☆ अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस – “योग से मिले नया जीवन…” ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆
ऋषि मुनियों और संतों की पावन भूमि कहा जाने वाला हमारा देश आज योग गुरु देश बन गया है। भारतीय योग गुरुओं ने विदेशी जमीन पर योग की उपयोगिता और महत्व के बारे में जागरूक किया है।
वर्ष 2015 से विश्व भर में 21जून को विश्व योग दिवस मनाया जा रहा है। योग दिवस मनाने की तारीख 21 जून ही निश्चित की गई है। इसका कारण भारतीय परंपरा के अनुसार, ग्रीष्म संक्रांति के बाद सूर्य दक्षिणायन होना है। सूर्य दक्षिणायन का समय ही आध्यात्मिक सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए असरदार माना गया है। इसलिए प्रतिवर्ष 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाते हैं।
कोरोना काल के बाद से योग का महत्व अधिक बढ़ गया है। संक्रमण से लड़ने के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से लोग योग अभ्यास करने लगे हैं। योग दिवस 2023 की थीम ‘वसुधैव कुटुंबकम के लिए योग’ है। धरती ही परिवार है। धरती जब ही स्वस्थ और शुद्ध रहेगी, जब मानव स्वस्थ रहेंगे। योग भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के सबसे बड़े प्रतीकों में से एक रहा है। यह एक प्राचीन अभ्यास है, जिसकी सृष्टि भारत में हुई है। योग शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विषयों को शामिल करता है। यह शरीर और मन के बीच सद्भाव को बढ़ावा देता है और व्यक्तियों को अच्छी तरह से एक संम्पूर्ण आधुनिक जीवन प्राप्त करने में मदद करता है।
जब भी दुनिया ने मानवता कल्याण के लिए समग्र स्वास्थ्य और जीवन के लिए आवाज उठाया है तो भारत के प्राचीन ज्ञान की हमेशा चर्चा की और सराहना की है. दुनिया भर में इस अभ्यास की एक बढ़ती स्वीकृति, इसकी व्यापक लोकप्रियता इसका एक साक्ष्य है, जिससे दुनिया में आध्यात्मिक गुरु के रूप में भारत का कद बढ़ रहा है. अब, दैनिक जीवन शैली के एक हिस्से के रूप में योग का तेज पश्चिमी दुनिया में भी देखा जा रहा है. इसकी लोकप्रियता कोविड महामारी के दौरान काफी बढ़ गई , जब शारीरिक और मानसिक फिटनेस को लेकर विश्व स्तर पर ज्यादा जोर दिया गया था, लाखों लोगों को इसी उद्देश्य के लिए योग में घुसना पड़ा।
योग दुःखों को कम करने में मानवता प्रदान करता है और लोगों को एक साथ आनन्द की भावना को बढ़ावा देने और एक साथ दुनिया के बीच लचीलापन बनाने के अलावा लोगों को एक साथ लाता है. अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस ने विश्व स्तर पर विशाल लोकप्रियता प्राप्त की है, और लाखों लोग इस दिन योग-संबंधित घटनाओं में भाग लेते हैं. यह समग्र स्वास्थ्य और कल्याण की खोज में विभिन्न पृष्ठभूमि, संस्कृतियों और धर्मों से लोगों को एकजुट करने का अवसर बन गया है. योग दिवस के निरंतर समारोह को इस अभ्यास के बारे में लोगों के बीच जागरूकता फैलाने और यह सुनिश्चित करने के लिए किसी व्यक्ति की आंतरिक चेतना और बाहरी दुनिया के बीच निरंतर संबंध की भावना को गहरा करता है।
☆ “महाकवि कालिदास दिन – (आषाढस्य प्रथम दिवसे!)” – भाग-2 ☆ लेखक और प्रस्तुतकर्ता – डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
मित्रों, पहले बतायेनुसार यक्ष को आषाढ़ के प्रथम दिन पर्वतशिखरों को लिप्त कर आलिंगन देनेवाला मेघ, क्रीडा करनेवाले दर्शनीय हाथी के सामान दिखा। जिसमें १२१ श्लोक (पूर्वार्ध यानि, पूर्वमेघ ६६ श्लोक तथा उत्तरार्ध यानि, उत्तरमेघ ५५ श्लोक) संलग्न है, वह सकल खंडकाव्य सिर्फ और सिर्फ एक ही वृत्त (छंद), मंदाक्रांता वृत्त में (इस वृत्त के प्रणेता हैं, स्वयं कालिदासजी!) गेय काव्य में छंदबद्ध करने की प्रतिभा (और प्रतिमा नहीं परन्तु प्रत्यक्ष में) केवल और केवल कालिदासजी की!
यक्ष आकाश में विचरते मेघ को ही अपना सखा समझ दूत बनाता है, उसे रामगिरी से अलकापुरी का मार्ग बताता है, अपनी प्रियतमा का विरहसे क्षतिग्रस्त शरीर इत्यादि का वर्णन करने के बाद, मेघ को अपना संदेश प्रियतमा तक पहुँचाने की अत्यंत आवेग से बिनती करता है! पाठकों, यक्ष है भूमि पर, परन्तु पूर्वमेघ में वह मेघ को प्रियतमा की अलकानगरी तक जाने का मार्ग बताता है, इसमें ९ प्रदेश, ६६ नगर, ८ पर्वत तथा १० नदियों का भौगोलिक होते हुए भी विहंगम और रमणीय वर्णन किया गया है| विदर्भ के रामगिरी से इस मेघदूत का हिमालय की गोद में बसी हुई अलकानगरी तक का प्रदीर्घ प्रवास इसमें वर्णित किया गया है| अन्त में कैलास के तल पर बसी अलकानगरी में मेघ पहुँचता है| इस वर्णन में मेघ की प्रियतमा विद्युल्लता से हमारी भेंट होती है| उत्तर मेघ में यक्ष ने ने अपनी प्रेयसीको दिया हुआ संदेश है| प्रियतमा विरहव्याधि के कारण प्राणत्याग न कर दे और धीरज रखे, ऐसा संदेश वह यक्ष मेघ द्वारा भेजता है| उसे वह मेघ द्वारा यह संदेश दे रहा है “अब शाप समाप्त होने में केवल चार मास ही शेष हैं, मैं कार्तिक मास में आ ही रहा हूँ”| काव्य के अंतिम श्लोक में यह यक्ष मेघ से कहता है “तुम्हारा किसी भी स्थिति में तुम्हारी प्रिय विद्युलता से कभी भी वियोग न हो!” ऐसा है यह यक्ष का विरहगीत।
मित्रों! स्टोरी कुछ विशेष नहीं, हमारे जैसे अरसिक व्यक्ति पत्र लिखते समय, पोस्टल ऍड्रेस लिखते हैं, अंदर अच्छे बुरे हालचाल की ४ पंक्तियाँ! परन्तु ऍड्रेस एकदम करेक्ट, विस्तृत और अंदर का मैटर रोमँटिक होने के कारण, पोस्ट ऑफिस वालों को भायेगा न, और फिर पोस्टल डिपार्टमेंट पोस्ट का टिकट छपवाकर उस लेखक को सन्मानित करेगा या नहीं! नीचे के फोटो में देखिये पोस्ट का सुन्दर टिकट, यह कालिदासजी के ऍड्रेस लिखने के कौशल्य को किया साष्टांग प्रणिपात ही समझ लीजिये! इस वक्त अगर कालिदासजी होते तो वे ही निर्विवाद रूप से इस डिपार्टमेंट के Brand Ambassador रहे होते! कालिदासजी ने अपने अद्वितीय दूतकाव्य में दूत के रूप में अत्यंत विचारपूर्वक आषाढ़ के निर्जीव परन्तु बाष्पयुक्त धूम्रवर्ण के मेघ का चयन किया, क्योंकि यह जलयुक्त मेघसखा रामगिरी से अलकापुरी तक की दीर्घ यात्रा कर सकेगा इसका उसे पूरा विश्वास है! शरद ऋतु में मेघ रिक्त होता है, इसके अलावा, आषाढ़ मास में सन्देश भेजने पर वह उसकी प्रियतमा तक शीघ्र पहुंचेगा ऐसा यक्ष ने सोचा होगा!
