डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020। 

☆ कथा-कहानी ☆ दो अलहदा छोर ☆ डॉ. हंसा दीप 

“ए लड़की…”

कानों ने सुना तो सही पर न तो ध्यान दिया, न ही पलट कर देखने की जरूरत महसूस हुई। मैं जानती थी कि यह बुलावा मेरे लिये नहीं था। भला अब कौन पुकारता है, “ए लड़की…” ? 

एक युग गुजर गया। कान अम्मा, आंटी, दादी और नानी सुनने के आदी थे। चश्मे को आँखों पर खिसकाते हुए लगा कि देखूँ तो सही कि किस लड़की को कौन सा लड़का पुकार रहा है। रोज नये जोड़े बनते हैं इन आँखों के सामने और टूट भी जाते हैं। आजकल युवा लड़के-लड़कियों की चुहलबाजियाँ और इशारे देखना सामान्य बात है। बूढ़ी अम्मा समझ कर मेरी उपस्थिति को कोई गंभीरता से लेता भी नहीं पर मेरा अच्छा टाइम पास है। हैरान हो जाती हूँ जब हफ्ते–दर-हफ्ते इनके साथी बदलते देखती हूँ।

“चलो देख ही लिया जाए कि आज कौन किसके पीछे दीवाना हो रहा है।”

देखने की उत्कंठा में सिर उठाया तो आसपास कोई नहीं दिखा। सामने जो था वह मेरी ही उम्र का एक बूढ़ा था। मरियल शरीर, बढ़ी हुई दाढ़ी और बिखरे-बिखरे-से बाल। कपड़े सलीके से पहने थे। किसी को ढूँढ रहा था शायद। मेरी आँखें मिलीं उससे और फिर अपना रास्ता नापने लगीं। मानो सीधे यह सोचकर उपेक्षा कर दी हो कि– “तुमसे मेरा कोई लेना-देना नहीं।”

एक बार फिर से सुनायी दिया– “ए लड़की, सुन…” इस बार कानों को मजबूत संदेश मिला। अब उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। अब मेरे पैर ठिठके, आवाज उसी ओर से आ रही थी जिस ओर से वह बूढ़ा चला आ रहा था।

मैंने घूम कर देखा, आँखें मिचमिचायीं, अपनी ओर इशारा करके पूछा– “मैं?”

“हाँ, तू। सड़क से बोल रहा हूँ क्या मैं!”

मैं उसे देखती रह गयी। पगला गया है बूढ़ा, मति मारी गयी है इसकी– “ए लड़की” कह रहा है। यह अपना चश्मा बदल लेता तो इसे थोड़ा साफ़ दिखाई देता। सनकी कहीं का, हेकड़ी तो देखो, नालायक बच्चे की तरह धौंस झाड़ रहा है– “सड़क से बोल रहा हूँ क्या…!”

मेरा गुस्सा शायद पलभर का था। अगले पल मन बिल्कुल बदल गया। इतने सभ्य समाज में रहने का आदी मन “आप”, “सुनिए” से परे जो कुछ महसूस कर रहा था उससे मीठी-सी गुदगुदी हुई। अरे यह तो सुबह-सुबह अच्छी-खासी गिफ्ट मिल गयी, बुढ़िया से लड़की बनने की। मैंने सोचा क्यों न इसे भी यह रिटर्न गिफ्ट दे दी जाए। विश्वास था कि उसने भी यह बरसों से नहीं सुना होगा। मीठे-से शब्द बाहर आए– “ए लड़के बोल!”

वह भी मुस्कुराया। एक अर्थपूर्ण मुस्कान, शायद उसकी योजना कामयाब हो गयी थी और दूसरी ओर खड़ी लड़की ने उसके मंसूबों को समझ लिया था। अंकल जी, सर और दादाजी-नानाजी के बदले जो मिला वह आँखों में उतर आया, ऐसा लगा जैसे तोहफा कुबूल हुआ हो। उसे भी किसी ने सालों से “ए लड़के” कह कर नहीं बुलाया होगा। वह खुश दिखा।

“कहाँ रहती है तू?”

