हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेरू का मकबरा भाग-2 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित कहानी  “शेरू का मकबरा भाग-1”. इस कृति को अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य प्रतियोगिता, पुष्पगंधा प्रकाशन,  कवर्धा छत्तीसगढ़ द्वारा जनवरी 2020मे स्व0 संतोष गुप्त स्मृति सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया है। इसके लिए श्री सूबेदार पाण्डेय जी को हार्दिक बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – शेरू का मकबरा भाग-2 – 

शेरू का प्यार—–
आपने पढ़ा कि शेरू मेरे परिवार में ही पल कर जवान हुआ घर के सदस्य ‌की तरह ही परिवार में घुल मिल गया था।अब पढ़ें——-

बच्चे जब उसका नाम लें बुलाते वह कहीं होता दौड़ लगाता चला आता और वहीं कहीं बैठ कर अगले पंजों के बीच सिर सटाये टुकुर टुकुर निहारा करता। बीतते समयांतराल के बाद शेरू नौजवान हो गया, उसके मांसल शरीर पर चिकने भूरे बालों वाली त्वचा, पतली कमर, चौड़ा सीना‌ ऐठी पूंछ लंबे पांव उसके ताकत तथा वफादारी की कहानीं बयां करते। उसका चाल-ढाल रूप-रंग देख लगता जैसे कोई फिल्मी पोस्टर फाड़ कोई बाहुबली हीरो निकल पड़ा हो। उसे दिन के समय जंजीर में बांध कर रखा जानें लगा था, क्यों कि वह अपरिचितों को देख आक्रामक‌ हो जाता और जब  मुझ से मिलने वाले कभी‌ हंसी मजाक में भी‌ मुझसे हाथापाई करते तो वह मरने मारने पर उतारू हो जाता तथा अपनी स्वामी भक्ति का अनोखा उदाहरण ‌प्रस्तुत करता। जब कभी ‌मैं शाम को नौकरी से छूट घर आता तो शेरू और मेरे पोते में होड़ लग जाती ‌पहले गोद में चढ़ने की।

वे दोनों ही मुझे कपड़े भी उतारने तक का अवसर देना नहीं चाहते थे। अगर कभी पहले पोते को गोद उठा लेता तो शेरू मेरी गोद में अगले पांव उठाते चढ़ने का असफल प्रयास करता। अगर पहले शेरू को गोद ले लेता तो पोता रूठ कर एड़ियां रगड़ता लेट कर रोने लगता। वे दोनों मेरे प्रेम पर अपना एकाधिकार ‌समझते। कोई भी सीमा का अतिक्रमण बर्दास्त करने के लिए तैयार नहीं।

इन परिस्थितियों में मैं कुर्सी‌ पर बैठ जाता। एक हाथ में पोता तथा दूसरा हाथ शेरू बाबा के सिर पर होता तभी शेरू मेरा पांव चाट अपना प्रेम प्रदर्शित करता। उन परिस्थितियों में मैं उन दोनों का प्यार पा निहाल हो जाता । मेरी खुशियां दुगुनी हो जाती, मेरा दिन भर का तनाव थकान सारी पीड़ा उन दोनों के प्यार में खो जाती। और मै उन मासूमों के साथ खेलता अपने बचपने की यादों में खो जाता,।

अब शेरू जवानी की दहलीज लांघ चुका था वह मुझसे इतना घुल मिल गया था कि मेरी परछाई बन मेरे साथ रहने लगा था। जब मैं पाही पर खेत में होता तो वह मेरे साथ खेतों की रखवाली करता,वह जब नीलगायों के झुण्ड, तथा नँदी परिवारों अथवा अन्य किसी‌ जानवर को देखता तो उसे दौड़ा लेता उन्हे भगा कर ही शांत होता। मुझे आज भी ‌याद है वो दिन जब मैं फिसल कर गिर गया था मेरे दांयें पांव की हड्डी टूट गई थी।  मैं हास्पीटल जा रहा था ईलाज करानें। उस समय शेरू भी चला था मेरे पीछे अपनी स्वामीभक्ति निभाने, लेकिन अपने गांव की सीमा से आगे बढ़ ही नहीं पाया। बल्कि गांव सीमा पर ही अपने बंधु-बांधवों द्वारा घेर लिया गया और अपने बांधवों के झांव झांव कांव कांव से अजिज हताश एवम् उदास मन से वापस हो गया था।

उसे देखनें वालों को ऐसा लगा जैसे उसे अपने कर्त्तव्य विमुख होने का बड़ा क्षोभ हुआ था और उसी व्यथा में उसने  खाना पीना भी छोड़ दिया था। वह उदास उदास घर के किसी कोने में अंधेरे में पड़ा रहता।  उसकी सारी खुशियां कपूर बन कर उड़ गई थी। उस दिन शेरू की उदासी घर वालों को काफी खल रही थी। उसकी स्वामिभक्ति पर मेरी पत्नी की आंखें नम हो आईं थीं।

मेरे घर में शेरू का मान और बढ़ गया था। महीनों बाद मैं शहर से लौटा था। मेरे पांवों पर सफेद प्लास्टर चढ़ा देख शेरू मेरे पास आया मेरे पांवों को सूंघा और मेरी विवशता का एहसास कर वापस उल्टे पांव लौट पड़ा और थोड़ी दूर जा बैठ गया तथा उदास मन से मुझे एक टक निहार रहा था।
उस घड़ी मुझे एहसास हुआ जैसे वह मेरे शीघ्र स्वस्थ्य होने की विधाता से मौन प्रार्थना कर रहा हो। उसकी सारी चंचलता कहीं खो गई थी। ऐसा मे जब मैं सो रहा होता तो वह मेरे सिरहाने बैठा होता। जब किसी चीज के लिए प्रयासरत होता  तो वह चिल्ला चिल्ला आसमान सर पे उठा लेता और लोगों को घर से बाहर आने पर मजबूर कर देता।