(“आषाढस्य प्रथम दिवसे”- प्रहर वोरा, आलाप देसाई “सूर वर्षा”)
मित्रों, आषाढ़ मास का प्रथम दिन और कृष्णवर्णी, श्यामलतनु, जलनिधि से परिपूर्ण ऐसा मेघ होता है संदेशदूत! पता बताना और सन्देश पहुँचाना, बस, इतनी ही शॉर्ट अँड स्वीट स्टोरी, परन्तु कालिदासजी के पारस स्पर्श से लाभान्वित यह आषाढ़मेघ अमर दूत हो गया! रामगिरी से अलकानगरी, बीच में हॉल्ट उज्जयिनी (मार्ग तनिक वक्र करते हुए, क्योंकि उज्जयिनी है कालिदासजी की अतिप्रिय रम्य नगरी!) इस तरह मेघ को कैसा प्रवास करना होगा, राह में कौनसे माईल स्टोन्स आएंगे, उसकी विरह से व्याकुल पत्नी (और मेघ की भौजाई हाँ, no confusion!) दुःख में विव्हल होकर किस तरह अश्रुपात कर रही होगी यह सब यक्ष मेघ को उत्कट और भावमधुर काव्य में बता रहा है! इसके बाद संस्कृत साहित्य में दूतकाव्योंकी मानों फॅशन ही आ गई (इसमें महत्वपूर्ण है नल-दमयंती का आख्यान), परन्तु मेघदूत शीर्ष स्थान पर ही रहा, उसकी बराबरी कोई काव्य नहीं कर पाया! प्रेमभावनाओं के इंद्रधनुषी आविष्कार का रूप, पाठकों को यक्ष की विरहव्यथा में व्याकुल करने वाला ही नहीं, बल्कि अपनी काव्यप्रतिभा से मंत्रमुग्ध करने वाला यह काव्य “मेघदूत!’ इसीलिये आषाढ मास के प्रथम दिन इस काव्य का तथा उसके रचयिता का स्मरण करना अपरिहार्य ही है!
प्रिय पाठकगण, अब कालिदासजी की महान सप्त रचनाओं का अत्यल्प परिचय देना चाहूंगी! इस साहित्य में ऋतुसंहार, कुमारसंभवम्, रघुवंशम् और मेघदूत ये चार काव्यरचनाएँ हैं, वैसे ही मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय तथा अभिज्ञान शाकुंतलम् ये तीन संस्कृत नाटक-महाकाव्य हैं!
आचार्य विश्वनाथ कहते हैं “वाक्यं रसात्मकं काव्यम्” अर्थात रसयुक्त वाक्य यानि काव्य!
कालिदासजी की काव्यरचनाऐं हैं केवल चार! (संख्या गिनने हेतु एक हाथ की उँगलियाँ काफी हैं!)
रघुवंशम् (महाकाव्य)
यह महाकाव्य कालिदासजी की सर्वोत्कृष्ट काव्यरचना मानी जाती है! इसमें १९ सर्ग हैं, सूर्यवंशी राजाओं की दैदिप्यमान वंशावली का इसमें तेजस्वी वर्णन है| इस वंश के अनेक राजाओं के, मुख्यतः दिलीप, रघु, अज और दशरथ के चरित्र इस महाकाव्य में चित्रित किये गए हैं| सूर्यवंशी राजा दिलीप से तो श्रीराम और उनके वंशज ऐसे इस काव्य के अनेक नायक हैं|
कुमारसंभवम् (महाकाव्य)
यह है कालिदासजी का प्रसिद्ध महाकाव्य! इसमें शिवपार्वती विवाह, कुमार कार्तिकेय का जन्म और उसके द्वारा तारकासुर का वध ये प्रमुख कथाएं हैं|
मेघदूत (खंडकाव्य)
इस दूतकाव्य के विषय में मैं पहले ही लिख चुकी हूँ|
ऋतुसंहार (खंडकाव्य)
यह कालिदासजी की सर्वप्रथम रचना है| इस गेयकाव्य में ६ सर्ग हैं, जिनमें षडऋतुओंका (ग्रीष्म, वर्षा, शरत, हेमंत, शिशिर और वसंत) वर्णन है|
कालिदासजी की नाट्यरचनाएं हैं केवल तीन! (संख्या गिनने हेतु एक हाथ की उँगलियाँ काफी हैं!)
अभिज्ञानशाकुन्तलम् (नाटक)
इस नाटक के बारे में क्या कहा गया है देखिये, “काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला” (कविताके विविध रूपों में अगर कोई नाटक होगा, तो नाटकों में सबसे अनुपमेय रम्य नाटक यानि अभिज्ञानशाकुन्तलम्) महाकवी कालिदासजी का यह नाटक सर्वपरिचित और सुप्रसिद्ध है| यह नाटक महाभारतके आदिपर्व में वर्णित शकुन्तला के जीवनपर आधारित है| संस्कृत साहित्य का सर्वश्रेष्ठ नाटक यानि अभिज्ञानशाकुन्तलम्!
विक्रमोर्यवशियम् (नाटक)
महान कवी कालिदासजी का यह एक रोमांचक, रहस्यमय और रोमांचकारी कथानक वाला ५ अंकों का नाटक है! इसमें कालिदासजी ने राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी के प्रेमसम्बन्ध का काव्यात्मक वर्णन किया है।
मालविकाग्निमित्र (नाटक)
कवी कालिदासजी का यह नाटक शुंगवंश के राजा अग्निमित्र और एक सेवक की कन्या मालविका की प्रेमकथापर आधारित है| कालिदासजी की यह प्रथम नाट्यकृति है।
तो, मित्रों, ‘कालिदास दिवस’ के उपलक्ष्य पर इस महान कविराज को मेरा पुनश्च साष्टांग प्रणिपात!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उठापटक”।)
अभी अभी # 76 ⇒ उठापटक… श्री प्रदीप शर्मा
किसी को उठाना और फिर पटकना, यह अखाड़े में पहलवानों का काम है। पहले प्रतिद्वंद्वी से भिड़ना, दांव पेंच लगाना, उसे उठाकर पटक देना और जब विजयी घोषित हो जाएं, तो उसी का हाथ पकड़कर सबका अभिवादन करना।
कभी कभी जब सामने वाला पहलवान कमजोर और दुबला होता है तो वह सीधा ज़ोरदार पहलवान के क़दमों से जोंक की तरह चिपक जाता है। मानो पांव पड़कर माफी मांग रहा हो। कई बार रेफ्री उसे अलग करता है, लेकिन वह उस भारी भरकम पहलवान के अंगद के पांव को हिलाता नहीं, उस पर मलखम करने लग जाता है। लेकिन जब सामने वाले पहलवान का धोबी पछाड़ दांव लगता है, ये पहलवान चारों खाने चित, और इन्हें दिन में तारे नजर आ जाते हैं। ।
धोबी पछाड़ का तो कॉपीराइट ही धोबी के पास है। धोबी पछाड़ का सीधा प्रसारण देखना हो तो कभी धोबी घाट चले जाएं। धोबी जी के घाट पर, भई कपड़न की भीड़। हर कपड़े को उठा, पटक मारे पत्थर पर रजक वीर।
