डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – दाना पानी ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 231 ☆

☆ कहानी –  दाना-पानी

नन्दू मनमौजी है। पढ़ाई, कमाई में मन नहीं लगता। बस दोस्तों के साथ महफिल जमाने  और कहीं नाटक-नौटंकी देखने को मिल जाए तो मन खूब रमता है। दूसरे गाँव में रामलीला-नौटंकी की खबर मिले तो बेसुध दौड़ता जाता है। रात रात भर सुध बुध खोये बैठा रहता है। सबेरे लौटकर भाई-भौजाई की बातें सुनता है— ‘निठल्ले, पता नहीं तेरी जिन्दगी कैसे कटेगी। बियाह हो गया तो बहू तेरी हरकतें देखकर माथा कूटेगी।’

नन्दू पर कोई असर नहीं होता। अकेले में भौजाई से कहता है, ‘भौजी, मेरी फिकर मत करो। जिसने चोंच दी है वही चुग्गा देगा। अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम। शादी-ब्याह करके क्या करना है? शादी माने बरबादी।’

वैसे नन्दू आठवीं पास है। शासन की नीति है कि आठवीं तक कोई बच्चा फेल नहीं किया जाएगा, इसी के चलते नन्दू वैतरणी पार कर गया। आगे निश्चित रूप से फेल होना है, इसलिए पढ़ाई छोड़ दी।

अब सुबह तो नन्दू अपने भाई सुमेर के साथ खेत पर जाता है, लेकिन दोपहर के खाने के लिए जो घर आता है तो फिर उधर का रुख नहीं करता। दो-तीन घंटे की नींद और शाम को गाँव के पास वाली नदी के पुल के नीचे रेत पर दोस्तों के साथ गप-गोष्ठी। इस गोष्ठी में हँसी-मज़ाक, चुटकुलों के अलावा अभिनय, नकल, नाच,गाना, सब कुछ होता है। गाँव के कुछ सयाने भी जो जवानी में अपनी कला को कहीं न दिखा पाने के कारण कसमसाते रह गये, शाम को इस महफिल में आकर अपनी भड़ास निकाल कर हल्के हो लेते हैं। आकाश में तारे छिटकने पर ही नन्दू की महफिल खत्म होती है।

गाँव की अनगढ़, साधनहीन रामलीला में नन्दू के प्राण बसते हैं। कोई छोटा-मोटा पार्ट पाने के लिए जोर लगाता रहता है। और कुछ न मिले तो मुखौटा लगाकर वानर-सेना या राक्षस- सेना में शामिल हो जाता है। लीला शुरू होने से पहले पर्दा हटा कर बार-बार झाँकता है ताकि बाहर जनता को उसकी उपस्थिति की जानकारी हो जाए। जब तक रामलीला चलती है तब तक नन्दू दिन भर वहीं मंडराता रहता है।

नन्दू गाँव के बलराम दादा का मुरीद है। बलराम दादा सीधे-साधे, फक्कड़ आदमी हैं। सूती सफेद बंडी, सफेद अंडरवियर और टायर की चप्पलों में ही अक्सर देखे जाते हैं। कमाई का ज़रिया नहीं है इसलिए दरिद्रता घर के हर कोने से झाँकती रहती है। लेकिन बलराम साँप का ज़हर उतारने के लिए आसपास के गाँवों तक जाने जाते हैं। आधी रात को भी कोई बुलाने आये तो बलराम अपने कौल से बँधे दौड़े चले जाते हैं। अक्सर नन्दू को आवाज़ दे देते हैं तो नन्दू उनका झोला थामे पीछे-पीछे दौड़ा जाता है। मरीज़ के पास पहुँचकर बलराम नीम का घौरा थाम कर बैठ जाते हैं और मंत्र पढ़ने के साथ बेसुध पड़ा मरीज़ बक्रना शुरू कर देता है। बलराम साँप से मरीज़ को छोड़ देने के लिए मनुहार करते हैं। नहीं मानता तो घौरे से आघात करते हैं। अन्त में साँप मरीज़ को छोड़ देता है और मरीज़ होश में आ जाता है। नन्दू मंत्रमुग्ध सब देखता रहता है।