“मैं तो यहीं रहती हूँ, तू कहाँ रहता है?”

उन चारों आँखों में एक चमक-सी इठला रही थी। मस्ती रग-रग में सहसा दौड़ने लगी थी। तू-तड़ाक वाला बचपन दोनों के सामने था।

“सामने उस बिल्डिंग में। चल खेलती क्या?”

“क्या?”

“जो तू कहे।”

दोनों ओर से जैसे एक प्रतिस्पर्धा वाली ललक थी, न जाने एक दूसरे को खुश करने के लिये या फिर कुछ नया करते हुए फिर से बच्चा बनने के लिये। बड़ों का जीवन जीते हुए तो बरसों हो गए थे। वैसे भी अब जी कहाँ रहे थे! उस जीवन को ढो रहे थे और ढोते हुए भी साल-दर-साल गुजरते जा रहे थे। दोनों के चेहरे उस बचपनी कौतूहल से चमक रहे थे जो तब पैदा होता है जब नये दोस्त के साथ खेलने का मन बन रहा हो और दोस्त सामने ही खड़ा हो।

“चल छुपा-छुपी खेलते हैं।” ऐसा शुद्ध अपनापन जहाँ अजनबीपन की कोई दीवार नहीं होती बीच में, होता है तो सिर्फ़ दोस्ती का पैगाम।

“हाँ, चल खेलते हैं, पर सुन ले, एक मिनट का समय है, नहीं ढूँढा तो आउट, मंजूर?”

“हाँ, हाँ, मंजूर।”

मैं जल्दी से छुपने की जगहों की टोह लेने लगती हूँ। कानों में उसके नंबर बोलने के टकारे गूँजते हैं, एक, दो तीन, चार फिर जल्दी-जल्दी नंबर बोले जाने लगते हैं। वह नंबर बोल रहा था पर साथ ही हथेलियों के बीच से उसकी आँखें झाँक रही थीं। यह पता करने के लिये कि “किस ओर जा रही है लड़की!”

मैं भी कोई कम नहीं थी कि ऐसे ही पकड़ में आ जाती। कई ऐसी जगहें थीं जहाँ आँखों ने युवा होते बच्चों को एकमेक होते देखा था और अनदेखा कर दिया था। सबको यही लगता था कि मेरी आँखें बहुत कमजोर हैं, बराबर दिखाई नहीं देता शायद इसलिये वे मुझे अपने रास्ते का रोड़ा नहीं समझते थे। और मैं इस कला में माहिर होती जा रही थी कि देखो सबको, पर दिखाओ ऐसे कि “मैंने कुछ नहीं देखा।” 

इस लड़के को क्या मालूम कि कैसी शैतान लड़की से पाला पड़ा है इसका, ढूँढ-ढूँढ कर थक जाएगा पर मुझे पकड़ नहीं पाएगा। मैं भी मन में एक-दो-तीन नंबर बोलने लगती हूँ, साठ तक बोलना होगा ताकि मेरा एक मिनट का हिसाब बराबर रहे। उसकी बड़बड़ाहट मेरी मुस्कुराहट बढ़ा रही थी। मैं उसे कहीं दिखाई नहीं दी।

“कहाँ गायब हो गयी यह लड़की! धरती खा गयी कि आकाश निगल गया।” वह बोल रहा था और मैं साँस रोके सुन रही थी जैसे कि साँस लेने की आवाज भी उस तक न पहुँच जाए और उसे पता चल जाए कि मैं यहाँ छुपी हूँ।

कुछ ही पलों में मैं बाहर थी, अपनी जीत की खुशी के साथ – “एक सेकंड ऊपर हो गया। चल, तू आउट हो गया।”

“अरे ऐसे कैसे आउट हो गया, अभी तो दो सेकंड बचे थे। चल रोत्तल कहीं की, रोत्तल खेलती है तू।”

“मैं नहीं, तू खेलता है रोत्तल!”

