हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 185 – मुलताई होली – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा मुलताई होली”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 185 ☆

☆ लघुकथा 🌻 मुलताई होली 🌻

रंग उत्सव का आनंद, फागुन होली की मस्ती, किसका मन नहीं होता रंगों से खेलने का। लाल, हरा, पीला, नीला, गुलाबी, गुलाल सबका मन मोह रही है।

और हो भी क्यों नहीं, होली की खुशियाँ भी कुछ ऐसी होती है कि हर उम्र का व्यक्ति बड़ा – छोटा सबको रंग लगाना अच्छा लगता हैं।

अरे कांता…… सुनो तुम जल्दी-जल्दी काम निपटा लो। आज 12:00 बजे हमारे सभी परिचित होली खेलने आएंगे। रंग, फाग उड़ेगा, ढोल – नगाड़े बजेंगे, मिठाइयां बटेगी और स्वादिष्ट भोजन सभी को खिलाया जाएगा।

जी मेम साहब…. कांता ने चहक कर आवाज लगाई।

अपना काम कर रही थी। झाड़ू – पोछा लगाते- लगाते देखी कि बाहर बालकनी में कई बोरी मुल्तानी मिट्टी जिससे होली खेली जाती है, रखी हैं। जिसमें से भीनी-भीनी खुशबू भी आ रही है।

गांव में थोड़ा सा गुलाल, रंग और फिर कीचड़, पानी से होली खेलते देख, वह शहर आने के बाद मिट्टी से होली का रंग लगाते देख रही थी।

पिछले साल भी वह इस होली का आनंद उठाई थी। परंतु आज इतने बोरियों को इकट्ठा देख उसके अपने छोटे से घर जहाँ की मिट्टी की दीवार जगह से उखड़ी थी, याद आ गया… अचानक काम करते-करते वह रुक गई।

हिम्मत नहीं हो रही थी कि मेमसाहब से बोल दे….. कि वह दो बोरियां मुझे भी दे दीजिएगा। ताकि मैं अपने घर ले जाकर दीवारों को मुलताई मिट्टी पोत-लीप लूंगी।

हमारी तो होली के साथ-साथ दीवाली भी हो जाएगी और घर भी अपने आप महकने लगेगा। फिर बुदबुदाते हुए जाने लगी और मन में ही बात कर रही थीं… यह सब बड़े आदमियों के चोचलें  हैं। इन्हें क्या पता कि हम गरीबों की देहरी इन मिट्टी से नया रंग रूप ले खिल उठती है।

जाने दो मैं फिर कभी मांग लूंगी। कांता के हाव-भाव और गहरी बात को सुन मेमसाहब सोच में पड़ गई।

बातें मन को एक नया विचार दे रही थी। सभी मेहमानों का आना-जाना शुरू हो गया। जब सभी लोग आ गए कोई रंग कोई गुलाल कोई मिट्टी लेकर आए थे। जोर-जोर से ढोल नगाड़े और डीजे की आवाज के बीच अचानक मेमसाहब की आवाज गूंज उठी…. आज की होली हम सिर्फ अबीर, गुलाल और रंग से खेलेंगे।

जो भी मिट्टी रखी है उसे सभी पास के गांव में ले चलेंगे। वहाँ पर होली खेलकर आएंगे। हँसते हुए सब ने कहा… अच्छा है मिट्टी से होली खेल कर आ जाएंगे गांव वाले जो ठहरें।

सभी की सहमति लगभग तय हो गई इन सब बातों से अनजान कांताबाई अपने काम में लगी।

किसी दूसरे ने कहा देखो कांता मेमसाहब कह रही हैं… सब तुम्हारे गांव जा रहे हैं।

खुशी का ठिकाना नहीं रहा वह सोचकर झूम उठी कि मैं सभी को थोड़ा सा अच्छा वाला गुलाल, रंग लगाकर मिट्टी की बोरी को दीवाल रंगने के लिए रख लूंगी।

मेरे घर की दीवाल भी मुलताई मिट्टी से होली खेल महक उठेगी । जोश से भरा उसका हाथ जल्दी-जल्दी काम में चलने लगा। मेमसाहब को आज होली के मुलताई रंग की अत्यंत प्रसन्नता हो रही थीं। सच तो यह है कि हम बेवजह किसी भी चीज की उपयोगिता को बिना सोचे समझे उसे नष्ट कर देते हैं। सोचने वाली बात है आप भी जरा सोचिएगा। 🙏🙏🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – भूख… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘भूख…’।)

☆ लघुकथा – भूख… ☆

शांति, घर घर में जाकर बर्तन धो कर अपनी आजीविका चलाती थी, पिछले कई दिनों से बीमार थी, वह काम पर नहीं जा पाई थी, घर में, दाल, चावल, आटा सब खत्म हो चुका था, फाके की नौबत आ गई थी, अपने बेटे को भी कुछ नहीं बना पाई थी, बेटा कल रात से भूखा था, शाम होने को आई, घर में अन्न का एक दाना भी नहीं था, वह जानती थी, अभी उसका शराबी पति, आकर, पैसे मांगेगा, अब उसके पास पैसे नहीं हैं, जब भी शराब पीने के लिए पैसे नहीं देगी, तो उसका पति उसकी पिटाई करेगा, यह रोज का नियम बन गया था, उसका पति रमेश कई दिनों से बेकार था, काम पर नहीं जाता था, उधार ले लेकर शराब पीता था, और अब तो उसके सभी जानने वालों ने, उसे उधार देना बंद कर दिया था, परंतु वह सोचता था, कि, उसकी पत्नी के पास पैसे रखे होंगे, वही वह मांगता था, जब वह मना करती तो वह अपनी पत्नी को पीटता था, आज भी जैसे ही घर में घुसा उसने देखा, बच्चे ने कागज खा लिया है, उसने बच्चे की पिटाई करना शुरू कर दी, बच्चा रोता रहा, परंतु उसने कुछ नहीं बताया कि कागज क्यों खाया,

क्योंकि बच्चा जानता था, कि पिता कुछ नहीं सुनेगा, फिर मारेगा,

उसके पिता ने, अपनी पत्नी से शराब के लिए पैसे मांगे, जब शांति ने पैसे देने से मना किया, कहा नहीं हैं, तो  रमेश ने उसकी डंडे से पिटाई की,

बहुत मारा, और कहा बच्चा कागज खा रहा था, तो यह भी नहीं देख सकती, ,

और मार पीट कर बाहर चला गया,

शांति कराहती हुई उठी, बेटे को उठाया, और आंसू बहाते हुए, बेटे से बोली,

क्यों जान लेना चाहता है मेरी,

क्यों कागज खा रहा था, ,

बेटे ने कहा, मां कल से भोजन नहीं मिला, बहुत भूख लगी थी, कागज पर रोटी बनी थी, इसलिए कागज खा लिया था..

