हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण- 5☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से श्री सुरेश पटवा जी द्वारा हाल ही में की गई उत्तर भारत की यात्रा -संस्मरण  साझा कर रहे हैं।  आज से  प्रतिदिन प्रस्तुत है श्री सुरेश पटवा जी का  देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण )

 ☆ यात्रा-संस्मरण  ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण-5 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

गोरखा शासन काल में एक ओर शासन संबंधी अनेक कार्य किए गए, वहीं दूसरी ओर जनता पर अत्याचार भी खूब किए गए। गोरखा राजा बहुत कठोर स्वभाव के होते थे तथा साधारण-सी बात पर किसी को भी मरवा देते थे। इसके बावजूद चन्द राजाओं की तरह ये भी धार्मिक थे। गाय, ब्राह्मण का इनके शासन में विशेष सम्मान था। दान व यज्ञ जैसे कर्मकांडों पर विश्वास के कारण इनके समय कर्मकांडों को भी बढ़ावा मिला। जनता पर नित नए कर लगाना, सैनिकों को गुलाम बनाना, कुली प्रथा, बेगार इनके अत्याचार थे। ट्रेल ने लिखा है- ‘गोरखा राज्य के समय बड़ी विचित्र राज-आज्ञाएँ प्रचलित की जाती थीं, जिनको तोड़ने पर धन दंड देना पड़ता था। गढ़वाल में एक हुक्म जारी हुआ था कि कोई औरत छत पर न चढ़े। गोरखों के सैनिकों जैसे स्वभाव के कारण कहा जा सकता है कि इस काल में कुमाऊँ पर सैनिक शासन रहा। ये अपनी नृशंसता व अत्याचारी स्वभाव के लिए जाने जाते थे।

अवध के क्षेत्रों में गोरखाओं के हस्तक्षेप के बाद, अवध के नवाब ने अंग्रेजों से  मदद मांगी, इस प्रकार 1814 के एंग्लो-नेपाली युद्ध का मार्ग प्रशस्त हुआ। कर्नल निकोलस के अधीन ब्रिटिश सेना, लगभग पैंतालीस सौ पुरुषों और छह पॉन्डर गन से मिलकर, काशीपुर के माध्यम से कुमाऊं में प्रवेश किया और 26 अप्रैल 1815 को अल्मोड़ा पर विजय प्राप्त की। उसी दिन गोरखा प्रमुखों में से एक, चंद्र बहादुर शाह ने युद्धविराम का झंडा भेज शत्रुता को समाप्त करने का अनुरोध किया। अगले दिन एक वार्ता हुई, जिसके तहत गोरखा सभी गढ़वाले स्थानों को छोड़ने के लिए सहमत हो गए। 1816 में नेपाल द्वारा सुगौली की संधि पर हस्ताक्षर करने के साथ युद्ध समाप्त हो गया, जिसके तहत कुमाऊं आधिकारिक तौर पर ब्रिटिश क्षेत्र बन गया।

इस क्षेत्र को अंग्रेजों द्वारा कब्जा कर लिया गया था। कुमाऊं क्षेत्र को गैर-विनियमन प्रणाली पर एक मुख्य आयुक्त के रूप में गढ़वाल क्षेत्र के पूर्वी हिस्से के साथ जोड़ा गया, जिसे कुमाऊं प्रांत भी कहा जाता है। यह सत्तर वर्षों तक तीन प्रशासकों, मिस्टर ट्रेल, मिस्टर जे.एच. बैटन और सर हेनरी रामसे द्वारा शासित था।

कुमाऊं के विभिन्न हिस्सों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ व्यापक विरोध हुआ। कुमाऊंनी लोग विशेष रूप से चंपावत जिला 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान कालू सिंह महारा जैसे सदस्यों के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में उठे। 1891 में यह विभाजन कुमाऊं, गढ़वाल और तराई के तीन जिलों से बना था; लेकिन कुमाऊं और तराई के दो जिलों को बाद में पुनर्वितरित किया गया और उनके मुख्यालय नैनीताल और अल्मोड़ा के नाम पर रखा गया।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण- 4☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से श्री सुरेश पटवा जी द्वारा हाल ही में की गई उत्तर भारत की यात्रा -संस्मरण  साझा कर रहे हैं।  आज से  प्रतिदिन प्रस्तुत है श्री सुरेश पटवा जी का  देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण )

