हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 125 – नव संवत्सर आ गया… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “नव संवत्सर आ गया…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 125 – नव संवत्सर आ गया… ☆

नव संवत्सर आ गया, खुशियाँ छाईं द्वार ।

दीपक द्वारे पर सजें, महिमा अपरंपार ।।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को, आता है नव वर्ष।

धरा प्रकृति मौसम हवा, सबको करता हर्ष।।

 *

संवत्सर की यह कथा, सतयुग से प्रारम्भ।

ब्रम्हा की इस सृष्टि की, गणना का है खंभ।।

 *

नवमी तिथि में अवतरित, अवध पुरी के राम ।

रामराज्य है बन गया, आदर्शों का धाम ।।

 *

राज तिलक उनका हुआ, शुभ दिन थी नव रात्रि।

राज्य अयोद्धा बन गयी, सारे जग की धात्रि ।।

 *

मंगलमय नवरात्रि को, यही बड़ा त्योहार।

नगर अयोध्या में रही, खुशियाँ पारावार।।

 *

नव रात्रि आराधना, मातृ शक्ति का ध्यान ।

रिद्धी-सिद्धी की चाहना, सबका हो कल्यान ।।

 *

चक्रवर्ती राजा बने, विक्रमादित्य महान ।

सूर्यवंश के राज्य में, रोशन हुआ जहान ।।

 *

बल बुद्धि चातुर्य में, चर्चित थे सम्राट ।

शक हूणों औ यवन से,रक्षित था यह राष्ट्र।।

 *

स्वर्ण काल का युग रहा, भारत को है नाज ।

विक्रम सम्वत् नाम से, गणना का आगाज ।

 *

मना रहे गुड़ि पाड़वा, चेटी चंड अवतार ।

फलाहार निर्जल रहें, चढ़ें पुष्प के हार।।

 *

भारत का नव वर्ष यह, खुशी भरा है खास।

धरा प्रफुल्लित हो रही, छाया है मधुमास।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मानदंड ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – मानदंड ? ?

सफेद कैनवास पर

बिखर जाते हैं रंग

कैनवास रंगमिति से

उर्वरा हो जाता है

सृजन की बधाई देने

समूह पहुँचता है…..

सफेद साड़ी पर

भूल से छितर जाती है

रंग की एकाध बूँद,

आँचल तनिक फहराता है

हाहाकार मच जाता है,

घुटते रहने की हिदायतें देने

समूह पहुँचता है…..

कलमकार स्वप्न देखता है-

काश! फ्रेम पर

तान देता सफेद साड़ी

और औरत को

ओढ़ा पाता कैनवास!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित साधना मंगलवार (गुढी पाडवा) 9 अप्रैल से आरम्भ होगी और श्रीरामनवमी अर्थात 17 अप्रैल को विराम लेगी 💥

🕉️ इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी करें। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना भी साथ चलेंगी 🕉️

 अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 184 – सुमित्र के गीत… गीत यह तुमको समर्पित ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – गीत यह तुमको समर्पित।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 184 – सुमित्र के गीत… गीत यह तुमको समर्पित ✍

गीत यह तुमको समर्पित

किन्तु मुख से कह न पाऊँ

डर यही मन में समाया

आँख से ही गिर न जाऊँ ।

 *

आँख से गिरना उतरना

यह पुराना सिलसिला है

आँख में अपनी रखे जो

वह कहाँ किसको मिल हैं

कौन आँखों में बसा है, अब किऐ कैसे बताऊँ ।

 *

समर्पण का अर्थ केवल

धन नहीं है, तन नहीं है

वही उल्टा सोचते हैं

पास जिनके मन नही है

कौन मन से मन मिलाये, किसे बरबस खींच लाऊँ।

 *

जानता हूँ जानता

थरथराने से लगे हो

तुम पराया भले मानो

जन्मजन्मों के सगे हो

भावना से अधिक क्या है, खोलकर अंतर दिखाऊँ।

 *

एक लम्बी प्रतीक्षा ने

आंसुओं से भर दिया है

रेतवन सी जिन्दगी को

मधुबनी सा कर दिया है

शक्ति इतनी सिमट आई, कहो तारे तोड़ लाऊँ ?

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 186 – “जोश भरे दरवाजे…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  जोश भरे दरवाजे...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 185 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “जोश भरे दरवाजे...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

कुत्ता पूँछ हिला कर

आखिर लेट गया ।

कौआ आ घर की

मुंडेर से लौटगया ॥

 *

गौरैया चिड़वे संग

आंगन में फुदकी ।

शायद मिल जायेगा

कुछ कोदो कुटकी ।

 *

भिदाकरे* उत्साहित

हो दौड़े छिप कर-

सीलन में झींगुर

का अनुभव नया नया ॥

 *

दीवारों पर चीटीं

धरे कतार चलीं ।

जालों में मकड़ियाँ

भागती खूब मिली ।

 *

जोश भरे दरवाजे

चौखट तक सब थे –

किन्तु अन्न घर का,

था जाने किधर गया ॥

 *

था उदास चूल्हा जो

सुलगा आज नहीं ।

थी उदास बटलोई

जिसका राज नहीं –

 *

ले पाता था कोई ,

वह चुपचाप पड़ी ।

घर का शील, प्रबन्धन

सारा उघड़ गया ॥

* भिदाकरे= कॉकरोच

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

22-03-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – कविता ? ?

