हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 14 ☆ डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 14 ☆ 

 

 ☆ डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान☆

 

मेरे एक मित्र को पिछले दिनो ब्लडप्रेशर बढ़ने की शिकायत हुई, तो अपनी ठेठ भारतीय परम्परा के अनुरुप हम सभी कार्यलयीन मित्र उन्हें देखने उनके घर गये, स्वाभाविक था कि अपनी अंतरंगता बताने के लिये विशेषज्ञ एलोपेथिक डाक्टरो के इलाज पर भी प्रश्न चिन्ह लगाते हुये उन्हें और किसी डाक्टर से भी क्रास इक्जामिन करवाने की सलाह हमने दी, जैसा कि ऐसे मौको पर किया जाता है किसी मित्र ने जड़ी बूटियो से शर्तिया स्थाई इलाज की तो किसी ने होमियोपैथी अपनाने की चर्चा की। मुफ्त की सलाह के इस क्रम में एक जो विशेष सलाह थोड़ा हटकर थी वह एक अन्य मित्र के द्वारा, कुत्ता पालने की सलाह थी। बड़ा दम था इस तथ्य में कि रिसर्च के मुताबिक जिन घरों में कुत्ते पले होते हैं वहां तनाव जन्य बीमारियां कम होती हें, क्योकि आफिस आते जाते डागी को दुलारते हुये हम दिनभर की मानसिक थकान भूल जाते हैं, इस तरह ब्लड प्रैशर जैसी बीमारियों से, कुत्ता पालकर बचा जा सकता है। ये और बात है कि पड़ोसियो के घरो के सामने खड़ी कार के पहियो पर, बिजली के खम्भो के पास जब आपका कुत्ता पाटी या गीला करता है तो उसे देखकर पड़ोसियो का ब्लड प्रैशर बढ़ता है।

वैसे कुत्ते और हमारा साथ नया नहीं है, इतिहासज्ञ जानते हैं कि विभिन्न शैल चित्रों में भी आदमी और कुत्ते के चित्र एक समूह में मिलते हैं। धर्मराज युधिष्ठिर की स्वर्ग यात्रा में एक कुत्ता भी उनका सहयात्री था यह कथानक भी यही रेखांकित करता है कि कुत्ते और आदमी का साथ बहुत पुराना है। कुत्ते अपनी घ्राण, व श्रवण शक्ति के चलते कम से कम इन मुद्दो पर इंसानो से बेहतर प्रमाणित हो चुके हैं। अपराधो के नियंत्रण में पुलिस के कुत्तों ने कई कीर्तीमान बनायें है। सरकस में अपने करतब दिखाकर कुत्ते बच्चों का मन मोह लेते है और अपने मास्टर के लिये आजीविका अर्जित करते हैं। संस्कृत के एक श्लोक में विद्यार्थियो को श्वान निद्रा जैसी नींद लेने की सलाह दी गई है। भाषा के संदर्भ में यह खोज का विषय है कि कुत्ते शब्द का गाली के रूप में प्रयोग आखिर कब और कैसे प्रारंभ हुआ क्योकि वफादारी के मामले में कुत्ता होना इंसान होने से बेहतर है। काका हाथरसी की अगले जन्म में विदेशी ब्रीड का पिल्ला बनने की हसरत भी महत्वपूर्ण थी क्योकि शहर के पाश इलाके में किसी बढ़िया बंगले में, किसी सुंदर युवती के साथ उसकी कार में घूमना उसके हाथों बढ़िया खाना नसीब होना इन पालतू डाग्स को ही नसीब हो सकता है। फालतू देशी कुत्तो को नही, जो स्ट्रीट डाग्स कहे जाते हैं। यूं तो स्लम डाग मिलेनियर, फिल्म को आस्कर मिल जाने के बाद से इन देशी कुत्तो का स्टेटस भी बढ़ा ही है।

पिछले दिनों मुझे एक डाग शो में जाने का अवसर मिला। अलशेसियन, पामेरियन, पग, डेल्मेशियन, बुलडाग, लैब्राडोर, जर्मन शेफार्ड, मिनिएचर वगैरह वगैरह ढ़ेरो ब्रीड के तरह तरह की प्रजातियो के कुत्तो से और उनके सुसंपन्न मालिकों से साक्षात्कार का सुअवसर मिला। ऐसे ऐसे कुत्ते मिले कि उन्हें कुत्ता कहने भी शर्म आये। और यदि कही कोई उन्हें कुत्ता कह दें तो शायद उनके मालिक बुरा मान जाये, बेहरत यही है कि हम उन्हें श्वान कहें। थोड़ा इज्जतदार शब्द लगता है। वैसे भी घर में पले हुये कुत्ते घर के बच्चो की ही तरह सबके चहेते बन जाते है, वे परिवार के सदस्य की ही तरह रहते, उठते बैठते हैं। उनके खाने पीने इलाज में गरीबी रेखा के आस पास रहने वाले औसत आदमी से ज्यादा ही खर्च होता है।

डाग शो में जाकर मुझे स्वदेशी मूवमेंट की भी बड़ी चिंता हुई। जिस तरह निखालिस देशी ज्वार और देशी भुट्टे, या गन्ने से, भारत में ही बनते हुये, यहीं बिकते हुये सरकार को खूब सा टैक्स देते हुये भी और पूरी की पूरी बोतल यही कंज्यूम होते हुये भी आज तक विदेशी शराब, विदेशी ही है,जिस तरह भारत के आम मुसलमान आज तक भी भारतीय नही हैं,या माने नही जाते हैं ठीक वैसे ही डाग शो में आये हुये सारे के सारे कुत्ते बाई बर्थ निखालिस हिन्दुस्तानी नागरिकता के धारक थे, पर स्वयं उनके मालिक ही उन्हें देशी कहलाने को तैयार नही थे, विदेशी ब्रीड का होने में जो गौरव है वह अभिजात्य होने का अलग ही अहं भाव जो पैदा करता है। एक जानकार ने बताया कि रामपुर हाउण्ड नामक देसी प्रजाति का कुत्ता भी डाग शो में प्रदर्शन के लिये पंजीकृत है, तो मेरे स्वदेसी प्रेम को किंचित शांति मिली, वैसे खैर मनाने की बात है कि स्वदेशी,दुत्कारे जाने वाले, टुकड़ो पर सड़को के किनारे पलने वाले ठेठ देशी कुत्तो के हित चिंतन के लिये भी मेनका गांधी टाइप के नेता बन गये हैं, पीपुल्स फार एनीमल, जैसी संस्थायें भी सक्रिय हैं। नगर निगम की आवारा पशुओ को पकड़ने वाली गाड़ी इन कुत्तो की नसबंदी पर काम कर रही है अतः हालात नियंत्रण में है, मतलब चिंता जनक नहीं है, विदेशी श्वान पालिये, ब्लड प्रैशर से दूर रहिये। श्वानों के डाग शो में हिस्सा लीजिये, और पेज थ्री में छपे अपने कुत्ते की तस्वीर की मित्रो मे खूब चर्चा कीजीये। पर आग्रह है कि अब विदेशी ब्रीड के कुत्तो को देशी माने न माने पर कम से कम देश में जन्में हुये आदमी को भले ही वह मुसलमान ही हो देसी मान ही लीजीये।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆☆ मेहमानी, सशर्त जो हो गयी है’☆☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का नया व्यंग्य   मेहमानी, सशर्त जो हो गयी है”। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ मेहमानी, सशर्त जो हो गयी है’ ☆☆

 

माफ करना दोस्त, हम तुम्हारी पार्टी में आ नहीं पायेंगे.

तुम्हारा ग्रीन थीम पार्टी का एक आकर्षक, संगीतमयी आमंत्रण वाट्सअप पर मिला. बुलावे में तुमने एक ड्रेस-कोड भी दिया है. हमें डार्क-ग्रीन पंजाबी ड्रेस पहनकर आने को कहा गया है. मेहमान वैसे दिखें जैसे तुम देखना चाहते हो. गहरा हरा रंग ठीक भी है दोस्त, कहते हैं ईजी मनी के सावन में चुंधियायी आँखों को सब तरफ हरा-हरा नज़र आता है. तुमने वही रंग चुना. ड्रेस-कोड फॉर मेंस – गहरा हरा पंजाबी कुर्ता और एम्ब्रोयडरी वर्क वाली मैचिंग लुंगी या डबल प्लेट वाली लूज पैंट. विमेन्स के लिये डार्क-ग्रीन पटियाले सूट या साड़ी. साथ में ब्रेडेड बालों में ग्रीन परांदे और हरी जुत्तियाँ.

बस यहीं पर मात खा गये अपन. गहरी हरी पंजाबी पोशाक का जुगाड़ बन नहीं पा रहा. हमारी मुफ़लिसी की थीम तुम्हारे आयोजन की थीम से मैच नहीं कर पा रही. निमंत्रण ग्रीन का है और हम पीले पड़ते जा रहे हैं.

