मानस के मोती

☆ ॥ जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

जिस युग में आज हम जी रहे हैं, वह विज्ञान का युग है। विज्ञान ने एक से बढक़र एक, अनेकों सुविधाएँ उपलब्ध कराईं हैं। इनसे मानव जीवन में सुगमता आई है। हर क्षेत्र में विकास और भारी परिवर्तन हुए हैं। मनुष्य के सोच-विचार और व्यवहार मेें बदलाहट आई है। किन्तु इस प्रगति और नवीनता के चलते जीवन में नई उलझनें, आपाधापी, कठोरता और कलुषता भी बढ़ी है। आपसी प्रेम के धागे कमजोर हुए हैं। नैतिकता और पुरानी धार्मिक व सामाजिक मान्यताओं का हृास हुआ है और अपराध वृत्ति बढ़ी है। स्वार्थपरता दिनों दिन बाढ़ पर है। अनेकों विवशताओं ने परिवारों को तोड़ा है। सुख की खोज में भौतिकवादी विज्ञान ने नये नये चमत्कार तो कर दिखाये किन्तु सुख की मृगमरीचिका में भागते मनुष्य ने प्यास और त्रास अधिक पाये हैं, सुख कम। मैं सोचता हूँ ऐसा क्यों हुआ? मुझे लगता है कि भौतिकता के आभा मण्डल से हमारा आँगन तो जगमगा उठा है, जिसने हमें मोहित कर लिया है किन्तु हमारा भीतरी कमरा जहाँ अध्यात्म की पावन ज्योति जलती थी, उपेक्षित होने से अँधेरा हो गया है। हमने अन्तरिक्ष में तो बड़ी ऊँची उड़ानें भरी हैं और  उसे जीत लिया है परन्तु अपने अन्त:करण को जानने समझने के लिए उस ओर झाँकने का भी यत्न छोड़ दिया है। पश्चिम की भौतिकवाद की  आँधी ने हमारी भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक विरासत के दीपक को निस्तेज कर दिया है। हम अपनी संस्कृति के मन्तव्य को समझे बिना उसके परिपालन से हटते जा रहे हैं। भारतीय संस्कृति मानवीयता की भावभूमि पर तप, त्याग, सेवा और सहयोग पर आधारित है। वह सुमतिपूर्ण कर्मठता में संतोष सिखाती है जबकि पश्चिम की भौतिकवादी दृष्टि इसके विपरीत उपभोगवाद पर अधिक आधारित है। इसलिये वह त्याग और अपरिग्रह के स्थान पर संघर्ष, संग्रह और भोग पर जोर देती है।

सामाजिक जीवन के विकास क्रम में, मनुष्य जबसे किसी समुदाय का सदस्य बन कर रहने लगा तभी से उस समुदाय को सुरक्षा, जीवनयापन के साधन और विकास के अवसरों की जरूरत महसूस हुई। इसके लिए किसी योग्य, सशक्त, समझदार मुखिया या शासक की बात उठी। प्रत्येक समुदाय जो जहाँ रहता था, उसे अपना देश कहकर उसे सुरक्षा प्रदान करते हुए शासन करने वाले मुखिया को राजा के नाम से संबोधित करने लगा। राजा भी अपने अधिकार क्षेत्र में रहने वाले परिवार व उसके प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सन्तान की भाँति मानकर, सुरक्षा और स्नेह प्रदान कर उस समुदाय को अपनी प्रजा कहने लगा और उसके नियमित ढंग से पालन-पोषण के दायित्व को अपनी धार्मिक और नैतिक जिम्मेदारी के रूप में निभाने लगा। इस प्रकार देश, राजा तथा प्रजा और उनके कत्र्तव्यों की अवधारणा विकसित हुई। राज्य नामक संस्था स्थापित हो गई। राजा ने प्रजा के पालन-पोषण, संवर्धन और सुरक्षा का भार अपना धार्मिक कत्र्तव्य मानकर न्यायोचित कार्य करना अपना लिया और प्रजा ने भी कृतज्ञता वश  राजा को अपना स्वामी या ईश्वर की भाँति सर्वस्व और शक्तिमान स्वीकार कर लिया। यही परिपाटी विश्व के सभी देशों में मान्य परम्परा बन गई और राजा का पद पारिवारिक विरासत बन गया। संसार में जनतांत्रिक शासन-व्यवस्था के चालू होने के पहलेे अभी निकट भूतकाल तक विभिन्न देशों के शासक और स्वामी राजा ही होते थे और वे अपनी प्रजा की रक्षा सुख-सुविधा के लिये जो उचित समझते थे, करते थे। आदर्श व सुयोग्य राजा या शासक से यही अपेक्षा होती है कि वह प्रजा-वत्सल हो, प्रजा के हितों का ध्यान रखे संवेदनशील हो और अपनी राज्य सीमा के समस्त निवासियों को हर प्रकार से सुखी रखे।

