हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 60 – जंगल में दंगल… भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय  व्यंग्य  “जंगल में दंगल …“।)   

☆ व्यंग्य # 60 – जंगल में दंगल – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

एक बार जंगल से भटक कर शेर जो नरभक्षी होने को ही नॉन वेज़ेटेरियन होना मानता था, समीपस्थ नगर के एम्यूज़मेंट पार्क में पहुंच गया. उसे बहुत आश्चर्य हुआ जब वहां ईवनिंग वॉक के नाम पर घर से भागे उन्मुक्त मानवों ने उसका संज्ञान ही नहीं लिया. कारण सब अपने अपने मोबाईल में व्यस्त थे. नज़रे झुकाये पर मुस्कुराते जीव देखकर शेर सोच में पड़ गया. ऐसा क्या है इनके हाथों में जो उसके वज़ूद से बेखबर हैं ये लोग. शेर की इच्छा तो थी कि एक बार दहाड़कर इन मगन मनुओं को हकीकत से रूबरू करवा दे पर अपने जंगल के डेंटल सर्जन की हिदायत से मन मसोस कर खामोश होना पड़ा. दरअसल शिकार के काम आने वाली दंतपंक्ति की हाल ही में शार्पनिंग करवाई थी तो ज्यादा मुंह खोलना मना था. चुपचाप जंगल लौटकर शेर ने अपने दूत कौए को शहर भेजा, यह पता लगाने के लिये कि इन मनुष्यों के हाथ में ऐसा कौन सा यंत्र है जिससे ये दीन दुनिया से बेखबर हो गये हैं. संदेशवाहक वही सच्ची खबर लाता है जिसमें खुद नज़रअंदाज हो जाने का गुण हो तो कौए ने पार्क में बैठकर चुपचाप पता कर ही लिया और फिर जंगल के राज़ा जान गये कि ये वाट्सएप ग्रुप ही इस फसाद की जड़ है.

जंगलदूत अपने साथ सिर्फ खबर ही नहीं वाट्सएप का वायरस भी लेकर आ गया जो शेर को भी संक्रमित कर बैठा. अब शेर को भी लगने लगा कि उसकी इमेज़ सुधारने के लिये हिंसकता की नहीं बल्कि आपसी संवाद की जरूरत है. तो जंगल के राज़ा ने अपने दूत के माध्यम से जंगल के सारे जानवरों का वाट्स एप ग्रुप बनाने का संदेश दिया. शक्तिशाली का संदेश भी आदेश से कम नहीं होता पर बिल्ली मौसी ने अपने रिश्ते का फायदा उठाते हुये पूछ ही लिया कि इसमें हमें क्या फायदा.

दूत तो दूत ही होता है तो कह दिया कि राजा ने अपने लंच टाइम के बाद बैठक बुलाई है तो सभी जानवर निडर होकर आयें. जिनकी नियति शिकार होने का उद्देश्य हो उन्हें चुनने की आजादी दिखावे के लिये पांच साल में सिर्फ एक बार ही मिलती है. तो सब राजा के गुफा रूपी दरबार में आए.

शेर ने जंगलवासियों की तरक्की और जमाने के साथ चलने के नाम पर जंगल के वाट्सएप ग्रुप बनाये जाने की घोषणा इस तरह की कि-

“हर शिकार को अपने शिकारी से सवाल करने का मौका दिया जा रहा है”.

सारे जानवरों को जंगल के नये कानून के अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी जा रही है. इस तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर निरीहता ने कुछ कहने की आज़ादी पायी और जंगल में भी वाट्सएप ग्रुप बन गया, बनना ही था, विरोध कौन और कोई क्यों करता, सब एक दूसरे के कंधे पर अपेक्षा का शाल डालकर चुप रहे और हुआ वही जो शेर की मरजी थी. अब ग्रुप के नाम पर बात आई तो लोमड़ सिंह ने  “सिंह गर्जना ” नाम सुझाया पर शेर राजा अपनी प्रजा की भावभंगिमा से समझ गये कि हर बार अपनी चलाने से बेहतर जनता को झुनझुना पकड़ाने की ट्रिक शासन की स्थिरता में मददगार होती है, तो उन्होंने जंगल के प्रति अपनी अटूट निष्ठा की घोषणा के साथ ग्रुप का नाम “जंगल की आवाज़” रखने का सुझाव दिया.जंगल के सारे शिकार और शिकारी रूपी जानवरों ने इस सुझाव को राजा की उदारता मानते हुये सहर्ष स्वीकार किया.

चूंकि राजा इस मलाईविहीन पद से विरक्त थे तो राजा की इच्छा का सम्मान करते हुये लोमड़ सिंह अपने आप ग्रुप के एडमिन बन गये.

कहानी जारी रहेगी

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 180 ☆ व्यंग्य – कुछ  कम एप्पल खाओ भाई आदम और ईव ! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य – कुछ  कम एप्पल खाओ भाई आदम और ईव !)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 180 ☆  

? व्यंग्य – कुछ  कम एप्पल खाओ भाई आदम और ईव !  ?