ऐसा नहीं कि हमने कोशिश नहीं की. हमारे वार्ड-रोब का क्षेत्रफल एक सेकंड-हेंड गोदरेज अलमारी तक सिमट गया है. उसे उलट पुलट करने पर एक हरा कुर्ता निकला है, मगर वो गहरा हरा नहीं है. लुंगी हरी जैसी दिखती है मगर उस पर एम्ब्रोयडरी वर्क नहीं है. अक्सर हम उसे रात में सोते समय लपेट लेते हैं. जैसी भी है पार्टी में उसके बार-बार खिसक जाने की रिस्क तो है ही. हरे पैंट की चैन खराब है. रफूसाज एक दिन में उसे ठीक करके देगा नहीं. हुक टूट जाये तो बेल्ट बांध ले आदमी, चैन खुली रख कर कैसे आये ? एक व्हाईट ड्रेस भी है मेरे पास. पार्टी के लिये उसे गहरा हरा रंगवाया जा सकता है मगर तब मैं छब्बीस जनवरी को क्या पहनूंगा ?

समस्याएँ वाईफ़ की ड्रेस के साथ भी हैं. कुर्ती तो डार्क ग्रीन है मगर सलवार कंट्रास्ट है. किसी शादी की विदाई में मिली एक डार्क ग्रीन साड़ी है मगर उसमें फाल पिको होना बाकी है. मैचिंग पोल्का भी नहीं मिल रहा. पार्लरवाली ब्रेडेड बाल सजाने के साढ़े आठ सौ रूपये लेती है और पहली तारीख निकले को बाईस दिन बीत गये हैं. फिर ड्रेस हो कि जुत्तियां, मांग कर पहनना हमारी फितरत में नहीं है दोस्त.

ये कोशिशें हमने इसलिए की हैं कि नहीं आयेंगे तो तुम बुरा मान जाओगे. और बदरंग कपड़े पहन के आयेंगे तो पार्टी में तुम्हारी भद पिटेगी. हम तुम्हारी भद नहीं पिटवायेंगे. तुम्हारे इन्विटेशन में, छोटे-छोटे दो चौकोर में छपे ड्रेस के फोटो ताकीद करते हैं कि मेहमान घर से चले तो अपनी ड्रेस चेक करके चले. थीम से मैच करे तो आये. आये तो आये, नी तो…… सो हमने भाड़ में जाने का मन बनाया है दोस्त.

थीम पार्टियाँ निओ-रिच क्लास का पसंदीदा शगल है जिसमें तुम बाहैसियत शामिल हो गये हो दोस्त. तुम्हारी मेहमानी अब सशर्त होने लगी है और शर्त पूरी करने की हैसियत अपन की है नहीं. होती भी तो हम मेहमानी शर्तों पर क्यों करवायेँ? हम तुम्हारे लिये उपयुक्त मेहमान नहीं हैं दोस्त. तो माफ करना, हम नहीं आ रहे हैं.

 

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 13 – ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री आलोक पुराणिक जी से साक्षात्कार☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  तेरहवीं कड़ी में   उनके द्वारा  ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री आलोक पुराणिक जी से साक्षात्कार ।  आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 13 ☆

 

☆ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री आलोक पुराणिक जी से साक्षात्कार ☆ 

☆ रचनाशील व्यक्ति भावुक ही होता है -आलोक पुराणिक

 

जय प्रकाश पाण्डेय  – 

किसी भ्रष्टाचारी के भ्रष्ट तरीकों को उजागर करने व्यंग्य लिखा गया, आहत करने वाले पंंच के साथ। भ्रष्टाचारी और भ्रष्टाचारियों ने पढ़ा पर व्यंग्य पढ़कर वे सुधरे नहीं, हां थोड़े शरमाए, सकुचाए और फिर चालू हो गए तब व्यंग्य भी पढ़ना छोड़ दिया, ऐसे में मेहनत से लिखा व्यंग्य बेकार हो गया क्या ?

आलोक पुराणिक  –

साहित्य, लेखन, कविता, व्यंग्य, शेर ये पढ़कर कोई भ्रष्टाचारी सदाचारी नहीं हो जाता। हां भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बनाने में व्यंग्य मदद करता है। अगर कार्टून-व्यंग्य से भ्रष्टाचार खत्म हो रहा होता श्रेष्ठ कार्टूनिस्ट स्वर्गीय आर के लक्ष्मण के दशकों के रचनाकर्म का परिणाम भ्रष्टाचार की कमी के तौर पर देखने में आना चाहिए था। परसाईजी की व्यंग्य-कथा इंसपेक्टर मातादीन चांद पर के बाद पुलिस विभाग में भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ है। रचनाकार की अपनी भूमिका है, वह उसे निभानी चाहिए। रचनाकर्म से नकारात्मक के खिलाफ माहौल बनाने में मदद मिलती है। उसी परिप्रेक्ष्य में व्यंग्य को भी देखा जाना चाहिए।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

देखने में आया है कि नाई जब दाढ़ी बनाता है तो बातचीत में पंच और महापंच फेंकता चलता है पर नाई का उस्तरा बिना फिसले दाढ़ी को सफरचट्ट कर सौंदर्य ला देता है पर आज व्यंग्यकार नाई के चरित्र से सीख लेने में परहेज कर रहे हैं बनावटी पंच और नकली मसालों की खिचड़ी परस रहे हैं ऐसा क्यों हो रहा है  ?

आलोक पुराणिक –

सबके पास हजामत के अपने अंदाज हैं। आप परसाईजी को पढ़ें, तो पायेंगे कि परसाईजी को लेकर कनफ्यूजन था कि इन्हे क्या मानें, कुछ अलग ही नया रच रहे थे। पुराने जब कहते हैं कि नये व्यंग्यकार बनावटी पंचों और नकली मसालों की खिचड़ी परोस रहे हैं, तो हमेशा इस बयान के पीछे सदाशयता और ईमानदारी नहीं होती। मैं ऐसे कई वरिष्ठों को जानता हूं जो अपने झोला-उठावकों की सपाटबयानी को सहजता बताते हैं और गैर-झोला-उठावकों पर सपाटबयानी का आऱोप ठेल देते हैं। क्षमा करें, बुजुर्गों के सारे काम सही नहीं हैं। इसलिए बड़ा सवाल है कि कौन सी बात कह कौन रहा है।  अगर कोई नकली पंच दे रहा है और फिर भी उसे लगातार छपने का मौका मिल रहा है, तो फिर मानिये कि पाठक ही बेवकूफ है। पाठक का स्तर उन्नत कीजिये। बनावटी पंच, नकली मसाले बहुत सब्जेक्टिव सी बातें है। बेहतर यह होना चाहिए कि जिस व्यंग्य को मैं खराब बताऊं, उस विषय़ पर मैं अपना काम पेश करुं और फिर ये दावा ना  ठेलूं कि अगर आपको समझ नहीं आ रहा है, तो आपको सरोकार समझ नहीं आते। लेखन की असमर्थता को सरोकार के आवरण में ना छिपाया जाये, जैसे नपुंसक दावा करे कि उसने तो परिवार नियोजन को अपना लिया है। ठीक है परिवार नियोजन बहुत अच्छी बात है, पर असमर्थताओं को लफ्फाजी के कवच दिये जाते हैं, तो पाठक उसे पहचान लेते हैं। फिर पाठकों को गरियाइए कि वो तो बहुत ही घटिया हो गया। यह सिलसिला  अंतहीन है। पाठक अपना लक्ष्य तलाश लेता है और वह ज्ञान चतुर्वेदी और दूसरों में फर्क कर लेता है। वह सैकड़ों उपन्यासों की भीड़ में राग दरबारी को वह स्थान दे देता है, जिसका हकदार राग दरबारी होता है।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

लोग कहने लगे हैं कि आज के माहौल में पुरस्कार और सम्मान “सब धान बाईस पसेरी” बन से गए हैं, संकलन की संख्या हवा हवाई हो रही है ऐसे में किसी व्यंग्य के सशक्त पात्र को कभी-कभी पुरस्कार दिया जाना चाहिये, ऐसा आप मानते हैं हैं क्या ?

