हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -10 – परदेश का मोहल्ला ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 10 – परदेश का मोहल्ला ☆ श्री राकेश कुमार ☆

मोहल्ला शब्द इसलिए चुना, क्योंकि वर्तमान निवास एक विदेश की आवासीय सोसाइटी में है, जिसमें करीब पंद्रह सौ फ्लैट्स हैं। अब तो हमारे जयपुर में भी ऐसी कई सोसायटी है जिसमें एक हजार से अधिक फ्लैट्स हैं, प्रमुख रूप से गांधी पथ के पास “रंगोली” है, जिसमें भी सोलह सौ से अधिक फ्लैट्स हैं।

यहां की सोसाइटी में सभी किराये से रहते हैं। कोई कंपनी इसको विगत साठ वर्षों से किराए पर चला रही हैं। आसपास इतनी बड़ी और पंद्रह मंजिल कोई और भवन ना होने से दूर से ही दृष्टि पड़ जाती हैं। हमारे जैसे प्रवासियों को ढूंढने में कठिनाई नहीं होती हैं। वैसे आजकल तो लोग पड़ोसी के घर जाने से पहले भी गूगल से ही रास्ता पूछते हैं।

भवन बड़ा होने के कारण नगर बस सेवा भी अंदर तक सुविधा देती है,वो बात अलग है, कि यहां बहुत कम लोग बस से यात्रा करते हैं। कार पार्किंग में दो गाड़ियां खड़ी रखने का कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं हैं। बिना सोसाइटी के स्टिकर वाली गाड़ी अवश्य क्रेन द्वारा उठा दी जाती हैं। अतिथि के लिए भी अलग से पार्किंग व्यवस्था हैं। विशेष योग्य जन जिनकी गाड़ी में इस बाबत स्टिकर होता हैं, को  प्रवेश द्वार के पास आरक्षित स्थान मिलता हैं।

कार पार्किंग के लिए स्थान बहुत ही सलीके से चिन्हित किए गया हैं। कार रखना और निकलना अत्यंत सुविधा जनक हैं। कार एकदम सीधी लाइन में खड़ी देखकर अपने पाठशाला के दिन याद आ गए,जब रेखा गणित में हम स्केल की सहायता से भी सीधी रेखा नहीं खींच पाते थे। गुरुजन हमारे स्केल से ही हाथ  पर सीधी लाल लाइन खींच दिया करते थे।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 163 ☆ विद्या विनयेन शोभते- ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

बुधवार 9 नवम्बर से मार्गशीष साधना आरम्भ होगी। इसका साधना मंत्र होगा-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 163 ☆ विद्या विनयेन शोभते ☆?

मेरे लिए प्रातःभ्रमण, निरीक्षण एवं अपने आप से संवाद करने एवं आकलन का सर्वश्रेष्ठ समय होता है। रोज़ाना की कुछ किलोमीटर की ये पदयात्रा अनुभव तो समृद्ध करती ही है, मुझे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य भी प्रदान करती है।

कुछ वर्ष पहले की घटना है। टहलते हुए हिंदी माध्यम के एक विद्यालय के सामने से निकला। बड़े शहरों में भारतीय भाषाओं के माध्यम से ज्ञानदान करने वाली अधिकांश पाठशालायें अस्तित्व टिकाये रखने का संघर्ष कर रही हैं। उच्च, मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग अँग्रेज़ी माध्यम को अलादीन का चिराग मान चुका है। उन्हें लगता है कि शिक्षा-दीक्षा, नौकरी-व्यवसाय, संभ्रांत-अभिजात्य जैसा हर स्वप्न अँग्रेज़ी माध्यम में ‘इनबिल्ट’ है। इस पलायन का प्रभाव स्वाभाविक रूप से ‘वर्नाकुलर’ पाठशालाओं की इमारतों और रख-रखाव पर भी पड़ा है।

यह पाठशाला भी इसका अपवाद नहीं है। स्थिति जीर्ण-शीर्ण है। कॉर्पोरेट कल्चर के मारे इंटरनेशनल स्कूलों (अलबत्ता वे कितने अंतरराष्ट्रीय हैं, यह अनुसंधान का विषय हो सकता है) की गेट जैसा कोई प्रावधान यहाँ नहीं है। मुख्य फाटक के दो पल्लों में से एक शायद वर्षों से अपनी जगह से हिलाया भी नहीं गया है। पाठशाला को खुला या बंद दर्शाने का काम दूसरा पल्ला ही कर रहा था।

आर्थिक स्थिति का यह चित्र विद्यार्थियों में भी दिख रहा था।  कॉन्वेंट स्कूलों में वैन, स्कूल बस और ऑटोरिक्शा से उतरनेवाने स्टुडेंटस्‌ की बनिस्बत यहाँ घर से पैदल आनेवाले विद्यार्थियों की भीड़ फुटपाथ पर थी। हाँ, माध्यम कोई भी हो, बच्चों उत्साह में कोई कमी नहीं थी।

देखता हूँ कि आपस में बातचीत करती दस-बारह वर्ष की दो बच्चियाँ स्कूल के फाटक पर पहुँचीं। प्रवेश करने के पूर्व दोनों ने स्कूल की माटी मस्तक से लगाई, जैसे मंदिर में प्रवेश से पहले भक्तगण करते हैं। फिर विद्यालय में प्रवेश किया।

इंटरनेशनल और अंतर्भूत का अंतर अब स्पष्ट था। स्टुडेंट नहीं होता विद्यार्थी। दोनों के शाब्दिक अर्थ की मीमांसा करें तो सारी शंका का समाधान स्वयंमेव हो जाएगा।  ज्ञान वही जो विनय उत्पन्न करे। विद्या विनयेन शोभते। विनय समर्पण से उत्पन्न होता है। समर्पण धरती को माथा नवाता है।

मन भर आया। इच्छा हुई कि दोनों बच्चियों के चरणों में माथा नवाकर कहूँ , “बेटा आज समझ में आया कि विद्यालय को ज्ञान मंदिर क्यों कहा जाता था। ..दोनों खूब पढ़ो, खूब आगे बढ़ो!’