उसने आदम को बनाया, उसके साथ के लिए सुन्दर सी ईव को बनाया।  एप्पल का पेड़  लगाया और उसकी रक्षा का काम आदम को सौंप दिया। आदम को ताकीद भी कर दी कि इस वृक्ष के फल तुम मत खाना।  दरअसल उसने एप्पल के फल गुरुत्वाकर्षण की खोज के लिए लगाए थे। और इसलिए भी कि बाद के समय में  कटे हुए एप्पल को ब्रांड बनाते हुए मंहगा मोबाईल लांच किया जा सके। और शायद इसलिए कि  चिकित्सा जगत को किंचित समझने वाले कथित साहित्यकार “एन  एप्पल ए डे कीप्स द  डाक्टर अवे “ टाइप की कहावतें गढ़ सकें, जो दूसरों को नसीहतें देने के काम आएं।  किन्तु नोटोरियस ईव  मनोहारी एप्पल खाने से खुद को रोक न सकी, इतना ही नहीं उसने आदम को भी एप्पल का स्वाद चखा दिया। 

तब से अब तक हर ईव  के सम्मुख हर आदम बेबस एप्पल खाये जा रहा है। कुछ सुसम्पन्न आदम एप्पल के साल दर साल बदलते मॉडल के आई फोन, नए नए स्लिम लेपटॉप, और कम्प्यूटर अपनी अपनी ईव को  रिझाने के लिए  ख़रीदे जा रहे  हैं। बाकी  के आदम और  ईव मजे में  चमकीली चिप्पी चिपके हुए विदेशी आयातित एप्पल खरीदकर खाये जा रहे हैं।  जो रियल एप्पल नहीं खा पा रहे वे  नीली फिल्मों से कल्पना के प्रतिबंधित वर्चुएल  एप्पल खाये जा  रहे हैं।  बच्चे को  जन्म देने के तमाम  दर्द भुगतते हुए भी ईव आबादी बढ़ाने में आदम का साथ दिये जा रही हैं। मजे लेकर एप्पल खाये जाने के आदम और ईव के इस  प्रकरण से उसकी बनाई दुनियां की आबादी इस रफ्तार से बढ़ रही है कि हम आठ अरब हो चुके हैं। कम से कम आबादी के मामले में जल्दी ही हम चीन से आगे निकलने वाले हैं।  

इसके बावजूद कि कोरोना जैसी महामारियां हुईं, भुखमरी, चक्रवाती तूफान, भयावह भूकंप, बाढ़, आगजनी जैसी विपदाएं होती ही रही।  आदम और ईव कथित ईगोइस्ट आदमी की नस्ल में  बदल  दंगे फसाद, कत्लेआम, आतंकवादी हत्याएं करने से रुक नहीं  रहे। रही सही कसर पूरी करने के लिए कई कई ‘आफ़ताब’ ढेरों  ‘श्रद्धाओं’ के टुकड़े टुकड़े, बोटी बोटी कर रहे हैं, फिर भी आदम और ईव का कुनबा दिन दूनी  रात चौगुनी गति से बढ़ा जा रहा है। अनवरत बढ़ा जा रहा है।  यूँ मुझे आठ अरब होने से कोई प्रॉब्लम नहीं है, जब सरकारों को कोई प्रॉब्लम नहीं  है, यूनाइटेड नेशंस को कोई समस्या नहीं है तो मुझे समस्या होनी भी नहीं चाहिए। वैसे भी जिन किन्हीं  संजय गांधियो को  इस बढ़ती आबादी से दिक्कत महसूस हुई उन्हें जनता ने नापसंद  किया है। फिर भी हिम्मत का काम हो रहा है जनसंख्या कानून की गुप चुप  चर्चा की सुगबुहाअट तो जब तब सुन पड़  रही है। अपनी तो दुआ है खूब आबादी बढ़े, क्योंकि आबादी वोट बैंक होती है और वोट से ही नेता बनते हैं, राजनीति चलती है।  मुझे दुःख केवल इस बात का है की कोई नया  कोलम्बस क्यों पैदा नहीं हो रहा जो एक दो और अमेरिका खोज निकाले। हो सके तो  महासागर ही पांच की जगह कम से कम सात ही हो जाएँ, हम तो कब से गए जा रहे हैं “सात समुन्दर पार से, गुड़ियों के बाजार से “ पर समुन्दर पांच के पांच ही हैं। महाद्वीप भी बस सात के सात हैं। 

हम जंगलो को काट काट कर नए नए महानगर जरूर बसाये जा रहे हैं पर उनका आसमान महज़  एक ही है।  सूरज बस एक ही है।  आठ अरब थके हारे आदम जात को सुनहरे सपनों वाली चैन की नींद में सुलाने, लोरी सुनाने के प्रतीक  दूर के  चंदामामा भी  सिर्फ एक ही हैं।  मुश्किल है कि इंसानो में बिलकुल एका नहीं है। मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना, अब आठ अरब भिन्न भिन्न दृष्टिकोण होंगे तो आखिर कैसे मैनेज होगी दुनियां।  इसलिए हे आदम और ईव  कृपया एप्पल खाना कम करो।  धरती पर आबादी का बोझा कम करो । 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #170 ☆ व्यंग्य ☆ भगत जी का बखेड़ा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य ‘भगत जी का बखेड़ा ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 170 ☆

☆ व्यंग्य ☆ भगत जी का बखेड़ा

चुन्नू बाबू कॉलोनी के लखटकिया हैं। कॉलोनी के किसी रहवासी से कोई काम न सध रहा हो तो वह सीधे चुन्नू बाबू के घर का रुख करता है। मिस्त्री, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन, सफाई कर्मचारी— किसी की भी ज़रूरत हो, चुन्नू बाबू से संपर्क किया जा सकता है। उनके पास हर उपयोगी आदमी का मोबाइल नंबर रहता है।