एक आम आदमी के जीवन में भी कितनी उठापटक है, केवल वह ही जानता है। हर जगह प्रतिस्पर्धा, टांग खिंचाई। जो आपकी टांग खींच रहा है, उसे कभी आशीर्वाद नहीं दिया जाता। उस उठाकर पटक ही दिया जाता है। नौकरी में उतार चढ़ाव आते हैं, धंधे में मंडी आती है। कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं इंसान को, और आप कहते हैं, उठापटक मत करो।
राजनीति एक ऐसा अखाड़ा है, जहां हमेशा उठापटक चला ही करती है। वणिक शब्दकोश में इसे हेराफेरी का नाम दिया गया है। वैसे उठापटक के बिना भी कभी उलटफेर हुआ है। कुछ विधायक इधर से उठाए, उधर रख दिए। अब आप चाहे इसे उठापटक कहें, हेराफेरी कहें, अथवा उलटफेर, सब चलता है।
मर्यादा पुरुषोत्तम ने तो जिसे उठाया, उसे गले से ही लगाया। जिसे भी उठाओ, प्रेम से गले लगाओ। जिस तरह हम एक बच्चे को प्यार से उठाते हैं, गले लगाते हैं। गलती से भी किसी पत्थर को भी ठोकर लगे, तो वह अहिल्या बन जाए। जो पत्थर इन हाथों से फेंका जाए, वह किसी को नुकसान न पहुंचाए, केवल राम जी के नाम से पानी में भी तैर जाए। जब जाम उठाया है तो उसे मुंह तक जाने दीजिए, ज़मीन पर मत पटकिए। शीशा हो या दिल, टूट जाता है। बेवजह उठापटक से किसी का दिल कभी ना तोड़िए। ।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 39 ☆ देश-परदेश – मुगालता ☆ श्री राकेश कुमार ☆
विश्व के किसी भाग में जब भी कोई घटना या परिवर्तन होता है, विशेष रूप से राजनैतिक, हमारे देशवासी तुरंत कोई निष्कर्ष निकाल कर अपने हित साधने लगते हैं।
यूनाइटेड किंगडम से कुछ घंटे पूर्व ज्ञात हुआ कि भारतीय मूल के श्री ऋषि सुनक वहां के आगामी प्रधान मंत्री बनेंगे। हमारा सोशल मीडिया इस समाचार की बाढ़ में साल भर के सबसे बड़े त्यौहार दीपावली को भूल उनसे अपने रिश्ते ढूंढने लगा।
विदेशों में व्यापार करने वाले नए नए सपने संजोने लग गए हैं। उनके परिवार को विदेश में बसे लंबा समय हो जाने के बावजूद लोग उनके पैतृक गांव में ज़मीन महंगी होने के शिगूफे छोड़ रहे हैं।
उनका सुसराल का परिवार भी भारतीय है। हमारे व्हाट्स ऐप माध्यम ने उनकी सात पुश्ते खोज ली हैं। “अपना ऋषि” बोलकर लोग नज़दीकी रिश्तेदार होने का प्रणाम दे रहे हैं। कुछ तो कह रहे हैं अंग्रेजों ने जो महाराजा रंजीत सिंह जी का हीरा ” कोहिनूर” लूटा था, वो कार्तिक की पूर्णिमा (पंद्रह दिन बाद) याने गुरुनानक जयंती तक ऋषि सुनक देश को वापस दिलवा देंगे।
कुछ वर्ष पूर्व श्रीमती कमला हैरिस, अमेरिका की उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुई तो हमारे देशवासी उनको “कमला बुआ” कहने लगे और सोचने लगे जैसे उनके घर की ही बेटी निर्वाचित हुई हो। अमेरिका से ऐसी उम्मीद करने लगे, जैसे मोहल्ले का कोई लड़का जब बैंक में भर्ती हो जाता है, तो वो एक के नोट की गड्डियां प्रतिदिन घर पहुंचा देगा।
गलतफहमी/मुगालता तो बहुत जल्दी से हो जाता हैं। कुछ दिन बाद ही ऐसे लोग हकीकत देखकर परेशान हो जाते हैं। बहुत जल्द खुश होकर मुगालते पालने से तो धीरज रखकर आने वाले समय को पहचानना चाहिए।
जून महिन्याचा तिसरा रविवार जागतिक पातळीवर सर्वत्र नव्हे, पण संख्येने सर्वाधिक देशात “पितृदिन “ म्हणून साजरा करण्यात येतो. अमेरिका, इंग्लड, जपान, सिंगापूर, फ्रान्स इत्यादी देशात तो आज आहे. रोमालियात मेचा दुसरा रविवार, तर तैवानमध्ये आठ ऑगस्ट, थायलंड ५ सप्टेंबर, ऑस्ट्रेलिया तर न्यूझीलंडमध्ये सप्टेंबरचा पहिला रविवार पितृदिन म्हणून साजरा करण्यात येतो. पित्याप्रती ऋण व्यक्त करण्याचा हा दिवस आहे. आपल्या भारतात अनुकरण म्हणून अमेरिका इंग्लडप्रमाणे आपण जूनचा तिसरा रविवारच पितृदिन म्हणून साजरा करतो. सांस्कृतिक व पारंपरिक दृष्टीने भारतातला पिता ‘ बाप ‘ म्हणून सदैव सोबतच असतो. बापाच्या मृत्यूनंतरही पितृपक्षात तो पुन्हा पुन्हा अवतरतो. कुटुंब व्यवस्थेत व सामाजिक व्यवस्थेत माता पिता यांना भारतीय संस्कृतीत मानाचे स्थान आहे.पाश्चात्यांचे अनुकरण असले तरी संसारगाड्याने दमविलेल्या बाबाबद्दल ऋण व्यक्त करणं उचितच आहे.
पितृदिन साजरा करण्याचा जन्म कसा झाला याची कथा अत्यंतिक शोकांतिक व दर्दनाक आहे. १९०७ साली अमेरिकेतील पश्चिम वर्जीनिया प्रांतातील फेअरमोंट शहरी एका खाणीत झालेल्या दुर्घटनेत तब्बल ३६१ खाण कामगारांचा मृत्यू झाला होता. या दुर्दैवी मृत कामगारांपैकी सुमारे २५० कामगार असे होते की जे लहान लहान मुलांचे बाप होते. नियतीने एकाच फटकाऱ्यात हजारो मुलांना अनाथ व शेकडो माता भगिनींना वैधव्य दिलं होतं. हजारोंच्या आक्रोशाने धरणीलाही कंप फुटावा असं झालं होतं. दुःखाचा हा डोंगर विसरणं फेअरमोंट शहराला कदापिही शक्य नव्हतं. या दुःखद घटनेची स्मृति म्हणून ग्रेस गोल्डन क्लेंटन यांनी दरवर्षी सामुदायिक श्रदांजली कार्यक्रम घ्यायला सुरुवात केली. दुर्दैवी पित्यांचे सार्वजनिक श्रदांजली कार्यक्रम प्रांताप्रांतातून अमेरिका खंडात व इंग्रजी राजवटीमुळे जगभरात सुरु झाले.१९३० च्या आसपास या दिनाचे रुपांतर पितृदिनात झाले. श्रद्धांजली सभेत कालओघात वुड्रो विल्सन, लिंडन जॉनसन, कूलिज अशा राष्ट्राध्यक्षांची भाषणे झाली. त्यामुळे राजसत्तेचे अधिष्ठान प्राप्त झाले आणि हा दिन कायद्याने सर्वसंमत झाला. अशी झाली पितृदिनाची निर्मिती.
