हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 135 ⇒ सच उगलवाने की मशीन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सच उगलवाने की मशीन “।)  

? अभी अभी # 135 ⇒ सच उगलवाने की मशीन? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

 

कलयुग में हम झूठ बोलते हैं, और सच हमसे उगलवाया जाता है। वैसे शास्त्रों के अनुसार झूठ बोलना पाप है, लेकिन सत्यवादी हरिश्चंद्र बनना भी कोई समझदारी नहीं।

आज की मिलावट की दुनिया में सच और झूठ के अनुपात से ही दुनिया चलती है। इसीलिए अदालतों में सच बोलने के लिए भी कसम खानी पड़ती है, गीता पर हाथ रखना पड़ता है।

हमारे सच झूठ से कोई पहाड़ नहीं टूट जाता, लेकिन अपराधियों से सच उगलवाना बहुत जरूरी हो जाता है, जिसके लिए उनका lie detector test होता है, जिसे पॉलीग्राफ टेस्ट भी कहते हैं, जो शरीर के हाव भाव, दिल की धड़कन और सांस के चलने की गति के आधार पर झूठ को पकड़ता है और सच उगलवाता है।।

लेकिन कोई जरूरी नहीं कि इस तरीके से आदतन अपराधियों से सच उगलवा लिया जाए, और झूठ पकड़ में आ जाए। हमारी पुलिस की शुद्ध हिंदी और थर्ड डिग्री भी जब काम नहीं करती, तब इन अपराधियों का नार्को टेस्ट होता है, जिसमें इन्हें दवा के जरिए उस अर्ध – अचेतावस्था में लाया जाता हैं, जहां ये सच उगल दें।

आम जिंदगी में झूठ बोलना कोई अपराध नहीं !

तारीफ इसमें है कि झूठ इस तरीके से, आत्म विश्वास से, बार बार बोला जाए, कि वह सच की शक्ल अख्तियार कर ले।

जब पुख्ता सबूतों के साथ झूठ बोला जाता है, तो कभी कभी तो बेचारे सच को भी शर्मिंदा होना पड़ता है।।

सच बोलने के लिए आपको सिर्फ भगवान से डरना पड़ता है। जब एक बार वह डर भी गायब हो जाए, फिर तो झूठ का रास्ता साफ हो जाता है। लोग झूठे के मुंह ही नहीं लगते। वैसे भी, हट झूठे कहीं के, और खाओ मेरी कसम, तो हमारा आम तकिया कलाम है ही।

जिन लोगों में आत्म विश्वास की कमी है जिनकी याददाश्त कमजोर है, और जिनमें झूठ बोलने से अपराध बोध होता है, उन्हें झूठ बोलने से परहेज करना चाहिए। गप मारना और लंबी लंबी हांकने का जिनको अभ्यास होता है, वे बड़े लोकप्रिय होते हैं। दफ्तरों में उनके पास टाइम पास करने वालों की भीड़ लगी रहती है। जिस दिन वे दफ्तर नहीं आते, दफ्तर की रौनक गायब हो जाती है।।

झूठ अगर तेज है तो सच ओज है। झूठ अगर आडंबर, दिखावा और चमक दमक है, तो सच सादगी, ईमान और सरलता है। सच शाश्वत, सनातन है, झूठ नश्वर है, भ्रम जाल है।

सच वह टंच सोना है, जिससे आभूषण नहीं बनाए जा सकते। थोड़ा झूठ का खोट हो, तो सच भी आकर्षक बन जाता है। रोटी में नमक जितना झूठ तो सच में भी चल सकता है, लेकिन अधिक झूठ चरित्र के लिए घातक है।

हमारी दुआ में असर नहीं, और तो और बद्दुआ भी नहीं लगती। भगवान हमारी नहीं सुनता, सच का कोई साथ नहीं देता। शायद यह सत्य का ही प्रताप हो, जब किसी जमाने में, पीड़ित का दिया शाप फलीभूत हो जाता था। हाथ में लेकर जल छोड़ने के साथ जो संकल्प ले लिया, सो ले लिया, शाप दे दिया सो दे दिया। फिर भले ही आप भगवान ही क्यों न हो।।

हम पुण्यात्माओं के शाप से तो बच सकते हैं, लेकिन झूठ का अभिशाप फिर भी हमारा पीछा नहीं छोड़ने वाला। जब नियति और प्रकृति आपको शाप देने लगे, तो आप कहां जाओगे। त्राहिमाम त्राहिमाम !

झूठ का दामन छोड़, जितनी जल्दी सच के रास्ते पर हम चल निकलें, इसी में हमारी और इस संसार की भलाई है ;

बहुत कठिन है

डगर पनघट की।

कैसे भर लाऊं,

मैं जमना से मटकी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 226 ☆ आलेख – बधाई इसरो… चांद पर भारत 🇮🇳 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 226 ☆

? आलेख –बधाई इसरो… 🚀 चांद पर भारत 🇮🇳?

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखबधाई इसरो… चांद पर भारत )

आजाद भारत में अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक विक्रम साराभाई हैं। उन्हीं के नाम पर इसरो ने चंद्र मिशन के चंद्रमा पर उतरने वाले लैंडर का नाम विक्रम रखा है। विक्रम शब्द का अर्थ होता है वीरता। बेहद तेज गति के राकेट से धरती से चंद्रमा तक की लम्बी यात्रा के बाद सधे हुये, धीमे धीमे, बिना टूट फूट के चंद्रमा की उबड़-खाबड़ सतह पर सफलता से उतरना सचमुच वीरता का काम है। इसरो का चंद्रयान -2 मिशन अपने इसी चरण में विफल रहा था क्योंकि उसका लैंडर 7 सितंबर 2019 को सॉफ्ट लैंडिंग का प्रयास करते समय लैंडर में ब्रेकिंग सिस्टम में विसंगतियों के कारण चंद्रमा की सतह पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था।

  विक्रम अपने कोख में मिशन के लक्ष्य रोवर प्रज्ञान को संभाले हुये है। प्रज्ञान का अर्थ ज्ञान होता है। लैँडर से रिलीज होकर अब प्रज्ञान चंद्रमा की सतह पर धीमी गति से मजे में १४ दिनो तक लगभग आधा किलोमीटर घूमे फिरेगा। पृथ्वी के ये चौदह दिन चंद्रमा का महज एक दिन होगा।  प्रज्ञान एक रोबोटिक वेहिकल है, जिसमें कृत्रिम बुद्धि युक्त अनेक उपकरण लगे हैं। प्रज्ञान में ६ चके हैं, यह २७ किलो का है। यह मात्र ५० वाट की सौर उर्जा से संचालित होता है। प्रज्ञान,  विक्रम को स्पेक्ट्रो-पोलरिमेट्री तथा फोटो संदेशे देकर अपनी खोज से अवगत करायेगा। विक्रम वह सारी जानकारी चंद्रमा के गिर्द घूमते आर्बीटर के माध्यम से धरती पर इसरो को भेजेगा। चित्र तथा डाटा एनालिसिस से चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के बारे में हम छिपे हुये रहस्य जान सकेंगे। अनुमान है कि इस क्षेत्र में पर्याप्त मात्रा में बर्फ हो सकती है। जिसका उपयोग भविष्य के मिशन में  ईंधन और ऑक्सीजन निकालने के साथ-साथ पीने के पानी के लिए भी किया जा सकता है।

आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा में सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से चंद्रमिशन ३ के लिये लॉन्च वेहिकल मार्क थ्री, अंतरिक्ष की यात्रा पर १४ जुलाई २३ को रवाना किया गया था। चंद्रमा की यात्रा पर भारत के इस सबसे भारी अंतरिक्ष यान, पर सामने की सीट पर सवार होकर चला विक्रम पहले धरती की परिक्रमा करता रहा। फिर पृथ्वी से सबसे दूरी वाली कक्षा से इसे चंद्रमा की ओर भेजा गया। चंद्रमा की कक्षा में पहुच जाने के बाद धीरे धीरे यान की कक्षा की परिधि छोटी की गईं। सबसे निचली कक्षा में विक्रम को प्रोपल्शन मॉड्यूल से अलग कर दिया गया था। बिलकुल तय योजना के अनुसार विक्रम चांद पर उतर गया।

 अन्य देशों के प्रयासों की चर्चा करे तो रॉयटर्स ने रूस की अंतरिक्ष एजेंसी  रोस्कोस्मोस के हवाले से बताया गया है कि लूना 25  नियंत्रण खोकर क्रेश हो चुका है। जापान भी  चंद्रमा की सतह पर उतरने की योजना के साथ लांच की तैयारी में है।

इस तरह भारत के चंद्र प्रोजेक्ट ने दुनियां में फिर से चांद पर खोज को हवा दी है। शीत युद्ध की समाप्ति तथा आर्थिक मंदी से ये अन्वेषण बरसों से बंद थे।

फिलहाल बधाई है बधाई।

भारत की सफलता के लाभ  दुनियां को और सारी मानवता को मिलने तय हैं।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ आओ दिलदार चलें, चांद के पार चलें… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक प्रेरक संस्मरणात्मक प्रसंग ‘आओ दिलदार चलें, चांद के पार चलें…’।)

☆ आलेख – आओ दिलदार चलें, चांद के पार चलें… ☆  श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

भारतीय सूचना सेवा की नौकरी में आने से कोई दो साल पहले और कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से बी एस सी की पढ़ाई पूरी करने के दो साल बाद की एक घटना मेरे ज़हन में आज भी बसी हुई है।

कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में ही कुछ मित्रों के साथ रहते हुए मैं और मेरे कुछ दोस्त यू पी एस सी की परीक्षाओं की तैयारी में लगे रहते थे। कभी कभार मौज मस्ती के लिए पास के गांवों में रह रहे दोस्तों के पास भी चले जाते थे। ऐसी ही एक पार्टी हमने पास के गांव मिर्ज़ापुर में आयोजित की थी। 21 जुलाई का दिन था 54 साल पहले।

 उस दिन रेडियो पर आंखों देखा हाल  सुनाया जा रहा था। हम सभी ने कुछ ज़्यादा मौज मस्ती नहीं की। बस रेडियो से कान लगाए बैठे थे। टेलीविजन उस वक्त बस दिल्ली में था।

रेडियो सुनते सुनते आधी रात गुज़र गई। एक बज गया। डेढ़ बज गया। पर वो समाचार नहीं मिला जिसका इंतजार था।

और फिर अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग की आवाज़ आई …

… मानव के लिए यह छोटा सा कदम है, पर मानवता के लिए एक बड़ी छलांग…

जी हां पहला मानव चांद पर पहुंच चुका था। बहुत बड़ी घटना थी यह उस समय की। शायद सर्वकालिक।

और हां, कुछ लोग उस समय आदमी के चांद पर पहुंचने की बात को मानते भी नहीं थे।

नील आर्मस्ट्रांग कई साल बाद भारत भी आए थे।

बस भारत का चंद्रयान लैंडर विक्रम भी चांद पर सफलतापूर्वक उतर गया  है। आज भी मैं उतना ही उत्साहित हूं। इसी उत्साह ने पुरानी यादें मस्तिष्क पटल पर लाकर रख दी।

आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया….