नयी शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं और भारतीय जीवनमूल्यों को प्रधानता देने का लक्ष्य नयी आशा उत्पन्न करता है। यह आशा इस विश्वास को बल देती है कि ये बच्चियाँ और इस भाव को जपने वाले अन्य विद्यार्थी अपने जीवन में आनेवाले उतार-चढ़ावों का बेहतर सामना कर पाएँगे।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #147 ☆ आलेख – नारी तू नारायणी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 147 ☆

☆ ‌आलेख – नारी तू नारायणी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

नारी युगों-युगों से मानव समाज द्वारा विभिन्न रूपों में पूजित रही है। उसने अनेक रूपों में बार-बार मानव समाज की संकटों से रक्षा की है। कभी सहधर्मिणी बन  जीवन साथी के साथ कंधा मिलाकर कर सीता और द्रौपदी के रूप में वन-वन भटकी है, तो कभी दुर्गा, काली, लक्ष्मी, गौरी, सरस्वती के रूप में पूजनीय रही है। वह अपनी दया, करूणा, सृजनशीलता, सहनशीलता आदि गुणों के चलते सदैव एक इतिहास रचती रही है। उसके इन्हीं गुणों के

चलते  देवताओं तक ने नारी का सम्मान किया।  नारी के बारे में संस्कृत का यह सूत्र वाक्य बहुत कुछ बतला देता है।

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।

इतना ही नहीं अध्ययन की और गहराई में जाए तो पाते हैं कि हर युग में नारी का स्थान सर्वोपरि रहा है, कभी शिव ने हृदय से नारी को अंगीकार किया और अर्द्धनारीश्वर कहलाए। तो वहीं पर समुद्र मंथन के बाद विष्णु जी ने नारी को अंगीकार कर उसे विष्णुप्रिया का पद दिलाया। तो वहीं पर राम के साथ सीता के रूप में, वन-वन कर्म पथ पर चली, तो राधा के रूप में कृष्ण के हृदय में विराजित नारी अपनी त्याग तथा श्रद्धा समर्पण के बल पर कृष्ण की हृदयेश्वरी बन जाती है। तो कभी वर्तमान समय में नारी दुर्गा, काली, सरस्वती, लक्ष्मी के रूप दीवाली दशहरे पर शक्ति स्वरूपा बन आवाहित एवं पूजित होती दिखती है। लेकिन नारी समाज का दूसरा पहलू भी है, जो अपने अध्ययन काल में हमने देखा, नारी पुरुष प्रधान समाज द्वारा उपेक्षित तथा पीड़ित भी रही है। उसे हृदयंगम करने वाला मानव समाज कभी उसे अबला के संबोधन से हतोत्साहित करता है तो  कभी कर्तव्य बलिवेदी पर चढ़ा जुए में हार जाता है तो कभी अग्नि परीक्षा लेकर उसके चरित्र पर संदेह प्रकट किया जाता रहा है। और निरपराध गर्भिणी नारी को बन बन भटकने पर मजबूर किया जाता रहा है। कभी नारी को प्रियतमा मान साथ-साथ जीने मरने की कसमें खाने वाला जो खुद प्यार की पूजा में ताज महल बनवाने तथा स्मृति शेष बनवाने वाला मानव किसी नारी को प्रेम करते देख ईर्ष्या से जल उठता है। ज्यों ही नारी अपने प्रेम का इजहार करती है पुरुष प्रधान समाज उसे  अपने मान सम्मान से जोड़ते हुए नारी का दुश्मन बन जाता है। और सारे रिश्ते भुला कर  उसकी हत्या करवा देता है। जब कि नारी हमेशा से ही धन, वैभव, सुख, शांति, समृद्धि, विद्या की देवी सर्व मंगलकारिणी के रूप में समाज के सर्वोच्च पद पर स्थापित रही है। लेकिन आज के व्यावसायिक युग में नारी के रूप तथा सौंदर्य को भुनाया व बेचा जा रहा है, उसे उपभोग की सामग्री मान लिया गया है। मानव समाज उसे अपनी लिप्सा पूर्ति का साधन समझ बैठा है।

आज देवताओं द्वारा पूजित नारी सबसे ज्यादा पीड़ित दुखी एवम् उपेक्षित है। पुरूष तो पुरुष आज तो नारी ही नारी समाज की दुश्मन बनी भ्रूण हत्या पर उतारू हैं। और पुरुष समाज के कंधे से कंधा मिलाकर जघन्य कृत्य में सहभागिता कर रही है।

आज के नर नारी समाज को शायद यह पता नहीं है कि जब कोख ही नहीं रहेगी तो वंश वृद्धि कैसे होगी। आखिर कब हमारा समाज नारी रूपी नारायणी का सम्मान उसे वापस दिलाएगा। याद रखिए जहां नारी शक्ति सम्मानित होती है वहां सुख शांति समृद्धि के साथ-साथ सदैव मंगल ही मंगल होता है। जहां नारी की उपेक्षा होती है वहां हिंसा द्वेष  कलह का तांडव होता है। जीवन नारकीय बन जाता है। इस लिए आज जरूरत है नारी समाज को सम्मान देते हुए पारिवारिक जीवन सुखमय बनाने की।

और अंत में

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

दिनांक 23–10–22  समय-12-10-22

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #157 ☆परिस्थितियाँ व पुरुषार्थ ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख परिस्थितियाँ व पुरुषार्थ । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 157 ☆