आज भी मुझे याद है वह दिन जिस दिन मेरा प्लास्टर कटा था,उस दिन शेरू बड़ा खुश था ऐसा। लगा जैसे सारे ज़माने की खुशियां शेरू को एक साथ मिली हो। वह आकर अपनी पूंछ हिलाता मेरे पैरों से लिपट गया था। जब मैं ने पर्याय से उसका सिर थपथपाया तो उसकी आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े थे और मैं एक जानवर का पर्याय पा उसकी संवेदनशीलता पर रो पड़ा था ।

—– क्रमशः भाग 3

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 49 ☆ लघुकथा – चिट्ठी लिखना बेटी ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक सत्य घटना पर आधारित  उनकी लघुकथा चिट्ठी लिखना बेटी ! डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 49 ☆

☆  लघुकथा – चिट्ठी लिखना बेटी ! ☆

बहुत दिन हो गए तुम्हारी चिट्ठी  नहीं आई बेटी ! हाँ,जानती हूँ गृहस्थी में उलझ गई हो,समय नहीं मिलता होगा। गृहस्थी के छोटे –मोटे हजारों काम, बच्चे और तुम्हारी नौकरी भी,सब समझती हूँ, फोन पर तुमसे बात तो हो जाती है, पर  मन नहीं भरता। चिट्ठी आती है तो जब चाहो खोलकर इत्मीनान से पढ लो, जितनी बार पढो,  अच्छा ही लगता है। पुरानी चिट्ठियों की तो बात ही क्या, पढते समय बीता कल मानों फिर से जी उठता है। मैंने तुम्हारी सब चिट्ठियां संभालकर रखी हैं अभी तक।

तुम कह रहीं थी कि चिट्ठी  भेजे बहुत दिन हो गये? किस तारीख को भेजी थी? अच्छा दिन तो याद होगा? आठ –दस दिन हो गए?  तब तो आती ही होगी। डाक विभाग का भी कोई ठिकाना नहीं, देर – सबेर आ ही जाती हैं चिट्ठियां। बच्चों की फोटो भेजी है ना साथ में? बहुत दिन हो गए तुम्हारे बच्चे को देखे हुए। हमारे पास कब आ पाओगी – स्वर मानों उदास होता चला गया।

और ना जाने कितनी बातें, कितनी नसीहतें, माँ की चिट्ठी में हुआ करती थीं। धीरे- धीरे चिट्ठियों की जगह फोन ने ले ली। चिट्ठी में भावों में बहकर मन की सारी बातें उडेलना, जगह कम पडे तो अंतर्देशीय पत्र के कोने – कोने में छोटे अक्षरों में लिखना, उसका अलग ही सुख था। जगह कम पड जाती लेकिन मन की बातें मानों खत्म ही नहीं होती थी। लिखनेवाला भी अपनी लिखी हुई चिट्ठी को कई बार पढ लेता था, चाहे तो चुपके – चुपके रो भी लेता और फिर चिट्ठी चिपका दी जाती। फिर कुछ याद आता – ओह! अब तो चिपका दी चिट्ठी।

कितने बच्चे हैं, बेटा है? नहीं है, बेटियां ही हैं, ( माँ की याद्दाश्त खत्म होने लगी थी ) चलो कोई बात नहीं आजकल लडकी – लडके में कोई अंतर नहीं है। ये मुए लडके कौन सा सुख दे देते हैं? बीबी आई नहीं कि मुँह फेरकर चल देते हैं। तुम चिट्ठी लिखो हमें, साथ में बच्चों की फोटो भी भेजना, तुम्हारे  बच्चों को देखा ही नहीं हमने ( बार – बार वही बातें दोहराती है )।  फोन पर बात करते समय  हर बार वह यही कहती – बेटी ! फोन से दिल नहीं भरता, चिट्ठी लिखा करो।

कई बार कोशिश की, लिखने को पेन भी उठाया लेकिन कागज पर अक्षरों की जगह माँ का चेहरा उतर आता। अल्जाइमर पेशंट माँ को अपनी सुध नहीं है, सबके बीच रहकर भी वह मानों सबसे अन्जान, आँखों में सूनापन लिए जैसे कुछ तलाश रही हो। उसके हँसते –मुस्कुराते चेहरे पर अब आशंका और असुरक्षा  के भावों ने घर कर  लिया है। फोन पर अब वह मुझे नहीं पहचानती लेकिन जताती नहीं और बार –बार कहती ऐसा करो चिट्ठी  में सब बात लिख देना – कहाँ रहती हो, बच्चे क्या करते हैं? चिट्ठी  लिखना जरूर और यह कहकर फोन रख देती। मैं सोचती हूँ कि क्या वह अनुमान लगाती है कि मेरा कोई अपना है फोन पर? या चिट्ठियों से लगाव उससे यह बुलवाता है? पता नहीं —-उसके मन में क्या चल रहा है क्या पता, उसके चेहरे पर तो सिर्फ अपनों को खोजती आँखें, बेचारगी और झुंझलाहट है।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #77 ☆ नवरात्रि विशेष – स्त्री सम्मान और नवरात्र ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  नवरात्रि पर्व पर विशेष विचारणीयआलेख स्त्री सम्मान और नवरात्र ।  इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 77 ☆