© श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन हिसार।

23.08.2023

मो : 9466647037

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार से स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 134 ⇒ मस्ती की पाठशाला… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मस्ती की पाठशाला।)  

? अभी अभी # 134 ⇒ मस्ती की पाठशाला? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

 

बचपन एक ऐसी पाठशाला है, जहां मस्ती सिखाई नहीं जाती, लेकिन पाई जाती है। आप यह भी कह सकते हैं, मस्ती, बचपन का दूसरा नाम है। मस्ती हर भाषा में होती है, हर उम्र में होती है, लेकिन मस्ती शब्द, किसी शब्द कोश में नहीं, इस शब्द का कोई पर्याय नहीं, इस शब्द का कोई अनुवाद नहीं, तर्जुमा नहीं।

बच्चा मस्ती नहीं करता। बच्चा अपने आप में, मस्त रहता है। मैं अगर कहूं, मस्ती डिवाइन (divine) होती है, तो यह गलत है, क्योंकि डिवाइन तो बच्चा होता है। हां, हम यह जरूर कह सकते हैं, मस्ती का दूसरा नाम बचपना है।।

बच्चों के लिए खेल ही मस्ती है। जब कि हमारे लिए मस्ती एक खेल है।

दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। जो अंतर डिवाइन और वाइन में है, वही अंतर एक बच्चे की मस्ती और संसारी मस्ती में है।

एक बच्चा अपने खेल में मस्त रहता है। मुझे जब मस्ती करनी होती है, मैं एक बच्चे के साथ बच्चा बन जाता हूं, बच्चा खुश हो जाता है, एकदम चहक उठता है, आओ अपन मस्ती करें। उसका आशय उस खेल से होता है, जो आपको एक दूसरी ही दुनिया में ले जाता है। इस संसार में एक संसार बच्चों का भी होता है, जिसमें बड़ों का प्रवेश वर्जित होता है।

अपनी उम्र घटाइए, कभी बच्चा तो कभी घोड़ा और ऊंट बन जाइए, और आसानी से प्रवेश पा जाइए।।

मस्ती एक शारीरिक, सांसारिक नहीं, भौतिक और बाहरी नहीं, आंतरिक अवस्था है।

मस्ती कोई बच्चों का खेल नहीं, क्योंकि बच्चों का खेल तो खेलना हम जानते ही नहीं। बच्चों की दुनिया में राग द्वेष, भूख प्यास, अमीरी गरीबी, धर्म और मजहब तथा अपना पराया होता ही नहीं। हां, पढ़ लिखकर, अपने पांव पर खड़े होकर, वह भी जान जाता है, जिंदगी क्या है, दुनियादारी क्या है और बाहरी मस्ती क्या है।

कबीर साहब कह गए हैं ;

मन मस्त हुआ तब क्यों बोले !

हीरा पाया गांठ गठियायो,

बार बार बाको क्यों खोले।

हलकी थी तब चढ़ी तराजू

पूरी भई, तब क्यों तौले।।

हंसा पाये मानसरोवर

ताल तलैया क्यों डोले।

तेरा साहिब घर माहीं

बाहर नैना क्यों खोले।।

कहै कबीर सुनो भाई साधो

साहब मिल गए तिल ओले।।

सत् चित् और आनंद ही तो वह मस्ती है, जिसे बचपन में पीछे छोड़ हम, तू चीज बड़ी है मस्त, मस्त में उलझे हैं। अब पुनः बालक बनने से तो रहे, तो क्यों न फिर कबीर की बात ही मान ली जाए।

तेरा साहिब घर माहीं

साहब मिल गए तिल ओले

जी हां वही ओले ओले ! सदगुरु कुछ नहीं करता, एक डॉक्टर की तरह आंख का भ्रम और माया रूपी तिल निकाल देता है, और आपको वह सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिसे मस्ती कहते हैं। मस्ती की पाठशाला में आपका स्वागत है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #148 – आलेख – “सोशल मीडिया पर एक्टिव रहना यानी अपनी रचनात्मकता को खत्म करना” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक शिक्षाप्रद आलेख  “सोशल मीडिया पर एक्टिव रहना यानी अपनी रचनात्मकता को खत्म करना)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 148 ☆

 ☆ आलेख – “सोशल मीडिया पर एक्टिव रहना यानी अपनी रचनात्मकता को खत्म करना” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

सोशल मीडिया एक ऐसा प्लेटफॉर्म है जो हमें दुनिया भर के लोगों से जुड़ने, जानकारी साझा करने और अपनी राय रखने की अनुमति देता है. यह एक शक्तिशाली उपकरण है जिसका उपयोग अच्छे और बुरे दोनों के लिए किया जा सकता है. हालांकि, सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग हमारी रचनात्मकता को खत्म कर सकता है.

सोशल मीडिया पर हम हर समय नई चीजें देख रहे होते हैं. हम दूसरों की पोस्ट देख रहे होते हैं, हम उनके विचारों और राय पढ़ रहे होते हैं, और हम उनसे जुड़ने की कोशिश कर रहे होते हैं. यह सब इतना अधिक हो सकता है कि हमें खुद के विचारों और राय उत्पन्न करने का समय नहीं मिलता है. हम दूसरों के विचारों से इतना प्रभावित हो जाते हैं कि हम अपनी रचनात्मकता को खो देते हैं.

सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग हमारी एकाग्रता को भी प्रभावित करता है. जब हम सोशल मीडिया पर होते हैं, तो हम लगातार नए अपडेट देखने के लिए स्क्रॉल करते रहते हैं. इससे हमारा ध्यान भंग होता है और हम अपने काम पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते हैं. यह हमारी रचनात्मकता को भी प्रभावित करता है क्योंकि हम नए विचारों को उत्पन्न करने में सक्षम नहीं होते हैं.

यदि आप अपनी रचनात्मकता को बढ़ाना चाहते हैं, तो आपको सोशल मीडिया का उपयोग सीमित करने की आवश्यकता है. आपको अपने समय को उन चीजों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो आपको रचनात्मक बनाती हैं, जैसे कि पढ़ना, लिखना, चित्र बनाना, या संगीत सुनना. आपको सोशल मीडिया पर केवल उन समयों पर जाना चाहिए जब आपको वास्तव में इसकी आवश्यकता हो.

यहां कुछ उदाहरण दिए गए हैं कि कैसे सोशल मीडिया आपकी रचनात्मकता को खत्म कर सकता है:

जब आप सोशल मीडिया पर होते हैं, तो आप लगातार नए अपडेट देखने के लिए स्क्रॉल करते रहते हैं. इससे आपका ध्यान भंग होता है और आप अपने काम पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते हैं.

सोशल मीडिया पर आप हर समय नई चीजें देख रहे होते हैं. आप दूसरों की पोस्ट देख रहे होते हैं, आप उनके विचारों और राय पढ़ रहे होते हैं, और आप उनसे जुड़ने की कोशिश कर रहे होते हैं. यह सब इतना अधिक हो सकता है कि आपको खुद के विचारों और राय उत्पन्न करने का समय नहीं मिलता है. आप दूसरों के विचारों से इतना प्रभावित हो जाते हैं कि आप अपनी रचनात्मकता को खो देते हैं.

सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग आपके तनाव और चिंता को भी बढ़ा सकता है. जब आप सोशल मीडिया पर होते हैं, तो आप लगातार दूसरों की तुलना कर रहे होते हैं. आप देख रहे होते हैं कि वे क्या कर रहे हैं, वे क्या खरीद रहे हैं, और वे कहां जा रहे हैं. यह आपको असुरक्षित और तनावग्रस्त महसूस करा सकता है.

यदि आप अपनी रचनात्मकता को बढ़ाना चाहते हैं, तो आपको सोशल मीडिया का उपयोग सीमित करने की आवश्यकता है. आपको अपने समय को उन चीजों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो आपको रचनात्मक बनाती हैं, जैसे कि पढ़ना, लिखना, चित्र बनाना, या संगीत सुनना. आपको सोशल मीडिया पर केवल उन समयों पर जाना चाहिए जब आपको वास्तव में इसकी आवश्यकता हो.

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© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

22-08-2023

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 133 ⇒ कुछ तो बोलो… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कुछ तो बोलो”।)  

? अभी अभी # 133 ⇒ कुछ तो बोलो? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

 

कुछ हमसे बात करो !

कुछ लोग बोलने को, बातें करने को तरस जाते हैं।

वे बोलते हैं, तो उन्हें कोई सुनने वाला नहीं होता, वे चाहते हैं, कोई उनसे सुख दुख की बात करें, लेकिन उन्हें कोई बात करने वाला ही नहीं मिलता।

बातों से हमारे जज्बात जुड़े रहते हैं। किसी की बात समझने के लिए, उसके दिल की गहराइयों तक जाना पड़ता है, लेकिन हम इतने खुदगर्ज होते हैं कि जब तक किसी से कोई फायदा मतलब ना हो, हम किसी को घास नहीं डालते। होती है एक उम्र बेफिक्री और नादानी की, जिसमें सब अपने ही नजर आते हैं। किसी से भी दिल खोलकर बातें करने की।।

बच्चा जब छोटे से बड़ा होने लगता है, तो सबसे पहले चलना और बोलना सीखता है। वह लगातार चलते ही रहना चाहता है, बिना रुके बोलते रहना चाहता है। वह सुनता है, समझता है और छोटे छोटे वाक्य बनाकर अपनी बातें समझाना चाहता है, कभी तुतलाता है, तो कभी हकलाता है।

कितनी प्यारी लगती है, बच्चों की बोली ! है न, है न, है न, के बिना गाड़ी ही स्टार्ट नहीं होती। और एक बार गाड़ी स्टार्ट हुई तो फिर जिंदगी भर रुकने का नाम नहीं लेती। बातों से पेट नहीं भरता, लेकिन बात है कि हजम भी नहीं होती।।

लेकिन अचानक क्या बात हो जाती है, कि कभी कभी बात ही नहीं बन पाती। कुछ बातें कही नहीं जाती, और कुछ बातें, कहे बिना रहा नहीं जाता। इंसान समझ ही नहीं पाता, जाएं तो जाएं कहां ! समझेगा, कौन यहां, दिल की जुबां।

कभी खुद पे, कभी हालात पे रोना आया, बात निकली तो, हर बात पे रोना आया !

