हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #198 ☆ ख़ामोशी एवं आबरू ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ामोशी एवं आबरू। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 198 ☆

☆ ख़ामोशी एवं आबरू 

‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते, कभी समझा नहीं पाते।’ शब्द ब्रह्म है, सर्वव्यापक है, सृष्टि का मूलाधार व नियंता है और समस्त संसार का दारोमदार उस पर है। सृष्टि में ओंम् शब्द सर्वव्यापक है, जो अजर, अमर व अविनाशी है। इसलिए दु:ख, कष्ट व पीड़ा में व्यक्ति के मुख से ‘ओंम् तथा मां ‘ शब्द ही नि:सृत होते हैं। परमात्मा ने शिशु की उत्पत्ति व संरक्षण का दायित्व मां को सौंपा है। वह नौ माह तक भ्रूण रूप में गर्भ में पल रहे शिशु का, अपने लहू से सिंचन व भरण-पोषण करती है, जो किसी करिश्मे से कम नहीं है। जन्म के पश्चात् शिशु के मुख से पहला शब्द ओंम, मैं व मां ही प्रस्फुटित होता है। मां के संरक्षण में वह पलता-बढ़ता है और युवा होने पर वह उसके लिए पुत्रवधु ले आती है, ताकि वह भी सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देकर अपने दायित्व का वहन कर सके।

घर में गूंजती बच्चों की किलकारियां सुनने को आतुर मां… अपने आत्मज के बच्चों को देख पुनः उस अलौकिक सुख को पाना चाहती है और यह बलवती लालसा उसे हर हाल अपने आत्मजों के परिवार के साथ रहने को विवश करती है। वहां रहते हुए वह ख़ामोश रहकर हर आपदा सहन करती रहती है, ताकि हृदय में खटास उत्पन्न न हो और कटुता के कारण दिलों में दूरियां न बढ़ जाएं। वह परिवार रूपी माला के सभी मनकों को स्नेह रूपी डोरी में पिरोकर रखना चाहती है, ताकि घर में सामंजस्य व सौहार्द बना रहे। परंतु कई बार यह ख़ामोशी उसके अंतर्मन को सालने लगती है।

वैसे ख़ामोशी की सार्थकता, सामर्थ्य व प्रभाव- क्षमता से सब परिचित हैं। ख़ामोशी सबकी प्रिय है और वह आबरू को ढक लेती है, जो समय की ज़बरदस्त मांग है। ‘रिश्ते ख़ामोशी का आभूषण धारण कर न केवल जीवित रहते हैं, बल्कि पनपते भी हैं। वे केवल उसकी शोभा ही नहीं बढ़ाते…उसके जीवनाधार हैं।’ लड़की जन्मोपरांत पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे में, विवाह के पश्चात् पति के घर की चारदीवारी में और उसके देहांत के बाद पुत्र के आशियां में सुरक्षित समझी जाती है। परंतु आजकल ज़माने की हवा बदल गई है और वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। सो! समय की नज़ाकत को देखते हुए बचपन से ही उसे मौन रहने का पाठ पढ़ाया जाता है और असंख्य आदेश-उपदेश दिए जाते हैं; प्रतिबंध लगाए जाते हैं और हिदायतें भी दी जाती हैं। अक्सर भाई के साथ प्रिय व असामान्य व्यवहार देख उसका हृदय क्रंदन कर उठता है और उसके समानाधिकारों की मांग करने पर, उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि ‘वह कुल-दीपक है, जो उन्हें मोक्ष के द्वार तक ले जाएगा।’ परंंतु तुम्हें तो यह घर छोड़ कर जाना है… सलीके से मर्यादा में रहना सीखो। खामोशी तुम्हारा श्रृंगार है और तुम्हें ससुराल में जाकर सबकी आशाओं पर खरा उतरने के लिए ख़ामोश रहना है… नज़रें झुका कर हर हुक्म बजा लाना है तथा उनके आदेशों को वेद-वाक्य समझ हर आदेश की अनुपालना करनी है।

इतनी हिदायतों के बोझ तले दबी वह नवयौवना, पति के घर की चौखट लांघ, उस घर को अपना घर समझ सजाने-संवारने में लग जाती है और सबकी खुशियों के लिए अपने अरमानों का गला घोंट, अपने मन को मार, ख्वाहिशों को दफ़न कर पल-पल जीती, पल-पल मरती है; कभी उफ़् नहीं करती है। परंतु जब परिवारजनों की नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरों की भांति उसकी पल-पल की गतिविधियों को कैद करती हैं और उसे प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देती हैं, तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है। परंतु फिर भी वह ख़ामोश अर्थात् मौन रहती है; प्रतिकार अथवा विरोध नहीं दर्ज कराती तथा प्रत्येक उचित-अनुचित व्यवहार, अवमानना व प्रताड़ना को सहन करती है। परंतु एक दिन उसके धैर्य का बांध टूट जाता है और उसका मन विद्रोह कर उठता है। उस स्थिति में उसे अपने अस्तित्व का भान होता है। वह अपने अधिकारों की मांग करती है, परंतु कहां मिलते हैं उसे समानाधिकार …और वह असहाय दशा में तिलमिला कर रह जाती है। वह स्वयं को चक्रव्यूह में फंसा हुआ पाती है, क्योंकि जिस घर को वह अपना समझती रही, वह उसका कभी था ही नहीं। उसे तो किसी भी पल उस घर को त्यागने का फरमॉन सुनाया जा सकता है।

अक्सर महिलाएं परिवार की आबरू बचाने के लिए ख़ामोशी का बुर्क़ा अर्थात् आवरण ओढ़े घुटती रहती हैं;  मुखौटा धारण कर खुश रहने का स्वांग रचती हैं। विवाहोपरांत माता-पिता के घर के द्वार उनके लिए बंद हो जाते हैं और पति के घर में वे सदा परायी अथवा अजनबी समझी जाती हैं…अपने अस्तित्व को तलाशती, हृदय पर पत्थर रख अमानवीय व्यवहार सहन करती, कभी प्रतिरोध नहीं करती। अन्तत: इस संसार को अलविदा कह रुख़्सत हो जाती हैं।

