हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 13 ☆ लघुकथा – शारदा ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक  अतिसुन्दर लघुकथा  “शारदा। श्रीमती कृष्णा जी की यह लघुकथा भारतीय समाज के एक पहलू को दर्शाती है साथ ही यह भी कि हम जो संस्कार देते हैं या बच्चे समाज से पाते हैं, वे उसी का अनुसरण भी करते हैं। ) 

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 13 ☆

☆ लघुकथा – शारदा ☆

 

चौदह बरस की शारदा का विवाह बचपन मैं तय किये गये बाईस वर्षीय लड़के के साथ कर दिया गया। शारदा तो खुश थी।

बचपन से संस्कार से भरी बालिका पहनने ओढ़ने  से बेहद अपने आपको सुंदर समझ रही थी। पर वह लड़का खुश नहीं था। ससुराल पहुँचते ही पता चला कि जिसके साथ उसे सात फेरों में बांधा गया है। माँ ने कहा था बेटी जिसके साथ फेरे लेती है वही जीवन भर उसका साथी होता है । उसी से निभाया जाता है। किसी और के बारे में कुछ भी नहीं  सोचा जाता ।

यहाँ आते ही उसे पता चला कि वह किसी और से भी विवाह कर चुका है और वह उसके साथ ही रहना चाहता है। शारदा एक पढ़ी और समझदार लड़की थी। भले वह पाँचवीं पढ़ चुकी थी। अधिक बहस में न पड़ माँ पिता को समझा कर तलाक के लिये अर्जी लगवा दी।

फिर विधिपूर्वक तलाक भी हो गया। तलाक हो जाने के बाद सबके कहने पर भी उसने विवाह नहीं किया। और जब कोई भी उससे कहता या पूछता कि आगे क्या होगा तब वह कहती जिसने मुझे बनाते समय यह सब सोच  लिया था तो आगे भी वही समझेगा। एक बार ही खुशियों का द्वार भारतीय लड़कियों का खुलता है बार बार नहीं खुलता। अर्थात हो चुका जो होना था अब और नहीं।

….और उसने आगे पढ़ने का मन बना लिया।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 36 – लघुकथा – रोका ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण लघुकथा  “रोका”।  एक माँ और पिता के लिए बिटिया के विवाह जुड़ने से विदा होते तक ही नहीं, अपितु  जीवन में कई ऐसे क्षण आते हैं जो आजीवन  स्मरणीय होते हैं।  वेअनायास ही हमारे नेत्र नम कर देते हैं।  और यह लघुकथा  भी सहज ही हमारे नेत्र नम कर देती है। श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  ने  मनोभावनाओं  को बड़े ही सहज भाव से इस  लघुकथा में  लिपिबद्ध कर दिया है ।इस अतिसुन्दर  लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 36 ☆

☆ लघुकथा – रोका 

सुगंधा आज बहुत ही खुश थी। क्योंकि उसकी बिटिया को देखने लड़के वाले आने वाले थे। सब कुछ इतना जल्दी हो रहा था। किसी को भी विश्वास नहीं हो रहा था।

घर में त्यौहार का माहौल बना हुआ था। मीनू, सुगंधा की बिटिया बहुत सुंदर भोली प्यारी सी बिटिया। सभी की निगाहें सामने सड़क से आती जाती गाड़ियों पर थी। समय पर गाड़ी से उतर परिवार के सभी सदस्य घर आए। बातों ही बातों में सभी का मन उत्साह से भर उठा। और मीनू को देखने के बाद लड़के और उसके परिवार वाले बहुत खुश हो गए और  मीनू उनको पसंद आ गई।

तुरंत ही बातचीत कर रोका करने को कहने लगे क्योंकि सुगंधा भी इतनी जल्दी सब हो जाएगा। इसका आभास नहीं लगा सकी थी। आंखें और गला दोनों भर आया। स्वादिष्ट भोजन खा लेने के बाद पंडित जी को बुलाकर साधारण तरीके से रोका का कार्यक्रम करने को कहा गया।

दोनों घर परिवार आमने सामने बैठ कर पंडित जी के कहे अनुसार साधारण सामग्री से मंत्रोच्चार कर लड़के की मां को बिटिया की ओली में सगुन डालने को कहा… जैसे ही लडके की  माँ कुछ रुपया और मिठाई का डिब्बा ओली डाल रही थी बिटिया को। बिटिया की मां सुगंधा प्यार और स्नेह के कारण रो पड़ी, आंखों से आंसू गिरने लगे। यह देख लड़के की मां भी रो पड़ी। देखते ही देखते ऐसा लगने लगा मानो बिटिया की विदाई अभी होने वाली है।

इस समय की नजाकत को देखते हुए लड़के के पिताजी जो काफी समझदार और सुलझे हुए व्यक्तित्व के धनी। उन्होंने तुरंत बात संभाली और जोरदार हंसी ठहाके लगाते हुए ताली बजाकर कहने लगे क्यों श्रीमती जी अपना रोका याद कर रही हो याने सास भी कभी बहू थी। पत्नी भी हंसते हुए शरमाने लगी।

सुगंधा भी अपने समधी के व्यवहार कुशलता पर हंस पड़ी और गर्व करने लगी। सब कुछ हंसी खुशी संपन्न हुआ।