 ☆ यात्रा-संस्मरण  ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण-4 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

ऐसा माना जाता है कि राजा धाम देव और बीर देव से इस शक्तिशाली राजवंश का पतन शुरू हुआ। राजा बर्देव भारी कर वसूल करते थे और अपने लोगों को दास के रूप में काम करने के लिए मजबूर करते थे, राजा बर्देव ने अपनी ही मामी टीला से जबरन शादी कर ली। कहा जाता है कि कुमाऊंनी लोकगीत ‘ममी टाइल धरो बोला’ उसी दिन से लोकप्रिय हो गया था। बर्देव की मृत्यु के बाद राज्य उनके आठ पुत्रों के बीच विभाजित हो गया था और वे थोड़े समय के लिए इस क्षेत्र में अपने अलग-अलग छोटे राज्यों का निर्माण करने में सक्षम थे, जब तक कि चंद कत्यूरी रियासतों को हराकर इस क्षेत्र में उभरे और कुमाऊं के रूप में फिर से कुरमांचल को एकजुट किया। पिथौरागढ़ में अस्कोट के राजबर राजवंश की स्थापना 1279 ईस्वी में कत्यूरी राजाओं की एक शाखा द्वारा की गई थी, जिसका नेतृत्व अभय पाल देव ने किया था, जो कत्यूरी राजा ब्रह्मा देव के पोते थे। 1816 में सिघौली की संधि के माध्यम से ब्रिटिश राज का हिस्सा बनने तक राजवंश ने इस क्षेत्र पर शासन किया।

कत्यूरी वंश के अंतिम राजाओं की शक्ति क्षीण होने पर छोटे-छोटे राज्य स्वतंत्र हो गए, तथा उन्होंने संगठित होकर अपने राज्य का विस्तार कर लिया। सम्पूर्ण कुमाऊँ में कोई एक शक्ति न थी, जो सबको अपने अधीन कर पाती। इस संक्रान्ति काल में राज्य बिखर गया तथा कत्यूरी राजाओं द्वारा प्रारंभ किए गए विकास कार्य या तो समाप्त हो गए या उनका स्वरूप ही बदल गया। कत्यूर वंश के अंतिम शासकों ने प्रजा पर अत्यधिक अत्याचार भी किए। उसी परम्परा में इस संक्राति काल में भी स्थानीय छोटे-छोटे राजाओं ने भी प्रजा पर अत्यधिक अत्याचार किए, परन्तु शनैः-शनैः चन्द्रवंशी राजाओं ने अपने एकछत्र राज्य की नींव डाली। चंद राजवंश की स्थापना सोम चंद ने 10 वीं शताब्दी में कत्यूरी राजाओं को विस्थापित करके की थी, जो 7 वीं शताब्दी ईस्वी से इस क्षेत्र पर शासन कर रहे थे। उन्होंने अपने राज्य को कुरमांचल कहना जारी रखा। काली कुमाऊं जिसे काली नदी के आसपास होने के कारण कहा जाता है, की राजधानी चंपावत में स्थापित की। 11वीं और 12वीं शताब्दी के दौरान इस राजधानी शहर में बने कई मंदिर आज भी मौजूद हैं, इसमें बालेश्वर और नागनाथ मंदिर शामिल हैं।