भारतात मात्र माता पिता यांना देवादिकांच्या बरोबरीचे स्थान आहे. पितृसत्ताक पद्धतीत पित्याचे स्थान वरच्या श्रेणीत असले तरी भावनिक दृष्टीने आईला जेवढं सहज जवळतेचं स्थान आहे, तेवढं वडील नावाच्या पोशिंद्यास मात्र नाही. आजचा पिता व मागील काही पिढ्यातला पिता यांमध्ये खूप फरक पडला आहे. मुलानं तोंड उघडायची जागा म्हणजे आई व मुलाचं तोंड बंद व्हायची जागा म्हणजे बाप – असं समीकरण खूप मोठ्या कालखंडापासून अखंड चालत आलेलं आहे. पिता व वडील ही बापासाठी समानअर्थी शब्द योजना असली तरी ‘ बाप ‘ या शब्दाचा गर्भित अर्थ पिता व वडील या शब्दछटेत सापडत नाहीत. बाप तो बापच. काळाच्या ओघात खडक विरघळावा तसा बाप हळूहळू विरघळतो आहे. पण पारंपारिक पाषाणखुणा अजून काही जात नाहीत. बाप या भावनेकडे करारीपणाचे पेटंट अजूनही आहे. पूर्वीच्या काळी उदरनिर्वाहासाठी खूप कष्ट उपसावे लागत असत. शेती, कारखानदारी, नोकरी या निमित्तानं पुरुषवर्गास, पर्यायाने बापमंडळीस जास्त काळ बाहेरच राहावं लागत असे. साहजिकच बाळास आईचा सहवास जास्त काळ मिळतो. बाळाचा हा काळ शिकण्याचा ,अनुकरणाचा असल्यामुळे बाळावर साहजिकच आईचा प्रभाव जास्त पडतो. त्यामुळे प्रेमरस पाजणारी व चिऊकाऊच्या नावाने घास भरवणारी आई सर्वांनाच आपोआप प्रिय होते. दिवसभराचं भरवणं, करणं नजरेत असल्यामुळे आई खूप आवडते. पण दिनभराच्या भरवणीसाठीचं पित्याचं महिनोनमहिने वर्षानुवर्ष खपणं दुर्लक्षित होतं. बाळाच्या वाढीच्या काळात खेळताना शिकताना काही चुकलं की थांब येऊ दे बाबाला, या महिला वर्गाकडील पिढ्यानपिढ्याच्या धमकीने आईच्या गळ्यात पडून तिच्या केसांना लाडिवाळपणे खेळणारी मुले पित्याच्या छातीवरील केसासोबत खेळलीच नाहीत. आईच्या कडेवर बसणं हे लेकराचं अढळ धृवीय असल्यामुळे बापाच्या कडेवर लेकरु हे मजबूत आसन उदयास आलेच नाही. पित्याचं करारीपण नेहमीच दिसलं, पण दिसलं नाही कधी काळ्या पाषाणात दडलेलं मायासागराचं तीर्थ.
आजचा बाप कुटुंबासाठी दररोजचा अर्जून होऊन रोजच लढतो आहे. बाप म्हणजे कुटुंबाचा ओझोन वायूच. समाजातील वाईट प्रवृतींना कुटुंबाजवळ तो येऊ देत नाही. पूर्वी बाप म्हणजे सर्वोच्च न्यायालय असे. आजी आजोबांकडे एखाद्या प्रकरणात अपील करता येत असे. पण आता आईला खंडपीठाचा दर्जा असल्यामुळे बापपणाला कात्री लागलीय. आजी आजोबांचे अधिकारही आणीबाणीत गोठीत झाले आहेत अन् अपील करण्याची मुभाच नाही, कारण खंडपीठाच्या न्यायमूर्तीला सर्वोच्च न्यायालयावर भरवसा नाही. पण तरीही बाप काही औरच असतो.
मुलांचे लाड पुरविण्याचा मक्ता आईकडून वडीलाकडे कधी आला ते आईला कळलेच नाही. मुलांनी बेभान होऊन बापाची वाट पाहणं हे बापजन्माचं सार्थक आहे. घराची सुंदरता जपते ती आई, पण हे सौंदर्य अबाधित ठेवण्यासाठी सतत झुंजतो तो बाप. दुःखाच्या कल्पनेने हादरते ती आई, पण दुःख छाताडावर पेलून मनातलं आक्रंदन उरातच जिरवितो तो बाप. लेकीच्या काळजीने रोजच हळवी होते ती आई, पण लेकीच्या कल्याणासाठी संपूर्ण हयात झिजवून विवाह मंडपी सगळं आवरल्यावर धाय मोकलून रडतो तो बाप. भावनिक दृष्ट्या बापाच्या वाट्याला चार क्षण कमी येतात, पण बापाच्या कायम जाण्याने आभाळ कोसळलं म्हणतात. हे एक वाक्य बापाचं स्थान सांगण्यास पुरेसं आहे. कुटुंबाच्या सुरक्षेसाठी अपमान गिळण्याची ,कष्ट करण्याची तयारी बाप नावाची असते. लेकराबाळाच्या, बायकोच्या डोळ्यातला अश्रूबिंदू त्याच्यासाठी सागरी तुफान असतो. अश्रूच निर्माण होऊ नये म्हणून तो कायम वादळवाटेने धावत असतो. आणि कधीकधी हेच वादळ त्याला गिळतं.
पेनाचं झाकण म्हणजे बाप, पाण्याच्या टाकीचं झाकण म्हणजे बाप, डब्यांची झाकणं म्हणजे बाप. ही झाकणं आकाराने छोटी असतात पण उघडंपण येण्यापासून वाचवतात. झाकणं नसतील तर या वस्तू अडगळीत जातात. बाप हे कुटुंबाचं झाकणच. झाकण खराब झालं ,वाकडंतिकडं झालं की त्याची आवरणमूल्यता संपते. तसंच बाप हे झाकण व्यसनानं, विकृतीनं बिघडलं की कुटुंबाला किडेमुंग्या लागायला वेळ लागत नाही.
विभक्त कुटुंब पद्धती व अर्थाला लाभलेला उच्चकोटीचा भाव, अर्थकारणावरच आधारलेली शिक्षण पद्धती, जीवनपद्धती यामुळे आजचा बाबा खूप दमलाय. धावपळीमुळे त्याला स्वतःकडे लक्ष द्यायला वेळच नाही. संगोपनाच्या भाराने बाप आता झुकलाय. दमलेल्या बाबाची कहाणी सगळ्यांनी समजून घ्यायला हवी.
… डोंगराएवढ्या आभाळमायेच्या ‘बाप’भावनेला सलाम करावा वाटतो.
☆ “महाकवि कालिदास दिन – (आषाढस्य प्रथम दिवसे!)” – भाग-1 ☆ लेखक और प्रस्तुतकर्ता – डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
नमस्कार प्रिय पाठक गण!
आज १९ जून २०२३, आज की तिथी आषाढ शुद्ध प्रतिपदा, अर्थात आषाढ मास का पहला दिन. आज का दिन साहित्य प्रेमियों के लिए सुवर्ण दिन, क्योंकि इस दिन हम मनाते हैं ‘कालिदास दिवस’| मित्रों, यह उनका जन्मदिन अथवा स्मृति दिन नहीं है, क्योंकि, वे दिन हमें ज्ञात ही नहीं हैं| परन्तु उनकी काव्यप्रतिभा इतनी एवढी उच्च कोटि की है कि, हमने यह दिवस उनके ही एक चिरकालजीवी खंड काव्य से ढूंढा है| कालिदासजी, संस्कृत भाषा के महान सर्वश्रेष्ठ कवी तथा नाटककार! दूसरी-पांचवी सदी में गुप्त साम्राज्यकालीन अनुपमेय साहित्यकार के रूप में उन्हें गौरवान्वित किया गया है| उनकी काव्यप्रतिभा के अनुरूप उन्हें दी गई “कविकुलगुरु” यह उपाधी स्वयं ही अलंकृत तथा धन्य हो गयी है! संस्कृत साहित्य की रत्नमाला में उनका साहित्य उस माला के मध्यभाग में दमकते कौस्तुभ मणी जैसा प्रतीत होता है| पाश्चात्य और भारतीय, प्राचीन तथा अर्वाचीन विद्वानों के मतानुसार कालिदासजी जगन्मान्य, सर्वश्रेष्ठ और एकमेवाद्वितीय ऐसे कवि हैं! इस साक्षात सरस्वतीपुत्र की बहुमुखी व बहुआयामी प्रज्ञा, प्रतिभेचे तथा मेधावी व्यक्तित्व का कितना बखान करें? कालिदास दिवस का औचित्य साधते हुए इस अद्वितीय महाकवि के चरणों में मेरी शब्दकुसुमांजली!