परिस्थितियाँ व पुरुषार्थ ☆

‘पुरुषार्थ से दरिद्रता का नाश होता है; जप से पाप दूर होता है; मौन से कलह की उत्पत्ति नहीं होती और सजगता से भय नहीं होता’ चाणक्य की इस उक्ति में जीवन-दर्शन निहित है। मौन व सजगता जीवन की अनमोल निधियां हैं। मौन से कलह का दूर का भी नाता नहीं है, क्योंकि मौन को नवनिधि की संज्ञा से अभीहित किया जाता है। मौन रहना सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ है, जिससे बड़ी से बड़ी समस्या का स्वत: समाधान हो जाता है,  क्योंकि जब एक व्यक्ति क्रोधवश अपना आपा खो बैठता है और दूसरा उसका उत्तर अर्थात् प्रतिक्रिया नहीं देता, तो वह भी शांत हो जाता है और कुछ समय पश्चात् उसका कारग़र उपाय अवश्य प्राप्त हो जाता है।

सजगता से भय नहीं होता से तात्पर्य है कि जो व्यक्ति सजग व सचेत होता है, उसे आगामी आपदा व बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ता। दूसरे शब्दों में वह हर कदम फूंक-फूंक कर रखता है, क्योंकि वह व्यर्थ में कोई भी खतरा मोल लेना नहीं चाहता। वह भविष्य के प्रति सजग रहते हुए वर्तमान के सभी कार्य व योजनाओं को अंजाम देता है। सो! मानव को भावावेश में कोई भी निर्णय नहीं लेना चाहिए, बल्कि हर स्थिति में विवेक से निर्णय लेना चाहिए अर्थात् किसी कार्य को प्रारंभ करने से पहले मानव को उसके सभी पहलुओं पर विचार-विमर्श व चिंतन-मनन करने के पश्चात् ही उसे करने का मन बनाना चाहिए। उस स्थिति में उसे भय व शंकाओं का सामना नहीं करना पड़ता। वह निर्भय व नि:शंक होता है तथा उसका तनाव व अवसाद से कोसों दूर का भी नाता नहीं रहता। उसका हृदय सदैव आत्मविश्वास से आप्लावित रहता है तथा वह साहसपूर्वक विषम परिस्थितियों का सामना करने में समर्थ होता है। सो! पुरुषार्थ से दरिद्रता का नाश होता है, क्योंकि जो व्यक्ति साहसी व निर्भीक होता है, उसे अपने परिश्रम पर भरोसा होता है और वह सदैव आत्मविश्वास से लबरेज़ रहता है।

सुखी जीवन जीने के लिए मानव को यह सीख दी गयी है कि ‘अतीत की चिंता मत करो; भविष्य पर विश्वास न करो और वर्तमान के महत्व को स्वीकारते हुए उसे व्यर्थ मत जाने दो।’ दूसरे शब्दों में अतीत अर्थात् जो गुज़र गया, लौटकर नहीं आता। इसलिए उसकी चिंता करना व्यर्थ है। भविष्य अनिश्चित है, जिससे सब अनजान हैं। यह शाश्वत् सत्य है कि संसार में कोई भी प्राणी इस तथ्य से अवगत नहीं होता कि कल क्या होने वाला है? इसलिए सपनों के महल सजाते रहना मात्र आत्म-प्रवंचना है। परंतु मूर्ख मानव सदैव इस ऊहापोह में उलझा रहता है। सो! संशय अथवा उधेड़बुन में उलझे रहना उसके जीवन का दुर्भाग्य है। ऐसा व्यक्ति अतीत या भविष्य के ताने-बाने में उलझा रहता है और अपने वर्तमान पर प्रश्नचिह्न लगा देता है। सो! वह संशय अनिश्चय अथवा किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति से मुक्ति नहीं प्राप्त सकता। वह सदैव अधर में लटका रहता है और उसका कोई कार्य समय पर संपन्न नहीं होता। वह भाग्यवादी होने के कारण दरिद्रता के चंगुल में फंसा रहता है और सफलता से उसका दूर का संबंध भी नहीं रहता।

कबीरदास जी का यह दोहा ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब/ पल में प्रलय होएगी, मूर्ख करेगा कब’  वर्तमान की महत्ता को दर्शाता है और वे मानव को सचेत करते हुए कहते हैं कि कल कभी आता नहीं। इसलिए मानव को वर्तमान में सब कार्यों को संपन्न कर लेना चाहिए और आगामी कल के भरोसे पर कोई भी काम नहीं छोड़ना चाहिए। यह सफलता प्राप्ति के मार्ग में प्रमुख अवरोध है। दूसरी ओर समय से पहले व भाग्य से अधिक मानव को कभी कुछ भी प्राप्त नहीं होता। ‘माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय’ द्वारा भी यह संदेश प्रेषित है कि समय आने पर ही सब कार्य संपन्न होते हैं।

‘सुमिरन कर ले बंदे! यही तेरे साथ जाएगा’ स्वरचित गीत की ये पंक्तियाँ मानव को प्रभु का नाम स्मरण करने को प्रेरित करती हैं, क्योंकि यह मुक्ति पाने का सर्वश्रेष्ठ साधन है। इंसान संसार में खाली हाथ आता है और उसे खाली हाथ ही जाना है। परंतु जप व नाम-स्मरण से पापों का नाश होता है। वह मृत्यु के उपरांत भी मानव के साथ जाता है और जन्म-जन्मांतर तक उसका साथ निभाता है। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख्स यहां है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जाएगा’ स्वरचित गीत की पंक्तियों से तात्पर्य है कि जो व्यक्ति स्व में केंद्रित व आत्म-मुग्धावस्था में जीना सीख जाता है; उसे ज़माने भर की अलौकिक खुशियाँ प्राप्त हो जाती हैं।

