हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 231 ☆ कहानी – दाना-पानी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – दाना पानी ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 231 ☆

☆ कहानी –  दाना-पानी

नन्दू मनमौजी है। पढ़ाई, कमाई में मन नहीं लगता। बस दोस्तों के साथ महफिल जमाने  और कहीं नाटक-नौटंकी देखने को मिल जाए तो मन खूब रमता है। दूसरे गाँव में रामलीला-नौटंकी की खबर मिले तो बेसुध दौड़ता जाता है। रात रात भर सुध बुध खोये बैठा रहता है। सबेरे लौटकर भाई-भौजाई की बातें सुनता है— ‘निठल्ले, पता नहीं तेरी जिन्दगी कैसे कटेगी। बियाह हो गया तो बहू तेरी हरकतें देखकर माथा कूटेगी।’

नन्दू पर कोई असर नहीं होता। अकेले में भौजाई से कहता है, ‘भौजी, मेरी फिकर मत करो। जिसने चोंच दी है वही चुग्गा देगा। अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम। शादी-ब्याह करके क्या करना है? शादी माने बरबादी।’

वैसे नन्दू आठवीं पास है। शासन की नीति है कि आठवीं तक कोई बच्चा फेल नहीं किया जाएगा, इसी के चलते नन्दू वैतरणी पार कर गया। आगे निश्चित रूप से फेल होना है, इसलिए पढ़ाई छोड़ दी।

अब सुबह तो नन्दू अपने भाई सुमेर के साथ खेत पर जाता है, लेकिन दोपहर के खाने के लिए जो घर आता है तो फिर उधर का रुख नहीं करता। दो-तीन घंटे की नींद और शाम को गाँव के पास वाली नदी के पुल के नीचे रेत पर दोस्तों के साथ गप-गोष्ठी। इस गोष्ठी में हँसी-मज़ाक, चुटकुलों के अलावा अभिनय, नकल, नाच,गाना, सब कुछ होता है। गाँव के कुछ सयाने भी जो जवानी में अपनी कला को कहीं न दिखा पाने के कारण कसमसाते रह गये, शाम को इस महफिल में आकर अपनी भड़ास निकाल कर हल्के हो लेते हैं। आकाश में तारे छिटकने पर ही नन्दू की महफिल खत्म होती है।

गाँव की अनगढ़, साधनहीन रामलीला में नन्दू के प्राण बसते हैं। कोई छोटा-मोटा पार्ट पाने के लिए जोर लगाता रहता है। और कुछ न मिले तो मुखौटा लगाकर वानर-सेना या राक्षस- सेना में शामिल हो जाता है। लीला शुरू होने से पहले पर्दा हटा कर बार-बार झाँकता है ताकि बाहर जनता को उसकी उपस्थिति की जानकारी हो जाए। जब तक रामलीला चलती है तब तक नन्दू दिन भर वहीं मंडराता रहता है।

नन्दू गाँव के बलराम दादा का मुरीद है। बलराम दादा सीधे-साधे, फक्कड़ आदमी हैं। सूती सफेद बंडी, सफेद अंडरवियर और टायर की चप्पलों में ही अक्सर देखे जाते हैं। कमाई का ज़रिया नहीं है इसलिए दरिद्रता घर के हर कोने से झाँकती रहती है। लेकिन बलराम साँप का ज़हर उतारने के लिए आसपास के गाँवों तक जाने जाते हैं। आधी रात को भी कोई बुलाने आये तो बलराम अपने कौल से बँधे दौड़े चले जाते हैं। अक्सर नन्दू को आवाज़ दे देते हैं तो नन्दू उनका झोला थामे पीछे-पीछे दौड़ा जाता है। मरीज़ के पास पहुँचकर बलराम नीम का घौरा थाम कर बैठ जाते हैं और मंत्र पढ़ने के साथ बेसुध पड़ा मरीज़ बक्रना शुरू कर देता है। बलराम साँप से मरीज़ को छोड़ देने के लिए मनुहार करते हैं। नहीं मानता तो घौरे से आघात करते हैं। अन्त में साँप मरीज़ को छोड़ देता है और मरीज़ होश में आ जाता है। नन्दू मंत्रमुग्ध सब देखता रहता है।

मरीज़ के होश में आने के बाद बलराम दादा उस स्थान को तत्काल छोड़ देते हैं। पानी तक ग्रहण नहीं करते, पैसे-टके की बात कौन करे। फिर आगे आगे वे और पीछे पीछे नन्दू। सीधे घर आकर दम लेते हैं। नन्दू की बस यही इच्छा है कि बलराम दादा से जहर उतारने का मंत्र मिल जाए। बलराम दादा ने वादा तो किया है, लेकिन अभी मंत्र दिया नहीं।

बाबा-जोगियों में नन्दू की अपार भक्ति है। कोई बाबा गाँव में आ जाए तो नन्दू सेवा में लग जाता है। बाबाओं की ज़िन्दगी नन्दू को बहुत लुभाती है। किसी भी बाबा से हाल-चाल पूछने पर एक ही जवाब मिलता है— ‘आनन्द है।’ बाबाओं के उपदेश नन्दू मुग्ध भाव से सुनता है। बहुत से जुमले और भजन की पंक्तियाँ सीख ली हैं। दोस्तों के बीच में रोब मारने में वे जुमले खूब काम आते हैं।

