हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #109 – कथा कहानी – खोई हुई चाबी….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय कथा “खोई हुई चाबी…..”। )

☆  तन्मय साहित्य  #109 ☆

☆ कथा कहानी – खोई हुई चाबी…..

क्या सोच रहे हो बाबूजी! आज बहुत परेशान लग रहे हो ?

हाँ, देविका तुम्हें तो सब मालूम है आज पूरे दो साल हो गए सुधा को घर छोड़े हुए, रानू बिटिया जो हॉस्टल में रह रही है वह भी आठ वर्ष की हो गई, चिंता खाए जा रही है, आगे क्या होगा। अब तो ऑफिस से घर आने के नाम से ही जी घबराने लगता है।

सही कह रहे हो बाबू जी! मुझे भी नहीं जमता यहाँ आना, पर क्या करूँ, सुधा बीबी जी ने कहा है रोज यहाँ आकर साफ-सफाई और आपके भोजन पानी की व्यवस्था करने की, इसीलिए…..

अच्छा तो मतलब सुधा से तुम्हारी मुलाकात होती है?

नहीं बाबू जी – फोन पर ही आपके हालचाल पूछती रहती हैं वे और कहती हैं…,

क्या कहती है सुधा मेरे बारे में? यहाँ लौटने के बारे में भी कभी कुछ कहा है क्या, बताओ न देविका?

हाँ साहब कहती हैं कि, तेरे साहब का गुस्सा ठंडा हो जाएगा उस दिन वापस अपने घर लौट आऊँगी।

बाबूजी! ले क्यों नहीं आते बीबी जी को, छोटे मुँह बड़ी बात, मेरी बेटी जो सातवीं कक्षा में पढ़ती है न, स्कूल से आकर मुझे रोज पढ़ाने लगी है आजकल। कल ही उसने एक दोहा मुझे याद कराया है, आप कहें तो सुनाऊँ साहब, बहुत काम की बात है उसमें

यह तो अच्छी बात है कि, बेटी तुम्हें पढ़ाने लगी है सुनाओ देविका वह  दोहा

जी साब-

रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार।

रहिमन फिरी-फिरी पोईये, टूटे मुक्ताहार।।

अरे वाह! यह तो सच में बहुत ही काम का दोहा है।

बाबू जी अब मैं चलती हूँ, कल बेटी के स्कूल जाना है, इसलिए नहीं आ पाऊँगी।

तीसरे दिन देविका को डोर बेल बजाने की जरूरत नहीं पड़ी खुले दरवाजे से डायनिंग में रानू बेटी, सुधा बीबी जी और साहब जी बैठे जैसे उसी का इंतजार कर रहे थे।

आओ-आओ देविका! देखो परसों जो खोई  हुई चाबी तुमने दी थी न, उसने मेरे दिमाग की सारी जंग साफ करके इस घर का ताला फिर से खोल दिया।

कौन सी चाबी साब मैं कुछ समझी नहीं

अरे वही दोहे वाली चाबी जो हमारी नासमझी से कहीं खो गयी थी।

अच्छा तो हमारी खोई हुई चाबी ये देविका है सुधा ने अनजान बनते हुए कहा।

नहीं बीबी जी! असली चाबी तो फिर मेरी बेटी है जो खुद पढ़ने के साथ-साथ मुझे भी इस उमर में पढ़ा रही है।

ठीक है तो देविका अब से उस चाबी की सार संभाल और पूरी पढ़ाई की जिम्मेदारी हमारी है।

मन ही मन खुश होते हुए देविका सोच रही है आपके घर के बंद ताले को खोलने के साथ ही बेटी ने आज हमारे सुखद भविष्य का ताला भी खोल दिया है बाबूजी।

ऐसे ही बहुत महत्व रखती है जीवन में ये खोई  हुई चाबियाँ। 

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

असहमत, सायंकालीन भ्रमण पर निकला, मौसम सुहाना था, ठंड उतनी ही थी कि तिब्बती बाज़ार से खरीदी नई स्वेटर पहनकर दिखाई जा सके. वैसे तो प्रायः असहमत भीड़भाड़ से मुक्त स्थान पर जाना पसंद करता था पर आज उसकी इच्छा बाज़ार की चहलपहल में रमने की थी तो उसने मार्केट रोड चुनी. पदयात्रियों के लिये बने फुटपाथ पर मनिहारी, जूतों, कपड़ों और जड़ी बूटियों के बाज़ार सजाकर बैठे विक्रेता उसका रास्ता रोके पड़े थे. मजबूरन उसे वाहनों के हार्न के शोर से कराहती सड़क पर चलना पड़ रहा था. बाइकर्स ब्रेक से अंजान पर एक्सीलेटर घुमाने के ज्ञानी थे जो हैंडल के neck pain की तकलीफ समझते हुये नाक की सीध में तूफानी स्पीड से चले जा रहे थे.असहमत को शंका भी होने लगी कि कहीं ये उसकी तरफ निशाना लगाकर भिड़ने का प्लान तो नहीं कर रहे हैं. वो वापस लौटने का निर्णय लेने वाला ही था कि उसकी नजर सामने लगे बोर्ड पर पड़ी. लिखा था “जो तुम्हारा है पर क्या तुम्हारे काम नहीं आ रहा है” समाधान के लिये मिलें “स्वामी त्रिकालदर्शी ” समाधान शुल्क 1100/-.

असहमत के पास वैसे तो कई समस्याओं का भंडार था जिनमें अधिकतर का कारण ही उसका सहमत नहीं हो पाना था पर फिर भी अपनी ताज़ातरीन समस्या के समाधान के लिये और बाइकर्स की निशानेबाजी से बचने के लिये उसने खुद को स्वामी जी के दरबार में पाया. दरबार में प्राइवेसी उतनी ही थी जितनी सरकारी अस्पतालों की OPD में होती है याने खुल्ला खेल फरुख्खाबादी. पहले नंबर पर एक महिला थी और समस्या : स्वामी जी, वैसे पति तो मेरा है पर उसकी हरकतों से लगता है कि ये पड़ोसन का है.

स्वामी : सात शुक्रवार को पड़ोसन के पति को अदरक वाली चाय पिलाओ.पड़ोसन अपने आप समझ जायेगी और तुम्हारा पति भी कि क्रिकेट के ग्राउंड पर फुटबाल नहीं खेली जाती.

अगला नंबर वृद्ध पति पत्नी का था और समस्या : स्वामी जी, बेटा तो हमारा है पर हमारे काम का नहीं है. अपनी आधुनिक मॉडल पत्नी और कॉन्वेंटी बच्चों के साथ सपनों की महानगरी में मगन है, रम गया है, वो भूल गया है कि वो हमारा है.

स्वामी : उस महानगरी के अखबार में विज्ञापन दे दीजिये कि हम अपना आलीशान मकान बेचकर हरिद्वार जाना चाहते हैं. बेटा तो आपके हाथ से निकल चुका है पर वो है तो बुद्धिमान तभी तो महानगरीय व्यवस्था में अपने सपनों को तलाश रहा है. तो आयेगा तो जरूर क्योंकि विद्वत्ता के साथ साथ धन भी सपने साकार करने की चाबी ? होता है.

अब नंबर असहमत का आया

“स्वामी जी,है तो मेरा मगर जरूरत पर मेरे काम नहीं आता.