ज्ञानी पाठकगणों, आप इसमें कवि कालिदासजी के प्रति मेरी केवल और केवल श्रद्धा ही ध्यान में रक्खें। मात्र मेरा मर्यादित शब्दभांडार, भावविश्व तथा संस्कृत भाषा का अज्ञान, इन सारे व्यवधानों को पार करते हुए मैंने यह लेख लिखने का फैसला कर लिया| मित्रों, मुझे संस्कृत भाषा का ज्ञान नहीं है, इसलिए मैंने कालिदासजी के साहित्य का मराठी में किया अनुवाद (अनुसृष्टी) पढ़ा! उसी से मैं इतनी अभिभूत हो उठी| यह लेख मैंने पाठक की भूमिका में रसपान का आनंद लेने के हेतु से ही लिखा है, न कि, कालिदासजी के महान साहित्य के मूल्यांकन के लिए!
इन कविराज के अत्युच्य श्रेणी के साहित्य का मूल्यमापन संख्यात्मक न करते हुए गुणात्मक तरीके से ही करना होगा। राष्ट्रीय चेतना का स्वर जगाने का महान कार्य करने वाले इस कवि का राष्ट्रीय नहीं बल्कि विश्वात्मक कवि के रूप में ही गौरव करना चाहिए! अत्यंत विद्वान के रूप में गिने जाने वाले उनके समकालीन साहित्यकारोंने (उदा. बाणभट्ट) ही नहीं, बल्कि आज दुनियाभर के लेखकों ने भी वह किया है! उनकी जीवनी के बारे में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है| उनके नाम से जुडी अंदाजन ३० साहित्य निर्मितियों में ७ साहित्यकृतियां निश्चित रूप से उन्हींकी हैं, यह मान्यता है| ऐसी क्या विशेषता है कालिदासजी के सप्तचिरंजीवी साहित्य अपत्यों में, कि पाश्चात्य साहित्यिकों ने कालिदास का नामकरण “भारत का शेक्सपियर” ऐसा किया है! मैं तो दृढ़तापूर्वक ऐसा मानती हूँ कि, इसमें गौरव कालिदासजी का है ही नहीं, क्यों कि वे सर्वकालीन, सर्वव्यापी तथा सर्वगुणातीत ऐसे अत्युच्य गौरवशिखर पर पहलेसे ही आसीन हैं, इसमें यथार्थ गौरव है शेक्सपिअर का, सोचिये उसकी तुलना किसके साथ की जा रही है, तो कालिदासजी से!
इस महान रचयिता के जीवन के बारे में जानना है तो उनके साहित्य का बारम्बार पठन करना होगा, क्योंकि उनके जीवन के बहुतसे प्रसंग उनकी साहित्यकृतियों में उतरे हैं, ऐसी मान्यता है| उदाहरण के तौर पर खंडकाव्य मेघदूत, विरह के शाश्वत, सुंदर तथा जीवन्त रूप में इस काव्य को देखा जाता है, बहुतसे विशेषज्ञों का मानना है कि कल्पना के उच्चतम मानकों का ध्यान रखते हुए भी, बिना अनुभव के इस कल्पनाशील दूतकाव्य कविता की रचना करना बिलकुल असंभव है। साथ ही कालिदासजी ने जिन विभिन्न स्थानों और उनके शहरों का सटीक तथा विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, वह भी तब तक संभव नहीं है जब तक कि उन स्थानों पर उनका वास्तव्य नहीं रहा होगा! कालिदासजी की सप्त कृतियों ने समूचे विश्व को समग्र भारतदर्शन करवाया! उज्जयिनी नगरी का वर्णन तो एकदम हूबहू, जैसे कोई चलचित्र के समान! इसलिए कई विद्वान मानते हैं कि कालिदासजी का वास्तव्य संभवतः अधिकांश समय के लिए इस ऐश्वर्यसंपन्न नगरी में ही रहा होगा! उनकी रचनाएं भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शनशास्त्र पर आधारित हैं! इनमें तत्कालीन भारतीय जीवन का प्रतिबिंब दृष्टिगोचर होता है, रघुवंशम् में इतिहास एवं भूगोल के बारे में उनका गहन ज्ञान, निःसंदेह उनकी अपार बुद्धिमत्ता और काव्यप्रतिभा का प्रतीक है, इसमें कोई भी शक नहीं| इस भौगोलिक वर्णन के साथ ही भारत की पौराणिक, राजकीय, सांस्कृतिक, सामाजिक, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि और ज्ञान, साथ ही सामान्य तथा विशिष्ट व्यक्तियों की जीवनशैली, इन सबका पर्याप्त दर्शन इस महान कवि की रचनाओंमें पाया जाता है|
उनकी काव्य एवं नाटकों की भाषा और काव्यसौंदर्य का वर्णन कैसे करें? भाषासुंदरी तो मानों उनकी आज्ञाकारी दासी! प्रकृतिके विभिन्न रूप साकार करने वाला ऋतुसंहार यह काव्य तो प्रकृतिकाव्य का उच्चतम शिखर ही समझिये! उनके अन्य साहित्य में उस उस प्रसंग के अनुसार प्राकृतिक सौंदर्य का मनोहर वर्णन यानि अद्भुत तथा अद्वितीय इंद्रधनुषी रंगों की छलकती बौछार, हमें तो बस इन रंगों में रंग जाना है, क्योंकि ये सारी काव्यरचनाएँ छंदों के चौखटों में सहज, सुन्दर और अनायास विराजमान हैं, जबरदस्ती से जानबूझकर बैठाई नहीं गईं!
यह अनोखा साहित्य है अलंकारयुक्त तथा नादमयी भाषा का सुरम्य आविष्कार! एक सुन्दर स्त्री जब अलंकारमंडित होती है, तब कभी कभी ऐसा प्रश्न मन में उठता है कि, अलंकारों का सौन्दर्य उस सौन्दर्यवती के कारण वर्धित हुआ है, या उसका सौन्दर्य अलंकारोंसमेत सजनेसे और अधिक निखरा है! मित्रों, कालिदासजी के साहित्य का अध्ययन करते हुए यहीं भ्रम निर्माण होता है! इस महान कविराज की सौन्दर्य दृष्टि की जितनी ही प्रशंसा की जाए, कम ही होगी! उसमें लबालब भरे अमृतकलशोंसम नवरस तो हैं ही, परन्तु, उनमें विशेषकर है शृंगाररस! स्त्री सौंदर्य का लक्षणीय लावण्यमय आविष्कार तो उनके काव्य तथा नाटकों में जगह जगह पाया जाता है! उनकी नायिकाएं ही ऐसी हैं कि, उनका सौन्दर्य शायद वर्णनातीत होगा भी कदाचित, परन्तु कालिदासजी जैसा शब्दप्रभू हो तो उनके लिए क्या कुछ असंभव है? परन्तु इस सौन्दर्य वर्णन में तत्कालीन आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्योंका कहीं भी पतन नहीं हुआ है! अलंकारोंके जमघट में सबसे प्रमुख आभूषण है उपमालंकार, वे उपमाएं कैसी तो अन्य व्यक्तियों के लिए अनुपमेय! लेकिन जबतक इन महान संस्कृत भाषा की रचनाएं प्राकृत प्रांतीय भाषाओं में जनसामान्य तक पहुँचती नहीं, तबतक इस विश्वात्मक कवि का स्थान अखिल विश्व में शीर्ष होकर भी अपने ही देश में अपरिचित ही रहेगा! अर्थात इस साहित्य का कई भारतीय भाषाओँ में अनुवाद (अनुसृष्टी) हुआ है, यह उपलब्धि भी कम नहीं है!