अचानक उसे लगता है, वह बहुत अकेला है।।

उनको ये शिकायत है कि,

हम कुछ नहीं कहते।

अपनी तो ये आदत है कि

हम कुछ नहीं कहते।

लेकिन ऐसा होता क्यों है, क्योंकि कुछ कहने पे, तूफान उठा लेती है ये दुनिया। अब इस पे कयामत है कि, हम कुछ नहीं कहते।

यूं हसरतों के दाग, मुहब्बत में धो लिए। खुद दिल से दिल की बात कही, और रो लिए। होठों को सी चुके तो जमाने ने यूं कहा, यूं चुप सी क्यूं लगी है, अजी कुछ तो बोलिए।।

बोलने से इंसान हल्का होता है, जब कोई नहीं सुनता, तो इंसान खुद को ही सुनाता है, कभी खुद से बात करता है, कभी आईने से। कभी रूमाल गीले करता है तो कभी कागज़ रंग देता है। कभी गज़ल, रुबाई, कविता, तो कभी महाकाव्य प्रकट हो जाता है।

हम वही सुनना चाहते हैं जो कर्णप्रिय हो। बच्चों की मीठी बातें, कोयल की कूक, सुर संगीत की तान, किसी का दुखड़ा, किसी की कर्कश आवाज, क्रोध और अपमान भरे शब्द कौन सुनना चाहेगा।।

और आखिरकार उम्र का एक पड़ाव ऐसा भी आ जाता है कि आदमी अकेला पड़ जाता है ;

साथी ना कोई मंजिल

दीया है न कोई महफिल

चला मुझे लेके ऐ दिल

अकेला कहां …

और वह बेचारा कहता रह जाता है, बीती बातों का कुछ खयाल करो। कुछ तो बोलो, कुछ हमसे बात करो। तुम मुझे यूं भुला न पाओगे।।

अपनी अपनी सभी कहना चाहते हैं, दूसरों की कोई सुनना नहीं चाहता, फिर भी एक अदृश्य श्रोता है, जो सबकी सुनता भी है, और सबको समझता भी है, बस उसे ही सुनाएं अपना हाले दिल, करें अपनी दास्तान बयान, वह सुनेगा, मन लगाकर सुनेगा, आपके अंदर बैठकर सुनेगा। उसके रहते कभी आप अकेले नहीं, असहाय नहीं, बेचारे नहीं।

सुनता है गुरु ज्ञानी ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 80 – पानीपत… भाग – 10 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।

☆ आलेख # 80 – पानीपत… भाग – 10 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

बैंक्स को नेटवर्किंग जिसे कोर बैंकिंग भी कहा गया, उसी तरह अटपटा लगा जैसे हायर सेकेंडरी तक हिंदी या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ने के बाद महाविद्यालयीन शिक्षा अंग्रेजी में हो और समझने वाले और समझाने वाले अलग अलग पादान पर खड़े हों. इसी को “सर के ऊपर से निकलना” भी कहा जाता है. बदलते समय के साथ आधुनिकता को अपनाना हमेशा वाणिज्यिक अनिवार्यता रही है और इस परिवर्तन को सुगमतापूर्वक लागू करना भी उतना ही आवश्यक है. यहाँ कम्फर्ट ज़ोन में रहने का मतलब पाषाण युग में रहने जैसा पिछड़ापन माना जाता है. अगर रुक जायेंगे तो बदलाव आपको अकेला छोड़कर आगे बढ़ जायेंगे और यह अयोग्यता की पहचान बन जायेगी. कोर बैंकिंग प्रणाली को लागू करना बड़ी और जटिल शाखाओं के लिये उससे भी बड़ी और अनवरत चलने वाली जटिलताएं लेकर आया. इसे विशेषज्ञों की भाषा में “teething problems” कहा जाता है. विडंबना है कि जो इस तकलीफ से गुजरते हैं वो इस टर्मिनालाजी को नहीं समझ पाते और जो समझ पाते हैं, वे जटिलता किस चिड़िया का नाम है, ये समझ नहीं पाते. तो जो कुछ नहीं जानते थे और जिनके सर पर ऐसी कोई जिम्मेदारी नहीं थी, उनके लिये ये आम बात थी पर जिन्हें इस प्रणाली को शाखाओं में लागू करना था, उनके लिये ये भी एक तरह का पानीपत था. दिन हो या रात, जिस तरह बेटी के विवाह में पिता को कन्या के अलावा भी बहुत कुछ दान करना पड़ता है, छोड़ना पड़ता है, उसी तरह बेहाल थे वे सारे प्रबंधक जो इन जटिल शाखाओं के सिरमौर थे. उनकी हालत हाइवे या फ्लाईओवर से सटे घर के निवासी समान था जहाँ गुजरनेवाली हर बस हर ट्रक लगता है सीने पर से ही गुजर रही है.

पानीपत शाखा में भी यही जटिलता नजर आने लगी थी. नये सिस्टम को जानना और समझना शाखा के हर स्टाफ की इच्छा थी जो वक्त के साथ धीरे धीरे क्षमता में वृद्धि कर ही देता. पर कस्टमर्स की आकांक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप हर काम का होना धीरे धीरे ही संभव था, त्वरित निदान सपना था. शुरुआत में ऐसा ही लगा कि पहले से कच्चे रास्तों पर चलने वाली गाड़ी, रेतीले पथ पर चल कम और घिसट ज्यादा रही है.

दशहरा-दीपावली का अंतराल दैनिक कामों के अलावा फेस्टिवल बोनांजा भी लेकर आता है जो वाहन ऋणों के बजट को आसानी से पाने में मदद करता है. ये ऐसा समय भी होता है जब प्रवासी स्टाफ ये फेस्टिवल अपने परिवार के साथ मनाने के लिये अवकाश मांगता है. हमारे मुख्य प्रबंधक इन सबकी जिम्मेदारी अपने अधीनस्थ प्रबंधकों को सौंपकर, उनके कालातीत होने वाली यात्रा अवकाश सुविधा युक्त यात्रा पर रवाना हो चुके थे. कुरुक्षेत्र का युद्ध ऑफीशियेटिंग कर रहे योद्धाओं द्वारा लड़ा जा रहा था. शायद ये आत्मा की गहराइयों तक पहुंच रहे “स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति” के संकल्प का नतीजा था कि संस्था से विरक्ति की भावना उन्हें उत्तरदायित्व निर्वहन की चिंताओं से भी मुक्त कर रही थी. आई. सी. यू. से वेंटिलेटर की यात्रा का रिटर्न टिकट प्रबल जिजीविषा के बिना मिलता नहीं है. अंतत:वही हुआ जो ऐसी स्थिति में होता है. अर्जुन को गीता का ज्ञान देने वाले कृष्ण इस कुरुक्षेत्र में नहीं थे जो उन्हें रणभूमि के योद्धाओं के कर्तव्य और रणभूमि नहीं त्यागने की मजबूरी समझा पाते. पलायन दशहरे से दीपावली पर्व तक का अंतराल ले चुका था और देवउठनी एकादशी के साथ ही पानीपत के देव भी उठकर, मंद गति और तनाव से ध्वस्त मनोबल के साथ अवतरित हुए. अवकाश से वापसी, व्यक्तित्व में जोश, ताजगी और क्षमता में वृद्धि लेकर होती है जो यहाँ नदारद थी.

पुनः यह लिखना आवश्यक है कि इस श्रंखला का किसी व्यक्ति विशेष से कोई संबध नहीं है. पानीपत का सामना करना असाइनमेंट की अनिवार्यता होती है जो व्यक्ति पर ही निर्भर करती है. श्रंखला जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – विशेष रचनाएँ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

?  हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष  ?

मैंने अपनी जन्मशती के आयोजन को लेकर मोटे तौर पर एक खाका तैयार कर लिया है। केंद्रीय आयोजन यही होगा। बाकी लोग भी चाहें तो अपनी-अपनी हैसियत, विचारधारा, शत्रु अथवा मित्र-भाव से आयोजन कर सकते हैं पर इसके लिए निर्धारित शुल्क देकर फ्रेंचाइजी लेनी होगी। ऐसी संस्था जो मुझे समस्त भारतीय भाषाओं में सदी का महानतम लेखक घोषित करे, उसे इस शुल्क से छूट मिल सकती है। यह छूट मुझे महान साबित करने के अनुपात में होगी। जिस संस्था के हाथ इस मामले में तंग हों, वे चाहें तो शत्रु-लेखकों की निंदा कर सकते हैं। इससे मेरी आत्मा प्रसन्न होगी। संस्थाएँ चाहें तो मैं उन्हें ऐसे लेखकों की सूची सौंप सकता हूँ।

 – हरिशंकर परसाई

 

स्व हरिशंकर परसाई जी के उपरोक्त उद्गार पढ़ने के पश्चात भी ई-अभिव्यक्ति ने उनसे संबन्धित कुछ रचनाओं का संकलन करने का साहस किया है। आज स्व परसाई जी का 100वां जन्मदिवस है। आज से पूरे विश्व में परसाई जन्मशती के आयोजन प्रारम्भ हो रहे हैं। कई विशेषांक निकले जाएंगे, विशाल आयोजन होंगे। इस बीच ई-अभिव्यक्ति भी अपने प्रबुद्ध पाठकों को पूरे वर्ष स्व परसाई जी से संबन्धित साहित्य साझा करने का प्रयास करता रहेगा।  

 – जय प्रकाश पाण्डेय

 ? परसाई के व्यंग्य बाण – श्री अनूप शुक्ल  ?

कुछ आदमी कुत्ते से अधिक जहरीले होते हैं।

मार्क ट्वेन ने लिखा है-‘यदि आप भूखे कुत्ते मरते कुत्ते को रोटी खिला दें , तो वह आपको नहीं काटेगा। कुत्ते में और आदमी में यही मूल अंतर है।’

यह मध्यम वर्गीय कुत्ता है। उच्च वर्गीय होने का ढोंग भी करता है और सर्वहारा के साथ भौंकता भी है।

एक ऐसा आदमी था, जिसके पास जलती मशाल ले जाओ तो वह बुझ जाए।

गरीब आदमी न तो ‘ एलोपैथी’ से अच्छा होता है , न ‘होम्योपैथी’ से; उसे तो ‘सिम्पैथी’ ( सहानुभूति) चाहिए।

प्यार करने वाली स्त्री बड़ी खतरनाक होती है। न जाने कब किससे प्यार करने लगे और तुम्हें पिटवा दे।

जोगिया से सिद्ध तक का जो रास्ता है, वह छल, कपट, प्रपंच और पाखण्ड के बीहड़ वन में से गुजरता है।

कुछ होते हैं जो दुख भी सुविधा से मांगते हैं, जिनका विछोह भी अजब रंगीनियों से भरा होता है, जिनका दुख भी एक त्योहार हो जाता है।

दुनिया को इतनी फुर्सत नहीं होती कि वह किसी कोने में बैठे उस आदमी को मान्यता देती जाए जो सिर्फ अपने को सही मानता है। उसकी अवहेलना होती है। अब सही आदमी क्या करे। वह सबसे नफरत करता है। खीझा रहता है। दुःख भरे तनाव में दिन गुजारता है।

उनकी मूंछो की सिफत यह थी कि आदमी और मौका देखकर बर्ताव करती थी। वे ‘किसी के सामने ‘आई डोंट केयर’ के ठाठ की हो जातीं। फिर वे किसी और के सामने वे मूंछों पर इस तरह हाथ फेरते कि वे ‘आई एम सॉरी सर’ हो जातीं।

आदमी को समझने के लिए सामने से नहीं, कोण से देखना चाहिए। आदमी कोण से ही समझ में आता है।

वे और होते हैं जिनके चरण-स्पर्श से पत्थर भी स्त्री बन जाता है। वे अपनी स्त्री को छोड़ देने वाले होते हैं।

जिन घरों में पचीसों तरह के ’कैक्टस’ हैं, वे अभी तक ’वेस्टलैंड’(बंजर) नहीं हुये, बल्कि फ़ूलते-फ़लते जा रहे हैं।