परंतु इक्कीसवीं सदी में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं। बचपन से लड़कों की तरह मौज-मस्ती करना, वैसी वेशभूषा धारण कर क्लबों व पार्टियों से देर रात घर लौटना व अपने हर शौक़ को पूरा करना… उनके जीवन का मक़सद बन जाता है और वे अपने ढंग से अपनी ज़िंदगी जीने लगती हैं। सो! प्रतिबंधों व सीमाओं में जीना उन्हें स्वीकार नहीं, क्योंकि वे पुरुष की भांति हर क्षेत्र में दखलांदाज़ी कर सफलता प्रात कर रही हैं। अब वे सीता की भांति पति की अनुगामिनी बनकर जीना नहीं चाहतीं और न ही अग्नि-परीक्षा देना उन्हें मंज़ूर है। वे पति की जीवन-संगिनी बनने की हामी भरती हैं, क्योंकि कठपुतली की भांति नाचना उन्हें अभीष्ठ नहीं। वे स्वतंत्रता-पूर्वक अपने ढंग से जीना चाहती हैं। मर्यादा की सीमाओं व दायरे में बंध कर जीवन जीना उन्हें स्वीकार नहीं, जिसके भयावह परिणाम हमारे समक्ष हैं। वे रिश्तों की अहमियत नहीं स्वीकारतीं; न ही घर-परिवार के क़ायदे-कानून उनके पांवों में बेड़ियां डाल कर रख सकते हैं। वे तो सभी बंधनों को तोड़ स्वतंत्रता-पूर्वक जीना चाहती हैं। सो! बात-बात पर पति व परिवारजनों से व्यर्थ में उलझना, उन्हें भला-बुरा कहना, प्रताड़ित व तिरस्कृत करना… उनके स्वभाव में शामिल हो जाता है, जिसके भीषण परिणाम तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं।

संयुक्त परिवारों का प्रचलन तो गुज़रे ज़माने की बात हो गया है। एकल परिवार व्यवस्था के चलते पति-पत्नी एक छत के नीचे अजनबी-सम रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख व संबंध- सरोकारों से बेखबर… अपने-अपने द्वीप में कैद। वैसे हम दो, हमारे हम दो का प्रचलन ‘हमारा एक’ तक आकर सिमट गया। परंतु अब तो संतान को जन्म देकर युवा-पीढ़ी अपने दायित्वों का निर्वहन करना ही नहीं चाहती, क्योंकि आजकल वे सब ‘तू नहीं और सही’ में विश्वास करने लगे हैं और ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ ने तो संस्कृति व संस्कारों की धज्जियां उड़ाकर रख दी हैं। इसलिए हर तीसरे घर की लड़की तलाक़शुदा दिखाई पड़ती है। लड़के भी अब इसी सोच में आस्था व विश्वास रखने लगे हैं और वे भी यही चाहते हैं। परंतु उन्हें न चाहते हुए भी घर में सुख-शांति व संतुलन बनाए रखने के लिए उसी ढर्रे पर चलना पड़ता है। अक्सर अंत में वे उसी कग़ार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जिसका हर रास्ता अंधी गलियों में खुलता है अर्थात् विनाश की ओर जाता है। सो! वे भी ऐसी आधुनिक जीवन-संगिनी से निज़ात पाना बेहतर समझते हैं। अक्सर लड़के तो आजकल विवाह करना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे अपने माता-पिता को सीखचों के पीछे देखने की भयावह कल्पना-मात्र से कांप उठते हैं। शायद! यह विद्रोह व प्रतिक्रिया है– उन ज़ुल्मों के विरुद्ध, जो महिलाएं वर्षों से सहन करती आ रही हैं।

‘शब्द व सोच दूरियां बढ़ा देते हैं। कई बार दूसरा व्यक्ति उसके मन के भावों को समझना ही नहीं चाहता और कई बार वह उसे समझाने में स्वयं को असमर्थ पाता है…दोनों स्थितियां भयावह व गंभीर हैं।’ इसलिए वह अपनी सोच, अपेक्षा व भावों को उजागर भी नहीं कर पाता। इन असामान्य परिस्थितियों में मन की दरारें इस क़दर बढ़ती चली जाती हैं ,जो खाई के रूप में मानव के समक्ष आन खड़ी होती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा’ अर्थात् अजनबी बनकर जीने से बेहतर है– संबंध-विच्छेद कर, स्वतंत्रता व सुक़ून से अपनी ज़़िंदगी जीना। जब ख़ामोशियां डसने लगें और हर पल प्रहार करने लगें, तो अवसाद की स्थिति में जीने से बेहतर है… उनसे मुक्ति पा लेना। जीवन में केवल समस्याएं नहीं हैं, धैर्यपूर्वक सोचिए और संभावनाओं को तलाशने का प्रयास कीजिए। हर समस्या का समाधान उपलब्ध होता है और उसके केवल दो विकल्प ही नहीं होते। आवश्यकता है, शांत मन से उसे खोजने की… अपनाने की और विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने की। इसलिए ‘व्यक्ति जितना डरेगा, लोग उसे उतना डरायेंगे’…सो! हिम्मत करो, सब सिर झुकायेंगे। ‘लोग क्या कहेंगे’ इस धारणा-भावना को हृदय से निकाल बाहर फेंक दें, क्योंकि आपाधापी भरे युग में किसी के पास किसी के लिए समय है ही कहां… सब अपने- अपने द्वीप में कैद हैं। सो! व्यर्थ की बातों में मत उलझिए, क्योंकि दु:ख में व्यक्ति अकेला होता है और सुख में तो सब साथ खड़े दिखाई देते हैं।

इसलिए दु:ख आपका सच्चा मित्र है, सदा साथ रहता है… सबक़ सिखाता है और जब छोड़कर जाता है, तो सुख देकर जाता है। वास्तव में दोनों का एक स्थान पर इकट्ठे रहना संभव नहीं है। इसलिए संसार में रहते हुए स्वयं को आत्म- सीमित अर्थात् आत्मकेंद्रित मत कीजिए, क्योंकि यहां अनंत संभावनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए यह मत सोचिए कि ‘मैं नहीं कर सकता।’ सो! पूर्ण प्रयास कीजिए और सभी विकल्प आज़माइए। परंतु यदि फिर भी सफलता न प्राप्त हो, तो उस विषम व असामान्य परिस्थिति में अपना रास्ता बदल लेना श्रयेस्कर है, ताकि आबरू सुरक्षित रह सके।

ख़ामोशी मौन का दूसरा रूप है। मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया न देने से समस्याएं, बाधाओं के रूप में आपका रास्ता नहीं रोक सकतीं…स्वत: समाधान निकल आता है। इसलिए समस्या के उपस्थित होने पर क्रोधित होकर त्वरित निर्णय मत लीजिए… चिंतन-मनन कीजिए…सभी पहलुओं पर सोच-विचार कीजिए: समाधान आपके सम्मुख होगा। यही है…जीने की सर्वश्रेष्ठ कला। परिवार, दोस्त व रिश्ते अनमोल होते हैं। उनके न रहने पर उनकी कीमत समझ आती है और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए ख़ामोशी के आवरण की दरक़ार है, क्योंकि वे प्रेम व त्याग की बलि चाहते हैं। ख़ामोशी अथवा मौन रहना उर्वरक है, जो परिवार में प्रेम व रिश्तों को गहनता प्रदान करता है। दोनों स्थितियों में प्रतिदान का भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि वह हमें स्वार्थी बनाता है। सो! किसी से आशा व अपेक्षा मत रखिए, क्योंकि अपेक्षा ही दु:खों का कारण है और मांगना तो मरने के समान है, परंतु देने में सुख व संतोष का भाव निहित है। इसलिए सहनशक्ति बढ़ाएं। यह सर्वश्रेष्ठ दवा है और ख़ामोशी की पक्षधर है, जिसके संरक्षण में संबंध फलते-फूलते व पूर्ण रूप से विकसित होते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ कामिल बुल्के जयंती विशेष – हिन्दी आंदोलन के अग्रदूत कामिल बुल्के ☆ श्री नवेन्दु उन्मेष ☆