स्वामी जी: पहेलियों में बात नहीं करो बच्चा, समस्या कहो, समाधान के लिये हम बैठे हैं.

असहमत : पैसा तो मेरा ही है पर जरूरत पर निकल नहीं पा रहा है. कभी लिंक फेल हो जाता है, कभी कार्ड का पिन भूल जाता हूँ.

स्वामी जी: अरे तुम तो मेरे गुरु भाई निकले, मैं त्रिकालदर्शी हूँ पर मेरा धन “जो बंद हो चुके बहुत सारेे पांच सौ के नोटों की शक्ल में है”, मेरे किसी काम नहीं आ रहा है. चलो चलते हैं, इसका समाधान तो हम दोनों के महागुरु ही दे सकते हैं.

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© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #68 – कर्म फल ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #68 – कर्म फल ☆ श्री आशीष कुमार

पुराने समय में एक राजा था। वह अक्सर अपने दरबारियों और मंत्रियों की परीक्षा लेता रहता था। एक दिन राजा ने अपने तीन मंत्रियों को दरबार में बुलाया और तीनो को आदेश दिया कि एक एक थैला लेकर बगीचे में जायें और वहाँ से अच्छे अच्छे फल तोड़ कर लायें। तीनो मंत्री एक एक थैला लेकर अलग अलग बाग़ में गए। बाग़ में जाकर एक मंत्री ने सोचा कि राजा के लिए अच्छे अच्छे फल तोड़ कर ले जाता हूँ ताकि राजा को पसंद आये। उसने चुन चुन कर अच्छे अच्छे फलों को अपने थैले में भर लिया। दूसरे मंत्री ने सोचा “कि राजा को कौनसा फल खाने है?” वो तो फलों को देखेगा भी नहीं। ऐसा सोचकर उसने अच्छे बुरे जो भी फल थे, जल्दी जल्दी इकठ्ठा करके अपना थैला भर लिया। तीसरे मंत्री ने सोचा कि समय क्यों बर्बाद किया जाये, राजा तो मेरा भरा हुआ थैला ही देखेगे। ऐसा सोचकर उसने घास फूस से अपने थैले को भर लिया। अपना अपना थैला लेकर तीनो मंत्री राजा के पास लौटे। राजा ने बिना देखे ही अपने सैनिकों को उन तीनो मंत्रियों को एक महीने के लिए जेल में बंद करने का आदेश दे दिया और कहा कि इन्हे खाने के लिए कुछ नहीं दिया जाये। ये अपने फल खाकर ही अपना गुजारा करेंगे।

 अब जेल में तीनो मंत्रियों के पास अपने अपने थैलो के अलावा और कुछ नहीं था। जिस मंत्री ने अच्छे अच्छे फल चुने थे, वो बड़े आराम से फल खाता रहा और उसने बड़ी आसानी से एक महीना फलों के सहारे गुजार दिया। जिस मंत्री ने अच्छे बुरे गले सड़े फल चुने थे वो कुछ दिन तो आराम से अच्छे फल खाता रहा रहा लेकिन उसके बाद सड़े गले फल खाने की वजह से वो बीमार हो गया। उसे बहुत परेशानी उठानी पड़ी और बड़ी मुश्किल से उसका एक महीना गुजरा। लेकिन जिस मंत्री ने घास फूस से अपना थैला भरा था वो कुछ दिनों में ही भूख से मर गया।

 दोस्तों ये तो एक कहानी है। लेकिन इस कहानी से हमें बहुत अच्छी सीख मिलती है कि हम जैसा करते हैं, हमें उसका वैसा ही फल मिलता है। ये भी सच है कि हमें अपने कर्मों का फल ज़रूर मिलता है। इस जन्म में नहीं, तो अगले जन्म में हमें अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। एक बहुत अच्छी कहावत हैं कि जो जैसा बोता हैं वो वैसा ही काटता है। अगर हमने बबूल का पेड़ बोया है तो हम आम नहीं खा सकते। हमें सिर्फ कांटे ही मिलेंगे।

 मतलब कि अगर हमने कोई गलत काम किया है या किसी को दुःख पहुँचाया है या किसी को धोखा दिया है या किसी के साथ बुरा किया है, तो हम कभी भी खुश नहीं रह सकते। कभी भी सुख से, चैन से नहीं रह सकते। हमेशा किसी ना किसी मुश्किल परेशानी से घिरे रहेंगे।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 79 ☆ उसका सच…. ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है ट्रांसजेंडर विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘उसका सच’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 79 ☆

☆ लघुकथा – उसका सच…. ! ☆

सूरज की किरणें उसके कमरे की खिडकी से छनकर भीतर आ रही हैं। नया दिन शुरू हो गया पर बातें वही पुरानी होंगी उसने लेटे हुए सोचा। मन ही नहीं किया बिस्तर से उठने का। क्या करे उठकर, कुछ बदलनेवाला थोडे ही है? पता नहीं कब तक ऐसे ही चलेगा यह लुकाछिपी का खेल। बहुत घुटन होती है उसे। घर में वह कैसे समझाए सबको कि जो वह दिख रहा है वह नहीं है, इस पुरुष वेश में कहीं एक स्त्री छिपी बैठी है। वह हर दिन  इस मानसिक अंतर्द्वंद्व को झेलता है। उसके शरीर का सच और घरवालों की आँखों को दिखता सच। दोनों के बीच में वह बुरी तरह पिस रहा है। तब तो अपना सच उसे भी नहीं समझा था, छोटा ही था,  स्कूल में रेस हो रही थी। उसने दौडना शुरू किया ही था कि सुनाई दिया – अरे! महेश को देखो, कैसे लडकी की तरह दौड रहा है। गति पकडे कदमों में जैसे अचानक ब्रेक लग गया हो, वह वहीं खडा हो  गया, बडी मुश्किल से सिर झुकाकर धीरे धीरे चलता हुआ भीड में वापस आ खडा हुआ। क्लास में आने के बाद भी बच्चे उसे बहुत देर तक लडकी – लडकी  कहकर चिढाते रहे। तब से वह कभी दौड ही नहीं सका, चलता तो भी कहीं से आवाज आती ‘लडकी है‘  वह ठिठक जाता।

महेश! उठ कब तक सोता रहेगा?  माँ ने आवाज लगाई।‘ कॉलोनी के सब लडके  क्रिकेट खेल रहे हैं तू क्यों नहीं खेलता उनके साथ ? कितनी बार कहा है लडकों के साथ खेला कर। घर में बैठा रहता है लडकियों की तरह।‘

‘मुझे अच्छा नहीं लगता क्रिकेट खेलना।‘

माँ के ज्यादा कहने पर वह साईकिल लेकर निकल पडा और पैडल पर गुस्सा उतारता रहा। सारा दिन शहर में घूमता रहा बेवजह। पैडल जितनी तेजी से चल रहे थे, विचार भी उतनी तेज उमड रहे थे। बचपन से लेकर बडे होने तक ना जाने कितनी बार लोगों ने उसे ताने मारे। कब तक चलेगा यह सब ? लोगों को दोष किसलिए देना? अपना सच वह जानता है, उसे स्वीकारना है बस सबके सामने। घर नजदीक आ रहा है। बस, अब और नहीं। घर पहुँचकर उसने साईकिल खडी की, कमरे में जाकर अपनी पसंद का शॉल निकाला और उसे दुप्पटे की तरह ओढकर सबके बीच में आकर बैठ गया। सूरज की किरणों ने आकाश पर अधिकार जमा लिया था।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 96 – लघुकथा – भ्रष्टाचार पर विजय ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “भ्रष्टाचार पर विजय।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 96 ☆