शादी का मुहूर्त निकाल कर पंडित जी बहुत खुश हुए। मीनू को बहू के रूप में पाकर लड़के वाले गदगद थे। और हंसी खुशी विदा होकर जाने लगे मानों कह रहे हो रोका हमने कर लिया। अब जल्दी ही विदाई करा कर ले जाएंगे। मीनू भी बहुत खुश थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 11 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 11 – धत् पगली ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- पगली पर किस प्रकार दुखों का पहाड़ टूट पडा़ था। परन्तु वह विधि के विधान को समझ नही पा रही थी कि उसके भाग्य  में अभी और कौन  सा दिन देखना बाकी है। पहले पति मरा फिर आतंकी घटना नें उससे जीने का आखिरी सहारा भी छीन लिया पगली का हृदय आहत हो बिलबिला उठा था।  बिछोह की पीड़ा ने उसे चीत्कार  करने पर विवश कर दिया।अब आगे पढ़े——)

पगली के बेटे गौतम की अर्थी निकले महीनों  गुजर चुके थे।  गांव के सारे लोग उस गुजरे हादसे को अपने स्मृतियों से भुलाने में लगे थे, लेकिन फिर भी पगली का सामना होते ही लोगों की स्मृति में  गौतम का क्षत-विक्षत शव का दृश्य तैर जाता और लोग उस घटना को याद कर सिहर उठते।  लोगों के मन में दया करूणा एवम्ं सहानुभूति का ज्वार पगली के प्रति उमड़ पड़ता।

लोग पगली के प्रति नियति की कठोरता पर  विधाता को कोसते।  उसे देख कर जमाने के लोगों के दिल में हूक सी उठती तथा आह निकल जाती।  पति तथा पुत्र के असामयिक निधन ने उसके चट्टान से हौसले को तोड़ कर रख दिया।  उसका सारा हौसला रेत के घरोंदे जैसा भरभरा कर गिर गया।

पगली का व्यक्तित्व कांच के टुकड़ों की मानिन्द बिखर गया। पगली भीतर  ही भीतर टूट चुकी थी।  उसके जीवन से जैसे खुशियों के पल रूठ कर बहुत दूर चले गए हो। पति का बिछड़ना तो पगली ने बर्दाश्त कर लिया था।  उसनें गौतम के साथ जीने और मरने के सपने सजाये थे, लेकिन गौतम की असामयिक मृत्यु ने उन सपनों को  चूर चूर कर दिया, वह विक्षिप्त हो गई थी।

उस पर पागलपन के दौरे पड़ने लगे थे। उसे देख ऐसा लगता जैसे जीवन से उसका ताल मेल खत्म हो गया हो।  सूनी सूनी आंखें, बिखरे बिखरे बाल, तन पर फटे चीथड़ों के शक्ल में झूलती साड़ी, तथा अस्त व्यस्त जीवन शैली।  उसके दुखी जीवन के पीड़ा की कहानी बयां करती, जिन्दगी से उसकी सारी उम्मीदें खत्म हो गई थी।

वह लक्ष्य विहीन जीवन जीती आशा और निराशा में भटकती कटी हुई पतंग की तरह फड़फड़ा रही थी।

वह प्राय:मौन हो यहाँ वहाँ घूमती, यदि गाँव की महिलायें दया भाव से कुछ दे देती तो वह उसे वही बैठ चुपचाप खा लेती।  कभी कभी वह अस्फुट स्वरों में कुछ बुदबुदाती, उसकी बातों का मतलब लोगों के लिए अबूझ पहेली थी।  मानों वह विधाता से अपने भाग्य की शिकायत कर रही हो।

फिर चाहे गर्मी की तपती दोपहरी हो अथवा रातों की नीरवता जाड़े की रात हो अथवा बारिशों का दौर वह दुआ मांगने वाले अंदाज में दोनों हाथ ऊपर उठाये एक टक् खुले आकाश की तरफ निहारा करती।

उसके साथ घटी घटनाओं ने उसका हृदय तार तार कर के रख दिया, जिससे उपजे दुख और पीड़ा ने उसे अक्सर बेख्याली में चीखने चिल्लाने पर मजबूर कर दिया।  जरा सा छेड़छाड़ हुई नही कि वह साक्षात् रणचंडी बन जाती। गांवों के बच्चे कभी उसे पगली पगली कह चिढ़ाते कभी पत्थर मारते, तो वह भी गुस्से में उन्हें गालियां देते मारने के लिए दौड़ा लेती। शरारती बच्चे भाग लेते, लेकिन उसी समय घटी एक साधारण सी घटना नें पगली के हृदय पर ऐसी असाधारण चोट पहचाई कि उसका हृदय विदीर्ण हो गया, वह कराह उठी।

उसने उस दिन पत्थर फेकते बच्चों की टोली को दौड़ाया तो उसी आपाधापी में एक बच्चा डर के मारे चीख कर बीच सड़क पर गिर गया। चोट उसके सिर पर लगी थी।

शायद पगली के दिल पर भी, बच्चे के सिर से रक्तधारा बह चली थी, अपना खून देख बच्चा बेसुध हो रोने लगा था। उसके चोट से बहती रक्तधारा देख पगली के हृदय में करूणा उमड़ आई। उसकी सोई ममता जाग उठी।  आखिर ऐसा क्यों न हो उसका दिल  भी तो एक माँ का दिल था।  उसकी ममता अभी जिन्दा थी।  उसने अपनी चीथड़ों की शक्ल में झूलती साडी़ का एक टुकड़ा फाड़ा और बच्चे की चोट पर बांध दिया और बच्चे को गोद मे चिपका कर रो पड़ी।

वह रोये जा रही थी, तथा बच्चे के गाल से बहता रक्त भी पोंछ रही थी।  मानों अंजाने में हुए अपने पापों का प्रायश्चित कर रही हो।  तभी बच्चे का चोला चैतन्य हुआ और बच्चा [धत् पगली] कह गोद से उठकर अपना
हाथ छुड़ाते उठ भागा था।