मानव जीवन क्षणभंगुर है और संसार मिथ्या है। परंतु वह माया के कारण सत्य भासता है। सब रिश्ते-नाते झूठे हैं और एक प्रभु का नाम ही सच्चा है, जिसे पाने के लिए मानव को पंच विकारों काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार से मुक्ति पाना आवश्यक है, क्योंकि वही मानव को लख चौरासी से मुक्त कराता है। परंतु यह मानव की नियति है कि वह दु:ख में तो प्रभु का नाम स्मरण करता है, परंतु सुख में उसे भुला देता है। इसीलिए कबीरदास जी सुख में उस अलौकिक सत्ता को स्मरण करने का संदेश देते हैं, ताकि दु:ख उसके जीवन में पदार्पण करने का साहस ही न जुटा सके।

सुख, स्नेह, प्रेम, सौहार्द त्याग में निहित है अर्थात् जिन लोगों में उपरोक्त दैवीय गुण संचित होते हैं, उन्हें सुखों की प्राप्ति होती है और शेष उनसे वंचित रह जाते हैं। रहीम जी प्रेम की महत्ता बखान करते हुए कहते हैं ‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय/ टूटे से फिर ना जुरै, जुरै ते गांठ परि जाए।’ मानव को प्रत्येक कार्य नि:स्वार्थ भाव से करना चाहिए और गीता में भी निष्काम कर्म का संदेश प्रषित है, क्योंकि मानव को कर्म करने का अधिकार है; फल की इच्छा करने का नहीं है। जो संसार में जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है। इसलिए मानव को सत्कर्म व सत्संग करना चाहिए, क्योंकि यही मानव की कुंजी है। इंसान इस संसार में खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ लौट जाना है। इसलिए मानव को माया-मोह व राग-द्वेष के बंधनों का त्याग कर प्रभु से लौ लगानी चाहिए।

जीवन संघर्ष का पर्याय है। जो व्यक्ति पुरुषार्थी व परिश्रमी है; जीवन में सदैव सफलता प्राप्त करता है और वह कभी भी दरिद्र नहीं हो सकता। जो मौन साधना करता है; विवादों से दूर रहता है, क्योंकि संवाद संबंधों में स्थायित्व प्रदान करते हैं। संवाद संवेदनशीलता का प्रतीक हैं, परंतु उनमें सजगता की अहम् भूमिका है। रिश्तों में माधुर्य व विश्वास होना आवश्यक है। सो! हमें रिश्तों की अहमियत को स्वीकारना चाहिए। परंतु जब रिश्तों में कटुता आ जाती है, तो वे नासूर बन सालने लगते हैं। इससे हमारा सुक़ून सदा के लिए नष्ट हो जाता है। इसलिए हमें दूरदर्शी होना चाहिए और हर कार्य को सोच-समझकर अंजाम देना चाहिए। लीक पर चलने का कोई औचित्य नहीं है और अपनी राह का निर्माण स्वयं करना श्रेयस्कर है। इतना ही नहीं, हमें तीसरे विकल्प की ओर भी ध्यान देना चाहिए और निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए। स्वामी रामतीर्थ के अनुसार प्रत्येक कार्य को हिम्मत व शांति से करो, यही सफलता का साधन है अर्थात् मानव को शांत मन से निर्णय लेना चाहिए तथा साहस व धैर्यपूर्वक प्रत्येक कार्य को संपन्न करना चाहिए। जो व्यक्ति सजगता व तल्लीनता से कार्य करता है और प्रभु नाम का स्मरण करता है– उसके सभी कार्य संपन्न होते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -9 – परदेश में स्वदेश ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 9 – परदेश में स्वदेश  ☆ श्री राकेश कुमार ☆

खरीदारी अब आवश्यकता के स्थान पर आनंद (मज़ा) प्राप्त करने का साधन होती जा रही हैं। यात्रा के वातानुकूलित साधन, सजे हुए बाज़ार, जेब में रखे हुएं नाना प्रकार के उधार कार्ड, शायद ये ही वर्तमान है।

हम को बचपन से ही एक बात बताई गई थी कि “जितनी चादर हो उतने पैर पसारने चाहिए” शायद अब ये शिक्षा समय के साथ दफ़न हो चुकी है।

घर के उपयोग की स्वदेशी वस्तुएं किराना इत्यादि का सामान परदेश में भी उपलब्ध करवाने  के लिए पचास वर्ष पूर्व अमेरिका में पटेल परिवारों ने गुजरात से आकर यहां के विभिन्न शहरों में अपनी दुकानें स्थापित कर दी हैं। स्वदेशी समान में भारत निर्मित बिस्कुट (पारले-जी, गुड डे) नमकीन, क्या कुछ नहीं विक्रय करते हैं, पटेल की दुकानों पर, सब्जी, मसाले, पूजा सामग्री इत्यादि की उपलब्धता देश के स्वाद और जीवन शैली को जीवित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहीं हैं।

वहां गर्म समोसे “पंजाबी समोसे” के नाम से उपलब्ध थे। हमे मुम्बई की याद आ गई, वहां भी बड़े आकार के समोसे को पंजाबी समोसे के नाम से विक्रय किया जाता है। उत्तर और मध्य भारत में भी सिर्फ समोसा नाम ही चलता हैं। पूर्वी भाग में अवश्य सिंघाड़े के नाम से सेवन किया जाता हैं। यहां पर गुड और अदरक के बेकरी में निर्मित बिस्कुट भी मिल रहे थे। देश में भी दूरबीन से ढूंढने से भी नहीं मिलते हैं। हजारों मील दूर पूरे देश की विभिन्न वस्तुएं उपलब्ध करवाने के लिए पटेल बंधुओं की लगन और मेहनत को सलाम।

इन के अलावा भी “इंडियन स्पाइस स्टोर” के नाम से अधिकतर दक्षिण भारतीय भी  देश की परंपराएं और स्वाद को बरकरार रखने में सहयोग कर रहे हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 162 ☆ वासुदेव: सर्वम्- ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 162 ☆ वासुदेव: सर्वम्- ☆?