☆ लघुकथा — भ्रष्टाचार पर विजय ☆ 

मोहन ने कहा,” अपना ठेकेदारी का व्यवसाय है। इसमें दलाली, कमीशन, रिश्वत खोरी के बिना काम नहीं चल सकता है।”

रमन कब पीछे रहने वाला था,” भाई! मुझे आरटीओ के यहां से लाइसेंस बनवाने का काम करवाना पड़ता है। लोग बिना ट्रायल के लाइसेंस बनवाते हैं। यदि पैसा ना दूं तो काम नहीं चल सकता है।”

” वह तो ठीक है,” कमल बोला,” व्यापार अपनी जगह है पर रिश्वतखोरी हो तो बुरी है ना। नेता लोग करोड़ों डकार जाते हैं। बिना रिश्वत के रेल का बर्थ रिजर्व नहीं होता है। डॉक्टर बनने के लिए लाखों करोड़ों की रिश्वत देना पड़ती है। तब बच्चा डॉक्टर बनता है। यह तो गलत है ना।”

” हां हां, हम रिश्वत क्यों दें।” एक साथ कई आवाजें गुंजीं,” हमें अन्ना के आंदोलन का साथ देना चाहिए।”

तब काफी सोचविचार व विमर्श के बाद यह तय हुआ कि कल सभी औरतें अपने हाथों में मोमबत्ती जलाकर रैली निकालेगी और अंत में रिश्वत नहीं देने की शपथ लेगी। सभी ने यह प्रस्ताव पारित किया और अपनी-अपनी पत्नियों को रैली में सम्मिलित कराने हेतु घर की ओर चल दिए।

सभी के चेहरे पर भ्रष्टाचार पर विजय पाने की मुस्कान तैर रही थी।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-08-2011

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

असहमत अपनी साईकल से मार्केट जा रहा था तफरीह करने नहीं बल्कि पिता द्वारा दिये गये ऑफिस ऑर्डर का पालन करने. रास्ते में पैट्रोल पंप के पास उसकी साईकल रुक गई, असहमत का पैट्रोल से कोई लेना देना नहीं था पर रुकने के दो कारण थे. पहला, उसकी साइकिल की चेन उतर गई थी और दूसरा उसका एक अमीर दोस्त अपनी लखिया बाइक में पैट्रोल फिलिंग के बाद बाहर आ रहा था. असहमत के रुकने का कारण मित्र से मिलने का नहीं बल्कि अपनी साइकिल सहित किनारे सुरक्षित स्थान पर रुकना था. मित्र ने असहमत को देखकर बाइक उसके सामने ही खतरनाक ढंग से ब्रेक लगाते हुये रोककर अपनी अमीरी के अलावा अपनी कुशल पर खतरनाक ड्राइविंग का दबंगी भरा प्रदर्शन किया और पहला सवाल दागा : कब तक. अब इस सवाल के कई मतलब थे, पहला कैसे हो बतलाने की जगह कब तक साईकल पर ही चलोगे.दूसरा हमारे क्लासफेलो तो थे पर हमारी क्लास के कब तक बन पाओगे.

असहमत : पिताजी के काम से डेप्यूटेशन पर हूँ इसलिए वाहन सुख मिल रहा है वरना बेरोजगारी, विनोबा भावे ही बनाती है .

मित्र : खैर तुमसे उम्मीद तो हम लोगों याने सहपाठियों को भी नहीं थी पर अभी हम लोग नेक्सट वीक एक प्रि रियूनियन प्रोग्राम कर रहे हैं.पास के ही आलीशान रिसॉर्ट में मंगल (जंगल याने रिसॉर्ट में मंगल) मनाने जा रहे हैं तो तुम अब हो तो हमारे क्लासफेलो तो शामिल हो जाना.

असहमत ने भी अपनी विद्यालयीन बेशर्मी का प्रयोग करते हुये कह दिया कि तुम जानते तो हो ही कि ऐसे प्रोग्राम में आने के लिये हम सहमत तब ही होते हैं जब ये कार्यक्रम 100% सब्सीडाईज्ड हों.

मित्र : बिल्कुल है क्योंकि तुमसे अच्छा और सस्ता टॉरगेट हम लोगों के बैच में नहीं है. तो इस वीकएंड पर सुबह तैयार रहना, हम लोग तुमको पिकअप कर लेंगे.

असहमत ने भी सहमति दी साथ में उल्हास और आनंद भी एक के साथ दो फ्री की स्टाइल में और कल्पनाओं के आनंद में डूब गया.

प्री-रियूनियन नामक प्रचलित उत्सव का आगाज़ लगभग दस  सहपाठियों के साथ हुआ जिनमें धनजीवी, मनजीवी, सुराजीवी, द्यूतजीवी, क्रीड़ाजीवी, सामिष और निरामिष जीवी सभी प्रकार की आत्मन थे. सोशलमीडिया जीवी लोगों को हड़काते हुये मोबाइल का प्रयोग सिर्फ फोटो खींचने के लिये अनुमत किया गया.सिर्फ असहमत ही परजीवी parasite था जो लेगपुलिंग का नायक बनने के लिये मानसिकरूप से तैयार होकर आया था.

जब सूरज ढलते ही, दिनभर की स्पोर्टिंग गतिविधियों के बाद सुर और सुरा से सज्जित सुरीली शाम का आरंभ हुआ तो महफिल के पहले दौर में गीतों गज़लों, विभिन्न तरह की सुरा और कोल्ड ड्रिंक के आयोजन में दोस्त लोग डूबने के लिये मौज की धारा में उतरते गये. शाम गहरी होकर रात में बदली तो नशा भी गहरा हुआ और गीतों गज़लों को गाने में और समझने में आ रही मुश्किलों के कारण जोक्स महफिल में अवतरित हुये. दोस्तों की महफिल में खाने के मामले में लोग वेज़ेटेरियन हो सकते हैं पर जोक्स तो हर तरह के सुनने और सुनाने पड़ते ही हैं.

तीसरे दौर और कुछ फॉस्ट टैग धारियों के चौथे दौर में टॉपिक ने दोस्ताना माहौल को भौतिकवादी उपलब्धियों में बदल दिया और बात शान शौकत पर आ गई. हर किसी के अपने अपने तंबू थे, दुकाने थीं जिनसे निकाल निकाल कर उपलब्धियों का अतिशयोक्तिपूर्ण बखान शुरु हो गया. अचानक असहमत पर नज़र उस दोस्त की पड़ी जिसके दम पर वो पार्टी इनज्वाय कर रहा था. डायरेक्ट तो नहीं पर इनडायरेक्टली सिर्फ इतना ही कहा कि तुम्हारा मुफ्त का चंदन ज्यादा खुशबू दे रहा है.

असहमत विभिन्न तरह के ब्रांड्स चेक करने के चक्कर में काकटेली फिलासफर बन चुका था, तो उसके दर्शन शास्त्र से ही प्रि रियूनियन का सेशन एंड हुआ.