“चीटर!”

“तू है चीटर, जा मैं नहीं खेलती तेरे साथ।” मैं रूठकर जाने लगी तो वह पीछे-पीछे आया, मनाते हुए।

“अच्छा सुन, चल वहाँ बैठते हैं, चाकलेट खाएगी क्या?”

“चाकलेट?” आँखें गोल हो जाती हैं मेरी। सचमुच बहुत दिनों से नहीं खायी थी। वह चाकलेटी स्वाद जबान के इर्द-गिर्द लाग-लपेट के साथ लिपटता महसूस होता है।

“है क्या तेरे पास?”

“हाँ, चुरा कर लाया हूँ।”

“चोर कहीं का, कहाँ से चोरी की, बेटे के घर से कि बेटी के घर से?”

“कहीं से भी की हो, तुझे क्यों बताऊँ, खाना हो तो बोल।”

मैं मुस्कुरा दी। अपनी दोस्ती में किसी घरवाले को नहीं लाना है इसे, यह तो और भी अच्छी बात है वरना कोई अमीर बेटे का बाप होता तो अपनी दोस्ती शुरू होते ही खत्म हो जाती। मैंने उसकी आँखों में झाँककर संदेश दिया कि मुझे अच्छा लगा यह छुपा-छुपी का खेल। हम दोनों चाकलेट के रैपर खोलते हुए बहुत खुश थे। गटाक से मुँह में रख ली कि कहीं कोई देख न ले। मुँह से चट-चट की आवाज भी आ रही थी। स्वाद का भरपूर मजा था, साथ का भी।

“मेरे पास भी है कुछ!”

मैंने अपने जैकेट की जेब से टिकटैक का पूरा पैकेट निकाला। दोनों ने एक-एक करके बाँटी और खायी। और भी खेलने का मन था पर शाम हो रही थी, बच्चे लौटने वाले थे।

“कल मैं सीटी बजाऊँगा, आएगी न तू?”

“हाँ, पर कल, कल तो छुट्टी है सब घर पर होंगे, सोमवार को आना, फिर खेलेंगे।”

उदास हो गया वह, और मैं भी। मानो दो दिन तक इंतजार करना पसंद नहीं आया पर उसके आने के बारे में पक्का कर लेना चाहती थी मैं।

“अच्छा सुन, दो बार सीटी बजाना, एक बार में तो पता ही नहीं चलेगा कि यह तू है।”

“दो क्या तीन बार बजा दूँगा, पर मेरी सीटी तो एक बार में ही सुन लेगी तू, मैं बहुत जोर से बजाता हूँ।”

और उसने इतनी जोर से सीटी बजाई कि मेरी आँखें चौड़ी हो गयीं। सचमुच सीटी क्या थी, चीखती-सी आवाज थी किसी को पुकारती हुई। मैंने भी उसी की तरह सीटी बजानी चाही पर वह फुस्स हो कर रह गयी। वह सिखाने लगा – “देख ऐसे गोल कर होठों को, और फिर हवा छोड़, जरा दम लगाकर।” 

“हाँ, हाँ, ज्यादा लेक्चर मत दे, मैं कल तक बजाना सीख लूँगी। ठीक है चल, बाय।”

“बाय।”

हम अपने-अपने रास्ते पर चल दिए। घर आकर अपने काम करते हुए घर वालों की नजर बचाकर सीटी बजाने की प्रैक्टिस करती रही मैं। पहले से बेहतर थी अब मेरी सीटी पर इतनी भी अच्छी नहीं कि कोई बाहर से सुन सके। बार-बार मन करता था कि उसकी बिल्डिंग के सामने जाकर बजा दूँ सीटी, बुला लूँ उसे और खेलती-फिरती रहूँ उसके साथ, इधर से उधर। छुपा-छुपी के अलावा भी कई नये-नये खेलों की योजना बनने लगी दिमाग में। वे सारे खेल याद आने लगे जो अपने आँगन में खेला करते थे और दौड़-दौड़ कर, हाँफ-हाँफ कर सामने वाले को आउट करने का हँसते-हँसते मजा लेते थे।