चुन्नू बाबू को पूरी कॉलोनी की फिक्र रहती है। कॉलोनी में कुछ ऐसा न हो जिससे कॉलोनी की नाक कटे। कॉलोनी में बाहर के लोगों के आने-जाने पर उनकी नज़र रहती है। कॉलोनी के लोगों का स्टैंडर्ड उठाने के लिए उन्होंने सब घरों में कार रखना अनिवार्य कर दिया है, चाहे उसकी उपयोगिता हो या न हो। कार के लिए लोन दिलवाने में चुन्नू बाबू सदस्य की पूरी मदद करते हैं।

कॉलोनी के गेट पर नियुक्त सुरक्षा गार्ड भी चुन्नू बाबू के ही कंट्रोल में रहता है। वे ही सदस्यों से इकट्ठा करके उसकी तनख्वाह का भुगतान करते हैं। उसके काम के बारे में शिकायत चुन्नू बाबू के पास ही आती है और वे ही उससे जवाब तलब करते हैं।

चुन्नू बाबू बहुत गतिशील आदमी हैं। कॉलोनी के कल्याण और उसका स्तर उठाने के लिए वे नयी नयी योजनाएँ लाते रहते हैं। उसी सिलसिले में स्थानीय नेताओं को कॉलोनी में बुलाकर उनका अभिनंदन भी होता रहता है। पता नहीं कौन कब काम आ जाए।

नगर निगम में दौड़-भाग करके चुन्नू बाबू ने कॉलोनी का कचरा उठाने का इंतज़ाम कर लिया है। शुरू में एक अधेड़ आकर हाथगाड़ी में हर घर से कचरा ले लेता था, लेकिन वह थोड़ा चिड़चिड़ा था। घर के कचरे के अलावा अगर बगीचे के पौधे, पत्तियाँ वगैरः दी जाएँ तो चिड़-चिड़ करता था। कुछ दिन बाद वह देस चला गया और उसकी जगह एक युवक आ गया। छः फुट की हृष्ट-पुष्ट देह। स्वभाव से शान्त। कैसा भी कचरा हो, चुपचाप उठाकर ले जाता था।

कॉलोनी में भगत जी भी रहते थे। भगत जी सीधे-सरल स्वभाव वाले आदमी थे, दूसरे की पीड़ा में कातर होने वाले। नये सफाई वाले को देख कर वे उद्विग्न हो जाते थे। इतना लंबा, स्वस्थ युवक, फौज में जाता तो नाम करता। यहाँ कचरा उठाते उठाते कुछ दिन में खुद भी कचरा हो जाएगा। संक्रमित कचरे से धीरे-धीरे दस बीमारियाँ लग जाएँगीं। हाथ में दस्ताने भी नहीं पहनता।

एक दो बार रोक कर उन्होंने इस काम में आने की उसकी मजबूरियाँ समझीं। वही पुरानी कथा— अशिक्षित माँ-बाप, कमाई को शराब में उड़ा देने वाला पिता, तीन छोटे भाई बहन, घर का खराब वातावरण, अस्वास्थ्यकर परिवेश। यानी सनीचर के बैठने का पूरा इंतज़ाम।

बात सारे वक्त भगत जी के ज़ेहन में घुमड़ती रही। इस युवक को इस तरह अपने स्वार्थ के लिए जहन्नुम में झोंके रहना पाप से कम नहीं है।

उन्होंने अपने परिचित एक सिक्योरिटी एजेंसी वाले को फोन किया। वह लड़के को लेने के लिए राज़ी हो गया। भगत जी ने लड़के को बताया तो वह खुश हो गया। ऐसी मदद की उम्मीद उसे नहीं थी।

दो दिन बाद लड़का ग़ायब हो गया। भगत जी ने इस घटना के बारे में किसी को नहीं बताया। डर था कि लोग जानकर नाराज़ होंगे। दो-तीन दिन तक कचरा उठाने कोई नहीं आया। कॉलोनी वासियों की भवें चढ़ने लगीं। चुन्नू बाबू को पता चला तो वे भी परेशान हुए।

दौड़-भाग करके चुन्नू बाबू फिर एक आदमी को पकड़ लाये, लेकिन उन्होंने पता लगा लिया कि उनके सफाई-इंतज़ाम को ‘सैबोटाज’ करने वाला कौन था। नये आदमी को नियुक्त कराने के बाद वे भगत जी के पास पहुँचे, बोले, ‘आपके परोपकार का पता हमें चल गया। बड़ी मेहरबानी कर रहे हैं आप कॉलोनी वालों पर। इस बार तो मैंने इंतज़ाम कर दिया, लेकिन फिर आपने ऐसा किया तो आगे कचरे का इंतज़ाम आप ही कीजिएगा।’

भगत जी उनकी बात सुनकर, अपराधी जैसे, उनका मुँह देखते रह गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 127 ☆ बहुत जरूरी: मोह माया ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बहुत जरूरी: मोह माया । इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 127 ☆

☆ बहुत जरूरी: मोह माया ☆ 

एक पद का भार तो सम्हाले नहीं सम्हलता  और आप हैं कि सारा भार मेरे ऊपर सौंप कर जा रहे हैं ।