आलोक पुराणिक –

रचनात्मकता में बहुत कुछ सब्जेक्टिव होता है। व्यंग्य कोई गणित नहीं है कोई फार्मूला नहीं है। कि इतने संकलन पर इतनी सीनियरटी मान ली जायेगी। आपको यहां ऐसे मिलेंगे जो अपने लगातार खारिज होते जाने को, अपनी अपठनीयता को अपनी निधि मानते हैं। उनकी बातों का आशय़ होता कि ज्यादा पढ़ा जाना कोई क्राइटेरिया नहीं है। इस हिसाब से तो अग्रवाल स्वीट्स का हलवाई सबसे बड़ा व्यंग्यकार है जिसके व्यंग्य का कोई  भी पाठक नहीं है। कई लेखक कुछ इस तरह की बात करते हैं , इसी तरह से लिखा गया व्यंग्य, उनके हिसाब से ही लिखा गया व्यंग्य व्यंग्य है, बाकी सब कूड़ा है। ऐसा मानने का हक भी है सबको बस किसी और से ऐसा मनवाने के लिए तुल जाना सिर्फ बेवकूफी ही है। पुरस्कार किसे दिया जाये किसे नहीं, यह पुरस्कार देनेवाले तय करेंगे। किसी पुरस्कार से विरोध हो, तो खुद खड़ा कर लें कोई पुरस्कार और अपने हिसाब के व्यंग्यकार को दे दें। यह सारी बहस बहुत ही सब्जेक्टिव और अर्थहीन है एक हद।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

आप खुशमिजाज हैं, इस कारण व्यंग्य लिखते हैं या भावुक होने के कारण ?

आलोक पुराणिक –

व्यंग्यकार या कोई भी रचनाशील व्यक्ति भावुक ही होता है। बिना भावुक हुए रचनात्मकता नहीं आती। खुशमिजाजी व्यंग्य से नहीं आती, वह दूसरी वजहों से आती है। खुशमिजाजी से पैदा हुआ हास्य व्यंग्य में इस्तेमाल हो जाये, वह अलग बात है। व्यंग्य विसंगतियों की रचनात्मक पड़ताल है, इसमें हास्य हो भी सकता है नहीं भी। हास्य मिश्रित व्यंग्य को ज्यादा स्पेस मिल जाता है।

जय प्रकाश पाण्डेय –

वाट्सअप, फेसबुक, ट्विटर में आ रहे शब्दों की जादूगरी से ऐसा लगता है कि शब्दों पर संकट उत्पन्न हो गया है ऐसा कुछ आप भी महसूस करते हैं क्या ?

आलोक पुराणिक –

शब्दों पर संकट हमेशा से है और कभी नहीं है। तीस सालों से मैं यह बहस देख रहा हूं कि संकट है, शब्दों पर संकट है। कोई संकट नहीं है, अभिव्यक्ति के ज्यादा माध्यम हैं। ज्यादा तरीकों से अपनी बात कही जा सकती है।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

हजारों व्यंग्य लिखने से भ्रष्ट नौकरशाही, नेता, दलाल, मंत्री पर कोई असर नहीं पड़ता। फेसबुक में इन दिनों “व्यंग्य की जुगलबंदी” ने तहलका मचा रखा है इस में आ रही रचनाओं से पाठकों की संख्या में ईजाफा हो रहा है ऐसा आप भी महसूस करते हैं क्या?

अनूप शुक्ल ने व्यंग्य की जुगलबंदी के जरिये बढ़िया प्रयोग किये हैं। एक ही विषय पर तरह-तरह की वैरायटी वाले लेख मिल रहे हैं। एक तरह से सीखने के मौके मिल रहे हैं। एक ही विषय पर सीनियर कैसे लिखते हैं, जूनियर कैसे लिखते हैं, सब सामने रख दिया जाता है। बहुत शानदार और सार्थक प्रयोग है जुगलबंदी। इसका असर खास तौर पर उन लेखों की शक्ल में देखा जा सकता है, जो एकदम नये लेखकों-लेखिकाओं ने लिखे हैं और चौंकानेवाली रचनात्मकता का प्रदर्शन किया है उन लेखों में। यह नवाचार  इंटरनेट के युग में आसान हो गया।

हम प्राचीन काल की अपेक्षा आज नारदजी से अधिक चतुर, ज्ञानवान, विवेकवान और साधनसम्पन्न हो गए हैं फिर भी अधिकांश व्यंग्यकार अपने व्यंग्य में नारदजी को ले आते हैं इसके पीछे क्या राजनीति है ?

आलोक पुराणिक –

नारदजी उतना नहीं आ रहे इन दिनों। नारदजी का खास स्थान भारतीय मानस में, तो उनसे जोड़कर कुछ पेश करना और पाठक तक पहुंचना आसान हो जाता है। पर अब नये पाठकों को नारद के संदर्भो का अता-पता भी नहीं है।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

व्यंग्य विधा के संवर्धन एवं सृजन में फेसबुकिया व्यंगकारों की भविष्य में सार्थक भूमिका हो सकती है क्या ?

आलोक पुराणिक –

फेसबुक या असली  की बुक, काम में दम होगा, तो पहुंचेगा आगे। फेसबुक से कई रचनाकार मुख्य धारा में गये हैं। मंच है यह सबको सहज उपलब्ध। मठाधीशों के झोले उठाये बगैर आप काम पेश करें और फिर उस काम को मुख्यधारा के मीडिया में जगह मिलती है। फेसबुक का रचनाकर्म की प्रस्तुति में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 15 – व्यंग्य – हश्र एक उदीयमान नेता का ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे. डॉ कुंदन सिंह परिहार जी ने अपने प्राचार्य जीवन में अपने छात्रों को  छात्र नेता , वरिष्ठ नेता , डॉक्टर , इंजीनियर से लेकर उच्चतम प्रशासनिक पदों  तक जाते हुए देखा है. इसके अतिरिक्त  कई छात्रों को बेरोजगार जीवन से  लेकर स्वयं से जूझते हुए तक देखा है.  इस क्रिया के प्रति हमारा दृष्टिकोण भिन्न हो सकता है किन्तु, उनके जैसे वरिष्ठ प्राचार्य का अनुभव एवं दृष्टिकोण निश्चित ही भिन्न होगा जिन्होंने ऐसी प्रक्रियाओं को अत्यंत नजदीक से देखा है. आज प्रस्तुत है  उनका  व्यंग्य  “हश्र एक उदीयमान नेता का” .)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 15 ☆

 

☆ व्यंग्य – हश्र एक उदीयमान नेता का ☆

 

भाई रामसलोने के कॉलेज में दाखिला लेने का एकमात्र कारण यह था कि वे सिर्फ इंटर पास थे और धर्मपत्नी विमला देवी बी.ए.की डिग्री लेकर आयीं थीं।  परिणामतः रामसलोने जी में हीनता भाव जाग्रत हुआ और उससे मुक्ति पाने के लिए उन्होंने बी.ए. में दाखिला ले लिया।

दैवदुर्योग से जब परीक्षा-फार्म भरने की तिथि आयी तब प्रिंसिपल ने उनका फार्म रोक लिया।  बात यह थी कि रामसलोने जी की उपस्थिति पूरी नहीं थी।  कारण यह था कि बीच में विमला देवी ने जूनियर रामसलोने को जन्म दे दिया, जिसके कारण रामसलोने जी ब्रम्हचारी के कर्तव्यों को भूलकर गृहस्थ के कर्तव्यों में उलझ गये।  कॉलेज से कई दिन अनुपस्थित रहने के कारण यह समस्या उत्पन्न हो गयी।

प्रिंसिपल महोदय दृढ़ थे।  रामसलोने की तरह आठ-दस छात्र और थे जो पढ़ाई के समय बाज़ार में पिता के पैसे का सदुपयोग करते रहे थे।

सब मिलकर प्रिंसिपल महोदय से मिले।  कई तरह से प्रिंसिपल साहब से तर्क-वितर्क किये, लेकिन वे नहीं पसीजे।  रामसलोने जी आवेश में आ गये।  अचानक मुँह लाल करके बोले, ‘आप हमारे फार्म नहीं भेजेंगे तो मैं आमरण अनशन करूँगा।’ साथी छात्रों की आँखों में प्रशंसा का भाव तैर गया, लेकिन प्रिंसिपल महोदय अप्रभावित रहे।

दूसरे दिन रामसलोने जी का बिस्तर कॉलेज के बरामदे में लग गया।  रातोंरात वे रामसलोने जी से ‘गुरूजी’ बन गये।  कॉलेज का बच्चा-बच्चा उनका नाम जान गया।  साथी छात्रों ने उनके अगल-बगल दफ्तियाँ टांग दीं जिनपर लिखा था, ‘प्रिंसिपल की तानाशाही बन्द हो’, ‘छात्रों का शोषण बन्द करो’, ‘हमारी मांगें पूरी करो’, वगैरः वगैरः।  उन्होंने रामसलोने का तिलक किया और उन्हें मालाएं पहनाईं।  रामसलोने जी गुरुता के भाव से दबे जा रहे थे।  उन्हें लग रहा था जैसे उनके कमज़ोर कंधों पर सारे राष्ट्र का भार आ गया हो।

अनशन शुरू हो गया।  साथी छात्र बारी- बारी से उनके पास रहते थे।  बाकी समय आराम से घूमते-घामते थे।