मरीज़ के होश में आने के बाद बलराम दादा उस स्थान को तत्काल छोड़ देते हैं। पानी तक ग्रहण नहीं करते, पैसे-टके की बात कौन करे। फिर आगे आगे वे और पीछे पीछे नन्दू। सीधे घर आकर दम लेते हैं। नन्दू की बस यही इच्छा है कि बलराम दादा से जहर उतारने का मंत्र मिल जाए। बलराम दादा ने वादा तो किया है, लेकिन अभी मंत्र दिया नहीं।

बाबा-जोगियों में नन्दू की अपार भक्ति है। कोई बाबा गाँव में आ जाए तो नन्दू सेवा में लग जाता है। बाबाओं की ज़िन्दगी नन्दू को बहुत लुभाती है। किसी भी बाबा से हाल-चाल पूछने पर एक ही जवाब मिलता है— ‘आनन्द है।’ बाबाओं के उपदेश नन्दू मुग्ध भाव से सुनता है। बहुत से जुमले और भजन की पंक्तियाँ सीख ली हैं। दोस्तों के बीच में रोब मारने में वे जुमले खूब काम आते हैं।

गाँव में भी कुछ वैरागी हो गये हैं। एक चूड़ीवाली का जवान बेटा अचानक साधु हो गया। अब वह कमंडल और झोला लिये आसपास के गाँवों में घूमता रहता है। माँ सब काम छोड़ रोज़ खाना लेकर उसे ढूँढ़ती फिरती है। मिल गया तो ठीक, अन्यथा उस दिन माँ के हलक से भी निवाला नहीं उतरता। बेटे के चक्कर में उसका धंधा चौपट हो गया। बेटे का मुँह देखने के लिए बावली सी घूमती रहती है।

गाँव के बुज़ुर्ग नत्थू सिंह को भी बुढ़ापे में वैराग्य हो गया था। नदी के पुल के पास ज़मीन में एक गुफा बनाकर वहीं रहने लगे थे। घर छोड़कर वहीं तपस्या करते थे। लेकिन डेढ़ साल में ही उन्हें फिर घर-द्वार ने खींच लिया। अब गेरुआ वस्त्र पहने नाती-नातिनों को खिलाते रहते हैं। उनकी बनायी गुफा अब धँस गयी है।

नन्दू का भी मन उचटता है। यहाँ गाँव में मजूरी-धतूरी के सिवा कुछ करने को नहीं है। दिन भर भाई भौजाई के उपदेश सुनना। बाबाओं के ठाठ होते हैं। जहाँ जाते हैं पच्चीस पचास आदमी पीछे चलते हैं, सेवा में लगे रहते हैं। पाँव छूते हैं सो अलग। भोजन-पानी की कोई चिन्ता नहीं, सब भक्तों के भरोसे। लोग पूछ पूछ कर दे जाते हैं।

एक दिन हिम्मत करके भौजी को बता दिया कि अब गाँव में मन नहीं लगता, सन्यास लेने का मन करता है। पिछली बार जो चिन्तामन बाबा गाँव में आये थे उनका पता ले लिया है। चुनार में उनका आश्रम है। वहीं जाएगा। भौजी को सुना कर गाता है— ‘अरे मन मूरख जनम गँवायो, ये संसार फूल सेमर को सुन्दर देख लुभायो।’

भौजी ने सुमेर को बताया तो उसने डाँटा, ‘पागल हो गया है क्या? बाबागिरी कोई आसान काम है? उसमें भी अकल चाहिए, नहीं तो जिन्दगी भर भटकता रहेगा। यह तेरे जैसे लोगों के बस का काम नहीं। यहीं कुछ काम-धाम कर।’

नन्दू ज्ञानी की नाईं कहता है, ‘काम धाम में कुछ नहीं धरा है। सब माया का फेर है। ये लोक तो बिगड़ ही गया, अभी नहीं सँभले तो दूसरा लोक भी बिगड़ जाएगा। अब तो सोच लिया है, माया से छुटकारा पाना है।’

उसका निश्चय देखकर भाई बोला, ‘खेती की जमीन में आधा हिस्सा तुम्हारा है। अभी पूरी जमीन दद्दा के नाम ही है। उसका क्या करोगे?’