अरे भई आपको मुखिया बनाना है पूरी संस्था का , वैसे भी सबको जोड़ कर रखने में आपको महारत हासिल है । बस इतना समझ लीजिए कि चुपचाप रहते हुए कूटनीति को अपनाइए ।इधर की ईंट उधर करते रहिए लोगों का जमावड़ा न हो पाए ।ज्यादा तामझाम की जरूरत नहीं है कमजोर कड़ी को तोड़कर मानसिक दबाब बनाइए । जब कार्य की अधिकता सामने वाला देखेगा तो घबराकर भाग जाएगा । बस फिर क्या आपका खोटा सिक्का भी चलने लगेगा । भीड़ तंत्र को प्रोत्साहित करिए ,संख्या का महत्व हर काल में रहेगा ।अब संघ परिकल्पना को साकार करते हुए आपको कई संस्थाओं का मुखिया बनना होगा ।

सब कुछ बन जाऊँ पर क्या करूँ मोह माया से बचना चाहता हूँ ।

मोह माया का साथ बहुत जरूरी है क्योंकि बिना माया काया व्यर्थ है । काया मोह लाती ही है ।

कुछ भी करो पर करते रहो ,आखिर मोटिवेशनल स्पीकर यही कहते हैं कि निरंतरता बनी रहनी चाहिए । आजकल तो रील वीडियो का जमाना है जो करना- कराना है इसी माध्यम से हो ताकि डिजिटल इम्प्रेशन भी बढ़े । जब लोग उपलब्धि के बारे में पूछते हैं तो बताने के लिए खास नहीं होता है ,अब तो हर हालत में विजेता का ताज पहनना है भले ही वो मेरे द्वारा प्रायोजित क्यों न हो ।

वाह, आप तो दिनों दिन होशियार होते जा रहें हैं, अब लगता है मुखिया बनकर ही मानेंगे ।

हाँ, अब थोड़ा- थोड़ा समझ में आ रहा है कि कुर्सी बहुत कीमती चीज है इसे पकड़ कर रखना है नहीं तो अनैतिक लोग नैतिकता का दावा ठोककर इसे हथिया लेंगे ।

बहुत खूब ऐसी ही विचारधारा बनाए रखिए ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 164 ☆ “खंभों पर सवार चापलूसी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य–“खंभों पर सवार चापलूसी”)

☆ व्यंग्य # 164 ☆ “खंभों पर सवार चापलूसी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं । हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

शहर के बिजली खंभों को देखकर कभी कभी दया आ जाती है, कभी कभी लगता है खंभे न होते तो चापलूसों का जीवन जीना मुश्किल हो जाता। खंभो का मुफ्त उपयोग दो ही प्राणी करते हैं.. एक चापलूस , दूसरे कुत्ते। बड़े घर का कुत्ता जब बंगले के बाहर मेडम के साथ सड़क पर निकलता है तो सड़क पर खड़े बेचारे खंभे पर टांग उठाकर अपनी भड़ास निकाल देता है। सड़क छाप कुत्ते दिन भर इन बेचारे खंभों को सींचने का काम करते रहते हैं पर खम्भों को किसी से शिकायत नहीं होती, वह चिलचिलाती धूप, कुनमुनाती ठंड और बरसते आसमान के नीचे खड़ा खिलखिलाते हुए खुश रहता है।

बिजली के खंभे बहुउपयोगी होते हैं। बिजली के तारों से कसे हुए ये सबके घरों को रोशन करते हैं, इंटरनेट -केबिल कंपनियां भी अपने तार इनके ऊपर लाद देती हैं, बिजली के खंभे चापलूसों के लिए बड़े काम के होते हैं, शहर में नेताओं का आगमन-प्रस्थान हो, नेता जी का जन्मदिन हो, झूठ-मूठ का आभार प्रदर्शन हो, ऐसे सब तरह के फ्लेक्स लटकाने के लिए शहर के बिजली के खंभे चापलूसी करने के लिए काम के होते हैं, एक फ्लेक्स हटता नहीं और दूसरा आकर लटक जाता है। शहर में कोई न कोई नेता आता ही रहता है, खंभों ने लदना सीख लिया है, एक मंत्री हर हफ्ते राजधानी से हवाई जहाज में लद के पत्नी से मिलने आते और चमचों को खबर कर देते, चमचे प्रेस विज्ञप्ति देते लोग चापलूसी करने बैनर खंभों पर टांग देते, हवा से कई बार बैनर आधा लटक जाते फिर मोहल्ले के कुत्ते उसमें लघुशंका करते। बैनर फ्लेक्स लगाने वाले छुटकू नेता कभी कभी सोचते भी थे कि खंभे नहीं होते तो क्या होता ? नगर निगम चाहे तो बैनर फ्लेक्स लटकाने वालों से जुर्माना भी वसूल कर सकती है पर बैनर फ्लेक्स लटकाने वाले छुटकू चिपकू नेता सत्ताधारी पार्टी के चमचे होते हैं इनसे वसूल करोगे तो बात चाचा मामा तक पहुंच जाएगी, और नगर निगम के अफसरों के ऊपर खंभा गाड़ दिया जाएगा।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 126 ☆ सम्मान को सम्मानित करना ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सम्मान को सम्मानित करना। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 126 ☆

☆ सम्मान को सम्मानित करना ☆ 

आज इसको कल उसको अपना गुरु बनाते हुए सम्मान बटोरते जाना ये भी एक कला है। जिस तरह हर कला की साधना,आराधना होती है वैसे ही इसकी भी कुछ साधकों द्वारा निरंतर साधना की जा रही है। एक हाथ लेना और दूसरे हाथ देना ये सब कुछ जायज है, बस नियत सच्ची होनी चाहिए। एक कार्यक्रम के दौरान दो इसी तरह के साधक आपस में बात कर रहे थे कि यहाँ से अब बहुत मिल चुका चलो अपना बसेरा कहीं और बनाते हैं। पहले ने कहा कहीं और जाने की जगह हम खुद ही अपना समूह बना कर संस्था के अध्यक्ष व सचिव बन जाते हैं। बस विज्ञापन निकालने की देर है, लोग खुद ही संपर्क करेंगे। जो संरक्षक बनना चाहेगा उसका स्वागत करेंगे।