तीसरे दिन रामसलोने जी को उठते बैठते कमज़ोरी मालूम पड़ने लगी।  प्रिंसिपल महोदय उन्हें देखने आये, उन्हें समझाया, लेकिन साथी छात्र उनकी बातों को बीच में ही ले उड़ते थे।  उन्होंने प्रिंसिपल की कोई बात नहीं सुनी, न रामसलोने को बोलने दिया।

रामसलोने जी की हालत खस्ता थी।  उन्हें आवेश में की गयी अपनी घोषणा पर पछतावा होने लगा था और पत्नी के हाथों का बना भोजन दिन-रात याद आता था।  उनका मनुहार करके खिलाना भी याद आता था।  लेकिन साथियों ने उनका पूरा चार्ज ले लिया था। वे ही सारे निर्णय लेते थे। रामसलोने जी के हाथ में उन्होंने सिवा अनशन करने के कुछ नहीं छोड़ा था।

डाक्टर रामसलोने जी को देखने रोज़ आने लगा।  प्रिंसिपल भी रोज़ आते थे, लेकिन न वे झुकने को तैयार थे, न रामसलोने जी के साथी।

आठवें दिन डाक्टर ने रामसलोने जी के साथियों को बताया कि उनकी हालत अब खतरनाक हो रही है। रामसलोने जी ने सुना तो उनका दिल डूबने लगा। लेकिन उनके साथी ज़्यादा प्रसन्न हुए।  उन्होंने रामसलोने जी से कहा, ‘जमे रहो गुरूजी! अब प्रिंसिपल को पता चलेगा। आप अगर मर गये तो हम कॉलेज की ईंट से ईंट बजा देंगे।’  रामसलोने के सामने दुनिया घूम रही थी।

दूसरे दिन से उनके साथी वहीं बैठकर कार्यक्रम बनाने लगे कि अगर रामसलोने जी शहीद हो गये तो क्या क्या कदम उठाये जाएंगे।  सुझाव दिये गये कि रामसलोने जी की अर्थी को सारे शहर में घुमाया जाए और उसके बाद सारे कॉलेजों में अनिश्चितकालीन हड़ताल और शहर बन्द हो।  ऐसा उपद्रव हो कि प्रशासन के सारे पाये हिल जाएं।  उन्होंने रामसलोने जी से कहा, ‘तुम बेफिक्र रहो, गुरूजी। कॉलेज के बरामदे में तुम्हारी मूर्ति खड़ी की जाएगी।’

रात को आठ बजे रामसलोने जी  अपने पास तैनात साथी से बोले, ‘भैया, एक नींबू ले आओ, मितली उठ रही है।’  इसके पाँच मिनट बाद ही एक लड़खड़ाती आकृति सड़क पर एक रिक्शे पर चढ़ते हुए कमज़ोर स्वर में कह रही थी, ‘भैया, भानतलैया स्कूल के पास चलो। यहाँ से लपककर निकल चलो।’

एक घंटे के बाद बदहवास छात्रों का समूह रामसलोने जी के घर की कुंडी बजा रहा था, परेशान आवाज़ें लगा रहा था। सहसा दरवाज़ा खुला और चंडी-रूप धरे विमला देवी दाहिने कर-कमल में दंड।  धारे प्रकट हुईं।  उन्होंने भयंकर उद्घोष करते हुए छात्र समूह को चौराहे के आगे तक खदेड़ दिया।  खिड़की की फाँक से दो आँखें यह दृश्य देख रही थीं।

कुन्दन सिंह परिहार

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हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ व्यंग्य – राजभाषा अकादमी अवार्ड्स ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

राजभाषा दिवस विशेष 

श्री हेमन्त बावनकर

 

(राजभाषा दिवस पर श्री हेमन्त बावनकर जी का  विशेष  व्यंग्य  राजभाषा अकादमी अवार्ड्स.)

 

☆ राजभाषा अकादमी अवार्ड्स

 

गत कई वर्षों से विभिन्न राजभाषा कार्यक्रमों में भाग लेते-लेते साहित्यवीर को भ्रम हो गया कि अब वे महान साहित्यकार हो गए हैं। अब तक उन्होने राजभाषा की बेबुनियाद तारीफ़ों के पुल बाँध कर अच्छी ख़ासी विभागीय ख्याति एवं विभागीय पुरस्कार अर्जित किए थे। कविता प्रतियोगिताओं में राजभाषा के भाट कवि के रूप में अपनी कवितायें प्रस्तुत कर अन्य चारणों को मात देने की चेष्टा की। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में अपने अकाट्य तर्क प्रस्तुत कर प्रतियोगियों एवं निर्णायकों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया। कभी सफलता ने साहित्यवीर के चरण चूमें तो कभी साहित्यवीर धराशायी होकर चारों खाने चित्त गिरे।

साहित्य की विभिन्न विधाओं में अपनी साहित्यिक प्रतिभा की तलवार भाँजते-भाँजते साहित्य की उत्कृष्ट विधा समालोचना के समुद्र में गोता लगाने का दुस्साहस कर बैठे। कुछ अभ्यास के पश्चात उन्हें भ्रम हो गया कि उन्होंने समालोचना में भी महारत हासिल कर लिया है। खैर साहब, साहित्यवीर जी ने प्रतिवर्षानुसार अपनी समस्त प्रविष्टियों को गत वर्ष प्रायोगिक तौर पर समालोचनात्मक व्यंग के रंग में रंग कर प्रेषित कर दी।

उनकी कहानी और लेख का तो पता नहीं क्या हुआ, किन्तु, कविता बड़ी क्रान्तिकारी सिद्ध हुई। कविता का शीर्षक था साहित्यवीर और भावार्थ कुछ निम्नानुसार था।

एक सखी ने दूसरी सखी से कहा कि- हे सखी! जिस प्रकार लोग वर्ष में एक बार गणतंत्रता और स्वतन्त्रता का स्मरण करते हैं उसी प्रकार वर्ष में एक बार राजभाषा का स्मरण भी करते हैं। जिस प्रकार सावन में सम्पूर्ण प्रकृति उत्प्रेरक का कार्य करते हुए वातावरण  को मादक बना देती है और युवा हृदयों में उल्लास भर देती है उसी प्रकार राजभाषा के रंग बिरंगे पोस्टर, प्रतियोगिताओं के प्रपत्र और राजभाषा मास के भव्य कार्यक्रम प्रतियोगियों के हृदय को राजभाषा प्रेम से आन्दोलित कर देते हैं। अहा! ये देखो प्रतियोगिताओं के प्रपत्र पढ़-पढ़ कर प्रतियोगियों के चेहरे कैसे खिल उठे हैं? पूरा वातावरण राजभाषामय हो गया है। अन्तिम तिथि निकट है। हमें कार्यालयीन समय का उपयोग करना पड़ सकता है। हे सखी! जब कार्यालयीन समय में राजभाषा कार्यक्रम हो सकता है, तो प्रविष्टियों का सृजन क्यों नहीं?

दूसरी सखी ने पहली सखी से कहा – हे सखी! तुम कुछ भी कहो मुझे तो कार्यालय की दीवारों पर लगे द्विभाषीय पोस्टर द्विअर्थी संवाद की भाँति दृष्टिगोचर होते हैं। अब तुम ही देखो न एक पोस्टर पर लिखा है “इस कार्यालय में हिन्दी में कार्य करने की पूरी छूट है। तो इसका अर्थ यही हुआ न कि- “इस कार्यालय में अङ्ग्रेज़ी का प्रयोग हानिप्रद है। क्या तुम्हें यह पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि जिस प्रकार लोग धूम्रपान की “वैधानिक चेतावनी” पढ़ कर भी धूम्रपान करते हैं उसी प्रकार द्विभाषीय पोस्टर पढ़ कर अङ्ग्रेज़ी का प्रयोग करते हैं।

पहली सखी ने दूसरी सखी से कहा – हे सखी! तुम उचित कह रही हो। अब देखो न  जब कस्बा, जिला, प्रदेश, राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकार हो सकते हैं तो सरकारी कार्यालयों तथा सरकारी उपक्रमों के विभागों में कार्यरत विभागीय स्तर के साहित्यकार, राष्ट्रीय स्तर के  साहित्यकार क्यों नहीं हो सकते?   कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है कि ये विभागीय स्तर के साहित्यकार आखिर कब तक हिन्दी टंकण, हिन्दी शीघ्रलेखन, हिन्दी कार्यशाला, हिन्दी कार्यक्रम से लेकर राजभाषा मास में आयोजित कार्यक्रमों/प्रतियोगिताओं में कुलाञ्चे भरते रहेंगे? हे सखी! बड़े आश्चर्य की बात है कि राजभाषा अधिनियम लागू होने के इतने वर्षों के पश्चात भी किसी के मस्तिष्क में “राजभाषा अकादमी” की स्थापना का पवित्र विचार क्यूँ नहीं आया? जब अन्य तथाकथित भाषा-भाषी लोग अपनी भाषायी अकादमी के माध्यम से अपनी तथाकथित भाषाओं का तथाकथित विकास कर सकती हैं तो राजभाषा अकादमी के अभाव में तो राजभाषा के विकास का सारा दायित्व ही हमारे कन्धों पर आन पड़ा है। मुझे तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मैं राजभाषा के रथ की सारथी हूँ। अतः