गाँव में भी कुछ वैरागी हो गये हैं। एक चूड़ीवाली का जवान बेटा अचानक साधु हो गया। अब वह कमंडल और झोला लिये आसपास के गाँवों में घूमता रहता है। माँ सब काम छोड़ रोज़ खाना लेकर उसे ढूँढ़ती फिरती है। मिल गया तो ठीक, अन्यथा उस दिन माँ के हलक से भी निवाला नहीं उतरता। बेटे के चक्कर में उसका धंधा चौपट हो गया। बेटे का मुँह देखने के लिए बावली सी घूमती रहती है।

गाँव के बुज़ुर्ग नत्थू सिंह को भी बुढ़ापे में वैराग्य हो गया था। नदी के पुल के पास ज़मीन में एक गुफा बनाकर वहीं रहने लगे थे। घर छोड़कर वहीं तपस्या करते थे। लेकिन डेढ़ साल में ही उन्हें फिर घर-द्वार ने खींच लिया। अब गेरुआ वस्त्र पहने नाती-नातिनों को खिलाते रहते हैं। उनकी बनायी गुफा अब धँस गयी है।

नन्दू का भी मन उचटता है। यहाँ गाँव में मजूरी-धतूरी के सिवा कुछ करने को नहीं है। दिन भर भाई भौजाई के उपदेश सुनना। बाबाओं के ठाठ होते हैं। जहाँ जाते हैं पच्चीस पचास आदमी पीछे चलते हैं, सेवा में लगे रहते हैं। पाँव छूते हैं सो अलग। भोजन-पानी की कोई चिन्ता नहीं, सब भक्तों के भरोसे। लोग पूछ पूछ कर दे जाते हैं।

एक दिन हिम्मत करके भौजी को बता दिया कि अब गाँव में मन नहीं लगता, सन्यास लेने का मन करता है। पिछली बार जो चिन्तामन बाबा गाँव में आये थे उनका पता ले लिया है। चुनार में उनका आश्रम है। वहीं जाएगा। भौजी को सुना कर गाता है— ‘अरे मन मूरख जनम गँवायो, ये संसार फूल सेमर को सुन्दर देख लुभायो।’

भौजी ने सुमेर को बताया तो उसने डाँटा, ‘पागल हो गया है क्या? बाबागिरी कोई आसान काम है? उसमें भी अकल चाहिए, नहीं तो जिन्दगी भर भटकता रहेगा। यह तेरे जैसे लोगों के बस का काम नहीं। यहीं कुछ काम-धाम कर।’

नन्दू ज्ञानी की नाईं कहता है, ‘काम धाम में कुछ नहीं धरा है। सब माया का फेर है। ये लोक तो बिगड़ ही गया, अभी नहीं सँभले तो दूसरा लोक भी बिगड़ जाएगा। अब तो सोच लिया है, माया से छुटकारा पाना है।’

उसका निश्चय देखकर भाई बोला, ‘खेती की जमीन में आधा हिस्सा तुम्हारा है। अभी पूरी जमीन दद्दा के नाम ही है। उसका क्या करोगे?’

नन्दू महादानी की तरह हाथ हिलाकर बोला, ‘हमें जमीन जायदाद से क्या मतलब! माया रहेगी तो बार बार वापस खींचेगी। हमें अब जमीन जायदाद से कुछ लेना-देना नहीं।’

भाई बोला, ‘तो चलो, पटवारी के पास लिख कर दे दो। जमीन मेरे नाम चढ़ जाएगी।’

नन्दू ने तुरन्त सहमति दे दी। पटवारी के पास जाकर सब काम करा दिया। बोला, ‘जी हल्का हो गया। जितने बंधन कम हो जाएँ उतना अच्छा।’

नन्दू का बाप दमा का मरीज़ था। रात रात भर बैठा खाँसता रहता था। लेटने में ज़्यादा तकलीफ होती थी। साँस खींचते खींचते गले की नसें उभर आयी थीं। गाँव में इलाज नहीं था। सरकारी डाक्टर सबेरे दस बजे आता था और घड़ी के पाँच छूते ही शहर चल देता था, जहाँ उसका परिवार था। दवाखाना कंपाउंडर के हवाले। परिवार गाँव में रहकर क्या करेगा? अन्ततः खाँसते-खाँसते नन्दू का बाप दुनिया से विदा हो गया।

नन्दू की माँ अभी ज़िन्दा थी, लेकिन उसे मोतियाबिन्द के कारण ठीक से दिखायी नहीं पड़ता था। बार-बार चित्रकूट ले जाने की बात होती थी, लेकिन भाई को फुरसत नहीं थी और नन्दू अकेले चित्रकूट में माँ को संभालने की कल्पना से ही घबरा जाता था। इसलिए दिन टल रहे थे।

आखिरकार नन्दू के विदा होने का दिन आ गया। दोस्त-रिश्तेदार इकट्ठे हो गये। सब के मन में नन्दू के लिए प्रशंसा और आदर का भाव था। नन्दू ने माँ,भाई,भाभी के पाँव छुए, बोला, ‘फिकर मत करना। ऊपरवाला मेरी रच्छा करेगा। आदमी के बस में कुछ नहीं है।’