अपौरूषेय आदिग्रंथ ऋग्वेद का उद्घोष है-

॥ सं. गच्छध्वम् सं वदध्वम्॥

( 10.181.2)

अर्थात साथ चलें, साथ (समूह में) बोलें।

ऋग्वेद द्वारा प्रतिपादित सामूहिकता का मंत्र मानुषिकता एवं एकात्मता का प्रथम अधिकृत संस्करण है।

अथर्ववेद एकात्मता के इसी तत्व के मूलबिंदु तक जाता है-

॥ मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा।

सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥2॥

(3.30.3)

अर्थात भाई, भाई से द्वेष न करे, बहन, बहन से द्वेष न करे, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें। 

आधुनिक विज्ञान जब मनुष्य के क्रमिक विकास की बात करता है तो शनै:-शनै: एक से अनेक होने की प्रक्रिया और सिद्धांत प्रतिपादित करता है। उससे हजारों वर्ष पूर्व भारतीय दर्शन और ज्ञान के पुंज भारतीय महर्षि एकात्मता का विराट भारतीय दर्शन लेकर आ चुके थे। महोपनिषद का यह श्लोक सारे सिद्धांतों और सारी थिअरीज की तुलना में विराट की पराकाष्ठा है।

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

( अध्याय 4, श्लोक 71)

अर्थात यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।

मनुष्य की सामाजिकता और सामासिकता का विराट दर्शन है भारतीय संस्कृति। ’ॐ सह नाववतु’ गुरु- शिष्य द्वारा एक साथ की जाती प्रार्थना में एकात्मता का जो आविर्भाव है वह विश्व की अन्य किसी भी सभ्यता में देखने को नहीं मिलेगा। कठोपनिषद में तत्सम्बंधी श्लोक देखिये-

॥ ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥19॥

अर्थात परमेश्वर हम (शिष्य और आचार्य) दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।

इस तरह की सदाशयी भावना रखने वाले का मन निर्मल रहता है। निर्मल मन से निर्मल भविष्य का उदय होता है। उदय और अस्त का परम अद्वैत दर्शन है श्रीमद्भागवत गीता। गीता में स्वयं योगेश्वर कहते हैं-

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥

(गीता 10।39)

अर्थात, हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है, वह मैं ही हूँ। मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है।

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।

मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥

(11/ 7)

अर्थात, हे अर्जुन! तू मेरे इस शरीर में एक स्थान में चर-अचर सृष्टि सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देख और अन्य कुछ भी तू देखना चाहता है उन्हे भी देख।

एकात्म भाव का विस्तृत विवेचन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥

(6।30)

अर्थात् जो सबमें मुझको देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।’

इस अदृश्य का यह सारगर्भित दृश्य समझिये इस उवाच से-

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।

प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम॥

अर्थात जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में व्यापक होने पर भी उससे संपृक्त हूँ।

संपृक्त श्रीमद्भागवत के इस अनहद नाद को सुनिए-

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम।

पश्चादहं यदेतच्च योडवशिष्येत सोडस्म्यहम

 (2।9।32)

अर्थात सृष्टि के पूर्व भी मैं ही था, मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था और सृष्टि के उत्पन्न होने के बाद जो कुछ भी यह दिखायी दे रहा है, वह मैं ही हूँ। जो सत्, असत् और उससे परे है, वह सब मैं ही हूँ तथा सृष्टि के बाद भी मैं ही हूँ एवं इन सबका नाश हो जाने पर जो कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही हूँ।  

सांगोपांग सार है, ‘वासुदेव: सर्वम्।’ चर हो या अचर, वासुदेव के सिवा जगत में दूसरा कोई नहीं है। अत: कहा गया, चराचर में एक ही आत्मा देख, एकात्म हो।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #146 ☆ आलेख – प्रायश्चित ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 146 ☆

☆ ‌आलेख – प्रायश्चित ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

आप ने आलेखों की श्रृंखला में पश्चाताप शीर्षक से आलेख पढ़ा था, जिसकी विषयवस्तु थी  कि किस प्रकार  मानव यथार्थ का ज्ञान होने पर अपनी गलतियों पर पश्चाताप करता है, और पश्चाताप की अग्नि में जल कर व्यक्ति के सारे अवगुण नष्ट हो जाते हैं। 

उसकी अंतरात्मा की गई गलतियों के लिए उसे हर पल कोसती रहती है आदमी का सुख चैन छिन जाता है, और वह अपनी आत्मा के धिक्कार को सह नहीं पाता । और इंसान प्रायश्चित करने के रास्ते पर चल पड़ता है अपने कर्मों का आत्म निरीक्षण करता है। इस प्रकार पश्चाताप जहां जहां गलतियों की स्वीकारोक्ति है, वहीं प्रायश्चित स्वीकार्यता का परिमार्जन अर्थात् सुधार है। इंसानी सोच बदल जाती है दशा और दिशा बदल जाती है। उसकी समझ बढ़ जाती है। उसके बाद इंसान फिर से गलतियां ना करने का दृढ़ संकल्प लेता है, तथा अपनी पूर्ववर्ती गलतियों का प्रायश्चित करने पर उतर आता है, और प्रायश्चित पूर्ण करने के लिए हर सजा भुगतने के लिए मानसिक रूप से खुद को तैयार कर लेता है।

या प्रकारांतर से ये कह लें कि प्रायश्चित  गलतियों को सुधारने के  अवसर का नाम है।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

दिनांक 23–10–22  समय-12-10-22

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #156 ☆ शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 156 ☆

