हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखक ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’ ☆

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’

 

 ☆ कविता ☆ लेखक ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’ ☆ 

अनुभवों की पोटली

पीठ पर लादकर

कोई लेखक नहीं बनता

लेखक बनने के लिए

जरूरी नहीं कि तुमने

किसी युद्ध में भाग लिया है।

या की भूकंप की खबरें

देखी पड़ी हो

माना कि नदी के पूर ने

नहीं बहाया तुम्हारा कुछ

ना तो तुम

घड़ा बनाते हो ना बारिश

हां बारिश को

घड़े में भरकर

पानीदार होने का मुगालता

पाल सकते हो।

जरूरी नहीं कि तुम

लकड़हारे या मछुआरे बनो ।

बिना कुछ हुए भी तुम

रच सकते हो कविता

बशर्ते

तुम्हें भावनाएं हो

तो तुम भद्र हो

वरना अभद्र हो

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’

मो 9479774486

जबलपुर मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #157 – ग़ज़ल-43 – “सबका इलाज़ तो किया…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “सबका इलाज़ तो किया …”)

? ग़ज़ल # 43 – “सबका इलाज़ तो किया …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

वीरान खंडहरों की सैर को दो मायूस दिल गये,

ज़माने से उलझे दोज़ख़ के दरवाज़े मिल गये।

ज़िंदगी तब ख़ुशनुमा लिबास में मुसकाती थी,

चढ़ती उम्र के झौंके में वजूद के पत्ते हिल गये।

ग़म सलीके में रहे जब तलक लब खामोश थे,

हमारी ज़ुबां क्या खुली दर्द बेशुमार मिल गये।

सबका इलाज़ तो किया बस अपना न कर सके,

ज़माने के गरेबां रफ़ू किए ख़ुद के फटे मिल गये।

दर्द के फटे गलीचे सिलवाने जा रहा था शायर,

खुर्दबीन नुक़्ताचीं मगर नुक्कड़ पर मिल गये।

मैं ढूँढता रहा आस्तीन के साँपों को इर्द गिर्द,

ठीक से देखा ‘आतिश’ ने ज़हन में मिल गये।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 34 ☆ मुक्तक ।। झूठ  के पाँव  नहीं  होते हैं ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।। झूठ  के पाँव  नहीं  होते हैं।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 34 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।। झूठ  के पाँव  नहीं  होते हैं ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

यही सच  कि  सत्य  का  कोई  जवाब नहीं है।

एक सच ही जिसके चेहरे पर नकाब नहीं है।।

सच   सा  नायाब  कोई  और  नहीं  है  दूसरा।

इक  सच  ही  तो   झूठा  और  खराब  नहीं  है।।

[2]

सच   मौन   हो   तो   भी   सुनाई   देता है।

सात परदों के पीछे से भी दिखाई देता है।।

फूस में चिंगारी सा छुप कर आता है बाहर।

सच ही हर मसले की सही सुनवाई देता है।।

[3]

चरित्र   के   बिना   ज्ञान  इक  झूठी  सी  ही  बात है।

त्याग   बिन   पूजन   तो   जैसे   दिन   में   रात है।।

सिद्धांतों बिन राजनीति भी विवेकशील होती नहीं।

मानवता बिन विज्ञान  भी  इक  गलत  सौगात   है।।

[4]

सत्य  स्पष्ट  सरल  नहीं   इसमें  कोई  दाँव  होता  है।

जैसे   धूप   में   लगती  शीतल सी   छाँव   होता   है।।

गहन   अंधकार   को   भी   सच  का सूरज चीर देता।

सच के सामने नहीं टिकता झूठ का पाँव नहीं होता है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मौन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

समूह को कुछ दिनों का अवकाश रहेगा।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – मौन ??

उनके शब्दों से

उपजी वेदना,

शब्दों के परे थी,

सो होना पड़ा मौन,

अब अपने मौन पर

शब्दों से उपजी,

उनकी प्रतिक्रियाएँ

सुन-बाँच रहा हूँ मैं..!

© संजय भारद्वाज

(प्रात: 7.09 बजे, 7 जनवरी 21)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 100 ☆ ’’अपना भाग्य बनाइये…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा श्री गणेश चतुर्थी पर्व पर रचित एक कविता  “अपना भाग्य बनाइये…”। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 100 ☆ गज़ल – अपना भाग्य बनाइये” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

कोसिये मत भाग्य को, निज भाग्य को पहचानिये

भाग्य अपने हाथ में है, कुछ तो, इतना जानिये।

 

ज्ञान औ’ विज्ञान हैं आँखें दो, इनसे देखिये

भाग्य अपना, अपने हाथों, आप स्वयं सजाइये।

 

बीत गये वे दिन कि जब सब आदमी मजबूर थे

अब तो है विज्ञान का युग, हर खुशी घर लाइये

 

एक मुँह तो हाथ दो-दो, दिये हैं भगवान ने

बात कम, श्रम अधिक करने को तो आगे आइये।

 

