मानस के मोती – 2

☆ ॥ मानस में प्रतिपादित पारिवारिक आदर्श – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

मानस – नीति-प्रीति और लोक रीति की त्रिवेणी है।

भक्त शिरोमणि तुलसीदास कृत ‘मानस’ एक ऐसा अद्वितीय कालजयी ग्रंथ है कि जिसकी टक्कर का कोई दूसरा ग्रंथ तो मेरी समझ में विश्व में नहीं है। ‘मानस’ में मानव समाज के उत्कर्ष और सुख-शांतिपूर्ण जीवन के जो आदर्श प्रस्तुत किये गये हैं वे महत्ï कल्याणकारी और लोकोपयोगी हैं। मानस में क्या नहीं है? वह सभी कुछ तो है जिससे मनुष्य का न केवल इहलोक बनता है वरन्ï परलोक के बनाने का सार मंत्र भी मिलता है।

समाज की इकाई व्यक्ति है और व्यक्ति सुशिक्षित और सुसंस्कारित हो तो समाज स्वत: ही सर्वसुख सम्पन्न, सर्वगुण सम्पन्न निर्मित हो सकेगा। बारीक विवेचन से एक बात बड़ी स्पष्ट है कि व्यक्ति और समाज के बीच एक और सशक्त, संवेदनशील तथा अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटक है-वह है परिवार। अनेकों परिवारों का सम्मिलित समूह ही किसी समाज का निर्माता है अत: परिवार में व्यक्ति का व्यवहार उसके व्यक्तित्व में निखार भी लाता है और संस्कार भी देता है। इन्हीं सुसंस्कारों से समाज को सुख, शांति, समृद्धि प्राप्त होती है और उस समाज की पहचान भी बनती है। परिवार में माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री प्रमुख सदस्य होते हैं। इनकें सिवाय अनेकों परिवारजन मित्र परिजन और सहयोगी सेवक भी जिनके विचारों व व्यवहारों की घटना दैनिक जीवन चक्र में होती है। हर परिवार की अपनी अलग संरचना होती है। अपनी अलग पारिवारिक परिस्थितियाँ होती हैं जिनमें हर व्यक्ति की अलग भूमिका होती है। वह भूमिका किस व्यक्ति के द्वारा कितनी भली प्रकार निभाई जाती है इसी पर परिवार का बनना-बिखरना निर्भर करता है। ‘मानसÓ का कथानक बड़ा विस्तृत है और बहुमुखी है। राम को केन्द्र बिन्दु पर रखकर मानसकार ने उनकी संपूर्ण जीवन गाथा को उसमें गुम्फित किया है। राम अयोध्या के चक्रवर्ती राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र हैं। उनकी माता कौशल्या हैं जो प्रमुख राजमहिषी है। उनकी दो विमातायें है सुमित्रा और कैकेयी। सुमित्रा माता के दो पुत्र है लक्ष्मण और शत्रुघ्न तथा कैकयी विमाता के पुत्र का नाम भरत हैं। राम सब भाइयों में सबसे बड़े हैं। उनसे छोटे भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न हैं। राज महल में अपार सुख-वैभव, राजसी ठाट और आनंद है। अनेकों सहायक, सुसेवक और  हरेक सदस्य के दास-दासियाँ हैं।

