हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #203 ☆ न्याय की तलाश में ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख न्याय की तलाश में। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 203 ☆

☆ न्याय की तलाश में 

‘औरत ग़ुलाम थी, ग़ुलाम है और सदैव ग़ुलाम ही रहेगी। न पहले उसका कोई वजूद था, न ही आज है।’ औरत पहले भी बेज़ुबान थी, आज भी है। कब मिला है..उसे अपने मन की बात कहने का अधिकार …अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतंत्रता…और किसने उसे आज तक इंसान समझा है।

वह तो सदैव स्वीकारी गई है – मूढ़, अज्ञानी, मंदबुद्धि, विवेकहीन व अस्तित्वहीन …तभी तो उसे ढोल, गंवार समझ पशुवत् व्यवहार किया जाता है। अक्सर बांध दी जाती है वह… किसी के खूंटे से; जहां से उसे एक कदम भी बाहर निकालने की इजाज़त नहीं होती, क्योंकि विदाई के अवसर पर उसे इस तथ्य से अवगत करा दिया जाता है कि इस घर में उसे कभी भी अकेले लौट कर आने की अनुमति नहीं है। उसे वहां रहकर पति और उसके परिवारजनों के अनचाहे व मनचाहे व्यवहार को सहर्ष सहन करना है। वे उस पर कितने भी सितम करने व ज़ुल्म ढाने को स्वतंत्र हैं और उसकी अपील किसी भी अदालत में नहीं की जा सकती।

पति नामक जीव तो सदैव श्रेष्ठ होता है, भले ही वह मंदबुद्धि, अनपढ़ या गंवार ही क्यों न हो। वह पत्नी से सदैव यह अपेक्षा करता रहा है कि वह उसे देवता समझ उसकी पूजा-उपासना करे; उसका मान-सम्मान करे; उसे आप कहकर पुकारे; कभी भी गलत को गलत कहने की जुर्रत न करे और मुंह बंद कर सब की जी-हज़ूरी करती रहे…तभी वह उस चारदीवारी में रह सकती है, अन्यथा उसे घर से बाहर का रास्ता दिखाने में पल भर की देरी भी नहीं की जाती। वह बेचारी तो पति की दया पर आश्रित होती है। उसकी ज़िन्दगी तो उस शख्स की धरोहर होती है, क्योंकि वह उसका जीवन-मांझी है, जो उसकी नौका को बीच मंझधार छोड़, नयी स्त्री का जीवन-संगिनी के रूप में किसी भी पल वरण करने को स्वतंत्र है।

समाज ने पुरुष को सिर्फ़ अधिकार प्रदान किए हैं और नारी को मात्र कर्त्तव्य। उसे सहना है; कहना नहीं…यह हमारी संस्कृति है, परंपरा है। यदि वह कभी अपना पक्ष रखने का साहस जुटाती है, तो उसकी बात सुनने वाला कोई नहीं होता। उसे चुप रहने का फरमॉन सुनाया दिया जाता है। परन्तु यदि वह पुन: जिरह करने का प्रयास करती है, तो उसे मौत की नींद सुला दिया जाता है और साक्ष्य के अभाव में प्रतिपक्षी पर कोई आंच नहीं आती। गुनाह करने के पश्चात् भी वह दूध का धुला, सफ़ेदपोश, सम्मानित, कुलीन, सभ्य, सुसंस्कृत व श्रेष्ठ कहलाता है।

आइए! देखें, कैसी विडंबना है यह… पत्नी की चिता ठंडी होने से पहले ही, विधुर के लिए रिश्ते आने प्रारम्भ हो जाते हैं। वह उस नई नवेली दुल्हन के साथ रंगरेलियां मनाने के रंगीन स्वप्न संजोने लगता है और परिणय-सूत्र में बंधने में तनिक भी देरी नहीं लगाता। इस परिस्थिति में विधुर के परिवार वाले भूल जाते हैं कि यदि वह सब उनकी बेटी के साथ भी घटित हुआ होता…तो उनके दिल पर क्या गुज़रती। आश्चर्य होता है यह सब देखकर…कैसे स्वार्थी लोग बिना सोच-विचार के, अपनी बेटियों को उस दुहाजू के साथ ब्याह देते हैं।

असंख्य प्रश्न मन में कुनमुनाते हैं, मस्तिष्क को झिंझोड़ते हैं…क्या समाज में नारी कभी सशक्त हो पाएगी? क्या उसे समानता का अधिकार प्राप्त हो पाएगा? क्या उस बेज़ुबान को कभी अपना पक्ष रखने का शुभ अवसर प्राप्त हो सकेगा और उसे सदैव दोयम दर्जे का नहीं स्वीकारा जाएगा? क्या कभी ऐसा दौर आएगा… जब औरत, बहन, पत्नी, मां, बेटी को अपनों के दंश नहीं झेलने पड़ेंगे? यह बताते हुए कलेजा मुंह को आता है कि वे अपराधी पीड़िता के सबसे अधिक क़रीबी संबंधी होते हैं। वैसे भी समान रूप से बंधा हुआ ‘संबंधी’ कहलाता है। परन्तु परमात्मा ने सबको एक-दूसरे से भिन्न बनाया है, फिर सोच व व्यवहार में समानता की अपेक्षा करना व्यर्थ है, निष्फल है। आधुनिक युग यांत्रिक युग है, जहां का हर बाशिंदा भाग रहा है…मशीन की भांति, अधिकाधिक धन कमाने की दौड़ में शामिल है ताकि वह असंख्य सुख-सुविधाएं जुटा सके। इन असामान्य परिस्थितियों में वह अच्छे- बुरे में भेद कहां कर पाता है?