अब न दुनियाँ सिर्फ, अब तो चाँद-तारे साथ हैं

क्या, कहाँ, कब, कैसे, क्यों प्रश्नों को भी सुलझाइये।

 

जरूरी है पुस्तकों से मित्रता पहले करें

हम समस्या का सही हल उनको पढ़कर पाइये।

 

पढ़ना-लिखना है जरूरी जिससे बनता भाग्य है

जिंदगी को नये साँचे में समझ के सजाइये।

 

बदलती जाती है दुनियॉ अब बड़ी रफ्तार से

आप पीछे रह न जायें तेज कदम बढ़ाइये

 

जो बढ़े, बन गये बड़े, हर जगह उनका मान है

आप भी पढ़ लिख के खुद सबकों यही समझाइये।

 

सोच श्रम औ’ योजनायें बदलती परिवेश को

खुद समझ सब, अपने हाथों अपना भाग्य बनाइये।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

 

मो. 9425484452

 

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मनोज के दोहे …14 सितम्बर – हिन्दी दिवस ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  द्वारा आज प्रस्तुत है राजभाषा मास पर “मनोज के दोहे… 14 सितम्बर – हिन्दी दिवस । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री मनोज जी की भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं।

✍ राजभाषा मास विशेष – मनोज के दोहे … 14 सितम्बर – हिन्दी दिवस

हिन्दी हिन्दुस्तान के,  दिल पर करती राज।

आजादी के वक्त भी,  यही रही सरताज।।

 

संस्कारों में है पली,  इसकी हर मुस्कान।

संस्कृति की रक्षक रही,  भारत की पहचान।।

 

स्वर शब्दों औ व्यंजनों, का अनुपम भंडार।

वैज्ञानिक लिपि भी यही, कहता है संसार।।

 

भावों की अभिव्यक्ति में, है यह चतुर सुजान।

करते हैं सब वंदना,  भाषा विद् विद्वान ।।

 

देव नागरी लिपि संग,  बना हुआ गठजोड़।

स्वर शब्दों की तालिका,  में सबसे बेजोड़।।

 

संस्कृत की यह लाड़ली,  हर घर में सत्कार।

प्रीति लगाकर खो गए,  हर कवि रचनाकार ।।

 

तुलसी सबको दे गए,  मानस का उपहार।

सूरदास रसखान ने,  किया बड़ा उपकार ।।

 

जगनिक ने आल्हा रची,  वीरों का यशगान।

मीरा संत कबीर ने,  गाए प्रभु गुण गान।।

 

मलिक मोहम्मद जायसी,  रहिमन औ हरिदास।

इनको जीवन में सदा, आई हिन्दी रास।।

 

सेवा की साहित्य की, हिन्दी बनी है खास।

श्री विद्यापति पद्माकर , भूषण केशवदास।।

 

चंदवरदायी खुसरो,  पंत निराला नूर।

जयशँकर भारतेन्दु जी,  है हिन्दी के शूर।।

 

दिनकर मैथिलिशरण जी, सुभद्रा, माखन लाल।

गुरूनानक रैदास जी,  इनने किया धमाल।।

 

सेनापति, बिहारी हुए,  बना गये इतिहास।

हिन्दी का दीपक जला,  बिखरा गये उजास।।

 

महावीर महादेवि जी, हिन्दी युग अवतार।

कितने साधक हैं रहे,  गिनती नहीं अपार ।।

 

हेय भाव से देखते,  जो थे सत्ताधीश।

वही आज पछता रहे, नवा रहे हैं शीश ।।

 

अटल बिहारी ने किया, हिन्दी का यशगान।

वही पताका ले चले, हम विश्व में सीना तान।।

 

ओजस्वी भाषण सुना, सबको दे दी मात।

सुना दिया हर देश में, मानव हित की बात ।।

 

विश्व क्षितिज में छा गयी, हिन्दी फिर से आज।

भारत ने है रख दिया,  उसके सिर पर ताज।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चिरंजीव ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

समूह को कुछ दिनों का अवकाश रहेगा। 

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – चिरंजीव ??

मैं मृत्यु हूँ ;

उसने कहा,

मैं हँस पड़ा,

वह घबरा गया,

नश्वर अंत,

शाश्वत अनंत से

टकरा गया..,

सुनते हैं ;
चिरंजीवों की सूची

पुनर्गठित की गई है,

मेरी जिजीविषा भी

इसमें समाविष्ट की गई है…!

