल से सीधे घर आना ज़रूरी था, और पढ़ाई के घंटों में कोई दूसरा काम दीदी की अनुमति के बिना नहीं हो सकता था। इस व्यवस्था में अगर माँ भी हस्तक्षेप करतीं तो उन्हें भी डाँट खानी पड़ती।

भाइयों की सब हरकतों पर शुभा की चौकस निगाह रहती थी। वे कहाँ खेलते हैं, किसके साथ उठते बैठते हैं, इसकी मिनट मिनट की खबर उसे रहती थी। जहाँ भी वे खेलते-कूदते वहाँ दीदी एकाध चक्कर ज़रूर लगाती।

एक बार मुसीबत हो गयी जब मुहल्ले के लड़के दोनों भाइयों को सिनेमा ले गये। तीन-चार दिन बाद एक भेदी ने भेद खोल दिया और बात दीदी तक पहुँच गयी। उसके बाद घर में जो लंकाकांड हुआ उसकी याद करके दोनों भाई आज भी सिहर कर माथे पर हाथ रख लेते हैं। शुभा रणचंडी बन गयी थी और माँ के लिए बेटों को उसकी मार से बचाना खासा मुश्किल काम हो गया था। माँ चिल्लातीं, ‘अरे निर्दयी, अब मार ही डालेगी क्या बच्चों को?’ और शुभा जवाब देती, ‘हाँ मार डालूँगी। कम से कम बाबा के जाने के बाद इन्हें आवारा बनाने का कलंक तो नहीं लगेगा।’

शुभा का क्रोध भाइयों तक ही सीमित नहीं रहा। उसके बाद वह मुहल्ले के दादा प्रेम प्रकाश पर भी टूटा जिनकी अगुवाई में यह टोली सिनेमा देखने गयी थी। शुभा छड़ी लेकर पागलों की तरह पिल पड़ी और प्रेम प्रकाश का सारा प्रकाश-पुंज उस दिन बुझ गया। शुभा के हाथों मार खाने के बाद उसका दादापन तो अस्त हुआ ही,  शहर में उसका राजनीतिक कैरियर भी उठते उठते डूब गया।

लेकिन परिवार की देखरेख के चक्कर में शुभा की अपनी पढ़ाई मार खाने लगी। स्कूल तो उसने पास कर लिया, लेकिन कॉलेज की पढ़ाई के लिए उसके पास वक्त नहीं था। माँ की मानसिक स्थिति कुछ ऐसी थी कि घर में अकेली होते ही उन्हें अवसाद घेर लेता था। बच्चों के भविष्य के बारे में सारी दुश्चिंताएँ उन्हें जकड़ने लगतीं। बच्चों के घर लौटने तक वे उद्विग्न, घर में इधर-उधर घूमती रहतीं। इसलिए शुभा ने आगे की पढ़ाई घर में ही रहकर करने का निश्चय किया।

जैसा कि होता है, शुभा के रिश्तेदार, परिवार के मित्र और शुभचिन्तक अब माँ को शुभा की शादी की नसीहत देने लगे थे। माँ तत्काल उनसे सहमत होतीं और कहतीं कि कोई ठीक लड़का हो तो उन्हें बतायें। शुभा सुनती तो उसे हँसी और रुलाई दोनों ही आती। वह जानती थी कि अभी उसका विवाह संभव नहीं है। वह चली जाएगी तो माँ की पूरी गृहस्थी बैठ जाएगी। भाई अपने रास्ते से भटक जाएँगे और माँ के लिए उन्हें सँभालना मुश्किल हो जाएगा।

बी.ए. पास करने और माँ का मन कुछ स्थिर होने पर उसने एक चिकित्सा-उपकरण बनाने वाली कंपनी में नौकरी प्राप्त कर ली थी। अब दुनिया कुछ भिन्न और विस्तृत हो गयी। कुछ आत्मबल भी बढ़ा। नये वातावरण में घर के दबाव और चिन्ताओं से कुछ देर मुक्त रहने का अवसर मिला।