स्टूडेंट लाईफ में भले ही हम क्लासफेलो रहे हों पर ये सिर्फ अतीत ही होता है और समय के साथ भौतिक उपलब्धियों का मुलम्मा हमें डिफरेंट क्लास और डिफरेंट टाईम ज़ोन में स्थापित कर देता है. जैसे :अमरीका में निवासरत दोस्त का टाईमज़ोन हमसे अलग हो जाता है, हमारे लिये even उसके लिये odd बन जाता है और शायद यही रिवर्सिबल भी हो. जब सिर्फ 12 घंटे का ये अंतर इतना बदलाव ले आता है तो तीस चालीस वर्ष का सामयिक अंतराल तो बहुत कुछ बदल देता है. हम मिलते हैं तो अतीत की स्मृतियों को recreate करने की शुरुआत करते हैं पर धीरे धीरे वर्तमान अपनी उपेक्षा बर्दाश्त नहीं कर पाता और इस लंबे टाईमज़ोन के पात्र रियूनियन के आनंदित स्मृतियों के साथ साथ आहत स्मृतियां भी लेकर वर्तमान में लौटते हैं. शायद समय ही सबसे शक्तिशाली है और वर्तमान ही सबसे बड़ा कटु सत्य.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा- कुंडलिनी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि –  लघुकथा- कुंडलिनी ??

अजगर की कुंडली कसती जा रही थी। शिकार छटपटा रहा था। उसकी मंद होती छटपटाहट द्योतक थी कि उसने नियति के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है। भीड़ तमाशबीन बनी खड़ी थी। केवल खड़ी ही नहीं थी बल्कि उसके निगले जाने के क्लाइमेक्स को कैद करने के लिए मोबाइल के वीडियो कैमरा शूटिंग में जुटे थे।

एकाएक भीड़ में से एक सच्चा आदमी चिल्लाया, ‘मुक्त होने की शक्ति तुम्हारे भीतर है। जगाओ अपनी कुंडलिनी। काटो, चुभोओ, लड़ो, लड़ने से पहले मत मरो। …तुम ज़िंदा रह सकते हो।…तुम अजगर को हरा सकते हो।’

अंतिम साँसें गिनते शिकार के शरीर छोड़ते प्राण, शरीर में लौटने लगे। वह काटने, चुभोने, मारने लगा अजगर को। शीघ्र ही वेदना ने पाला बदल लिया। बिलबिलाते अजगर की कुंडली ढीली पड़ने लगी।

कुछ समय बाद शिकार आज़ाद था। उसने विजयी भाव से अजगर की ओर देखा। भागते अजगर ने कहा, ‘आज एक बात जानी। कितना ही कस और जकड़ ले, कितनी ही मारक हो कुंडली, कुंडलिनी से हारना ही पड़ता है।’

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 9:22 बजे, 28.10.2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ दो पटरियों के बीच ☆ डॉ. हंसा दीप

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020। 

☆ कथा-कहानी ☆ दो पटरियों के बीच ☆ डॉ. हंसा दीप 

बिटिया अपने एक अलग ही संसार में रहने लगी थी, सबसे अलग-थलग। उसे किसी से कभी कोई शिकायत नहीं होती थी, यहाँ तक कि खुद से भी नहीं। छोटी-छोटी बातों से खुश हो जाती, बड़ी-बड़ी बातों से दु:खी नहीं होती। बड़े-बड़े काम भी आसानी से कर लेती थी। एक ओर उसकी माँ थीं जो शिकायतों का पुलिंदा साथ लिये, सीने से लगाए घूमती थीं। छोटी-छोटी बातों से उदास हो जातीं, छोटे-छोटे कामों को करने से कतराती थीं। दोनों के स्वभाव में यही अंतर था। कहने को  छोटा-सा अंतर परन्तु आकाश और पाताल की दूरी जितना बड़ा अंतर। पाताल में से ऊपर आकाश को देखने जैसा। एक दूसरे की पहुँच से काफी दूर। 

एक ही लाड़ली घर में और एक ही माँ। दो अलग-अलग आकार-प्रकार के पिलर पर टिका घर। एक पिलर ऊँचा, एक नीचा। एक पतला, एक थुलथुल। संतुलन तो बिगड़ना ही था। रोज बिगड़ता था। दोनों में कहीं कोई साम्य नहीं था। माँ के मन में कई बार यह सवाल उठता कि क्या उन्होंने इसी बच्ची को जन्म दिया था या फिर अस्पताल में कहीं कोई अदला-बदली हो गयी थी। माँ-बेटी के स्वभाव, उनके रहन-सहन में और सोच-विचार में दूर-दूर तक कहीं कोई साम्य नहीं! 

बचपन से माता-पिता का सारा दुलार माँ की ओर से उसी पर बरसता रहा। और वह माँ की आँखों से देखती रही दुनिया का वह खुशनुमा रूप जहाँ सब कुछ अच्छा ही अच्छा था। किसी बुराई के लिये कोई जगह नहीं थी। लेकिन बुराइयों को अपनी जगह बनाने में कहाँ समय लगता है! वो कहीं न कहीं से सुराख तलाश ही लेती हैं। वही हुआ। एक के बाद एक तिनके जैसी उड़-उड़ कर आती रहीं और घोंसला बनाने के लिये जगह करती रहीं। माँ और बेटी के उस घोंसले में एक और घोंसला बनता गया। एक और घर बनता गया उसी घर में। एक ओर माँ का व्यक्तित्व था सात्विक, निरा शुद्ध तो दूसरी ओर बेटी का ऐसा व्यक्तित्व जो आधुनिकता की आड़ में वह सब करना चाहता था जो किया जा सके। न कोई आदर्श उसका रास्ता रोकता था, न कोई सिद्धांत कभी आड़े आता था। जहाँ अपना फायदा दिखे वह सब कुछ अच्छा था, जहाँ अपना फायदा नहीं उसकी कोई जगह नहीं थी उसके अपने हिस्से की दीवार के अंदर।

एक घर था, दो लोग थे। धीरे-धीरे एक घर के दो घर हो गए थे बीच में दीवार की आड़ लिये। अब एक छत के नीचे दो अलग-अलग दुनिया थी। एक दीवार के पार मंदिर था, पूजा थी, आराध्य थे। दूसरी दीवार के पार सारे भौतिक सुख थे, खुद ही आराध्य और खुद ही पूजा। खुद की प्रसन्नता का पूजा घर था। सात्विकता पर तामसिकता का जोर कुछ अधिक ही भारी होने लगा था। लेकिन दोनों के लिये अपनी जिंदगी सात्विक ही थी, अलग-अलग परिभाषाओं के साथ। आधुनिकता का मुलम्मा चढ़ा कर सारे घिसे-पिटे ख़्यालों को आजाद करने की कामयाब कोशिश थी। उन काई जमे ठस्स ख्यालों पर रद्दा ऐसे चलता था जैसे कहा जा रहा हो – “बहुत हो गया अब, छोड़ आए वह जमाना।” 

माँ के लिये एक प्रश्न चिन्ह सदा आँखों की किरकिरी बना रहता कि आखिर जीवन के किस मोड़ पर बिटिया इतनी आहत हुई होगी कि उसके लिये ‘स्व’ ही जहान था? किसी और का कोई अस्तित्व ही नहीं रहा। शायद सबसे बड़ी वजह यही रही हो कि माँ को इतने कष्ट उठाकर उसे बड़ा करते देख वह बगावती हो गयी हो। जबकि माँ ने तो सोचा था कि कष्टों में बीता जीवन इंसान में सहानुभूति लाता है, हमदर्दी लाता है। यह बगावत कब और कैसे जगह बना ले गयी, यह एक पहेली थी उनके लिये। माँ ने तमाम कष्टों में भी अपने तई बिटिया को हर खुशी देने की कोशिश की थी लेकिन उसके लिए शायद वह सब पर्याप्त नहीं था। उसकी चाहतों की ऊँचाइयाँ, माँ की सोच की छत से काफी ऊपर थीं।  