माँ रोते रोते बोली, ‘मत जा बेटा। जाने कहाँ भटकता फिरेगा।’

नन्दू हाथ उठाकर बोला, ‘मत रोको माता। मुझे मारग मिल गया है। अब मुझे रोकने से पाप लगेगा।’

जुलूस के आगे आगे गर्व से चलता नन्दू बस पर बैठकर गाँव से रवाना हो गया। दो-चार दिन बाद दोस्त उसे भूल गये। बस माँ थी जो उसके लिए बिसूरती रहती थी। वह गाँव के लिए पराया हो गया।

साल डेढ़-साल तक नन्दू की कोई खबर नहीं मिली। भाई-भाभी को लगा कि वह बाबाओं के साथ रम गया। अचानक एक दिन उसका फोन आया। भाई से बात हुई। पहले माँ के और गाँव के हाल-चाल पूछे, फिर बोला, ‘यहाँ मन नहीं लगता। सब की याद आती है। बाबागिरी मेरे जैसे लोगों के लिए नहीं है। यहाँ मेरे लिए कोई काम नहीं है। गाँव लौटने का मन होता है।’

भाई व्यंग्य से बोला, ‘हो गयी बाबागिरी? मैंने पहले ही रोका था। आना है तो आजा। कौन रोकता है?’

तीन-चार दिन बाद नन्दू सचमुच आ गया, लेकिन हुलिया ऐसी कि पहचानना मुश्किल। सूखे मुँह पर लंबी दाढ़ी मूँछ, बढ़े हुए अस्तव्यस्त बाल, बेरंग, पुराने गेरुआ वस्त्र, पाँव में खस्ताहाल चप्पल। माँ से मिला तो वह खुश हो गयी।

शाम तक वह दाढ़ी, मूँछ और बाल कटवा कर और कपड़े बदल कर सामान्य हो गया। लेकिन बाबागिरी वाली बात पर वह बार-बार शर्मा रहा था।

दो दिन तक नन्दू बेहोश सोता रहा, जैसे लंबी थकान उतार रहा हो। तीसरे दिन सबेरे भाई से बोला, ‘मैं भी खेत चलूँगा।’

भाई बोला, ‘जैसी तेरी मर्जी। चल।’

उस दिन दोपहर तक काम करके लौट आया। लौट कर सो गया।

अगले दिन हल चलाते चलाते भाई के मुँह की तरफ देख कर बोला, ‘अब तो मुझे यहीं रहना है। यहीं खेती-बाड़ी करूँगा। चल कर फिर से मेरा नाम जमीन पर चढ़वा दो।’

भाई हल चलाते चलाते रुक गया, बोला, ‘कौन सी जमीन की बात कर रहा है? यह जमीन तो अब सिर्फ मेरी है। तूने ही तो लिखा- पढ़ी की थी।’

नन्दू का मुँह उतर गया, बोला, ‘तो हमें कहाँ पता था कि हम लौट आएँगे। लौट आये हैं तो जमीन का हमारा हिस्सा हमें मिलना चाहिए।’

भाई कठोरता से बोला, ‘तो ले ले जैसे लेते बने। अब कल से खेत पर पाँव मत रखना, नहीं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।’

नन्दू चुपचाप घर लौट आया। अब घर भी पराया लगने लगा। एक माँ ही प्रेम करने वाली बची थी। भौजी नज़र चुराती थी।

रात किसी तरह कटी। दूसरे दिन नन्दू सबेरे ही खेत के कुएँ पर जाकर बैठ गया। भाई पहुँचा तो उठ कर बोला, ‘यह मेरे बाप की जमीन है। मेरा हिस्सा कोई नहीं छीन सकता।’

सुमेर ने उसकी बाँह पकड़ कर घसीट कर खेत से बाहर कर दिया। दाँत पीसकर बोला, ‘एक लुहाँगी हन के मारूंँगा तो भरभंड फट जाएगा। जान की सलामती चाहता है तो फिर इस तरफ मुँह मत करना।’

नन्दू रोने लगा। रोते रोते गाँव के सयानों से फरियाद कर आया। हर जगह एक ही जवाब मिला, ‘अब तुमने खुद अपने हाथ काट लिये तो हम क्या करें? मामला-मुकदमा कर सको तो करो।’

मामला-मुकदमा करने कहाँ जाए? मामला-मुकदमा करने के लिए उसके पास पैसा कहाँ है? वैसे एक दो विघ्नसंतोषी उसके कानों में मंत्र ज़रूर फूँक गये— ‘छोड़ना नहीं। अदालत में घसीटना।’

नन्दू अब घर के सामने उदास बैठा रहता। भौजी दरवाज़े पर आकर रूखे स्वर में आवाज़ देती, ‘थाली रखी है।’ वह बेमन से उठकर दो चार कौर ठूँस लेता। माँ से बताया था और माँ ने भाई से बात भी की थी, लेकिन सुमेर ने उसकी बात को अनसुना कर दिया था।

दो-तीन दिन नन्दू घर के सामने बैठा दिखा, फिर वह अचानक ग़ायब हो गया। गाँव में कुछ लोगों का कहना है कि वह फिर से चिन्तामन बाबा के आश्रम चला गया, जब कि कुछ लोगों का कथन है कि वह दाना-पानी के चक्कर में दिल्ली चला गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “धर्म की सासू माँ” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी  एक विचारणीय लघुकथा –धर्म की सासू माँ“.)