कुछ इतिहासकार चन्द्रवंशी शासन काल का प्रारंभ 1261 ई. से मानते हैं तो कुछ सन 953 से। बद्रीदत्त पांडे के अनुसार चन्द्रवंश का प्रथम राजा सोमचन्द सन्‌ 700 ई. के आसपास गद्दी पर बैठा। चन्द्रवंशी राजाओं के कुमाऊँ में आने का कारण भी स्पष्ट नहीं है। विद्वानों के अनुसार कत्यूरी शासन की समाप्ति के बाद देशी राजाओं के अत्याचारों से दुखी प्रजा कन्नौज के राजा सोमचन्द के पास गई और उन्हें कुमाऊँ में शांति स्थापना के लिए आमंत्रित किया। अन्य इतिहासकारों के अनुसार सोमचन्द इलाहाबाद के पास स्थित झूंसी के राजपूत थे। सोमचन्द्र के बद्रीनाथ यात्रा पर आने पर सूर्यवंशी राजा ब्रह्मदेव ने उन्हें अपना मित्र बना लिया। सोमचन्द्र ने अपने व्यवहार एवं परिश्रम से एक छोटा-सा राज्य स्थापित कर लिया तथा कालांतर में खस राजाओं को हटाकर अपने राज्य का विस्तार कर लिया। इस प्रकार कुमाऊँ में चन्द्रवंश की स्थापना हुई। सम्पूर्ण काली, कुमाऊँ, ध्यानीरौ, चौमेसी, सालम, रंगोल पट्टियाँ चंद्रवंश के अधीन आ गई थीं। राजा महेन्द्र चंद (1790 ई.) के समय तक सम्पूर्ण कुमांऊं में चन्द राजाओं का पूर्ण अधिकार हो चुका था। साढ़े पांच सौ वर्षों की अवधि में चन्दों ने कुमाऊँ पर एकछत्र राज्य किया।

इसी समय कन्नौज आदि से कई ब्राह्मण जातियाँ कुमांऊँ में बसने के लिए आईं तथा उनके साथ छुआछूत, खानपान में भेद, वर्ण परम्परा एवं विवाह सम्बन्धी गोत्र जाति के भेद भी यहाँ के मूल निवासियों में प्रचलित हो गए, जो कुमाऊँ में आज भी है। चन्द राजाओं के शासन काल में कुमाऊँ में सर्वत्र सुधार तथा उन्नति के कार्य हुए। चन्दों ने जमीन, कर निर्धारण तथा गाँव प्रधान या मुखिया की नियुक्ति करने का कार्य किया। चन्द राजाओं का राज्य चिह्न ‘गाय’ था। तत्कालीन सिक्कों, मुहरों और झंडों पर यह अंकित किया जाता था। उत्तर भारत में औरंगजेब के शासनकाल में मुस्लिम संस्कृति से कुमाऊँनी संस्कृति का प्रचुर मात्रा में आदान-प्रदान हुआ। कुमाऊँ में मुस्लिम शासन कभी नहीं रहा, परन्तु ‘जहाँगीरनामा’ और ‘शाहनामा’ जैसी पुस्तकों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि चंद राजाओं से मुगल दरबार का सीधा सम्बन्ध था। यद्यपि यह सम्बन्ध राजा से राज्य तक ही सीमित रहा परन्तु आगे चलकर यह संबंध भाषा व साहित्य में दृष्टिगोचर होने लगा। इसी समय कुमाऊँ भाषा में अरबी, फारसी, तुर्की भाषाओं के कई शब्द प्रयुक्त होने लगे।

अठारहवीं सदी के अंतिम दशक में आपसी दुर्भावनाओं व राग-द्वेष के कारण चंद राजाओं की शक्ति बिखर गई थी। फलतः गोरखों ने अवसर का लाभ उठाकर हवालबाग के पास एक साधारण मुठभेड़ के बाद सन्‌ 1790 में अल्मोड़ा पर अपना अधिकार कर लिया। कुमाऊं पर गोरखा शासन 24 वर्षों तक चला। इस अवधि के दौरान स्थापत्य की उन्नति काली नदी को अल्मोड़ा के रास्ते श्रीनगर से जोड़ने वाली एक सड़क थी। गोरखा काल के दौरान अल्मोड़ा कुमाऊं का सबसे बड़ा शहर था, और अनुमान है कि इसमें लगभग 1000 घर हैं।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 86 – यात्रा वृत्तांत —पहुंच गया दिल्ली ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “यात्रा वृत्तांत —पहुंच गया दिल्ली ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 86 ☆

☆ यात्रा वृत्तांत पहुंच गया दिल्ली ☆ 

मैं ने जिंदगी में कभी हवाई यात्रा नहीं की थी. पहली बार हवाई जहाज में जा रहा था. डर लगना स्वाभाविक था. राहुल को फोन लगाया, ”राहुल ! मुझे बताता रहना. पहली बार दिल्ली जा रहा हूं. हवाई जहाज में भी पहली बार बैठ रहा हूं. इसलिए समयसमय पर जानकारी देते रहना.”