☆ नवरात्रि विशेष स्त्री सम्मान और नवरात्र ☆

जहाँ हमारी संस्कृति में नार्याः यत्र पूज्चयनते रमन्ते तत्र देवता का उद्घोष था, दुखद स्थिति है कि आज प्रति दिन महानगरो में ही नही छोटे बड़े कस्बो गांवो तक में  स्त्री के प्रति अपराधो की बाढ़ सी आ गई लगती है. एक ओर तो महिलायें देश के लिये ओलम्पिक में कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं, लड़कियां अंतरिक्ष में जा रही हें, सेना में स्थान बना रही हैं, जीवन के हर क्षेत्र में पुरुष को कड़ी प्रतियोगिता दे रही हैं तो  दूसरी ओर स्त्रियो को  लैंगिक भेदभाव, केवल स्त्री होने के कारण अनेक बलात अपराधो का सामना करना पड़ रहा है.  कोई समाचार पत्र उठा लें, कोई चैनल चला लें नारी के प्रति पीड़ा भरी, प्रत्येक सभ्य मनुष्य  को मर्माहत करने वाली खबरें  देखने सुनने को मिल जाती हैं. मनोरंजन हेतु आयोजित किये जाने वाले  ऑर्केस्ट्रा आदि के आयोजनो में नृत्य कला के नाम पर अश्लीलता दिनों दिन सारी सीमायें लांघ रही है. इन आयोजनो में स्त्री  को केवल देह के रूप में, उपभोग की वस्तु के रूप में दिखाया-सुनाया जा रहा है. लोक नृत्य व विशेष रूप से भोजपुरी संगीत के नाम पर फूहड़ गीत धार्मिक आयोजनो का भी हिस्सा बन चुके हैं. हरियाणा के अनेक गांवो की चौपालो के मंचो पर सार्वजनिक रूप से बेहूदे डांस के आयोजन मनोरंजन व राजनैतिक दलो द्वारा भीड़ जुटाने हेतु  परम्परा का हिस्सा बन रहे हैं.

अनेक अभियानों, प्रयासों और कानूनी प्रावधानों के बावजूद देश में महिलाओं के प्रति हिंसा और यौन दुराचार की घटनाएं रुक नहीं रही हैं.विडम्बना है कि डेढ़-दो साल तक की बच्चियों के साथ भी दुराचार की खबरें आती हैं. विवाह में दहेज व अल्पायु में विवाह की कुरीति पर किसी हद तक नियंत्रण हो रहा है तो दूसरी ओर अभी भी हमारी मुस्लिम बहनो के प्रति कट्टरपंथी सोच के चलते समुचित न्याय नही हो पा रहा. विज्ञापनो में नारी शरीर का उन्मुक्त प्रदर्शन,  फैशन की अंधी दौड़ में स्वयं स्त्रियो द्वारा नारी स्वातंत्र्य व पुरुष से बराबरी के नाम पर दिग्भ्रमित वेषभूषा व जीवन शैली अपनाई जा रही है. सिने जगत युवा पीढ़ी का प्रबल मार्गदर्शक होता है, किन्तु देखने मिला कि आदर्शो की जगह खलनायको का महिमा मण्डन हाल की कुछ फिल्मो के माध्यम से हुआ. फिल्मी कलाकार नशे के गिरफ्त में दिखे ।

स्त्री के प्रति बढ़ती हिंसा व अपराध के अनेक कारण हैं पर सबसे प्रमुख कारण महिलाओं को केवल एक शरीर बना देना है. मीडिया, एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री, बाजार सभी ही उन्हें वस्तु बनाने और उन्हें वस्तु होना समझाने में लगे हैं. महिलाओं को एक वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, स्वयं स्त्री को बड़ी ही चतुराई से इसमें सहभागी बनाया जा रहा है. कानून की सरासर अवमानना करते हुये अवयस्क किशोर भी ऐसे मनोरंजन के आयोजनो में शामिल होते हैं जिनमें स्त्री को बेहूदे नृत्यो के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है. इस सबका नव किशोरो के कोमल मन पर जो मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है उसी का दुष्परिणाम है कि निर्भया जैसे प्रकरणो में किशोर बच्चे भी अपराधी की भुमिका में पाये गये हैं. ऐसी सामाजिक परिस्थिति में स्त्रियों के लिए समता-समानता के संवैधानिक संकल्प को पूरा कर पाना तो दूर की बात है, लैंगिक न्याय, लैंगिक सम्वेदीकरण आदि के सामान्य से सामान्य कार्यक्रम भी सफल नहीं हो सकते। अश्लीलता हमारी लोक संस्कृति के अपार भण्डार और सांस्कृतिक धरोहर को भी ख़त्म कर रही है।चिंतन मनन का विषय है कि अश्लीलता को बढ़ावा देनेवाले लास्य और कामुकता के बीच का, और अच्छे और बुरे कार्यक्रम के बीच का अंतर स्थापित किया जावे. स्त्री को समाज में सम्मान का स्थान तभी मिल सकेगा जब हम किशोरों में, युवाओ में लड़कियो के प्रति सम्मान की भावना के संस्कार अधिरोपित करने में सफल हो सकेंगे.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 68 – नक्शे का मंदिर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “नक्शे का मंदिर। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 68 ☆

☆ नक्शे का मंदिर ☆

 नक्शे पर बना मंदिर। जी हां, आपने ठीक पढ़ा। धरातल की नीव से 45 डिग्री के कोण पर बना भारत के नक्शे पर बनाया गया मंदिर है। इसे भारत माता का मंदिर कह  सकते हैं। इस मंदिर की छत का पूरा नक्शा भारत के नक्शे जैसा हुबहू बना हुआ है। इसके पल में शेष मंदिर का भाग है।