☆ लघुकथा – धर्म की सासू माँ ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

‘आए थे हरि भजन को ओंटन लगे कपास।’ जैसी कहानी हमारे साथ घट गयी।

सुबह-सुबह  अच्छे मूड में घूमने निकले थे हम पति-पत्नी। रास्ते में एक मुसीबत गले पड़ गई।

एक अम्मा जी बीच राह रोते हुए मिल गई।

‘क्यों रो रही हैं माताजी’ – पत्नी ने संवेदना जताई।

अम्मा जी  बुक्का फाड़कर रोने लगी – मेरा घर गुम गया है बेटी। मेरा घर ढुंढ़वा दे। मैं तेरा एहसान कभी नहीं भूलूंगी। मैं अपना घर भूल गई हूं।

‘घर का पता बताइए अम्माजी।’ पत्नी ने पूछ लिया।

‘अपने बेटे के घर गांव से आई थी। सुबह-सुबह बिना बताए घूमने निकल पड़ी। शहर की गलियों में फंस कर रह गई हूं।’

‘बेटे का नाम बताइए और यह बताइए कि वह कहां काम करते हैं?’

‘बैंक में काम करता है मेरा बेटा और रामलाल नाम है उसका।’

पत्नी ने बैंक का नाम पूछा और वह तथाकथित अम्मा जी बैंक का नाम नहीं बता पाईं। वह अपने घर से कितनी दूर चली आई थी इसका भी उन्हें कोई अनुमान नहीं था। अम्मा जी पत्नी को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थी। मैं उन दोनों को वहीं छोड़कर अपने ऑफिस चला गया।

——–

शाम को घर लौटा तो बैठक में चाय भजिया का नाश्ता चल रहा था। वही अम्माजी विराजमान थी। खुश खुश दिखाई दे रही थीं।

बच्चे नानी मां नानी मां कहकर अम्मा जी से लिपटे चले जा रहे थ। यह चमत्कार से कम नहीं था।

‘लो दामाद जी आ गए’ – कहकर अम्मा जी ने घूंघट कर लिया।

पत्नी बोली – बमुशिकल अम्मा जी का घर ढूंढ पाई मैं और अम्मा जी ने मुझे धर्म की बेटी मान लिया है। इस तरह आप जमाई बाबू बन गए हैं।’

‘अब कुछ दिन वह अपनी बेटी के घर रहने चली आई हैं। मुझे एक कीमती साड़ी भी भेंट कर दी है उन्होंने। क्या पता था कि अम्मा जी अपने पीछे वाली लाइन में ही रहती है।’

मुझे पत्नी जी के पेशेन्स की प्रशंसा करनी पड़ी। उनकी मां नहीं थी और मुझे धर्म की सासू मां मिल गई थी। जैसे मुझे धर्म की सासू मां मिली, सभी को मिले।

❤️

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 135 ☆ लघुकथा – जिज्जी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘जिज्जी’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 135 ☆

☆ लघुकथा – जिज्जी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

किसी ने बड़ी जोर से दरवाजा भड़भड़ाया, ऐसा लगा जैसे कोई दरवाजा तोड़ ही देगा, ‘अरे! जिज्जी होंगी, सामने घर में रहती हैं, बुजुर्ग हैं। हमारे सुख-दुख की साथी हैं, जब से शादी होकर आई हूँ इस मोहल्ले में, माँ की तरह मेरी देखभाल करती रही हैं। सीढ़ी नहीं चढ़ पातीं इसलिए नीचे खड़े होकर अपनी छड़ी से ही दरवाजा खटखटाती हैं’–सरोज बोली। यह सुनकर मैं मुस्कराई कि तभी आवाज आई – ‘तुम्हारी दोस्त आई है तो हम नहीं मिल सकते क्या? हमसे मिले बिना ही चली जाएगी?’

‘नहीं जिज्जी, हम उसे लेकर आपके पास आते हैं।‘

‘लाना जरूर’, यह कहकर जिज्जी छड़ी टेकती हुई अपने घर की ओर चल दीं। पतली गली के एक ओर सरोज और दूसरी ओर उनका घर। दरवाजे पर खड़े होकर भी आवाज दो तो सुनाई पड़ जाए। गली इतनी सँकरी कि दोपहिया वाहन ही उसमें चल सकते थे। गलती से अगर गली में गाय-भैंस आ जाए फिर तो उसके पीछे-पीछे गली के अंत तक जाएं या खतरा मोल लेकर उसके बगल से भी आप जा सकते हैं।