“यदा यदा ही राजभाषस्य ग्लानिर्भवती सखी …”

अर्थात हे सखी! जब-जब राजभाषा की हानि और आङ्ग्ल्भाषा का विकास होता है तब तब मैं अपने रूप अर्थात विभागीय साहित्यकार के रूप में लोगों के सम्मुख प्रकट होती हूँ।

हे सखी! धिक्कार है हमें, हम पर और स्वतन्त्र भारत के उन स्वतन्त्र नागरिकों पर जिन्हें उनके मौलिक अधिकारों का स्मरण कराने की आवश्यकता नहीं होती, किन्तु, उन्हें उनकी गणतन्त्रता, स्वतन्त्रता और राजभाषा का मूल्य और उसका औचित्य स्मरण कराने के लिए उत्सवों और महोत्सवों की आवश्यकता पड़ती है। वैसे भी उत्सव और महोत्सव से ज्यादा लोगों की उत्सुकता मित्रों के साथ या सपरिवार अवकाश मनाने में होती है।

साहित्यवीर को अपनी प्रयोगवादी, क्रान्तिकारी, समालोचनात्मक व्यंग के रंग में रंगी कविता पर बड़ा गर्व था। किन्तु, जब उन्हें पुरस्कार वितरण के समय मंच के एक कोने में बुलाकर अमुक अधिनियम की अमुक धारा का उल्लंघन करने के दोष में अपनी सफाई देने हेतु ज्ञापन सौंपा गया कि- “क्यों ना आपसे पूछा जाए कि …. ?”  वे मंच के किनारे मूर्छित होते-होते बचे। पुरस्कार वितरण करने आए मुख्य अतिथि ने उन्हें सान्त्वना स्वरूप निम्न श्लोक सुनाया।

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन …”

अर्थात कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है, फल में नहीं। अतः तुम कर्मफल हेतु भी मत बनो और तुम्हारी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो। इससे उनकी थोड़ी हिम्मत बँधी और उन्होने चुपचाप अपना स्थान ग्रहण किया। उनकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया और रोम-रोम पसीने से भींग गया। उस दिन से उनका राजभाषा प्रेम जाता रहा।

अब पुनः राज भाषा मास आ गया है। चारों ओर बैनर पोस्टर लगे हुए हैं। प्रतियोगिताओं के प्रपत्र बाँटे जा रहे हैं। विभागीय साहित्यकारों में जोश का संचार होने लगा है। प्रेरक वातावरण साहित्यवीर को पुनः उद्वेलित करने लगता है। राज भाषा प्रेम उनके मन में फिर से हिलोरें मारने लगता है। “राजभाषा अकादमी अवार्ड्स की स्थापना और उसके अस्तित्व की कल्पना का स्वप्न पुनः जागने लगता है। वे अपनी कागज कलम उठा लेते हैं। किन्तु, यह क्या? वे जो कुछ भी लिखने की चेष्टा करते हैं, तो प्रत्येक बार उनकी कलम पिछले ज्ञापन का उत्तर ही लिख पाती है।

 

© हेमन्त  बावनकर,  पुणे 

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हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष ☆ व्यंग्य – हिंदी के फूफा ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

राजभाषा दिवस विशेष 

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(राजभाषा दिवस पर श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  प्रस्तुत है विशेष व्यंग्य  हिन्दी के फूफा 

 

हिन्दी के फूफा 

 

भादों के महीने में आफिस में जबरदस्ती राजभाषा मास मनवाया जाता है। 14 सितम्बर मतलब हिंदी दिवस। इस दिन हर सरकारी आफिस में किसी हिंदी विद्वान को येन-केन प्रकारेण पकड़ कर सम्मान कर देने के बॉस के निर्देश होते हैं। सो हम सलूजा के संग चल पड़े ढलान भरी सड़क पर डॉ सोमालिया को पकड़ने।  डॉ सोमालिया बहुत साल पहले विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष रहे फिर रिटायर होने पर कविता – अविता जैसा कुछ करने लगे। सलूजा बोला – सही जीव है इस बार इसी को पकड़ो। सो हम लोग ढलान भरी सड़क के किनारे स्थित उनके मकान के बाहर खड़े हो गए, जैसे ही मकान के बाहर का टूटा लोहे का गेट खोला, डॉ साहब का मरियल सा कुत्ता भौंका, एक दो बार भौंक कर शान्त हो गया। हम लोगों ने आवाज लगाई… डॉ साहब…… डॉ साहब…..?  डॉ सोमालिया डरे डरे सहमे से पट्टे की चड्डी पहने बाहर निकले….. हम लोगों ने कहा – डॉ साहब हम लोग फलां विभाग से आये हैं, हिन्दी दिवस पर आपका सम्मान करना है। सम्मान की बात सुनकर सोमालिया जी कुछ गदगद से जरूर हुए पीछे से उनकी पत्नी के बड़बड़ाने की आवाज सुनकर तुरंत अपने को संभालते हुए कहने लगे – अरे भाई, सम्मान – अम्मान की क्या जरूरत है। मैं तो आप सबका सेवक हूँ, वैसे आप लोगों की इच्छा… मेरा जैसा “यूज” करना चाहें….. वैसे जब मैं रिटायर नहीं हुआ था तो मुझे मुख्य अतिथि बनाने के लिए आपके बड़े साहबों की लाईन लगा करती थी, खैर छोड़ो उन दिनों को, पर ये अच्छी बात है कि आप लोग अभी भी हिंदी का समय समय पर ध्यान रखते हैं। वैसे आपके यहां भी हिंदी में थोड़ा बहुत काम तो तो होता होगा?

 

…….. हां सर, नाम मात्र का तभी तो हम लोग राजभाषा मास मना लेते हैं।

 

……. आपके यहां अधिकारियों का हिंदी के प्रति लगाव है कि नहीं ?

 

…….. हां सर,, हिन्दी दिवस के दिन ऐसा थोड़ा सा लगता तो है।

…….. दरअसल क्या है कि हिन्दी के साथ ये दिक्कत है कि हम उसे लाना चाहते हैं पर वो आने में किन्न – मिन्न करती है। है न ऐसा ?

…. बस सर…… यस सर… ठीक कहा वैसे आपने जीवन भर हिंदी की सेवा की है तो ये ये हिन्दी के बारे में आपको ज्यादा ज्ञान होगा पर समझ में नहीं आता कि ये चाहती क्या है…… कुछ इस तरह की बातें चलतीं रहीं, फीकी – फीकी बातों के साथ फीकी – फीकी बिना दूध की चाय भी मिली, काफी रात हो चली थी हम लोग उठ कर चल चल दिए। रास्ते में डॉ सोमालिया को लेकर हम लोगों ने काफी मजाक और हंसी – ठिठोली भी की टाईम पास के लिए।

दूसरे दिन हम लोग आफिस से डॉ सोमालिया के लिए स्मृति चिन्ह खरीदने के बहाने गोल हो गए, सलूजा कहने लगा, यार जितना पैसा स्वीकृत हुआ है उतने पूरे का सामान नहीं लेना, बिल पूरे पैसे का बनवा लेना बीच में अपने खर्चा – पानी के के लिए कुछ पैसा बचा लेना है, हमको सलूजा की बात माननी पड़ी न मानते तो नाटक करवा देता, नेता आदमी है। इस प्रकार डॉ सोमालिया के नाम से स्वीकृत हुए पैसे का कुछ हिस्सा सलूजा की जेब में चला गया हांलाकि उसने प्रामिस किया कि सम्मान समारोह के दिन की थकावट दूर करने के लिए इसी पैसे का इस्तेमाल किया जाएगा।