जमीनी सच्चाइयों में जीते हुए वह आसमान की ऊँचाइयों में उड़ती चली गयी। उसके सामने अब सिर्फ उड़ानें ही थीं। चलना तो जैसे सीखा ही नहीं था उसने। सीधे पंख फैला लिये थे उड़ने के लिये। आकाश की उन ऊँचाइयों तक उड़ना जहाँ से अगर गिरे तो इस कदर टूट जाए कि शरीर का हर हिस्सा एक दूसरे से कोसों दूर हो कर बिखर जाए! घर बैठे भी उसकी दिनचर्या में दुनिया भर की खुशियाँ शामिल थीं। दीवार के उस पार का संसार बगैर देखे भी दिखाई देता था माँ को। वो समझ नहीं पाती थीं कि यह कैसे संभव था कि बोया गुलाब मगर उग गया बबूल!    

माँ बूढ़ी होती रहीं और वह जवान। माँ शादी करके बेवा बनी रहीं और उसने ताउम्र शादी ही नहीं की। एक के बाद एक ऐसे दोस्त बनाती गयी जो उसकी तन, मन, धन की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति कर देते थे। वह अपनी जिंदगी में इस कदर मस्त रही कि कभी यह नहीं देख पाई कि इन आदतों से उसकी अपनी माँ कितनी त्रस्त थीं।  

आए दिन के ये हालात रोज की किच-किच में बदलने लगे – “अब मैं नहीं देख सकती यह सब अपने घर में। तुम किसी एक के साथ शादी क्यों नहीं कर लेतीं।”

“तुमने शादी करके किया क्या माँ? बस मुझे ले आयीं इस दुनिया में।”

“तुम्हें लायी वरना जीती कैसे? दीवारों से सिर टकरा-टकरा कर मर जाती।”

“अब मैं दीवारों से सिर टकरा रही हूँ, लेकिन चोट खाने के लिये नहीं बल्कि चोट देने के लिये।”

“कम से कम एक बार मुझे यह तो बता दो कि तुम चाहती क्या हो अपने जीवन से!”

“मैं अपने जीवन से जो चाहती हूँ वह ले रही हूँ लेकिन माँ तुम क्या चाहती हो? बस यही न कि मैं शादी कर लूँ।”

“हाँ”

“लेकिन क्यों, जब बगैर शादी के ही सब कुछ है मेरे पास तो फिर किसी ऐसे सर्टिफिकेट की क्या जरूरत?”

“बस अभी सब कुछ है तुम्हारे पास किन्तु बाद में सब छोड़ जाएँगे तुम्हें।”

“पति नहीं छोड़ेगा इसकी क्या गारंटी माँ? तुम तो इतनी पतिव्रता थीं, पर तुम्हारा पति छोड़ गया न तुम्हें!”

“हर बात में नकारात्मक ही क्यों सोचती हो तुम? जरूरी है कि मेरे साथ जो हुआ वही तुम्हारे साथ भी हो? शादी से घर बसेगा, परिवार बनेगा, तुम्हारे अपने होंगे परिवार में।”

“अपने? अपने-पराए सारे अपने-अपने स्वार्थ की डोरी से बंधे हैं। एक डोरी टूटी और किस्सा खत्म। मेरे लिये ये जो रोज आते हैं, ये ही मेरे परिवार का हिस्सा हैं।”

“इन क्षणभंगुर रिश्तों से परिवार नहीं बनता। कुछ पलों का साथ तो बस मनोरंजन के लिये ही हो सकता है।”

“मनोरंजन! हाँ माँ, मन खुश हो तो ही दुनिया भली लगती है। आप खुश नहीं हो तो आपको हर कोई दुखियारा नज़र आता है।”

“अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारना चाहती हो? मुझे अच्छा नहीं लगता जब अकेले इन लोगों से माथा फोड़ती रहती हो। कभी फोन वाले से लड़ रही हो तो कभी बिजली वाले से, कभी डॉक्टर से तो कभी राह चलते से।”

“माथा मैं नहीं फोड़ती ये लोग फोड़ते हैं।”

“अरे बाबा! इसीलिये तो कहती हूँ कि ढूँढ लो कोई, ऐसा जो तुम्हारा अपना हो, जीवन के हर काम में तुम्हारे साथ रहे, तुम्हारी मदद करे। ढूँढ लो कोई मेरे बच्चे, कुछ पलों का साथ तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा।”

“हाँ सारे लाइन लगा कर खड़े हैं न मेरे लिये कि आ जाओ मेरे गले में माला डाल दो।”

“देखोगी तो पता लगेगा कि खड़े हैं या नहीं।”

“तुम बस एक ही बात को ले कर क्यों बैठ जाती हो माँ!”

“देखने के लिये तो कह रही हूँ, अभी की अभी शादी करने के लिये तो कह नहीं रही न।”

“माँ ये सारी बातें हम कितनी बार कर चुके हैं?”

“अनगिनत बार।”

“तो फिर, कोई हल निकला कभी?”

“नहीं।”

“तो फायदा क्या घुमा-फिरा कर एक ही एक बात के पीछे पड़ने का? वही-वही बात, जब देखो तब!”

“वही-वही बात तुम्हारी तसल्ली के लिये नहीं, मेरी अपनी तसल्ली के लिये करती हूँ।”

“माँ तसल्ली से जीवन नहीं चलता, तृप्ति से चलता है, मन की, तन की और धन की। तुम्हें क्या लगता है कि एक लड़के के साथ शादी करके तन-मन-धन की खुशियाँ मेरे कदमों में होंगी, तीनों मिल जाएँगी मुझे!”

“हाँ, क्यों नहीं, अपनी-अपनी संतुष्टि के पैमाने तो तय करने ही पड़ते हैं।”

“वही तो करती हूँ, मेरी संतुष्टि का पैमाना थोड़ा बड़ा है।”

“तुम दुनिया में अच्छाइयाँ क्यों नहीं देख पातीं? सब कुछ इतना तो बुरा नहीं है जितना तुम्हें लगता है।”

“हों तब तो देखूँ दुनिया की अच्छाइयाँ, एक भी हो तो बता दो मुझे। वैसे सच कहूँ माँ, तुम इस दुनिया के काबिल न पहले थीं, न अब हो। तुम समय से पीछे ही रहती हो। अब वह जमाना नहीं रहा जब सिर्फ शादी करके, बच्चे पैदा करके, सुबह से शाम तक खाने के लिये इंतज़ार करके काट लो अपनी ज़िंदगी। अब तो हर पल, हर घड़ी का फायदा उठाने का जमाना है।”

“शादी नहीं, बच्चे नहीं तो फिर तुम्हारा अपना रहेगा क्या? बेकार में बहस करती हो। तन, मन, धन की बात करती हो, अगर खुश रहना है तो कभी-कभी इन तीनों में से एक को चुनना पड़ जाता है।”

