श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 48 ☆ देश-परदेश – इतना तो चलता है ☆ श्री राकेश कुमार ☆

जब भी हम परंपराएं/मर्यादा/ नियम/ कानून/ मान्यताएं की सीमा लांघते हैं, तो इन शब्दों की बैसाखी का सहारा लेकर अपने आप से नज़र बचाने का बहाना ढूंढ लेते हैं।

आरंभ खाने से ही करते है, आप युवा है, लेकिन परिवार में सिर्फ शाकाहारी भोजन की परंपरा है। मित्र के कहने से मांसाहारी भोजन से सिर्फ “तरी” लेने के आग्रह को मान लेते है, जब मित्र ये कह देते है, अब इतना तो चलता है। यहीं से आरंभ होता है, मान्यताओं को तोड़ना। कुछ समय बाद बीयर रूपी मदिरा पान भी कर लेते हैं।

घर के लड़के देर रात्रि पार्टी करने के पश्चात पिछले दरवाज़े से मां के आंचल की आड़ में प्रवेश कर जाते है, जब परिवार की लड़कियां ऐसा करती है, तो मुद्दा मर्यादा का हो जाता है। “बिग बॉस” देखते-देखते कब परिवार के बच्चे “लिव इन रिलेशन” जैसी असामाजिक रिश्तों के कायल हो जाते हैं।

यातायात पुलिस के सिपाही का लाल बत्ती पर खड़ा ना रहने से जब हम अपने वाहन को नियम की धज्जियां उड़ाते हुए जल्दी घर पहुंचने की चर्चा करते है, तब घर के बच्चों को जाने/ अनजाने बिगड़ैल बनाने का ज्ञान दे देते हैं।

घर में जब मोबाइल पर बॉस का फोन आता है, तो झूठ बोल कर कह देते है, कहीं बाहर हैं, ये अनैतिकता का पहला पाठ होता हैं। इतना तो चलता है, ना?

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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