” डरने की कोई बात नहीं है  पापाजी , ” राहुल ने मेरा हौंसला बढ़ाया, ” सुबह के 6 बज रहे हैं. इस वक्त आप कहां है ?” उस ने मुझ से पूछा.

” देवी अहिल्याबाई होल्कर हवाई अड्डे के मुख्य प्रवेशद्वार पर, जहां सुरक्षाकर्मी जांच के बाद अंदर जाने देते हैं, वहां खड़ा हूं.”

” यहीं से आप अंदर जाएंगे. यहां पर आप का टिकट व पहचान पत्र देख कर अंदर जाने दिया जाएगा,” राहुल ने जैसा बताया था, वैसा ही हुआ.

इस सुरक्षाचक्र से मैं अंदर पहुंच गया. वहां सामने एक सामान चैंकिंग खिड़की थी. जिस में एक रोलर लगा हुआ था. उस में सामान रखने पर वह सीधा रोलर पर घुमता हुआ आगे चला गया. वह सीधा एक खिड़की से हो कर दूसरी ओर निकल गया.

मैं ने सामान उठाया. कुछ आगे जाने पर एक टिकट का काउंटर दिखाई दिया. जहां लंबी लाइन लगी हुई थी. वहां से मैं ने टिकट प्राप्त किया. इस के बाद राहुल को फोन लगाया, ” अब कहां जाना है ?”

उस ने कहा, ”  दाएं  मुड़ जाइए. सामने सीढ़िया लगी होगी. उस पर चढ़ कर ऊपर चले जाइए.”

मैं ने ऐसा ही किया. वहां पर पहले से ही लाइन लगी हुई थी. यहां पर सभी यात्री अपने सामान को निकाल कर एक ट्रे में रख रहे थे. मैं ने भी मोबाइल और रूपए पैसे सब निकाल कर उस में रख दिए. दोबारा बैग को खिड़की में डाला. मैं एक दरवाजे से अपने शरीर की जांच कराते हुए आगे निकल गया.

दूसरी ओर मेरा सामान आ चुका था. मैं ने मोबाइल और पर्स लिया. शर्ट में रखा. सीधे आगे जाने पर कई कुर्सियां लगी हुई थी. जहां कई लोग वहां बैठे हुए प्रतिक्षा कर रहे थे. मैं भी कुर्सी पर बैठ कर प्रतिक्षा करने लगा.

कुछ देर बाद राहुल को फोन लगाया, ” अब क्या होगा ?”

” यहां से 6:30 पर विमान में जाने के लिए रास्ता खुल जाएगा ,” राहुल ने जैसा कहा था, वैसा ही हुआ. प्रतिक्षालय के  एक ओर बना हुआ बड़े से दरवाज़ा की ओर का रास्ता खुल गया. जहां पर बहुत सी परिचारिका खड़ी थी. वे बारी बारी से सीट नंबर बोल बोल कर यात्रियों को अंदर बुला रही थी.

मेरा सीट नंबर 16 एफ था. मुझे भी अंदर बुला लिया गया. मुझे लगा था कि मैं हवाई अड्डे के नीचे उतर कर सीढ़ियों से विमान में चढ़ूंगा. मगर, ऐसा कुछ नहीं हुआ. मैं एक सुरंग रूपी रास्ते से होता हुआ सीधा हवाईजहाज में पहुँच गया. मेरा बैग मेरे साथ था.

हवाईजहाज में एक परिचारिका हाथ जोड़ कर अभिावादन कर रही थी. चुंकि मैं पहली बार इस में गया था. मुझे पता नहीं था कि कौन सी सीट कहाँ है ? इसलिए पूछ लिया, ” यह 16 एफ सीट किधर है ?”