शांति कुछ नहीं बोल सकी, जड़ हो गई, आंसू भी थम गए, बेटे को गले लगाकर स्तब्ध हो गई.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 234 ☆ कहानी – गृहप्रवेश ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – गृहप्रवेश। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 234 ☆

☆ कथा-कहानी –  गृहप्रवेश

गौड़ साहब बैंक से वी.आर.एस. लेकर घर बैठ गये। धन काफी प्राप्त हुआ, लेकिन  असमय ही बेकार हो गये। अभी हाथ- पाँव दुरुस्त हैं, इसलिए दो चार महीने के आराम के बाद खाली वक्त अखरने लगा। पहले सोचा था कि फुरसत मिलने पर घूम-घाम कर रिश्तेदारों से मेल- मुलाकात करेंगे, मूर्छित पड़े रिश्तों को हिला-डुला कर फिर जगाएँगे, लेकिन जल्दी ही भ्रम दूर हो गया। सब के पास उन जैसी फुरसत नहीं। घंटे दो- घंटे के प्रेम-मिलन के बाद धीरे-धीरे सन्नाटा घुसपैठ करने लगता है। दो-तीन दिन के बाद सवालिया निगाहें उठने लगती हैं कि (शरद जोशी के शब्दों में) ‘अतिथि तुम कब जाओगे?’

गौड़ साहब तड़के उठकर खूब घूमते हैं। घूमते घूमते पार्क में बैठ जाते हैं तो जब तक मन न ऊबे बैठे रहते हैं। कोई जल्दी नहीं रहती। घर जल्दी लौटकर ‘खटपट’ करके दूसरों की नींद डिस्टर्ब करने से क्या फायदा? पार्क में कुछ और रिटायर्ड मिल जाते हैं तो गप-गोष्ठी भी हो जाती है। लौटते में कई घरों से ढेर सारे फूल तोड़ लाते हैं और फिर नहा-धोकर घंटों पूजा करते हैं।

कुछ दिन तक मन ऊबने पर बैंक में पुराने साथियों के पास जा बैठते थे। उनके जैसे और भी स्वेच्छा से सेवानिवृत्त आ जाते थे। कुछ दिनों में ही ये सब फुरसत-पीड़ित लोग बैंक के प्रशासन की आँखों में खटकने लगे। दीवारों पर पट्टियाँ लग गयीं कि ‘कर्मचारियों के पास फालतू न बैठें।’ कर्मचारियों को भी हिदायत मिल गयी कि आसपास खाली कुर्सियाँ न रखें, न ही फालतू लोगों को ‘लिफ्ट’ दें। इस प्रकार गौड़ साहब का वक्त काटने का यह रास्ता बन्द हुआ।

वैसे गौड़ साहब परिवार की तरफ से निश्चिंत हैं। तीन बेटे और एक बेटी है। दो बेटे काम से लग गये हैं। बड़े बेटे और बेटी की शादी हो गयी है। छोटा बेटा एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा है। उसकी पढ़ाई मँहगी है और इससे गौड़ साहब को सेवानिवृत्ति से प्राप्त राशि में कुछ घुन लगा है। लेकिन उन्हें भरोसा है कि लड़का जल्दी काम से लगकर उन्हें पूरी तरह चिन्तामुक्त करेगा। फिलहाल वे मँझले बेटे की शादी की तैयारी में व्यस्त हैं।

मँझले बेटे की शादी से तीन चार महीने पहले गौड़ साहब मकान में ऊपर दो कमरे और एक हॉल बनाने में लग गये क्योंकि अभी तक मकान एक मंज़िल का ही था और उसमें जगह पर्याप्त नहीं है। बड़े बेटे का परिवार भी उनके साथ ही है। गौड़ साहब ने पहले ऊपर नहीं बनाया क्योंकि वे व्यर्थ में ईंट-पत्थरों में सिर मारना पसन्द नहीं करते। उन्हें किराये पर उठाने की दृष्टि से निर्माण कराना भी पसन्द नहीं। कहते हैं, ‘किरायेदार से जब तक पटी, पटी। जब नहीं पटती तब एक ही घर में उसके साथ रहना सज़ा हो जाती है। जिस आदमी का चेहरा देखने से ब्लड- प्रेशर बढ़ता है उसके चौबीस घंटे दर्शन करने पड़ते हैं। राम राम!’ वे कानों को हाथ लगाते हैं।

निर्माण में गौड़ साहब का ही पैसा लग रहा है। बेटों को पता है उनके पास रकम है। उन्हें बेटों से माँगने में संकोच लगता है। अपनी मर्जी से उन्होंने कोई पेमेंट कर दिया तो ठीक, वर्ना गौड़ साहब अपने बैंक का रुख करते हैं। जब ढाई तीन लाख निकल गये तो उन्होंने धीरे से मँझले बेटे बृजेन्द्र से ज़िक्र किया,कहा, ‘बेटा, सब पैसा खर्च हो जाएगा तो बुढ़ापे में तकलीफ होगी। कभी बीमारी ने पकड़ा तो मुश्किल हो जाएगी। आजकल प्राइवेट अस्पतालों में तीन-चार दिन भी भर्ती रहना पड़े तो बीस पच्चीस हज़ार का बिल बन जाता है। यही हाल रहा तो आदमी बीमार पड़ने से डरेगा।’

बृजेन्द्र ने जवाब दिया, ‘दिक्कत हो तो आप लोन ले लो, बाबूजी। हम चुकाने में मदद करेंगे। हमारे पास इकट्ठे होते तो दे देते। चिन्ता करने की जरूरत नहीं है।’

लेकिन उसके आश्वासन से गौड़ साहब की चिन्ता कैसे दूर हो? जो हो, उन्होंने शादी के पहले काम करीब करीब पूरा कर लिया है। थोड़ा बहुत फिटिंग-विटिंग का काम रह गया है सो होता रहेगा। नयी बहू को अलग कमरा मिल जाएगा।