उस समय पगली को ऐसालगा जैसे हाथ छुडा़ उसका अपना गौतम ही भागा हो। उसका भावुक हृदय चित्कार कर उठा।  वह भी उस बच्चे के पीछे (अरे मोरे ललवा, कहाँ छोड़कर पहले रे) चिल्लाते हुए दौड़ पड़ी थी।

तब से ही पगली बेचैन रहती है उसका दिन का चैन और रातों की नींद खो गई है, वह रात दिन रोती रहती है।  जब रात की नीरवता के बीच कुत्तों के झुण्ड से रोनें तथा सितारों की टोली से हुआँ हुआँ के बीच अरे मोरे ललवा कंहाँ छोडि़ के पहले रे की आवाज वातावरण में तैरती है, तो उसका करूण क्रंदन सुन लोगों की रूह कांप जाती है।  लोग उसकी पीड़ा देख विधाता को कोसते हैं।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 12 – गोविन्द—

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ रसहीन ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित जीवन दर्शन पर आधारित एक सार्थक लघुकथा   “संगमरमर ”.)

☆ लघुकथा – रसहीन  

प्रकृति से दूर कांक्रीट के जंगल में भटकती हुई एक तितली गिफ्ट सेंटर पर लटके सजावटी रंगबिरंगे फूलों की माला पर आकर्षित होकर , कभी इस फूल पर , कभी उस फूल पर बैठती एवं कुछ देर पश्चात पुनः उड़कर दूसरे फूल पर जा बैठती । यह प्रक्रिया कुछ देर चलती रही और फिर तितली निढाल अवस्था में वहीं शो केस के कांच पर बैठ गई ।

उसे क्या पता था कि इन फूलों में रस नही है , ये केवल दिखावटी हैं । इन्हीं प्लास्टिक के फूलों की तरह मनुष्य भी प्राकृतिक सौंदर्य से दूर केवल बनावटी जीवन में ही रस ढूंढ़ते हुए रसहीन हो चुका है ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य ☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथा – नशा ☆ सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

 

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की एक ऐसे  लघुकथा जिसमें एक सामाजिक बुराई का अंत दर्शित करने का सफल प्रयास किया गया है। नशे की लत विशेष कर हमारे समाज के  निम्न – मध्यम वर्ग के परिवार को खोखला करते जा रही है। हालांकि मध्यम  एवं उच्च वर्ग के कुछ परिवार व बच्चे भी इसके अपवाद नहीं हैं । वीक एन्ड पार्टियां, बैचलर पार्टियां और न जाने क्या क्या।? एक  विचारणीय लघुकथा।)

☆ लघुकथा – नशा ☆

हर रोज की तरह वह आज भी दारू पी कर आया था। लेकिन आज झगड़ा नहीं कर रहा था। वरन् शांत था। आज जब घरवाली ने खाना दिया तो न चिल्लाया न मीन मेख ही निकाली। उसने पूछा, “क्या बात है, आज कम मिली है?” वह व्यंग्यात्मक लहजे में बोले जा रही थी पर आज रमेश कुछ भी उत्तर नहीं दे रहा था। आज बच्चे माँ-बाप सब अचम्भे में थे। आज कोई डरा हुआ नहीं था। बच्चे सहम कर चिपके हुए नहीं थे।

..चुपचाप खाना खा वहीं बरामदे में पड़ी चारपाई पर लेट गया व थोड़ी देर बाद ही नींद आ गई। कड़ाके की ठंड थी। सबने खूब जगाया ताकि अंदर सुला सके। नशे की वजह से वह गहरी नींद में था नहीं उठा वहीं उसके ऊपर रजाई ढांप दी। सब अपने बिस्तरों में जाकर सो गये। सुबह 5 बजे जब माँ उठी तो देखा वह बिना ओढे जमीन पर सोया पड़ा है। खूब उठाया मगर टस से मस नहीं हुआ। तब सब घबरा गये। क्योंकि इतनी देर बाद तो नशा भी उतर जाता है।

..डॉक्टर को बुलाया पूरे चेकअप के बाद जो उसने उत्तर दिया सब बिलख-बिलख रोने लगे। उसने बताया, “ठंड में ज्यादा देर जमीन पर लेटे रहने से खून जम गया है व हार्ट ने काम करना बंद कर दिया है। इसे मरे तकरीबन एक घंटा हो चुका है। “सब रो-रो कर अफसोस जाहिर कर रहे थे कि हम में से किसी को पास सोना चाहिए था, इतना समझाते थे कि हमारी तरफ तो देख हमारा क्या होगा तू इतनी मत पिया कर। अगर सुन लेता तो आज हमें….।

© ऋतु गुप्ता, दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 20 ☆ लघुकथा – पागल नहीं हैं हम ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा  “पागल नहीं हैं हम”।  यह लघुकथा  हमें स्त्री जीवन की संवेदनाओं से रूबरू कराती हैं ।  जब किसीआतंरिक पीड़ा की अति हो या सहनसीमा के पार हो जावे तो  मानवीय संवेदनाएं और जुबान दोनों सीमायें लांघ जाती हैं।  डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर  सामाजिक जीवन के कटु सत्य को उजागर करने की अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 20 ☆

☆ लघुकथा – पागल नहीं हैं हम 

पुणे से वाराणसी जानेवाली ट्रेन का स्लीपर कोच। एक औरत सीधे पल्ले की साड़ी पहने, घूँघट काढ़े, गोद में नवजात शिशु को लिए ऊपरवाली बर्थ पर बैठी थी। नीचे की बर्थ पर शायद उसका पति, ३-४ साल की एक बेटी और सास बैठी थी। ट्रेन प्लेटफार्म से चल चुकी थी। यात्री अपना-अपना सामान बर्थ के नीचे लगा रहे थे। गर्मी का समय था, ट्रेन चली तो सबको थोड़ी राहत महसूस हुई। यात्री ट्रेन में चढ़ने की आपाधापी से निश्चिंत हुए ही थे कि तभी किसी को मारने की आवाज आई। साथ में विरोध का दबा सा स्वर- “काहे मारत हो हमका ? का बिगारे हैं तुम्हारा ?”