परिचारिका ने अपनी बाई ओर इशारा कर के कहा, “ वह 16 वी पंक्ति वाली खिड़की वाली सीट आप की है.”

मैं यात्रियों के साथ धीरेधीरे आगे बढ़ते हुए चल रहा था. हवाईजहाज में बहुत कम जगह थी. इस में बस की तरह हम एक साथ कई व्यक्ति सीट की तरफ नहीं जा सकते हैं. मैं अहिस्ताअहिस्ता चलते हुए लोगों के साथ अपनी सीट के पास गया. वहां एक समय में एक ही व्यक्ति अंदर जा सकता था. मैं पहले अंदर जा कर खिड़की वाली सीट पर बैठ गया. उस के बाद मेरे साथ वाले दो व्यक्ति भी सीट पर बैठ गए.

इस हवाईजहाज में यात्रा करने का यह मौका मुझे मेरे पुत्र राहुल की वजह से मिला था. वह अपनी कंपनी के काम से कई बार दिल्ली गया था. उस से मैं ने कई बार कहा था कि हवाईजहाज में बैठना कैसा लगता है ?

तब उस ने हवाईजहाज में बैठने का अपना पूरा ब्यौरा सुना कर कहा था, ” पापाजी ! इस बार आप विश्व पुस्तक मेले में हवाई जहाज द्वारा दिल्ली जाना.” बस उसी की बदौलत मुझे हवाई जहाज का टिकट मिला था.

मैंने गौर से विमान के छत को देखा. वहां पर कुछ लिखा हुआ था. पास में एक खिड़की थी. जो हवाई जहाज के विंग के उपर का हिस्सा दिखा रही थी. यानी मुझे पंखों के उपर वाली सीट मिली थी.

हवाई जहाज चालू हुआ. परिचारिका ने कई जानकारी दी. सीट बेल्ट कैसे बांधना है. यदि आक्सीजन की कमी हो जाए या जी घबराने लगे तो छत पर लगे आक्सीजन मास्क को कैसे मुंह पर लगा कर आक्सीजन प्राप्त करना है. परिचारिका यह बता रही थी कि हवाईजहाज रनवे पर चलने लगा.

कुछ निर्धारित दूरी तय करने के बाद वह रूका. अचानक उस की आवाज तेज हो गई. यात्रियों ने अनाउंसमेन्ट के अनुसार अपनेअपने सीट बेल्ट को बांध लिया. हवाई जहाज ने तेज आवाज की. रनवे पर दौड़ लगा दी.

वह तेज गति से दौड़ने लगा. मेरी निगाहें खिड़की के बाहर थी. विंडो सीट से पंख स्पष्ट नजर आ रहे थे. कुछ तेज गति से चलने के बाद हवाई जहाज जमीन से उंचा उठने लगा. पेट में हल्की से गुदगुदी हुई. धीरेधीरे जमीन दूर जाने लगी. मकान छोटे होते गए.

कुछ देर में हवाई जहाज बहुत उंचाई पर था. ऊपर जाने पर ऐसा लग रहा था कि हवाई जहाज स्थिर हो गया है. केवल वह किसी बादल पर टिका हुआ है. आसमान में बादल दिखाई दे रहे थे. नीचे का कोई हिस्सा दिखाई नहीं दे रहा था. कुछ समय बाद धूप निकल आई. नीचे की जमीन दिखाई देने लगी. तब अहसास हुआ कि हवाईजहाज बहुत ऊचाई पर है.

एक घंटे तक उड़ने के बाद हवाईजहाज दिल्ली के इंदिरागांधी अंतराराष्ट्रीय हवाई अड्डे के ऊपर उड़ रहा था. 7 जनवरी 2018 की सुबह दिल्ली में कोहरा छाया हुआ था. धुंध की वजह से नीचे दिखाई देना बंद हो गया था. हवाई जहाज धीरेधीरे नीचे आया.

वह करीब आधा घंटे तक हवाई अड्डे की रनवे पर चलता रहा. तब जा कर वह रनवे पर रूका. मुझे यह पता नहीं था कि यहां किस तरह उतरने पड़ेगा. जैसे ही मैं अपना बैग ले कर दरवाजे के बाहर निकला वैसे ही मुझे सीढ़िया नजर आई. मैं उस से उतरते हुए हवाई अड्डे की धरती पर उतर चुका था.