14 सितम्बर आया। लोगों को जोर जबरदस्ती कर अनमने मन से एक हाल में इकट्ठा किया गया। डॉ सोमालिया को लेने एक कार भेजी गई, कार के ड्रायवर को समझा दिया गया कि रास्ते में डॉ सोमालिया को अपने तरह से समझा देगा कि आफिस वालों के आगे ज्यादा देर तक फालतू बातें वे नहीं करेंगे तो अच्छा रहेगा क्योंकि आफिस वाले बड़े बॉस हिंदी से थोड़ा चिढ़ते हैं हिंदी आये चाहे न आये बॉस खुश रहना चाहिए। थोड़ी देर बाद सोमालिया जी आए, हाल में बैठा दिया गया, हिन्दी में लिखे बैनर देख देख वे टाइम पास करने लगे। इस बीच हाल से लोग उठ उठकर भाग रहे थे, किसी प्रकार लोगों को थामकर रखा गया। बेचारे डॉ सोमालिया जी अकेले बैठे थे, बिग बॉस, मीडियम बॉस और अन्य बॉस का पता नहीं था किसी प्रकार खींच तान कर सबको लाया गया। डॉ सोमालिया को एक के बाद एक माला पहनाने का जो क्रम चला तो रूकने का नाम नहीं ले रहा था, सोमालिया जी माला संस्कार से तंग आ गये इतने माले जीवन भर में कभी नहीं पहने थे। माला पहनते हुए उन्हें माल्या की याद आ गई। सलूजा ने अधकचरे ढंग से डॉ सोमालिया का परिचय दिया, डायस में बैठे सभी बॉस टाइप के लोगों ने हिंदी के बारे में झूठ मूठ की बातें की। डॉ सोमालिया ने भाषा के महत्व के बारे में विस्तार से बताया बोले – हिन्दी को आने में कुछ तकलीफ सी हो रही है कुछ अंग्रेज परस्त बड़े साहबों के कारण। सलूजा चौकन्ना हुआ बीच में भाषण रुकवा कर डॉ साहब को एक तरफ ले जाकर समझाया कि अग्रेजी परस्त बॉस  लोगों के बारे में कुछ भी मत बोलो नहीं तो प्रोग्राम के बाद हमारी चड्डी उतार लेंगे ये लोग। विषय की गंभीरता को समझते हुए माईक में आकर सोमालिया जी ने विभाग की झूठ मूठ की तारीफ की…. बिग बॉस लोगों ने तालियां पीटी, कार्यक्रम समाप्त हुआ। डॉ सोमालिया को समझ में आ गया कि हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है। जाते-जाते उन्हें कोई छोड़ने नहीं गया, हारकर बुझे मन से उन्होंने रिक्शा बुलाया और सवार हो गए घर जाने के लिए।

………………………

जय प्रकाश पाण्डेय

जय नगर जबलपुर

9977318765

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 13 ☆ नये कुल,गोत्र, जाति और संप्रदाय ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “नये कुल,गोत्र, जाति और संप्रदाय”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 13 ☆ 

 

 ☆ नये कुल,गोत्र, जाति और संप्रदाय☆

 

धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय की जड़ें हमारी संस्कारों में बहुत गहरी हैं। यूं हम आचरण में धर्म के मूल्यो का पालन करें न करें, पर यदि झूठी अफवाह भी फैल जाये कि किसी ने हमारे धर्म या जाति पर उंगली भी उठा दी है, तो हम कब्र से निकलकर भी अपने धर्म की रक्षा के लिये सड़को पर उतर आते हैं, यह हमारा राष्ट्रीय चरित्र है। हमें इस पर गर्व है। इतिहास साक्षी है धर्म के नाम पर ढ़ेरो युद्ध लड़े गये हैं, कुल, जाति, उपजाति,गोत्र, संप्रदाय के नाम पर समाज सदैव बंटा रहा है। समय के साथ लड़ाई के तरीके बदलते रहे हैं, आज भी जाति और संप्रदाय भारतीय राजनीति में अहं भूमिका निभा रहे है। वोट की जोड़ तोड़ में जातिगत समीकरण बेहद महत्वपूर्ण हैं। जिसने यह गणित समझ लिया वह सत्ता मैनेज करने में सफल हुआ। इन जातियों, कुल, गोत्र आदि का गठन कैसे हुआ होगा ? यह समाज शास्त्र के शोध का विषय है पर मोटे तौर पर मेरे जैसे नासमझ भी समझ सकते हैं कि तत्कालीन, अपेक्षाकृत अल्पशिक्षित समाज को एक व्यवस्था के अंतर्गत चलाने के लिये इस तरह के मापदण्ड व परिपाटियां बनाई गई रही होंगी, जिनने लम्बे समय में रुढ़ि व कट्टरता का स्वरूप धारण कर लिया। चरम पंथी कट्टरता इस स्तर तक बढ़ी कि धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय से बाहर विवाह करने के प्रेमी दिलों के प्रस्तावों पर हर पीढ़ी में विरोध हुये, कहीं ये हौसले दबा दिये गये, तो कही युवा मन ने बागी तेवर अपनाकर अपनी नई ही दुनिया बसाने में सफलता पाई। जब पुरा्तन पंथी हार गये तो उन्होने समरथ को नहिं दोष गोंसाईं का राग अलाप कर चुप्पी लगा ली, और जब रुढ़िवादियों की जीत हुई तो उन्होने जात से बाहर, तनखैया वगैरह करके प्रताड़ित करने में कसर न उठा रखी। जो भी हो, इस डर से समाज एक परंपरा गत व्यवस्था से संचालित होता रहा है। धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय के बंधन प्रायः शादी विवाह, रिश्ते तय करने हेतु मार्ग दर्शक सिद्धांत बनते गये। पर दिल तो दिल है, गधी पर दिल आये तो परी क्या चीज है ? जब तब धर्म की सीमाओ को लांघकर प्रेमी जोड़े, प्रेम के कीर्तिमान बनाते रहे हैं। प्रेम कथाओ के नये नये हीरो और कथानक रचते रहे हैं। इसी क्रम को नई पीढ़ी बहुत तेजी से आगे बढ़ा रही लगती है।

यह सदी नवाचार की है। नई पीढ़ी नये धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय बना रही है। आज इन पुरातन जाति के बंधनो से परे बहुतायत में आई ए एस की शादी आई ए एस से, डाक्टर की डाक्टर से, साफ्टवेयर इंजीनियर की साफ्टवेयर इंजीनियर से, जज की जज से, मैनेजर की मैनेजर से होती दिख रही हैं। ऐसी शादियां सफल भी हो रही हैं। ये शादियां माता पिता नही स्वयं युवक व युवतियां तय कर रहे हैं। माता पिता तो ऐसे विवाहो के समारोहो में खुद मेहमान की भूमिका में दिखते हैं। बच्चों से संबंध रखना है तो, उनके पास इन नये कुल गोत्र जाति की शादियो को स्वीकारने के सिवाय और कोई विकल्प ही नही होता। मतलब शिक्षा, व्यवसाय, कंपनी, ने कुल, गोत्र, जाति का स्थान ले लिया है। इन वैवाहिक आयोजनो में रिश्तेदारों से अधिक दूल्हे दुल्हन के मित्र नजर आते हैं। रिश्तेदार तो बस मौके मौके पर नेग के लिये सजावट के सामान की तरह स्थापित दिखते हैं। ऐसे आयोजनो का प्रायः खर्च स्वयं वर वधू उठाते है। सामान्यतया कहा जाता था कि दूल्हे को दुल्हन मिली, बारातियो को क्या मिला ? पर मैनेजमेंट मे निपुण इस नई पीढ़ी ने ये समारोह परंपराओ से भिन्न तरीको से पांच सितारा होतलों और नये नये कांसेप्ट्स के साथ आयोजित कर सबके मनोरंजन के लिये व्यवस्थाये करने में सफलता पाई है। कोई डेस्टिनेशन मैरिज कर रहा है तो कोई थीम मैरिज आयोजित कर रहा है। ये विवाह सचमुच उत्सव बन रहे हैं। कुटुम्ब के मिलन समारोह के रूप में भी ये विवाह समारोह स्थापित हो रहे हैं। लड़कियो की शिक्षा से समाज में यह क्रांतिकारी परिवर्तन होता दिख रहा है। लड़के लड़की दोनो की साफ्टवेयर इंजीनियरिंग जैसे व्यवसायों की मल्टीनेशनल कंपनी की आय मिला दें तो वह औसत परिवारो की सकल आय से ज्यादा होती है, इसी के चलते दहेज जैसी कुप्रथा जिसके उन्मूलन हेतु सरकारी कानून भी कुछ ज्यादा नही कर सके खुद ही समाप्त हो रही है। हमारी तो पत्नी ही हम पर हुक्म चलाती है, पर इन विवाहो में सब कुछ लड़की की मरजी से ही होता दिखता है, क्योकि कुवर जी पर दुल्हन का पूरा हुक्म चलता दिखता है।

यूं तो नये समय में कालेज से निकलते निकलते ही बाय फ्रेंड, गर्ल फ्रेंड, अफेयर, ब्रेकअप इत्यादि सब होने लगा है, पर फिर भी जो कुछ युवा कालेज के दिनो में सिसियरली पढ़ते ही रहते हैं उनके विवाह तय करने में नाई, पंडित की भूमिका समाप्त प्राय है, उसकी जगह शादी डाट काम, जीवनसाथी डाट काम आदि वेब साइट्स ने ले ली है। युवा पीढ़ी एस एम एस, चैटिग, मीटिग, डेटिंग, आउटिंग से स्वयं ही अपनी शादियां तय कर रही है। सार्वजनिक तौर से हम जितना उन्मुक्त शादी के २० बरस बाद भी अपनी पिताजी की पसंद की पत्नी से नही हो पाये हैं, हनीमून पर जाने की आवश्यकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुये परस्पर उससे ज्यादा फ्री, ये वर वधू विवाह के स्वागत समारोह में नजर आते हैं। नये धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय की रचियता इस पीढ़ी को मेरा फिर फिर नमन। सच ही है समरथ को नही दोष गुसाईं। मैं इस परिवर्तन को व्यंजना, लक्षणा ही नही अमिधा में भी स्वीकार करने में सबकी भलाई समझने लगा हूं।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 12 – व्यंग्य – बरसात की रात ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  बारहवीं कड़ी में  उनका व्यंग्य   “बरसात की रात ”।  आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 12 ☆

 

☆ बरसात की रात ☆ 

 

रिमझिम रिमझिम बरसात हो रही है, गर्मागर्म पकोड़े खाये जा रहे हैं, और श्रीमती मोबाइल से फोन लगाकर ये गाना सुना रही है..