☆ शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा ☆

‘शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा कर देते हैं वह काम/ हो जाता है जिससे इंसान का जग में नाम/ और ज़िंदगी हो जाती आसान।’ जी हां! यही सत्य है जीवन का– शिकायत स्वयं से हो या दूसरों से; दोनों का परिणाम विनाशकारी होता है। यदि आप दूसरों से शिकायत करते हैं, तो उनका नाराज़ होना लाज़िमी है और यदि शिकायत आपको ख़ुद से है, तो उसके अनापेक्षित प्रतिक्रिया व परिणाम कल्पनातीत घातक हैं। अक्सर ऐसा व्यक्ति तुरंत प्रतिक्रिया देकर अपने मन की भड़ास निकाल लेता है, जिससे आपके हृदय को ठेस ही नहीं लगती; आत्मसम्मान भी आहत होता है। कई बार अकारण राई का पहाड़ बन जाता है। तलवारें तक खिंच जाती हैं और दोनों एक-दूसरे की जान तक लेने को उतारू हो जाते हैं। यदि हम विपरीत स्थिति पर दृष्टिपात करें, तो आपको शिकायत स्वयं रहती है और आप अकारण स्वयं को ही दोषी समझना प्रारंभ कर देते हैं उस कर्म या अपराध के लिए, जो आपने सायास या अनायास किया ही नहीं होता। परंतु आप वह सब सोचते रहते हैं और उसी उधेड़बुन में मग्न रहते हैं।

परंतु जिस व्यक्ति को शिक़ायतें कम होती हैं से तात्पर्य है कि वह आत्मकेंद्रित व आत्मसंतोषी प्राणी है तथा अपने इतर किसी के बारे में सोचता ही नहीं; आत्मलीन रहता है। ऐसा व्यक्ति हर बात का श्रेय दूसरों को देता है तथा विजय का सेहरा दूसरों के सिर पर बाँधता है। सो! उसके सब कार्य संपन्न हो जाते हैं और जग में उसके नाम का ही डंका बजता है। सब लोग उसके पीछे भी उसकी तारीफ़ करते हैं। वास्तव में प्रशंसा वही होती है, जो मानव की अनुपस्थिति में भी की जाए और वह सब आपके मित्र, स्नेही, सुहृद व दोस्त ही कर सकते हैं, क्योंकि वे आपके सबसे बड़े हितैषी होते हैं। ऐसे लोग बहुत कठिनाई से मिलते हैं और उन्हें तलाशना पड़ता है। इतना ही नहीं, उन्हें सहेजना पड़ता है तथा उन पर ख़ुद से बढ़कर विश्वास करना पड़ता है, क्योंकि दोस्ती में शक़, संदेह, संशय व शंका का स्थान नहीं होता।

‘हालात सिखाते हैं बातें सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह ही होता है’ गुलज़ार का यह कथन संतुलित मानव की वैयक्तिक विशेषताओं पर प्रकाश डालता है कि परिस्थितियाँ ही मन:स्थितियों को निर्मित करती हैं। हालात ही मानव को सुनना व सहना सिखाते हैं, परंतु ऐसा विपरीत परिस्थितियों में होता है। यदि समय अनुकूल है, तो दुश्मन भी दोस्त बन जाते हैं, अन्यथा अपने भी अकारण पराए बनकर दुश्मनी निभाते हैं। अक्सर अपने ही अपनों की पीठ में छुरा घोंपते हैं, क्योंकि वे उनके हर रहस्य से अवगत होते हैं और उनके क्रियाकलापों से परिचित होते हैं।

इसलिए हमें दूसरों से नहीं, अपनों से भयभीत रहना चाहिए। अपने ही, अपनों को सबसे अधिक हानि पहुंचाते हैं, क्योंकि दूसरों से आपसे कुछ भी लेना-देना नहीं होता। सो! मानव को शिकायतें नहीं, शुक्रिया अदा करना चाहिए। ऐसे लोग विनम्र व संवेदनशील होते हैं। वे स्व-पर से ऊपर होते हैं; सबको समान दृष्टि से देखते हैं और उनके सब कार्य स्वत: संपन्न हो जाते हैं, क्योंकि सबकी डोर सृष्टि-नियंता के हाथ में होती है। हम सब तो उसके हाथों की कठपुतलियाँ हैं। ‘वही करता है, वही कराता है/ मूर्ख इंसान तो व्यर्थ ही स्वयं पर इतराता है।’ उस सृष्टि-नियंता की करुणा-कृपा के बिना तो पत्ता तक भी नहीं हिल सकता। सो! मानव को उसकी सत्ता के सम्मुख सदैव नतमस्तक होना पड़ता है, क्योंकि शिकायत करने व दूसरों पर दोषारोपण करने का कोई लाभ व औचित्य नहीं होता; वह निष्प्रयोजन होता है।

‘मोहे तो एक भरोसो राम’ और ‘क्यों देर लगा दी कान्हा, कब से राह निहारूँ’ अर्थात् जो व्यक्ति उस परम सत्ता में विश्वास कर निष्काम कर्म करता है, उसके सब कार्य स्वत: संपन्न हो जाते हैं। आस्था, विश्वास व निष्ठा मानव का सर्वोत्कृष्ट गुण है। ‘तुलसी साथी विपद के, विद्या, विनय, विवेक’ अर्थात् जो व्यक्ति विपत्ति में विवेक से काम करता है; संतुलन बनाए रखता है; विनम्रता को धारण किए रखता है; निर्णय लेने से पहले उसके पक्ष-विपक्ष, उपयोगिता-अनुपयोगिता व लाभ-हानि के बारे में सोच-विचार करता है, उसे कभी भी पराजय का मुख नहीं देखना पड़ता। दूसरे शब्दों में जो व्यक्ति अपने अहम् का त्याग कर देता है, वही व्यक्ति संसार में श्रद्धेय व पूजनीय हो जाता है व संसार में उसका नाम हो जाता है। सो! मानव को अहम् अर्थात् मैं, मैं और सिर्फ़ मैं के व्यूह से बाहर निकलना अपेक्षित है, क्योंकि व्यक्ति का अहम् ही सभी दु:खों का मूल कारण है। सुख की स्थिति में वह उसे सबसे अलग-थलग और कर देता है और दु:ख में कोई भी उसके निकट नहीं आना चाहता। इसलिए यह दोनों स्थितियाँ बहुत भयावह व घातक हैं।