हवाई अड्डे को नजदीक से देखना मेरा पहला रोमांचकारी अनुभव था. मैं इसे कैसे जाने देता. मैं ने अपना मोबाइल निकाला. उस से कुछ सेल्फी लीं. यह काम मैं ने हवाई जहाज के अंदर भी किया था. ताकि मैं सगर्व यह बता सकूं कि मैं ने पहली बार हवाई जहाज की रोमांचकारी यात्रा कीं.

यहां से बस में बैठ कर मैं हवाई अड्डे के निकासी द्वार पर पहुंच गया. फिर हवाई अड्डे से बाहर निकल गया. यहां के उत्तरी निकासी द्वार पर बस खड़ी थी. उस के द्वारा मैं ने ऐरोसिटी मैट्रो स्टेशन का टिकट लिया. मैट्रो स्टेशन पर जाने के बाद वहां से ओरेज लाइन की मैट्रो में सफर किया.

दिल्ली की मैट्रो अपनेआप में एक मिसाल है. इस की साफसफाई और व्यवस्था उच्च स्तर की है. यहां से धोला कुआ होते हुए मैं नई दिल्ली स्टेशन पर उतर गया. जहां से मुझे पीली लाइन मैट्रो पकड़ कर चांदनी चौक जाना था.

मैं नईदिल्ली से मेट्रो पकड़ कर चांदनी चौक गया. वहां से मेट्रो से उतर कर सीधा बाई ओर जाते हुए शीशमहल गुरूद्वारा पहुंच गया.

इस तरह शीशमहल से बस पकड़ कर प्रगति मैदान गया. विश्व पुस्तक मेले में  घूम घूम कर पुस्तकें खरीदी ओर दूसरे दिन बस द्वारा वापस आ गया. इस तरह दिल्ली विश्वपुस्तक मेले की मेरी रोमांचकारी यात्रा पूरी हुई. यह यात्रा मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा. क्यों कि इस यात्रा में पहली बार मैं हवाई जहाज में बैठा था.

इस तरह मेरी छोटी सी रोचक यात्रा पूरी हुई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२०/०३/२०१८

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी  क्रमांक- १२ – भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मी प्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी  क्रमांक- १२ – भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ ऐश्वर्यसंपन्न पीटर्सबर्ग ✈️

राजधानी मॉस्कोनंतर रशियातील महत्त्वाचे शहर म्हणजे सेंट पीटर्सबर्ग. पीटर्सबर्गला आलो तेंव्हा सूर्य मावळायला बराच वेळ होता. आमची गाईड नादिया हिच्याबरोबर छोट्या बसने शहराचा फेरफटका मारायला निघालो. पीटर्सबर्गच्या वायव्येला लादोगा या नावाचे युरोपमधील सर्वात मोठे गोड्या पाण्याचे सरोवर आहे. या सरोवरातून नीवा नदीचा उगम होतो. या नदीवर जवळजवळ चारशे ब्रिज बांधलेले आहेत.नीवा,मोइका आणि फोंटांका   अशा तीन नद्या पीटर्सबर्ग मधून वाहतात. त्यांच्या कालव्यांनी पीटर्सबर्ग शहर आपल्या कवेत घेतले आहे.