“ससुरी जबान चलावत है”, यह कह उसके एक थप्पड और जड दिया। औरत झुंझलाती हुई मुँह मोड़कर बैठ गई। यात्री कुछ समझते इससे पहले ही वह आदमी सीट पर बैठ अपनी माँ से बात करने लगा जैसे कुछ हुआ ही ना हो। माँ को पिटते देख बेटी सहम कर खिड़की से बाहर देखने लगी।

वह औरत इतना लंबा घूँघट काढ़े थी कि उसका चेहरा दीख ही नहीं रहा था। थोड़ी देर बाद वह बैठे-बैठे ही सोने लगी। नींद में उसका सिर इधर-उधर लुढ़क रहा था। बीच-बीच में वह बच्चे को थपकती जाती। उसका एक हाथ बच्चे को निरंतर संभाले हुए था। इतने में वह आदमी उठा और उसने अपनी पत्नी का सिर पकड़कर झिंझोड़ दिया- “हरामजादी सोवत है ? बच्चा गिर जाई तो। पागल औरत बा ई। अम्मा ! हमार किस्मत फूट गई।” अम्मा भी लड़के के साथ सुर में सुर मिलाकर बहू को कोसने लगी।

परिवार का आपसी मामला समझ लोग चुप थे लेकिन वातावरण बोझिल हो गया था।

रात के लगभग नौ बजे थे। लोग सोने की तैयारी कर रहे थे। कुछ ने तो सोने के लिए बत्तियाँ भी बुझा दी थीं। इतने में छीना-झपटी और मारपीट जैसी आवाजें सुनाई देने लगी। बंद बत्तियाँ फिर जल उठीं। लोगों ने देखा वह आदमी अपनी पत्नी की गोद से बच्चे को छीन रहा था। औरत घबराई हुई बच्चे को छाती से कसकर चिपकाए थी। छीना-झपटी में बच्चा भी घबराकर रोने लगा। इस जोर जबरदस्ती में औरत का घूँघट हट गया। उसका चेहरा  मारपीट की दास्तान बयान कर रहा था। आसपास के लोगों को जगा देख उस औरत में भी हिम्मत आ गई। वह चिल्लाने लगी – “ना देब बच्ची का। टरेन से फेंक देबो तो ? कहत हैं मेहरारू पागल है। अरे ! हम पागल नहीं हैं। तू पागल, तोहरी अम्मा पागल। दूसरी लड़की पैदा भई, तो का करी, फेंक देइ कचरे में ? तुम्हारे हाथ में दे देई गला घोंटे के बरे…………..”

स्लीपर कोच की बत्तियां जली रह गईं।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 35 – वज़ूद ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा   “वज़ूद  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  #35☆

☆ लघुकथा – वजूद ☆

सविता ने पति के जीते जी कभी घर से बाहर  कदम नहीं रखा था पर अब क्या कर सकती थी ? घर में खाने को दाना नहीं था और भूखे मरने की नौबत आ गई थी .

तभी बाहर से किसी ने आवाज दी, “सविता भाभी ! आप बुरा न माने तो एक बात कहू ?” डरते-डरते मनरेगा के सचिव ने पूछा – “कहो भैया !” शंका-कुशंका से घिरी सविता बोली तो सचिव ने कहा, “भाभी! मनरेगा के तहत वृक्षारोपण हो रहा है यदि आप चाहे तो इस के अंतर्गत पौधे लगा कर कुछ मजदूरी कर सकती है.”

अंधे को क्या चाहिए, दो आँख. सविता की मंशा पूर्ण हो रही थी. वह झट से बोली “क्यों नहीं भैया, मजदूरी करने में किस बात की शर्म है” यह कहते हुए सविता काम पर चल दी.

वह आज मनरेगा की वजह से अपना वजूद बचा पाई थी. अन्यथा वह अपने पड़ोसी के जाल में फंस जाती जो उस की अस्मिता के बदले मजदूरी देने को तैयार था.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 6 ☆ कथा-कहानी ☆ नेत्रार्पण ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक कहानी “नेत्रार्पण” जो वास्तविक घटना पर आधारित है।)

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 6

☆ कथा कहानी  – नेत्रार्पण ☆

समय बीतते समय ही नहीं लगता। आज अर्पणा दीदी की पहली बरसी है। पंडित जी ने हवन कुंड की अग्नि जैसे ही प्रज्ज्वलित की अंजलि अपनी आँखों को अपनी हथेलियों से छिपाकर ज़ोर से बोली – “बुआ जी। हवन की आग से मेरी आँखें जल रही हैं। और वह दौड़ कर मुझसे लिपट गई।