यह कहावत तो आप सबने सुनी होगी, कि ‘युद्ध व प्रेम में सब कुछ उचित होता है।’ परन्तु आजकल तो सब चलता है। इसलिए रिश्तों की अहमियत रही नहीं। हर संबंध व्यक्तिगत स्वार्थ से बंधा है। हम वही सोचते हैं, वही करते हैं, जिससे हमें लाभ हो। यही भाव हमें आत्मकेंद्रितता के दायरे में क़ैद कर लेता है और हम अपनी सोच के व्यूह से कहां मुक्ति पा सकते हैं? आदतें व सोच इंसान की जन्म-जात संगिनी होती हैं। लाख प्रयत्न करने पर भी इंसान की आदतें बदल नहीं पातीं और लाख चाहने पर भी वह इनके शिकंजे से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। माता-पिता द्वारा प्रदत्त संस्कार जीवन-भर उसका पीछा नहीं छोड़ते। सो! वे एक स्वस्थ परिवार के प्रणेता नहीं हो सकते। वह अक्सर अपनी कुंठा के कारण परिवार को प्रसन्नता से महरूम रखता है तथा अपनी पत्नी पर भी सदैव हावी रहता है, क्योंकि उसने अपने परिवार में वही सब देखा होता है। वह अपनी पत्नी तथा बच्चों से भी वही अपेक्षा रखता है, जो उसके परिवारजन उससे रखते थे।

इन परिस्थितियों में हम भूल जाते हैं कि आजकल हर पांच वर्ष में जैनेरेशन-गैप हो रहा है। पहले परिवार में शिक्षा का अभाव था। इसलिए उनका दृष्टिकोण संकीर्ण व संकुचित था.. परन्तु आजकल सब शिक्षित हैं; परंपराएं बदल चुकी हैं; मान्यताएं बदल चुकी हैं; सोचने का नज़रिया भी बदल चुका है… इसलिए वह सब कहां संभव है, जिसकी उन्हें अपेक्षा है। सो! हमें परंपराओं व अंधविश्वासों-रूपी केंचुली को उतार फेंकना होगा; तभी हम आधुनिक युग में बदलते ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकेंगे।

एक छोटी सी बात ध्यातव्य है कि पति स्वयं को सदैव परमेश्वर समझता रहा है। परन्तु समय के साथ यह धारणा परिवर्तित हो गयी है, दूसरे शब्दों में वह बेमानी है, क्योंकि सबको समानाधिकार की दरक़ार है, ज़रूरत है। आजकल पति-पत्नी दोनों बराबर काम करते हैं…फिर पत्नी, पति की दकियानूसी अपेक्षाओं पर खरी कैसे उतर सकती है? एक बेटी या बहन पूर्ववत् पर्दे में कैसे रह सकती है? आज बहन या बेटी गांव की बेटी नहीं है; इज़्ज़त नहीं मानी जाती है। वह तो मात्र एक वस्तु है, औरत है, जिसे पुरुष अपनी वासना-पूर्ति का साधन स्वीकारता है। आयु का बंधन उसके लिए तनिक भी मायने नहीं रखता … इसीलिए ही तो दूध-पीती बच्चियां भी, आज मां के आंचल के साये व पिता के सुरक्षा-दायरे में सुरक्षित व महफ़ूज़ नहीं हैं। आज पिता, भाई व अन्य सभी संबंध सारहीन हैं और निरर्थक हो गए हैं। सो! औरत को हर परिस्थिति में नील-कंठ की मानिंद विष का आचमन करना होगा…यही उसकी नियति है।

विवाह के पश्चात् जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंचने पर भी, वह अभागिन अपने पति पर विश्वास कहां कर पाती है? वह तो उसे ज़लील करने में एक-पल भी नहीं लगाता, क्योंकि वह उसे अपनी धरोहर समझ दुर्व्यवहार करता है; जिसका उपयोग वह किसी रूप में, किसी समय अपनी इच्छानुसार कर सकता है। उम्र-भर साथ रहने के पश्चात् भी वह उसकी इज़्ज़त को दांव पर लगाने में ज़रा भी संकोच नहीं करता, क्योंकि वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ व ख़ुदा समझता है। अपने अहं-पोषण के लिए वह किसी भी सीमा तक जा सकता है। काश! वह समझ पाता कि ‘औरत भी एक इंसान है…एक सजीव, सचेतन व शालीन प्राणी; जिसे सृष्टि-नियंता ने बहुत सुंदर, सुशील व मनोहरी रूप प्रदान किया है… जो दैवीय गुणों से संपन्न है और परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है।’ यदि वह अपनी जीवनसंगिनी के साथ न्याय कर पाता, तो औरत को किसी से व कभी भी न्याय की अपेक्षा नहीं रहती।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 176 ⇒ नाक में दम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नाक में दम”।)

?अभी अभी # 176 ⇒ नाक में दम? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या आपने कभी किसी सुंदर चेहरे पर गौर किया है, क्या आपको याद है, उसका नाक नक्श कैसा है। कुछ लोग शादी के रिश्ते के लिए लड़का, लड़की देखने में विशिष्टता हासिल किए होते हैं। चाचा चाची बबलू के लिए लड़की देखने गए हैं, बस आते ही होंगे।

और उनके आते ही प्रश्नों की बौछार ! कैसी है लड़की चाची देखने में, चेहरा मोहरा तो ठीक है न। क्या होता है चेहरे में, आंख, नाक, होंठ, पतली गर्दन और लंबे बाल के अलावा। चेहरा तो ठीक, अब मोहरा क्या होता है, कैसा होता है यह तो आजमाने पर ही पता चलता है।।