दूसरे ने कहा सही बात है, संरक्षक ही कार्यक्रम को प्रायोजित करेंगे आखिर उनको हम पूरे समय मंचासीन रखेंगे। उन्हीं की फोटो पेपर में छपेगी।

पहले ने कहा अरे हाँ सबसे जरूरी तो मीडिया ही है, कोई आपकी पहचान का हो तो बताएँ, उसको प्रचार सचिव बनाकर सारे कार्य करवाने हैं।

ऐसा होना  कोई नयी बात नहीं है ये तो जोड़- तोड़ है जो आगे बढ़ने हेतु करनी ही पड़ती है। आखिर ये भी एक गुण है, हमें खुद को तराशते हुए जुटे रहना चाहिए, रास्ता जितना नेक होगा परिणाम उतना सुखद होगा।

हर वस्तु  चाहे  वो सजीव हो या निर्जीव उसकी अपनी एक विशिष्टता होती है,  और यही  उसका गुण कहलाता  है  जैसे मछली में तैरने का गुण होता है तथा वो जल के बिना नहीं रह सकती, इसी तरह मेढक जल थल दोनों में रह सकता है। पंछी आसमान की सैर करते हैं  तो बंदर एक डाल से दूसरी डाल तक छलाँग मार सकता है।

कुछ निर्जीव जैसे कोयला काला होता है  तो वहीं मिट्टी अपनी उत्त्पति के अनुसार कहीं काली,लाल, रेतीली,आदि रूपों में मिलती है।

इन सबमें बुद्धिमान प्राणी की बात करें तो  वो निश्चित रूप से मानव ही है जो निरन्तर गुणों की खोज में भटक रहा है, ये गुण कस्तूरी की तरह उसके भीतर ही समाहित है बस आवश्यकता है  हीरे की तरह उसे तराशने की।

जो लोग उचित समय पर श्रेष्ठ गुरु का सानिध्य पा जाते हैं वे जल्दी ही अपने गुणों को पहचान सफलता को प्राप्त कर लेते हैं। वहीं कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिनका गुरु वक्त होता हैं, किसी ने सच ही कहा है वक्त से बड़ा कोई गुरु नहीं हो सकता।

ये सब तो केवल व्याख्या है वास्तविकता  जिसके पास विद्या रूपी धन होता है उसमें सरलता व विनम्रता का गुण अपने आप ही विकसित हो जाता है। सम्मान के पीछे भागने की जगह यदि हम स्वयं को उपयोगी बनाकर समय के साथ- साथ बढ़ते रहें तो सम्मान भी सम्मानित होगा। तब चेहरे पर तालियों की गड़गड़ाहट से जो भाव आएगा वो अविस्मरणीय होगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 163 ☆ “मेरा नाम मैं, तेरा नाम तू” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य  – “मेरा नाम मैं, तेरा नाम तू”)  

☆ व्यंग्य # 163 ☆ “मेरा नाम मैं, तेरा नाम तू” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं । हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

गांव के खपरैल मकान की गोबर लिपी खुरदुरी जमीन पर जब हम रात तीन बजे उतरे, तो नाइन ने लालटेन की रोशनी में सब्जी काटने की चाकू से नरा काट दिया था और शरीर को उल्टा पुल्टा कर के नाम ढूंढा था पर शरीर में कहीं भी नाम लिखा नहीं आया था। नाइन को शरीर में ऐसा क्या कुछ दिखा कि उसने नवजात शिशु का नाम ‘लड़का’ रख दिया। नाम की शुरुआत यहीं से हो गई।

सुबह गांव के चौपाल में लड़का होने की बात हुई और ये भी बात हुई कि आज से मुगलसराय का नाम बदल गया ।कुछ दिन बाद मालिश करते हुए नाइन बड़बड़ाई कि लो अब इलाहाबाद और हबीबगंज भी हाथ से गया ।

मालिश के प्रताप से लड़के के शरीर में चर्बी फैलने लगी तो कोई कहता क्यूट बेबी, कोई कहता वाह रे लल्ला, कोई कहता मुन्ना रे मुन्ना, कोई कहता होनूलुलु…… न जाने किस किस नाम से रोज पुकारा गया। दिन में पांच सात बार नाम बदलते रहे। दशरथ के पुत्र बड़े भाग्यवान थे कि जब ठुमक के पहली बार चले तो पूरी दुनिया गाने लगी……

“ठुमक चलत रामचन्द्र बाजत पैजनियां”

इस प्रकार धरती पर पहली बार ठुमक के चलने से उनको स्थायी नाम मिल गया। इधर हमारे गरीब परिवार के अधिकांश बच्चों को स्थायी नाम स्कूल का हेड मास्टर ही मजबूरी में दे पाता है।

जिनका नाम नहीं होता वह इंसान नहीं होता, इसलिए पुराने जमाने में पत्नी अपने पति का नाम नहीं लेती थी, पति को पप्पू के पापा कहके पुकारती थी।