सबकी आँखें बरबस ही भर आईं।  माँजी तो दीदी को ज़ोर से पुकार कर रो पड़ीं। अंजलि ने मेरी ओर सहम कर देखा। उसकी करुणामयी याचना पूर्ण दृष्टि मुझे गहराई तक स्पर्श कर गई।  उसके नेत्रों की गहराई में छिपी वेदना ने मेरी आँखों में उमड़ते आंसुओं को रोक दिया। ऐसा लगा कि- यदि मेरी आँखों के आँसू न रुके तो अंजलि अपने आप को और अधिक असहाय समझने लगेगी। और उसकी इस असहज स्थिति की कल्पना मात्र से मुझे असह्य मानसिक वेदना होने लगी।

अंजलि की आँखें पोंछते हुए उसे अपने कमरे में ले जाती हूँ। कमरे में आते ही वह मुझसे लिपट कर रो पड़ती है। मैं भी अपनी आँखों में आए आंसुओं के सैलाब को नहीं रोक सकी।

जब अंजलि कुछ शांत हुई तो उसे पलंग पर बैठा कर दरवाजे के बाहर झाँककर देखा। माँजी, भैया, भाभी और निकट संबंधी पूजा-अर्चन में लगे हुए थे। भैया की दृष्टि जैसे ही मुझपर पड़ी तो उन्होने संकेत से समझाया कि मैं अंजलि का ध्यान रखूँ। मैं चुपचाप दरवाजा बंद कर अंजलि की ओर बढ़ जाती हूँ।

अंजलि की आँखें अधिक रोने के कारण लाल हो गईं थी। उसकी आँखें पोंछकर स्नेहवश उसके कपोलों को अपनी हथेलियों के बीच लेकर कहती हूँ- “अंजलि! देखो, मैं हूँ ना तुम्हारे पास। अब बिलकुल भी मत रोना।“

“बुआ जी, मेरा सिर दुख रहा है।“

“अच्छा तुम लेट जाओ, मैं सिर दबा देती हूँ।“

अंजलि अपनी पलकें बंद कर लेटने की चेष्टा करने लगी। मैंने देखा कि उसका माथा गर्म हो चला था। धीरे-धीरे उसका सिर दबाने लगती हूँ ताकि उसे नींद आ जाए। सिर दबाते-दबाते मेरी दृष्टि अर्पणा दीदी के चित्र की ओर जाती है।

वह आज का ही मनहूस दिन था, जब दीदी को दहेज की आग ने जला कर राख़ कर दिया था। विवाह हुए बमुश्किल छह माह ही तो बीते थे। आज ही के दिन खबर मिली कि अर्पणा दीदी स्टोव से जल गईं हैं और अस्पताल में भर्ती हैं। माँजी तो यह सुनते ही बेहोश हो गईं थी।

उस दिन जब मृत्यु शैया पर दीदी को देखा तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि ये मेरी  अर्पणा दीदी हैं। हंसमुख, सुंदर और प्यारी सी मेरी दीदी। दहेज की आग ने कितनी निरीहता से दीदी के स्वप्नों की दुनियाँ को जलाकर राख़ कर दिया था। सब कुछ झुलस चुका था। उस दिन मैंने जाना कि जीवन का दूसरा पक्ष कितना कुरूप और भयावह हो सकता है।

अचानक खिड़की के रास्ते से आए तेज हवा के झोंके से मेरी तंद्रा टूटी। मैंने देखा अंजलि सो गई है। किन्तु, पलकों के भीतर उसकी आँखों की पुतलियाँ हिल रही हैं। ठीक ऐसे ही आँखों की पुतलियों की हलचल उस दिन मैंने दीदी की पलकों के भीतर महसूस की थीं। डॉक्टर ने उन्हें नींद का इंजेक्शन दे कर सुला दिया था। किन्तु, उनकी पलकों के भीतर पुतलियों की हलचल ऐसे ही बरकरार थीं। चिकित्सा विज्ञान में इस दौर को रिपीट आई मूवमेंट कहा जाता है। अनुसंधानकर्ताओं का मत है कि- मनुष्य इसी दौर में स्वप्न देखता है। वे निश्चित ही कोई स्वप्न देख रहीं थीं। कोई दिवा स्वप्न? न जाने कौन सा स्वप्न देखा होगा उन्होने?

मैं उठकर मेज के पास रखी दीदी की कुर्सी पर बैठ जाती हूँ। डायरी और पेन उठाकर मेज पर रखी दीदी की तस्वीर में उनकी आँखों की गहराई की थाह पाने की अथक चेष्टा करती हूँ। दीदी ने अपने जीवन का अंतिम एवं अभूतपूर्व निर्णय लेने के पूर्व जो मानसिक यंत्रणा झेली होगी, उस यंत्रणा की पुनरावृत्ति की कल्पना अपने मस्तिष्क में करने की चेष्टा करती हूँ तो अनायास ही और संभवतः दीदी की ओर से ही सही ये पंक्तियाँ मेरे हृदय की गहराई से डायरी के पन्नों पर उतरने लगती हैं।

 

सुनो!

ये नेत्र

मात्र नेत्र नहीं

अपितु,

जीवन-यज्ञ-वेदी में

तपे हुये कुन्दन हैं।

 

मैंने देखा है,

नहीं-नहीं

मेरे इन नेत्रों ने देखा है

एक आग का दरिया

माँ के आंचल की शीतलता

और

यौवन का दाह।

 

विवाह-मण्डप

यज्ञ-वेदी

और सात फेरे।

नर्म सेज के गर्म फूल

और ……. और

अग्नि के विभिन्न स्वरुप।

 

कंचन काया

जिस पर कभी गर्व था

मुझे

आज झुलस चुकी है

दहेज की आग में।

 

कहां हैं ’वे’?