इस मंदिर की एक अनोखी विशेषता है । भारत के नक्शे के उसी भाग पर लिंग स्थापित किए गए हैं जहां वे वास्तव में स्थापित हैं । सभी बारह ज्योतिर्लिंग के दर्शन इसी नक्शे पर हो जाते हैं।

कांटियों वाले बालाजी का स्थान कांटे वालों पेड़ की अधिकता के बीच स्थित था। इसी कारण इस स्थान का नाम कांटियों वाले बालाजी पड़ा।  रतनगढ़ के गुंजालिया गांव, रतनगढ़, जिला- नीमच मध्यप्रदेश में स्थित भारत माता के इस मंदिर में बच्चों के लिए बगीचे, झूले, चकरी आदि लगे हुए हैं । इस कारण यह बच्चों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

कटीले पेड़~

नक्शे पर सेल्फी ले

फिसले युवा।

~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

09-09-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आलू कैसे छीलें? ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

( आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी की  मानवीय संबंधों  और मशीनों पर निर्भर होती आने वाली पीढ़ी पर आधारित एक विचारणीय कहानी   – “आलू कैसे छीलें?”।  कृपया  रचना में निहित मानवीय दृष्टिकोण को आत्मसात करें )

☆ आलू कैसे छीलें? ☆

लॉक डाउन में समय काटने के लिए किचन में पुरुषों में आमद रफ़त बढ़ गई है. स्वादिष्ट खाना बनाने के नुस्खे आजमा रहे हैं. उनकी देखा देखी बच्चे भी माँओं  के काम में अड़ंगा डाल रहे हैं. अभी कल परसों की बात होगी.मेरा पौत्र आयुष अपनी माँ के पास किचन में खड़ा होकर सवाल पर सवाल पूछे जा रहा था. सामने उबले आलू रखे थे. आलुओं को देख वह बोला-“मम्मी पोटाटो का क्या बनेगा?

–आलू बण्डे. माँ ने कहा

— तो बनाओ! कैसे बनते हैं

–आलू को छीलना पड़ेगा.

–मैं छील दूं?

–ये बहुत गरम हैं. आपसे नहीं बनेंगे. जल जाओगे.

आयुष नहीं माना. तब आयुष ने आलुओं को उठाया. वे बहुत गर्म थे.वह सी सी करने लगा. फिर दौड़ा दौड़ा अपने कमरे में गया, और स्मार्ट डिजीटल डिवाइस अलेक्सा ले आया. उसको आन किया और पूछा .

–आंटी!गरम आलू कैसे छीलते हैं?

—“आलू कच्चे हैं या पके”? फोन से आवाज आयी.

— मम्मी!आंटी पूछ रही हैं, आलू कच्चे हैं या पके?

—“पके”- मम्मी ने बताया

–आंटी पके! -बच्चे ने माँ की बात दुहरा दी

—“छोटे हैं या बड़े?”- फिर आवाज आई.

—मम्मी! छोटे हैं या बड़े ?

—मँझले!- माँ ने कहा.

—आँटी! मँझले.

—“तय करके बताओ! कैसे हैं ?.”

—मम्मी !आँटी पूछ रहीं हैं कि कैसे हैं?

मम्मी ने भुनभुनाकर कहा, कह दे-“छोटे हैं, पर छोटे से थोड़े बड़े हैं.”

—-आँटी! मम्मी कह रही हैं -” छोटे से थोड़े बड़े.”

—-ठीक है,अभी आलू ठण्डे हैं या बहुत गरम?

—“-बहुत गरम.” बच्चे ने तुरंत जबाब दिया.

—-आलू को हाथ से मत उठाना. हर गरम चीज को उठाने से हाथ जल जाते हैं. आवाज ने आगाह किया.

—-जलने से क्या होता हैआंटी.? बच्चे ने सवाल किया.

—-जलने से फफोले पड़ जाते हैं.. फिर उसका इलाज लम्बे समय तक चलता है.

—- मासूम बच्चे ने पूछा, “आंटी! पड़ोस वाली सौम्या दीदी कह रही थी उनका दिल जल रहा है पर कहीं पर फफोले नहीं दिख रहे हैं. दिल कहाँ पर होता है ?

—-अभी तुम दिल के चक्कर में मत पड़ो. अपने टास्क पर ध्यान दो. बस तुम्हें गरम आलू छीलना है.

— ठीक है आंटी! मुझे भी दिल से क्या लेना है. जो दिखता नहीं. तो बताओ आलू कैसे छीलें?

—अच्छा बताओ, किचन में छोटी, बड़ी चिमटी,फोर्क हैं?

—मम्मी! चिमटी या फोर्क है? बच्चे ने माँ की ओर देखते हुए कहा.

—रैक में रखे हैं. मम्मी ने सामने की ओर इशारा किया.

— आयुष रैक से फोर्क ले आया. बोला, ‘बताओ.आंटी, अब क्या करना है?’

—पहले बाउल में रखे आलुओं में से एक में फोर्क को घुसाकर उठाओ.

—आंटी! घुसाया पर वह टूटकर टुकड़े टुकड़े हो गया.

—दूसरे आलू में घुसाओ.

—पल भर के बाद बच्चे ने बताया,’आंटी वह भी टुकड़े टुकड़े हो गया.

—‘एक बार और कोशिश करो’ आवाज आई.

—आंटी! फोर्क घुसाने से आलू टूट रहे हैं.

— चिंता मत करो.

–आंटी!अब मैं क्या करुं? मैं आलू छीलना चाहता हूँ.

—मुझे विश्वास है तुम आलू छील लोगे.

— मम्मी हैं?

—हाँ! पर वह फोन पर बात कर रही हैं.