“हाँ, चुनना चाहा था मैंने। मन की तृप्ति चुनी थी तो पता चला कि इसमें कई बार भूखे मरना पड़ता है। तन की तृप्ति भी चुनी थी जो उम्र के साथ कम हो जाती है, तो अब बचती है क्या, धन की तृप्ति न, वही तो मैंने चुन ली है। और देखो माँ, इसमें तो हर हाल में जीत ही जीत है।”

माँ निरुत्तर थीं, क्या कहतीं। कुछ कहने को छोड़ा ही नहीं था उसने। कितनी बार बहस करतीं अपनी बेटी से जो समय से पहले ही जीवन का मर्म समझ गयी थी और उसकी माँ रह गयी थीं पीछे। जमाने के साथ न तब चल पायी थीं, न अब। रह गयी थीं नासमझ की नासमझ, आला दर्जे की बेवकूफ।

क्या सचमुच वे जमाने की दौड़ में इतनी पीछे रह गई थीं कि उनकी अपनी संतान के और उनके विचारों में कोई मेल नहीं था? एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत थे। सब कुछ तो वैसा ही था उसके बचपन में, जैसा उन्होंने चाहा था। अकेली माँ जैसे बच्चे को बड़ा कर सकती है उसी तरह सब किया था उन्होंने। फिर यह सब कब और कैसे हुआ, पता ही नहीं चला। बेटी खुश है लेकिन माँ को उसकी यह खुशी नकली लगती है। बेटी इस बात को स्वीकार नहीं करती कि वह यह सब गुस्से में कर रही है।

न माँ, न बेटी, न यह घर और न उनके कमरे की दीवारें, कोई भी बदलने को तैयार ही नहीं। सबकी अपनी-अपनी जिद तो थी पर कोई झुकने को तैयार नहीं था। वह तो बस इसी तरह जीना चाहती थी, एक आजाद परिंदे की तरह जिसे घर लौटने की कोई जल्दी न हो, घर से जाने की भी कोई जल्दी न हो। घड़ी के काँटे आगे बढ़ें तो उसकी इच्छा से और समय का चक्र बस उसके आदेशों पर चलता रहे।  

एक बार माँ ने कोशिश की थी कि इन दीवारों को नया रूप दे दिया जाए तब शायद बिटिया का मन बदले पर वह भी न हो पाया। दीवारों की मजबूती ऐसी थी कि तोड़ने वाले ने कहा– “एक दीवार टूटने से पूरा मकान ही टूट जाएगा। इसकी मजबूती पर सब कुछ टिका हुआ है।”

और तब उन्होंने भी घुटने टेक दिए थे। इंसान तो इंसान, ईंट और पत्थर भी अपनी जिद पर अड़े थे कि हम जैसे हैं वैसे ही रहेंगे। माँ-बेटी दोनों के अपने-अपने रास्ते थे, चल तो रहे थे मगर पटरियों की तरह अलग-अलग। दो पटरियाँ समानान्तर चल रही थीं। कभी न मिलना उनकी नियति थी। शायद माँ भी सही थीं और बेटी भी। जितनी तेजी से जमाना बदल रहा था उतनी ही तेजी से पीढ़ियों का गहराता अंतर बोल रहा था, दीवारों के आर-पार से।

☆☆☆☆☆

© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 105 – लघुकथा – प्रायश्चित ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  “बेटी बचाओ ” जैसे अभियान जो पोस्टर एवं बयानों तक ही सीमित रह जाते हैं , पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा  “प्रायश्चित। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 105 ☆

? लघुकथा – प्रायश्चित ?

सुलोचना आज पुरानी पेटी से शादी का जोड़ा निकाल कर देख रही थी। बीते 25 वर्षों से वह अपनी नन्ही सी परी को लेकर पतिदेव से अलग हो चुकी थी। परी ने आवाज लगाई… मम्मी फिर वही पुरानी बात भूल जाओ, मैं अब बड़ी हो गई हूँ। मैं अपनी मम्मी को किसी प्रकार का कष्ट होने नहीं दूंगी।    

 माँ ने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा… तुम बेटी हो न, इसी बात को लेकर मुझे चिंता होती है। तुम्हारे पापा सहित ससुराल में सभी ने मुझे बेटी हुई है, और उन्हें बेटा चाहिए था, यह कह कर मुझे घर से निकाल दिया था।

परी ने देखा मां की आंखें नम हो चली थी । उसने कहा.. अच्छा चलो मैं ही तुम्हारा बेटा हूँ मैं आपको छोड़कर कहीं भी नहीं जाऊंगी।

माँ ने कहा… यह संभव नही है। हमारी संस्कृति है कि बेटियों को एक दिन ससुराल जाना पड़ता है। बात करते-करते सुलोचना अपना काम कर रही थी और परी अपना बैग उठा ऑफिस के लिए निकल गई।

शाम को उसके साथ एक नौजवान आया परी ने कहा… मम्मी इनसे मिलिए ये संदेश हैं और इनको मैं बारात लेकर ब्याह कर लाऊंगी।  यह हमारे साथ घर पर रहेंगे क्योंकि इनकी यही इच्छा है जो लड़की इनको पसंद करेगी। यह उनके घर ही रहेंगे।

आपकी समस्या का समाधान हो गया। चाय नाश्ता चल ही रहा था कि डोर बेल बज उठी। मां ने दरवाजा खोला। देखा सामने जाना पहचाना चेहरा और मुस्कुराती आंखों पर आंसू.. पतिदेव ने कहा… सुलोचना तुम्हारे जाने के बाद मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ ‘प्रायश्चित’ करने के लिए मैं इसी दिन का इंतजार कर रहा था।

यह हमारे ऑफिस में काम करता है इसका कोई नहीं है मैं इसे जानता हूं। मैं अपना कोई अधिकार नहीं जमा रहा हूँ पर मुझे एक मौका दो और माफ कर सको तो मेरा प्रायश्चित हो जाएगा और एक परिवार फिर से बन संवर जाएगा। संदेश और परी दूर से यह सब देख रहे थे।

सारा खेल अब सुलोचना को समझ आने लगा। मन अधीर हो उठा। परी सचमुच बड़ी हो गई है।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ दो अलहदा छोर ☆ डॉ. हंसा दीप

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020। 

☆ कथा-कहानी ☆ दो अलहदा छोर ☆ डॉ. हंसा दीप 

“ए लड़की…”

कानों ने सुना तो सही पर न तो ध्यान दिया, न ही पलट कर देखने की जरूरत महसूस हुई। मैं जानती थी कि यह बुलावा मेरे लिये नहीं था। भला अब कौन पुकारता है, “ए लड़की…” ? 