निर्माण कार्य के चलते ज़्यादातर वक्त गौड़ साहब कमर पर हाथ धरे, ऊपर मुँह उठाये, काम का निरीक्षण करते दिख जाते हैं। धूप में भी निरीक्षण करना पड़ता है। मिस्त्री-मज़दूर का क्या भरोसा? उधर से निकलने वाले उनकी उस मुद्रा से परिचित हो गये हैं। अब अपनी जगह न दिखें तो आश्चर्य होता है।

शादी हो गयी और बहू घर आ गयी। बहू के पिता यानी गौड़ साहब के नये समधी बड़े सरकारी पद पर हैं। अच्छा रुतबा है। उनसे रिश्ता होने पर गौड़ साहब का मर्तबा भी बढ़ा है। पावरफुल होने के बावजूद समधी साहब लड़की के बाप की सभी औपचारिकताओं का निर्वाह करते हैं।

पास का पैसा निकल जाने से गौड़ साहब कुछ श्रीहीन हुए हैं। कंधे कुछ झुक गये हैं और चाल भी सुस्त पड़ गयी है। कहते हैं जब लक्ष्मी आती है तो छाती पर लात मारती है जिससे आदमी की छाती चौड़ी हो जाती है, और जब जाती है तो पीठ पर लात मारती है जिससे कंधे सिकुड़ जाते हैं।

एक दिन उनके भतीजे ने उन्हें और परेशानी में डाल दिया। घर में एक तरफ ले जाकर बोला, ‘चाचा जी, आप यहाँ दिन रात एक करके बृजेन्द्र भैया के लिए कमरे बनवा रहे हैं, लेकिन उन्होंने तो आलोक नगर में डुप्लेक्स बुक करवा लिया है।’

सुनकर गौड़ साहब को खासा झटका लगा। बोले, ‘कैसी बातें करता है तू? बृजेन्द्र भला ऐसा क्यों करने लगा? उसी के लिए तो मैंने तपती दोपहरी में खड़े होकर कमरे बनवाये हैं।’

भतीजा बोला, ‘मेरा एक दोस्त स्टेट बैंक में काम करता है, उसी ने बताया। स्टेट बैंक में लोन के लिए एप्लाई किया है। उनके ससुर भी साथ गये थे।’

गौड़ साहब का माथा घूमने लगा। यह क्या गड़बड़झाला है? बेटा भला ऐसा क्यों करेगा? ऐसा होता तो उनसे बताने में क्या दिक्कत थी? उन्होंने फालतू अपना पैसा मकान में फँसाया।

शाम को बृजेन्द्र घर आया तो उन्होंने बिना सूचना का सूत्र बताये उससे पूछा। सवाल सुनकर उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। हकलाते हुए बोला, ‘कैसा मकान? मैं भला मकान क्यों खरीदने लगा? मुझे क्या ज़रूरत? आपसे किसने बताया?’

फिर बोला, ‘मैं समझ गया। दरअसल मेरे ससुर साहब अपने बड़े बेटे समीर के लिए वहाँ डुप्लेक्स खरीद रहे हैं। मैं भी उनके साथ बैंक गया था। इसीलिए किसी को गलतफहमी हो गयी। आप भी, बाबूजी, कैसी कैसी बातों पर विश्वास कर लेते हैं!’

बात आयी गयी हो गयी, लेकिन कुछ था जो गौड़ साहब के मन को लगातार कुरेदता रहा। बृजेन्द्र के ससुराल पक्ष के लोग आते रहे, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं बताया।

फिर एक दिन बृजेन्द्र उनके पास सिकुड़ता-सकुचता आ गया। हाथ में एक कार्ड। उनके पाँव छूकर, कार्ड बढ़ाकर बोला, ‘बाबू जी, आपका आशीर्वाद चाहिए।’

गौड़ साहब ने कार्ड निकाला। देखा, मज़मून के बाद ‘विनीत’ के नीचे उन्हीं का नाम छपा था। बृजेन्द्र गौड़ के आलोक नगर स्थित नये मकान में प्रवेश का कार्ड था। बृजेन्द्र कार्ड देकर सिर झुकाये खड़ा था। पिता ने प्रश्नवाचक नज़रों से उसकी तरफ देखा तो बोला, ‘आपको बता नहीं पाया, बाबूजी। डर था आपको कहीं बुरा न लगे। ऑफिस के कुछ लोग ले रहे थे तो सोचा मैं भी लेकर डाल दूँ। प्रॉपर्टी है, कुछ फायदा ही होगा।’

गौड़ साहब कुछ नहीं बोल सके।  उस दिन से उनका सब हिसाब-किताब गड़बड़ हो गया। बोलना-बताना कम हो गया। ज़्यादातर वक्त मौन ही रहते। भोजन करते तो दो रोटी के बाद ही हाथ उठा देते— ‘बस, भूख नहीं है।’

गृहप्रवेश वाले दिन के पहले से ही बृजेन्द्र खूब व्यस्त हो गया। प्रवेश वाले दिन दौड़ते- भागते पिता के पास आकर बोला, ‘बाबूजी, मैं गाड़ी भेज दूँगा। आप लोग आ जाइएगा।’

नये भवन में गहमागहमी थी। बृजेन्द्र के ससुराल पक्ष के सभी लोग उपस्थित थे। बहू, अधिकार-बोध से गर्वित, अतिथियों का स्वागत करने और उन्हें घर दिखाने में लगी थी। पिता के पहुँचते ही बृजेन्द्र उनसे बोला, ‘बाबूजी, पूजा पर आप ही बैठेंगे। आप घर के बड़े हैं।’

गौड़ साहब यंत्रवत पुरोहित के निर्देशानुसार पूजा संपन्न कराके एक तरफ बैठ गये। लोग उनसे मिलकर बात कर रहे थे लेकिन उनका मन बुझ गया था,जैसे भीतर कुछ टूट गया हो। भोजन करके वे पत्नी के साथ वापस घर आ गये। घर में उतर कर ऊपर नये बने हिस्से पर नज़र डाली तो लगा वह हिस्सा उनके सिर पर सवार हो गया है।

आठ-दस दिन गुज़रे, फिर एक दिन एक ट्रक दरवाजे़ पर आ लगा। बृजेन्द्र का साला लेकर आया था। ऊपर से सामान उतरने लगा। दोपहर तक सामान लादकर ट्रक रवाना हो गया। शाम को बृजेन्द्र की ससुराल से कार आ गयी। बृजेन्द्र और बहू छोटा-मोटा सामान लेकर नीचे आ गये। बृजेन्द्र पिता-माता के पाँव छूकर बोला, ‘बाबूजी हम जा रहे हैं। मकान को ज्यादा दिन खाली छोड़ना ठीक नहीं। जमाना खराब है। आप आइएगा। कुछ दिन हमारे साथ भी रहिएगा। वह घर भी आपका ही है।’ बहू ने भी पाँव छूते हुए कहा, ‘बाबूजी, आप लोग जरूर आइएगा।’ फिर वे कार में बैठकर सर्र से निकल गये।