श्री नवेन्दु उन्मेष

एक सितंबर बाबा कामिल बुल्के की जयंती पर विशेष

(1 सितंबर 1909 – 17 अगस्त 1982)

☆ आलेख ☆ हिन्दी आंदोलन के अग्रदूत कामिल बुल्के ☆ श्री नवेन्दु उन्मेष

भारत वर्ष साधु संतों की भूमि है। समस्त विश्व में भारतीय संतों की वाणी गूंजती है। संत ईसाई हो अथवा हिन्दू या मुसलमान उसका संदेश मानव जाति के लिए होता है। संत चाहे देशी हो या विदेशी उसका ज्ञान पूरे विश्व के लिए होता है। बाबा कामिल बुल्के जन्म से बेल्जियम और धर्म से ईसाई थे किंतु उनकी आत्मा भारतीय थी।

भारतीय दर्शन में उनकी गहरी रूचि थी और मातृभाषा फलेमिश रहते हुए भी वे आजीवन हिन्दी के प्रति समर्पित रहे। वे अपने आपको विशुद्ध भारतीय मानते थे। उनका हृदय हिन्दी के प्रति समर्पित था। वे हिन्दी पर किसी प्रकार का आक्षेप बर्दाश्त नहीं सकते थे। हिन्दी की रक्त उनके रग-रग में दौड़ती थी। वे जो भी सोचते-विचारते और करते सब हिन्दी में और हिन्दी  के अतिरिक्त किसी भी भाषा में नहीं। उनका कहना था कि हिन्दी जन-जन की भाषा है। यह भारतीय जनमानस की भाषा है और पूरे भारत में सभी कार्य व्यवहार में इसका व्यवहार होना चाहिए।

वे एक बार जोर देकर बोले थे- ‘-हिन्दी को रोटी के साथ जोड़ दो।‘ अर्थात् नौकरी उसे ही मिलनी चाहिए जिसे हिन्दी आती हो। वे हिन्दी प्रेमियों को बहुत मानते थे उनसे हिन्दी के संबंध में घंटो तरह-तरह की बातें करते। हिन्दी के प्रति उनके विचार जानने की भलीभांति कोशिश करते लेकिन हां, हिन्दी प्रेमी यदि उनके समक्ष अंग्रेजी में बातें करते या अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करते तब वे बिगड़ खड़े होते तथा उसे समझाते हुए कहते ’-तुम हिन्द देश के वासी हो इसलिए तुम्हें हिन्दी में बोलना चाहिए।‘

ज्ञातव्य है कि बाबा बुल्के सर्वत्र अपने भाषणों में कहा करते थे – ’हिन्दी बहुरानी है और अंग्रेजी नौकरानी।‘ किंतु एक बार हिन्दी-अंग्रेजी संबंधी वार्तालाप के दौरान  उन्होंने मुझसे कहा था – ‘कौन सा काम ऐसा है जिसे हिन्दी में नहीं किया जा सकता यदि सभी मिल-जुल कर ईमानदारी से कार्य करें तो प्रातः सूरज के उगने के साथ अंग्रेजी को हरी झंडी दिखाई जा सकती है।’

फादर कामिल बुल्के के मुख्य प्रकाशन 

  • (हिंदी) रामकथा : उत्पत्ति और विकास, 1949
  • हिंदी-अंग्रेजी लघुकोश, 1955
  • अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश, 1968
  • (हिंदी) मुक्तिदाता, 1972
  • (हिंदी) नया विधान, 1977
  • (हिंदी) नीलपक्षी, 1978

(साभार – विकिपीडिया)

मैं कुछ वर्षो तक उनके सानिध्य में रहा और उनके आचार-विचार, क्रिया कलाप को निकट से देखा। सादे वस्त्रों में सरल, सौम्य और सौजन्यपूर्ण बाबा बुल्के सरस्वती के एक विनम्र पुत्र नजर आते थे। रांची शहर के पुरूलिया रोड पर कुतुबमिनार की तरह गगनचुंबी कैथोलिक गिरिजाघर है जिसके ठीक सामने ईसा मसीह की एक विशाल प्रतिमा है जो पुरूलिया रोड पर चलने वाले राहगीरों को आशीर्वाद देती हुई दिखाई देती है। ठीक इसी गिरजाघर के बगल में है – मनेरसा हाउस कैथोलिक संन्यासियों का आश्रम। इसी के एक हिस्से में रहते थे तुलसी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान और हिन्दी संत कामिल बुल्के। वर्षो पूर्व उन्होंने संन्यास ले लिया था और अपने आपको ईश्वर के चरणों में समर्पित कर दिया। उनका जन्म बेल्जियम में हुआ था जहां उन्होंने इंजीनियरिंग पढ़ी थी। भला इंजीनियर का साहित्य से क्या लगाव। पर अपने मन कुछ और है विधन के कुछ और। कामिल बुल्के जो इंजीनिरिंग के अध्येता थे और कहां साहित्य के अध्येता हो गये। संभवतः पहले संस्कृत के अध्ययन की और झुके बेंल्जियम से भारत चले आये। संस्कृत के ही एक श्लोक में कहा गया है कि राजा की पूजा अपने देश में ही होती है परंतु विद्वान की पूजा सर्वत्र होती है। विद्वान के लिए बेल्जियम क्या और भारत क्या। भारत आकर हमेशा हिन्दी आंदोलन में अग्रसर रहे। एक बार मैंने उन्हें उनके निवास स्थान पर एक विदेशी पादरी को जो उनसे अंग्रेजी में बोल रहा था डांटते हुए सुना था ’-तुम इतने दिनों से भारत में रहे हो, तुमने आज तक हिन्दी नही सीखी और अंग्रेजी में बोलते हो, बहुत शर्म की बात है।‘