अपने बचपन को वापस लाकर बहुत खुश थे हम दोनों। निश्छल और अनौपचारिक जीवन, जहाँ “ए” और “तू” के बीच दोस्ती हो गयी थी गहरी। टाइम मशीन लग गयी थी जैसे दोनों के दिमाग में, सालों पीछे आ गए थे। वैसे भी आगे का सोचने के लिए कुछ बचा नहीं था। बहुत सा समय गुज़र चुका था। जो नहीं बीता था वह था आने वाला कल, जो रह-रहकर सामने आ जाता और हताशा के अलावा कुछ न दे पाता था। अब जो सामने आया था वह एक अजूबा था। सालों से भीतर रहकर अंदर के बच्चे ने कभी इस तरह बाहर आने की हिम्मत नहीं की थी। अंदर ही छुपा रहा सकुचाया सा। और अब देखो पूरी ताकत से बाहर, एक नया जन्म, एक नया बचपन और एक नया दोस्त। खेलने के लिये, खिलाने के लिये बगैर रोकटोक के कुछ अपना-सा। सभ्य समाज की औपचारिकताओं में मन भूलने लगा था कि मन का अपनापन कैसा होता है। अब सोमवार से शुक्रवार तक का, दिन का हर समय हमारा अपना था। खेलते-लड़ते-झगड़ते और वापस चले जाते। अगले दिन का इंतजार करते। यह वो समय होता जब आसपास के सारे बच्चे स्कूल में होते व उनके माता-पिता काम पर। भर-दोपहर का सूनापन हमारा अपना होता, किलकारियों से भरा। बूढ़े मनों में नया उत्साह भर गया था। हम दोनों खाते-पीते खेलते और नयी जगह तलाशते जहाँ दो बूढ़ों के बचपन को कोई देख न सके।

ऐसी ही एक दोपहर थी, आपस में कुछ छीना झपटी करते, एक दूसरे के पीछे दौड़ने लगे हम दोनों। जीतने के लिये दौड़ना जरूरी था। हारना किसी को पसंद नहीं था इसीलिये कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता था। भूल गए थे कि हम दौड़ नहीं सकते अब। भूल गए थे कि हम सात साल के नहीं सत्तर साल के हैं, जीतने का हौसला ऐसा था कि अपना पूरा दम लगाकर दौड़ रहे थे। कुछ ही पलों में एक दूसरे को पकड़ने के लिये हाथ फैलाए, टकराए, गिरे और ऐसे गिरे कि फिर उठ नहीं पाए।

कुछ देर तक वैसे ही पड़े रहे। अपनी धक-धक करती साँसों को सामान्य गति देने का प्रयास करते रहे। कोई आसपास होता तो उठाने आता लेकिन वहाँ तो कोई था ही नहीं। पलटकर एक दूसरे को देखते रहे। साँसों की गति बेतहाशा तेज थी, धक-धक-धक-धक मशीन फिट हो गयी थी जो थामे नहीं थम रही थी। हम दोनों ने एक-दूसरे को हाथ से इशारा किया कि “चिंता न करो, थोड़ी देर रुको, कुछ न कुछ कर ही लेंगे।” लाख चाहने पर भी उठने की कोशिश नाकामयाब रही तो पड़े रहने में ही भलाई समझी।

आगे क्या होगा, उठ पाएँगे या नहीं, फिर से खेल पाएँगे या नहीं, कुछ पता नहीं चल पा रहा था, बस इतना जरूर मालूम था कि ये खुशनुमा घड़ियाँ थीं, दो अलहदा छोर मिल रहे थे। अलग-अलग दूरी पर, जमीन पर पड़े हुए हम दोनों मुस्कुरा रहे थे, एक संतृप्ति की मुस्कान। अपने-अपने मनों की मनमानी कर लेने की मुस्कान। उस छोर तक पहुँचने की, जहाँ से जीवन का सफर शुरू हुआ था।

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© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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