गोरे गोरे गालों, झील सी आंखों और रसीले होठों के बीच बेचारी नाक अपने आपको उपेक्षित सी महसूस करती है। मजा तो तब आता है, जब यह सुंदर सा चेहरा पहले तो परिवार के सभी सदस्यों का दिल जीत लेता है, और बाद में जब अपना असली रंग दिखाता है, तो सबकी नाक में दम कर देता है। चाची, आपने क्या देखा था ऐसा, इस लड़की में।

हमें कभी विश्वास नहीं हुआ ऐसी बातों पर। लोग अपनी गलती नहीं देखते और चाहे जिस पर इल्जाम लगा देते हैं नाक में दम करने का। हमें तो इस बात में ही कोई दम नजर नहीं आता।।

हमने अपनी नाक को कभी अनदेखा नहीं किया, लेकिन कभी उसे विशेष भाव भी नहीं दिया। उसी के दोनों मजबूत कंधों पर हमारा चश्मा टिका हुआ है। बड़े शुक्रगुजार हैं हम नाक और कान दोनों के।

नाक के बिना हम चेहरे के बनावट की कल्पना ही नहीं कर सकते। लंबी, पतली, चपटी, मोटी कैसी भी हो, बस नाक कभी नीची नहीं होनी चाहिए।

सूंघने वाले नाक से कहां तक सूंघ लेते हैं। किसके घर में क्या चल रहा है।।

फूलों का गजरा हो, खिला हुआ गुलाब हो, गुलाब, केसर और इत्र की महक तब ही संभव है, जब सूंघने लायक नाक हो। जिनको सूंघने की लत लग जाती है, वे सुंघनी और नसवार के भी आदी हो जाते हैं। तंबाकू खाई ही नहीं जाती, सूंघी भी जाती है।

मुंबई से आए हमारे दोस्त गिरीश भाई भी नसवार सूंघने के आदी थे। जब कभी उनकी नाक बंद हो जाती, नसवार सूंघते ही, उन्हें एक साथ आठ दस छः छींकें आती थीं और उनका चेहरा एकदम राहत इंदौरी हो जाता था। वॉट अ रिलीफ़ !

पिछले कुछ दिनों से जुकाम ने हमारी नाक में दम कर रखा है। आंखों की जगह नाक के दोनों सायफन से गंगा जमना रुकने का नाम ही नहीं ले रही। जो आता है, उसका दो दर्जन छींकों से स्वागत करते हैं, बेचारे चुपचाप नाक पर रूमाल रख, लौट जाते हैं। जब तक जुकाम रहेगा, नाक में दम रहेगा। उम्मीद पर दुनिया कायम है। इधर जुकाम गायब, उधर हमारी नाक भी दमदार हो जाएगी। बात में है दम, नाक से हैं हम।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 175 ⇒ स्वैच्छिक स्वीकारोक्ति… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वैच्छिक स्वीकारोक्ति”।)

?अभी अभी # 175 ⇒ स्वैच्छिक स्वीकारोक्ति? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ऐसा लग रहा है, स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की बात हो रही है। जी बिल्कुल सही, बिना सेवानिवृत्ति के वैसे भी कौन स्वीकारोक्ति की सोच भी पाता है। स्वीकारोक्ति स्वैच्छिक हो सकती है, लेकिन सेवानिवृत्ति इतनी आसान नहीं।

एक सेवानिवृत्ति तो स्वाभाविक होती है, ६०-६५ वर्ष तक खून पसीना एक करने के बाद जो हासिल होती है। चलो, गंगा नहा लिए ! होती है, सेवानिवृत्ति स्वैच्छिक भी होती है, हाय रे इंसान की मजबूरियां ! एक सेवानिवृत्ति अनिवार्य भी होती है, जिसे बर्खास्तगी (टर्मिनेशन) कहते हैं।

वे पहले सस्पेंड हुए, फिर टर्मिनेट। पहले सत्यानाश, फिर सवा सत्यानाश। ।

जीवन के बही खाते का, नफे नुकसान का, लाभ हानि और पाप पुण्य का मूल्यांकन सेवानिवृत्ति के पश्चात् ही संभव होता है।

सफलताओं और उपलब्धियों को गिनाया और भुनाया जाता है। असफलताओं और कमजोरियों को छुपाया जाता है। जीवन का सुख भी सत्ता के सुख से कम नहीं होता।

क्या कभी किसी के मन में सेवानिवृत्ति के पश्चात् यह भाव आया है कि, इसके पहले कि चित्रगुप्त हमारे कर्म के बही खाते की जांच हमारे वहां ऊपर जाने पर करे, एक बार हम भी तो हमारे कर्मों का लेखा जोखा जांच परख लें। अगर कुछ डिक्लेयर करना है तो क्यों न यहीं इस दुनिया में ही कर दें। सोचो, छुपाकर क्या साथ ले जाया जाएगा, सच झूठ, सब यहीं धरा रह जाएगा। ।

बड़ा दुख है स्वीकारोक्ति में ! लोग क्या कहेंगे। इस आदमी को तो हम ईमानदार समझते थे, यह तो इतना भ्रष्ट निकला, राम राम। बड़ा धर्मप्रेमी और सिद्धांतवादी बना फिरता था। डालो सब पर मिट्टी, कुछ दिनों बाद ही जीवन के अस्सी वसंत पूरे हो जाएंगे, नेकी ही साथ जाएगी, क्यों मुफ्त में बदनामी का ठीकरा फोड़, अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार ली जाए।