“रिमझिम बरसे बादरवा,

मस्त हवाएं आयीं,

पिया घर आजा.. आजा.. “

बार बार फोन आने से गंगू नाराज होकर बोला – देखो  अभी डिस्टर्ब नहीं करो बड़ी मुश्किल से गोटी बैठ पायी है। अभी गेटवे आफ इण्डिया में समंदर के किनारे की मस्त हवाओं का मजा लूट रहे हैं, तुम बार बार मोबाइल पर ये गाना सुनवा कर डिस्टर्ब नहीं करो, यहां तो और अच्छी सुहावनी रिमझिम बरसात चल रही है और मस्त हवाएं आ रहीं हैं और जा रहीं हैं। फेसबुक फ्रेंड मनमोहनी के साथ रिमझिम फुहारों का मजा आ रहा है। चुपचाप सो जाओ.. इसी में भलाई है, नहीं तो लिव इन रिलेशनशिप के लिए ताजमहल होटल सामने खड़ी है… बोलो क्या करना है। जीवन भर से लोन ले लेकर सब सुख सुविधाएं दे रहे हैं, एक दिन के लिए ऐश भी नहीं करने दे रही हो, जलन लग रही होगी, ये तुमसे ज्यादा सुंदर है समझे…….. ।

बरसात हो रही है और ताजमहल होटल के सामने गंगू और फेसबुक फ्रेंड भीगते हुए नाच रहे हैं गाना चल रहा है…….

“बरसात में हमसे मिले तुम,

तुम से मिले हम बरसात में, ”

जब नाचते नाचते थक गए तो गंगू बोला – गजब हो गया 70 साल से बरसात के साथ विकास नहीं बरसा और इन चार साल में बरसात के साथ विकास इतना बरसा कि सब जगह नुकसान ही नुकसान दिख रहा है। झूठ बोलो राज करो। सच कहने में अभी पाबंदी है। जोशी पड़ोसी कुछ भी बोले हम कुछ नहीं बोलेगा, मीडिया में लिखेगा तो जुल्म हो जाएगा।

चलो अच्छा पिक्चर में बैठते हैं वहां अंधेरा भी रहता है। सुनो मनमोहनी अंधेरे में चैन खींचने वाले और जेबकट बहुत रहते हैं तो ये चैन और पर्स अपने बड़े पर्स में सुरक्षित रख लो, पर्स में 20-30 हजार पड़े हैं सम्भाल कर रखना। गंगू सीधा और दयालु किस्म का है, बड़े पर्दे पर फिल्म चालू हो गई है गाना चल रहा है………

‘मुझे प्यास, मुझे प्यास लगी है

मेरी प्यास मेरी प्यास को बुझा देना…… आ….के.. बुझा…. ‘

पूरा गाना देखने के बाद गंगू बड़बड़ाते हुए बोला – बड़ी मुश्किल है मुंबई में, समुद्र में हाईटाइड का माहौल है, जमके बरसात मची है सब तरफ पानी पानी है और इसकी प्यास कोई बुझा नहीं पा रहा है सिर्फ़ चुल्लू भर पानी से प्यास बुझ जाएगी, बड़ा निर्मम शहर है, हमको तो दया आ रही है और मनमोहनी तुमको…….?  जबाब नहीं मिलने पर उसने अंधेरे में टटोला, बाजू की कुर्सी से मनमोहनी गायब थी चैन भी ले गई और पर्स भी……….

गंगू को काटो तो खून नहीं, रो पड़ा, क्या जमाना आ गया प्यार के नाम पर लुटाई….. वाह री बरसात तू गजब करती है जब प्यास लगती है तो फेसबुक फ्रेंड पर्स लेकर भगती है………. ।

पिक्चर भी गई हाथ से। पर्स चैन जाने से गंगू दुखी है बाहर चाय पीते हुए भावुकता में गाने लगा……….

“मेरे नैना सावन भादों,

फिर भी मेरा मन प्यासा, “

चाय वाला बोला गजब हो गया साब, चाय भी पी रहे हो और मन को प्यासा बता रहे हो, आपकी आंखों में सावन भादों के बादल छाये हैं और बरसात भी हो रही है तो मन प्यासा का बहाना काहे फेंक रहे हो… मन तो भीगा भीगा लग रहा है और नेताओं जैसे गधे की राग में चिल्ला रहे हो ‘मेरा मन प्यासा’……..

चाय वाले आप नहीं समझोगे…. बहुत धोखाधड़ी है इस दुनिया में….. खुद के नैयनों में बरसात मची है पर हर कोई दूसरे के नैयनों का पानी पीकर मन की प्यास बुझाना चाह रहा है। घरवाली के नयनों का पानी नहीं पी रहे हैं, बाहर वाली के नयनों के पानी से प्यास बुझाना चाहते हैं।

अरे ये फेसबुक और वाटस्अप की चैटिंग बहुत खतरनाक है यार, फेसबुक फ्रेंड से चैटिंग इस बार बहुत मंहगी पड़ गई…. रोते हुए गंगू फिर गाने लगा…………

“जिंदगी भर नहीं भूलेगी,

ये बरसात की रात,

एक अनजान हसीना से,

मुलाकात की रात, “

चाय वाला बोला – चुप जा भाई चुप जा ‘ये है बाम्बे मेरी जान…..’

दुखी गंगू रात को ही घर की तरफ चल पड़ा, रास्ते में फिल्म की शूटिंग चल रही थी, शूटिंग देखते देखते भावुकता में गाने के साथ गंगू भी नाचने लगा……..

” मेघा रे मेघा रे…….. “गाने में हीरोइन लगातार झीने – झीने कपड़ों में भीगती नाच रही है और देखने वालों का दिल लेकर अचानक अदृश्य हो जाती है म्यूजिक चलता रहता है और गंगू के साथ और लोग भी भीगते हुए नाच रहे हैं, सुबह का चार बज गया है शूटिंग बंद हो गई है, गंगू और कई लोग कंपकपाते हुए गिर गए हैं ऐम्बुलेंस आयी, सब अस्पताल में भर्ती हुए । नर्स गर्म हवा फेंकती है गंगू बेहोश है। सुबह आठ बजे सीवियर निमोनिया और इन्फेक्शन से गंगू को डाक्टर मृत घोषित कर देते हैं……….

दो घंटे बाद गंगू की शव यात्रा पान की दुकान के सामने रुकती है, पान की दुकान में गाना बज रहा है….

“टिप टिप बरसा पानी,

पानी ने आग लगाई, “

गाना सुनकर मुर्दे में हरकत हुई……. सब भूत – भूत चिल्लाते हुए बरसते पानी में भाग गए ……… ।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 12 ☆ धन्नो, बसंती और बसंत ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “धन्नो, बसंती और बसंत”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 12 ☆ 

 

 ☆ धन्नो, बसंती और बसंत ☆

 

बसंत बहुत फेमस है  पुराने समय से, बसंती भी धन्नो सहित शोले के जमाने से फेमस हो गई है । बसंत हर साल आता है, जस्ट आफ्टर विंटर. उधर कामदेव पुष्पो के बाण चलाते हैं और यहाँ मौसम सुहाना हो जाता है।  बगीचो में फूल खिल जाते हैं। हवा में मदमस्त गंध घुल जाती है। भौंरे गुनगुनाने लगते हैं। रंगबिरंगी तितलियां फूलो पर मंडराने लगती है। जंगल में मंगल होने लगता है। लोग बीबी बच्चो मित्रो सहित पिकनिक मनाने निकल पड़ते हैं।  बसंती के मन में उमंग जाग उठती है। उमंग तो धन्नो के मन में भी जागती ही होगी पर वह बेचारी हिनहिनाने के सिवाय और कुछ नया कर नही पाती।