चाणक्य के मतानुसार ‘ईश्वर चित्र में नहीं, चरित्र में बसता है। इसलिए अपनी आत्मा को मंदिर बनाओ।’ युधिष्ठर जीवन में काम, क्रोध व लोभ छोड़ने पर बल देते हुए कहते हैं कि ‘अहंकार का त्याग कर देने से मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है; क्रोध छोड़ देने से  शोक रहित हो जाता है; काम का त्याग कर देने पर धनवान और लोभ छोड़ देने पर सुखी हो जाता है।’ परंतु यदि हम आसन्न तूफ़ानों के प्रति सचेत रहते हैं, तो हम शांत, सुखी व सुरक्षित जीवन जी सकते हैं। सो! मानव को अपना व्यवहार सागर की भांति नहीं रखना चाहिए, क्योंकि सागर में भले ही अथाह जल का भंडार होता है, परंतु उसका खारा जल किसी के काम नहीं आता। उसका व्यक्तित्व व व्यवहार नदी के शीतल जल की भांति होना चाहिए, जो दूसरों के काम आता है तथा नदी में अहम् नहीं होता; वह निरंतर बहती रहती है और अंत में सागर में विलीन हो जाती है। मानव को अहंनिष्ठ नहीं होना चाहिए, ताकि वह विषम परिस्थितियों का सामना कर सके और सबके साथ मिलजुल कर रह सके।

‘आओ! मिल जाएं हम सुगंध और सुमन की तरह,’ मेरे गीत की पंक्तियाँ इस भाव को अभिव्यक्त करती हैं कि मानव का व्यवहार भी कोमल, विनम्र, मधुर व हर दिल अज़ीज़ होना चाहिए। वह जब तक वहाँ रहे, लोग उससे प्रेम करें और उसके जाने के पश्चात् उसका स्मरण करें। आप ऐसा क़िरदार प्रस्तुत करें कि आपके जाने के पश्चात् भी मंच पर तालियाँ बजती रहें अर्थात् आप जहाँ भी हैं–अपनी महक से सारे वातावरण को सुवासित करते रहें। सो! जीवन में विवाद नहीं; संवाद में विश्वास रखिए– सब आपके प्रिय बने रहेंगे। मानव को जीवन में सामंजस्यता की राह को अपनाना चाहिए; समन्वय रखना चाहिए। ज्ञान व क्रिया में समन्वय होने पर ही इच्छाओं की पूर्ति संभव है, अन्यथा जीवन कुरुक्षेत्र बन जाएगा। जहां स्नेह, त्याग व समर्पण ‘होता है, वहां समभाव अर्थात् रामायण होती है और जहां इच्छाओं की लंबी फेहरिस्त होती है, संघर्ष व महाभारत होता है।

मानव के लिए बढ़ती इच्छाओं पर अंकुश लगाना आवश्यक है, ताकि जीवन में आत्मसंतोष बना रहे, क्योंकि उससे जीवन में आत्म-नियंत्रण होगा। फलत: आत्म-संतोष स्वत: आ जाएगा और जीवन में न संघर्ष न होगा; न ही ऊहापोह की स्थिति होगी। मानव अपेक्षा और उपेक्षा के न रहने पर स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठ जाएगा। यही है जीने की सही राह व सर्वोत्तम कला। सो! मानव को चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए; सुख-दु:ख में सम रहना चाहिए क्योंकि इनका चोली दामन का साथ है। मानव को हर परिस्थिति में सम रहना चाहिए। समय सदैव एक-सा नहीं रहता। प्रकृति भी पल-पल रंग बदलती है। जो इस संसार में आया है; उसका अंत अवश्यंभावी है। इंसान आया भी अकेला है और उसे अकेले ही जाना है। इसलिए ग़िले-शिक़वे व शिकायतों का अंबार लगाने से बेहतर है– जो मिला है मालिक का शुक्रिया अदा कीजिए तथा जीवन में सब के प्रति आभार व्यक्त कीजिए; ज़िंदगी खुशी से कटेगी, अन्यथा आप जीवन-भर दु:खी रहेंगे। कोई आपके सान्निध्य में रहना भी पसंद नहीं करेगा। इसलिए ‘जीओ और जीने दो’ के सिद्धांत का अनुसरण कीजिए, ज़िंदगी उत्सव बन जाएगी।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -8 – परदेश के भोजनालय ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 8 – परदेश के भोजनालय ☆ श्री राकेश कुमार ☆

घर से बाहर जाकर भोजन ग्रहण करना हमारी संस्कृति की परंपरा कभी भी नहीं थी।

औद्योगिकीकरण के चलते जब लोग रोज़ी रोटी अर्जित करने के लिए दूर दराज के क्षेत्रों में जाने लगे तब से इनका चलन आरंभ हुआ था।

अस्सी के दशक में माध्यम श्रेणी के शहरों में भी ये साधारण बात हो चली थी। लोग माह में एक बार परिवार/ मित्रों के साथ भोजन के लिए बाहर जाने लगे थे। अब तो  बात सप्ताह में एक बार बाहर भोजन करने की हो गई है। इसके पीछे एक कारण पति पत्नी दोनों का रोज़गार में होना, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हो जाती है और सप्ताह भर कार्यालय में रहने के पश्चात महिला भी कुछ आराम/ परिवर्तन चाहती हैं।