जरा यहां आपकी अदालत तो देखिए, सबूत के अभाव में गुनहगार छूट जाता है, और झूठी गवाही के आधार पर बेचारा ईमानदार फंस जाता है।

जिसे यहां न्याय नहीं मिलता, उसे ईश्वर की अदालत का इंतजार रहता है। ।

जो समझदार होते हैं, उनका तो अक्सर यही कहना होता है, यह हमारा और ईश्वर का मामला है। उससे कुछ भी छुपा नहीं है। समाज को तो जो हमने दिया है, वही उसने लौटाया है। ईश्वर तो बड़ा दयालु है, सूरदास तो कह भी गए हैं ;

प्रभु मोरे अवगुन चित ना धरो।

समदरसि है नाम तिहारो

चाहे तो पार करो।।

किसी ने कहा भी है, एक अदालत ऊपर भी है, जब उसको ही फैसला करना है तो कहां बार बार जगह जगह फाइल दिखाते फिरें। फिर अगर एक बार भगवान से सेटिंग कर ली

तो इस नश्वर संसार से क्या डरना। कितनी अटूट आस्था होती होगी ऐसे लोगों की ईश्वर में।

और एक हम हैं, सच झूठ, पाप पुण्य, और अच्छे बुरे का ठीकरा सर पर लिए, अपराध बोध में जिए चले जा रहे हैं। तेरा क्या होगा कालिया! जिसका खुद पर ही भरोसा नहीं, वह क्या भगवान पर भरोसा करेगा। गोस्वामी जी ने कहा भी है ;

एक भरोसो एक बल

एक आस विश्वास।

स्वाति-सलिल रघुनाथ जस

चातक तुलसीदास।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 234 ☆ आलेख – यात्राओं का साहित्यिक अवदान… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख  – यात्राओं का साहित्यिक अवदान)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 234 ☆

? आलेख – यात्राओं का साहित्यिक अवदान ?

बालीवुड ने बाम्बे टू गोवा, एन इवनिंग इन पेरिस, लव इन टोकियो, बाम्बे टू बैंकाक, एट्टी देज एराउन्ड दि वर्ल्ड, आदि अनेक यात्रा केंद्रित फिल्में बनाई हैं.

शिक्षा में नवाचार के समर्थक विद्वान यात्रा के महत्व को प्रतिपादित करते हुये कहते हैं कि पुस्तकों में ज्ञान मिलता है पर उसे समझने के लिये शैक्षणिक यात्राये पाठ्यक्रम का हिस्सा होनी चाहिये. मिडिल स्कूल तक के बच्चों को शिक्षक या अभिवावकों को समय समय पर पोस्ट आफिस, रेल्वे रिजर्वेशन, पोलिस थाना, बैंक, संस्थान, आसपास के उद्योग, आदि का भ्रमण करवाने से वे इन संस्थानों से प्रायोगिक रूप से परिचित हो पाते हैं. यह परिचय उन्हें इनके जीवन में अति उपयोगी  होता है. विज्ञान के वर्तमान युग में जब हम घर बैठे ही टी वी पर दुनिया भर की खबरें देख सकते हैं, तब भी उस वर्चुअल वर्ल्ड की अपेक्षा वास्तविक पर्यटन प्रासंगिक बना हुआ है.  टूरिज्म, चाहे वह स्पोर्टस को लेकर हो, कार्निवल्स पर केंद्रित हो, बुक फेयर, एम्यूजमेंट पार्क, नेशनल फारेस्ट पर आधारित हो  या अन्य विभिन्न कारणों से हो, बढ़ता  जा रहा है.

यात्राओं का साहित्यिक अवदान भी बहुत है.  

यात्रावृत्त एक प्रकार का मानवीय इतिहास है, जिसमें घटनाओं के साथ-साथ व्यक्तिचेतना, संस्कार, सांस्कृतिक जीवन, सामाजिक और आर्थिक क्रियाएँ, राजनीतिक और भौगोलिक स्थितियाँ, विचार तथा धारणायें समाहित होती हैं. ‘कालिदास’ और ‘बाणभट्ट’ के साहित्य में भी आंशिक रूप से यात्रा वर्णन मिलता है.

एक विधा के रूप में यात्रा वर्णन स्थापित हो चुका है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #152 – आलेख – “सफलता मिले या असफलता हँसना जरूरी है” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक शिक्षाप्रद आलेख  सफलता मिले या असफलता हँसना जरूरी है)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 152 ☆

 ☆ आलेख – “सफलता मिले या असफलता हँसना जरूरी है” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

जीवन में सफलता और असफलता दोनों आती है। सफलता का आनंद लेना और असफलता से सीखना दोनों ही महत्वपूर्ण है। लेकिन, सफलता और असफलता में हंसकर जीना सीखना सबसे महत्वपूर्ण है।

हंसना एक शक्तिशाली दवा है। यह तनाव को कम करने, मूड को बेहतर बनाने और प्रतिरक्षा प्रणाली को बढ़ाने में मदद कर सकता है। हंसना हमें कठिन परिस्थितियों में भी अनुकूल होने में मदद कर सकता है।

सफलता में हंसकर जीना सीखने से हमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने और जीवन का अधिक आनंद लेने में मदद मिल सकती है। जब हम सफल होते हैं, तो हम अक्सर खुश और उत्साहित महसूस करते हैं। लेकिन, अगर हम अपने सफलता को बहुत गंभीरता से लेते हैं, तो हम जल्दी ही आराम कर सकते हैं और आगे बढ़ना बंद कर सकते हैं। हंसकर जीना हमें अपने सफलता का जश्न मनाने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।