कहां हैं?

जिन्होंने अग्नि को साक्षी मान

हाथ थामा था

फिर

दहेज की अग्नि दी

और …. अब

अन्तिम संस्कार की अग्नि देंगे।

 

बस,

एक गम है।

सांस आस से कम है।

जा रही हूँ

अजन्में बच्चे के साथ।

पता नहीं

जन्मता तो कैसा होता?

हँसता ….. खेलता

खिलखिलाता या रोता?

 

किन्तु,  मां!

तुम क्यों रोती हो?

और भैया तुम भी?

दहेज जुटाते

कर्ज में डूब गये हो,

कितने टूट गये हो?

काश!

…. आज पिताजी होते

तो तुम्हारी जगह

तुम्हारे साथ रोते!

 

मेरी विदा के आंसू तो

अब तक थमे नहीं

और

डोली फिर सज रही है।

 

नहीं …. नहीं।

माँ !

बस अब और नहीं।

 

अब

ये नेत्र किसी को दे दो।

दानस्वरुप नहीं।

दान तो वह करता है,

जिसके पास कुछ होता है।

 

अतः

यह नेत्रदान नहीं

नेत्रार्पण हैं

सफर जारी रखने के लिये।

 

और अंत में वह तारीख 2 दिसम्बर 1987 भी डायरी में लिख देती हूँ ताकि सनद रहे और वक्त बेवक्त हमें और आने वाली पीढ़ी को वह घड़ी याद दिलाती रहे।

और फिर सफर जारी रखने के लिए दीदी कि अंतिम इच्छानुसार एक अनाथ एवं अंधी बच्ची को नेत्रार्पित कर दिये गए। वह प्रतिभाशाली अनाथ बच्ची और कोई नहीं अंजलि ही है जिसे भैया-भाभी ने गोद ले लिया।

किन्तु, जो नेत्र जीवन-यज्ञ-वेदी में तपकर कुन्दन हो गए हैं, वे आज धार्मिक अनुष्ठान की अग्नि से क्योंकर पिघलने लगे?  नहीं ….. नहीं। संभवतः यह मेरा भ्रम ही है।

निश्चित ही दीदी की आत्मा हमें अपनी उपस्थिति का एहसास दिला रही होंगी। दीदी के नेत्र और नेत्रार्पण की परिकल्पना अतुलनीय एवं अकल्पनीय है। किन्तु, दीदी की परिकल्पना कितनी अनुकरणीय है इसके लिए आप कभी अकेले में गंभीरता से अपने हृदय की गहराई में अंजलि की खुशियों को तलाशने का प्रयत्न करिए।  आज अंजलि, दीदी के नेत्रों से उन उँगलियों को भी देख सकती है जिससे वह कभी ब्रेल लिपि पढ़ कर सृष्टि की कल्पना किया करती थी। आप उन उँगलियों की भाषा नहीं पढ़ सकते, तो कोई बात नहीं। किन्तु, क्या आप अर्पित नेत्रों का मर्म और उसकी भाषा भी नहीं पढ़ सकते?

 

© हेमन्त बावनकर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 36☆ व्यंग्य – बात-वापसी समारोह ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  के व्यंग्य  ‘बात-वापसी समारोह ’ में  हास्य का पुट लिए लोकतंत्र  में जुबान के फिसलने से लेकर जुबान को वापिस उसी जगह लाने की  प्रक्रिया पर तीक्ष्ण प्रहार है। आप भी आनंद लीजिये ।  ऐसे विनोदपूर्ण  व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 36 ☆

☆ व्यंग्य – बात-वापसी समारोह  ☆

 

नेताजी एक दिन जोश में विपक्षी पार्टियों को ‘जानवरों का कुनबा’ बोल गये। वैसे नेताजी अक्सर जोश में रहते थे और अपने ऊटपटांग वक्तव्यों से पार्टी को संकट में डालते रहते थे।

नेताजी के बयान पर हंगामा शुरू हो गया और विपक्षियों ने नेताजी से माफी की मांग शुरू कर दी। तिस पर नेताजी ने अपनी शानदार मूँछों पर ताव देकर फरमाया कि उनकी बात जो है वह कमान से निकला तीर होती है और उसे वापस लेने का सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने यह भी कहा कि वे बात वापस लेने के बजाय मर जाना पसन्द करेंगे। उनकी इस बात पर चमचों ने ज़ोर से तालियाँ बजायीं और ‘नेताजी जिन्दाबाद’ के नारे लगाये।

हंगामा बढ़ा तो नेताजी को उनकी पार्टी की हाई कमांड ने तलब कर लिया। उन्हें हिदायत दी गयी कि वे तत्काल अपनी बात वापस लें अन्यथा उनके खिलाफ सख्त अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी।

नेताजी पार्टी दफ्तर से बाहर निकले तो उनकी शानदार मूँछें, जो हमेशा ग्यारह बज कर पाँच मिनट पर रहती थीं, सात-पच्चीस बजा रही थीं।बाहर निकलकर पत्रकारों से बोले, ‘हाई कमांड ने वही बात कही जो कल रात से मेरे दिमाग में घुमड़ रही थी। मुझे भी लग रहा था कि मैं कुछ ज्यादा बोल गया।वैसे मैं जानवरों को बहुत ज्यादा प्यार करता हूँ और उनका बहुत सम्मान करता हूँ। अब मैं अपने पंडिज्जी से पूछकर बात वापस लेने की सुदिन-साइत तय करूँगा।’

