हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 4 (6-10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #4 (6-10) ॥ ☆

 

सरस्वती ने भी सदा स्तुति के थे अवसर जहाँ

की खुले मन से सहज महाराज रघु की वन्दना ॥ 6 ॥

 

यदि मनु इत्यादि से भोगी गई तो थी धरा

किन्तु हुई अनन्यपूर्वा सी नवीन वसुंधरा ॥ 7 ॥

 

उचित दण्डविधान से जो मलय वायु समान था

उसने अपनी प्रजा की मन से प्रशंसा पा लिया ॥ 8 ॥

 

आम्रफल के स्वाद से ज्यों मंजरी की गंध नम

रघु के गुण आधिक्य से त्यों हुई पिता की याद कम ॥ 9 ॥

 

पंडितों ने सद असत का ज्ञान राजा को दिया

किन्तु केवल धार्मिक सत्पक्ष ही उसने लिया ॥ 10 ॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 46☆ दोहे ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  रचित भावप्रवण  “दोहे । हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 46☆ दोहे  ☆

जग में शांति समृद्धि हो, हो सबका कल्याण।

मन में पावन प्रेम हो, यह वर दो भगवान।।

 

इस जग के हर देश मे, हो शुभ ममता भाव।

पावन प्रिय संवाद का, हो न कोई अभाव।।

 

युग युग लडी लडाईयाँ, ली बहुतो की जान।

पिछली अटपट चलन तज, मानव बने महान।।

 

जहाँ  बैर वहाँ नाश है, दुख का गहन प्रभाव।

जहाँ  प्रेम वहा शांति है, आपस मे सदभाव।।

 

सही सोच सदवृत्ति से, मन बनता बलवान।

मिटते सबके कष्ट सब, होता शुभ कल्याण।।

 

पडी हुई हर गांठ की, दवा है मन की बात।

होता ज्ञान प्रकाश जब, कटती काली रात।।

 

मन है जिसका ड्रायवर, यह तन है वह कार।

अगर  ड्रायवर शराबी, खतरो की भरमार।।

 

मानव मूल्यों का सतत, होता जाता ह्रास।

इससे उठता जा रहा, आपस का विश्वास।।

 

मन पवित्र तो दिखता है, वातावरण पवित्र।

नहीं कही कोई शत्रु, तब हर जन दिखता मित्र।।

 

मन के जीते जीत है, मन के हारे हार।

अपने मन को जीतकर, ही संभव उद्धार।।

 

पावन मन से ही उपजता, जीवन मे आनंद।

निर्मल मन को ही सदा, मिले सच्चिदानंद।।

 

शांत शुद्ध मन में नही, उठते कोई विकार।

मन की सात्विक वृत्ति हित, धर्म सबल आधार।।

 

बुद्धि तो पैनी हुई, पर धुली मन में दुष्टता।

इससे भटके लोग जग के, भूल गये है शिष्टता।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – रासायनिक सूत्र ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – रासायनिक सूत्र ?

ऊपर से भले दिखते हों

एक से तत्व, एक-सा स्तर,

आदमी का रासायनिक सूत्र

गुणधर्म बदलता रहता है निरंतर,

नश्वरता को टिकाये रखने का भय

प्राय: उत्पन्न करता है गहरा मत्सर,

मिटा नहीं पाता किसीकी प्रतिभा

तो आदमी छीनने लगता है अवसर !

©  संजय भारद्वाज

अपराह्न 12:28, 17.9.21

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 4 (1-5)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #4 (1-5) ॥ ☆

 

राज्य पाकर रघु पिता से और भी चमके तथा

शाम को पा तेज रवि से अग्नि हो शोभित यथा ॥ 1 ॥

 

सुन के उस को बना राजा बाद नृपति दिलीप के

द्धेष थे जिनके दिलों में और भी जलने लगे ॥ 2 ॥

 

इंद्रध्वज सम देख ऊपर उठे रघु उत्थान को

प्रजा सब प्रभुदित हुई थी पा रही अनंद जो ॥ 3 ॥

 

द्विरदगामी रघु ने दोनों पर किया अधिकार सम

राजसिंहासन पै जितना, श्शत्रुओं पर भी न कम ॥ 4 ॥

 

दे स्वयं की छत्र छाया पद्या रह अदृश्य ही

रघु की श्शासन व्यवस्था में साथ नित उसके रही ॥ 5 ॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चयन.. ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – चयन.. ?

 

समुद्र में अमृत पलता

समुद्र ही हलाहल उगलता,

शब्दों से गूँजता ऋचापाठ

शब्द ही कहलाते अवाच्य,

चिंतन अपना-अपना

चयन भी अपना-अपना!

 

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 11.31, 14.9.20

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 98 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 98 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

अक्षर-अक्षर  जोड़कर, बनते शब्द महान।

शब्द- शब्द से हुआ है,   ग्रंथों का निर्माण।।

 

हिन्दी में हम जी रहे, हिन्दी में है शान।

हिन्दी सबसे मधुर है, हिन्दी है पहचान।।

 

दूर देश में हो रहा, हिन्दी का सम्मान।

हिन्दी में सब बोलते, हिन्दी बड़ी महान।।

 

हिन्दी हिंदुस्तान के, करे दिलों पर राज।

चमक रहा है भाल पर, है बिंदी का ताज।।

 

हिन्दी को अब मिल रहा, बड़ा बहुत ही मान।

हिंदी भाषा प्रेम की, मिलता है सम्मान।।

 

तुलसी सूर कबीर को, मिला बहुत ही नाम।

उनके ही साहित्य पर, हुआ बड़ा ही काम ।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 88 ☆ संतोष के दोहे- प्रथम पूज्य गणराज ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “संतोष के दोहे – प्रथम पूज्य गणराज। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 88 ☆