कालव्यांवरील पूल ओलांडून बस जात होती. सहा पदरी स्वच्छ रस्ते व दोन्ही बाजूला पंधरा-पंधरा फुटांचे सुरेख दगडी फुटपाथ होते. दुतर्फा एकाला एक लागून दगडी, सलग तीन चार मजल्यांच्या इमारती होत्या. लाल, पिवळ्या,निळसर रंगांच्या त्या इमारतींना मध्येमध्ये नाजूक जाळीदार गॅलेऱ्या होत्या. बऱ्याच इमारतींच्या खांबांवर तगड्या दाढीधारी पुरुषांचे शिल्प दोन्ही हात पसरून जणू इमारतींना आधार देत होते. तर काही ठिकाणी काळ्या रंगातील पऱ्यांची देवदूत आंचे शिल्प होती निवा नदीच्या एका काठावर उतरलो.  नदीच्या काठावर  खूप उंच दीपगृह उभारले आहे. त्याच्या मधोमध चारही बाजूंना सिरॅमिक्सच्या मोठ्या पणत्या आहेत. चौथऱ्याच्या चारी बाजूंना सुंदर शिल्पे कोरलेली आहेत. त्यातील एक नीवा नदीचे प्रतीक आहे. रस्त्यांवर दोन्ही बाजूला अतिशय सुंदर, कलात्मक आणि वेगवेगळ्या आकाराचे मोठे लॅऺ॑प पोस्ट उभारले आहेत. प्रत्येक दिव्याचा खांब वेगळा. कधी तो छोट्या देवदूतांनी हातात धरलेला तर कधी सिंहासारखा पण पंख असलेल्या प्राण्याच्या शेपटीतून उभारलेला. त्रिकोणात मोठे गोल दिवे तर कधी षटकोनी दिवे कारंज्यासारखे दांडीवर बसविलेले होते. शंभर-दीडशे वर्षांपूर्वींचे शहराच्या रस्त्यांचे नियोजन आणि स्वच्छता कौतुक करण्यासारखे वाटले. मोइका आणि फोंटांका या नद्या जिथे एकमेकींना मिळतात त्यावरील अॅनिकॉव्ह ब्रिज अत्यंत देखणा आहे. त्याच्या मध्यवर्ती चौकातून चारही दिशांना सरळसोट मोठे रस्ते गेले आहेत. चौकाच्या चार कोपऱ्यांवर लालसर काळ्या ब्रांझमधील उमद्या घोड्यांचे सुंदर शिल्प आहे. प्रत्येक शिल्पाजवळ त्या घोड्याला माणसाळवण्यासाठी शिक्षण देणारे ट्रेनर्स वेगवेगळ्या पोझमध्ये आहेत. घोड्यांची आक्रमकता आणि ट्रेनर्सच्या चेहर्‍यावरील भाव लक्षवेधी आहेत.पिटर क्लॉड या सुप्रसिद्ध शिल्पकाराची ही देखणी शिल्पे आहेत.

दुसऱ्या दिवशी सकाळी  ‘हर्मिटेज’ हा जगन्मान्य उत्तम दर्जाचा म्युझियम बघायला गेलो. हर्मिटेज या फ्रेंच शब्दाचा अर्थ खाजगी जागा. ‘कॅथरीन द ग्रेट’ हिचा हा वैयक्तिक संग्रह आहे. १९१७ च्या रशियन राज्यक्रांतीनंतर हे म्युझियम सर्वांसाठी खुले करण्यात आले. कला, सौंदर्य आणि ऐश्वर्य यांचा संगम म्हणजे हे हर्मिटेज  म्युझियम! पहिल्या महायुद्धामध्ये जर्मन सैन्याचा वेढा पीटर्सबर्ग भोवती ९०० दिवस होता. लाखो लोक उपासमारीने मेले. त्यावेळी हर्मिटेजची देखभाल करणारे खास प्रशिक्षित क्युरेटर्स, विद्वान पंडित, नोकरवर्ग वगैरे सारे, हे हर्मिटेज ज्या पिटर दि ग्रेटच्या राजवाड्यात आहे, त्याच्या तळघरात गुप्तपणे राहीले. धोका पत्करून अनेक मौल्यवान कलाकृती त्यांनी बाहेरगावी रवाना केल्या. हा खजिना वाचविण्यासाठी जिवाची पर्वा न करता त्यांनी मोठ्या परिश्रमाने कलाकृतींची तपशीलवार नोंद केली. मोजदाद केली. या कलाकृतींमध्ये लिओनार्दो- दा- विंची, पिकासो, देगा, रॅफेल, रेम्ब्रा, गॉ॑ग,व्हॅनगो,सिझॅन अशा जगप्रसिद्ध कलाकारांच्या कलाकृती आहेत. जीवावर उदार होऊन जपलेल्या या कलाकृती म्हणजे रशियाचे वैभव आहे.