उनके जाने के बाद बड़ी देर तक गौड़ साहब और उनकी पत्नी गुमसुम बैठे रहे। अन्ततः पत्नी पति से बोलीं, ‘अब सोच सोच कर तबियत खराब मत करो। बच्चे तो एक दिन अपना बसेरा बनाते ही हैं।’

गौड़ साहब लंबी साँस लेकर बोले, ‘ठीक कहती हो। गलती हमारी ही है जो हम बहुत सी गलतफहमियाँ पाल लेते हैं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – आगामी इतिहास –  ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – आगामी इतिहास – ।)

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ – आगामी इतिहास –  ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

अब तक तो यही बतलाया गया गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य की धनुर्विद्या से अचंभित हो जाने पर अपने डर के कारण उसका अंगूठा मांगा था। अब महाभारत का वह पन्ना पलट गया था। ठगी का मर्म समझ जाने वाला एकलव्य पूरी सामर्थ्य से द्रोणाचार्य के सामने खड़ा हो कर उसका अंगूठा मांग रहा था। जिसने भी महाभारत के उस पन्ने पर हाथ रखा वह भावी चेता था। उसने एकलव्य का इतिहास लिखा।
***

© श्री रामदेव धुरंधर

21 — 03 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 95 – इंटरव्यू : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “इंटरव्यू  : 1

☆ कथा-कहानी # 95 –  इंटरव्यू : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

असहमत के पिताजी के दोस्त थे  शासन के उच्च पद पर विराजमान. जब तक कुछ बन नहीं पाये तब तक दोस्त रहे, बाद में बेवफा क्लासफेलो ही रहे. असहमत उन्हें प्यार से अंकल जी कहता था पर बहुत अरसे से उन्होंने असहमत से ” सुरक्षित दूरी ” बना ली थी. कारण ये माना जाता था कि शायद उच्च पदों के प्रशिक्षण में शिक्षा का पहला पाठ यही रहा हो या फिर  असहमत के उद्दंड स्वभाव के कारण लोग दूरी बनाने लगे हों पर ऐसा नहीं था .असली कारण असहमत का उनके आदेश को मना करने  का था और आदेश भी कैसा “आज हमारा प्यून नहीं आया तो हमारे डॉगी को शाम को बाहर घुमा लाओ ताकि वो “फ्रेश ” हो जाय.मना करने का कारण यह बिल्कुल नहीं था कि प्यून की जगह असहमत का उपयोग किया जा रहा है बल्कि असहमत के मन में कुत्तों के प्रति बैठा डर था. डर उसे सिर्फ कुत्तों से लगता था बाकियों को तो वो अलसेट देने के मौके ढूंढता रहता था.

कुछ अरसे बाद बड़े याने बहुत बड़े साहब रिटायर होकर फूलमालाओं के साथ घर आ गये. जिन्होंने उनकी विदाई पार्टी दी वो ऊपरी तौर पर दुल्हन के समान फूट फूट कर रो रहे थे पर अंदर से दूल्हे के समान खुश और रोमांचित थे. तारीफ इतनी की गई कि लगने लगा बैलगाड़ी बैल नहीं बल्कि यही या वही जो इनके घर के domestic थे, चला रहे थे.निश्चित रूप से शुरु में टेंशन में रहे कि अब ऑफिस कैसे चलेगा, समस्याओं को कौन हैंडल करेगा, विरासती लीडरशिप के बिना वक्त की सुई उल्टी न घूमने लगें. हालांकि बहुत दिलेरी से बोलकर आये थे कि “Call me any time when you need me and I am unofficially always there even after my official farewell” पर कॉल न आनी थी न आई बार बार चेक करने के बावजूद. जब भी घंटी बजती ,लपक के उठाते ,ऑफिस के बजाय इन्वेस्टमेंट ऐजेंट्स रहते जिन्हें मालुम पड़ चुका था कि साहब को फंड मिलने वाला है. म्यूचल फंड, Bank deposit schemes, LIC, different senior citizen schemes के मार्केटिंग प्रवचनों से तनाव बढ़ने लगा. अफसरी और ऑफिस का मोह जल्दी नहीं छूट पाता क्योंकि राम, बुद्ध, महावीर के देश में निर्विकार होने की कला रिटायरमेंट के बाद सिखाने वाला गुरुकुल है ही नहीं.

जारी रहेगा :::

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 15 – चंदा ये कैसा धंधा? ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मिलावटी दुनिया।)

☆ लघुकथा – चंदा ये कैसा धंधा? ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

दरवाजे की घंटी बजी और सामने एक बड़ा झुंड दिखाई दिया।

कहां गए बत्रा जी?

कमला उनको देखकर मन में विचार करने लगी अब क्या करूं तभी एकाएक उसके मुंह से कुछ शब्द निकले…

अभी देखा न घर से बाहर गए बत्रा जी आप कौन हैं?

एक काले मोटे बड़ी बड़ी मूंछ वाले लड़कों ने रसीद निकालते हुए कहा ऐसा है आंटी नई कमेटी बनी है चंदा दो।

अरे क्यों चंदा दे भाई हमारी कमेटी है।

वह भंग हो गई कारण नहीं बता सकते।

ऐसा कहीं होता है क्या मेंबर्स की मीटिंग भी हुई।

देखो आंटी वह सामने लाइट लगी है हमने लगवाई है ₹500 महीने देना पड़ेगा।

यह कोई जबरदस्ती है इतने में ही पड़ोस के चार लड़के आगे और बातों बातों में आग बबूला होने लगे मारपीट हो गई, सिर फुटौव्वल की नौबत आ गई।

कमला जी ने जोर से कहा – बच्चों शांत हो जाओ किसी बुजुर्ग को अपने साथ होता तो यह नौबत नहीं आती, देखो भाई हम तुम्हें नहीं जानते ना पहचानते हमारे मोहल्ले के तुम लग नहीं रहे हो?

ना दुआ ना सलाम ना राम राम तुम कैसे मेहमान?

बच्चों तुम लोग तो लाठी के जोर पर ऐड दिखा रहे हो क्या?