बाबा को रांची से बेहद प्यार था। वे रांची को अपनी साधना स्थली मानते थे। एक बार मेरे पिता कविवर रामकृष्ण उन्मन से कहा था- ‘मैं भारतीय हूं, हिन्दी मेरी भाषा है और भारत मेरा घर। यही रांची के कब्र्रिस्तान में मेरे लिए थोड़ी सी भूमि सुरक्षित है और मरणोपरांत भी यही रहूंगा।’

जीवन के अंतिम दिनों में उन्हें गैंगरिन नामक बीमारी ने घेर लिया था। रांची में इलाज के बाद जब उनकी बीमारी ठीक नहीं हुई तो उन्हें पटना के कुर्गी अस्पताल में भर्ती कराया गया जिन्हें देखने के लिए मैं अपने पिता के साथ उस अस्पताल में गया था। अस्पताल के बिस्तर में भी उन्हें इस बात की चिंता थी कि उन्हें अगर कुछ समय की मोहलत मिल जाती तो वे शायद हिन्दी के लिए कुछ और कर जाते। 17 अगस्त 1982 को उनका निधन नई दिल्ली में हो गया। यहां तक कि उनका अंतिम संस्कार भी नई दिल्ली में किया गया। शव को रांची लाने को लेकर मेरे पिता फादर पी पोनेट से मिले और उनकी अंतिम इच्छा बतायी लेकिन मिशन ने शव का अंतिम संस्कार नई दिल्ली के निकोल्सन कब्रिस्तान में करने का निर्णय लिया।

© श्री नवेन्दु उन्मेष

संपर्क – शारदा सदन,  इन्द्रपुरी मार्ग-एक, रातू रोड, रांची-834005 (झारखंड) मो  -9334966328

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 142 ⇒ साधो, ये मुर्दों का गांव ..!! ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “साधो, ये मुर्दों का गांव ..!!।)

?अभी अभी # 142 ⇒ साधो, ये मुर्दों का गांव ..!! ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

ना इंसान की, ना भगवान की, ना जमीन की ना आसमान की, ये तो दास्तां है एक अलग ही संसार कीये सच है या झूठ, अफसाना है या हकीकत, थोड़ी ज़मीनी थोड़ी आसमानी, ये है, तेरी, मेरी, उसकी कहानी

मैं भूत प्रेत से नहीं डरता, फिर भी डर का भूत मेरे अंदर ही मौजूद रहता है, मुझे डराने के लिए वैसे सांप बिच्छू ही काफी है

होते हैं कुछ अति व्यस्त लोग, जिन पर हमेशा काम का भूत सवार रहता है, और जिन फुरसती लोगों पर एक बार प्यार का भूत सवार हो जाता है, तो जिंदगी भर नहीं उतरताजो हमेशा आतंक के साये में जिंदगी गुजारते हैं, डर का भूत कभी उनका पीछा नहीं छोड़ता। ।

जीव, आत्मा और परमात्मा का खेल ही यह संसार हैजीवात्मा और परमात्मा के बीच कहीं आत्मा का भी निवास होता हैजब किसी सीधी सादी आत्मा को दुष्टात्माओं द्वारा इस जीवन में ज्यादा परेशान किया जाता है, तो मरने के बाद वे प्रेत योनि में जाकर प्रेतात्मा बन जाती हैकहते हैं, भूत प्रेत हमेशा साथ साथ किसी इमली के पेड़ पर अथवा किसी खंडहरनुमा हवेली में निवास करते हैंगुमनाम है कोई, बदनाम है कोई

हमने तो डायन भी नहीं देखीजिस इंसान का रोज महंगाई डायन से वास्ता पड़ता हो, उसे क्या कोई डायन डराएगीचुड़ैल शब्द सुनने में अच्छा लगता हैकोई नहीं जानता यह चुड़ैल कोई सास है या बहू ! वैसे बदमिजाज, चिड़चिड़ी और हमेशा गुस्सा करने वाली महिलाओं को अगर चुड़ैल कहा जाए तो गलत भी नहीं

बहना कुछ मर्द भी राक्छस से कम नहीं होते। ।

शैतानी करने से कोई बच्चा वास्तविक रूप में शैतान नहीं बन जाताजब इंसान में ही साधु और शैतान का फर्क मिट जाए, तो शक, शंका, भय और आतंक के माहौल में इंसानियत कहां तलाशी जाएआज कहां है किसी के होठों पर सचाई, और दिल में भलाई !

साधो, ये मुर्दों का गांव ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 141 ⇒ स्पर्श (Sense of touch) ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्पर्श (Sense of touch)”।)

?अभी अभी # 141 ⇒ स्पर्श (Sense of touch) ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक पौधा होता है छुईमुई का (Mimosa pudica), जिसे छुओ, तो मुरझा जाता है, और थोड़ी देर बाद पुनः पहले जैसी स्थिति में आ जाता है। हर पालतू प्राणी, स्पर्श का भूखा होता है, इंसान की तो बात ही छोड़िए। छेड़ा मेरे दिल ने तराना तेरे प्यार का, किसी वाद्य यंत्र के तार मात्र को छूने से वह झंकृत हो जाता है, स्पर्श की महिमा जानना इतना आसान भी नहीं।

हमारी पांच ज्ञानेंद्रियां हैं, आंख, नाक, कान, जीभ और त्वचा ! वैसे तो कर्मेंद्रियां भी पांच ही हैं, लेकिन त्वचा ही वह ज्ञानेंद्रिय है, जहां हमें कभी सुई तो कभी कांटा चुभता है, और गर्मागर्म चाय जल्दी जल्दी सुड़कने से जीभ जल जाती है। चाय का जला, कोल्ड्रिंक भी फूंक फूंक कर पीता है।।

बड़ों के पांव छूना, हमारे संस्कार में है। मंदिर में प्रवेश करते ही, हमारे हाथ एकाएक जुड़ जाते हैं। हमारी इच्छा होती है, मूर्ति के करीब जाकर प्रणाम करें, वह तन का ही नहीं, मन का भी स्पर्श होता है। कुछ भक्त तो अपने इष्ट के सम्मुख साष्टांग प्रणाम भी करते हैं, जिसमें शरीर के सभी अंग(पेट को छोड़कर) ठुड्डी, छाती, दोनों हाथ, घुटने, पैर और पूरा शरीर धरती को स्पर्श करता है। इसे साष्टांग दंडवत प्रणाम भी कहते हैं। अहंकार त्यागकर स्वयं को अपने इष्ट अथवा ईश्वर को सौंप देना ही साष्टांग दंडवत प्रणाम का अर्थ है।

समय के साथ मानसिक स्पर्श अधिक व्यावहारिक हो चला है। मुंह से बोलकर अथवा चिट्ठी पत्री में ही पांव धोक, प्रणाम और दंडवत होने लग गए हैं। हृदय पर हाथ रखकर भी आजकल प्रणाम किया जाने लगा है। नव विवाहित युगल जब बड़ों को प्रणाम करता था तो दूधों नहाओ और पूतों फलो तथा मराठी में महिलाओं को अष्टपुत्र सौभाग्यवती का आशीर्वाद मिलता था।।

हैजा एक संक्रामक बीमारी है। महामारी की बात छोड़िए, हाल ही में, मानवता ने कोरोनावायरस जैसी त्रासदी का सामना किया है, जिसके आगे विज्ञान क्या, ईश्वरीय शक्ति भी नतमस्तक हो गई थी। इंसान इंसान से दूर हो गया था, मंदिर का भगवान भी अपने भक्त से दूर हो गया था। लेकिन सृजन और प्रलय सृष्टि का नियम है, आज मानवता पुनः खुली हवा में सांस ले रही है। प्रार्थना और पुरुषार्थ में बल है। God is Great !