एक युग गुजर गया। कान अम्मा, आंटी, दादी और नानी सुनने के आदी थे। चश्मे को आँखों पर खिसकाते हुए लगा कि देखूँ तो सही कि किस लड़की को कौन सा लड़का पुकार रहा है। रोज नये जोड़े बनते हैं इन आँखों के सामने और टूट भी जाते हैं। आजकल युवा लड़के-लड़कियों की चुहलबाजियाँ और इशारे देखना सामान्य बात है। बूढ़ी अम्मा समझ कर मेरी उपस्थिति को कोई गंभीरता से लेता भी नहीं पर मेरा अच्छा टाइम पास है। हैरान हो जाती हूँ जब हफ्ते–दर-हफ्ते इनके साथी बदलते देखती हूँ।

“चलो देख ही लिया जाए कि आज कौन किसके पीछे दीवाना हो रहा है।”

देखने की उत्कंठा में सिर उठाया तो आसपास कोई नहीं दिखा। सामने जो था वह मेरी ही उम्र का एक बूढ़ा था। मरियल शरीर, बढ़ी हुई दाढ़ी और बिखरे-बिखरे-से बाल। कपड़े सलीके से पहने थे। किसी को ढूँढ रहा था शायद। मेरी आँखें मिलीं उससे और फिर अपना रास्ता नापने लगीं। मानो सीधे यह सोचकर उपेक्षा कर दी हो कि– “तुमसे मेरा कोई लेना-देना नहीं।”

एक बार फिर से सुनायी दिया– “ए लड़की, सुन…” इस बार कानों को मजबूत संदेश मिला। अब उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। अब मेरे पैर ठिठके, आवाज उसी ओर से आ रही थी जिस ओर से वह बूढ़ा चला आ रहा था।

मैंने घूम कर देखा, आँखें मिचमिचायीं, अपनी ओर इशारा करके पूछा– “मैं?”

“हाँ, तू। सड़क से बोल रहा हूँ क्या मैं!”

मैं उसे देखती रह गयी। पगला गया है बूढ़ा, मति मारी गयी है इसकी– “ए लड़की” कह रहा है। यह अपना चश्मा बदल लेता तो इसे थोड़ा साफ़ दिखाई देता। सनकी कहीं का, हेकड़ी तो देखो, नालायक बच्चे की तरह धौंस झाड़ रहा है– “सड़क से बोल रहा हूँ क्या…!”

मेरा गुस्सा शायद पलभर का था। अगले पल मन बिल्कुल बदल गया। इतने सभ्य समाज में रहने का आदी मन “आप”, “सुनिए” से परे जो कुछ महसूस कर रहा था उससे मीठी-सी गुदगुदी हुई। अरे यह तो सुबह-सुबह अच्छी-खासी गिफ्ट मिल गयी, बुढ़िया से लड़की बनने की। मैंने सोचा क्यों न इसे भी यह रिटर्न गिफ्ट दे दी जाए। विश्वास था कि उसने भी यह बरसों से नहीं सुना होगा। मीठे-से शब्द बाहर आए– “ए लड़के बोल!”

वह भी मुस्कुराया। एक अर्थपूर्ण मुस्कान, शायद उसकी योजना कामयाब हो गयी थी और दूसरी ओर खड़ी लड़की ने उसके मंसूबों को समझ लिया था। अंकल जी, सर और दादाजी-नानाजी के बदले जो मिला वह आँखों में उतर आया, ऐसा लगा जैसे तोहफा कुबूल हुआ हो। उसे भी किसी ने सालों से “ए लड़के” कह कर नहीं बुलाया होगा। वह खुश दिखा।

“कहाँ रहती है तू?”

“मैं तो यहीं रहती हूँ, तू कहाँ रहता है?”

उन चारों आँखों में एक चमक-सी इठला रही थी। मस्ती रग-रग में सहसा दौड़ने लगी थी। तू-तड़ाक वाला बचपन दोनों के सामने था।

“सामने उस बिल्डिंग में। चल खेलती क्या?”

“क्या?”

“जो तू कहे।”

दोनों ओर से जैसे एक प्रतिस्पर्धा वाली ललक थी, न जाने एक दूसरे को खुश करने के लिये या फिर कुछ नया करते हुए फिर से बच्चा बनने के लिये। बड़ों का जीवन जीते हुए तो बरसों हो गए थे। वैसे भी अब जी कहाँ रहे थे! उस जीवन को ढो रहे थे और ढोते हुए भी साल-दर-साल गुजरते जा रहे थे। दोनों के चेहरे उस बचपनी कौतूहल से चमक रहे थे जो तब पैदा होता है जब नये दोस्त के साथ खेलने का मन बन रहा हो और दोस्त सामने ही खड़ा हो।

“चल छुपा-छुपी खेलते हैं।” ऐसा शुद्ध अपनापन जहाँ अजनबीपन की कोई दीवार नहीं होती बीच में, होता है तो सिर्फ़ दोस्ती का पैगाम।

“हाँ, चल खेलते हैं, पर सुन ले, एक मिनट का समय है, नहीं ढूँढा तो आउट, मंजूर?”

“हाँ, हाँ, मंजूर।”

मैं जल्दी से छुपने की जगहों की टोह लेने लगती हूँ। कानों में उसके नंबर बोलने के टकारे गूँजते हैं, एक, दो तीन, चार फिर जल्दी-जल्दी नंबर बोले जाने लगते हैं। वह नंबर बोल रहा था पर साथ ही हथेलियों के बीच से उसकी आँखें झाँक रही थीं। यह पता करने के लिये कि “किस ओर जा रही है लड़की!”

मैं भी कोई कम नहीं थी कि ऐसे ही पकड़ में आ जाती। कई ऐसी जगहें थीं जहाँ आँखों ने युवा होते बच्चों को एकमेक होते देखा था और अनदेखा कर दिया था। सबको यही लगता था कि मेरी आँखें बहुत कमजोर हैं, बराबर दिखाई नहीं देता शायद इसलिये वे मुझे अपने रास्ते का रोड़ा नहीं समझते थे। और मैं इस कला में माहिर होती जा रही थी कि देखो सबको, पर दिखाओ ऐसे कि “मैंने कुछ नहीं देखा।” 

इस लड़के को क्या मालूम कि कैसी शैतान लड़की से पाला पड़ा है इसका, ढूँढ-ढूँढ कर थक जाएगा पर मुझे पकड़ नहीं पाएगा। मैं भी मन में एक-दो-तीन नंबर बोलने लगती हूँ, साठ तक बोलना होगा ताकि मेरा एक मिनट का हिसाब बराबर रहे। उसकी बड़बड़ाहट मेरी मुस्कुराहट बढ़ा रही थी। मैं उसे कहीं दिखाई नहीं दी।

“कहाँ गायब हो गयी यह लड़की! धरती खा गयी कि आकाश निगल गया।” वह बोल रहा था और मैं साँस रोके सुन रही थी जैसे कि साँस लेने की आवाज भी उस तक न पहुँच जाए और उसे पता चल जाए कि मैं यहाँ छुपी हूँ।

कुछ ही पलों में मैं बाहर थी, अपनी जीत की खुशी के साथ – “एक सेकंड ऊपर हो गया। चल, तू आउट हो गया।”

“अरे ऐसे कैसे आउट हो गया, अभी तो दो सेकंड बचे थे। चल रोत्तल कहीं की, रोत्तल खेलती है तू।”

“मैं नहीं, तू खेलता है रोत्तल!”

“चीटर!”

“तू है चीटर, जा मैं नहीं खेलती तेरे साथ।” मैं रूठकर जाने लगी तो वह पीछे-पीछे आया, मनाते हुए।

“अच्छा सुन, चल वहाँ बैठते हैं, चाकलेट खाएगी क्या?”

“चाकलेट?” आँखें गोल हो जाती हैं मेरी। सचमुच बहुत दिनों से नहीं खायी थी। वह चाकलेटी स्वाद जबान के इर्द-गिर्द लाग-लपेट के साथ लिपटता महसूस होता है।

“है क्या तेरे पास?”

