श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आदमी सड़क का “।)

?अभी अभी # 138 ⇒ आदमी सड़क का? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

पहले आदमी आया या सड़क, यकीनन आदमी ही आया होगा। वह जिस रास्ते निकल पड़ा, बस उसी का नाम सड़क हो गया होगा। एक आदमी के चलने से सड़क नहीं बनती, जहां सब लोग निकल पड़ते हैं, पहले वह रास्ता कहलाता है, और बाद में वहां सड़क बन जाती है।

कहीं सड़क शब्द, सरक से तो नहीं बना ? यह सड़क कहां जाती है। सड़क तो कहीं नहीं जाती, सड़क पर गाड़ी घोड़े और इंसान सरकते रहते हैं, शायद इसीलिए उसे सड़क कहते हों। ।

गांव में खेत होते थे, पगडंडियां होती थी, घर मोहल्ले और बाजार होते थे। जिस रास्ते जानवर जाते थे, वहां भी उनके चलने से एक लकीर सी बन जाती थी। उसी लकीर पर बाद में, इंसान, बैलगाड़ी और फकीर चलना शुरू कर देते थे। चलने से रास्ता बनता भी है, और रास्ता कटता भी है। यहां कौन है तेरा मुसाफिर, जाएगा कहां।

आज हमारे चारों ओर चलने के लिए रास्ते ही रास्ते हैं, सड़कें ही सड़कें हैं। आज हमारे पास, यात्रा के लिए, अपना मार्ग चुनने की भी सुविधा है, आप कौन से मार्ग से जाना पसंद करेंगे, रेल मार्ग से अथवा हवाई मार्ग से। जल मार्ग से तो बस, नदी के उस पार ही जाना होता है। ।

हमने सड़क पर पैदल चलना छोड़ दिया है। व्यस्त सड़कें, हमने वाहनों के हवाले कर दी हैं। एक समय था, जब रात में सड़कें सुनसान रहा करती थी, आदमी की तरह, वह भी आराम किया करती थी। आज सड़क पर आदमी से ज्यादा वाहन है। और उन वाहनों में आदमी सवार है। वाहन में सवार प्राणी को सवारी कहते हैं।

यात्री वाहन को शुरू में सवारी गाड़ी ही कहा जाता था।

अब शहर की सड़कें सुनसान नहीं रहती। सुबह होते ही जो यातायात शुरू होता है, तो रात तक थमने का नाम नहीं लेता। कैसे कैसे नाम पड़ गए हैं सड़कों के, हाय वे, रिंग रोड, सर्विस रोड और बायपास। बस, गली मोहल्ले की सड़कें, कुछ कुछ अपनी नजर आती हैं। ।

सड़क पर चलने से हमें, आदमी सड़क का, की फीलिंग आती है। पता चलता है, कहां गड्ढे हैं, कहां स्पीड ब्रेकर हैं, और कहां पानी भरा है। बदबू और कचरा, कितनी भी स्वच्छता रखो, अपना अस्तित्व सदा कायम रखता है। कॉलोनी और मोहल्लों में, रात्रि में, अक्सर वाहन, अपने ही घर के बाहर, सड़कों पर ही खड़े कर दिए जाते हैं। हमारी गाड़ी हमारे घर के सामने नहीं रहेगी तो कहां रहेगी।

कार से ही तो हमारी पहचान है।

अब अगर गाड़ी सड़क पर रखी है, तो उसे साफ भी करना पड़ता है। केवल कपड़ा मारने से गाड़ी साफ नहीं होती। ड्राइवर रखने की हमारी हैसियत नहीं, पास में एक अधिकारी जी का ड्राइवर है, उसे महीने का कुछ दे देते हैं, हफ्ते में एक दो बार गाड़ी धो भी देता है। अरे, बगीचे में भी तो पानी लगता है, गाड़ी भी इसी तरह धुल जाती है। ।

बात तो सही है, सड़क पर पानी फैलता है और इकट्ठा भी हो जाता है, लेकिन जब सभी ऐसा करते हैं, तो कुछ भी अजीब और असहज नहीं लगता। अरे साहब, उल्टे इस बहाने, सड़क भी धुल जाती है। अपनी अपनी सोच है।

रोज सुबह, मैं भी आदमी सड़क का बन जाता हूं, जब टहलने निकलता हूं। एक सज्जन रोजाना पौ फटते ही अपनी गाड़ी को बड़ी तबीयत से नहलाते हैं, मानो कार नहीं, उनकी गाय भैंस हो, जो जाहिर है, बाहर सड़क पर, उनके घर की शोभा बढ़ाती रहती है। बस गनीमत है, वह गोबर नहीं करती।

रोजाना उनकी गाड़ी का स्नान तो हो जाता है, लेकिन पानी की निकासी नहीं हो पाती। सड़क टूट फूट गई है, पानी गड्ढों में दिन भर भरा रहता है, लोग भी कहां आजकल मुझ जैसे पैदल चला करते हैं। गाड़ी से यह शहर बड़ा खूबसूरत नजर आता है।

कुछ पैदल आने जाने वाले, जगह बनाकर निकल ही जाते हैं। शरीफ लोग, कहां किसी के मुंह लगते हैं। आजकल तो बात बात में गोली चलने लग जाती है। आए थे, बड़े पंचायती करने। ।

अच्छा लगता है, पार्ट टाइम, आदमी सड़क का बनने में, आदमी कम से कम, जमीन से तो जुड़ा रहता है। ताजी हवा के सेवन के साथ स्टैमिना और सहन शक्ति भी बढ़ ही जाती है। भूलिए मत, आप एक आम नागरिक हो, कोई सेलिब्रिटी नहीं ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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