स्पर्श एक नैसर्गिक गुण है। इसे भौतिक सीमाओं में कैद नहीं कर सकते। डाली पर खिला हुआ एक फूल हमारे मन को स्पर्श कर जाता है। फूलों का स्पर्श अपने इष्ट को, अपने आराध्य को और अपनी प्रेमिका को, कितना आनंदित और प्रसन्न कर जाता है। पत्रं पुष्पं, नैवेद्यं समर्पयामी ! एक फूल तेरे जूड़े में, कह दो तो लगा दूं मैं; गुस्ताखी माफ़।।

एक नवजात, फूल जैसे बालक का स्पर्श, एक बालक का अपने गुड्डे गुड़ियों और आज की बात करें तो टैडी बच्चों की पहली पसंद होती है। मिट्टी के खिलौनों में बच्चों का स्पर्श जान डाल देता है। आज हमारे हाथ का मोबाइल और डेस्कटॉप महज कोई हार्डवेयर अथवा सॉफ्टवेयर नहीं, अलादीन का चिराग है। मात्र स्पर्श से खुल जा सिम सिम।

अब बहुत पुरानी हो गई स्पर्श की थ्योरी, जब आंखों आंखों में ही बात हो जाती है और दिल से दिल टकरा जाता है, मत पूछिए क्या हो जाता है। नजरों के तीर से दिल घायल होता है, फिर भी कोई शिकवा शिकायत नहीं, कोई एफआईआर नहीं।।

किसी के मन को छूना आज जितना आसान है, उतना ही कठिन है, किसी के मन को पढ़ पाना। कोई गायक किसी गीत को अपने होठों से मात्र छू देता है और वह गायक और गीत अमर हो जाता है। ये किसने गीत छेड़ा।

स्पर्श शरीर की नहीं, मन की वस्तु है। केवल सच्चे मन से मीठा बोला जाए, तो रिश्तों में चाशनी घुल जाए। किसी तन और मन से बीमार व्यक्ति को संजीदा शब्दों का स्पर्श भी कभी कभी संजीवनी का काम करता है। और कुछ नहीं है, स्पर्श चिकित्सा अथवा spiritual healing, कुछ दिल से दिल की बात कही, और रो दिए। लोगों पर हंसना छोड़िए, किसी के आंसू पोंछिए, रूमाल से नहीं, अपने शब्दों के स्पर्श से॥ 

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 140 ⇒ लाडली बहना… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लाडली बहना”।)

?अभी अभी # 140 ⇒ लाडली बहना? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब भी राखी का त्योहार आता है, मुझे मेरे पांच मामा और उनकी एकमात्र लाडली बहना, यानी मेरी मां की याद अवश्य आती है। आज न तो मेरी मां जीवित है, और न ही मेरे पांच मामा, बस बाकी बची हैं, उनकी ढेर सारी, यादें ही यादें।

इंसान न जाने क्यों अतीत की तुलना वर्तमान से करता है। आज मेरा ध्यान करोड़ों लाडली बहनों और उनके एकमात्र भाई, हमारे सबके मामा पर जाता है। लगता है, उसके पास कोई कुबेर का खजाना है। मेरा मामा बड़ा पैसे वाला।।

और अचानक फिर मेरी आंखों के सामने, मेरे पांच मामाओं और उनकी लाडली बहना,

यानी मेरी मां का शांत, संतुष्ट और सौम्य चेहरा दिखाई दे जाता है।

मेरा ननिहाल राजस्थान का था, और मेरी मां का  ससुराल इंदौर में। कभी किसी राखी के त्योहार पर ना तो मेरे पांच मामाओं में से कोई मामा, अपनी लाडली बहना से मिलने इंदौर आता था और ना ही मेरी मां और उनकी लाडली बहना, राखी के बहाने, उनसे मिलने राजस्थान जाती थी। फिर भी बड़ा दूर का, लेकिन बड़ा करीबी रिश्ता था, हमारे मामाओं और उनकी लाडली बहना, यानी हमारी मां का।

राखी के अवसर पर मेरी मां, मेरे मामा, और अपने पांचों भाइयों को, चिट्ठी जरूर भेजती थी। वह फोन और मोबाइल का युग नहीं था। पोस्ट ऑफिस के लिफाफे में ही राखी भेजी जाती थी, जिसके साथ दो शब्द वाला एक लाडली बहना का खत जाता था, जिसका मजमून मुझ भांजे द्वारा लिखवाया जाता था। एक एक शब्द मुझे आज भी याद है ;

पूज्य भाई साहब,

सादर प्रणाम !

आशा है आप स्वस्थ व प्रसन्न होंगे। पत्र के साथ राखी भिजवा रही हूं। पहन लेना। पूज्य भाभी सा. को प्रणाम, बच्चों को प्यार !

आपकी बहन

(बाई)

मां सिर्फ अपने हस्ताक्षर यानी बाई लिखती थी।

हम भी बाई ही तो कहते थे उन्हें, पांचों भाइयों में सबसे छोटी थी मेरी मां, लाडली तो होगी ही। वापसी में कभी किसी भाई का जवाब आता, किसी का नहीं आता लेकिन मां की राखी हर साल भाइयों के पास अवश्य पहुंच जाती।

वह जमाना सिर्फ भाई बहनों के प्यार का था। कोई गिफ्ट नहीं, कोई उपहार नहीं, कोई मनीऑर्डर नहीं। बस त्याग, और समर्पण ही उन्हें प्रेम के धागों में बांधे रखता था। कोई अपेक्षा नहीं, कोई शिकायत नहीं।।

आज हमारे प्रदेश की लाडली बहनों को मामा की ओर से सौगात ही सौगात मिल रही है। अचानक प्रदेश के मामा में आया यह क्रांतिकारी परिवर्तन हमारे जैसे भांजों को आश्चर्यचकित कर देता है। लाडली बहनों से इतना प्यार और हमारे लिए एक धेला भी नहीं।