सुशिक्षित, संस्कारवान, धर्मप्राण व्यक्ति चाहे जो भी हो, राजा प्रजा या सेवक, अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करता है। परन्तु जब शिक्षा से संस्कार न मिलें, परहित की जगह स्वार्थपरता प्रबल हो, भोग और लिप्सा में कर्तव्य याद न रहें, आत्म मुग्धता और अभिमान में संवेदनशीलता न रहे, अनैतिकता और अधार्मिकता का उद्भव हो जाय तो न तो सही आचरण हो सकता है और न सही न्याय ही।

समय और परिस्थितियों के प्रवाह में बहते समाज के विचारों, धारणाओं और मान्यताओं में परिवर्तन होते रहते हैं। इसीलिए धर्मपीठाधीश्वर, सचेतक संत और साहित्यकार समाज मेें सदाचार, सद्ïविचार और कर्तव्य बोध की चेतना जागृत करने के लिए धर्मोपदेश, प्रवचन और चिंतन से तथा बोधगम्य आदर्श पात्र चरित्रों की प्रस्तुति से मार्गदर्शन देते आये हैं। महान विचारक, समाज-सुधारक, श्री राम भक्त, परम विवेकी विद्वान्ï महात्मा तुलसीदास जी ने भी अपने काव्य ”रामचरितमानस” की श्रेष्ठ सरस रचना कर, जन जन को श्रीराम कथा के माध्यम से पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक आदर्श प्रस्तुत कर आध्यात्मिक विकास के लिये दिशा दिखाई है। ईश्वर की भक्ति का अनुपम प्रतिपादन कर भारतीय दर्शन की व्याख्या की है। अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम को महाकवि तुलसी दास जी ने आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श सखा, आदर्श संरक्षक, आदर्श राजा, आदर्श कष्ट हर्ता और भक्तों के आदर्श उपास्य के रूप में प्रस्तुत कर सहृदय पाठकों का मन मोह लिया है। वे सबके लिए सभी रूपों में अनुकरणीय हैं। मानस वास्तव में मानवता को तुलसीदास जी का दिया हुआ मनमोहक उपहार है। आज के भौतिकवादी समाज में चूँकि लोग स्वार्थवश मोह में फँस अपने कर्तव्य पथ से विरत हैं, सामाजिक अनुशासन के लिए निर्धारित मान्यताओं का निरादर कर रहे हैं, चारित्रिक पतन के गर्त में गिरे हैं, इसी से दुखी हैं।

मानस  का अनुशीलन और श्रीराम का अनुकरण समाज को दु:खों से उबारने में संजीवनी का काम कर सकता है किन्तु यह तभी संभव है जब ‘मानस’ का मौखिक पाठ भर न हो, उसकी पावन भावना का पढऩे वाले के मन में सुखद अवतरण भी हो और जीवन में आचरण भी। समाज के हर तबके के जन साधारण से लेकर सर्वाेच्च शासक-नृपति तक को उचित मार्गदर्शन देने के लिए सारगर्भित विचारों और भावों से समस्त ग्रंथ भरा पड़ा है। प्रत्येक शब्द के सार्थक नियोजन से एक एक छन्द में अलौकिक अमृतरस घुला हुआ है जो वर्षा की शीतल फुहार या वसन्त की नवजीवन दायिनी बयार सा आह्लाद प्रदान करता है। संवेदन शीलता, सत्य, न्याय और प्रेम पर आधारित शासन ही जन-जन को सुखकर हो सकता है।

मनोज्ञ राजा श्रीराम के शासन काल में अयोध्या कैसी सुखी, सम्पन्न और प्रफुल्लि थी इसकी सुन्दर झाँकी मानस के निम्न छन्दों में निहारिये-

दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज्य काहुहिं नहि व्यापा।

सबजन करहिं परस्पर प्रीती, चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।