—और पापा ?

—वे भी मोबाइल पर चैट कर रहे हैं.आंटी, मैं परेशान हो गया. मुझे आलू छीलना है. यह मेरा आज का टास्क है.

—धैर्य रखो! तुमनें धैर्य नहीं रखा, इसलिए आलू टुकड़े हो गए.

—आंटी! धैर्य किसे कहते हैं?

— धैर्य मीन्स पेशेन्स.

—ओह! समझ गया.

—अच्छा! अपनी दादी को बुलाओ.

—दादी मीन्स.

— ग्रैंड  मॉम .

—ओह! आंटी, पर ग्रैंड मॉम हमारे साथ नहीं रहती हैं. वे अलग अकेली रहती हैं.

— ‘अच्छा ! अब समझ गई. तभी आलू छीलने वाली मुसीबत साल्व नहीं हो रही है.’ फिर आवाज आईं.

—हाँ! प्लीज़ जल्दी से साल्यूशन बताइए.

—‘अच्छा ऐसा करो. तुम पापा से कहो. वे ग्रैंड मॉम को घर ले आएं.’आवाज ने सुझाया

—-आंटी! ग्रेंड माम को पता है. कि गरम आलू कैसे छीलते हैं?

—हाँ ! उन्हें ठण्डे, गरम, छोटे, बड़े आलू छीलने का अनुभव है. उनके पास आपके सभी प्रॉब्लम  का सोल्युशन है.

—‘थैंक यू,वेरी मच आंटी.’

आयुष चिल्लाते चिल्लाते पापा के पास गया – पापा ! आज हम ग्रैंड मॉम घर लाएंगे.

—क्यों? पापा ने पूछा.

—-बच्चे ने बताया,’अलेक्सा आंटी कह रही हैं कि – ग्रैंड मॉम के पास हर प्रोब्लेम्स का सोल्युशन है. आप लोगों के पास समय नहीं है कि मुझे बताएं कि आलू कैसे छीलें, कौन सा काम कैसे करें?

 

© श्री रमेश सैनी 

जबलपुर , मध्य प्रदेश 

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Short Story ☆ Fire ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Short Story  “आग ” . We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

पुनर्पाठ…✍️

लघुकथा –आग  ☆

 दोनों कबीले के लोगों ने शिकार पर अधिकार को लेकर एक-दूसरे पर धुआँधार पत्थर बरसाए। बरसते पत्थरों में कुछ आपस में टकराए। चिंगारी चमकी। सारे लोग डरकर भागे।

 बस एक आदमी खड़ा रहा। हिम्मत करके उसने फिर एक पत्थर दूसरे पर दे मारा। फिर चिंगारी चमकी। अब तो जुनून सवार हो गया उसपर। वह अलग-अलग पत्थरों से खेलने लगा। 

 वह पहला आदमी था जिसने आग बोई, आग की खेती की। आग को जलाया, आग पर पकाया। एक रोज आग में ही जल मरा।

 लेकिन वही पहला आदमी था जिसने दुनिया को आग से मिलाया, आँच और आग का अंतर समझाया। आग पर और आग में सेंकने की संभावनाएँ दर्शाईं। उसने अपनी ज़िंदगी आग के हवाले कर दी ताकि आदमी जान सके कि लाशें फूँकी भी जा सकती हैं।

 वह पहला आदमी था जिसने साबित किया कि भीतर आग हो तो बाहर रोशन किया जा सकता है।

Fire …. ✍️ 

For the rights of hunting, the people of both the tribes were always indulging in throwing stones at each other, relentlessly. Some stones used to  collide with each other, leaving lightning like sparks, scaring people to run away in fear.

However, just one man always stood his ground, undeterred. Instinctively, gathering his guts,  he threw a stone aiming at the other one, with all his might.  Lo and behold, there emerged a bigger spark, lighting up the sky.  Now, he became obsessed with it.  He continued playing with different stones,  experimenting extensively, mastering the skill of lighting the fire…!

He was the first man who sowed fire, cultivated fire, reaped fire…  He was the pioneer who ignited the fire, cooked on fire; and, eventually one day, he died in fire…

But, in the annals of history  of mankind, he became immortal as he was the first man who introduced the fire to the world. He explained the difference between flaming-heat and the fire.  He demonstrated the possibility of baking _’on fire’ and ‘in fire’.  He consigned his life to the fire so that the mankind could learn that the dead bodies could also be cremated by fire.

He was the first man who proved that if there is a fire inside, then outside world could also be illumined.

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लघुकथा – आग ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ लघुकथा – आग

दोनों कबीले के लोगों ने शिकार पर अधिकार को लेकर एक-दूसरे पर धुआँधार पत्थर बरसाए। बरसते पत्थरों में कुछ आपस में टकराए। चिंगारी चमकी। सारे लोग डरकर भागे।

बस एक आदमी खड़ा रहा। हिम्मत करके उसने फिर एक पत्थर दूसरे पर दे मारा। फिर चिंगारी चमकी। अब तो जुनून सवार हो गया उसपर। वह अलग-अलग पत्थरों से खेलने लगा।

वह पहला आदमी था जिसने आग बोई, आग की खेती की। आग को जलाया, आग पर पकाया। एक रोज आग में ही जल मरा।

लेकिन वही पहला आदमी था जिसने दुनिया को आग से मिलाया, आँच और आग का अंतर समझाया। आग पर और आग में सेंकने की संभावनाएँ दर्शाईं। उसने अपनी ज़िंदगी आग के हवाले कर दी ताकि आदमी जान सके कि लाशें फूँकी भी जा सकती हैं।