बात-वापसी की तैयारियाँ जोर-शोर से शुरू हो गयीं।एक लब्धप्रतिष्ठ वैज्ञानिक से अनुरोध किया गया कि वे अपने उपकरणों के ज़रिए पता लगायें कि बात जो है वह कहाँ तक पहुँची है। यह तो निश्चित था कि बात निकली है तो दूर तलक जाएगी, लेकिन कितनी दूर तलक जाएगी यह जानना जरूरी था। चुनांचे लब्धप्रतिष्ठ वैज्ञानिक ने डेढ़ दो घंटे की मगजमारी के बाद बताया कि बात जो थी वह धरती के छः चक्कर लगाकर भूमध्यसागर में ग़र्क हो गयी थी। वहाँ एक मछली ने उसे कोई भोज्य-पदार्थ समझकर गटक लिया था। बात को गटकने के बाद मछली की भूख-प्यास जाती रही थी और वह, निढाल, पानी की सतह पर उतरा रही थी।

यह जानकारी मिलते ही तत्काल वायुसेना का एक हवाई-जहाज़ गोताखोरों के दल के साथ भूमध्यसागर में संबंधित स्थान को रवाना किया गया। गोताखोरों ने आसानी से मछली को गिरफ्तार कर लिया और खुशी खुशी वापस लौट आये।पायलट ने मछली अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत कर सैल्यूट मारा और अधिकारियों ने खुश होकर वादा किया कि वे पायलट की सिफारिश विशिष्ट सेवा मेडल के लिए करेंगे।

पंडिज्जी की बतायी हुई साइत पर बात-वापसी की तैयारी हुई। स्थानीय समाचारपत्रों में आधे पेज का इश्तहार छपा कि नेताजी आत्मा की आवाज़ और हाई कमांड के निर्देश का पालन करते हुए अपनी अमुक तिथि को कही गयी बात को वापस लेंगे। इश्तहार में पार्टी के बड़े नेताओं का फोटो छपा, बीच में हाथ जोड़े नेताजी। समारोह स्थल पर विशिष्ट दर्शकों के लिए एक शामियाना लगाया गया और वहाँ बात-वापसी यंत्र लाया गया। बात वापसी देखने के उत्सुक लोगों की बड़ी भीड़ जमा हो गयी। नेताजी एम्बुलेंस में लेटे थे।

पंडिज्जी के बताये शुभ समय पर कार्रवाई शुरू हुई। मशीन का एक पाइप मछली के मुँह में डाला गया और दूसरे पाइप का सिरा नेताजी के मुँह में। मशीन चालू हुई और मछली चैतन्य होकर उछलने कूदने लगी। उधर नेताजी एक झटका खाकर बेहोश हो गये। बात जो थी वह मछली के पेट से निकलकर नेताजी के उदर में पहुँच गयी।

एक मिनट बाद नेताजी ने आँखें खोलीं। मुस्कराते हुए टीवी के संवाददाताओं से बोले, ‘मैं हाई कमांड को बताना चाहता हूँ कि मैं पार्टी का अनुशासित सिपाही हूँ। मैंने पूरी निष्ठा से हाई कमांड के आदेश का पालन किया है। मुझे यकीन है कि अब मैं उनका कोपभाजन न रहकर स्नेहभाजन बन जाऊँगा। मुझे भरोसा है कि आप के माध्यम से मेरी बात हाई कमांड तक पहुँच जाएगी।’

इसके बाद नेताजी डाक्टरों की देखरेख में एम्बुलेंस में घर को रवाना हो गये। पीछे पीछे कारों में ‘नेताजी की जय’ के नारे लगाते चमचे भी गये।

नेताजी के जाने के बाद मछली की ढूँढ़-खोज शुरू हुई। काफी खोज-बीन के बाद पता चला कि एक दूरदर्शी अधिकारी ने गुपचुप मछली अपने घर भिजवा दी थी और, जैसा कि समझा जा सकता है, वहाँ मित्रों के साथ मत्स्य-भोज की तैयारी चल रही थी।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 10 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 10 – आतंकवाद का कहर  ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- पगली विवाहित हो  ससुराल आई। बडा़ मान सम्मान मिला ससुराल से, संपन्नता थी ससुराल में, लेकिन सुहागरात के दिन की घटना अनकही कहानी बन कर रह गई।  पगली के जीवन में दिन बीतता गया, एक पुत्र की प्राप्ति, हुई नशे के चलते, संपन्नता दरिद्रता में बदल गई। फाकाकशी करने पर पगली मजबूर हो गई । नशे के शौक ने पगली से उसका पति छीन लिया, फिर भी पगली का हौसला टूटा नहीं। उसने गौतम को पढा़या लेकिन आतंकवाद ने ऐसा कहर ढाया कि पगली टूट कर बिखर गई। अब आगे पढ़े——)

गौतम की पढ़ाई ठीक ठाक चल रही थी। वह दीपावली की छुट्टियों में घर आया था।  छुट्टियां बीत चली थी।  आज उसे शहर वापस जाना था।

पगली ने बड़े प्यार से रास्ते में नाश्ते के लिए पूड़ी सब्जी, तथा गौतम के पसंद की कद्दू की खीर  बनाकर   गौतम के बैग में रख दिया था। गौतम स्कूल जाते समय गांव के बड़े बुजुर्गों के पांव छूकर आशीर्वाद लेना नहीं भूलता  था। यही विनम्रता का गुण उसे सारे  समाज में लोकप्रिय बनाता था।  उस दिन घर से बिदा लेते समय महिलाओं बड़े बुजुर्गों ने मिल कर सफल एवम् दीर्घजीवी होने का आशीर्वाद दिया था। लेकिन तब कौन जानता था कि विधि के विधान में क्या लिखा है? होनिहार क्या देखना और क्या दिखाना चाहती है?