असफलता में हंसकर जीना सीखने से हमें कठिन परिस्थितियों से उबरने और मजबूत होने में मदद मिल सकती है। जब हम असफल होते हैं, तो हम अक्सर निराश और हताश महसूस करते हैं। लेकिन, अगर हम अपने असफलता को बहुत गंभीरता से लेते हैं, तो हम जल्दी ही हार मान सकते हैं। हंसकर जीना हमें अपने असफलता से सीखने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।

सफलता और असफलता में हंसकर जीना सीखने के कुछ तरीके निम्नलिखित हैं:

अपने दृष्टिकोण को बदलें। सफलता और असफलता को एक पैमाने के दो छोर के रूप में देखें। सफलता केवल एक मंच है, असफलता केवल एक कदम पीछे है।

अपने आप को माफ़ करना सीखें। हर कोई गलतियाँ करता है। अपनी गलतियों से सीखें और आगे बढ़ें।

दूसरों की मदद करें। दूसरों की मदद करने से आपको अपनी त्रासदी को भूलने में मदद मिल सकती है।

अपने जीवन का आनंद लें। सफलता और असफलता दोनों जीवन का एक हिस्सा हैं। इन दोनों का आनंद लें और आगे बढ़ते रहें।

सफलता और असफलता में हंसकर जीना सीखने से हम एक अधिक संतुलित और खुशहाल जीवन जी सकते हैं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

27-09-2023

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 174 ⇒ स्वीकारोक्ति… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वीकारोक्ति”।)

?अभी अभी # 174 ⇒ स्वीकारोक्ति? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Confession

अक्सर लोग सच को, अपनी गलती को, अथवा किए गए अपराध को आसानी से स्वीकार नहीं करते, और अगर वे स्वीकार कर लें, तो उसे कन्फेशन अथवा स्वीकारोक्ति कहा जाता है। स्वीकारोक्ति के भी दो प्रकार होते हैं, एक ऐच्छिक और एक अनिवार्य। हम यहां केवल ऐच्छिक की ही चर्चा करेंगे।

आ बैल मुझे मार ! गांधीजी ने इसे सत्य के प्रयोग कहा। बहुत से लोगों ने आत्म कथा का सहारा लेकर यह, स्वीकार किया मैने, वाला खेल बहुत रोचक तरीके से खेला। मधुशाला वाले बच्चन जी ने भी क्या भूलूं क्या याद करूं और नीड़ का निर्माण जैसे अपने संस्मरणों से पाठकों का मन मोह लिया।।

आत्मकथा हो या संस्मरण, इन सभी में स्वीकारोक्ति भी ऐच्छिक ही होती है। कोई आपका हाथ पकड़कर आपसे जबरन कुछ लिखवा नहीं सकता लेकिन जिसे अपने पांव पर खुद ही कुल्हाड़ी मारना हो, तो बन जाइए गांधी, और हो जाइए महान। वैसे यह नहीं इतना आसान।

अपनी स्वयं की खूबियां तो इंसान खुशी खुशी बयां कर देता है लेकिन कमजोरियों को छुपा लेता है। यह मानवीय स्वभाव है, जिसे आप चोर मन भी कह सकते हैं। देखिए, कितनी खूबसूरती से इस चोर मन की व्याख्या की गई है ;

तोरा मन बड़ा पापी सांवरिया रे।

मिलाए छल बल से

नजरिया रे।।

साहिर कुछ कदम और आगे चले गए हैं। वे इसी मन को दर्पण मानते हैं।

कहते हैं दर्पण झूठ नहीं बोलता, लेकिन फिर भी सच हमसे इतनी आसानी से स्वीकार नहीं होता। यही सच है।।

आप चाहे इसे कारगर तरीका ना मानें, लेकिन यह सच है कि हमारे पास गिरजाघरों जैसा कोई कन्फेशन बॉक्स नहीं, जहां जाकर हम अपनी भूल अथवा गुनाह कुबूल कर लें। वैसे अगर ईश्वर को गवाह मानें, तो यह कार्य इतना मुश्किल भी नहीं। सवाल यह है कि ईश्वर कहां है, और कहां नहीं, और क्या अपराध स्वीकार कर लेने से मामला सुलझ जाता है ? इसीलिए शायद हमने ओम जय जगदीश हरे जैसी आरती को अपना आधार बना लिया है। यह ऑल इन वन (all in one) है। विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा, और मैं मूरख खल कामी।

लो जी हो गए सभी अपराध स्वीकार। कितना सुख मिला सामूहिक स्वीकारोक्ति में।

इसे ही पर्युषण पर्व भी कहते हैं। व्रत, उपवास, मौन, आत्म संयम के साथ साथ चित्त की शुद्धिकरण का भी प्रयास ही तो है। जैसे जैसे अच्छाई बढ़ती जाएगी, बुराई धीरे धीरे रसातल में चली जाएगी।।

हमने यह स्वीकारोक्ति पुरखों के पुण्य स्मरण से प्रारंभ की है। जीते जी जिनकी सेवा नहीं की, आज उनकी स्मृति में तर्पण, ब्राह्मण भोज और दान पुण्य क्या नहीं किया। आपको शायद याद नहीं, मुझे ऐसी कई घटनाएं याद हैं, जब मैने उनकी अवज्ञा की है, उनका दिल दुखाया है।