मेघदूत (खण्डकाव्य)
खण्डकाव्यों की रत्नपेटिका में विराजित कौस्तुभ मणि जैसे मेघदूत, कालिदासजी की इस रचनाका काव्यानंद यानि स्वर्ग का सुमधुर यक्षगानही समझिये! ऐसा माना जाता है कि महाकवी कालिदासजी ने अपने प्रसिद्ध खंडकाव्य मेघदूत को आषाढ़ मास के प्रथम दिन रामगिरी पर्वतपर (वर्तमान स्थान-रामटेक) लिखना प्रारंभ किया! उनके इस काव्य के दूसरे ही श्लोक में तीन शब्द आये हैं, वे हैं “आषाढस्य प्रथम दिवसे”! आषाढ़ के प्रथम दिन कालिदासजी ने जब आसमान में संचार करनेवाले कृष्णमेघ देखे, तभी उन्होंने अपने अद्भुत कल्पनाविलास का एक काव्य में रूपांतर किया, यहीं है उनकी अनन्य कृति “मेघदूत”! यौवन की सहजसुंदर तारुण्यसुलभ तरल भावना तथा प्रियतमा का विरह, इन प्रकाश और तम के संधिकाल का शब्दबद्ध रूप दृष्टिगोचर होनेपर हमारा मन भावनाविवश हो उठता है|
अलका नगरी में यक्षों का प्रमुख, एक यक्ष कुबेर को महादेवजी की पूजा हेतु सुबह ताजे प्रफुल्लित कमलपुष्प देनेका काम रोज करता है| नवपरिणीत पत्नी के साथ समय बिताने हेतु वह यक्ष कमलपुष्पोंको रात्रि में ही तोड़कर रखता है| दूसरे दिन सुबह जब कुबेरजी के पूजा करते समय खिलनेवाले पुष्प में रात्रि को बंदी बना एक भ्रमर कुबेरजी को डंख मारता है| क्रोधायमान हुए कुबेरजी यक्ष को शाप देते हैं| इस कारण उस यक्ष की और उसकी प्रेमिका को अलग होना पड़ता है| इसी शापवाणी से मेघदूत इस अमर खंडकाव्य की निर्मिती हुई| यक्ष को भूमि पर रामगिरी पर १ वर्ष के लिए, अलकानगरीमें रहनेवाली अपनी पत्नीसे दूर रहने की सजा मिलती है| शाप के कारण उसकी सिद्धी का नाश हो जाता है, जिसके कारण वह किसी भी प्रकारसे पत्नी को मिल नहीं पाता| इसी विरहव्यथा का यह “विप्रलंभ शृंगार का काव्य” है| कालिदासजी की कल्पना की उड़ान यानि यह कालातीत, अतिसुंदर ऐसा प्रथम “दूत काव्य” के रूप में रचा गया! फिर रामगिरी से, जहाँ सीताजी के स्नानकुंड हैं, ऐसे पवित्र स्थान से अश्रु भरे नेत्रोंसे यक्ष मेघ को सन्देश देता है! मित्रों, अब देखते हैं वह सुंदर श्लोक!
तस्मिन्नद्रौ कतिचिदबलाविप्रयुक्त: स कामी,
नीत्वा मासान्कनकवलयभ्रंशरिक्तप्रकोष्ठ: ।
आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं,
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ।
अर्थात, अपने प्रिय पत्नी के वियोग से दग्धपीडित और अत्यंत व्यथित रहने के कारण यक्ष के मणिबंध का (कलाई) सुवर्णकंकण, उसके देह के क्षीण होने के कारण शिथिल (ढीला) होकर भूमि पर गिर जाने से, उसका मणिबंध सूना सूना दिख रहा था! आषाढ़ के प्रथम दिन उसे नज़र आया एक कृष्णवर्णी मेघ! वह रामगिरी पर्वत के शिखर को आलिंगनबद्ध कर क्रीडा कर रहा था, मानों एकाध हाथी मिट्टीके टीले की मिटटी उखाड़ने का खेल कर रहा हो|
कालिदास स्मारक, रामटेक
प्रिय मित्रों, यहीं है उस श्लोक के मानों काव्यप्रतिभा का तीन अक्षरोंवाला बीजमंत्र “आषाढस्य प्रथम दिवसे”! इस मंत्र के प्रणेता कालिदासजी के स्मृति को अभिवादन करने हेतु प्रत्येक वर्ष हम आषाढ महीने के प्रथम दिन (आषाढ शुक्ल प्रतिपदा) कालिदास दिन मानते हैं| जिस रामगिरी (वर्तमान में रामटेक) पर्वत पर कालिदासजी को यह काव्य रचने की स्फूर्ति मिली, उसी कालिदासजी के स्मारक को लोग भेंट देते हैं, अखिल भारत में इसी दिन कालिदास महोत्सव मनाया जाता है! प्रिय पाठकों, हमारे लिए गर्व की बात है कि, महाराष्ट्र का प्रथम कविकुलगुरु कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय रामटेक में स्थापित हुआ| इस साल कालिदास दिन है १९ जून को|
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दिल ने फिर याद किया“।)
अभी अभी # 75 ⇒ दिल ने फिर याद किया… श्री प्रदीप शर्मा
वैसे तो हम सबके पास अपना दिल है, क्योंकि दिल है तो हमारी जान है, और दिल है तो ये जहान है, फिर भी इस दिल की दुकान बड़ी इल्मी और फिल्मी है, शायरी भी इसी दिल पर होती है, और छुरियां भी इसी दिल पर चलती है, दिल धड़के तो समस्या, नहीं धड़के तो आफत। दिल के बीमार भी और दिल के आशिक भी।
दिल शीर्षक से जितनी फिल्में बनी हैं, और जितने गीत बने हैं, अगर उनकी बात छिड़ जाए, तो दिल ही जाने यह सिलसिला कब तक चला करे। इसलिए हमने अपना दायरा बहुत संकुचित कर लिया है और हम सिर्फ एक ही फिल्म, दिल ने फिर याद किया, का आज जिक्र करेंगे। ।
सन् १९६६ में प्रदर्शित निर्देशक सी. एल.रावल और धर्मेंद्र नूतन अभिनीत इस फिल्म में दस गीत थे, और जिसका संगीत एकदम एक नई अनसुनी संगीतकार जोड़ी सोनिक और ओमी ने तैयार किया था। मोहम्मद रफी के तीन खूबसूरत गीत, कलियों ने घूंघट खोले, हर फूल पे भंवरा डोले, लो चेहरा सुर्ख गुलाब हुआ और यूं चाल चलो ना मतवाली, मुकेश का दर्द भरा नगमा, ये दिल है मोहब्बत का प्यासा, इस दिल का धड़कना क्या कहिए और लता का दर्द भरा गीत, आजा रे, प्यार पुकारे, नैना तो रो रो हारे !