नहीं दूंगी एक पैसा और जो लगी है स्ट्रीट लाइट नगर निगम लगाती है।

₹500 कम होता है किसी गरीब को देंगे किसी बच्चे की पढ़ाई के लिए लगाएंगे तो ज्यादा अच्छा है।

आप लोग पढे-लिखे अच्छे घर के लगते हो कोई ढंग का काम करो।

एक लड़के ने बेशर्मी से हंसकर कहा- आपको कोई ऐतराज है ज्ञानी आंटी।

अरे बच्चों के ऊपर इतनी दया नहीं करोगी क्या?

धूप में गला भी सूख गया है चाय पानी के लिए ही कुछ दो,आप ही ने तो कहा था आंटी चंदा कैसा धंधा……

धंधे की शुरुआत की है कुछ बोली तो करवा दो।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 184 – लघुकथा – नशा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा नशा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 184 ☆

☆ लघुकथा 🌹 नशा 🌹

रंग से सराबोर और लाल-लाल आँख, बिखरे बाल, चेहरे पर मासूमियत और लड़खड़ाते कदम।

दरवाजे की घंटी बजी। जैसे ही दरवाजा खुला लगभग गिरते हुए बबलू ने कहा… “अंकल मुझे माफ कर दीजिए। पापा नाराज होंगे और इस हालत में मैं उनके सामने नहीं जाना चाहता। बाकी आप संभाल लेना।”

कहते-कहते धड़ाम से कमरे में बिछे पलंग पर औंधा गिरा।

संजय और उसकी धर्मपत्नी को समझते देर नहीं लगी कि बबलू आज नशे में धुत है।

गुस्से में पत्नी ने बोलना आरंभ किया..” घसीट कर बाहर कर दो हमें क्या करना है। इस लड़के से कोई लेना-देना नहीं।” कहते-कहते जल्दी-जल्दी पानी का गिलास लाकर बबलू को पिलाने लगी। मुँह पर पानी के छींटे मारने लगी। “हे भगवान यह क्या हुआ… कैसी संगत हो गई। हमने आना-जाना क्या छोड़ा। बच्चे को बिगाड़ कर रख डाला।” संजय भी आवक बबलू के सिर पर हाथ फेरता जा रहा था।

“अब चुप हो जाओ मैं ही बात करता हूँ।” पत्नी ने कहा.. “कोई जरूरत नहीं होश आने पर स्वयं ही चला जाएगा” और जोर-जोर से इधर-उधर चलने लगी और बातें करने लगी ताकि पड़ोसी सुन ले।

आकाश और संजय की गहरी दोस्ती थी। और होती भी क्यों नहीं एक अच्छे पड़ोसी भी साथ-साथ बन गए थे। परंतु एक छोटी सी गलतफहमी के कारण दोनों के बीच मनमुटाव यहाँ तक हुआ की बातचीत तो छोड़िए शक्ल भी देखना पसंद नहीं करते थे।

बरसों बाद फोन नंबर डायल किया, नंबर देखते ही दोस्त आकाश ने अपनी पत्नी से कहा… “संजय का फोन आ रहा है।” श्रीमती झल्लाकर बोली… “कोई जरूरत नहीं है अब वक्त मिल गया। अकल ठिकाने आ गई। रहने दीजिए।”

“परंतु पता भी तो चले हुआ क्या है।”

“हेलो… बबलू मेरे घर पर है। संगति का असर है। थोड़ा बहक गया है तुम नाराज नहीं होना डर रहा है। अभी सोया है। सब ठीक हो जाएगा। हम मिलकर संभाल लेंगे।”

फोन पर बात करते-करते दोनों पति-पत्नी की आँखों में आँसू बहने लगे।

“मैं अभी आता हूँ।” दरवाजे पर बरसों बाद दोनों दोस्त मिले। पलंग पर बैठ गंभीर चर्चा करने लगे।

“अरे छोड़ यार हो जाता है गलती हो गई है। अब दोबारा नहीं होना चाहिए।” बबलू अचानक उठ बैठा जेब से गुलाल उड़ाते कहने लगा…. “मैंने कोई नशा नहीं किया। आप दोनों का नशा उतारना था और जो असली नशा आप दोनों के बीच है उसे फिर से चढ़ाना था।

इसलिए मैंने इस नशे का नाटक किया।” चारों एक दूसरे का मुँह देखने लगे।” इस नाटक को करने के लिए मैंने कल से कुछ नहीं खाया है। कुछ मिलेगा।” “अब तुम मार खाओगे।”

हँसी का गुब्बारा फूटने छूटने लगा.. बबलू के नशे ने अपना काम कर दिया था।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ ऐसी भी एक मॉं … भाग-3 – लेखक – श्री अरविंद लिमये ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ ऐसी भी एक मॉं … भाग-3 – लेखक – श्री अरविंद लिमये ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

(हाॅं जी हाॅं! भेजेंगे न पैसे! क्योंकि यहाॅं एक तो पैसे की खुदान और दूसरा गुप्त धन का भंडार हाथ लगा है। बहु बोले जा रही थी और बेटा सिगरेट सुलगाकर धुएं के छल्ले पर नजर गढाए बैठा था। )…. अब आगे

पूरी रात उसको नींद नहीं आयी। अगले दिन जैसे ही बेटा ऑफिस चला गया, वह एक थैली में अपने चार कपड़े ठुॅंसकर बाहर निकली। बहू के लिए एक संदेश छोड़ना भी उसने जरुरी नहीं समझा। उसे मालूम था वे दोनो उसकी खोज खबर लेने का प्रयास भी नहीं करेंगे।

सीधी अपनी सहेली रमा के पास पहुॅंच गई। बचपन से ही दोनों में पक्की दोस्ती थी। दोनों अपने सुख दुख आपस में बाॅंटा करती थी। ….. फिर दोबारा हाथ में चकला बेलन! लेकिन इसमें अब पहले जैसी ताकत नहीं रहीथी। हाथ काॅंपने लगते थे। कोई जरूरतमंद महिला कुछ दिनों के लिए रख लेती, …. फिर दूसरा घर! सहेली की वजह सिर पर छत तो मिल गया था लेकिन पैसा कमाना जरुरी था।

वह काम के चक्कर में घूमती रही, एक दिन वह घूमते घूमते इधर आ गई। … पानसे वकील साहब के घर। पिताजी वकील थे अब वह नहीं रहे, पर छोटा बेटा, संतोष भी वकील बन गया है, इतनी उसे जानकारी थी। इन लोगों के घर में बहुत सालों तक उसने काम किया था। बहू बेटियों के जापे में वह बड़ी खुशी से मालिश का काम भी किया करती थी।