यह उनकी महानता और बड़प्पन है कि आज भी उनकी छत्र छाया और आशीर्वाद मेरे साथ है। उन्होंने हमेशा मुझे माफ किया, और सही राह दिखाई। अपने दोषों को देखने और उन्हें स्वीकार करने के प्रेरणास्रोत भी वे ही हैं। बस वे मेरी कलम थाम लें तो मेरे लिए यह काम और भी आसान हो जाए। मैं गणेश ना सही, लेकिन वे तो शिव पार्वती से कम नहीं। मुझे इंतजार रहेगा उस कल का, जिस दिन से स्वीकारोक्ति अभियान रंग लाएगा।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 86 – प्रमोशन… भाग –4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की अगली कड़ी।

☆ आलेख # 86 – प्रमोशन… भाग –4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

जब शाखा को पता चला कि प्रमोशन टेस्ट होने वाले हैं तो पहली जिज्ञासा कट ऑफ डेट जानने की हुई. जो इसके पात्र बने वो तनावग्रस्त हुये और जो कट ऑफ डेट से कटते कटते बचे वो प्रफुल्लित हुये क्योंकि उन्हें मौका मिला प्रमोशन के पात्रों को जज करने का, तानेबाजी का और ये कहने का, ‘कि हमको क्या, हमें तो वैसे भी नहीं लेना था’. हम तो प्रमोशन लेकर भी छोड़ने वालों में से हैं, हालांकि बैंकों में ऐसा प्रावधान होता नहीं है. जो कट ऑफ डेट से वाघा /अटारी बार्डर जैसे चूक गये उन्होंने इसे प्रबंधन की साजिश समझा और गुस्से में दो चार दिन अपने रोजाना के कोटे और गति से कम काम किया. उनका नजरिया यह था कि अब तो जो अफसर बनने वाले हैं, उनको ही ज्यादा काम करने और घर लेट जाने की आदत डाल लेना चाहिए. घर वाले भी जल्दी समझ जायेंगे.

उस जमाने में न तो रेडीमेड हेंडनोट्स होते थे न ही हर ब्रांच में अपना एक्सट्रा टाइम देकर कोचिंग देने वाले लोकोपकारी युवा अधिकारी. प्रमोशन पाने का सारा दारोमदार “प्रेक्टिस एंड लॉ ऑफ बैंकिंग” और नेवर लेटेस्ट बैंकिंग (एवर लेटेस्ट बैंकिंग :असली नाम) पर ही आता. प्रत्याशी बैंक आने के पहले पढ़ते, बैंक में समय पाकर पढ़ते और फिर बैंक से यथासंभव जल्दी घर पहुंच कर पढ़ते. जब पड़ोसी : विशेष रूप से पड़ोसने तहकीकात करतीं और अपने पतियों पर देर से घर आने पर शक की सुइयां चुभाती तो इन्हीं प्रत्याशियों की भार्याएँ प्रतिस्पर्धात्मक गर्व से सूचित करतीं कि हमारे “इनका” प्रमोशन होने वाला है. पड़ोसने जलभुन कर बोलतीं “बहुत देर से हो रहा है” हमारे जेठ तो तीन साल में ही प्रमोशन पा लिये थे. फिर जवाब भी टक्कर का मिलता कि “क्यों, क्या तीनों पार्ट वाले हैं क्या. बैंक में भी वो जो इस प्रमोशन टेस्ट के पात्र नहीं थे, सिक्योरिटी गार्ड्स और संदेशवाहकों के बीच बैठकर हांकते “दिन रात पढ़ने की जरूरत नहीं है, ये तो हम अपने नॉलेज के आधार पर बिना पढ़े ही निकाल सकते हैं. जिन्हें टेस्ट देना होता वो इन सबको इग्नोर कर अपने जैसे ही साथियों से और नवपदोन्नत अधिकारियों से प्रेरणा और मार्गदर्शन लेते. जो आज पढ़ा उस पर डिस्कशन होता बैंक में, रिक्रिएशन हॉल में, चाय और पान की टपरे नुमा शॉप्स में जहाँ मौका मिलता वहाँ डिस्कशन होता. कभी कभी डिस्कशन का ओवरडोज इतना हो जाता कि चाय के टपरे वाला भी “निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट “समझने और समझाने लगता और नॉन बैंकिंग कस्टमर्स पर इस एक्ट की टर्मिनालाजी का उपयोग कर धौंस जमाने लगता था.

प्रमोशन की तैयारियों में परिवार का एक्सट्रा सहयोग मिलता, बच्चे फरमाइशों से तंग नहीं करते, पढ़ते वक्त चाय /काफी बिना मांगे मिलती, डेली शॉपिंग से भी मुक्ति मिल जाती और पढ़ने वाला इस दहशत में सीरियसली पढ़ता कि पास नहीं हुआ तो ये नाकामी, कॉलोनी में पत्नी की बनी बनाई रेप्यूटेशन मिट्टी में मिला देगी. फिर तो ये सारी इंपार्टेंस और सुविधाओं का मिलना बंद हो जायेगा और काबलियत पर “शक करते ताने” जीना मुश्किल कर देंगे.