नन्दू महादानी की तरह हाथ हिलाकर बोला, ‘हमें जमीन जायदाद से क्या मतलब! माया रहेगी तो बार बार वापस खींचेगी। हमें अब जमीन जायदाद से कुछ लेना-देना नहीं।’

भाई बोला, ‘तो चलो, पटवारी के पास लिख कर दे दो। जमीन मेरे नाम चढ़ जाएगी।’

नन्दू ने तुरन्त सहमति दे दी। पटवारी के पास जाकर सब काम करा दिया। बोला, ‘जी हल्का हो गया। जितने बंधन कम हो जाएँ उतना अच्छा।’

नन्दू का बाप दमा का मरीज़ था। रात रात भर बैठा खाँसता रहता था। लेटने में ज़्यादा तकलीफ होती थी। साँस खींचते खींचते गले की नसें उभर आयी थीं। गाँव में इलाज नहीं था। सरकारी डाक्टर सबेरे दस बजे आता था और घड़ी के पाँच छूते ही शहर चल देता था, जहाँ उसका परिवार था। दवाखाना कंपाउंडर के हवाले। परिवार गाँव में रहकर क्या करेगा? अन्ततः खाँसते-खाँसते नन्दू का बाप दुनिया से विदा हो गया।

नन्दू की माँ अभी ज़िन्दा थी, लेकिन उसे मोतियाबिन्द के कारण ठीक से दिखायी नहीं पड़ता था। बार-बार चित्रकूट ले जाने की बात होती थी, लेकिन भाई को फुरसत नहीं थी और नन्दू अकेले चित्रकूट में माँ को संभालने की कल्पना से ही घबरा जाता था। इसलिए दिन टल रहे थे।

आखिरकार नन्दू के विदा होने का दिन आ गया। दोस्त-रिश्तेदार इकट्ठे हो गये। सब के मन में नन्दू के लिए प्रशंसा और आदर का भाव था। नन्दू ने माँ,भाई,भाभी के पाँव छुए, बोला, ‘फिकर मत करना। ऊपरवाला मेरी रच्छा करेगा। आदमी के बस में कुछ नहीं है।’

माँ रोते रोते बोली, ‘मत जा बेटा। जाने कहाँ भटकता फिरेगा।’

नन्दू हाथ उठाकर बोला, ‘मत रोको माता। मुझे मारग मिल गया है। अब मुझे रोकने से पाप लगेगा।’

जुलूस के आगे आगे गर्व से चलता नन्दू बस पर बैठकर गाँव से रवाना हो गया। दो-चार दिन बाद दोस्त उसे भूल गये। बस माँ थी जो उसके लिए बिसूरती रहती थी। वह गाँव के लिए पराया हो गया।

साल डेढ़-साल तक नन्दू की कोई खबर नहीं मिली। भाई-भाभी को लगा कि वह बाबाओं के साथ रम गया। अचानक एक दिन उसका फोन आया। भाई से बात हुई। पहले माँ के और गाँव के हाल-चाल पूछे, फिर बोला, ‘यहाँ मन नहीं लगता। सब की याद आती है। बाबागिरी मेरे जैसे लोगों के लिए नहीं है। यहाँ मेरे लिए कोई काम नहीं है। गाँव लौटने का मन होता है।’

भाई व्यंग्य से बोला, ‘हो गयी बाबागिरी? मैंने पहले ही रोका था। आना है तो आजा। कौन रोकता है?’