सरोज बोली– ‘जिज्जी से मिलने तो जाना ही पड़ेगा, नहीं तो बहुत बुरा मानेंगी।‘ हमें देखते ही वह खुश हो गईं, बोली – ‘आओ बैठो बिटिया’। सरोज भी बैठने ही वाली थी कि वह बोलीं – ‘अरे तुम बैठ जाओगी तो चाय-नाश्ता कौन लाएगा? जाओ रसोई में।’ ‘हाँ जिज्जी’ कहकर वह चाय बनाने चली गई। जिज्जी बड़े स्नेह से बातें करे जा रही थीं और मैं उन्हें देख रही थी। उम्र सत्तर से अधिक ही होगी, सफेद साड़ी और सूनी मांग उनके वैधव्य के सूचक थे। सूती साड़ी के पल्ले से आधा सिर ढ़ँका था जिसमें से सफेद घुंघराले बाल दिख रहे थे। गाँधीनुमा चश्मे में से बड़ी-बड़ी आँखें झाँक रही थीं। झुर्रियों ने चेहरे को और भी ममतामय बना दिया था। बातों ही बातों में जिज्जी ने बता दिया कि बेटियां अपने घर की हो गईं और बेटे अपनी बहुओं के। सरोज तब तक चाय, नाश्ता ले आई, उसकी ओर देखकर बोलीं- ‘हमें अब किसी की जरूरत भी नहीं है, डिप्टी साहब (उनके पति) की पेंशन मिलती है और ये है ना हमारी सरोज, एक आवाज पर  दौड़कर आती है। बिटिया हमारे लिए तो आस-पड़ोस ही सब कुछ है।‘

‘जिज्जी, बस भी करिए अब, बीमारी -हारी में आप ही तो रहीं हैं हमारे साथ, मेरे बच्चे इनकी गोद में बड़े हुए हैं, जगत अम्माँ हैं ये —-‘ सरोज और जिज्जी एक दूसरे की कुछ भी ना होकर, बहुत कुछ थीं। कहने को ये दोनों पड़ोसी ही थीं, जिज्जी का स्नेहपूर्ण अधिकार और सरोज का सेवा भाव मेरे लिए अनूठा था। महानगर की फ्लैट संस्कृति में रहनेवाली मैं हतप्रभ थी, जहाँ डोर बेल बजाने पर ही दरवाजा खुलता है नहीं तो दरवाजे पर लगी नेमप्लेट मुँह चिढ़ाती रहती है। दरवाजा खुलने और बंद होने में घर के जो लोग दिख जाएं, बस वही परिचय। फ्लैट से निकले अपनी गाड़ियों में बैठे और चल दिए, लौटने पर दरवाजा खुलता और फिर अगली सुबह तक के लिए बंद।

मन ही मन बहुत कुछ समेटकर जब मैं चलने को हुई, जिज्जी छड़ी टेकती हुई उठीं – ‘हमारा बटुआ लाओ सरोज, बिटिया पहली बार हमारे घर आई है’, जिज्जी टीका करने के लिए बटुए में नोट ढ़ूंढ़ रही थीं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #161 – लघुकथा- प्रायश्चित ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “प्रायश्चित)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 161 ☆

☆ लघुकथा- प्रायश्चित ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

ए को जैसे ही पता चला बी बहुत बीमार है वह तुरंत उससे मिलने के लिए आई, “तू अपनी बहू को अमेरिका से यहां क्यों नहीं बुला लेती। वह तेरी इतनी सेवा तो कर ही सकती है।”

“वह गर्भ से है,” बड़ी मुश्किल से बी बिस्तर पर सीधे बैठते हुए बोली, ” उसने मुझे ही अमेरिका बुलाया था। ताकि मैं जच्चे-बच्चे की देखभाल कर सकूं।”

“ओह! मतलब वह नहीं आ पाएगी।”

“हां, उसकी मजबूरी है,” बी ने इशारा किया तो काम वाली लड़की चाय रख कर चली गई। तब तक ए अपने घर परिवार के दुख-सुख की बातें करती रही। तभी अचानक बी की दुखती रग पर हाथ चला गया, “काश! तूने मेरी बात मानी होती तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता,” ए ने कहा।

“हां यार, वह मेरी जीवन की सबसे बड़ी गलती थी,” बी ने कहा, “काश! मैंने उस समय भ्रूण हत्या न की होती तो आज मेरी बेटी भी तेरी तरह मेरी सेवा कर रही होती,” कहते हुए उसने अपने बड़े से घर को निहारा तथा काम वाली लड़की की ओर देखकर बोली, “क्या तुम मेरी बेटी बनेगी?”

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 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

27-06-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 92 – बैंक: दंतकथा : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “बैंक: दंतकथा : 1“

☆ कथा-कहानी # 92 –  बैंक: दंतकथा : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

बैंक की परिपाटी कि “बैंक ही परिवार है” की सामूहिक चेतना जो हमारी विरासत है, हमारी आदत बन चुकी थी और  है भी, और शायद बैंक के संस्कारों के रूप में हमने भावी पीढ़ी को सौंपा भी है. हम सभी लोग जो हमारे बैंक में होने की पहचान लिये हुये हैं, सौभाग्यशाली हैं कि हमारे पास कभी दो परिवार हुआ करते थे एक घर पर और दूसरा बैंक में. हालांकि अंतर सिर्फ घरवाली का ही होता था पर बहुत सारी घटनाएं हैं जब बैंक के मधुर रिश्तों ने घर संसार भी बसाये हैं. इसी परिप्रेक्ष्य में उपयुक्त शीर्षक के साथ इस कथा का सृजन करने का प्रयास है. पात्र और प्रसंग काल्पनिक होते हुये भी सत्य के करीब लग सकते हैं, इसका खतरा तो रहेगा. उम्मीद है इसे भी अन्य रचनाओं की तरह प्रेम और स्नेह मिलेगा.