नाज़ुक होती हैं

कविता की अँगुलियाँ

नरम होती हैं

कविता की हथेलियाँ

स्निग्ध होते हैं पाँव

जैसे केसर-मलाई का लेप

दूधिया तलवे

जो मखमली दूब पर चलें

तो दूब की छाप

उन पर उभर आए,

यों समझो,

एकदम नाज़ुक

एकदम मुलायम

एकदम नरम

सुडौल

भरी-भरी देह वाली

बेहद सुंदर

बलखाती औरत-सी

होती है कविता;

प्रौढ़ शिक्षा वर्ग में

शिक्षक महोदय पढ़ा रहे थे,

वो मजदूर औरत

चुपचाप देखती रही

अपनी खुरदुरी हथेलियाँ

कटी-छिली अँगुलियाँ

मिट्टी सने पैर

बिवाइयों भरे तलवे

बेडौल

जगह-जगह से पिचकी-सी देह

उसका जी हुआ

उठे और चिल्लाकर कहे-

नहीं माटसाब!

कविता ऐसी भी होती है!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित साधना मंगलवार (गुढी पाडवा) 9 अप्रैल से आरम्भ होगी और श्रीरामनवमी अर्थात 17 अप्रैल को विराम लेगी 💥

🕉️ इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी करें। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना भी साथ चलेंगी 🕉️

 अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 173 ☆ # “एक सूर्य निकला था” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है विश्व कविता दिवस परआपकी भावप्रवण कविता एक सूर्य निकला था ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 173 ☆

☆ # “एक सूर्य निकला था ” # ☆ 

वर्षों पहले आज ही के दिन

एक सूर्य निकला था

तम का काला साया

उसके किरणों से पिघला था

*

जीवन था दुश्वार

कटघरे में परछाई थी

पांव बंधे थे पीठ पर

चलने की मनाही थी

थूक भी अभिशप्त था

पीढ़ियाँ सताई थी

झाड़ू था उपहार

दिनचर्या सफाई थी

वंचितों ने गांव के बाहर

बस्तियां बसाई थी

अत्याचार आम था

नहीं कोई सुनवाई थी

तुमने अपने प्रखर तेज़ से

इस व्यवस्था को बदला था

वर्षों पहले आज ही के दिन

एक सूर्य निकला था

तम का काला साया

उसके किरणों से पिघला था

*

हम तो थे अंधकार में

तुमने हमारी आंखें खोली

हम तो थे पाषाण से

मुंह में डाली तुमने बोली

कलम की ताकत समझाई

शिक्षा हमारी बनी हमजोली

शेरनी का दूध पिलाया

मुके बोलने लगे जैसे गोली

आधिकारों की चेतना जगाई

जनता थी कितनी भोली

अंधों को आंखें दी

रूढ़ियों की जलाई होली

शिक्षा के इस महादान से

अंधविश्वास को कुचला था

वर्षों पहले आज ही के दिन

एक सूर्य निकला था

तम का काला साया

उसके किरणों से पिघला था

*

थोड़ा सा पाया है पर

बहुत कुछ पाना बाकी है

समाज को भूल जाओगे तो

नहीं इसकी कोई माफी है

टूटते संघटन, यह बिखराव

कल की दुर्दशा की झांकी है

मजबूत संघटन की ही

दुनिया ने कीमत आंकी है

मिटानें विरासत को

आंधियां पिस रही चाकी है

बवंडर तो उठाया है पर

अब वो सब नाकाफ़ी है

तुमने संघर्षों से हमारा

भाग्य बनाया उजला था

वर्षों पहले आज ही के दिन

एक सूर्य निकला था

तम का काला साया

उसके किरणों से पिघला था/

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – गुरु की महिमा… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘गुरु की महिमा…’।)

☆ कविता – गुरु की महिमा… ☆

हे गुरुवर, तुम्हें प्रणाम,

हे गुरुवर तुम्हें प्रणाम,

बारम बार प्रणाम तुम्हें

शत शत तुम्हें प्रणाम,

हे गुरुवर , तुम्हें प्रणाम,

हे गुरुवर , तुम्हें प्रणाम…

तुम हो ज्ञान के दाता,तुम ही,

भक्ति भाव प्रदाता,

नेक राह बतलाते तुम ही,

तुम ही आश्रय दाता,

तुमको पाकर मैने पाया,

अंतर्मन विश्राम,

हे गुरु वर तुम्हें प्रणाम

हे गुरुवर तुम्हें प्रणाम,

जग है भूल भुल्लैया,इसमें,

प्राणी गुम हो जाता,

मिले सहारा गुरुवर का तो,

कोई भटक न पाता,

जब तक राह न दिखला दोगे,

ना लोगे विश्राम,

हे गुरुवर तुम्हें प्रणाम….