तीन-चार दिन बाद नन्दू सचमुच आ गया, लेकिन हुलिया ऐसी कि पहचानना मुश्किल। सूखे मुँह पर लंबी दाढ़ी मूँछ, बढ़े हुए अस्तव्यस्त बाल, बेरंग, पुराने गेरुआ वस्त्र, पाँव में खस्ताहाल चप्पल। माँ से मिला तो वह खुश हो गयी।

शाम तक वह दाढ़ी, मूँछ और बाल कटवा कर और कपड़े बदल कर सामान्य हो गया। लेकिन बाबागिरी वाली बात पर वह बार-बार शर्मा रहा था।

दो दिन तक नन्दू बेहोश सोता रहा, जैसे लंबी थकान उतार रहा हो। तीसरे दिन सबेरे भाई से बोला, ‘मैं भी खेत चलूँगा।’

भाई बोला, ‘जैसी तेरी मर्जी। चल।’

उस दिन दोपहर तक काम करके लौट आया। लौट कर सो गया।

अगले दिन हल चलाते चलाते भाई के मुँह की तरफ देख कर बोला, ‘अब तो मुझे यहीं रहना है। यहीं खेती-बाड़ी करूँगा। चल कर फिर से मेरा नाम जमीन पर चढ़वा दो।’

भाई हल चलाते चलाते रुक गया, बोला, ‘कौन सी जमीन की बात कर रहा है? यह जमीन तो अब सिर्फ मेरी है। तूने ही तो लिखा- पढ़ी की थी।’

नन्दू का मुँह उतर गया, बोला, ‘तो हमें कहाँ पता था कि हम लौट आएँगे। लौट आये हैं तो जमीन का हमारा हिस्सा हमें मिलना चाहिए।’

भाई कठोरता से बोला, ‘तो ले ले जैसे लेते बने। अब कल से खेत पर पाँव मत रखना, नहीं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।’

नन्दू चुपचाप घर लौट आया। अब घर भी पराया लगने लगा। एक माँ ही प्रेम करने वाली बची थी। भौजी नज़र चुराती थी।

रात किसी तरह कटी। दूसरे दिन नन्दू सबेरे ही खेत के कुएँ पर जाकर बैठ गया। भाई पहुँचा तो उठ कर बोला, ‘यह मेरे बाप की जमीन है। मेरा हिस्सा कोई नहीं छीन सकता।’

सुमेर ने उसकी बाँह पकड़ कर घसीट कर खेत से बाहर कर दिया। दाँत पीसकर बोला, ‘एक लुहाँगी हन के मारूंँगा तो भरभंड फट जाएगा। जान की सलामती चाहता है तो फिर इस तरफ मुँह मत करना।’

नन्दू रोने लगा। रोते रोते गाँव के सयानों से फरियाद कर आया। हर जगह एक ही जवाब मिला, ‘अब तुमने खुद अपने हाथ काट लिये तो हम क्या करें? मामला-मुकदमा कर सको तो करो।’

मामला-मुकदमा करने कहाँ जाए? मामला-मुकदमा करने के लिए उसके पास पैसा कहाँ है? वैसे एक दो विघ्नसंतोषी उसके कानों में मंत्र ज़रूर फूँक गये— ‘छोड़ना नहीं। अदालत में घसीटना।’

नन्दू अब घर के सामने उदास बैठा रहता। भौजी दरवाज़े पर आकर रूखे स्वर में आवाज़ देती, ‘थाली रखी है।’ वह बेमन से उठकर दो चार कौर ठूँस लेता। माँ से बताया था और माँ ने भाई से बात भी की थी, लेकिन सुमेर ने उसकी बात को अनसुना कर दिया था।

दो-तीन दिन नन्दू घर के सामने बैठा दिखा, फिर वह अचानक ग़ायब हो गया। गाँव में कुछ लोगों का कहना है कि वह फिर से चिन्तामन बाबा के आश्रम चला गया, जब कि कुछ लोगों का कथन है कि वह दाना-पानी के चक्कर में दिल्ली चला गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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