अविनाश बैंक के आंचलिक कार्यालय में उपप्रबंधक के पद पर सुशोभित थे और अभी अभी अपने सहायक महाप्रबंधक से, उनके चैंबर में डांट खाकर बाहर आ चुके थे. उनका यह अटल विश्वास था कि चैंबर की घटनाएं चैंबर के अंदर ही रहती हैं और उनकी गूंज से बाहरवाले अंजान रहते हैं. जो इस गुप्त राज का पर्दाफाश करता है, वो बाहर निकलने वाले पात्र का चेहरा होता है अत: अविनाश की आंचलिक कार्यालय की दीर्घकालीन पदस्थापनाओं ने उनके अंदर यह सिद्धि स्थापित कर दी थी कि उनके चेहरे की रौनक और हल्की मुस्कान बरकरार रहती चाहे वो चैंबर के अंदर हों या बाहर. पर आज उनकी बॉडी लैंग्वेज ने उनका साथ देने से साफ साफ मना कर दिया.

ऐसा माना जाता है कि दुश्मन से ज्यादा दुखी बेवफा दोस्त करता है. जी हां, डांटने वाले और डांट खाने वाले किसी ज़माने में एक ही शाखा में सहायक के रूप में पदस्थ थे, अगल बगल में काउंटरों के संचालक थे और हम उम्र, हमपेशा, और रूमपार्टनर हुआ करते थे. अंतर सिर्फ उनकी संस्कृति, मातृभाषा, काया, रंग और अंग्रेज़ी में वाक्पटुता का होता था. अविनाश भांगड़ा की संस्कृति को प्रमोट करते थे तो कार्तिकेय भरतनाट्यम संस्कृति के हिमायती थे. किसी को कुलचे पराठे लुभाते थे तो किसी को इडली के साथ सांभर की खुशबू अपनी ओर खींचती थी. दोनों की आंखों में पानी आता तो था पर अलग अलग स्वाद की याद आने से. ये उनका दुर्भाग्य था कि उनकी पहली पदस्थापना के उस कस्बे से कुछ बड़ी सी जगह में न कुलचा पराठा मिलता था न ही इडली सांभर. अविनाश के नाम में पंजाबियत का सौंधापन नहीं था बल्कि उत्तरप्रदेश के बनारस या काशी की नगरी की पावनता थी जो बनारस निवासी उनकी माताजी के कारण थी. अब ये तो पता नहीं पर संतान के लक्षणों से अंदाज तो लगाया जा सकता ही था कि अविनाश, पेरेंटल प्रेमविवाह के परिणाम थे.

प्रथम पदस्थापना पर जैसा कि होता है, अविनाश और कार्तिकेय भी अविवाहित थे और दोनों की पाककला का प्रशिक्षण, बैंकिंग सीखने से कदम से कदम मिलाकर चल रहा था. दोनों मित्र दाल चांवल बनाना सीख चुके थे और अविनाश की दाल फ्राई करने की कला न केवल भोजन को स्वादिष्ट बनाती थी, वरन उन्हें कार्तिकेय पर सुप्रीमेसी स्थापित करने का अवसर भी प्रदान करती थी. बदले में स्वादिष्ट और चटपटे अचार की प्रबंधन व्यवस्था कार्तिकेय करते थे.

कथा चलती रहेगी, जमाना विद्युतीय और सौर ऊर्जा का है पर आपकी प्रतिक्रिया भी लेखक को ऊर्जावान बना सकती है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 12 – दलदल ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – दलदल।)

☆ लघुकथा – दलदल ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

वह युवा शिक्षिका सभी लोगों को तिरंगे परिधान में देखकर एक गहन चिंता में खो गई और अचानक उसके मुंह से निकल गया-

” अरे आज 2 अक्टूबर है?”

गांधी जी के सादा जीवन और उच्च विचार से अवगत कराएंगे,इसी उधेड़बुन में वह जल्दबाजी में चल पड़ी।

चारों तरफ देश के प्रति सम्मान बिखरा पड़ा है,लेकिन अच्छा है  बापू आज नहीं है….. उनके नाम पर जाने क्या-क्या होता है?

स्कूल के सभागार में पहुंच गई।

वहाँ बापू की प्रतिमा पर फूलों के हार चढ़ाने के बाद  सभागृह में सभी उपस्थित लोगों ने भाषण दिया।

शाकाहारी को भोजन हर सार्वजनिक स्थल पर मिलना चाहिए। मांसाहार की दुकानों को बंद करवाने की सफलता का गुणगान में रत।

चारों तरफ जश्न…लाउडस्पीकर पर देशभक्ति, बापू-भक्ति के गाने।

बापू के सिद्धांतों को प्रतिपादित करते हुए 3 बच्चे नजर आए,

बुरा मत देखो बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो की मुद्रा में बैठे थे।

क्या इन बच्चों को इसका मतलब समझ आ रहा है, उसे देखकर  अच्छा भी लगा और हंसी भी आ गई।

क्या यह आज के युग में संभव है?

सभा समाप्त हुई।

रास्ते में उसे सभागृह में उपस्थित जो व्यक्ति उपदेश दे रहे थे वही व्यक्ति छोटी-छोटी बातों पर एक-दूसरे पर लाठी ताने, गाली दे रहे थे ।

कानों में लाउडस्पीकर शोर उड़ेल रहा था –

दे दी हमें आजादी

बिना खड्ग, बिना ढाल…!