वह पहला आदमी था जिसने साबित किया कि भीतर आग हो तो बाहर रोशन किया जा सकता है।

 

©  संजय भारद्वाज 

रात्रि 8.16 बजे  04.08.2019

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेरू का मकबरा भाग-1 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित कहानी  “शेरू का मकबरा भाग-1”. इस कृति को अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य प्रतियोगिता, पुष्पगंधा प्रकाशन,  कवर्धा छत्तीसगढ़ द्वारा जनवरी 2020मे स्व0 संतोष गुप्त स्मृति सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया है। इसके लिए श्री सूबेदार पाण्डेय जी को हार्दिक बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – शेरू का मकबरा भाग-1 

दो शब्द रचना कार के – यों  तो मानव जाति का जब से ‌जन्म हुआ और सभ्यता विकसित होने से पूर्व पाषाण‌काल से ही मानव तथा पशु पक्षियों के संबंधों पर‌ आधारित कथा कहानियां कही सुनी जाती रही‌ हैं। अनेक प्रसंग पौराणिक कथाओं मे कथा  के अंश रुप मे विद्यमान रहे  है तथा यह सिद्ध करने में कामयाब रहे हैं कि कभी मानव अपनी दैनिक आवश्यकताओं  की पूर्ति के लिए पशु पक्षियों पर निर्भर था। जिसके अनेक प्रसंग रामायण महाभारत तथा अन्य काव्यों में वर्णित है चाहे जटायु का अबला नारी की रक्षा का प्रसंग हो अथवा महाभारतकालीन कथा प्रसंग।हर प्रसंग अपनी वफादारी की चीख चीख कर दुहाई देता प्रतीत होता है।

इसी कड़ी में हम अपने पाठकों के लिए लाये हैं एक सत्य घटना पर आधारित पूर्व प्रकाशित रचना जो इंसान  एवम जानवरों के संबंधों के संवेदन शीलता के दर्शन कराती है। आपसे अनुरोध है कि अपनी प्रतिक्रियाओं से अवश्य‌ ही अवगत करायेंगे। आपकी निष्पक्ष समालोचना हमें साहित्य के क्षेत्र में निरंतर कुछ नया करने की प्रेरणा देती हैं।

पूर्वांचल का एक ग्रामीण अंचल, बागों के पीछे झुरमुटों के ‌बीच बने मकबरे को शेरू बाबा के मकबरे के रुप में पहचानां जाता है। उस स्थान के बारे में एक किंवदंती प्रचलित है कि संकट से जूझ रहे ‌हर प्राणी के जीवन की रक्षा शेरू बाबा‌ करते है और वे सबकी मुरादें पूरी करते हैं। हृदय में बैठा यही विश्वास व भरोसा आम जन मानस को प्रतिवर्ष श्रावण पूर्णिमा के दिन शेरू बाबा के मकबरे ‌की ‌ओर खींचे लिए चला जाता है और श्रावण पूर्णिमा को उस मकबरे पर बडा़ भारी मेला लगता है।

आज श्रावणी पर्व का त्योहार है।  गाँव जवार के सारे बूढ़े‌ बच्चे नौजवान क्या हिन्दू क्या मुसलमान, सारे के सारे लोग अपने अपने दिल में अरमानों की माला संजोए मुरादों के ‍लिये‌ झोली फैलाए शेरू‌बाबा‌‌ के मुरीद बन उनके ‌दरबार मे हाजिरी लगाने को तत्पर दीखते रहे हैं। मकबरे की पैंसठवीं वर्षगांठ मनाई जा रही‌ है। मेला अपने पूरे शबाब ‌पर है। कहीं पर नातों कव्वालियों का ज़ोर है, तो कहीं भजनों कीर्तन का शोर। हर तरफ आज बाबा की शान में कसीदे पढ़ें जा रहें हैं।

आज कोई खातून‌ बुर्के के पीछे से झांकती दोनों आंखों में सारे ‌जहान का दर्द लिए दोनों हाथ ऊपर उठाये अपने लाचार एवम् बीमार शौहर के ‌जीवन की भीख‌ मांग रही है। तो वहीं कोई बुढ़िया माई‌ अपने‌ हाथ जोड़े, सिर को झुकाये इकलौते  सैनिक बेटे ‌की सलामती की दुआ मांग रही है। वहीं पर कई प्रेमी जोड़े हाथों में हाथ डाले पूजा की थाली उठाये शेरू बाबा के नाम को साक्षी मान साथ साथ जीने मरने  कसमें ‌खाते दिख रहे हैं।

इन्ही चलने वाले क्रिया कलापों के ‌बीच सहसा अक्स्मात मेरे जेहन में शेरू बाबा की आकृति  सजीव हो उठती है। और उसके साथ बिताए ‌पल चलचित्र की तरह स्मृतियों में घूमने लगते है। मैं खो जाता हूं ‌उन बीते पलों में और तभी वे पल मेरी लेखनी से ‌कहानी‌ बन फूट पड़ते हैं तथा शेरू के त्याग एवम् ‌बलिदान की गाथा उसे अमरत्व प्रदान करती‌ हुई पुराणों में तथा पंच तंत्र में वर्णित पशु पक्षियों की ‌गौरव गाथा बन मानवेत्तर संबंधों का मूल आधार तय करती दिखाई देती है। मैं एक बार फिर लोगों को सत्य घटना पर आधारित ‌शेरू का जीवनवृत्त सुनाने पर विवश हो जाता हूँ।