यहां विदेश आने के पश्चात सर्वप्रथम दक्षिण भारतीय भोजनालय “थलाइवा” जाने का अवसर प्राप्त हुआ, तो ऑर्डर लेने वाले ने छोटे से यंत्र (बैंक कार्ड स्वाइप करने जैसी) में लिख कर रसोई में सांझा कर दिया। समय रात्रि के साढ़े सात हुआ था, उसने स्पष्ट बता दिया की भोजनालय ठीक आठ बजे बंद हो जायेगा, इसलिए पूरा ऑर्डर दे देवें। यहां के अधिकतर भोजनालय शाम पांच बजे से रात्रि भोज (डिनर) आरंभ कर आठ बजे तक बढ़ा (बंद) देते हैं। शायद हमारे जैन समुदाय के सूर्यास्त पूर्व भोजन करने के लाभ की जानकारी इनको भी है। भुगतान के समय यहां पर टिप देना आवश्यक होता है। बिल के नीचे आप के द्वारा दी जाने वाली राशि अंकित कर हस्ताक्षर कर दिए जाते है, जिसका कार्ड के माध्यम से भुगतान हो जाता है। इस भोजनालय के परोसिए ने धीरे से कहा हो सके तो टिप नगद ही दे देवें और बिल में अंकित नहीं करें, ताकि पूरी राशि का लाभ उसे मिल सके। ऐसा विदेश के देसी भोजनालय में ही संभव हो सकता हैं। हमारे लोग छोटी मोटी हेरा फेरी से ही प्रसन्न हो जाते हैं। अमेरिका जैसा देश अपने हथियार और फार्मा उद्योग से पूरे विश्व को वर्षों से लूट कर सिरमौर बना हुआ हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 161 ☆ तमसो मा ज्योतिर्गमय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 161 ☆ तमसो मा ज्योतिर्गमय ☆?

दीपावली, भारतीय लोकजीवन का सबसे बड़ा त्योहार है। कार्तिक मास की अमावस्या को सम्पन्न होने वाले इस पर्व में घर-घर दीप जलाये जाते हैं। अपने घर में प्रकाश करना मनुष्य की सहज और स्वाभाविक वृत्ति है किंतु घर के साथ परिसर को आलोकित करना उदात्तता है। शतपथ ब्राह्मण का उद्घोष है,

असतो मा सद्गमय,
तमसो मा ज्योतिर्गमय,
मृत्योर्मामृतं गमय…!

‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ से भौतिक संसार में प्रकाश का विस्तार भी अभिप्रेत है। हर दीप अपने स्तर पर प्रकाश देता है पर असंख्य दीपक सामूहिक रूप से जब साथ आते हैं तो अमावस्या दीपावली हो जाती है।

इन पंक्तियों के लेखक की दीपावली पर एक चर्चित कविता है, जिसे विनम्रता से साझा कर रहा हूँ,

अँधेरा मुझे डराता रहा,
हर अँधेरे के विरुद्ध
एक दीप मैं जलाता रहा,
उजास की मेरी मुहिम
शनै:-शनै: रंग लाई,
अनगिन दीयों से
रात झिलमिलाई,
सिर पर पैर रख
अँधेरा पलायन कर गया
और इस अमावस
मैंने दीपावली मनाई !

कथनी और करनी दो भिन्न शब्द हैं। इन दोनों का अर्थ जिसने जीवन में अभिन्न कर लिया, वह मानव से देवता हो गया। सामूहिक प्रयासों की बात करना सरल है पर वैदिक संस्कृति यथार्थ में व्यष्टि के साथ समष्टि को भी दीपों से प्रभासित करने का उदाहरण प्रस्तुत करती है। सामूहिकता का ऐसा क्रियावान उदाहरण दुनिया भर में मिलना कठिन है। यह संस्कृति ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ केवल कहती नहीं अपितु अंधकार को प्रकाश का दान देती भी है।

प्रभु श्रीराम द्वारा रावण का वध करके अयोध्या लौटने पर जनता ने राज्य में दीप प्रज्ज्वलित कर दीपावली मनाई थी। श्रीराम सद्गुण का साकार स्वरूप हैं। रावण, तमोगुण का प्रतीक है। श्रीराम ने समाज के हर वर्ग को साथ लेकर रावण को समाप्त किया था। तम से ज्योति की यात्रा का एक बिंब यह भी है। स्वाभाविक है कि सामूहिक दीपोत्सव का रेकॉर्ड भी भारतीयों के नाम ही है। यह सामूहिकता, सामासिकता और एकात्मता का प्रमाणित वैश्विक दस्तावेज़ भी है।

तथापि सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि वर्तमान में चंचल धन और पार्थिव अधिकार के मद ने आँखों पर ऐसी पट्टी बांध दी है कि हम त्योहार या उत्सव की मूल परम्परा ही भुला बैठे हैं। आद्य चिकित्सक धन्वंतरी की त्रयोदशी को हमने धन की तेरस तक सीमित कर लिया। रूप की चतुर्दशी, स्वरूप को समर्पित कर दी। दीपावली, प्रभु श्रीराम के अयोध्या लौटने, मूल्यों की विजय एवं अर्चना का प्रतीक न होकर केवल द्रव्यपूजन का साधन हो गई।

उत्सव और त्योहारों को उनमें अंतर्निहित उदात्तता के साथ मनाने का पुनर्स्मरण हमें करना ही होगा। अपने जीवन के अंधकार के विरुद्ध एक दीप हमें प्रज्ज्वलित करना ही होगा। जिस दिन एक भी दीपक इस सुविधानुसार विस्मरण के अंधेरे के आगे सीना ठोंक कर खड़ा हो गया, यकीन मानिए, अमावस्या को दीपावली होने में समय नहीं लगेगा।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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