इनसे हमारे मामा हजार गुना अच्छे थे, जब भी हम उनसे मिलने ननिहाल जाते, खूब खयाल रखते थे। घी, दूध, मक्खन और पकवान, खूब घुमाना फिराना और जब भी यहां हमसे मिलने आना, कुछ ना कुछ देकर जाना। शायद यही तरीका था उनका, अपनी लाडली बहना को प्यार जताने का।।

आज रिश्तों और प्यार को सौगातों और उपहारों से तौला जा रहा है। बिना स्वार्थ और अपेक्षा के कहां रिश्ते टिक पा रहे हैं। राजनीति में रिश्ते निभाए जा रहे हैं, और रिश्तों में भी राजनीति का प्रवेश हो गया है।

जब महाराज मेहरबान हो जाते हैं, तो मामा और बलवान हो जाते हैं। होगा उनके पास कोई अलादीन का चिराग, जो लाडली बहना पर इतनी सौगातों की वर्षा हो रही है। इधर हम सोच रहे हैं, इस राखी के त्योहार पर हमारी लाडली बहना को क्या सौगात दी जाए।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 81 – पानीपत… भाग – 11 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।

☆ आलेख # 81 – पानीपत… भाग – 11 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

देवउठनी एकादशी के बाद और शाखा में आने के पश्चात स्वाभाविक था कि कुछ दिनों तक मुख्य प्रबंधक जी का मन शाखा में नहीं लगा. ऐसा इसलिए भी था क्योंकि वे अपने स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति के आवेदन को चुपचाप अग्रेषित कर चुके थे. वैसे इस मामले में यह उनकी ईमानदारी से अपनी अक्षमता को स्वीकार करना और फिर ऐसा दुस्साहसी निर्णय लेने का अद्वितीय उदाहरण था. उन्होंने शाखा के बेहतर संचालन और स्वंय के भावी अहित हो जाने की संभावना के मद्देनजर यह निर्णय लिया जिसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की जानी चाहिए. ऐसे कितने लोग हैं जो अपनी अक्षमताओं के साथ कुर्सी से चिपके रहते हैं, संस्था का अहित करते रहते हैं और इस जुगाड़ में लगे रहते हैं कि ऐसे कठिन असाइनमेंट से छुटकारा पाया जाये और आरामदायक व सुरक्षित पोस्टिंग मिल जाये. ऐसा होने के बाद भी शेखी बघारने के उदाहरण भी बहुत मिलते हैं.

अगला दौर कोरबैंकिंग के अल्पकालिक प्रशिक्षण का था जो ऐसी सभी शाखाओं के स्टाफ को दिया जा रहा था. तो उन्होंने भी ऐसे मौके को गंवाना उचित नहीं समझा बल्कि शाखास्तरीय समस्याओं से दूर होने का पेड अवकाश ही माना. शाखा का कोर बैंकीय असमायोजित प्रविष्टियों का पहाड़ भी उन्हें रोक नहीं पाया और वे मुख्यालय पहुंच गये. नोटिस अवधि के तीन माह किसी न किसी तरह तो बिताने ही थे तो यह प्रशिक्षण अटेंड करना भी बेहतर आइडिया था. उनको यह नहीं मालूम था कि सब कुछ हर बार उनके प्लान के अनुसार नहीं हो पाता. प्रशिक्षण के दौरान ही बैंक के मुखिया जब असमायोजित प्रविष्टियों के मॉनीटरिंग रिपोर्ट चार्ट का अवलोकन कर रहे थे तो इस शाखा का माउंट एवरेस्ट उनकी तीक्ष्ण नजरों से ओझल न हो सका. बाद में जब उन्हें ज्ञात हुआ कि शाखा के मुख्य प्रबंधक पास ही प्रशिक्षण ले रहे हैं तो उन्होंने उसी दिन शाम को बुला भेजा. मुख्य प्रबंधक को लगा कि ये मुलाकात उनकी फरियाद सुनने के लिये है. याने दोनों महानुभावों की सोच अलग अलग दिशा में चल रही थी. अंततः जब उन्होंने दबाव बढ़ाया तो इन्होंने भी आखिर कह ही दिया कि सर, ये शाखा मेरे बस की नहीं है और मैंने अपना वालिंटियर रिटायरमेंट का आवेदन थ्रू प्रापर चैनल भेज दिया है. बड़े साहब इस इम्प्रापर उत्तर से पहले स्तब्ध हुये और फिर नाराज भी. स्वयं जमीन से जुड़े अति वरिष्ठ अधिकारी थे जो महत्वपूर्ण और क्रिटिकल शाखाओं के प्रबंधकों से डायरेक्ट बात करते रहते थे. उनके कार्यक्षमताओं और समर्पित नेतृत्व के मापदंड बहुत उच्चस्तरीय और अभूतपूर्व थे. उनका सामना इस तरह के प्रबंधन से शायद पहली बार हुआ हो. पर उनके दीर्घकालिक अनुभव को यह निर्णय लेने में बिल्कुल भी देर नहीं की कि “ये मुख्य प्रबंधक जितने दिन शाखा में रहेंगे, शाखा का नुकसान ही करेंगे. ” बैंक को ऐसे त्वरित पर सटीक निर्णय लेने वाले सूबे के नायक बहुत कम ही मिलते हैं. उनके व्यक्तित्व में सादगी, उच्च कोटि की बुद्धिमत्ता और जटिल शाखाओं और जटिल परिस्थितियों पर नियंत्रण का पर्याप्त अनुभव साफ नजर आता था. तो उन्होंने अब अनुवर्तन या समझाइश की जगह मुख्य प्रबंधक को सीधे और स्पष्ट निर्देश दिये कि “ठीक है, अब आपको शाखा वापस जाने की जरूरत नहीं है, सीधे घर जाइये. नोटिस पीरियड के बाद हम आपका एक्जिट आवेदन स्वीकार कर लेंगे. अब ये शाखा हमारी जिम्मेदारी है, आपकी नहीं. अंधा क्या चाहे दो आंखें, तो फिर वहाँ से सीधे घरवापसी हुई जो नौकरी की कीमत पर थी. ऐसे कितने लोग हैं जो यह “हाराकीरी” कर सकते हैं???

यहाँ शाखा में “आये ना बालम का करूँ सजनी” चल रहा था. जब फोन से पता किया गया तो पता चला कि कृष्ण के गीताज्ञान देने के बावजूद अर्जुन कुरुक्षेत्र छोड़कर, ‘रणछोड़दास’ बन चुके थे. “तेरा जाना बनके तकदीरों का मिट जाना” जैसी स्थिति बन चुकी थी. ये शतरंज की बाजी नहीं थी जहाँ राजा को शह के बाद मात मिलने से बाजी खत्म हो जाती है. जाहिर है जो योद्धा शेष थे, उन्हीं के हिस्से में इस युद्ध को लड़ना आया था. बैलगाड़ी को खींचने वालों में एक संख्या कम हो चुकी थी.