नाम रखने में बड़े चोचले होते हैं, नाइन कुछ नाम लेकर आती है, नानी कुछ नाम और भेजती है, आजा – आजी कुछ और नाम रखना चाहते हैं, नाम रखने की प्रतियोगिता होती है फिर नाम रखने में ईगो टकराते हैं और नाम रखने के चक्कर में बाप-महतारी लड़ पड़ते हैं इस प्रकार नाम रखने का काम टलता जाता है। पांच साल लल्ला- मुन्ना जैसे टेम्प्ररी नाम से काम चलता रहता है। प्रापर नाम नहीं मिलने से घर में ऊधम जब बढ़ जाता है तो ऊधम करने वाले की हेड मास्टर के सामने पेशी हो जाती है। हेड मास्टर बोला स्कूल में ये लल्ला – मुन्ना नहीं चलेगा कोई परमानेन्ट नाम देना पड़ेगा, ऐसा नाम जिसको रिकार्ड करना पड़ेगा और वही नाम भविष्य में समाज, शासन, आधार कार्ड, वोटर कार्ड और अंत में श्मशान में काम आयेगा।

शहरों, स्मारक, स्टेशन के नाम परिवर्तन को लेकर कालेज की वाद विवाद प्रतियोगिता में विवाद की स्थिति पैदा हो गई। राम के नाम पर भी विवाद हो गया। जिस नाम को सामाजिक मान्यता मिल जाती है उसको बदलने से आक्रोश पैदा होता है। पक्ष और विपक्ष में टकराव होता है, राज पथ का नाम अब कर्तव्य पथ हो रहा है। इतिहास को खोद कर नये विवाद पैदा किये जाते हैं। नियति के बदलने से नाम बदलने का जुनून सवार हो जाता है।

नाम बदलने के कई छुपे हुए कारण है कुछ होता-जाता नहीं है तो नई चाल खेली जाती है। वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन में जिस शहर का नाम सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में आ जाता है उन शहरों के नाम बदल के सूची से नाम दूर हो जाता है और यदि अकबर से बदला लेने का मूड बन गया तो इलाहाबाद को प्रयाग राज कर दिया जाता है जिससे नाम परिवर्तन करने वाले का इतिहास में नाम दर्ज हो जाता है।

स्वीटी है कि अपनी जिद पर अड़ी है कहती है – नाम-वाम में कुछ नहीं रखा है काम से मतलब है काम करोगे तो नाम होगा, स्वीटी की बात सुनकर किसी ने कहा – ‘नाम गुम जाएगा…. चेहरा ये बदल जायेगा, मेरी आवाज ही पहचान है….. और यदि आवाज भी खराब हो गई तो आधार तो है आधार से काम चल जाएगा उसमें नाम मिल ही जाएगा। देखो भाई, सीधी सी बात ये है कि नाम में क्या रखा है काम से नाम होता है।

दशरथ के पुत्र राम का नाम उनके काम से हुआ, वे मर्यादा पुरुषोत्तम राम कहलाए, तभी तो सब कहते हैं…….

“राम का नाम सदा मिसरी

सोवत जागत न बिसरी”

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #168 ☆ व्यंग्य ☆ साहित्यिक पीड़ा के क्षण ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक विचारणीय व्यंग्य ‘साहित्यिक पीड़ा के क्षण’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 168 ☆

☆ व्यंग्य ☆ साहित्यिक पीड़ा के क्षण

डेढ़ सौ कविताओं और सौ से ऊपर कहानियों का लेखक शहर में कई दिन से पड़ा है। लेकिन शहर है कि कहीं खुदबुद भी नहीं होती, एक बुलबुला नहीं उठता। एकदम मुर्दा शहर है, ‘डैड’। लेखक बहुत दुखी है। उनके शहर में आने की खबर भी कुल जमा एक अखबार ने छापी, वह भी तब जब उनके मेज़बान दुबे जी ने भागदौड़ की। अखबारों में भी एकदम ठस लोग बैठ गये हैं। इतने बड़े लेखक का नाम सुनकर भी चौंकते नहीं, आँखें मिचमिचाते कहते हैं, ‘ये कौन शार्दूल जी हैं? नाम सुना सा तो लगता है। अभी तो बहुत मैटर पड़ा है। देखिए एक-दो दिन में छाप देंगे।’

शहर के साहित्यकार भी कम नहीं। कुल जमा एक गोष्ठी हुई, उसके बाद सन्नाटा। गोष्ठी की खबर भी आधे अखबारों ने नहीं छापी। किसी ने रिपोर्ट छापी तो फोटो नहीं छापी। एक ने उनका नाम बिगाड़ कर ‘गर्दूल जी’ छाप दिया। रपट छपना, न  छपना बराबर हो गया। जैसे दाँत के नीचे रेत आ गयी। मन बड़ा दुखी है। वश चले तो उस अखबार के दफ्तर में आग लगा दें।