उस दिन गौतम की मित्र मंडली उसे रेल्वे स्टेशन तक छोड़ने गई थी।  पगली सूनी सूनी आंखों से  उसी रास्ते को निहार रही थी, जिस रास्ते उसका गौतम गया था। मित्र गौतम को रेलगाड़ी में बैठा वापसी कर चुके थे।
आज ना जाने क्यों पगली का दिल उदास था उसे अपने लाडले की बहुत याद आ रही थी।  उसका दिल रह रह कर किसी अनहोनी की आशंका से धड़क उठता।  ऐसे में उसे कहीं चैन नही मिल रहा था वह बेचैन हो इधर उधर टहल रही थी।  उसकी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी।

इधर रेलगाड़ी अपनी तेज चाल से अपने गंतव्य की तरफ बढ़ी जा रही थी। रेल के डिब्बों में बैठे कुछ लोग ऊंघ रहे थे।  कुछ लोग समय बिताने के लिए ताशों की गड्डियां फेट रहे थे। कुछ लोग देश और समाज की चिंता में वाद विवाद करते दुबले हुए जा रहे थे।  कोई सरकार बना रहा था, कोई सरकार गिरा रहा था, जितने मुंह उतनी बातें इन सब की बातों से बेखबर गौतम अपनी मेडिकल की किताबों में खोया उलझा हुआ था। उसे देश दुनियाँ की कोई खबर नही थी। वह किताब खोले अध्ययन में तल्लीन था। कि सहसा रेल के डिब्बे में धुम्म-धड़ाम की कर्णभेदी आवाज के साथ विस्फोट हुआ और गाड़ी के कई डिब्बों के परखच्चे  एक साथ ही उड़ गये, सारी फिजां में एकाएक बारूदी गंध फैल गई।  बड़ा ही हृदय बिदारक दृश्य था।  जगह जगह रक्त सनी अधजली लाशें, अर्ध जले मांस के टुकड़े बिखरे पड़े थे।

उनमें कई लाशें ऐसी थी जिनके चेहरे नकाब से ढ़के थे, लेकिन मरते समय मौत का खौफ उनकी आंखों में साफ झलक रहा था, कपड़े जगह जगह से जले हुये थे। उन सबके बीच बाकी बचे लोगों में चीख पुकार आपाधापी मची हुई थी, सबके दिलों में मौत का खौफ पसरा हुआ था।  ऐसे में लोग अपनों को ढूंढ़ रहे थे।

लोगों का रो रो कर बुरा हाल था, उन्ही लोगों के बीच उस अभागे गौतम की क्षतविक्षत लाश पडी़ थी।  उसके हाथ में पकडी़ पुस्तक के अधजले पन्ने अब भी हवा के तीव्र झोंकों से उड़ उड़ कर उसकी आंखों में मचलते सपनों की कहानी बयां कर रहे थे।  वही पास पडा़ खाने का डिब्बा और उसमें पडा़ भोजन एक मां के प्यार की दास्ताँ सुना रहा था।  गौतम के परिचय पत्र से ही उसके टुकड़ों में बटे शव की पहचान हो पाई थी।

जिस समय गौतम का शव लेकर पुलिस गाँव पहुंची, उस समय सारा गाँव पगली के दरवाजे पर जुट गया था।

पगली का विलाप सुन उसके दुख और पीड़ा की अनुभूति से सबका दिल हा हा कार कर उठा था।  सबकी आँखे सजल थी,  उस दिन गांव में किसी घर में चूल्हा नही जला था पगली को तो मानो काठ मार गया था।  वहजैसे पत्थर का बुत बन गई थी उसकी आंखों से आंसू सूख गये थे।  उसका दिमाग असंतुलित हो गया था।

अपने सपनों का टूटना एक माँ भला कैसे बर्दाश्त कर पाती।  पगली अपनी ना उम्मीदी भरी जिंदगी पर ठहाके लगा हाहाहाहा कर हंस पडी़ थी, अपनी पीड़ा और बेबसी पर।

उस समय सिर्फ़ पगली के सपने ही नहीं टूटे थे, उसकी ही पूंजी नही लुटी थी, बल्कि कई माँओं की कोख एक साथ उजड़ी थी।  कई पिताओं के बुढ़ापे की लाठियां एक साथ टूटी थी, कई दुल्हनें एक साथ बेवा हुई थी कई बहनों की राखियाँ सूनी हो गई थी।

पगली ने उन सबके सपनों को आतंकी ज्वाला में जलते देखा था। वह गौतम के अर्थी की आखिरी बिदाई करने की स्थिति में भी नही थी। उस दिन, उस गाँव के क्या हिंदु क्या मुस्लिम क्या सिक्ख, सारे लोग अपनी नम आँखों से अपने लाडले को आखिरी बिदाई देने श्मशान घाट पहुंचे थे। उस दिन सारे समाज ने पहली बार आतंकी विचारधारा के दंश की पीड़ा महसूस की।

इन्ही सबके बीच कुछ भटके हुए आतंकवादी अपने जिहादी मिशन की कामयाबी का जश्न मना रहे थे  इंसानियत रो रही थी और हैवानियत जमाने को अपना नंगा नाच दिखा रही थी।  गौतम की चिता जले महीनों बीत चले थे, सारा गाँव इस दुखद हादसे को भुलाने का  जतन कर रहा था।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 11 –  धत पगली 

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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