नहिं दरिद्र कोऊ दुखी न दीना, नहिं कोउ अनबुध लच्छन हीना।

सब गुणज्ञ, पंडित सब ज्ञानी, सब कृतज्ञ नहिं कपट-सयानी।

सब उदार सब पर उपकारी, विप्रचरण सेवक नर-नारी।

एक नारिव्रत रत सब झारी, ते मन बचक्रम पति हितकारी।

बिधु महि पूर मययूखन्हि, रवि तप जेतनहि काज।

माँगे वारिद देंहि जल, रामचंद्र के राज॥

जहाँ ऐसी अच्छी व्यवस्था हो और ऐसा समाज हो वहाँ दु:ख कहाँ? और असंतोष किसे? इसीलिये भारतीय जनमानस में रामराज्य की परिकल्पना सर्वाेपरि सुखदायी शासन व्यवस्था की है। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त देश में ऐसे ही रामराज्य की कामना महात्मा गाँधी ने की थी और ऐसे ही सपने जन जन ने सँजोये थे। किन्तु हमारे शासक (जन-नेता) न तो अपने मनोविकारों को जीत राजाराम का अनुकरण करना सीख सके और न राम-राज्य आज तक आ सका। हाँ उसकी लालसा देश के जनमानस में आज भी सुरक्षित है। पश्चिम की हवा ने हमारी संस्कृति के दीपक की लौ को अस्थिर कर रखा है।

तुलसीदास जी ने लिखा है –

मुखिया मुख सों चाहिये खान-पान में एक

पालै पोषै सकल अँग तुलसी सहित विवेक।

यदि राजा या वर्तमान जनतांत्रिक प्रणाली में शासक ऐसा हो तो रामराज्य की स्थापना असंभव नहीं है। शासक के मन में सदा क्या चिंता होनी चाहिए, इसकी झलक श्रीराम की इस अभिव्यक्ति में देखिये जो उन्होंने लक्ष्मण से वन गमन के समय उनकी विवश आतुरता को राम के साथ वन जाने को देखकर कहा था। श्री राम समझाते हैं कि अन्य कोई भाई अयोध्या में नहीं है इसलिए प्रजा के हित में राज्य संचालन के लिए लक्ष्मण का अयोध्या में रुकना उचित है क्योंकि

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नरक अधिकारी।

राज परिवार को चाहे जो दुख हो पर प्रजा को दुख नहीं होना चाहिए अन्यथा राजा को नरक की यातना भोगनी होती है।

इसी प्रकार श्री राम को वापस अयोध्या चलकर राज्य करने के लिये मनुहार करने के प्रसंग में प्रिय भाई भरत को भी वे ही समझाते हैं कि राजधर्म    का सार तत्व यही है कि अपने मन की बात मन ही रखकर या मन मारकर प्रजा के हित में गुरुजनों का आशीष ले राज्य काज करना भरत को ही उचित होगा सुनिये श्री राम क्या समझाते हैं-

राज धरम सरबस इतनोई, जिमि मन माँहि मनोरथ गोई

देश, कोष, परिजन, परिवारू, गुरुपदरजहि लागि धरिभारू

तुम मुनि मातु सचिव सिख मानी पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी।

ये विचार श्री राम के मन में वनवास में भी अपनी प्रजा के प्रति चिंता और प्रेम के भाव प्रदर्शित करते हैं।

रावण का विनाश कर चौदह वर्ष के वनवास के बाद जब अयोध्या लौटते हैं और उन्हें राजा बनाया जाता है तब उनकी दिनचर्या और बन्धु तथा जन-स्नेह को कवि ने यों वर्णित किया है-

राम करहि भ्रातन पर प्रीती, नाना भाँति सिखावहिं नीती,

हर्षित रहहिं नगर के लोगा, करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा।

मैं समझता हूँ कि ऐसा राजा और उसकी विचार-धारा व राजनीति तो आज की जनतांत्रिक शासन व्यवस्था से भी अच्छी थी। जनतांत्रिक व्यवस्था तार्किक विचार से जनता को यों ही सुख देने की कामना से तो की गई थी।

प्रजा को सुख देना और उनके अभिमत को महत्त्व देना श्री राम की पारिवारिक परम्परा रही है। राजा दशरथ ने जब राम को युवराज पद देने का विचार किया तो उन्होंने अपने मनोभाव प्रजा पर थोपे नहीं वरन्ï सभा में सबसे खुले रूप में सहमति देने का निवेदन किया- सभा में उन्होंने प्रस्ताव रखा राम को युवराज पद देने का और कहा-