दो-तीन दिन तक कुछ साहित्यप्रेमी दुबे जी के घर आते रहे। शार्दूल जी अधलेटे, मुँह ऊपर करके सिगरेट के कश खींचते, उन्हें प्रवचन देते रहे। अच्छी रचना के गुण समझाते रहे और अपनी रचनाओं से उद्धरण देते रहे। दूसरे लेखकों की बखिया उधेड़ते रहे। फिर साहित्यप्रेमी उन्हें भूलकर अपनी दाल-रोटी की फिक्र में लग गये। अब शार्दूल जी अपनी दाढ़ी के बाल नोचते बिस्तर पर पड़े रहते हैं। आठ दस कप चाय पी लेते हैं, तीन-चार दिन में नहा लेते हैं। शहर पर खीझते हैं। इस शहर में कोई संभावना नहीं है। शहर में क्या, देश में कोई संभावना नहीं है। ‘द कंट्री इज गोइंग टू डॉग्स’। ऊबकर शाल ओढ़े सड़क पर निकल आते हैं। बाज़ार के बीच में से चलते हैं। दोनों तरफ देखते हैं कि कोई ‘नोटिस’ ले रहा है या नहीं। उन्हें देखकर किसी की आँखें फैलती हैं या नहीं। लेकिन देखते हैं कि सब भाड़ झोंकने में लगे हैं। किसी की नज़र उन पर ठहरती नहीं। कितनी बार तो पत्रिकाओं में उनकी फोटो छपी— हाथ में कलम, शून्य में टँगी दृष्टि, आँखों में युगबोध। लेकिन यहाँ किसी की आँखों में चमक नहीं दिखती। सब व्यर्थ, लेखन व्यर्थ, जीवन व्यर्थ। पत्थरों का शहर है यह।

एक चाय की दूकान पर बैठ जाते हैं। चाय का आदेश देते हैं। मैले कपड़े पहने आठ- दस साल का एक लड़का खट से चाय का गिलास रख जाता है। ‘खट’ की आवाज़ से शार्दूल जी की संवेदना को चोट लगती है, ध्यान भंग होता है। खून का घूँट पीकर वह चाय ‘सिप’ करने लगते हैं। सड़क पर आते जाते लोगों को देखते हैं। उन्हें सब के सब व्यापारी किस्म के, बेजान दिखते हैं।      

चाय खत्म हो जाती है और लड़का वैसे ही झटके से गिलास उठाता है। गिलास उसके हाथ से फिसल कर ज़मीन पर गिर जाता है और काँच के टुकड़े सब दिशाओं में प्रक्षेपित होते हैं। दूकान का मालिक लड़के का गला थाम लेता है और सात-आठ करारे थप्पड़ लगाता है। लड़का बिसूरने लगता है।

शार्दूल जी के मन में बवंडर उठता है। मुट्ठियाँ कस जाती हैं। साला हिटलर। हज़ारों साल से चली आ रही शोषण की परंपरा का नुमाइंदा। समाज का दुश्मन। नाली का कीड़ा। ज़ोरों से गुस्से का उफान उठता है, लेकिन शार्दूल जी मजबूरी में उसे काबू में रखते हैं। पराया शहर है यह। यहाँ उलझना ठीक नहीं। कोई पहचानता नहीं कि लिहाज करे। दूकान मालिक की नज़र में इतना बड़ा लेखक बस मामूली ग्राहक है। हमीं पर हाथ उठा दे तो इज़्ज़त तो गयी न। और फिर हमारे विद्रोह को समझने वाला, उसका मूल्यांकन करने वाला कौन है यहाँ? न अखबार वाले, न फोटोग्राफर, न साहित्यकार-मित्र। ऐसा विद्रोह व्यर्थ है, खासी मूर्खता।

शार्दूल जी एक निश्चय के साथ उठते हैं। विरोध तो नहीं किया, लेकिन दूकान-मालिक को छोड़ना नहीं है। कविता लिखना है, जलती हुई कविता। कविता में इस जल्लाद को बार-बार पटकना है और लड़के को न्याय दिलाना है। बढ़िया विषय मिला है। धुँधला होने से पहले इसे कलमबंद कर लेना है। धधकती कविता, लावे सी खौलती कविता।
दूकान-मालिक पर आग्नेय दृष्टि डालकर शार्दूल जी झटके में उठते हैं और बदन को गुस्से से अकड़ाये हुए दुबे जी के घर की तरफ बढ़ जाते हैं। अब दूकान-मालिक की खैर तभी तक है जब तक शार्दूल जी घर नहीं पहुँच जाते। उसके बाद कविता में इस खलनायक के परखचे उड़ेंगे।

शार्दूल जी चलते-चलते मुड़कर दूकान की तरफ दया की दृष्टि डालते हैं। पाँच दस मिनट और मौज कर ले बेटा, फिर तुझे रुई की तरह धुनकर भावी पीढ़ी के लाभार्थ सौंप दिया जाएगा।

शार्दूल जी की गति तेज़ है। वे जल्दी अपने मित्र के घर पहुँचना चाहते हैं। एक सामाजिक दायित्व है जो पूरा करना है और जल्दी पूरा करना है। एक कविता जन्म पाने के लिए छटपटा रही है— ऐसी कविता जो बहुत से कवियों को ढेर कर देगी और शार्दूल जी को स्थापित करने के लिए बड़ा धमाका साबित होगी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 125 ☆ फॉलो अनफॉलो का चक्कर ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “फॉलो अनफॉलो का चक्कर । इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 125 ☆

☆ फॉलो अनफॉलो का चक्कर ☆ 

एक दूसरे को देखकर बहुत कुछ सीखा जा सकता है।  सोशल मीडिया ने लगभग सभी को रील / शार्ट वीडियो बनाना सिखा दिया है। बस उसमें प्रचलित ऑडियो को सेट करें और वायरल का हैस्टैग करते हुए सब जगह फैला दीजिए। ये सब देखते हुए विचार आया कि इसे तकनीकी यात्रा का नाम दिया जाए तो कैसा रहेगा। वैसे भी यात्राएँ रुचिकर होती हैं। पुस्तकों में भी यात्रा वृतांत पढ़ने में आता है।