भारतीय श्रोता को अच्छे बुरे संगीत और गीत की बहुत बारीक पकड़ है। कोई भी अच्छा गाना, अच्छी धुन, उससे बच ही नहीं सकती। फिर धर्मेंद्र, नूतन, रहमान और जीवन जैसे मंजे हुए कलाकार। यह वह जमाना था, जब औसत फिल्में भी अच्छे गीत और संगीत के बल पर चल निकलती थी। कौन थे कलाकार फिल्म पारसमणि और दोस्ती के। ।
एक तरफ रफी साहब की आवाज पर कलियों ने घूंघट खोले तो दूसरी ओर मुकेश का ये दिल मोहब्बत का प्यासा, इस दिल का तड़फना क्या कहिए। एक फड़कता गीत तो दूसरा मुकेश के चाहने वालों का दर्द भरा गीत। आ जाओ हमारी बांहों में, हाय ये है कैसी मजबूरी। लगा किसी नए संगीतकार की नहीं, रोशन साहब की धुन है।
फिल्म में मन्ना डे और कोरस की एक कव्वाली थी, हमने जलवा दिखाया तो जल जाओगे, रुख से पर्दा हटाया तो, पछताओगे। फिल्म दिल ही तो है की कव्वाली की याद दिला गई। इतना ही काफी नहीं, फिल्म टाइटल सॉंग जिसे एक नहीं तीन तीन गायकों ने अपना स्वर देकर अमर कर दिया। दिल ने फिर याद किया, बर्क सी लहराई है। फिर कोई चोट, मुहब्बत की उभर आई है। आपको जानकर आश्चर्य होगा, इस गीत के तीन वर्शन जिन्हें बारी बारी से मोहम्मद रफी, सुमन कल्याणपुर और मुकेश जी ने अपना स्वर दिया है। इन गीतों को सिर्फ सुना जा सकता है, इनकी आपस में तुलना नहीं की जा सकती। ।
एक महान कलाकार भी आम आदमी ही होता है। हमें कहां इतनी सुर, ताल, संगीत और गीतों के बोल की समझ, हमने बर्क शब्द पहले कभी सुना नहीं, हम तो इक बर्फ सी लहराई है, ही गाते रहे कुछ वक्त तक।
अगर रफी साहब वाला इस गीत का वर्शन ध्यान से सुनें, तो बर्फ ही सुनाई देता है। लेकिन अपनी आवाज से बर्फ तो क्या, इंसानों के दिलों को पिघलाने वाले रफी साहब ने यह बर्फ भी इतनी खूबसूरती से गाया, कि संगीत निर्देशकों की हिम्मत ही नहीं हुई, कि उसका री- टेक करवा लें, और बर्फ को बर्क करवा लें। शब्दों को जमाना और पिघलाना कोई रफी साहब से सीखे। ।
हर कलाकार अपने जीवन का श्रेष्ठ या तो जीवन काल के प्रारंभ में ही दे जाता है, अथवा फिर उसे कई वक्त तक इंतजार करना पड़ता है। उषा खन्ना (पहली फिल्म दिल दे के देखो) और सोनिक ओमी, उन भाग्यशाली संगीतकारों में से हैं, जिनकी पहली ही फिल्म ने सफलता के झंडे गाड़ दिए।
आगे का सफर इनका कैसा रहा, संगीत प्रेमी अच्छी तरह से जानते हैं। यूं ही आज दिल ने फिर याद कर लिया, इस महान संगीतकार को, शायद कुछ बर्क सी लहराई हो, वैसे बिना किसी कलेजे की चोट के कहां ऐसे कालजयी गीत और संगीत की रचना हो पाती है।
कोई मौका नहीं, कोई दस्तूर नहीं, बस यूं ही, दिल ने फिर याद किया।।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 195☆ बेसुरा होना कठिन है
एक संगीतमय आध्यात्मिक आयोजन से लौट रहे थे। वृंद के एक युवा गायक ने किसी संदर्भ में एकाएक कहा, “गुरुजी, बेसुरा गाना बहुत कठिन है।” उसके इस वाक्य पर पूरे वृंद में एक ठहाका उठा। कुछ क्षण तो मैं भी उस ठहाके में सम्मिलित रहा पर बाद में ठहाका अंतर्चेतना तक ले गया और चिंतन में बदल गया। इतनी सरलता से कितनी बड़ी बात कह गया यह होनहार युवक कि बेसुरा होना कठिन है।
जीवन जीने के लिए मिला है। जीने का अर्थ हर श्वास में एक जीवन उत्पन्न करना और उस श्वास को जी भर जीना है। श्वास और उच्छवास भी मिलकर एक लय उत्पन्न करते हैं, अर्थात साँसों में भी सुर है। सुर का बेसुरा होना स्वाभाविक नहीं है। वस्तुत: ‘बेसुरा होना कठिन है’, इस वाक्य में अद्भुत जीवन-दर्शन छिपा है। इस दर्शन का स्पष्ट उद्घोष है कि जीवन सकारात्मकता के लिए है।
स्मरण आता है कि जयपुर से वृंदावन की यात्रा में एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश से न्यायप्रणाली की विसंगतियों को लेकर संवाद हुआ था। उन्होंने बताया कि न्यायालय में आया हर व्यक्ति प्रथमदृष्टया न्यायदेवता के लिए निर्दोष है। उसे दोषी सिद्ध करने का काम पुलिस का है, व्यवस्था का है ।
महत्वपूर्ण बात है कि न्यायदेवता हरेक को पहले निर्दोष मानता है। इसका एक अर्थ यह भी है कि मनुष्य का मूल सज्जनता है। यह हम ही हैं जो भीतर के सज्जन को दुर्जन करने के अभियान में लगे होते हैं।
जीवन का अभियान सुरीला है, जीवन गाने के लिए है। नदी को सुनो, लगातार कलकल गा रही है। समीर को सुनो, निरंतर सरसर बह रहा है। पत्तों को सुनो, खड़खड़ाहट, एक स्वर, एक लय, एक ताल में गूँज रही है। बूँदों की टपटप सुनो, जो बरसात के साथ जब नीचे उतरती हैं तो एक अलौकिक संगीत उत्पन्न होता है। बादल की गड़गड़ाहट हो या बिजली की कड़कड़ाहट, संगीत का रौद्र रस अवतरित होता है। कभी रात्रि के नीरव में रागिनी का दायित्व उठाने वाले कीटकों के स्वर सुनो। बरसात में मेंढ़क की टर्र-टर्र सुनो। कोयल की ‘कुहू’ सुनो, मोर की ‘मेहू’ सुनो। प्रकृति में जो कुछ सुनोगे वह संगीत बनकर कानों में समाएगा। शून्य में, निर्वात में जो कुछ अनुभव हो रहा है, वह संगीत है। तुम्हारे मन में जो गूँज रहा है, उसकी अनुगूँज भी संगीत है। हर तरफ राग है, हर तरफ रागिनी सुनाई पड़ रही है। यह कल्लोल है, यह नाद है, यही निनाद है।
इन सुरों को हम भूल गए। हमारे कान आधुनिकता और शहरीकरण के प्रदूषण से ऐसे बंद हुए कि प्रकृति का संगीत ही विस्मृत हो चला। हमने जीवन में प्रदूषण उत्पन्न किया, हमने जीवन में कर्कशता उत्पन्न की, हमने जीवन में कलह उत्पन्न किया, हमने जीवन में असंतोष उत्पन्न किया, हमने जीवन में अनावश्यक संघर्ष उत्पन्न किया। इन सबके चलते सुरीले से बेसुरे होने की होड़-सी लग गई।
कभी विचार किया कि इस होड़ में क्या-क्या खोना पड़ा? परिवार छूटा, आपसी संबंध छूटे, संतोष छूटा, नींद छूटी, स्वास्थ्य का नाश हुआ। इतना सब खोकर कुछ पाया भी तो क्या पाया,…बेसुरा होना!.. सचमुच बेसुरा होना कठिन है।
संसार सुरीला है। जीवन के सुरीलेपन की ओर लौटो। तुम्हारा जन्म सुरीलेपन के लिए हुआ है। सुरमयी संसार में सुरीले बनो। यही तुम्हारा मूल है, यही तुम्हारी प्रकृति है, यही तुम्हारी संस्कृति है।
स्मरण रहे, सुरीला होना प्राकृतिक है, सुरीला होना सहज है, सुरीला होना सरल है, बेसुरा होना बहुत कठिन है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी।
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ओज़ोन”।)
अभी अभी # 74 ⇒ ओज़ोन… श्री प्रदीप शर्मा