भारत के चौकीदार का यह स्वभाव हो गया है कि अमरीकी या अंग्रेज चोरी करने लगें, तो वह इधर-उधर हो जाता है।

हमने ईमान और आत्मसम्मान की रक्षा के लिये भी चौकीदार रखे हैं पर वे इनकी भी चोरी कर लेते हैं। चौकीदार उन्हें देखकर हट जाता है।

वैसे तो चौकीदार वर्दी पहनकर , बन्दूक लेकर अकड़ा रहता है, पर अमरीकी और अंग्रेज चोरी करने आते हैं, तो वह पान खाने चला जाता है।

ये विदेशी भी व्यर्थ ’रिस्क’ लेते हैं। चोरी करने की जरूरत ही नहीं है। हममें से ही कुछ लोग खोमचे और आत्मसम्मान भरकर बेचने बैठे रहते हैं। उनसे खरीद लें। सस्ता पड़ेगा।

छुपाने के मामले में अंग्रेजी भाषा कमाल करती है।

तपस्वी को पेट भरने पर बदमाशी सूझती है और खाली पेट दर्शन।

वैज्ञानिक अनुसन्धान के सबसे महान क्षण में भी पुलिस को नहीं भूलता , यह मानव-स्वतंत्रता के लिये शुभ लक्षण है।

टेलीफ़ोन के आविष्कार से मनुष्य जाति का नैतिक स्तर उठ गया। फ़ोन पर सच और झूठ दोनों अधिक सफ़ाई से बोले जा सकते हैं। आदमी आमने-सामने तो बेखटके झूठ बोल जाता है, पर सच बोलने में झेंपता है।

टेलीफ़ोन के कारण संसार में सत्य-भाषण लगभग 67 प्रतिशत बढा है। इससे मनुष्य जाति अधिक वीर भी बनी है। जिसकी छाया से भी डर लगता था, उस आदमी को फ़ोन पर गाली भी दी जा सकती है और जब तक वह पता लगाकर आपको मारने आये, आप भागकर बच सकते हैं।

(व्यंग्यकार श्री अनूप शुक्ल जी की वाल से)

सुश्री सुसंस्कृति परिहार

 ? परसाई के मिथकीय व्यंग्यों में शिक्षा संस्थान  – सुश्री सुसंस्कृति परिहार ?

हरिशंकर परसाई व्यंग्य की दुनिया का एक ऐसा नाम जिसने व्यंग्य को विधा के रूप में ना केवल लोकप्रिय बनाया ,सम्मान दिलाया बल्कि व्यंग्य लेखकों की एक ऐसी पंक्ति तैयार की जिसने खरी खरी कहने की परसाई परम्परा को आगे बढ़ाया । उनके व्यंग्यों से जीवन का कोई भी पहलू अछूता नहीं रहा जिस पर उन्होंने ईमानदारी से कलम ना चलाई हो । उन्होंने अपना भी विश्लेषण जिस साफगोई से किया वह विलक्षण ही नहीं साहित्य में दुर्लभ है ।यह हरिशंकर परसाई को औरों से अलग करता है ।

बहरहाल हम यहां उनके उन मिथकीय  व्यंग्यों की चर्चा करेंगे जो काफी लोकप्रिय हुए और पोंगापंथियों के बीच ना केवल कसक छोड़ गये बल्कि समाज के शिक्षा संस्थानों की हालात का रहस्योद्घाटन भी कर गये ।”लंका विजय के बाद “परसाई के एक व्यंग्य लेख में देखें वे लिखते हैं लंका विजय के बाद अयोध्या में आए वानरों ने बड़ा ही उत्पात मचाना प्रारंभ कर दिया । वे परिश्रम करना नहीं चाहते थे ।क्योंकि उन्होंने रावण के सत्य संग्राम में बड़ा ही परिश्रम किया था ।उनकी दिलचस्पी अब अयोध्या के विविध क्षेत्रों में उच्च पदों को पाने की थी ।  ताकि वे अयोध्या पर शासन कर सकें ।जब उन पदों पर योग्यता की बात आती है वे कहते हैं युद्ध के दौरान उनके शरीर पर लगे घाव ही उनकी योग्यता के प्रमाण हैं ।वे राजा रामचंद्र से मांग करते हैं कि वे घावों की  संख्या के आधार पर उनकी योग्यता निर्धारित करके शासन के पद दें ।अयोध्या में दफ्तर  खुलता है और वहां के अधिकारी को अपने घाव दिखाकर प्रमाण पत्र मिलने लगते हैं ।एक वानर अपने शरीर पर घाव ना देखकर  परेशान है ।राम रावण युद्ध के कारण चूंकि वह भाग गया था और रावण की मृत्यु के बाद अयोध्या लौटने वाली वानर सेना के साथ हो गया इसलिए उसके शरीर पर उस समय कोई घाव नहीं थे औरअब क्योंकि घाव गिनकर पद मिल रहे हैं इसलिए वह शरीर पर घाव बनाता है ।उसकी पत्नी पूछती हैं । हे नाथ आप कौन सा पद लेंगे तो वह कहता है कि मैं कुलपति बनूंगा मुझे बचपन से विद्या से प्रेम है ।मैं ऋषियों के आश्रम के आसपास मंडराता रहा हूं ।मैं विद्यार्थियों की चोटी खींचकर भाग जाता था तथा हवन सामग्री तथा एक बार तो ऋषि का कमंडल ही ले भागा । इसी से तुम मेरे विद्या प्रेम का अनुमान लगा सकती हो। मैं कुलपति ही बनूंगा ।

इस मिथक के जरिए उन्होंने शिक्षा संस्थानों में हो रही नियुक्तियों का पर्दाफाश किया है साथ ही यह भी कोशिश की गई है कि किस तरह अक्षम अध्यापक और अधिकारी पदों पर विराजमान हो रहे हैं ।इसके लिए,झूठे प्रमाणपत्र पेश किए जा रहे हैं साथ ही साथ चुनावी दौर में सहयोग करने वालों का यूं ही कर्ज का भुगतान भी हो रहा है । परसाई का आज़ादी के चंद सालों बाद ही सरकार से उनका मोहभंग हो गया था ।शिक्षा और शिक्षा संस्थानों की इस हालत में कैसे युवा तैयार हुए हम देख रहे हैं । छात्रों का बौद्धिक विकास कुंठित हो रहा है ।अब तो बिना आई ए एस और आई पी एस को नियुक्त किया जा रहा है

छात्रों की इसी मनोदशा को परसाई जी एकलव्य ने अपने गुरु को अंगूठा दिखाया में गुरू द्रोणाचार्य के बारे में लिखते हैं एक विश्वविद्यालय में राजनीति के प्रतिष्ठित अध्यापक थे द्रोणाचार्य ।पदक्रम में वे रीडर कहलाते थे ।रीडर(पढ़ने वाला) उस अध्यापक को कहते थे जिसे पढ़ना नहीं आता था और वह पाठ्यक्रम को कुंजी से कक्षा में पढ़कर काम चला लेता था ।कुछ छात्रों पर विशेष ध्यान देने वाला त्रिशंकु बेचारा ऐसा ही अध्यापक था जो किसी शहर के एक गंदे मोहल्ले के एक छोटे से कच्चे मकान में रहता था ।मकान मालिक के जो बेटे उसकी कक्षा में पढ़ते थे वह उनका बहुत ध्यान रखता था । परीक्षा के मौसम में उन्हें महत्वपूर्ण प्रश्न बता जाता था और अधिक नंबर भी देता था ।सोचता था मकान मालिक उससे प्रसन्न होकर पूछेगा तुझे क्या चाहिए और मैं कहूंगा एक अच्छा सा मकान। एकलव्य ने गुरू को अंगूठा दिखाया में गुरू द्रोणाचार्य की अपने प्रिय शिष्य अर्जुनदास को प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कराने के लिए जब एकलव्य दास ने अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर गुरु दक्षिणा के रूप में प्रस्तुत करने का आग्रह किया तो वह कहता है मैं बांए हाथ से भी कुशलता से परीक्षा दे सकता हूं तब आचार्य क्रोधित और दुखी हुए ।उसी शाम उन्होंने अर्जुनदास से कहा एकलव्य का अंगूठा मैं नहीं ले सका ।पर मेरे पास एक अकाट्य दांव भी है जिससे वह बच नहीं सकता तुम्हारा एक पेपर मुझे जांचने मिलने वाला है और दूसरा मित्र देवदत्त शर्मा को ।इन दोनों में तुम्हें 100में से 99अंक मिल जायेंगे और तुम एकलव्य दास से आगे निकल जाओगे । समसामयिक हालातों पर मिथक के सहारे परसाई जी छात्रों के साथ हो रहे व्यवहार को सामने रखते हैं ।

अब छात्रों का क्या दोष ?वे गुरूजनो की मन: स्थितियों का फायदा उठाकर गुरु सेवा में तत्पर रहते हैं और पढ़ने से दूरी बना लेते हैं ।वह गुरु पत्नियों की कलंक कथाएं सुनासुना कर खुश रखता है ।सिनेमा ,नाटक दिखाता है अपने गुरु का पूरा ध्यान रखता है । छात्रों की इस मानसिकता के निरंतर विस्तार पर परसाई की चिंता समाज को नहीं झकझोरती । छात्रों का हुजूम भी इस व्यवस्था के प्रति नतमस्तक हो जाता है चंद लोग जो प्रतिरोध धश करते हैं उन्हें रेस्टीकेट कर अपराध की ओर धकेल दिया जाता है ।

वर्तमान दौर में धनसम्पदा को महत्त्व देकर ज्ञान को किस तरह से निम्न दिखाने की निरंतर कोशिशें हो रही हैं लक्ष्मी की विजय व्यंग्य में परसाई उस घटनाक्रम का वर्णन करते हैं जिसके प्रारंभ में देवी लक्ष्मी भगवान विष्णु से संसार में धन वितरण करने का दायित्व अपने कंधे पर ले लेती हैं जिसे आगे चलकर अपना अधिकार मानकर धन का दुरुपयोग करती हैं ।मूढ़मतियों को धन देकर उनसे सम्मान और पूजा प्राप्त कर लेती हैं । बुद्धिमान और सदाचारी को कुछ नहीं देती और जिससे वह अत्यंत दुखी रहते हैं ।इस संदर्भ में वह भगवान विष्णु से कहतीं हैं महराज ये दुष्ट है यह वीणा लिए हुए सरस्वती की पूजा करते हैं ्। ।बस इसीलिए इनका यह हाल है ।देखती हूं ,सरस्वती कैसे इनका पेट भरती है ? अभिप्राय यह कि समाज में आज ज्ञान सम्मानहीन धनहीन है और मूढ़मति लक्ष्मी की कृपा से धन और ऐश्वर्य के साथ सम्मान पा रहे हैं।

वास्तव में परसाई ने सामाजिक व्यवस्था खासकर शिक्षा संस्थानों की चीर फाड़ कर यह जताने की पुरजोर कोशिश की कि यदि इस बदरंग व्यवस्था में परिवर्तन नहीं लाया गया तो स्थितियां भयावह होंगी ।शिक्षा,नौकरी ,व्यवसाय, राजनीति सब पूंजीपतियों के पास पहुंच जायेगी । अफसोसनाक यह कि हम तेजी से इसी दिशा में बढ़ रहे हैं । आज परसाई के पुनर्पाठ की जरूरत है ताकि नई पीढ़ी इस खौफ़ज़़दा माहौल से विमुक्ति का पैगाम ले सके ।

 – सुश्री सुसंस्कृति परिहार

? परसाई की टूटी टांग – श्री अनूप मणि त्रिपाठी ?