वो जनवरी का महीना, जाड़े की सर्दरात का नीरव वातावरण,कुहरे की चादर से लिपटी घनी अंधेरी काली रात का प्रथम प्रहर, सन्न सन्न चलती शीतलहर, मेरे पांव गांव से बाहर सिवान में बने खेतों के बीच पाही पर बने कमरे की तरफ बढे़  चले जा रहे थे, कि सहसा मेरे कानों से किसी‌ श्वान शावक के दर्द में ‌डूबी कूं -कूं की‌ आवाज टकराई, जिसनें मेरे आगे बढ़ते क़दमों को‌ थाम‌ लिया। टार्च की पीली रोशनी में उसकी दोनों बिल्लौरी आंखें ‌चमक उठी। मुझे ऐसा लगा जैसे उसे अभी अभी कोई उसे उस स्याह‌ रात में बीच सड़क पर ठंढ़ में मरनें के लिए छोड़ गया हो।

उस घनी काली रात में जब उसे आस-पास किसी मानव छाया के होने का एहसास हुआ तो वह मेरे पास आ गया और मेरे पांवों को चाटते हुए, अपने अगले पंजों को मेरे पांवों पर रख लोटनें पूंछ हिलाने तथा कूं कूं की आवाजें लगाया था ऐसा लगा जैसे वह मुझसे अपने स्नेहिल व्यवहार का प्रति दान मांग रहा हो। अब उसके पर्याय ने मेरे आगे बढ़ते कदमों को थाम लिया था।

मैं उस अबोध छोटे से श्वानशावक का प्रेम निवेदन ठुकरा न सका था। मैंने सारे संकोच त्यागकर उस अबोध बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया तथा उसे कंधे से चिपकाते पुनः घर को लौट पड़ा था। वह भी उस भयानक ठंढ़ में मानव तन की गर्मी एवम् पर्याय का प्रतिदान पा किसी अबोध बच्चे सा कंधे पर सिर चिपकाये टुकुर टुकुर ताक रहा था। यदि सच कहूं तो उस दिन मुझे उस बच्चे से अपने किसी सगे संबंधी जैसा लगाव हो गया था।

उस दिन घर-वापसी में मेरे घर के आगे अलाव तापते मुझे देखा तो उन्होने बिना मेरी भावनाओं को समझे मेरे उस कृत्रिम की हंसी‌ उड़ाई थी। उस समय मेरी दया करूणा तथा ममता उनके उपहास का शिष्य बन गई थी। लेकिन मैं तो मैं ठहरा बिना किसी की बात की परवाह किए सीधे रसोई घर में घुस गया और कटोरा भर दूध रोटी खिला उस शावक का पेट भर दिया।  उसे अपने साथ पाही पर टाट के बोरे में लपेट अपने पास‌ ही सुला दिया। वह तो गर्मी का एहसास होते ही सो गया।

उसके चेहरे का भोलापन तथा अपने पंजों से‌ मेरे पांवों को कुरेद कुरेद रोकना मेरे दिल में उतर चुका था। उस रात को मैं ठीक से पूरी तरह सो नहीं सका था। मैं जब भी उठ कर उसके चेहरे पर टार्च की रोशनी फेंकता तो उस अपनी तरफ ही टुकुर टुकुर तकते पाता। मानों वह मौन होकर मुझे मूक धन्यवाद दे रहा हो।

मैं सारी ‌रात जागता रहा था। भोर में ही सो पाया था। मैं काफी देर से सो कर उठा था।  लेकिन जब उठा तो उसे दांतों से मेरा ओढ़ना खींचते खेलते पाया था।

मैं जैसे ही उठ कर खड़ा हुआ तो वह फिर मेरे पांव से लिपटने खेलने-कूदने लगा था। इस तरह उसका खेलना मुझे बड़ा भला लगा था। जब मैं घर की ओर चला तो वह भी पीछे पीछे दौड़ता हुआ घर आ गया था। मात्र कुछ ही दिनों में वह घर के हर प्राणी का चहेता तथा दुलारा बनाया था ।बाल मंडली का तो वह खिलौना ही बन गया था। वह बड़ा ही आज्ञाकारी तेज दिमाग जीव था। वह लोगों के इशारे खूब समझता और मुझसे तो उसका बड़ा विशिष्ट प्रेम था। घर की बालमंडली ने उसे शेरू नाम दिया था।

—– क्रमशः भाग 2

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 48 ☆ लघुकथा – वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए जिए ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक सत्य घटना पर आधारित  उनकी लघुकथा वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए जिए।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 48 ☆

☆  लघुकथा – वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए जिए ☆

फेसबुक पर उसकी पोस्ट देखी – ‘ कोरोना चला जाएगा, दूरियां रह जाएंगी’ यह क्यों लिखा इसने? मन में चिंता हुई, क्या बात हो गई? कोरोना का  दुष्प्रभाव लोगों के मानसिक स्वास्थ्य  पर भी पड़ रहा है। गलत क्या कहा उसने? समझ सब रहे हैं उसने लिख दिया।उसकी लिखी बात मेरे मन में गूँज रही थी कि व्हाटसअप पर उसका पत्र  दिखा –

यह पत्र आप सबके लिए है, कोई फेसबुक पर भी पोस्ट करना चाहे तो जरूर करे।मैं जानता हूँ कि कोरोना महामारी ने हमारा जीने का तरीका बदल दिया है।मास्क पहनना,बार–बार हाथ धोना, और सबसे जरूरी,दो गज की दूरी, जिससे वायरस एक से दूसरे तक नहीं पहुँचे।इन बातों को मैं  ठीक मानता हूँ और पूरी तरह इनका पालन भी करता हूँ।लेकिन इसके बाद भी कोरोना हो जाए तो कोई क्या कर सकता है?