उसकी कहानी जानने के बाद संतोष ने उसको अपने घर में ही पनाह दे दी। दुबारा वह उस घर की सदस्य बन गई।

एक दिन अचानक एडवोकेट संतोष पानसे की चिट्ठी, इसके बेटे को मिल गई। …

लिखा था, ‘तुम्हारी अम्मा जी हमारे घर रह रही है, … पर काम करने के लिए नहीं। वह हमारी दादी जैसी है। बड़े मान सन्मान के साथ रह रही है। काम करने जितनी ताकत भी उसकी बुढी हड्डियों में नहीं है। …. और अगर होती तो भी उसको अब इतने कष्ट उठाने की क्या जरूरत है? तुम पढ़ लिख कर बड़े आदमी बन गए हो। तुम्हारी कमाई भी अच्छी खासी है। तुम यह अच्छी जिंदगी हासिल कर सको इसी बात के लिए तुम्हारी माँ ने अपना खून पसीना बहाया है। अब उसको अपने उस खून पसीने की कीमत चाहिए….. उसको तुमसे गुजारा भत्ता चाहिए। alimony….. क्यों डर गए? मैं वकील हूँ इसलिए उसने मेरी राय पूछी…. और उनकी बात मुझे सही लगी। मैंने उनका वकील पत्र लिया है। इस केस के लिए मैं उनसे एक पैसा भी नहीं लूॅंगा। एक माँ अपने बेटे के खिलाफ कोर्ट जाना चाहती है, वह भी बेटे को बड़ा करने में उसने जो कष्ट उठाएं, उसकी कीमत वह मांग रही है। …. बुढ़ापे में बिना परिश्रम किये जीवन आराम से, शांति से व्यतीत हो जाए इसलिए!…. तुम इसको उनके कष्ट का परतावा समझ सकते हो। यह बात मुझे अलग और बहुत ही प्रैक्टिकल लगी।

….. यह केस लड़ना मेरे लिए एक चुनौती है। तुमने उस पर अन्याय किया है। अब देखता हूँ न्याय देवता क्या करती है, वह अंधी जरूर है… पर तुम्हारी जैसी उल्टे कलेजे वाली नहीं है।

इसलिए उनको सुकून की जिंदगी जीने के लिए आवश्यक गुजारा भत्ता तुम्हें उनको मरते दम तक देना ही पड़ेगा। सोच समझकर निर्णय लेना, यह तुम्हें भेजी गई अनौपचारिक चिट्ठी है। फैसला तुम्हारे हाथ में है। अगर तुम मना करोगे कोर्ट का रास्ता हमेशा हमारे लिए खुला है।

बेटे ने चिट्ठी पढी, बीवी ने पढी… फाड़ कर फेंक दी।

फिर कोर्ट की तरफ से उसको नोटिस आया और कोर्ट में हियरिंग शुरू हो गयी। ऐसे अनोखे माँ की यह केस उस छोटे से गांव में चर्चा का विषय बन गयी। … और मॉं केस जीत भी गयी।  

बिते पूरे साल गुजारा भत्ता भेजते वक्त माँ की जिंदगी भर की मेहनत उसे याद आने लगी। बहू भी अब नरम पड़ गई थी। …पर थी तो पूरी पक्की स्वार्थी और तिकड़म चलाने वाली! वह बोली,

“इससे अच्छा तो सासू जी को अपने पास ही रखना सस्ता पड़ेगा। वह फायदे का सौदा होगा। ” पति के मन में भी यह बात उसने बोल बोल के… बोल बोल के… ठुॅंस दी… और अभी अम्मा को वापस ले जाने के लिए वह उनके घर के सामने खड़ा है।

“हाॅं! आपने सही पहचाना, मैं वही हूँ …. उस अम्मा का बदनसीब बेटा! 

मेरे बीवी के मन मेंअम्मा के प्रति बहुत ज्यादा प्यार वार नहीं उमडा है। लेकिन उसका शब्द हमारे घर में अंतिम शब्द है। और ज्यादा बोलना, बीवी से बहस करना मेरे स्वभाव में ही नहीं है। “

“वकील पानसे जी की राय ली थी, उन्होंने कहा, ‘मैं किसी तरह की राय देकर उस माता पर अन्याय नहीं कर सकता। अब जो करना है वह आपको ही, … और सोच समझकर करना है। ‘ अपनी जगह वे भी सही थे। “

“अब दरवाजे पर दस्तक देकर मुझे ही अंदर जाना पड़ेगा। मन से मैं वहाँ कभी का पहुॅंच गया हूँ । … पर कदम लड़खड़ा रहे हैं। लगता है, हमारे स्वार्थी इरादे की जरा सी भी भनक उसको लग जाय, या नहीं भी लग जाय… वह स्वाभिमानी माता सब कुछ भूल कर मेरे साथ आएगी यह बात नामुमकिन ही है। “

“कृपया आप जरा आगे जाकर, झाॅंक कर देखेंगे? क्या उसको बतायेंगे कि, आपका बेटा आपको अपने घर ले जाने के लिए आया है। “

**समाप्त **

मूल मराठी कथा (जगावेगळी) –लेखक: श्री अरविंद लिमये

हिन्दी भावानुवाद –  सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ ऐसी भी एक मॉं … भाग-2 – लेखक – श्री अरविंद लिमये ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ ऐसी भी एक मॉं … भाग-2 – लेखक – श्री अरविंद लिमये ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

(बीवी की साड़ियाॅं, खुद के कपड़े खरीदते वक्त बदरंग, फटी साड़ियाॅं पहन रही माॅं उन दोनों को कभी याद ही नहीं आयी। तब पहली बार उसके मन पर खरोंच आयी।) अब आगे…

वैसे भी उसका आहार बहुत कम था। लेकिन उसकी एक आदत थी। जो छोडे नहीं छुटती थी। जो उसने सालों से भूख मिटाने की दवाई के रूप में डाल रखी थी। वह थी चाय पीने की आदत। .. एक बार सुबह अच्छी अदरक वाली, और ज्यादा चीनी वाली चाय!… फिर दिन भर खाने को कुछ भी ना मिले कोई फर्क नहीं पड़ता था। बहू इस बारे में अनजान हो ऐसी भी कोई बात नहीं थी। यह रोज सुबह जल्दी उठती थी, अपनी और बेटे बहू की भी चाय बनाती थी।

एक दिन की बात…. रात देर से नींद आयी, सुबह जल्दी ऑंखें नहीं खुली। उसने रसोई में देखा पति-पत्नी दोनों की चाय बनी हुई थी। ब्रश किया, हाथ  पोंछती हुई  रसोई में आई। देखा, तो चाय का पतेला फिर गैस पर चढ़ा हुआ था। उसके सामने ही पतेला उतार कर उसके कप में पानी जैसी पतली चाय और ऊपर थोड़ा सा दूध डाला गया। वह समझ गई उन दोनों की चाय छानने के बाद छननी पर जो चाय पत्ती थी, उसमें ही पानी डालकर उसके लिए चाय उबाली गई थी। यहाॅं मन पर दूसरी बार खरोंच आयी। … मन लहू लुहान हो गया। मन कहने लगा, ‘बस्स, अब और नहीं!’