क्रमशः… 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 49 – देश-परदेश – जाम ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 49 ☆ देश-परदेश – जाम ☆ श्री राकेश कुमार ☆

कल एक मित्र से आवश्यक कार्य था, इसलिए उसे सुबह फोन किया और पूछा क्या कर रहे हो, उसने बताया ब्रेड के साथ जाम ले रहा हूं। सुनकर मेरा माथा ठनका सुबह-सुबह ही जाम।

दोपहर को पुनः उसको फोन किया तो बोला धूप में जाम के मज़े ले रहा हूं। मैने फोन काट दिया। शाम को उसको फिर से फोन किया तो बोला बाद में बात करना, अभी जाम में हूं।   परेशान होकर रात्रि फिर से नो बजे फोन किया तो वो बोला, भाई अभी तो जाम चल रहा है, कल बात करेंगे।

वाह रे जाम तेरे कितने नाम! वाह रे़ जाम तेरे कितने काम!!

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 138 ⇒ आदमी सड़क का… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आदमी सड़क का “।)

?अभी अभी # 138 ⇒ आदमी सड़क का? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

पहले आदमी आया या सड़क, यकीनन आदमी ही आया होगा। वह जिस रास्ते निकल पड़ा, बस उसी का नाम सड़क हो गया होगा। एक आदमी के चलने से सड़क नहीं बनती, जहां सब लोग निकल पड़ते हैं, पहले वह रास्ता कहलाता है, और बाद में वहां सड़क बन जाती है।

कहीं सड़क शब्द, सरक से तो नहीं बना ? यह सड़क कहां जाती है। सड़क तो कहीं नहीं जाती, सड़क पर गाड़ी घोड़े और इंसान सरकते रहते हैं, शायद इसीलिए उसे सड़क कहते हों। ।

गांव में खेत होते थे, पगडंडियां होती थी, घर मोहल्ले और बाजार होते थे। जिस रास्ते जानवर जाते थे, वहां भी उनके चलने से एक लकीर सी बन जाती थी। उसी लकीर पर बाद में, इंसान, बैलगाड़ी और फकीर चलना शुरू कर देते थे। चलने से रास्ता बनता भी है, और रास्ता कटता भी है। यहां कौन है तेरा मुसाफिर, जाएगा कहां।

आज हमारे चारों ओर चलने के लिए रास्ते ही रास्ते हैं, सड़कें ही सड़कें हैं। आज हमारे पास, यात्रा के लिए, अपना मार्ग चुनने की भी सुविधा है, आप कौन से मार्ग से जाना पसंद करेंगे, रेल मार्ग से अथवा हवाई मार्ग से। जल मार्ग से तो बस, नदी के उस पार ही जाना होता है। ।

हमने सड़क पर पैदल चलना छोड़ दिया है। व्यस्त सड़कें, हमने वाहनों के हवाले कर दी हैं। एक समय था, जब रात में सड़कें सुनसान रहा करती थी, आदमी की तरह, वह भी आराम किया करती थी। आज सड़क पर आदमी से ज्यादा वाहन है। और उन वाहनों में आदमी सवार है। वाहन में सवार प्राणी को सवारी कहते हैं।

यात्री वाहन को शुरू में सवारी गाड़ी ही कहा जाता था।

अब शहर की सड़कें सुनसान नहीं रहती। सुबह होते ही जो यातायात शुरू होता है, तो रात तक थमने का नाम नहीं लेता। कैसे कैसे नाम पड़ गए हैं सड़कों के, हाय वे, रिंग रोड, सर्विस रोड और बायपास। बस, गली मोहल्ले की सड़कें, कुछ कुछ अपनी नजर आती हैं। ।

सड़क पर चलने से हमें, आदमी सड़क का, की फीलिंग आती है। पता चलता है, कहां गड्ढे हैं, कहां स्पीड ब्रेकर हैं, और कहां पानी भरा है। बदबू और कचरा, कितनी भी स्वच्छता रखो, अपना अस्तित्व सदा कायम रखता है। कॉलोनी और मोहल्लों में, रात्रि में, अक्सर वाहन, अपने ही घर के बाहर, सड़कों पर ही खड़े कर दिए जाते हैं। हमारी गाड़ी हमारे घर के सामने नहीं रहेगी तो कहां रहेगी।

कार से ही तो हमारी पहचान है।

अब अगर गाड़ी सड़क पर रखी है, तो उसे साफ भी करना पड़ता है। केवल कपड़ा मारने से गाड़ी साफ नहीं होती। ड्राइवर रखने की हमारी हैसियत नहीं, पास में एक अधिकारी जी का ड्राइवर है, उसे महीने का कुछ दे देते हैं, हफ्ते में एक दो बार गाड़ी धो भी देता है। अरे, बगीचे में भी तो पानी लगता है, गाड़ी भी इसी तरह धुल जाती है। ।

बात तो सही है, सड़क पर पानी फैलता है और इकट्ठा भी हो जाता है, लेकिन जब सभी ऐसा करते हैं, तो कुछ भी अजीब और असहज नहीं लगता। अरे साहब, उल्टे इस बहाने, सड़क भी धुल जाती है। अपनी अपनी सोच है।

रोज सुबह, मैं भी आदमी सड़क का बन जाता हूं, जब टहलने निकलता हूं। एक सज्जन रोजाना पौ फटते ही अपनी गाड़ी को बड़ी तबीयत से नहलाते हैं, मानो कार नहीं, उनकी गाय भैंस हो, जो जाहिर है, बाहर सड़क पर, उनके घर की शोभा बढ़ाती रहती है। बस गनीमत है, वह गोबर नहीं करती।

रोजाना उनकी गाड़ी का स्नान तो हो जाता है, लेकिन पानी की निकासी नहीं हो पाती। सड़क टूट फूट गई है, पानी गड्ढों में दिन भर भरा रहता है, लोग भी कहां आजकल मुझ जैसे पैदल चला करते हैं। गाड़ी से यह शहर बड़ा खूबसूरत नजर आता है।

कुछ पैदल आने जाने वाले, जगह बनाकर निकल ही जाते हैं। शरीफ लोग, कहां किसी के मुंह लगते हैं। आजकल तो बात बात में गोली चलने लग जाती है। आए थे, बड़े पंचायती करने। ।

अच्छा लगता है, पार्ट टाइम, आदमी सड़क का बनने में, आदमी कम से कम, जमीन से तो जुड़ा रहता है। ताजी हवा के सेवन के साथ स्टैमिना और सहन शक्ति भी बढ़ ही जाती है। भूलिए मत, आप एक आम नागरिक हो, कोई सेलिब्रिटी नहीं ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 137 ⇒ जश्न और त्रासदी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जश्न और त्रासदी “।)