राजा दशरथ शक्तिशाली, सत्यवादी, उदार, जनप्रिय नरेश हैं। चारों पुत्र उनके वार्धक्य में उन्हें प्राप्त हुए है अत: माता-पिता के सभी अत्यंत लाड़ले हैं। मातायें  भी पुत्रों में अपने पराये का भेद किये बिना सब पर समान स्नेह रखती हैं। भाइयों में आपस में आदर भाव और मेल तथा पूर्ण सामाञ्जस्य  है। चारों भाइयों का साथ-साथ लालन-पालन और गुरुवर  वशिष्ठ के आश्रम में शिक्षा दीक्षा होती है। इसी बीच ऋषि विश्वामित्र यज्ञ की रक्षार्थ राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण को उनके साथ भेजने की याचना करते हैं। कर्तव्य भाव से बँधे राजा उनके साथ अपने दोनों पुत्रों को भेज देते हैं जहाँ उन्हें युद्ध-विद्या में पारंगत होने का सुअवसर मिलता है और वे अनेकों राक्षकों क ा वध करके मुनि विश्वामित्र जी के साथ मिथिला जाते हैं। मिथिला में संयोगवश राजाजनक की सुपुत्री सीता से राम का विवाह होता है और अन्य तीनों भाइयों के भी उसी परिवार में विवाह संपन्न होते हैं। यहाँ तक तो पूर्ण आनंद और प्रेम के संबंध सबके साथ परिवार में सबके हैं। परिवार में आपसी संबंधों की परीक्षा तो तब होती है जब व्यक्तिगत स्वार्थों में टकराव होते हैं और तभी अच्छे या बुरे, हितकारी या अहितकारी, उदार या अनुदार कौन, कैसे हैं समझ में आता है और व्यक्तित्व की वास्तविक  परख होती है।

वह घड़ी आई राम के राज तिलक की घोषणा होने पर कैकेयी की दासी मंथरा के द्वारा उल्टी पट्ïटी पढ़ाये जाने पर विमाता कैकेयी के द्वारा राजा दशरथ से, अपने जीवन की पूर्व घटनओं की याद दिलाकर राम के स्थान पर अपने पुत्र भरत को राजगद्दी दिये जाने और राम को चौदह वर्षों के लिए वनवास दिये जाने का अडिग प्रस्ताव रखने पर।

यहीं से अनापेक्षित रूप से उत्पन्न हुई विपत्ति के समय परिवार के हर व्यक्ति का सोच, व्यवहार और राम को राज्याभिषेक के स्थान पर वनवास के अवसर पर उलझी समस्याओं के धैर्यपूर्ण स्नेहिल निराकरण के आदर्श दृश्य ‘मानस’ में देखने को मिलते हैं जो अन्यत्र दुर्लभ हैं।

राजा दशरथ का अपने दिये गये वचनों की रक्षा के लिये अपने प्राणों का परित्याग करना- रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाँहि बरु वचन न जाई। कैकेयी का अपने त्रिया-हठ पर अडिग रहकर अपूर्व दृढ़ता का परिचय देना।

राम का, पिता के मानसिक और पारिस्थितिक कष्ट देख दुखी होना तथा पिता की आज्ञा का पालन करने में अपना हित समझ राजपद को सहर्ष त्याग देना। कहीं कोई प्रतिकार न करना, विमाता कैकेयी के प्रति कोई रोष प्रकट न करना और माता कौशल्या को समझाकर वन जाने की तैयारी करना, पितृभक्त पुत्र के व्यवहार की विनम्रता की पराकाष्ठा है।

महाराज दशरथ के व्यवहार में अगाध पुत्र प्रेम, माता कौशल्या, सुमित्रा के व्यवहार में वत्सलता, भरत और लक्ष्मण के कार्यकलापों में भ्रातृ प्रेम और भ्रातृनिष्ठा तथा सीता में पत्नी के उच्चादर्श और पति के मनसा, वाचा, कर्मणा निष्ठा के आदर्श प्रस्तुत हैं। राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं ही उनके सबके साथ चाहें वे परिवार के सदस्य हो, गुरु हों, परिजन हो, पुरजन हों या  निषाद, कोल, किरात, सेवक या शत्रु राक्षस ही क्यों न हो उनके प्रति भी ईमानदारी और भक्ति वत्सलता स्पष्ट हर प्रसंग में सर्वाेपरि है। मानस तो नीति प्रीति और लोक व्यवहार का अनुपम आदर्श प्रस्तुत करता है जिस का रसास्वादन और आनंद तो ग्रंथ के अनुशीलन से ही प्राप्त हो सकता है किन्तु सिर्फ बानगी रूप में कुछ ही प्रसंग उद्धृत कर मैंने लेख विस्तार और समय सीमा को मर्यादित रखकर कुछ संकेत करने का प्रयास किया है जिससे पाठक मूल ग्रंथ को पढऩे की प्रेरणा पा सकें।

क्रमशः… 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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