© संजय भारद्वाज

प्रात: 4:18 बजे, 12 सितम्बर 2022

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #150 ☆ शिक्षित होती बेटियाँ ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना “शिक्षित होती बेटियाँ।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 150 – साहित्य निकुंज ☆

👮‍♀️ शिक्षित होती बेटियाँ 👮‍♀️  

बेटी देखो पढ़ रहीं,

 पाती हैं वह ज्ञान।

पढ़ लिखकर वे बन रहीं,

एक नेक इंसान।।

 

बस्ता भारी टाँगकर,

जाती शाला रोज।

खेल खेल में सीखती,

जीवन की हर खोज।।

 

शिक्षित होती बेटियाँ,

हुआ शिक्षित समाज।

घर आंगन को देखती,

बिटिया घर की लाज।।

 

शिक्षित बेटी आजकल,

दे रही संस्कार।।

 उसके अपने ज्ञान से,

शिक्षित है परिवार।।

 

शिक्षा सबके जीवन में,

लाती अमृत विचार।।

बेटी की शिक्षा उसके,

जीवन का उपहार।।

 

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अच्छे कवि ☆ श्री रामस्वरूप दीक्षित

श्री रामस्वरूप दीक्षित

(वरिष्ठ साहित्यकार  श्री रामस्वरूप दीक्षित जी गद्य, व्यंग्य , कविताओं और लघुकथाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। धर्मयुग,सारिका, हंस ,कथादेश  नवनीत, कादंबिनी, साहित्य अमृत, वसुधा, व्यंग्ययात्रा, अट्टाहास एवं जनसत्ता ,हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा,दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, नईदुनिया,पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका,सहित देश की सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित । कुछ रचनाओं का पंजाबी, बुन्देली, गुजराती और कन्नड़ में अनुवाद। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की टीकमगढ़ इकाई के अध्यक्ष। हम भविष्य में आपकी सार्थक रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास करेंगे।

☆ कविता – अच्छे कवि ☆

अच्छे कवि

अच्छी कविता नहीं लिखते

 

जैसी कि खराब कवि लिखते हैं

सीना तानकर खराब कविताएँ

 

वे तो बस कविता लिखते हैं

बेहद विनम्र भाव से

इस तरह

जैसे कर रहे हों

ईश्वर आराधना

 

उनमें नहीं होता

तनिक भी गुमान

अपने अच्छे तो दूर की बात है

अपने कवि होने का भी

 

जैसे कि होता है

खराब कवियों को

 

खराब कवि

जब पहन रहे होते हैं

काले हाथों से उजली दिखने वाली मालाएं

हो रहे होते हैं नतशिर

सत्ताधीशों के समक्ष

 

तब अच्छे कवि

किसी झाड़ी में पड़े

अवांछित शिशु की गुमनाम आवाज को

दर्ज कर रहा होता है

अपनी कविता में

 

बलात्कृत स्त्री को

कर रहा होता है

अपनी लड़ाई

खुद लड़ने के लिए तैयार

 

खराब कवि के लिखे गए

अभिनंदन पत्रों पर

मिलने वाले कविता पुरस्कार से बेखबर

 

अच्छे कवि लोहे को गलाने

पैदा करने लगते जरूरी ताप

ताकि ढाले  जा सकें

जरूरी हथियार

 

शोषितों और पीड़ितों के हाथों में सौंपने

 

अच्छे कवि

जानते हैं

गुलाब की सुंदरता के बारे में

 

स्याह अंधेरे के सीने में दफन

रोशनी के बारे में

 

जिन दिनों खराब कवि

खँजड़ी बजाते नाच रहे होते हैं

राजा के दरबार में

 

उन दिनों अच्छे कवि

बच्चों को सिखा रहे होते हैं

फूलों की खेती करना

 

युद्ध के दिनों में

खराब कवि वीर रस के कुंड में 

कर रहे होते नग्न स्नान

 

और अच्छे कवि

युद्ध के बीच बजा रहे होते बांसुरी

 

अच्छे कवि

खराब कवियों की

बेतहासा भीड़ में भी

पहचान लिए जाते अलग से

 

 अपने शब्दों के कारण नहीं

उनमें छिपे लोहे के कारण

© रामस्वरूप दीक्षित

सिद्ध बाबा कॉलोनी, टीकमगढ़ 472001  मो. 9981411097

ईमेल –[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #137 ☆ संतोष के दोहे – परहित ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे – परहित। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 137 ☆

☆ संतोष के दोहे – परहित ☆ श्री संतोष नेमा ☆

बाबा तुलसी कह गए, परहित सरिस न धर्म

कहता है संतोष ये, करें सभी सत्कर्म

 

कलियुग में है दान की, महिमा अपरंपार

दान सदा करते रहें, यह भी है उपकार

 

करते दान दिखावटी, फोटो लें भरपूर

नाम छपे अखबार में, होता उन्हें गुरूर

 

जोड़ी धन-दौलत बहुत, बने बड़े धनवान

दान न जीवन में किया, खूब चढ़ा अभिमान

 

वहम पाल यह समझते, सब मेरा ही काम

भूले आकर अहम में, सबके दाता राम

 

दीनों का हित कीजिये, यही श्याम संदेश

मित्र सुदामा को दिया, एक सुखद परिवेश

 

जीवन के उत्कर्ष का, एक यही सिद्धांत

प्रेम,परस्पर-एकता, बोध और वेदांत

 

मानवता का सार यह, परहित और उदार

पर पीड़ा को समझ कर, करें खूब उपकार

 

कुदरत से सीखें सदा,औरों का उपकार

देती सब कुछ मौन रह, किये बिना प्रतिकार

 

करता है “संतोष” भी, मानवता की बात

परहित में देखें नहीं, कभी धर्म या जात

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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