काश तुमसे मिलता!

तुमसे बात की होती ! तुमको पास से देखता ! और हां, तुम्हारी वह टूटी हुई टांग को तो मैं जरूर देखना चाहता ! मेरी यह तमन्ना सुदामा के चावल की तरह पोटली में बंद मेरे मन के किसी कोने में दबी हुई है ! तुमसे कभी मिला नहीं पर हर वक्त तुमको महसूस किया। तुम्हारे व्यक्तित्व की ताप से मेरी आत्मा को हमेशा बल मिला। जब कभी कोई विसंगति दिखी तो तुम पास ही खड़े नजर आये। हमारा ये देश विविधताओं से कम विसंगतियों से ज्यादा भरा है। और यह तुमसे बेहतर कौन जान सकता है ! जो अपने पहले सफेद बाल को भी नहीं छोड़ता। आज भी आवारा भीड़ के खतरे हैं। आज भी जमाना पगडंडियों का ही है। सदाचार का तावीज आज भी दिया-लिया जा रहा, मगर वह काम नहीं कर रहा। आज भी राम का दुख और एक गरीब का दुख अलग है। अभी भी रह-रह कर बंसत घायल होता है और गणतंत्र अक्सर ठिठुरा हुआ आता है। पवित्रता का दौर अभी खत्म नहीं हुआ, जिसमें बेईमानी की परतें छुपी हुयी हैं। विकलांग श्रद्धा का दौर तब भी चल रहा था और अभी भी चल रहा है। अब कहां तक गिनाऊं तुम्हें ! विसंगतियों की गतियों की इस रफ्तार में तुम हमेशा मेरे साथ ही रहे ! अब तुम खुद ही समझ सकते हो कि कैसे !

तुम ने लिख-लिख कर अपना पूरा जीवन अकाल उत्सव की भांति कर लिया। तुम ने लिख-लिख कर कितने पाखंडों को खंड खंड किया, कितने आडम्बरों को मलबे में बदल दिया। अनाचार को अनवरत अनावर्त किया। इसकी कीमत भी चुकायी। टूटी हुयी टांग के रूप में।  तुम चाहते क्या नहीं पा सकते थे, मगर तुम अंगारों पर चलने वाले कुलंगार बने ! तुमने अपने आंगन में बरसाती घास के सिवा कुछ भी उगने नहीं दिया। जबकि तुम देख रहे थे जिन्हें सूंघने की तमीज नहीं उनके पास पुष्पवाटिका है और यह जानते हुये भी की फूल भी कभी बड़ी बेशर्मी लाद लेते हैं और अच्छे खाद पर बिक जाते हैं। वक्त ने, जमाने ने जितने प्रहार तुम पर किये तुम ने उससे कम अपने पर नहीं किये ! वरना क्या जरूर थी अच्छी- भली नौकरी छोड़ कर पूर्णकालिक लेखक बनने की ! शादी नहीं, नौकरी नहीं, घर नहीं..बस एक घड़ी,कलम और चश्मा ! यह तो स्वयं से चुनौतियों की कुल्हाड़ी पर पैर मारना हुआ ! तुम लिखे अविशिष्ट से बचने के लिये और आज लिखा जाता है विशिष्ट बनने के लिये ! अच्छा हुआ तुम दुनियावी मामले से कुछ नहीं बने ! तुम पुलिस बनाना चाहे ! सोचो अगर तुम बन जाते तो इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर कैसे जाता !

तुमने लिख लिख कर ढेर नहीं लगाया। क्योंकि लिखना तुम्हारे लिये सीढ़ी नहीं हथियार था। आज लिखना सीढ़ी है अध्यक्ष महोदय के घर की खिड़की तक पहुंचने के लिए। आज लोग गम्भीर व्यंग्य लिखते हैं। तुमने गम्भीर होकर व्यंग्य लिखा। तुम्हारी लेखन से इतर जो युग और जनपुकार थी, के लिये राजनैतिक कर्म करना, वस्तुतः तुम्हारे लेखन में जान डालती थी।  इसीलिये तुम लिखे ही नहीं, तुमने टांग भी अड़ाई। जिस मामले को तुमने जरूरी समझा। और जब इससे काम नहीं चला तो जरूरत पड़ने पर लंगड़ी भी लगाई। तुम्हारी टूटी टांग तुम्हारे फिसलने का सबब नहीं। मगर इसका यह मतलब नहीं कि तुम फिसले नहीं ! एकाध बार तुम भी फिसले। राजनीतिक पद के लिये पापड़ भी बेले ! जहां आज इसे व्यवहारिक होना कहा जाता है, वहां तुमने इसे गर्दिश का नाम दिया। तुमने अपनी फिसलन पर विजय पायी। तुमने अपनी कमजोरियों की हंसी उड़ाई और उस पर भी जमकर लिखा। तुम्हारी इन फिसलनों को इंगित कर आज के कुछ लेखक तुमसे बड़ा बनाना चाहते हैं। आज तुम होते तो इस बात पर हंसते,(जो अभावों में भी हंस लेता हो, ऐसी बात पर तो जरूर हंसता) और कहते ‘कौन ! वे जो चांदनी में भी छाता ले कर चलते हैं !’

जैसे मेरे पुरखे तुम, वैसे तुम्हारे पुरखे प्रेमचंद। अगर उनके फटे जूते से निकली अंगुली ने दिशा दिखायी तो तुम्हारी टूटी हुयी टांग ने भी वही काम किया। तुम्हारी इस लिखने की बीमारी से कइयों का मुंह कसैला हुआ। तम्हें उखाड़ने के कौन से जतन नहीं किये। जब तुम्हें नहीं उखाड़ पाये तो तुम्हारी टांग तोड़ दी। तिस पर भी तुमने उनका मनोबल तोड़ दिया। उनकी गलतफहमी को दूर कर दिया। उनको यह दिखा दिया कि अगर लेखक नहीं चलेगा तो उसकी रचना चलेगी। अपनी टूटी हुई टांग को लेकर ही एक व्यंग्य लिख दिया। अब उन बेचारों को कौन समझाये कि भई यह अपनी-अपनी बीमारी है। अगर तुमको प्रगीतशीलता, राष्ट्रवाद, संस्कृति या जो भी सुभीता लगे, मुखौटा लगाने की बीमारी है तो मेरे पुरखे को उन्हें उतार फेंकने की।  तुम पैर उखाड़ने के लिये उसकी टांग तो तोड़ सकते हो ,मगर उसकी जड़ें नहीं। जो एकेडमी, सेमिनार,समिति, विदेशयात्रा में नहीं जनता के दिलों में जमती है ! इतने पर भी तुम सुधरे नहीं!  तुम कभी बाज नहीं आये। तुम हमेशा बेचैन रहे। दुखिया दास कबीर वाला मामला। एक संवेदशील मन से प्रतिगामी शक्तियों पर तुमने हमेशा कड़ा प्रहार किया। लिख-लिख कर न जाने तुमने कितनों को बिगाड़ा पर तुमने अपने ईमान को कभी भी बिगड़ने नहीं दिया। तुमने ऐसे तो बिगड़ा ही, वैसे भी बिगड़ा ! तुम्हारी देखा देखी न जाने कितने व्यंग्य लिखने लगे। यह वाक्य और वाकया स्वयं में एक व्यंग्य है। क्योंकि व्यंग्य तो उनसे कोसो दूर रहा ! वे भूल गये कि दो नाक वाले लोग चाहे भी तो व्यंग्य नहीं लिख सकते !

इस बात का मुझे बहुत अफसोस होता है और होता रहेगा कि तुमसे मिल नहीं सका। इतना अफसोस तो अपने इस लेखन पर नहीं होता। देखता तुम्हारी उन आँखों को और देखता की वे कैसे मुझे भेदती हैं ! तुम मुझ पर कोई ऐसा तीखा व्यंग्य लिखते कि मेरा मन करता कि तुम्हारे पैर छू लूं ! शरणागत हो जाऊं और कहूं कि बस अब मत लिखना ! क्योंकि निःसंदेह वह तीखा होता ! कहता कहीं ऐसे भी लिखा जाता है कि सामने वाले के दम्भ का चूर्णिकरण हो जाये ! तुमसे खूब बातें करता, जानता छत टपकने पर भी एक लेखक ने अपनी कलम की नोंक से आसमान कैसे सर पर उठा रखा है ! मिलता तो देखता तुम्हारे चौड़े ललाट को। उनकी पड़ी सिलवटों में तुम्हारे गर्दिश के दिनों की इबारत को ‘ जय जगदीश हरे, भक्त जनों के संकट पल में दूर करे। गाते-गाते पिता जी सिसकने लगते, मां बिलखकर हम बच्चों को हृदय से चिपका लेती और हम भी रोने लगते।’ को पढ़ता और तुम्हारे भीतर उसे ढूढने की कोशिश करता ! महसूसता कैसे जिम्मेदारी को गैर जिम्मेदारी की तरह तुम निभा पाये ! मगर सच कहूं मेरी सबसे ज्यादा दिलचस्पी तुम्हारी वो टूटी हुई टांग को देखने की होती ! देखता तुम्हारे लिखने के बाद मिले उस इनाम को ! छूता यह जानते हुये भी कि तुम्हें कमजोर दिखना गवारा नहीं। तुम श्रद्धेय नहीं होना चाहते। हद से हद तीसरे दरजे के। बस उससे ज्यादा नहीं। तुम्हें झूठी सहानभूति और कंठ रंगे नीलकंठों से नफरत है। फिर भी ! और भरसक चूम भी लेता, इस डर के बावजूद भी कि पैर छू कर पैर खींचने वालों को तुम्हारी भेदक नजरें तुरन्त ताड़ लेतीं हैं।

जब कभी तुम्हारी टूटी हुयी टांग के बारे में सोचता हूं, तो कभी- कभी यह भी सोचता हूं कि तुमारे साथ ऐसा ही होना चाहिए था ! जो यथास्थिति को न चलने दे, श्रवण कुमार से कावंड़ फेंकने के लिए कहे और तो और युवाओं को क्रांति करने के लिये प्रेरित करे (प्रेरित की जगह उकसाना लिखना चाहता था, मगर तुम्हारे डर से नहीं, बल्कि आज के परिवेश के डर से नहीं लिखा)  उसका तो यही हश्र होना था ! गनीमत तो यह रही कि सिर्फ तुम्हारी टांग तोड़ी गई, हाथ नहीं ! आखिर किसने कहा था कि आकण्ठटांग वाले हो। लेकिन तुम्हारी टांगें तुम्हारे कंठ तक नहीं ढोंग के कंठ तक पहुंचती थीं । यह थी तुम्हारे लिखे की ऊंचाई। वैसे तो तुम आजानुभुज भी थे, उसे भी तोड़ने में आसानी होती । उसे क्यों नहीं तोड़ा ! लिखते तो तुम हाथ से ही थे ! इससे ज्ञात होता है तुम निर्भय रहे और जो तुम पर प्रहार कर रहे थे, वे बहुत डरे हुये थे। ईमानदार लेखक का ईमानदार साहित्य डराता है। तुम्हारे हाथ को पकडने के लिय अथाह आत्मबल चाहिये था, निश्चित ही वो किसी के पास नहीं होगा ! तुम्हारी टूटी टांग इस बात की तस्दीक करती है कि तुम ‘स्टैंड’ लेते थे।  तुम निर्भय खड़े होकर नया मुक्तिकामी रास्ता बनाना चाहते थे, जिस पर’धन्य’ और ‘धिक्कार’ की जगहें परस्पर न बदली जायें !