ऐसे ही वक्त गुज़रता गया। बड़ा चीनू बी.एससी. पास करके एक दवा कंपनी में नौकरी पा गया। जल्दी ही उसकी शादी की बातें होने लगीं। घर में बहू आ जाए तो माँ को सहारा देने के लिए कोई रहे। माँ दबी ज़ुबान में कहतीं, ‘शुभी की शादी से पहले चीनू की शादी कैसे कर दें?’ शुभा हँस कर कहती, ‘माताजी, फालतू की बकवास छोड़ो। बूढ़ों की शादी की चिन्ता मत करो। चीनू की शादी कर डालो।’

माँ दुखी हो जातीं। ‘कैसी जली-कटी बातें करती है यह लड़की! कैसी पत्थरदिल हो गयी है।’

अन्ततः चीनू की शादी हो गयी और बहू घर आ गयी। जल्दी ही टीनू कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर नौकरी करने नागपुर चला गया।

चीनू की पत्नी को यह घर भाता नहीं था। छोटा सा, पुराना घर था। उसमें बहू की कोई स्मृतियाँ नहीं थीं। फिर उसे लगता था कि इस घर में दीदी की कुछ ज़्यादा ही चलती है। जब मन होता तब वह मायके जा बैठती। चीनू परेशान होने लगा। एक दिन शुभा ने खुद ही कह दिया, ‘भाई, तू अपनी बीवी के लिए कोई अच्छा सा घर ढूँढ़ ले और चैन से रह। हम माँ-बेटी यहाँ रह लेंगे।’ कुछ समय पाखंड करने के बाद चीनू ने घर ढूँढ़ लिया और अपनी गृहस्थी लेकर उसमें चला गया।

अब शुभा शीशे में अपनी बढ़ती उम्र के प्रमाणों को देखती रहती है। माँ उम्र बढ़ने के साथ-साथ निर्बल हो रही है। कभी हो सकता है कि वह घर में अकेली रह जाए और उसका मददगार कोई न हो। माँ ने अभी भी उसकी शादी की रट छोड़ी नहीं है। उनका विचार है अभी भी कोई नया नहीं तो दुहेजू वर तो मिल ही सकता है। कोई एकाध बच्चे वाला भी हुआ तो क्या हर्ज है? ऐसे एक दो प्रस्ताव आये भी हैं। लेकिन अब शुभा की विवाह में रुचि नहीं है। विवाह के नाम से स्फुरण होने वाली उम्र गुज़र चुकी है। अब शादी का नाम उठते ही अनेक आशंकाएँ मन को घेरने लगती हैं। ज़िन्दगी का जो ढर्रा बन गया है उसमें कोई बड़ा मोड़ पैदा करना संभव नहीं है।

घर के पास ही एक तालाब है। पक्की सीढ़ियों और छायादार वृक्षों के कारण वहाँ का दृश्य मनोरम हो गया है। शाम को अक्सर शुभा एक-दो घंटे वहीं गुज़ारती है।नहाने धोने वालों की वजह से वहाँ का वातावरण गुलज़ार बना रहता है। शुभा को देख कर कुछ पाने की लालच में एक दो बच्चे उसके पास आ बैठते हैं। शंकर से शुभा की पटती है। बातूनी और प्यारा लड़का है, लेकिन वक्त की मार झेलता, निरुद्देश्य भटकता रहता है।

एक दिन शुभा ने उससे पूछा, ‘स्कूल नहीं जाता तू?’

‘न! बापू नहीं भेजता। कहता है फीस और किताबों के लिए पैसे नहीं हैं।’

शुभा ने पूछा, ‘मैं फीस और किताबों के पैसे दूँ तो पढ़ेगा?’

शंकर खुश होकर बोला, ‘पढ़ूँगा, लेकिन बापू से बात करनी पड़ेगी।’

शुभा ने उसका हाथ पकड़ा, कहा, ‘आ चल। तेरे बापू से बात करती हूँ।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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