?अभी अभी # 137 ⇒ जश्न और त्रासदी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

जहाँ बजती है शहनाई,

वहाॅं मातम भी होते हैं …

सुख और दुख हमारे जीवन में साथ साथ चलते हैं। हमारा जीवन दर्शन सुखांत है, दुख झेलने के लिए हमारे पास मजबूत कंधे हैं, आंसू के साथ, पुनः खड़ा होने का हमारा संकल्प भी है। हमारी गीता हमें शोकग्रस्त होने से बचाती है, विषाद योग के बावजूद हम अनासक्त कर्म करने में सक्षम होते हैं, और इसीलिए शायद हम जश्न और त्रासदी के पल एक साथ हंसते हंसते गुजार देते हैं।

होती है त्रासदी कभी युद्ध की, कभी अकाल तो कभी सूखे और बाढ़ की। विश्व युद्ध, महामारी, बंटवारे का दर्द और अभी हाल ही में कोरोना वायरस ने हमें तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन हम पुनः उठ खड़े हुए, दो दो वेक्सीन और बूस्टर डोज से लैस, चेहरे पर कोई शिकन नहीं।।

प्रकृति हमें चुनौती भी देती है, और हमारी परीक्षा भी लेती है। इधर हम लाल किले पर आजादी का जश्न मना रहे थे और उधर हिमाचल और उत्तराखंड में पहाड़ खसक रहे थे। इधर हमारा चंद्रयान -३ सफलतापूर्वक चांद पर तिरंगा लहरा रहा था और उधर पूरा हिमाचल दहल रहा था। सदी की इतनी बड़ी त्रासदी के बीच भी आखिर सफलता के इतिहास तो रचे ही जाते हैं।

महाभारत के युद्ध के बीच ही सुदर्शन चक्रधारी श्रीकृष्ण धनुर्धर अर्जुन को गीता का संदेश देते हैं, हमारे सभी महाकाव्य सुखांत ही रचे गए हैं, दुखांत नहीं। हमारे घरों में महाभारत नहीं गीता रखी जाती है। घर घर रामचरितमानस और सुंदरकांड का पाठ होता है, वाल्मीकि रामायण का नहीं, क्योंकि हम अपने आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम राम की लंका पर विजय और रावण के वध के पश्चात् विजया दशमी और दीपावली का पर्व तो उत्साह से मनाते हैं, लेकिन सीता की अग्निपरीक्षा और उनका त्याग हमें विचलित कर देता है। हम जीवन के अप्रिय प्रसंगों को भूल जाना चाहते हैं, क्योंकि हमारे जीवन का मूल उद्देश्य सकारात्मकता है।।

हमारे लिए तो मृत्यु भी एक उत्सव ही है। बारात भी बैंड बाजे से और शवयात्रा भी गाजे बाजे के साथ। भोग कभी हमारा आदर्श नहीं रहा। यम कुबेर होंगे अहंकारी रावण के दास, बजरंग बली हनुमान तो वनवासी राम के ही दास थे। इसीलिए हम भी यम, कुबेर की नहीं, यम की बहन यमुना की स्तुति करते हैं, जो हमें जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्त कर, स्वर्ग से भी श्रेष्ठ, अपने वैकुंठ धाम में शरण देती है।

आज भी हम दुनिया के लिए आदर्श बने हुए हैं। बस जरूरत, अपनी गलतियों से सबक सीखने की है। जनसंख्या का विस्फोट और पर्यावरण का बिगड़ता स्वरूप आज की ज्वलंत समस्या है। विकास के वर्तमान मानदंड और प्रकृति के साथ छेड़छाड़ एक गंभीर खतरे का संकेत दे रहे हैं, अगर हम अब भी नहीं चेते, तो आगे पाट और पीछे सपाट वाली स्थिति से हमें कोई नहीं बचा सकता।।

देश हमारा है, किसी आने जाने वाली सरकार का नहीं। जनता को ही जागरूक होना पड़ेगा। अगर कल कोई जबरन नसबंदी लागू कर दे, अथवा फिर कोई बहुगुणा, पर्यावरण की सुरक्षा के लिए, पेड़ों से जाकर चिपक जाए, तो हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जब जागे, तभी सवेरा ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 206 – शून्योत्सव ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 206 शून्योत्सव ?

शून्य उत्सव है। वस्तुतः महोत्सव है। शून्य में आशंका देखते हो, सो आतंकित होते हो। शून्य में संभावना देखोगे तो  प्रफुल्लित होगे। शून्य एक पड़ाव है आत्मनिरीक्षण के लिए। शून्य अंतिम नहीं है। वैसे प्रकृति में कुछ भी अंतिम नहीं होता। जीवन, पृथ्वी सब चक्राकार हैं। प्रकृति भी वृत्ताकार है। हर बिंदु, परिधि की इकाई है और हर बिंदु में नई परिधि के प्रसव की क्षमता है। प्रसव की यह क्षमता हर बिंदु के केंद्र बन सकने की संभावना है।

यों गणित में भी शून्य अंतिम नहीं होता। वह संख्याशास्त्र का संतुलन है। शून्य से पहले माइनस है। शून्य के बाद प्लस है। माइनस में भी उतना ही अनंत विद्यमान है, जितना प्लस में। शून्य पर जल हिम हो जाता है। हिम होने का अर्थ है, अपनी सारी ऊर्जा को संचित करके  सुरक्षित रखना ताकि काल, पात्र, परिस्थिति के अनुरूप दिशा की आवश्यकतानुसार प्रवहमान हुआ था सके। शून्य से दाईं ओर चलने पर हिम का विगलन होकर जल हो जाता है। पारा बढ़ता जाता है। सौ डिग्री पार होते- होते पानी खौलने लगता है। बाईं ओर की यात्रा में पारा जमने लगता है। एक हद तक के बाद हिमखंड या ग्लेशियर बनने लगते हैं। हमें दोनों चाहिएँ-खौलता पानी और ग्लेशियर। इसके लिए शून्य होना अनिवार्य है।

शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य में विलाप सुननेवाले नादान हैं। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए कानों को ट्यून करना होगा। अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी।

स्मृति में अपनी एक रचना कौंध रही है-

शून्य अवगाहित / करती सृष्टि,

शून्य उकेरने की / टिटिहरी कृति,

शून्य के सम्मुख / हाँफती सीमाएँ,

अगाध शून्य की / अशेष गाथाएँ,

साधो…!

अथाह की / कुछ थाह मिली

या फिर शून्य ही / हाथ लगा?

शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाएँ। अपने अपने शून्य का रसपान करें। शून्य में शून्य उँड़ेलें, शून्य से शून्य उलीचें।…इति।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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