बेटे को आवाज दी, तब  ऑंखों में आंसू छलक रहे थे,

“क्या मैं इतनी गयी बिती  हो गयी हूॅं, की एक कप अच्छी चाय भी मेरे नसीब में नहीं है?”

” क्या हुआ?”

”  देखी यह चाय ?”

“हाॅं, देखी…आगे!”…

“देखो, एक बार चाय छानकर छननी पर पड़ी चायपत्ती से मेरी चाय बनाई गयी है। क्या इतने गरीब है हम लोग?  या तुम दोनों के लिये बोझ बन गई हूॅं मैं?”…..

वह कुछ भी नहीं बोला सिर्फ हल्के से त्योरियाॅं चढ़ाकर उसने बीवी की तरफ देखा। बीवी फटाक् से उठ खड़ी हुई, उसने तेजी से सास के सामने पड़ा हुआ चाय का कप उठाया, मुॅंह को लगायाऔर सारी चाय वह पी गई….. फिर कैची की तरह उसकी  जुबान चलती रही,

“कोई जहर देकर मार नहीं डाल रही थी तुम्हें। मेरी एक बात, एक चीज भी पसंद आती हो तो जानू! खुद अपने आप बनाकर क्यों नहीं पी? शरीर में जान नहीं है, फिर भी इतने नखरे! अगर हट्टी कट्टी होती तो रोज जूते की मार ही मेरे नसीब में होती। मानो जैसे आजतक अमृत पीकर जी रही थी, जो इस चाय को देखकर नाक भौ सिकुड़ रही है। “

…. बोलते बोलते उसका रोना भी शुरू हो गया। सामने घटित  तमाशा देखकर यह अपना अपमान, दु:ख भी भूल गई। बेटा खंबे जैसा खड़ा था।

यह उठकर अपने कमरे में जाकर लेट गई। दिन भर न पानी पिया न खाना खाया। पूरे दिन बेटा बीवी को प्यार से समझाता रहा।

शाम को माॅं के कमरे में झाॅंककर बोला,

“अम्मा जी, आपने यह क्या शुरू कर दिया है ?”

“मैंने शुरू कर दिया?”

” देखो अम्मा, मुझे घर में शांति चाहिए बस्स, बैठे ठाले तुम्हें दो वक्त की रोटी मिलती है। फिर भी तुम्हारा यह बर्ताव!थोड़े सब्र से, प्यार से रहने में तुम्हारी क्या चव्वल खर्च होती है ?”

खाली पेट उसने, बेटे से दो वक्त की रोटी  खिलाने का बड़प्पन सुना…. और वह गुस्से से आग बबूला हो गई। जोर से चिल्ला कर बोलना चाहती थी पर बोलते वक्त हाॅंपने लगी।

” कितना सब्र करूॅं?

जैसे तुम लोग जिलाओगे वैसे जिऊॅं? अपने मन की हत्या करके ?…  वह … तुम्हारी बीवी, बहू है मेरी, कोई दुश्मन नहीं है। दुश्मन के प्रति भी मैंने बुरा व्यवहार नहीं किया। जरूरत थी तब अपनी खुद की गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए मैंने चकला बेलन लेकर चार घरों में काम किया है। अब शरीर नहीं चल रहा है। कम से कम मेरे सफेद बालों की और सुखकर काटा हुए शरीर की  तो इज्जत.”…

“लेकिन अम्मा, “….

“मुझे दो वक्त के भोजन से मतलब नहीं है, ….. प्यार के दो शब्दों की भूखी हूॅं मैं! बुरे वक्त पर मैंने मेहनत की वह सिर्फ मेरे दो कौर रोटी के लिए नहीं। कभी दो समय का खाना मिला, कभी नहीं!  जो भी मिला वह पहले तुम्हें खिलाया। …. तुम्हें खिलाया- पिलाया, लिखाया- पढ़ाया, बड़ा किया, “…..

सुनते ही बहू तीर के समान अंदर आ गई।

“देखना मॉंजी, यह तो आपका कर्तव्य था। कोई एहसान नहीं किया। हम भी अपने होने वाले बच्चों के लिए ये सब करेंगे। कोई उनको कुडा घर में नहीं फेंकेंगे। “

“बहू तुम्हारी सारी बातों से दिल खुश हुआ। … इन सारे बातों से एक बात मेरी समझ में आ गई है कि मैं तुम्हें एक ऑंख नहीं सुहाती। …. कोई बात नहीं, जहाॅं काम करती थी वहाॅं भी इज्जत से रही, बेज्जती का जहर वहाॅं भी किसी ने मुझे नहीं परोसा। मैंने मेरे बेटे का पालन पोषण किया कोई एहसान नहीं किया…. सही बात है। लेकिन एक बात आप लोग भूल रहे हैं। अब जिम्मेवारी निभाने का, अपने कर्तव्य का पालन करने का, जिम्मा आपका। आप उसको नकार नहीं सकते। आपकी घर गृहस्थी आपको मुबारक!….. मेरे लिए कहीं पर एक किराए का कमरा ढूॅंढ लो। और जब तक शरीर में जान है तब तक खर्चे के लिए कुछ पैसे भेजते रहो। …. इसमें मेरे पर  एहसान जताने वाली कोई बात नहीं है। बेटा, … यह तुम्हारे प्रति मैंने निभाये कर्तव्य  का पुनर्भुगतान समझो। “…

” हाॅं जी हाॅं ऽ, भेजेंगे ना, यहां पैसों की खुदान है। …. या कोई गुप्त धन का भंडार हाथ लगा है?”