मेरे घर से कुछ ही दूर, सर्विस रोड पर एक होटल है जिसका नाम ozone है! जाहिर है, अंग्रेजी नाम है तो हिंदी में तो लिखने से रहे। कभी शहर की सबसे पुरानी एक होटल थी, जिसका नाम लेन्टर्न था, आज यह होटल अतीत हो चुकी है, ठीक उसी तरह जैसे कभी इंदौर में मिल्की वे और स्टार लिट टॉकीज थे। वहीं पास में एक खूबसूरत जगह शबे मालवा भी थी। कुछ फिल्मों के शौकीन दर्शकों को शायद बेम्बिनो टॉकीज भी याद हो।
बाजारवाद और विज्ञापन की दुनिया में हम किसी ब्रांड से इतने जुड़ जाते है, कि उसके नाम को महज एक नाम मानकर आगे बढ़ जाते हैं। एक ईगल फ्लास्क आता था, जो उस समय हर घर की जरूरत था। वीआईपी तब केवल एक सूटकेस का नाम होता था। आजकल हर वीआईपी के हाथ में एक सूटकेस होता है। ।
मैं कभी ozone होटल में गया नहीं, लेकिन जब भी इस होटल के सामने से गुजरता हूं, इसका नाम मुझे पर्यावरण की याद दिलाता है। होटल वाले अपने आसपास हरियाली बनाए रखते हैं, और सुरूचिपूर्ण साज सज्जा भी। आइए, इसी बहाने आज ozone की भी संक्षिप्त चर्चा कर ली जाए।
आप चाहें तो इसे ट्राई ऑक्सीजन भी कह सकते हैं। ऑक्सीजन के तीन अणुओं से बनी, एक रंगहीन और गंध हीन गैस है ओजोन, जो पर्यावरण का एक प्राकृतिक हिस्सा है। बोलचाल की भाषा में जितनी क्रीमी लेयर आम है, ओजोन परत, उतनी ही पर्यावरण के संबंध में खास है।
जब भी मौसम बईमान होता है, पहाड़ बर्फ विहीन होकर अपनी जगह छोड़ने लग जाते हैं, प्रकृति तांडव करने लग जाती है। समुद्र अपनी सीमाएं लांघकर, अठखेलियों की जगह उत्पात मचाने लगता है। एक ही मौसम में, गर्मी, आंधी, तूफान और बरसात का सामना एक साथ करना पड़ता है। ।
जितनी चिंता हमें इस देश की और इसके पर्यावरण की है, उतनी शायद ही किसी को हो। स्वच्छ भारत अब नारा नहीं, एक हकीकत हो गया है। वृक्षारोपण ने भले ही समारोह की शक्ल ले ली हो, फिर भी आम आदमी हरियाली और पेड़ पौधों से प्यार करता है। लेकिन यह विकास की आंधी, कहीं न कहीं, पहले वृक्षों को उजाड़ती है और फिर वापस उन्हें उगाने की भी चिंता करती है।
प्राकृतिक और धार्मिक स्थानों तक दर्शक, श्रद्धालु ही नहीं, पर्यटक भी पहुंचे, इसलिए इन स्थलों का विकास भी जरूरी हो जाता है। जहां अधिक लोग, वहां अधिक सुविधा और इन सबसे ओजोन परत को बड़ी असुविधा। पहाड़ की ऊंचाइयों पर बर्फ जमता है, ग्लेशियर पिघलते हैं, नदियां निकलती हैं। पूरी सृष्टि का यही चक्र है। ।
कुदरत से हम हैं, हम से कुदरत नहीं ! यह अमानत हमें विरासत में मिली है। अमानत में खयानत होगा अपराध, लेकिन प्रकृति से खिलवाड़ के खिलाफ कोई कानून नहीं, कोई दंड नहीं। और तो और, जब बागड़ ही खेत को खाने लगे, तो खेत की रखवाली कौन करे।
इसलिए प्रकृति खुद कानून अपने हाथ में ले लेती है, वह पहले आगाह करती है, लेकिन जब कथित पर्यावरण का विनाश रथ, रुकने का नाम नहीं लेता, तो कयामत आ जाती है। यही वह दंड है, लेकिन यह लोभी, लालची इंसान कितना उद्दंड है। ।
कल सुबह टहलते हुए हमने भी अपनी ozone होटल की खबर ली। कोरोना काल में यह बंद रही। वैसे भी कुछ विशिष्ट व्यक्ति ही यहां आते थे। इस होटल से हमारे जैसे लोगों की दूरी का एक ही कारण था, wine & dine जो इनके विज्ञापन का ही एक महत्वपूर्ण हिस्सा था।
हमें लगा, शायद यह होटल बंद होने के कगार पर है, लेकिन अचानक यहां फिर से चहल पहल शुरू हुई, पुरानी रौनक लौटी, लेकिन एक मामूली के बदलाव के साथ। जाहिर है, मालिक ही बदले होंगे, क्योंकि ozone होटल के wine & dine स्वरूप को अब थोड़ा बदल दिया गया है। किसी ने wine शब्द को काले रंग से ढंका नहीं, मिटा ही दिया है। अब केवल dine ही दिखाई देता है। मतलब अब यहां भोजन के साथ मदिरा पान नहीं। ।
शायद यह एक संकेत है, ओजोन परत के साथ खिलवाड़ अब बंद होना चाहिए। पहाड़ों और तीर्थ स्थलों को अपने मूल स्वरूप में ही रहने दें। हर तरह की खाने पीने और मौज मस्ती की सुविधा मानवता को बहुत भारी पड़ ही रही है। हमारी ozone होटल तो शायद ठोकर लगने के बाद होश में आ जाए, हम कब होश में आएंगे, पूछता है पहाड़, पूछता है ग्लेशियर और पूछती है ट्राई ऑक्सीजन जिसे हम आम भाषा में पर्यावरण कहते हैं ..!!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “खुशबू बदबू”।)
अभी अभी # 73 ⇒ खुशबू बदबू… श्री प्रदीप शर्मा
हमारे शरीर में एक विभाग नाक का भी है, बड़ा इज्जतदार विभाग है यह, शरीर का वह अंग है, जो न केवल सांस लेता छोड़ता है, यह हर खतरे को सूंघ भी लेता है। हम ईश्वर से हमेशा यही दुआ करते हैं, कि बस हमारी नाक बची रहे। कभी हमारी नाक नीची ना हो, क्योंकि नाक है, तो हमारी इज्जत है।
आपको याद है रामायण वाला रावण की सिस्टर शूर्पणखा वाला नाक का किस्सा ! जिसे अपनी इज्जत प्यारी होती है, उसे अपनी नाक भी बहुत प्यारी होती है। बेचारी शूर्पणखा पहली ही नजर में लक्ष्मण को अपना दिल दे बैठी। इश्क पर जोर नहीं, गालिब बहुत बाद में कह गए। बेचारी शूर्पणखा ने एक नारी होते हुए भी प्यार का इजहार क्या कर दिया, लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक ही काट ली। अपनी इज्जत बचाने के लिए क्या किसी की इज्जत इस तरह मिट्टी में मिलाई जाती है।
सबको अपनी नाक प्यारी होती है। यह नाक केवल खतरे को ही नहीं सूंघती, सांस लेती और छोड़ती भी रहती है। कहते हैं, हम इंसान ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं।
इसी एक नाक में दो हिस्से होते हैं, जो हर मौसम में शरीर को ठंडा गरम रखते हैं। नाक के अंदर जिन्हें हम बाल समझते हैं, वे वेंटिलेटर का काम करते हैं। हमारे एक नहीं दो स्वर चलते हैं, सूर्य और चंद्र, जो शरीर को मौसम के हिसाब से ठंडा गर्म बनाए रखते हैं। कबीर ने इन्हें इड़ा और पिंगला का नाम दिया है। ।
गजब की सूंघने की शक्ति है, इस नाक की। अगर हमारी नाक नहीं होती तो हम खुशबू और बदबू में भेद ही नहीं कर पाते। हमारी मनपसंद खाने की चीज को यह सूंघकर ही पहचान लेती है। सुबह की सैर के वक्त ताजी हवा स्वास्थ्य के लिए कितनी लाभकारी होती है। फूलों की खुशबू ही नहीं, कहीं बन रहे गर्मागर्म पोहे जलेबी की खुशबू भी कहां बर्दाश्त हो पाती है।
हवा और वातावरण पर हमारा कोई बस नहीं। कहीं से अगर खुशबू की जगह बदबू का झोंका आ गया, तो हम एकदम नाक भौं ही नहीं सिकोड़ते, नाक पर रूमाल भी रख लेते हैं। मीठा मीठा गप, कड़वा कड़वा थू, हमें प्यारी सिर्फ प्यारी खुशबू, नहीं बदबू। ।
मान अपमान से परे, खुशबू, बदबू से बहुत दूर, अगर नियमित कुछ प्राणायाम किए जाए, थोड़ा रेचक, पूरक और कुंभक किया जाए, अनुलोम विलोम, कपालभाति और भस्रिका की जाए, इड़ा पिंगला को सुषुम्ना से जोड़ा जाए, तो कबीर के अनुसार हमारी समाधि भी लग जाए। साधो, सहज समाधि भली ..!!