जिन्हें किसी भी तरह से प्रमोशनटेस्ट पास करना है वे शाखाप्रबंधक की खुशियों का बहुत ख्याल रखते और अकेले में पूछते भी कि सर हमारा तो हो जायेगा ना. जो समझदार प्रबंधक होते वो शरारत से यही कहते “अरे तुम्हारा नहीं होगा तो फिर किसका होगा. सारी ब्रांच की उम्मीद तुम पर टिकी हैं. पूछने वाला “इस उम्मीद टिके होने” के नाम पर और भी ज्यादा तनावग्रस्त हो जाता और सीधे होटल पहुंचकर सिगरेट के कश के साथ स्पेशल ऑर्डर पर बनी कॉफी पीता. होटल के मालिक की पारखी नजरें सब समझ जातीं और फिर पेमेंट के समय वो भी आश्वस्त करता “अरे साहब वैसे तो हमारे होटल में कई आते हैं पर आपकी और आपकी काबलियत पर तो हमारी 100% गारंटी है. राहत महसूस कर और छुट्टे जानबूझकर वापस लेना भूलकर मिस्टर 100% बैंक आकर बूस्ट की गई गति से काम करता हालांकि उसका मन तो किताबों के किसी पेज पर ही अटका रहता. उसे यह तो मालूम था ही कि रिटनटेस्ट तो पढ़कर ही पास होना है और मेरिट के अनुसार न्यूनतम मार्क्स यहाँ भी पाने पड़ते हैं.

इस श्रंखला में कपिलदेव, मोहिंदर अमरनाथ और गावस्कर के अलावा किसी भी वास्तविक या काल्पनिक व्यक्ति/स्थान के नाम का प्रयोग नहीं किया गया है. कोशिश आगे भी जारी रहने का प्रयास रहेगा.

प्रमोशनटेस्ट की कथा चलती रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 173 ⇒ पितृ पक्ष… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पितृ पक्ष”।)

?अभी अभी # 173 ⇒ पितृ पक्ष? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज हम सत्ता पक्ष अथवा विपक्ष की नहीं, केवल पितृ पक्ष की चर्चा करेंगे। पक्ष पखवाड़ा को भी कहते हैं। वैसे अगर पक्ष की बात की जाए, तो पक्ष दो होते हैं, शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष और अगर निष्पक्ष होकर सोचा जाए तो पितृ पक्ष की तरह मातृ पक्ष भी होता है।

पितर् शब्द में सब कुछ समाहित है ठीक तरह, जिस तरह परम पिता में, संपूर्ण ईश्वर तत्व समाया हुआ है। उसी ईश्वरीय शक्ति को आप चाहें तो शक्ति भी कह सकते हैं और मातृ शक्ति भी।।

बोलचाल की भाषा में मातृ पक्ष को हम ननिहाल कहते हैं, जहां कभी नाना नानी, और मामा मामी का निवास होता था। वैसे एक जमाने में, मामा के राज में, हमारे भी बड़े ठाठ थे, क्योंकि हमारी मामी उस समय किचन क्वीन जो थी। लेकिन ननिहाल हो अथवा किसी का पीहर, केवल यादें भर रह जाती हैं। बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए।

यानी हमारा असली घर पिता का ही घर होता है, क्योंकि पिता से ही वंश चलता है। समाज शास्त्र में इसे पितृसत्तात्मक परिवार कहते हैं। पोते को आजकल पिता से अधिक दादाजी का प्यार मिलने लगा है और दादी मां के नुस्खे आज भी घर घर में आजमाए जाते हैं। ।

इस लोक के अलावा कोई तो और लोक भी होगा। वैसे सात लोकों में भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और ब्रह्मलोक भी शामिल हैं, जिन्हें संक्षेप में हम लोक और परलोक ही कहते हैं।

बस यह आवागमन निर्बाध रूप से चलता रहे, किसी की गाड़ी खराब ना हो, किसी का पेट्रोल खत्म ना हो, किसी का टायर पंचर ना हो, रास्ते में भूख प्यास की परेशानी ना हो,

इसकी चिंता किसको नहीं होती। सरकारी बसों तक में लिखा रहता था, ईश्वर आपकी यात्रा सफल करे।

धूम्रपान वर्जित है।।

बड़ा संजीदा और इमोशनल मामला है, आप किसी को नाराज भी नहीं कर सकते। इसलिए इस पितृ पक्ष में कोई विवाद नहीं, कोई बहस नहीं, कोई मायका ससुराल नहीं, भेदभाव से परे, सभी कर्म निष्काम भाव से, श्रद्धापूर्वक संपन्न किए जाएं, खीर पूड़ी खाई, खिलाई जाए, उनकी स्मृति में दान पुण्य भी किए जाएं।

याद कीजिए, इस शरीर में आपका क्या है ! माता पिता ने आपको जन्म दिया, गुरुओं ने ज्ञान, अपने बड़ों ने संस्कार दिए। जन्म के वक्त तो आप इतने नादान और अबोध थे कि अपना पेट भी खुद नहीं भर सकते थे। जो लिया है, उसका कर्ज तो चुकाना ही है। मिट्टी से लेकर मिट्टी का घर, और घर बाहर उपलब्ध सभी सुविधा और सुविधा प्रदान करने वाले जाने पहचाने और अनजान लोग, वे लौकिक और पारलौकिक शक्तियां जिनको पाकर आज आप फूले नहीं समा रहे, सबका आभार और ऋण चुकाने का पक्ष है यह पितृ पक्ष।

जिस देश की मिट्टी इतनी पावन हो, वहां के पितरों के पुण्य प्रताप की तो बात ही निराली है। वे, उनकी कृपा, आशीर्वाद, प्रेरणा और शक्तियां सदा आपके साथ मौजूद हैं। उन्हें श्रद्धापूर्वक नमन।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 54 – देश-परदेश – Hygiene ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 54 ☆ देश-परदेश – Hygiene ☆ श्री राकेश कुमार ☆

इस शब्द का दो वर्ष पूर्व ही कोविड काल में ज्ञान प्राप्त हुआ था। हमारे देश की जनता तो कचरे और गंदगी के बीच से भी अपना रास्ता निकाल लेती हैं।