गांधीजी के स्वच्छ भारत और नशा मुक्ति अभियान को क्या जनमानस समझ पाएगा!

अरे! यह क्या?

मैं यह कहां फंस गई…

गाड़ी को क्या हो गया?

देश भी तो धार्मिक, जातिवाद, गरीबी, अशिक्षा, सामाजिक कुरीतियों के बंधन में जकड़ा हैं।

मैंने तो अपनी गाड़ी को इस दलदल से निकाल लिया …

भारतवर्ष इस दलदल से कैसे निकलेगा….?

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 182 – लघुकथा – पैती ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा पैती”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 182  ☆

☆ लघुकथा ❤️ पैती ❤️

सनातन धर्म के अनुसार कुश  को साफ सुथरा कर मंत्र उच्चारण कर उसे छल्ले नुमा अंगूठी के रूप में बनाया जाना ही पैती कहलाता है। जिसे हर पूजा पाठ में सबसे पहले पंडित जी द्वारा, उंगली पर पहनाया जाता है और इसके बाद ही पूजन का कार्य चाहे, कोई भी संस्कार हो किया जाता है।

सुधा और हरीश यूँ तो जीवन में किसी प्रकार की कोई चीज की कमी नहीं थीं। धन-धान्य और सुखी -परिवार से समृद्ध घर- कारोबार और अत्यंत प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे।

सृष्टि की रचना कब कहाँ किस और मोड़ लेती है कहा नहीं जाता।

सुखद वैवाहिक जीवन के कई वर्षों के बीत जाने पर भी संतान की इच्छा पूरी नहीं हो पाई थी।

कहते देर नहीं लगी की कोई दोष होगा। घर की शांति पूजा – पाठ नाना प्रकार के उपाय करते-करते जीवन आगे बढ़ रहा था। कहीं ना कहीं मन में टीस  बनी थी।

क्योंकि सांसारिक जीवन में सबसे पहले.. अरे आपके कितने… बाल गोपाल और कैसे हैं? समाज में यही सवाल सबसे पहले पूछा जाता है।

फिर भी अपने खुशहाल जिंदगी में मस्त दोस्तों से मेलजोल अपनों से मुलाकात और रोजमर्रा की बातें चलती जा रही थी।

समय पंख लगाकर उड़ता चला जा रहा था। कहते हैं देर होती है पर अंधेर नहीं। आज सुधा का घर फूलों की सजावट से महक रहा था।

चारों तरफ निमंत्रण से घर में सभी मेहमान आए थे। सभी को पता चला कि आज कुछ खास कार्यक्रम है।

पीले फूलों की पट्टी और उस पर छल्ले नुमा कुश से बने…. नाम लिखा था पैती।

नए जोड़ों की तरह दोनों का रूप निखर रहा था। मंत्र उच्चारण आरंभ हुआ। गोद में नन्हा सा बालक रंग तो बिल्कुल भी मेल नहीं खा रहा था। पर नाक नक्श और सुंदर कपड़ों से सजे बच्चों को लेकर सुधा छम छम करती निकली।

फूलों की बरसात होने लगी सभी को समझते देर ना लगी कि सुधा और हरीश ने किसी अनाथ बच्चों को गोद लेकर उसे अपने पवित्र घर मंदिर और अपने हाथों की पैती बना लिया।

जितने लोग उतनी बातें परंतु पैती आज अपने मम्मी- पापा के हाथों में पवित्र और निर्मल दिखाई दे रहा था।

सुधा की सुंदरता बच्चे के साथ देव लोक में अप्सरा की तरह दिखाई दे रही थी। ममता और वात्सल्य से गदगद वह सुर्ख लाल छुई-मुई लग रही थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – मेरी अपनी कसौटी – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  मेरी अपनी कसौटी।)

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ – मेरी अपनी कसौटी – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

मैंने एक दिन भगवान पर क्रोधित हो कर उससे कहा था, “यह क्या भगवान, जब भी देखता हूँ तुम मुझे परेशानी की भट्टी में झोंकते रहते हो।” भगवान ने झट से कहा था, “तुम्हारी परेशानी का सारा जाला समेट लेता हूँ। भूत बन कर खाली – खाली बैठे रहना।” मैंने भगवान से हार मान कर क्षमा मांगते हुए कहा था, “सब यथावत रहने दो भगवान। मैं परेशानियों के बिना जी नहीं पाऊँगा।”
***

© श्री रामदेव धुरंधर

21 — 02 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 11 – अपनी ताकत ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अपनी ताकत।)

☆ लघुकथा – अपनी ताकत ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

हेलो नमस्कार दीदी आपने मुझे पहचाना नहीं?

हेलो आपकी बड़ी मीठी आवाज है, मैं आपको नहीं पहचान पाई। आप कौन मुझे माफ करना सरला जी ने बड़ी सरलता पूर्वक कहा।

दीदी आप से मुलाकात हुई बहुत दिन हो गए आज जो आपके ऑफिस में मीटिंग  हैं उसमें मैं भी  हूं आप आ रही है न ।

हां एक कांफ्रेंस तो मेरे ऑफिस में होने वाली है?