तुम होते तो कितना लिखते ! सत्ता तुम अकेले से कांपती। तुम पूर्णकालिक लेखक ही नहीं, पूर्ण और सर्वकालिक लेखक हो। क्योंकि तुम शाश्वत लिखने के चक्कर में कभी फंसे ही नहीं। तुमने अपने समय को जीया और उसे उतार दिया। जीवन का स्पंदन शब्दों के मार्फ़त दीखने ही नहीं महसूस होने लगा। तुम चाहते थे तुम आज लिखो, कल मिट जाये ! तुम बेहतर भविष्य,बेहतर मनुष्य के लिये लिखे। छपना तो उनकी नियति थी। सच कहता हूं तुम्हारी टूटी हुयी टांग की कसम ! आज तुम्हारी बहुत जरूरत है। आजकल के व्यंग्यकार दरबार के मनसबदार और पत्रकार पत्तलकार बनकर धन्य हैं। व्यंग्यकार सीकरी के लिये पास का जतन कर रहे,ताकि उन्हें सरकारी सीकड़ मिल जाये ! तुमने ही कहा,लाभ जब थूकता है तो उसे हथेली पर लेना पड़ता है और आज उस थूक को स्वनामधन्य लेखक अपने आचमन कर सर-माथे से लगा रहे हैं। तुम कहते हो न तुम्हें बेकारी ने लेखक बनाया। मैं कहता हूं कि तुम्हें बेकारी ने नहीं बेकरारी ने लेखक बनाया। तुम्हीं कहते हो न मुक्ति अकेले की नहीं होती है!

तुम्हारी टूटी टांग तुम्हारी ही तरह बहुत विश्वास से बोलती है। उस वक्त तुम्हारी टूटी टांगों के दर्द से श्रद्धा निकलती थी और अब हम जैसों को विश्वास के साथ यह उत्तर देती है।

‘एक लेखक के लिये गर्दिशों में गर्दिश क्या होगा!’, मैं तुम्हारी टूटी टांग से पूछता हूं।

‘लेखक भीतर जितना बवंडर महसूस करता है,जब उतना उसके शब्दों में नहीं आ पाता  है तब ! इससे बड़ी गर्दिश का वक्त क्या होगा !’ वह उत्तर देती है।

मैं टूटी हुयी टांग से कहता हूं, तुम टूट गयी हो,जमाने के साथ कदम ताल नहीं मिला पा रही हो ! माफ़ करना! इसका उत्तर मैं तुम्हें देता हूं ! आज का एक किस्सा ज़रा ध्यान से सुनो !

आज ही एक लेखक मिला था। बेचैन था। जिनकी मासिक आय दो लाख से ज्यादा होगी। मैंने पूछा,‘मामला क्या है !’ वह बोला, ‘यार बहुत गर्दिश के दिन चल रहे हैं। साल भर से कोई पुरस्कार नहीं मिला। जब मिलने की आस जगी तो किसी दूसरे को मिल गया। गर्दिश के दिन खत्म ही नहीं हो रहे !’ यह कहता हुआ वह लस्टम-पस्टम चला गया।

जब वह जा रहा था मैं उसकी टांगों को देख रहा था उसमे घुंघरू बंधे हुए थे ….

 –  श्री अनूप मणि त्रिपाठी, लखनऊ

प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की कविता

? जगत के कुचले हुए पथ पर कैसे चलूं मैं? – हरिशंकर परसाई  ?

किसी के निर्देश पर चलना नहीं स्वीकार मुझको

नहीं है पद चिह्न का आधार भी दरकार मुझको

ले निराला मार्ग उस पर सींच जल कांटे उगाता

और उनको रौंदता हर कदम मैं आगे बढ़ाता

शूल से है प्यार मुझको, फूल पर कैसे चलूं मैं?

 

बांध बाती में हृदय की आग चुप जलता रहे जो

और तम से हारकर चुपचाप सिर धुनता रहे जो

जगत को उस दीप का सीमित निबल जीवन सुहाता

यह धधकता रूप मेरा विश्व में भय ही जगाता

प्रलय की ज्वाला लिए हूं, दीप बन कैसे जलूं मैं?

 

जग दिखाता है मुझे रे राह मंदिर और मठ की

एक प्रतिमा में जहां विश्वास की हर सांस अटकी

चाहता हूँ भावना की भेंट मैं कर दूं अभी तो

सोच लूँ पाषान में भी प्राण जागेंगे कभी तो

पर स्वयं भगवान हूँ, इस सत्य को कैसे छलूं मैं?

– हरिशंकर परसाई 

 

हरिशंकर परसाई की एक व्यंग्यात्मक कहानी

? भोलाराम का जीव ?

ऐसा कभी नहीं हुआ था…

धर्मराज लाखों वर्षों से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफ़ारिश के आधार पर स्वर्ग या नर्क में निवास-स्थान ‘अलॉट’ करते आ रहे थे। पर ऐसा कभी नहीं हुआ था।

सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोंछ, बार-बार थूक से पन्ने पलट, रजिस्टर पर रजिस्टर देख रहे थे। ग़लती पकड़ में ही नहीं आ रही थी। आख़िर उन्होंने खीझ कर रजिस्टर इतने ज़ोर से बंद किया कि मक्खी चपेट में आ गई। उसे निकालते हुए वे बोले, महाराज, रिकार्ड सब ठीक है। भोलाराम के जीव ने पाँच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना भी हुआ, पर यहाँ अभी तक नहीं पहुँचा।

धर्मराज ने पूछा, और वह दूत कहाँ है?

महाराज, वह भी लापता है।

इसी समय द्वार खुले और एक यमदूत बदहवास वहाँ आया। उसका मौलिक कुरूप चेहरा परिश्रम, परेशानी और भय के कारण और भी विकृत हो गया था। उसे देखते ही चित्रगुप्त चिल्ला उठे, अरे, तू कहाँ रहा इतने दिन? भोलाराम का जीव कहाँ है?

यमदूत हाथ जोड़ कर बोला, दयानिधान, मैं कैसे बतलाऊँ कि क्या हो गया। आज तक मैंने धोखा नहीं खाया था, पर भोलाराम का जीव मुझे चकमा दे गया। पाँच दिन पहले जब जीव ने भोलाराम का देह त्यागा, तब मैंने उसे पकड़ा और इस लोक की यात्रा आरंभ की। नगर के बाहर ज्यों ही मैं उसे लेकर एक तीव्र वायु-तरंग पर सवार हुआ त्यों ही वह मेरी चंगुल से छूट कर न जाने कहाँ ग़ायब हो गया। इन पाँच दिनों में मैंने सारा ब्रह्माण्ड छान डाला, पर उसका कहीं पता नहीं चला।”

धर्मराज क्रोध से बोला, मूर्ख! जीवों को लाते-लाते बूढ़ा हो गया फिर भी एक मामूली बूढ़े आदमी के जीव ने तुझे चकमा दे दिया।”

दूत ने सिर झुका कर कहा, महाराज, मेरी सावधानी में बिलकुल कसर नहीं थी। मेरे इन अभ्यस्त हाथों से अच्छे-अच्छे वकील भी नहीं छूट सके। पर इस बार तो कोई इंद्रजाल ही हो गया।”

चित्रगुप्त ने कहा, महाराज, आजकल पृथ्वी पर इस प्रकार का व्यापार बहुत चला है। लोग दोस्तों को कुछ चीज़ भेजते हैं और उसे रास्ते में ही रेलवे वाले उड़ा लेते हैं। होजरी के पार्सलों के मोज़े  रेलवे अफ़सर पहनते हैं। मालगाड़ी के डब्बे के डब्बे रास्ते में कट जाते हैं। एक बात और हो रही है। राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उड़ाकर बंद कर देते हैं। कहीं भोलाराम के जीव को भी तो किसी विरोधी ने मरने के बाद ख़राबी करने के लिए तो नहीं उड़ा दिया?

धर्मराज ने व्यंग्य से चित्रगुप्त की ओर देखते हुए कहा, तुम्हारी भी रिटायर होने की उम्र आ गई। भला भोलाराम जैसे नगण्य, दीन आदमी से किसी को क्या लेना-देना?

इसी समय कहीं से घूमते-घामते नारद मुनि यहाँ आ गए। धर्मराज को गुमसुम बैठे देख बोले, क्यों धर्मराज, कैसे चिंतित बैठे हैं? क्या नर्क में निवास-स्थान की समस्या अभी हल नहीं हुई?

धर्मराज ने कहा, वह समस्या तो कब की हल हो गई, मुनिवर! नर्क में पिछले सालों में बड़े गुणी कारीगर आ गए हैं। कई इमारतों के ठेकेदार हैं जिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारतें बनाईं। बड़े बड़े इंजीनियर भी आ गए हैं जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया। ओवरसीयर हैं, जिन्होंने उन मज़दूरों की हाज़िरी भर कर पैसा हड़पा जो कभी काम पर गए ही नहीं। इन्होंने बहुत जल्दी नर्क में कई इमारतें तान दी हैं। वह समस्या तो हल हो गई, पर एक बड़ी विकट उलझन आ गई है। भोलाराम नाम के एक आदमी की पाँच दिन पहले मृत्यु हुई। उसके जीव को यह दूत यहाँ ला रहा था, कि जीव इसे रास्ते में चकमा देकर भाग गया। इस ने सारा ब्रह्माण्ड छान डाला, पर वह कहीं नहीं मिला। अगर ऐसा होने लगा, तो पाप पुण्य का भेद ही मिट जाएगा।”

नारद ने पूछा, उस पर इनकमटैक्स तो बक़ाया नहीं था? हो सकता है, उन लोगों ने रोक लिया हो।”

चित्रगुप्त ने कहा, इनकम होती तो टैक्स होता… भुखमरा था।”

नारद बोले, मामला बड़ा दिलचस्प है। अच्छा मुझे उसका नाम पता तो बताओ। मैं पृथ्वी पर जाता हूँ।”

चित्रगुप्त ने रजिस्टर देख कर बताया, भोलाराम नाम था उसका। जबलपुर शहर में धमापुर मुहल्ले में नाले के किनारे एक डेढ़ कमरे टूटे-फूटे मकान में वह परिवार समेत रहता था। उसकी एक स्त्री थी, दो लड़के और एक लड़की। उम्र लगभग साठ साल। सरकारी नौकर था। पाँच साल पहले रिटायर हो गया था। मकान का किराया उसने एक साल से नहीं दिया, इस लिए मकान मालिक उसे निकालना चाहता था। इतने में भोलाराम ने संसार ही छोड़ दिया। आज पाँचवाँ दिन है। बहुत संभव है कि अगर मकान-मालिक वास्तविक मकान-मालिक है तो उसने भोलाराम के मरते ही उसके परिवार को निकाल दिया होगा। इस लिए आप को परिवार की तलाश में काफ़ी घूमना पड़ेगा।”

माँ-बेटी के सम्मिलित क्रन्दन से ही नारद भोलाराम का मकान पहचान गए।

द्वार पर जाकर उन्होंने आवाज़ लगाई, नारायण! नारायण! लड़की ने देखकर कहा- आगे जाओ महाराज।”

नारद ने कहा, मुझे भिक्षा नहीं चाहिए, मुझे भोलाराम के बारे में कुछ पूछ-ताछ करनी है। अपनी माँ को ज़रा बाहर भेजो, बेटी!