स्वच्छ स्थान पर, हाथ और पैर धो कर भोजन करना हमारी दैनिक जीवन का एक अहम भाग है। ये तो जल्द भोजन (फास्ट फूड) के चक्कर में हम सड़कों पर खुले में अधिक से अधिक खाद्य सामग्री अपनी जिव्हा को भेंट करने लग गए हैं।

आज उपरोक्त विज्ञापन पर दृष्टि पड़ी तो कुछ अजीब सा प्रतीत हुआ। चौपहिया वाहन “कार” की भी बिन जल सफाई हो सकती है, और कार भी हाइजेनिक हो सकती है। कितनी भी महंगी कार हो, उसको गंदगी और कीचड़ से भरी सड़कों से ही अपना मार्ग बनाना पड़ता है।

कार की सफाई के भी प्लान आ गए हैं। हो सकता है कार के अगले भाग और पिछवाड़े या साइड की सफाई के अलग अलग प्लान भी हो सकते हैं।    

हमारे मोहल्ले में तो लोग मोटे पाइप से लगातार पानी की धार से कार की धुलाई करते हुए कई लीटर पानी बहा देते हैं। पानी का कोई शुल्क जो नहीं लगता। “जल ही जीवन है” के सिद्धांत की धज्जियां उड़ा देते हैं, ऐसे लोग।

आज एक मित्र से भी इस विज्ञापन के संदर्भ में चर्चा हुई, तो वो तुरंत बोला की चुंकि ये विज्ञापन जयपुर शहर का है, वहां जल की कमी होती है, इसलिए जल की बर्बादी रोकने के लिए बिना जल के कार की सफाई को प्राथमिकता दी जा रही है। यह सब के लिए ये एक अच्छा संदेश हो सकता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 172 ⇒ पाठक, लेखक, श्रोता और मूक दर्शक… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पाठक, लेखक, श्रोता और मूक दर्शक।)

?अभी अभी # 172 ⇒ पाठक, लेखक, श्रोता और मूक दर्शक? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक पाठक और लेखक के लिए पढ़ना लिखना जरूरी है, श्रोता पर यह शर्त लागू नहीं होती। शाब्दिक अर्थ में जो लिखता है, वह लेखक कहलाता है, और जो पढ़ता है, वह पाठक कहलाता है। हमारे देश में जितने पाठक हैं, उतने लेखक नहीं। सभी लिखने वाले लेखक नहीं कहलाते, जिन्हें पढ़ा जाता है, वे ही लेखक कहलाते हैं।

जो सिर्फ सुनता है, वह श्रोता कहलाता है। रेडियो सुनने की चीज है, देखने की नहीं ! वही श्रोता जब किसी सभा अथवा गोष्ठी में जाता है, अथवा फिल्म अथवा टीवी देखता है, तो दर्शक बन जाता है। लेकिन जब से यह मोबाइल आया है, हर उपभोक्ता लेखक, पाठक, श्रोता, दर्शक और न जाने क्या क्या बन बैठा है?

एक श्रोता और दर्शक का पढ़ा लिखा होना जरूरी नहीं है जिसे आम भाषा में आम श्रोता और आम दर्शक ही कहते हैं। इसी तरह एक आम पाठक भी होता है और सुधी पाठक भी। वैसे सुधी तो कोई श्रोता भी हो सकता है। एक आम पाठक पर आप कोई लेखक थोप नहीं सकते। लेकिन एक बेचारे श्रोता और दर्शक पर तो कुछ भी थोपा जा सकता है। मन में वह कुछ भी कहे, लेकिन उससे अपेक्षा तालियों की ही होती है।

हर पढ़ा लिखा इंसान लेखक नहीं बन सकता, लेकिन एक लेखक भी कहां बिना पढ़े लिखे लेखक बना है। वैसे कहा तो यह भी जाता है, इंसान बनने के लिए भी पढ़ना लिखना जरूरी है। ।

हम सब पढ़े लिखे इंसान हैं, कोई पाठक, कोई लेखक, कोई श्रोता तो कोई दर्शक ! डार्विन की विकास यात्रा को हमने पहले बंदर से मानव बनते देखा, और आज इक्कीसवीं सदी में गूगल ऐप ape से उसे और एक बेहतर इंसान बनते देख रहे हैं।

एक अंगुली भर दबाने की दूरी पर पूरी दुनिया, पूरा शब्दकोश, पूरा नेशनल ज्योग्राफी, दुनिया के किसी भी कोने से कनेक्टिविटी, वीडियो कॉलिंग, दृश्य श्रव्य के सभी खजाने आपकी यू ट्यूब में संग्रहित, यानी ज्ञान का भंडार और मनोरंजन का खजाना आपके कदमों में नहीं, आपकी मुट्ठी में। ।

अब हमें एक बेहतर इंसान बनने से कोई नहीं रोक सकता। क्या यह मानव सभ्यता अभी और अधिक सभ्य होगी। प्रेम, नैतिकता, ईमानदारी, नेकी और ईमान में हम कितने आगे हैं, यह भी अगर कोई ऐप के जरिए पता चल जाए, तो हम समझेंगे हमारा जीवन धन्य हुआ, हम गंगा नहाए।

डर है, समय हमें यह सोचने पर मजबूर ना कर दे कि कहीं हमारे कदम विकास की जगह विनाश की ओर तो नहीं जा रहे। उधर अंधाधुंध आधुनिकीकरण और पर्यावरण की उपेक्षा से प्रकृति भी कुपित है और इधर कहीं हमने बच्चों को हाथ में जादू के खिलौने की जगह कोई हथियार तो नहीं थमा दिया। क्या हम कहीं अधिक पढ़, लिख तो नहीं गए …!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

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