एक शहर से दूसरे शहर जाना अर्थात कुछ  बदलना। ये बदलाव हमारे अवलोकन को बढ़ाता है। जगह – जगह का खान- पान, रहन-सहन, वेश- भूषा सब कुछ अलग होता है। चारों धाम की यात्रा  यही सोच कर सदियों से की जा रही है। जब हम यात्रा संस्मरण पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि इस पुस्तक के माध्यम से हमने भी यात्रा कर ली। रास्ता नापने के मुहावरा शायद यही सोचकर बनाया गया होगा। आजकल सड़कें भी बायपास हो गयीं हैं। बिना धक्के का रास्ता आनन्द के साथ- साथ रुचिकर भी होने लगा है। तेजी से बढ़ते कदम मंजिल की ओर जब जाते हों तो लक्ष्य मिलने में देरी नहीं लगती। आस- पास हरियाली हो, वन वे ट्रैफिक हो, बस और क्या चाहिए।

यात्राएँ हमें जोड़ने का कार्य बखूबी करतीं हैं। बहुत बार हम किसी विशेष स्थान से प्रभावित होकर वहीं बसने का फैसला कर लेते हैं। हम तो ठहरे तकनीकी युग के सो सारा समय फेसबुक, इंस्टा, व्हाट्सएप व ट्विटर पर बिताते हैं। जब मामला अटकता है तो गूगल बाबा या यू ट्यूब की शरण में पहुँच कर वहाँ से हर प्रश्नों के उत्तर ले आते हैं। ये सब कुछ बिना टिकट के घर बैठे हो रहा है। पहले तो किसी से कुछ पूछो तो काम की बात वो बाद में करता था अनावश्यक का ज्ञान मुफ्त में बाँट देता था। चलो अच्छा हुआ इक्कीसवीं सदी में कम से कम इससे तो पीछा छूट गया है।

ये सब मिलेगा बस अच्छी पोस्ट को फॉलो और खराब को अनफॉलो करने की कला आपको आनी चाहिए। पहले अवलोकन करें जाँचे- परखे और सीखते- सिखाते हुए  सबके साथ आगे बढ़ते रहें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 162 ☆ “चुनाव के बहाने” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय माइक्रो व्यंग्य  – “चुनाव के बहाने”)  

☆ माइक्रो व्यंग्य # 162 ☆ “चुनाव के बहाने” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

जहां हम लोग रहते हैं उसे जवाहर नगर नाम से जाना जाता है। लोग कहते हैं कि जवाहर नगर एक लोकतांत्रिक कालोनी होती है। लोगों का क्या है वे लोग तो ये भी कहते हैं कि किसी भी शहर की नई बस्ती वह गांधी नगर हो या जवाहर नगर लोकतांत्रिक ही हुआ करती है। मुहल्ले में  एक घर शर्मा का है तो बगल में वर्मा का है, तिवारी है, मीणा है, खान है, जैन है, सिंधी है, ईसाई है। धर्म व जाति से परे व मुक्त होकर दो दशक से अधिक हो गये हैं ये सब लोग भाईचारे से रह रहे थे।

अचानक चुनाव आ गये। लोकतंत्र में चुनाव जरूरी हैं और लोकतांत्रिक कालोनियों में चुनाव का अलग महत्व है। मोहल्ले के खलासी लाइन में एक लाइन से बीस घर बने हैं।

चुनाव की घोषणा के बाद से ही हर घर मेंअलग-अलग टीवी चैनल चलने लगे। इन घरों में अलग अलग पार्टी के लोगों का आना जाना बढ़ गया, चैनलों ने और अलग अलग पार्टियों ने मोहल्ले में कटुता इतनी फैला दी  कि हर पड़ोसी एक दूसरे से कोई न कोई बात पर पंगा लेने के चक्कर में रहने लगा । गुप्ता जी ने अपने घर के सामने राममंदिर बना लिया तो पड़ोसी कालीचरण ने गोडसे मंदिर बना लिया।उनके पड़ोसी जवाहर भाई ने अपने घर के सामने गांधी जी का मंदिर बनवा लिया। बजरंगबली दीक्षित जी के घर के सामने पहले से विराजमान थे। गली के आखिरी में हरे रंग का झंडा लहराने लगा था, अचानक हरे कपड़े से लिपटी मजार दिखाई देने लगी थी।आम जनता को थोड़ी तकलीफ ये हुई कि सड़क धीरे धीरे सिकुड़ती गई पर मोहल्ले के एक बेरोजगार लड़के को फायदा हुआ उसकी फूल और प्रसाद की दुकान खूब चलने लगी।गली में अलग अलग पार्टी के लोगों का आना जाना बढ़ गया।फूल माला और प्रसाद की दुकान वाले लड़के की पूछपरख बढ़ गई, उसकी दुकान में सब पार्टी के लोग बेनर पम्पलेट दे जाते,वह चुपचाप रख लेता और रात को सब जला देता। चुनाव हुए रिजल्ट आये और प्रसाद वाली पार्टी जीत गयी। गली की सड़क बहुत सकरी हो गई थी,एक दिन बुलडोजर आया और बजरंग बली को छोड़कर  सड़क के सभी अतिक्रमण हटा दिए, सड़क चौड़ी हो गई, सबने राहत महसूस की,गली के बीसों घरों के लोग मिलने जुलने लगे, भाईचारा कायम हो गया,फूल माला प्रसाद की दुकान घाटा लगने से बंद हो गई। जवाहर नगर वाला बोर्ड दीनदयाल नगर में तब्दील हो गया। सबने चुपचाप देखा और आगे बढ़ गये।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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