कवि और साहित्यकार होने का भ्रम पाले हुये बुद्धिजीवियो में यह उमंग कुछ ज्यादा ही हिलोरें मारती पाई जाती है। वे बसंत को लेकर बड़े सेंसेटिव होते हैं। अपने अपने गुटों में सरस्वती पूजन के बहाने कवि गोष्ठी से लेकर साहित्यिक विमर्श के छोटे बड़े आयोजन कर डालते हैं। डायरी में बंद अपनी  पुरानी कविताओ  को समसामयिक रूपको से सजा कर बसंत के आगमन से १५ दिनो पहले ही उसे महसूस करते हुये परिमार्जित कर डालते हैं और छपने भेज देते हैं। यदि रचना छप गई तब तो इनका बसंत सही तरीके से आ जाता है वरना संपादक पर गुटबाजी के षडयंत्र का आरोप लगाकर स्वयं ही अपनी पीठ थपथपाकर दिलासा देना मजबूरी होती है। चित्रकार बसंत पर केंद्रित चित्र प्रदर्शनी के आयोजन करते हैं। कला और बसंत का नाता बड़ा गहरा  है।

बरसात होगी तो छाता निकाला ही जायेगा, ठंड पड़ेगी तो स्वेटर पहनना ही पड़ेगा, चुनाव का मौसम आयेगा, तो नेता वोट मांगने आयेंगे ही, परीक्षा का मौसम आयेगा, तो बिहार में नकल करवाने के ठेके होगें ही। दरअसल मौसम का हम पर असर पड़ना स्वाभाविक ही है। सारे फिल्मी गीत गवाह हैं कि बसंत के मौसम से दिल  वेलेंटाइन डे टाइप का हो ही जाता है। बजरंग दल वालो को भी हमारे युवाओ को संस्कार सिखाने के अवसर और पिंक ब्रिगेड को नारी स्वात्रंय के झंडे गाड़ने के स्टेटमेंट देने के मौके मिल जाते हैं। बड़े बुजुर्गो को जमाने को कोसने और दक्षिणपंथी लेखको को नैतिक लेखन के विषय मिल जाते हैं।

मेरा दार्शनिक चिंतन धन्नो को प्रकृति के मूक प्राणियो का प्रतिनिधि मानता है, बसंती आज की युवा नारी को रिप्रजेंट करती है, जो सारे आवरण फाड़कर अपनी समस्त प्रतिभा के साथ दुनिया में  छा जाना चाहती है। आखिर इंटरनेट पर एक क्लिक पर अनावृत होती सनी लिओने सी बसंतियां स्वेच्छा से ही तो यह सब कर रही हैं। बसंत प्रकृति पुरुष है। वह अपने इर्द गिर्द रगीनियां सजाना चाहता है, पर प्रगति की कांक्रीट से बनी गगनचुम्बी चुनौतियां, कारखानो के हूटर और धुंआ उगलती चिमनियां बसंत के इस प्रयास को रोकना चाहती है, बसंती के नारी सुलभ परिधान, नृत्य, रोमांटिक गायन को उसकी कमजोरी माना जाता है। बसंती के कोमल हाथो में फूल नहीं कार की स्टियरिंग थमाकर, जीन्स और टाप पहनाकर उसे जो चैलेंज जमाना दे रहा है, उसके जबाब में नेचर्स एनक्लेव बिल्डिंग के आठवें माले के फ्लैट की बालकनी में लटके गमले में गेंदे के फूल के साथ सैल्फी लेती बसंती ने दे दिया है, हमारी बसंती जानती है कि उसे बसंत और धन्नो के साथ सामंजस्य बनाते हुये कैसे बजरंग दलीय मानसिकता से जीतते हुये अपना पिंक झंडा लहराना है।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ यूज़ एंड थ्रो ☆ – श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

 

(श्रीमती छाया सक्सेना जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत है. आज प्रस्तुत है उनका व्यंग्य “यूज एंड थ्रो”. हम भविष्य में भी उनकी चुनिंदा रचनाएँ अपने पाठकों से साझा करते रहेंगे.)

 

☆ यूज़ एन्ड थ्रो ☆

 

आजकल हर चीजों की दो  केटेगरी है- यूज़ या अनयूज़ ।  कीमती लाल के तो मापदंड ही निराले हैं वो अपने अनुसार किसी की भी उपयोगिता को निर्धारित कर देते हैं ।  यदि कोई  आगे बढ़ता हुआ दिखता है तो झट से  उसे घसीट कर  बाहर कर देना और फिर उसकी जगह किसी की भी ताजपोशी कर देना  उनका प्रिय शगल है, ये बात अलग है कि  सामने वाले को रोने व अपनी बात कहने की खुली छूट होती है, यदि वो  वापस आना चाहे तो उसका भी स्वागत धूम धाम से किया जाता है बस शर्त यही कि  भविष्य में वो सच्चे सेवक का धर्म निभायेगा ।

इधर कई दिनों से निरंतर सेवकों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है और शीर्ष पर आज्ञाकारी लोगों को दो दिनों की चाँदनी का ताज दिखा कर धम से जमीन पर पटका जाता है। कोई भाग्यशाली हुआ तो आसमान से गिर कर खजूर में अटक जाता है और इतराते हुए सेल्फी लेकर फेसबुक में अपलोड कर देता है ।

चने के  झाड़ पर चढ़े हुए लोग  भी अपनी सेल्फी लेकर सबको टैग करते हुए लाइक की उम्मीद में पलके बिछाए बैठे हुए ऐसे प्रतीत होते हैं मानो  यदि  आपने पोस्ट पर ध्यान नहीं  दिया तो आपको  व्हाट्सएप में संदेश भेजकर कहेंगे जागो मोहन प्यारे  मुझे लाइक करो या न करो पोस्ट अवश्य लाइक करो ।

सही भी है यदि फेसबुक पर ही  दोस्ती नहीं निभ सकी तो ऐसे फेसबुक फ्रेंड्स का क्या फायदा , भेजो इनको कीमती लाल के  पास जो एक झटके में पटका लगा कर सबक सिखा देने की क्षमता रखते हैं ।

आजकल तो उत्सवों में भी थर्माकोल  , प्लास्टिक आदि की प्लेट, कटोरी, चम्मच , काँटे व गिलास उपयोग में आते हैं । जिन्हें इस्तेमाल किया और फेका । पानी भी बोतलों में मिलता है । जितनी भी जरूरत की चीजें हैं वो सब केवल एक ही बार उपयोग में आने हेतु बनायीं जातीं हैं ।  सिरिंज का  एक प्रयोग तो जायज है  सुरक्षा  की दृष्टि से  पर और वस्तुएँ कैसे  और कब तक बर्दाश्त  हों ।

वस्तुएँ रिसायकल  हों ये जरूर आज के समय की माँग है । बेस्ट आउट ऑफ वेस्ट की दिशा में तो आजकल बहुत कार्य हो रहा है । नगर निगम द्वारा भी जगह- जगह सूखा कचरा व गीला कचरा एकत्र करने हेतु अलग- अलग डिब्बे रखे गए हैं । दुकानों में भी हरे रिसायकल  निशान वाले कागज के बैग मिल रहे हैं । पर स्थिति जस की तस बनी हुयी है आखिर हमें आदत हो चुकी है  इस्तेमाल के बाद फेंकने की ।

ये आदतें कोई आज की देन नहीं है पुरातन काल से  यही सब चल रहा जब तक किसी से कार्य हो उसे पुरस्कार से नवाजो जैसे ही वो बेकार हुआ फेक दो । यही सब आज  प्रायवेट कंपनी कर रहीं हैं  असम्भव टारगेट देकर नवयुवकों का मनोबल तोड़ना, बात- बात पर धमकी देना और जब वो अपने को कमजोर मान लें तो अपने अनुसार काम लेना क्योंकि मन तो उनका टूट चुका जिससे वो  भी किसी योग्य हैं इस बात को भूल कर स्वामिभक्ति का राग अलापते हैं ।

आखिर कब तक ये रीति चलेगी ,  कभी तो इस पर विचार होना चाहिए या फिर एक अवधि तय होनी चाहिए  किसी भी चीज के उपयोग करने की जैसे खाद्य पदार्थों व दवाइयों की पैकिंग में लिखा रहता है  एक्सपाइरी डेट ।  रिश्तों में तो ये चलन इस कदर बढ़ गया है कि पुत्र का विवाह होते ही माता पिता की उपस्थिति अनुपयोगी हो जाती है जिसकी  वैधता समाप्ति की ओर अग्रसर होकर दम तोड़ती हुयी दिखायी देती है ।

रोजमर्रा की चीजें भी स्टेटस सिंबल बन कर रोज बदली जा रहीं हैं  गर्ल फ्रेंड  और बॉय फ्रेंड  बदलना तो मामूली बात है ।  किन- किन चीजों में बदलाव देखना होगा ये अभी तक विवादित है पर यूज़ एन्ड थ्रो तो जीवन का  अमिट हिस्सा बन शान से इतरा रहा है ।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर (म.प्र.)
मो.- 7024285788

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