पूज्य स्वयं भगवान के हो,

क्या तेरी महिमा गाऊं,

तुम हो अंतर्यामी गुरुवर,

तुम को क्या बतलाऊं,

सदा रहे आशीष तुम्हारा,

और चरणों में धाम .

हे गुरुवर तुम्हें प्रणाम ,

हे गुरुवर तुम्हें प्रणाम…

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 182 ☆ नवगीत ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है नवगीत)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 182 ☆

☆ नवगीत ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

गीत पुराने छायावादी

मरे नहीं

अब भी जीवित हैं.

तब अमूर्त

अब मूर्त हुई हैं

संकल्पना अल्पनाओं की

कोमल-रेशम सी रचना की

छुअन अनसजी वनिताओं सी

गेहूँ, आटा, रोटी है परिवर्तन यात्रा

लेकिन सच भी

संभावनाऐं शेष जीवन की

चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.

बिम्ब-प्रतीक

वसन बदले हैं

अलंकार भी बदल गए हैं.

लय, रस, भाव अभी भी जीवित

रचनाएँ हैं कविताओं सी

लज्जा, हया, शर्म की मात्रा

घटी भले ही

संभावनाऐं प्रणय-मिलन की

चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.

कहे कुंडली

गृह नौ के नौ

किन्तु दशाएँ वही नहीं हैं

इस पर उसकी दृष्टि जब पडी

मुदित मग्न कामना अनछुई

कौन कहे है कितनी पात्रा

याकि अपात्रा?

मर्यादाएँ शेष जीवन की

चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२८.११.२०१४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गीत – मेरा भारत महान ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ गीत – मेरा भारत महान  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

चंद्रयान पहुँचा चंदा पर,तीन रंग फहराये।

शान बढ़ी,सम्मान बढ़ गया,हम सारे हर्षाये।।

*

ज़ीरो को खोजा था हमने,आर्यभट्ट पहुँचाया।

छोड़ मिसाइल शक्ति बने हम,सबका मन लहराया।।

सबने मिल जयनाद गुँजाया,जन-गण-मन सब गाये।

शान बढ़ी,सम्मान बढ़ गया,हम सारे हर्षाये।।

*

मैं महान हूँ,कह सकते हम,हमने यश को पाया।

एक महागौरव हाथों में,आज हमारे आया।।

जिनको नहीं सुहाते थे हम,उनको हम हैं भाये।

शान बढ़ी,सम्मान बढ़ गया,हम सारे हर्षाये।।

*

जो कहते थे वे महान हैं,उनको धता बताया।

भारत गुरु है दुनिया भर का,यह हमने जतलाया।।

शान तिरंगा-आन तिरंगा,गीत लबों पर आये।

शान बढ़ी,सम्मान बढ़ गया,हम सारे हर्षाये।।

*

अंधकार में किया उजाला,ताक़त को बतलाया।

जो समझे थे हमको दुर्बल,उन पर भय है आया।।

जोश लिये हर जन उल्लासित,हम हर दिल पर छाये।

शान बढ़ी,सम्मान बढ़ गया,हम सारे हर्षाये।।

*

ज्ञान और विज्ञान रचे हम,हमने शशि को पाया।

आशाओं का सूरज दमका,हमने नवल रचाया।।

नया और अनुपम-मंगलमय,विजय-ध्वजा फहराये।

शान बढ़ी,सम्मान बढ़ गया,हम सारे हर्षाये।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – केंद्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – केंद्र ? ?

खींचकर एक वृत्त

बीचोंबीच बिठा दी गई औरत

घोषित कर दिया गया उसे केंद्र,

बताया गया,

वृत्त, केंद्र के इर्द-गिर्द घूमता है,

भूल गए ताली बजानेवाले हाथ

राउंडर की नोक पर

छिदने-गुदने से बनता है केंद्र,

वृत्त की परिधि छोटी-बड़ी

करता है परकार

केंद्र की नाभि पर होकर सवार,

हाँ, परकार के कृत्य का

विवश, मूक माध्यम भर बनता है केंद्र,

केंद्र आनंदित है

परिधि को विस्तृत कर दिया गया है,

केंद्र दमित है

परिधि को लगभग समेट दिया गया है,

अपने ही वृत्त में कैद औरत

आजीवन मनाती रहती है जश्न

मिलती-छिनती आज़ादी का,

उस रोज़ कोई मंच से कह रहा था

देखो हम इंसानों ने

औरत को कितनी आज़ादी दी है,

जरा मुझे बताना भाई

औरत इंसान नहीं होती क्या?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित साधना मंगलवार (गुढी पाडवा) 9 अप्रैल से आरम्भ होगी और श्रीरामनवमी अर्थात 17 अप्रैल को विराम लेगी 💥

🕉️ इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी करें। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना भी साथ चलेंगी 🕉️

 अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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