भोलाराम की पत्नी बाहर आई। नारद ने कहा, माता, भोलाराम को क्या बीमारी थी?

क्या बताऊँ? ग़रीबी की बीमारी थी। पाँच साल हो गए, पेंशन पर बैठे। पर पेंशन अभी तक नहीं मिली। हर दस-पन्द्रह दिन में एक दरख़्वास्त देते थे, पर वहाँ से या तो जवाब आता ही नहीं था और आता तो यही कि तुम्हारी पेंशन के मामले में विचार हो रहा है। इन पाँच सालों में सब गहने बेच कर हम लोग खा गए। फिर बरतन बिके। अब कुछ नहीं बचा था। चिंता में घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड़ दी।”

नारद ने कहा, क्या करोगी माँ? उनकी इतनी ही उम्र थी।”

ऐसा तो मत कहो, महाराज! उम्र तो बहुत थी। पचास साठ रुपया महीना पेंशन मिलती तो कुछ और काम कहीं कर के गुज़ारा हो जाता। पर क्या करें? पाँच साल नौकरी से बैठे हो गए और अभी तक एक कौड़ी नहीं मिली।”

दुःख की कथा सुनने की फ़ुरसत नारद को थी नहीं। वे अपने मुद्दे पर आए, माँ, यह तो बताओ कि यहाँ किसी से उनका विशेष प्रेम था, जिसमें उनका जी लगा हो?

पत्नी बोली, लगाव तो महाराज, बाल बच्चों से ही होता है।”

नहीं, परिवार के बाहर भी हो सकता है। मेरा मतलब है, किसी स्त्री…”

स्त्री ने ग़ुर्रा कर नारद की ओर देखा। बोली, अब कुछ मत बको महाराज! तुम साधु हो, उचक्के नहीं हो। ज़िंदगी भर उन्होंने किसी दूसरी स्त्री की ओर आँख उठाकर नहीं देखा।”

नारद हँस कर बोले, हाँ, तुम्हारा यह सोचना ठीक ही है। यही हर अच्छी गृहस्थी का आधार है। अच्छा, माता मैं चला।”

स्त्री ने कहा, महाराज, आप तो साधु हैं, सिद्ध पुरूष हैं। कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि उनकी रुकी हुई पेंशन मिल जाए। इन बच्चों का पेट कुछ दिन भर जाए।”

नारद को दया आ गई थी। वे कहने लगे, साधुओं की बात कौन मानता है? मेरा यहाँ कोई मठ तो है नहीं। फिर भी मैं सरकारी दफ़्तर जाऊँगा और कोशिश करूँगा।”

वहाँ से चल कर नारद सरकारी दफ़्तर पहुँचे। वहाँ पहले ही से कमरे में बैठे बाबू से उन्होंने भोलाराम के केस के बारे में बातें कीं। उस बाबू ने उन्हें ध्यानपूर्वक देखा और बोला, भोलाराम ने दरख़्वास्तें तो भेजी थीं, पर उन पर वज़न नहीं रखा था, इसलिए कहीं उड़ गई होंगी।”

नारद ने कहा, भई, ये बहुत से ‘पेपर-वेट’ तो रखे हैं। इन्हें क्यों नहीं रख दिया?

बाबू हँसा, आप साधु हैं, आपको दुनियादारी समझ में नहीं आती। दरख़्वास्तें ‘पेपरवेट’ से नहीं दबतीं। ख़ैर, आप उस कमरे में बैठे बाबू से मिलिए।”

नारद उस बाबू के पास गए। उसने तीसरे के पास भेजा, तीसरे ने चौथे के पास चौथे ने पाँचवे के पास। जब नारद पच्चीस-तीस बाबुओं और अफ़सरों के पास घूम आए तब एक चपरासी ने कहा, महाराज, आप क्यों इस झंझट में पड़ गए। अगर आप साल भर भी यहाँ चक्कर लगाते रहे, तो भी काम नहीं होगा। आप तो सीधे बड़े साहब से मिलिए। उन्हें ख़ुश कर दिया तो अभी काम हो जाएगा।”

नारद बड़े साहब के कमरे में पहुँचे। बाहर चपरासी ऊँघ रहा था। इसलिए उन्हें किसी ने छेड़ा नहीं। बिना ‘विजिटिंग कार्ड’ के आया देख साहब बड़े नाराज़ हुए। बोले, इसे कोई मंदिर वन्दिर समझ लिया है क्या? धड़धड़ाते चले आए! चिट क्यों नहीं भेजी?

नारद ने कहा, कैसे भेजता? चपरासी सो रहा है।”

क्या काम है? साहब ने रौब से पूछा।

नारद ने भोलाराम का पेंशन केस बतलाया।

साहब बोले, आप हैं बैरागी। दफ़्तरों के रीति-रिवाज नहीं जानते। असल में भोलाराम ने ग़लती की। भई, यह भी एक मंदिर है। यहाँ भी दान पुण्य करना पड़ता है। आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैं। भोलाराम की दरख़्वास्तें उड़ रही हैं। उन पर वज़न रखिए।”

नारद ने सोचा कि फिर यहाँ वज़न की समस्या खड़ी हो गई। साहब बोले, भई, सरकारी पैसे का मामला है। पेंशन का केस बीसों दफ़्तर में जाता है। देर लग ही जाती है। बीसों बार एक ही बात को बीस जगह लिखना पड़ता है, तब पक्की होती है। जितनी पेंशन मिलती है उतने की स्टेशनरी लग जाती है। हाँ, जल्दी भी हो सकती है मगर…” साहब रुके।

नारद ने कहा, मगर क्या?

साहब ने कुटिल मुसकान के साथ कहा, मगर वज़न चाहिए। आप समझे नहीं। जैसे आपकी यह सुंदर वीणा है, इसका भी वज़न भोलाराम की दरख्वास्त पर रखा जा सकता है। मेरी लड़की गाना बजाना सीखती है। यह मैं उसे दे दूँगा। साधु-सन्तों की वीणा से तो और अच्छे स्वर निकलते हैं।”

नारद अपनी वीणा छिनते देख जरा घबराए। पर फिर संभल कर उन्होंने वीणा टेबिल पर रख कर कहा, यह लीजिए। अब जरा जल्दी उसकी पेंशन ऑर्डर निकाल दीजिए।”

साहब ने प्रसन्न्ता से उन्हें कुर्सी दी, वीणा को एक कोने में रखा और घण्टी बजाई। चपरासी हाजिर हुआ।

साहब ने हुक्म दिया, बड़े बाबू से भोलाराम के केस की फ़ाइल लाओ।

थोड़ी देर बाद चपरासी भोलाराम की सौ-डेढ़-सौ दरख्वास्तों से भरी फ़ाइल ले कर आया। उसमें पेंशन के कागजात भी थे। साहब ने फ़ाइल पर नाम देखा और निश्चित करने के लिए पूछा, क्या नाम बताया साधु जी आपने?

नारद समझे कि साहब कुछ ऊँचा सुनता है। इसलिए जोर से बोले, भोलाराम!

सहसा फ़ाइल में से आवाज आई, कौन पुकार रहा है मुझे। पोस्टमैन है? क्या पेंशन का ऑर्डर आ गया?

नारद चौंके। पर दूसरे ही क्षण बात समझ गए। बोले, भोलाराम! तुम क्या भोलाराम के जीव हो?

हाँ! आवाज आई।”

नारद ने कहा, मैं नारद हूँ। तुम्हें लेने आया हूँ। चलो स्वर्ग में तुम्हारा इंतज़ार हो रहा है।”

आवाज आई, मुझे नहीं जाना। मैं तो पेंशन की दरख्वास्तों पर अटका हूँ। यहीं मेरा मन लगा है। मैं अपनी दरख्वास्तें छोड़कर नहीं जा सकता।”

– हरिशंकर परसाई 

हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष ☆ व्यंग्य – बाअदब, बामुलाहिजा होशियार ! हटो हटो ! भारत से आया  है प्रज्ञान ?

हरिशंकर परसाई के समय में गणतंत्र ठिठुर रहा था। विपक्ष की माने तो भले ही गणतंत्र के लिये नया संसद भवन बनवा दिया गया है पर आज भी गणतंत्र ठिठुर ही रहा है।

बुंदेलखण्ड की लोकभाषा में दुनियांभर में हनुमान जी के नाम और प्रताप का  डंका पीट रहे एक युवा शास्त्री जी तो प्रेम से चाहे जब, चाहे जिसकी ठठरी बांधने को उद्यत रहते हैं। वे गणतंत्र की ठठरी बांधकर देश को दूसरे ही रूप में बदलने की कल्पना करते हैं। खैर।

व्यंग्य पुरोधा परसाई  होते तो आज सौ बरस के होते। भारत का चंद्रयान तो अब चंदा के चक्कर लगा रहा है, और कल चंद्रमा की जमीन पर उतर जायेगा, तथा भारत की कीर्ति  सातवे आसमान पर पहुंचा देगा। किंतु व्यंग्य की ताकत देखिये, परसाई ने अपने जमाने में ही उनके चर्चित कहानी संग्रह ‘ठिठुरता हुआ गणतंत्र’ के राकेट के जरिए इंस्पेक्टर मातादीन को चांद पर पहुंचा दिया था। पोलिस महकमें में मातादीन को शार्ट नेम एम. डी. साब के रूप में जाना जाता था। स्वयं विज्ञान के अध्येता न होते हुये भी परसाई जी ने व्यंग्य कहानी “इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर”  के रूप में युगदृष्टा विज्ञान कथा व्यंग्य लिखा था।

वैज्ञानिक कहते हैं, चाँद पर जीवन नहीं है। सीनियर पुलिस इंस्पेक्टर मातादीन कहते हैं- वैज्ञानिक झूठ बोलते हैं, वहाँ हमारे जैसी ही आबादी है। विज्ञान ने हमेशा इन्स्पेक्टर से मात खाई है। फिंगर प्रिंट विशेषज्ञ कहता रह जाता है कि छुरे पर पाए गए निशान आरोपी की अँगुलियों के नहीं हैं। पर यदि कोई  इंस्पैक्टर ठान ले तो मुलजिम को सज़ा दिलाये बिना नहीं रहता।