हां दीदी  मैं समृद्धि राय) पीहू हूं।

अरे पीहू बेटा कैसी हो? सुना तुमने बहुत तरक्की कर ली वह जो बड़ा मॉल खुला है अब तुम्हारे भी उसमें आधे शेयर हो गए हैं मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है। आज तबीयत ठीक नहीं थी मीटिंग में नहीं आने वाली थी लेकिन आज ऑफिस तुमसे मिलने के लिए जरूर आऊंगी।

दीदी बहुत अच्छा लगेगा आप के आशीर्वाद से ही मैं इतनी आगे बढ़ चुकी हूं मीटिंग शुरू होने से थोड़ा पहले आप आ जाएंगी तो अच्छा रहेगा। हम लोग बात कर लेंगे क्योंकि मीटिंग के दौरान अपनी पर्सनल बातें नहीं हो पाएगी।

ओके तो सुबह 9:00 बजे मिलते हैं, सरला जी ने कहते हुए फोन रखा और अपने दैनिक काम को जल्दी से निपटाने लगी और अपने ड्राइवर को बुलाकर कहा कि आज छुट्टी नहीं है मुझे ऑफिस लेकर जल्दी चलो।

ठीक है मैडम पर आप तो आज मंदिर जाने को कह रही थी? नहीं मंदिर बाद में चली जाऊंगी ऑफिस में थोड़ा काम है तुम रुकना।

सरला जी 9:00 बजे ऑफिस पहुंची। ऑफिस में साफ सफाई चल रही थी मैडम कॉन्फ्रेंस तो 11:00 बजे से है आप इतनी जल्दी आ गई? हां, मैं थोड़ा जल्दी आ गई आज की मीटिंग की तैयारी करनी है वही देख रही हूं?

बेचारी सरला जी इधर से उधर घूमती रही और उनका मन किया कि पीहू को फोन करे, जिस नंबर पर आया था कि तुम कहां रह गई। तभी  उनके बॉस और सभी लोग आने लगें । उनके बॉस ने कहा-मीटिंग में एक मैडम आई हैं उनका नाम समृद्धि राय (पीहू)  वह कह रही थी आप उन्हें जानती हैं।

जी सर पर मैडम आई नहीं ।

मैडम होटल में रुकी हैं उनको लेने के लिए गाड़ी भेज दीजिए?

जी सर सरला जी ने कहा।

आप दरवाजे पर फूल लेकर खड़े हो जाइए जब मैडम आएंगी तो आप उनका स्वागत यह फूलों की माला पहनाकर करिएगा जिससे उस मॉल में हमारे ऑफिस में बनाए हुए प्रोडक्ट अच्छे से बिक सके, ध्यान रखिएगा। जी सर कहते हुए सरला जी कुछ उधेड़बुन में लगी थी तभी  पीहू आई ।

कैसी हैं आप बहुत दिन हो गया ।

सरला जी ने उनके गले में माला डाली और कहा बस आपका इंतजार कर रहे हैं ।

पीहू सरला जी को एक अभिमान भरी निगाह से देख रही थी और सभी लोग उससे पूछ रहे थे, मैडम आप चाय लेंगी या कुछ ठंडा मंगवाए। वह घमंड से सब की ओर देख रही थी और कह रही थी कि मुझे कुछ नहीं चाहिए आप लोग मीटिंग शुरू करिए और पेपर दिखाइए सरला मैडम।  सरला जी को अंदर ही अंदर बहुत बुरा लग रहा था पर अपने नाम की तरह ही व सरल थी वह उठकर गई और मन ही मन यह समझ चुकी थी कि इससे पुराने बॉस ने काम ना आने के कारण ऑफिस से निकाला था सब दिन एक समान नहीं होता है।

यह अपनी ताकत मुझे दिखा रही है…..।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “…इतना तो” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ लघुकथा – “…इतना तो” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

— आप ना उन नेताओं की हिमायत न किया करें जो माँसाहारी हैं — शैवाल ने माँ से कहा।

— देखो बेटा ताजा दौर में कोई भी जानकारी किसी से छिपी नहीं है। केवल भारत में ही 80% माँसाहारी हैं। ऐसे में हिंसा और अहिंसा को लेकर क्या कहा जाये। बहुत बारीक सी रेखा है दोनों के बीच। क्या उन करीबी रिश्तों को इस बुनियाद पर खारिज किया जा सकता है कि वे माँसाहारी हैं? सारी दुनिया में धड़ल्ले से मांसाहार चल रहा है। प्राणियों की खेती होती है।

दवा के प्रयोग के लिये प्राणियों पर होने वाले जघन्य अत्याचारों को लेकर क्या सोचते हो। कत्लखाने और बीफ निर्यात हमारी भावनाओं से रुकेगा ?

— माॅम ! चलिए दूसरी बात करते हैं। अब तो वीगनिज़्म भी चल पड़ा है।

— तुम अपनी कहो। दूध के पदार्थों के बिना रह सकोगे।

— मैं बस इतना जानता हूं कि हम एक भी जीव को बचा सके तो धरती पर एहसान होगा।

— क्या इतना काफी नहीं कि हम शुद्ध शाकाहारी हैं।

— नहीं। हमें शब्दों में भी नैतिक बल भरना होगा। इतना तो कर ही सकते हैं।

💧🐣💧

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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