मेरे साथ ऐसा ही हुआ, सारी सावधानियों के बावजूद मैं कोविड पॉजिटिव हो गया। मैं तुरंत अस्पताल में एडमिट हुआ और परिवार के सभी सदस्यों का कोविड  टेस्ट करवाया। भगवान की कृपा कि सभी की रिपोर्ट नेगेटिव आई, मैंने राहत की साँस ली, वरना क्या होता—- कहाँ से लाता इतने पैसे और  कौन करता हमारी मदद? लगभग पंद्रह दिन बाद मैं  अस्पताल  से घर आया। मेरे पूरे परिवार के लिए यह बहुत कठिन समय था। घर आने के बाद मैंने  महसूस किया कि सबके चेहरे पर उदासी  छाई है।ऐसा लगा जैसे कोई बात मुझसे छिपाई जा रही हो।बच्चे कहाँ हैं मैंने पूछा।पत्नी ने बडे उदास स्वर में कहा – बेटी खेल रही है, बेटे को नानी के पास भेज दिया है। उसे इस समय वहाँ क्यों भेजा? मैं पूरी तरह स्वस्थ नहीं था इसलिए वह मुझे सही बात बताना नहीं चाह रही थी, मेरे ज़्यादा पूछने पर वह रो पडी, उसने बताया – ‘ मेरे कोविड पॉजिटिव  होने का पता चलते ही आस –पडोसवालों का मेरे परिवार के सदस्यों के प्रति रवैया ही बदल गया। किसी प्रकार की मदद की बात तो दूर उन्होंने पूरे परिवार को उपेक्षित –सा कर दिया।स्कूल बंद थे, दोनों बच्चे मोहल्ले में अपने दोस्तों  के साथ खेला करते थे, अब सब जैसे थम गया।उनको हर समय घर में  रखना मुश्किल हो गया।बेटी तो छोटी है पर बेटे को यह सब सहन ही नहीं हो रहा था। किसी समय वह चुपचाप थोडी देर के निकला तो पडोसी ने टोक दिया – अरे, तेरे पापा को कोरोना हुआ है ना, जाकर घर में बैठ, घूम मत इधर –उधर, दूसरों को भी लगाएगा बीमारी। वह मुँह लटकाए घर वापस आ गया। घर में पडा, वह अकेले रोता रहता, धीरे- धीरे उसने सबसे बात करना, खाना -पीना छोड दिया।उसकी हालत इतनी बिगड गई  कि उसे मनोचिकित्सक के पास ले जाना पडा। उसका किशोर मन यह स्वीकार  ही नहीं कर पाया कि जिन लोगों के साथ रहकर  बडा हुआ है आज वे सब उसके साथ अजनबी जैसा व्यवहार कर रहे हैं।

जिन आस पडोसवालों को हम सुख – दुख का साथी समझते हैं उनकी बेरुखी से मुझे भी बहुत चोट पहुँची। एक पल के लिए मुझे भी लगा कि फिर समाज में रहने का क्या फायदा? कोरोना महामारी से हम सब जूझ रहे हैं, हमें देह से दो गज की दूरी रखनी है, इंसानियत से नहीं। डॉक्टर्स, नर्स और अस्पताल के कर्मचारी यदि ऐसी ही अमानवीयता कोरोना के रोगी के साथ दिखाएं तो? वे भी तो इंसान हैं, उन्हें भी तो अपनी जान की फिक्र है, उनके भी परिवार हैं?

इतना ही कहना है मुझे कि मेरा बेटा और  मेरा परिवार जिस मानसिक कष्ट से गुजरा है वैसा किसी और के साथ ना होने दें। वैक्सीन बनेगी, दवाएं आएंगी, कोरोना आज नहीं तो कल चला ही जाएगा। इंसानियत बचाकर  रखनी होगी हमें, कहीं भरोसा ही ना रहा एक-दूसरे पर तो?  ना खुशी में साथ मिलकर ठहाके लगा सकें, ना गम बाँट सकें, कितना नीरस होगा जीवन—  ।आज तक कोई ऐसी वैक्सीन बनी है जो मनुष्य को मनुष्य बनाए रखे,  संवेदनशीलता ही मनुष्य की पहचान है, हाँ फिर भी वैक्सीन हो तो बताइयेगा जरूर।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 67 – हूलोक गिबन ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “हूलोक गिबन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 67 ☆

☆ हूलोक गिबन ☆

अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड जैसे पूर्वोत्तर राज्य में पाया जाने वाला 6 से 9 किलोग्राम वजनी वानर जाति का ये अनोखा जीव है। हूलोक गिबन विलुप्त होने के कगार पर खड़ा वानर अपने जीवन साथी के साथ अपने सीमा क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से विचरण करता रहता है। दूसरा जोड़ा कभी पहले वाले जोड़े के क्षेत्र में बिना काम से नहीं आता है।

मानवीय कृत्य वैवाहिक स्वभाव से युक्त इस वानर जाति का नर का शरीर काला और मादा का शरीर हल्के भूरे रंग का होता है । दोनों की छाती पर विस्तृत रंग की लंबी और गोलाकार छाप होती हैं। हल्के काले रंग के चेहरे पर भूरी आंखें इनकी सौंदर्य में अभिवृद्धि करती है।

इंसानों की तरह चलने वाला हूलोक गिबन अपने पिछले पैरों पर संतुलन बनाकर करतब दिखाने में माहिर होता है। यह 55 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से कूदने में सक्षम और फुर्तीला प्राणी है । नटखट प्रवृत्ति के इस छोटे जीव की छलांग 15 मीटर तक लंबी होती है।

घाटी में वर्षा~

टूटी डाली से कूदे

हूलोक गिबं।

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© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

25-08-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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