इंस्पेक्टर मातादीन मानते हैं, कि वैज्ञानिक केस का सही इन्वेस्टीगेशन नहीं करते। उन्होंने चाँद का उजला हिस्सा देखा और कह दिया, वहाँ जीवन नहीं है। मैं चाँद का अँधेरा हिस्सा देख कर आया हूँ। वहाँ मनुष्य जाति है। यह बात सही है क्योंकि मातादीन ही नहीं सारे इंस्पैक्टर अँधेरे पक्ष के माहिर माने जाते हैं।

उल्लू और पोलिस अंधेरे में भी वह सब देख सकती है, जो आम आदमी को नहीं दिखता।

दरअसल पोलिस ए आई नहीं, टी आई दक्ष होते हैं टी आई बनते ही वो हैं जो टेक्ट फुल इंटेलीजेंस रखते हैं।

मुझे प्रसन्नता है कि इंस्पेक्टर मातादीन के रिटायर होने से पहले ही इस दफे चांद पर अंधेरे दक्षिणी  हिस्से में ही विक्रम की लैंडिग करवाने का फैसला वैज्ञानिको ने लिया है। वास्तव में इस चंद्रमिशन की सफल उपलब्धि की मूल सोच का श्रेय परसाई वाले इंस्पेक्टर मातादीन को ही जाता है।

व्यंग्य बिरादरी में परसाई के ध्वज वाहक होने के चलते मुझे संशय नहीं है कि  इस प्रोजेक्ट के वैचारिक प्रणेता इंस्पेक्टर मातादीन ही हैं। बकौल मातादीन चांद पर आबादी है। इस आबादी को कोई चोट न पहुंचे, इसका ध्यान रखते हुये ही विक्रम की साफ्ट लैंडिंग करवाने के प्रयास वैज्ञानिक कर रहे हैं।

मातादीन की हिदायत है कि इसरो ऐसा काम करे कि सारे अंतरिक्ष में देश की जय-जयकार हो ! पीएम इस सफलता को १४० करोड़ भारतीयो की जयकार बता सकें।

जब १४ जुलाई को काउंट डाउन के तीन दो एक जीरो होते ही आग उगलता राकेट आकाश में बढ़ चला था  तो सबके साथ मेरी आंखे भी खुशी के आंसुओ से छलक आई थीं।

 राकेट की फ्रंट सीट पर  विक्रम की गोद में बैठा नन्हा प्रज्ञान कौतूहल से नीले नभ को पार करता अंतरिक्ष से धरती की परिक्रमा करते हुये, फिर धरती से चांद की अंतरिक्ष यात्रा कर चुका है और अब चांद की परिक्रमा करते हुये अपनी प्रपल्शन यूनिट से जुड़ा होकर विक्रम अकेला ही रोवर प्रज्ञान को संभाले चांद पर साफ्ट लैंडिंग की अंतिम तैयारी में है।

मेरी मंगल कामना है कि निष्कंटक, निर्बाध रूप से तय कार्यक्रम के अनुसार विक्रम की सुरक्षित लैंडिग हो।

लैंडिंग की परीक्षा के अंतिम 15 मिनट की सफलता के लिए  फिंगर क्रास।

छुटकू रोवर प्रज्ञान बाहर निकले ऐसी सर्च, रिसर्च करे कि गर्व से हम सबकी छाती इतनी तने कि देश वासियों के शर्ट के बटन ही टूट जायें।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023 मोब 7000375798 ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 132 ⇒ लव इन शिमला… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लव इन शिमला।)  

? अभी अभी # 132 ⇒ लव इन शिमला? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

 

हमने अंग्रेजों का जमाना तो नहीं देखा लेकिन उनके बनाए हिल स्टेशन जरूर देखे हैं। क्या दिन थे वो बचपन के, परीक्षा हुई और गर्मी की छुट्टियां शुरू! अच्छा काम नहीं करने का बहाना, हमें उससे क्या। हमें तो इस बहाने पढ़ाई और स्कूल से छुट्टी मिल जाया करती थी। जाए, जिसको जाना हो पहाड़ों पर, हिल स्टेशन पर, हम तो चले ननिहाल।

१९६० का साल रहा होगा, जब हमने पहली बार शिमला का नाम सुना। एक फिल्म आई थी जॉय मुखर्जी, साधना, शोभना समर्थ और दुर्गा खोटे अभिनीत, लव इन शिमला, लाल लाल गाल !

तब फिल्में भले ही नहीं देख पाते हों, पर रेडियो पर गाने तो सुनने में आ ही जाते थे, और स्कूल के आसपास ही एक नहीं, तीन तीन चलचित्र गृह, सिनेमा के पोस्टर देखने से तो कोई नहीं रोक सकता था। ।

तब हमारे लिए हिल स्टेशन आसपास के प्राकृतिक स्थल ही हुआ करते थे। पाताल पानी, तिन्छा फॉल और जानापाव तो साइकलों से ही निकल जाते थे। खेतों में गन्ने, हरे हरे छोड़ और मटर के दाने तथा फलबाग के जाम हमारे लिए किसी अशोक वाटिका से कम नहीं थे।

कश्मीर अगर पहली बार सन् १९७४ में देखा तो शिमला, देहरादून और मसूरी वर्ष १९८६ में। हिमाचल की ज्वाला जी, सोलन और कांगड़ा भी पहली बार ही जाने का योग आया। पहाड़, हरियाली और प्राकृतिक सौंदर्य ऐसा कि वहीं बस जाने का मन करे। ।

छोटी मोटी होटल में रात गुजारने में ही गरीबी में आटा गीला हो जाता था। कहां दून कल्चर और कहां हम मालवी जाजम वाले इंदौरी ! पहली बार शिमला का माल रोड देखा। आसपास पहाड़ों पर बंगले देखे, इच्छा जरूर हुई, काश हम भी यहां की शांति में बस पाते, इनमें से एक प्यारा बंगला हमारा भी होता। रोज सुबह माल रोड की सैर, मानो स्वर्गारोहण। ‌

बस उसके बाद कभी शिमला मसूरी देहरादून नहीं जा पाए। मन में तसल्ली है, चारों धाम, बारहों ज्योतिर्लिंग कर लिए, अब तो बस मन चंगा और कठौती में गंगा। लेकिन जब भी प्रकृति और पहाड़ों का रौद्र रूप देखता हूं, दहल जाता हूं। ।

Things are not, what they seem! सिक्के के तो केवल दो पहलू होते हैं, जिंदगी के कई रूप रंग होते हैं। कितना विरोधाभास है इस जिंदगी में। एक तरफ विविध भारती पर हेमंत कुमार का गीत बज रहा है, जिंदगी कितनी खूबसूरत है, आइए आपकी जरूरत है, और दूसरी ओर उसी शिमला शहर की तबाही की तस्वीरें न्यूज़ चैनल पर दिखाई दे रही हैं।

एकाएक कानों और आंखों पर भरोसा नहीं होता, हम क्या सुन रहे हैं, और क्या देख रहे हैं। कल जहां बसती थी खुशियाँ, आज है मातम वहां, वक्त लाया था बहारें, वक्त लाया है खिजां, जैसे साहिर के शब्द भी इस त्रासदी को बयां नहीं कर सकते। ।

हम अक्सर पहाड़ जैसी जिंदगी की बातें करते हैं, और कुछ दिन आराम करने के लिए पहाड़ों की ही गोद में चले जाते हैं। आखिर प्रकृति ही तो हमारी गोद है। एक छोटा बच्चा जिस मां की गोद में खेलता है, बड़ा होकर वह मां का कितना खयाल रखता है। प्रश्न ही ऐसा है, हम निरुत्तर हो जाते हैं।

प्रकृति की गोद ही GOD है। जिस बच्चे को सिर्फ मां की गोद चाहिए, वह बड़ा होकर उसी गोद को शर्मिंदा करता है। नंगे पांव पैदल मंदिर जाने वाला इंसान आजकल कार से मंदिर जाता है, उसे पक्की सड़क चाहिए, वह मंदिर के पास ही बड़ी होटल बना लेता है, उसे पैसा जो कमाना है। पैसे पहाड़ पर नहीं उगते लेकिन वह पहाड़ पर पैसों के पेड़ लगा रहा है। मूर्ख है, जिस डाली पर बैठा है, उसे ही काट रहा है। ।

उसने काली, भद्र काली का भी विकराल रूप देखा है। जब प्रकृति रुष्ट होती है, तो सभी देवता रूठ जाते हैं। माता पिता आशीर्वाद नहीं, शाप देते हैं। अपनी ही करनी का फल हम भोग रहे हैं।

इस भ्रम में मत रहिए, कि हम तो यहां हजारों मील दूर पूरी तरह सुरक्षित हैं, शिव के तांडव से पूरी सृष्टि नहीं बच सकती। इस जर्रे जर्रे में वही शिव तत्व मौजूद है। यह तेरी, मेरी उसकी नहीं, हम सबकी खता है। हम सब ही दंड के भागी हैं। पूरी वसुधा की बात छोड़िए, फिलहाल जो बेहाल हैं, बरबाद हैं, उनकी फिक्र कीजिए।

करिए अरदास, रगड़िए नाक और पूछिए उस परवरदिगार से ;

ओ रूठे हुए भगवान

तुझको कैसे मनाऊॅं

तुझको कैसे मनाऊॅं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 48 – देश-परदेश – इतना तो चलता है ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 48 ☆ देश-परदेश – इतना तो चलता है ☆ श्री राकेश कुमार ☆

जब भी हम परंपराएं/मर्यादा/ नियम/ कानून/ मान्यताएं की सीमा लांघते हैं, तो इन शब्दों की बैसाखी का सहारा लेकर अपने आप से नज़र बचाने का बहाना ढूंढ लेते हैं।

आरंभ खाने से ही करते है, आप युवा है, लेकिन परिवार में सिर्फ शाकाहारी भोजन की परंपरा है। मित्र के कहने से मांसाहारी भोजन से सिर्फ “तरी” लेने के आग्रह को मान लेते है, जब मित्र ये कह देते है, अब इतना तो चलता है। यहीं से आरंभ होता है, मान्यताओं को तोड़ना। कुछ समय बाद बीयर रूपी मदिरा पान भी कर लेते हैं।

घर के लड़के देर रात्रि पार्टी करने के पश्चात पिछले दरवाज़े से मां के आंचल की आड़ में प्रवेश कर जाते है, जब परिवार की लड़कियां ऐसा करती है, तो मुद्दा मर्यादा का हो जाता है। “बिग बॉस” देखते-देखते कब परिवार के बच्चे “लिव इन रिलेशन” जैसी असामाजिक रिश्तों के कायल हो जाते हैं।

यातायात पुलिस के सिपाही का लाल बत्ती पर खड़ा ना रहने से जब हम अपने वाहन को नियम की धज्जियां उड़ाते हुए जल्दी घर पहुंचने की चर्चा करते है, तब घर के बच्चों को जाने/ अनजाने बिगड़ैल बनाने का ज्ञान दे देते हैं।

घर में जब मोबाइल पर बॉस का फोन आता है, तो झूठ बोल कर कह देते है, कहीं बाहर हैं, ये अनैतिकता का पहला पाठ होता हैं। इतना तो चलता है, ना?

© श्री राकेश कुमार

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