☆ संतोष के दोहे – प्रथम पूज्य गणराज प्रभु ☆

 

विघ्न विनाशक गजवदन, एकदन्त भगवान

प्रथम पूज्य गणराज प्रभु, शिव प्रिय कृपा निधान।।1

 

पीताम्बर धारण किए, शुभगुणकानन रूप।

शरण पड़े हम आपकी, हे देवेश्वर भूप।।2

 

विद्यावारिधि विघ्नहर, वरद विनायक धाम

 विश्वराज सुरपूज्य प्रभु, हे हेरंब प्रणाम।।3

 

धूम्रकेतु सर्वात्मनम्, शशिवरणं ओंकार।

सुमुख स्वरूपी देववर, करते हम जयकार।।4

 

मृत्युंजय मूढाकरम, दायक मुक्ति  गणेश

मंगल कारक मोरया, मेटो कष्ट कलेश।।5

 

गजकर्णा, गौरीसुवन, गणाध्यक्ष गजनान।

हे गणपति, गणवक्त्र प्रभु, मंगल मूर्ति महान।।6

 

अखुरथ, अमित, अलंपता, हे अनन्त, अवनीश।

अखिलेश्वर, क्षेमंकरम, अघ्नाशना हरीश।।7

 

देवेन्द्राशिक, देवव्रत, देवादेव प्रणाम।

दूर्जा द्वेमातुर प्रभो, करें सफल मम काम।।8

 

हे हेरम्बा हारिणे, श्री हृदयाय प्रणाम।

हे हरिद्र, हरि ईश प्रभु, तुम ही सुख के धाम।।9

 

विघ्नराज, विघ्नेश्वरा, विश्वमुखम गणराज।

विकट, विरूपाक्षाय प्रभु, करें सफल सब काज।।10

 

विघ्न हरण, मंगल करण, गण नायक गुण गान।

शोक विघ्नहर, यशस्कर, हे प्रभु कृपा निधान।।11

 

हे लम्बोदर, गजवदन, रखो भक्त की लाज।

शुक्लाम्बरम, चतुर्भुजी, हम हर्षित हैं आज।।12

 

चरण वंदना आपकी, कर पूजन प्रथमेश।

रिद्धि-सिद्धि दातार हे, गौरी पुत्र गणेश।।13

 

संयुत श्रद्धा-भाव शुचि, पूजें गौरी लाल।

नित नव मंगल हो सदा, कटें कष्ट- जंजाल।।14

 

चरण-शरण ‘संतोष’तव, बुद्धिहीन,धनहीन।

कृपा दृष्टि प्रभु कीजिये, मुझे समझ कर दीन।।15

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 3 (66-70)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #3 (66-70) ॥ ☆

 

अब यज्ञशाला में मेरे पिताजी शिवरूप से हैं, सुने दत तब से

कि वरदान दे सुफल उनको किया आपने जो वहाँ प्रतीक्षा रत है कब से ॥ 66॥

 

सुन रघु की अभिलाषा -कहकर ‘‘तथा हो” मातलि से बोले कि रथ को बढ़ाओ-

औं रघु भी घोड़ा न पा किन्तु वर पा कहा खुद से-‘‘अब यज्ञ मंडप को जाओ। 67

 

रघु आगमन पूर्व सुन वृत सारा, देवेन्द्र के दूत से महीपति ने

रघु नन्दिनी वरद बेटे को छाती से चिपका किया खुश, सुखी भूपति ने ॥ 68॥

 

इस विधि से सौवें यजन का सुफल पा, राजा ने सोपान सुख के बनाये

जनप्रिय दिलीप चक्रवर्ती ने मानो कि देवेन्द्र से स्वर्ग -सुख – लाभ पाये ॥ 69॥

 

फिर साधना युक्त जीवन बिताने को जात योवन ले मुदित साथ पली

दिया छत्र – चामर युवा पुत्र रघु को, निभाते हुये रीति इश्वाकु कल की ॥ 70॥

 

तृतीय सर्ग समाप्त

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – हिंदी माह विशेष – भाषा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – राजभाषा मास विशेष – भाषा ?

 

नवजात का रुदन

जगत की पहली भाषा,

अबोध की खिलखिलाहट

जगत का पहला महाकाव्य,

शिशु का अंगुली पकड़ना

जगत का पहला अनहद नाद,

संतान का माँ को पुकारना

जगत का पहला मधुर निनाद,

प्रसूत होती स्त्री केवल

एक शिशु को नहीं जनती,

अभिव्यक्ति की संभावनाओं के

महाकोश को जन्म देती है,

संभवतः यही कारण है,

भाषा स्त्रीलिंग होती है!

अपनी भाषा में अभिव्यक्त होना अपने अस्तित्व को चैतन्य रखना है।

©  संजय भारद्वाज

(रात्रि 3:14 बजे, 13.9.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 114 ☆ संतुलन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  संतुलन। इस विचारणीय विमर्श के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 114 ☆

? कविता – संतुलन ?

 

संतुलन ही तो है

जीवन

समय के पहिये पर

भागम भाग के कांटे

जरा चूक हुई

और गिरे

 

पार करना है

अकेले

जन्म और जीवन की पूर्णता

के बीच बंधी रस्सी

अपने कौशल से

 

जो इस सफर को

मुस्कुरा कर

बुद्धिमत्ता से पूरा कर लेते हैं

उनके लिए

तालियां बजाती है दुनिया

उनकी मिसाल दी जाती है

और

जो बीच सफर में

लुढ़क जाते हैं

असफल

वे भुला दिए जाते हैं जल्दी ही ।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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