….बहू बोलते जा रही थी और बेटा सिगरेट सुलगाकर धुए के छल्ले पर नजर गढाए  बैठा था।

**क्रमशः* 

मूल मराठी कथा (जगावेगळी) –लेखक: श्री अरविंद लिमये

हिन्दी भावानुवाद –  सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ ऐसी भी एक मॉं … भाग-1 – लेखक – श्री अरविंद लिमये ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ ऐसी भी एक मॉं … भाग-1 – लेखक – श्री अरविंद लिमये ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

“क्या आप जरा सामने जो घर है वहॉं जाकर उसमें झॉंककर देखेंगे? अपनी गृहस्थी के लिए, फिर अपने बेटे के लिए जिसने खून पसीना बहाया ऐसी एक थकी-मांदी बूढी माॅं अंदर होगी। देख लिया झॉंककर?”

” मुझे तो वहाॅं अंदर जाना है। मन कभी का जा पहूॅंचा है। लेकिन कदम लड़खड़ा रहे हैं। आगे जाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहा हूॅं, क्योंकि पुरानी यादें पीछा ही नहीं छोड़ रही। “

तब से मुझे याद आ रहा है, जब उसके बेटे की शादी तय हो गई थी। दो साल पहले की ही तो बात है, उस समय यह वृद्धा, थके शरीर से पर प्रसन्न मन से कमर कसकर सारा काम कर रही थी। और क्यों न करें?…. उसका अपने गृहस्थी का सपना तो अचानक टूट गया था। अब बेटे की शादी और उसके खुशहाली का सपना उसे  ऊर्जा दे रहा था।

तीन बेटियों के बाद घर में आया हुआ था यह बेटा !वे तीनों तो पैदा होते ही, ऑंखें खुलने से पहले ही चल बसी थी। …. तीनों आयी और इसके कलेजे को  जख्म देकर चल बसी। तब से उसके ऑंखों के आसू कभी सुखे ही नहीं। कभी उन जख्मों की याद से… कभी पति की बढ़ती बीमारी से दुखी होकर!… .पति तो चल बसे, … इस बेचारी को रोता बिलखता छोड़कर। …पर इसने हिम्मत नहीं हारी। पति के प्राइवेट नौकरी में आमदनी ही क्या थी ? कम खर्चे में गृहस्थी चलाकर जो पैसा बचाया था, वह भी पति की बीमारी में स्वाहा हो गया। ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी। लेकिन खाना बनाने की कला बहुत जानती थी। हाथ में चकला- बेलन पकड़ा और औरों के रसोई घर बड़ी मेहनत से बहुत अच्छी तरह से संभाले। बेटे की पढ़ाई लिखाई पूरी हो गई और उसको बहुत अच्छी नौकरी भी मिल गई। इसके खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था। यही सपना देख रही थी कि बस! अब दुख के, कष्ट के दिन खत्म हो गए। एक बार बेटे की शादी हो जाए…. फिर घर में आराम से चिंता मुक्त जिंदगी बिताऊॅंगी। … अब औरों के रसोई घर संभालने की  कोई जरूरत ही नहीं है।

जब बेटे की शादी हुई संतुष्टि की एक अत्यंत अप्राप्य  अनुभूति उसको स्पर्श कर गई। बहू का गृह प्रवेश हुआ। वह खुश थी, प्रसन्न थी।

बहू को प्यार भरी निगाहों से निहार रही थी, तभी उसने बहू के माथे की त्यौरियाॅं देखी  और जो समझना था समझ गई। उसी पल से  खुशी मानो भाग ही गई। मन से थक गई… शरीर तो पहले से जवाब देने लगा था। एक तो दोनों घुटनों में बहुत दर्द रहने लगा था। दोनों आंखों में मोतियाबिंदु बढ़ रहा था। फिर भी बहू का तमतमा सा चेहरा देखकर बात लड़ाई झगड़े तक ना आ जाए, इसी वजह से घर का सारा काम करती रही… थकी मांदी होने के बावजूद उसने बिस्तर नहीं पकड़ा।

“आप आ गए घर के अंदर झाॅंककर ? कैसी दिख रही है वह ?अकेली होगी पर कैसी लग रही है? “

असल में यह सवाल जब जरूरत थी तब बेटे के जेहन में उठना चाहिए था, जो उठा ही नहीं।

गृह लक्ष्मी की हॅंसी से वह खुश हो जाता था, …. वह रूठ जाए तो मुरझा जाता था। मानो, घर आई वह एक नाजुक गोरी मन मोहिनी परी थी। …

यह सिर्फ देखती ही रह गई। …

अपना बेटा और उसकी परछाई इसमें जो फर्क था, उसको वह समझ गई। शादी के साथ ही उसके पास सिर्फ बेटे की परछाई थी। … वैसे शुरू से ही बेटा मितभाषी था। हाॅं- ना, चाहिए- नहीं चाहिए… इतनी ही बातें …लेकिन अब तो माॅं के साथ उतनी बातें भी नहीं बची थी। माॅं के कष्ट, उसका कमजोर शरीर, घुटनों के दर्द की वजह से धीमे-धीमे चलना, इन सब की तरफ उसका ध्यान भी नहीं गया। …अब इसने बाहर के काम बंद किए थे लेकिन घर में एक मिनट का भी आराम नहीं था। वह सहनशीलता की एक मूर्तिमंत प्रतिमा थी। .. अपना दुख दर्द उसने किसको बताया तक नहीं।

घर में सिर्फ तीन जने, बेटा बहू और वह !बहुत अमीर नहीं थे लेकिन पैसे टके की कमी भी नहीं थी। नई-नई शादी, नई नवेली दुल्हन के साथ गृहस्थी की नयी नयी चीजों की शॉपिंग, पिक्चर, बड़े होटलों के खर्चे …सब कुछ अच्छे से चल रहा था। ड्रिंक, स्मोकिंग, क्लब, पार्टीयाॅं ….सब उनके जिंदगी का जरूरी हिस्सा बन गई थी। इसको उनके लाइफस्टाइल के बारे में कोई शिकायत नहीं थी। लेकिन बीवी की साड़ियाॅं, खुद के कपड़े खरीदते वक्त बदरंग, फटी साड़ीयाॅं पहनी हुई माॅं उन दोनों को कभी याद ही नहीं आयी। ….तब पहली बार उसके मन पर खरोंच आ गई।

**क्रमशः* 

मूल मराठी कथा (जगावेगळी) –लेखक: श्री अरविंद लिमये

हिन्दी भावानुवाद –  सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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