“हाँ, चुरा कर लाया हूँ।”

“चोर कहीं का, कहाँ से चोरी की, बेटे के घर से कि बेटी के घर से?”

“कहीं से भी की हो, तुझे क्यों बताऊँ, खाना हो तो बोल।”

मैं मुस्कुरा दी। अपनी दोस्ती में किसी घरवाले को नहीं लाना है इसे, यह तो और भी अच्छी बात है वरना कोई अमीर बेटे का बाप होता तो अपनी दोस्ती शुरू होते ही खत्म हो जाती। मैंने उसकी आँखों में झाँककर संदेश दिया कि मुझे अच्छा लगा यह छुपा-छुपी का खेल। हम दोनों चाकलेट के रैपर खोलते हुए बहुत खुश थे। गटाक से मुँह में रख ली कि कहीं कोई देख न ले। मुँह से चट-चट की आवाज भी आ रही थी। स्वाद का भरपूर मजा था, साथ का भी।

“मेरे पास भी है कुछ!”

मैंने अपने जैकेट की जेब से टिकटैक का पूरा पैकेट निकाला। दोनों ने एक-एक करके बाँटी और खायी। और भी खेलने का मन था पर शाम हो रही थी, बच्चे लौटने वाले थे।

“कल मैं सीटी बजाऊँगा, आएगी न तू?”

“हाँ, पर कल, कल तो छुट्टी है सब घर पर होंगे, सोमवार को आना, फिर खेलेंगे।”

उदास हो गया वह, और मैं भी। मानो दो दिन तक इंतजार करना पसंद नहीं आया पर उसके आने के बारे में पक्का कर लेना चाहती थी मैं।

“अच्छा सुन, दो बार सीटी बजाना, एक बार में तो पता ही नहीं चलेगा कि यह तू है।”

“दो क्या तीन बार बजा दूँगा, पर मेरी सीटी तो एक बार में ही सुन लेगी तू, मैं बहुत जोर से बजाता हूँ।”

और उसने इतनी जोर से सीटी बजाई कि मेरी आँखें चौड़ी हो गयीं। सचमुच सीटी क्या थी, चीखती-सी आवाज थी किसी को पुकारती हुई। मैंने भी उसी की तरह सीटी बजानी चाही पर वह फुस्स हो कर रह गयी। वह सिखाने लगा – “देख ऐसे गोल कर होठों को, और फिर हवा छोड़, जरा दम लगाकर।” 

“हाँ, हाँ, ज्यादा लेक्चर मत दे, मैं कल तक बजाना सीख लूँगी। ठीक है चल, बाय।”

“बाय।”

हम अपने-अपने रास्ते पर चल दिए। घर आकर अपने काम करते हुए घर वालों की नजर बचाकर सीटी बजाने की प्रैक्टिस करती रही मैं। पहले से बेहतर थी अब मेरी सीटी पर इतनी भी अच्छी नहीं कि कोई बाहर से सुन सके। बार-बार मन करता था कि उसकी बिल्डिंग के सामने जाकर बजा दूँ सीटी, बुला लूँ उसे और खेलती-फिरती रहूँ उसके साथ, इधर से उधर। छुपा-छुपी के अलावा भी कई नये-नये खेलों की योजना बनने लगी दिमाग में। वे सारे खेल याद आने लगे जो अपने आँगन में खेला करते थे और दौड़-दौड़ कर, हाँफ-हाँफ कर सामने वाले को आउट करने का हँसते-हँसते मजा लेते थे।

अपने बचपन को वापस लाकर बहुत खुश थे हम दोनों। निश्छल और अनौपचारिक जीवन, जहाँ “ए” और “तू” के बीच दोस्ती हो गयी थी गहरी। टाइम मशीन लग गयी थी जैसे दोनों के दिमाग में, सालों पीछे आ गए थे। वैसे भी आगे का सोचने के लिए कुछ बचा नहीं था। बहुत सा समय गुज़र चुका था। जो नहीं बीता था वह था आने वाला कल, जो रह-रहकर सामने आ जाता और हताशा के अलावा कुछ न दे पाता था। अब जो सामने आया था वह एक अजूबा था। सालों से भीतर रहकर अंदर के बच्चे ने कभी इस तरह बाहर आने की हिम्मत नहीं की थी। अंदर ही छुपा रहा सकुचाया सा। और अब देखो पूरी ताकत से बाहर, एक नया जन्म, एक नया बचपन और एक नया दोस्त। खेलने के लिये, खिलाने के लिये बगैर रोकटोक के कुछ अपना-सा। सभ्य समाज की औपचारिकताओं में मन भूलने लगा था कि मन का अपनापन कैसा होता है। अब सोमवार से शुक्रवार तक का, दिन का हर समय हमारा अपना था। खेलते-लड़ते-झगड़ते और वापस चले जाते। अगले दिन का इंतजार करते। यह वो समय होता जब आसपास के सारे बच्चे स्कूल में होते व उनके माता-पिता काम पर। भर-दोपहर का सूनापन हमारा अपना होता, किलकारियों से भरा। बूढ़े मनों में नया उत्साह भर गया था। हम दोनों खाते-पीते खेलते और नयी जगह तलाशते जहाँ दो बूढ़ों के बचपन को कोई देख न सके।

ऐसी ही एक दोपहर थी, आपस में कुछ छीना झपटी करते, एक दूसरे के पीछे दौड़ने लगे हम दोनों। जीतने के लिये दौड़ना जरूरी था। हारना किसी को पसंद नहीं था इसीलिये कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता था। भूल गए थे कि हम दौड़ नहीं सकते अब। भूल गए थे कि हम सात साल के नहीं सत्तर साल के हैं, जीतने का हौसला ऐसा था कि अपना पूरा दम लगाकर दौड़ रहे थे। कुछ ही पलों में एक दूसरे को पकड़ने के लिये हाथ फैलाए, टकराए, गिरे और ऐसे गिरे कि फिर उठ नहीं पाए।

कुछ देर तक वैसे ही पड़े रहे। अपनी धक-धक करती साँसों को सामान्य गति देने का प्रयास करते रहे। कोई आसपास होता तो उठाने आता लेकिन वहाँ तो कोई था ही नहीं। पलटकर एक दूसरे को देखते रहे। साँसों की गति बेतहाशा तेज थी, धक-धक-धक-धक मशीन फिट हो गयी थी जो थामे नहीं थम रही थी। हम दोनों ने एक-दूसरे को हाथ से इशारा किया कि “चिंता न करो, थोड़ी देर रुको, कुछ न कुछ कर ही लेंगे।” लाख चाहने पर भी उठने की कोशिश नाकामयाब रही तो पड़े रहने में ही भलाई समझी।

आगे क्या होगा, उठ पाएँगे या नहीं, फिर से खेल पाएँगे या नहीं, कुछ पता नहीं चल पा रहा था, बस इतना जरूर मालूम था कि ये खुशनुमा घड़ियाँ थीं, दो अलहदा छोर मिल रहे थे। अलग-अलग दूरी पर, जमीन पर पड़े हुए हम दोनों मुस्कुरा रहे थे, एक संतृप्ति की मुस्कान। अपने-अपने मनों की मनमानी कर लेने की मुस्कान। उस छोर तक पहुँचने की, जहाँ से जीवन का सफर शुरू हुआ था।

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© डॉ. हंसा दीप

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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