जो पाँचहि मत लागै नीका, करऊं हरष हिय रामहिं टीका।

जहाँ राजा प्रजा की रुचि और सहमति का ख्याल रखता है वहाँ प्रजा प्रसन्न रहती है और प्रजा की प्रसन्नता ही किसी भी राज्य की सुख संमृद्धि और प्रगति का आधार मात्र नहीं होती बल्कि राजा या शासक के मनोबल और उस की शक्ति का, कार्य निष्पादन में भी बड़ा संबल होती हैं।

ऐसे जनमन रंजक लोक प्रिय राजा राम पर अनैतिकता का आरोप लगाकर महारानी सती सीता के लिए कटु शब्दों का प्रयोग करने वाले किसी प्रजाजन का मनोभाव अपने गुप्तचर से जानकर भी उन्होंने संंबंधित व्यक्ति को प्रताडि़त न कर, उसके आक्रोश और विषाद को दूर करने के लिये आदर्श राजा के रूप में आत्मप्रतारणा ही उचित समझा। इसीलिए उन्होंने प्रायश्चित स्वरूप अपने अद्र्धांग को त्याग कर जनहित में स्वत: दुख भोगना स्वीकार कर लिया। यह प्रसंग रामचरित मानस में तो भक्त शिरोमणि तुलसीदास ने नहीं उठाया है परन्तु वाल्मीकि रामयण में है जिसे राजाराम के द्वारा सीता परित्याग की संज्ञा दी जाती है और राम के अपनी पवित्र पत्नी पर किये गये अन्याय का रूप देकर उंगली उठाई जाती है किन्तु वास्तव में वह नारी के प्रति अन्याय की बात नहीं, बात है राजधर्म के निवहि में प्रजा के सुख के हेतु राजा के मनोभाव की जिसके कारण उन्होंने अद्र्धांग से ही दूर हो आत्म त्याग का अनुपम आदर्श प्रस्तुत किया है। ऐसा उन्होंने किया केवल अपनी प्रजा के सामान्य जन की प्रसन्नता देखने के लिये न कि राजरानी सीता को किसी प्रकार प्रताडि़त करने के लिये और न उनको लांछित और अपमानित करने के लिए। सीता तो उनके हृदय में सतत विराजित थीं और इसीलिए अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर सीता की स्वर्ण प्रतिमा को अधीष्ठित कर यज्ञ की धार्मिक विधि सम्पन्न की थी। यदि हृदय से उन्होंने किसी कारण से पत्नी का परित्याग किया होता तो स्वर्णमूर्ति बनवाने की स्थिति कैसे बनती? इस प्रसंग में राजा के मनोभाव को समझने की आवश्यकता है। किन्तु परिवार के किसी एक व्यक्ति के दुख से सभी परिवारी जनों का मन अस्वस्थ हो जाता है और उसका दुख भोग अन्यों को भी करना ही पड़ता है। इसीलिये सीता को राम की जीवन संगिनी के नाते उनके विचारों और कर्माे का परिणाम भोगना पड़ा क्योंकि भारतीय संस्कृति तो पति-पत्नी को दो शरीर एक प्राण मानती है। (यह सारा प्रसंग एक अलग विवेचना का विषय बन सकता है।) घटना का यह दूसरा दुखद पक्ष है। परन्तु इस घटना में प्रजा के लिये राजा का अनुपम त्याग न केवल महान है वरन अलौकिक है तथा स्तुत्य है।

इस पृष्ठभूमि में आज के शासकों, जन नेताओं और अधिकारियों  के व्यवहारों को देखना चाहिए जो जनहित के विपरीत दिखते हैं। देश में अब स्थिति कुछ यों है-

आज दिखती शासकों में स्वार्थ की बस भावना

बहुत कम है जिनके मन है लोकहित की कामना।

राम से त्यागी कहाँ है? कहाँ पावन आचरण?

लक्ष्य जन सेवा के बदले लक्ष्य है धन-साधना॥

इसीलिए हर क्षेत्र में असंतोष है, कलह है, दुख है और नित नई समस्याएं हैं। कहाँ राजा राम का आदर्श आचरण और कहाँ आज के अधिकार संपन्न शासकों का व्यवहार? मानस के इस एक ही उपदेश को ध्यान में रख यदि आज के शासक व्यवहार करें तो स्थिति बहुत भिन्न होगी- “जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नरक अधिकारी।”

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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