विंटर पॅलेस मधील ही हर्मिटेजची बिल्डिंग तीन मजली आहे. बाहेरूनच इमारतीच्या शंभराहून अधिक उंच खिडक्या आणि इमारतींचे सरळसोट उभे, कवेत न मावणारे मार्बलचे नक्षीदार खांब लक्ष वेधून घेतात. पांढऱ्या व गडद शेवाळी रंगातील या इमारतीच्या प्रवेशद्वारात कलात्मक सुंदर पुतळे आहेत. इटालियन पद्धतीच्या भव्य हॉलमधील खिडक्यांमधून नीवा आणि मोइका या नद्यांना जोडणारा विंटर कॅनॉल  दिसतो. अंतर्गत सजावट तर आपल्याला चक्रावून टाकते.प्रत्येक पुढचे प्रत्येक दालन अधिक भव्य, सरस आणि संपन्न वाटते .१८३७ मध्ये लागलेल्या आगीत याचे लाकडी फ्लोअरिंग व बरीच अंतर्गत सजावट जळून गेली होती. पण १८५८ पर्यंत पुन्हा सारे नव्याने उभारण्यात आले. यावेळी धातू व मार्बल यांचा वापर करण्यात आला. तऱ्हेतऱ्हेची  प्रचंड झुंबरे, कलात्मक पुतळे, गालिचे, राजसिंहासन, दरबार हॉल, अर्धवर्तुळाकार उतरते होत जाणारे अॅ॑फी थिएटर, गुलाबी, पिवळट, हिरवट ग्रॅनाईट वापरून उभारलेले भव्य खांब, वक्राकार जिने, मौल्यवान रत्ने,माणके,हिरे यांची अप्रतिम कारागिरी, लाकूड व काचकाम, पोर्सेलिनच्या सुंदर वस्तू ,सोनेरी नक्षीच्या चौकटीत बसविलेले वीस- वीस फूट उंचीचे आरसे होते .पाहुण्यांसाठीच्या खोल्या, डान्सचा हॉल, नाश्त्याच्या, जेवणाच्या खोल्या अतिशय सुंदर सजवलेल्या होत्या. तेथील रेशमी पडदे ,सोफा सेट, नक्षीदार लाकडी कपाटे, अभ्यासाची जागा, लायब्ररी, लहान मुलांचे व स्त्री-पुरुषांचे उत्तम फॅशनचे कपडे,ज्युवेलरी, डिनर सेट, हॉलच्या एका कोपऱ्यात असलेल्या फायरप्लेस सभोवती सिरॅमिक्सची नक्षी सारेच उच्च अभिरुचीचे आणि कलात्मक  आहे.  डान्स हॉलमधील आरसे आणि सोन्याचा मुलामा दिलेले नक्षीदार खांब यांनी डोळे विस्फारले जात होते. या म्युझियममध्ये तीस लाखांहून अधिक कलाकृतींचा संग्रह आहे. चायना, जपान, ब्रिटन, फ्रान्स येथून आणलेल्या हरतऱ्हेच्या अमूल्य वस्तू आहेत. तीस फूट उंच छत आणि त्यावरील ३०फूट×४०फूट लांबी रुंदीची, पूर्ण छतभर असलेली पेंटिंग्ज डोळ्यांचे पारणे फेडतात. खालच्या मजल्यावरील लांबलचक रूंद गॅलेरीच्या दोन्ही भिंतींवर छतापर्यंत भव्य पेंटिंग्ज आहेत. तत्कालीन युद्धाचे देखावे, नीवाचा किनारा, त्यावेळचे रीतीरिवाज, गप्पा मारत एकीकडे विणकाम, भरतकाम करणाऱ्या तरुण, सुंदर मुली चितारल्या होत्या. गुलाबाची फुले व वेली अशा रंगविल्या होत्या की त्या छतावरून खाली लोंबत आहेत असे वाटावे. इथे असलेले रती आणि मदन( सायको आणि क्युपिड) यांचे पुतळे अतिशय देखणे, प्रमाणबद्ध आणि चेहर्‍यावर विलक्षण उत्कटता, प्रेमभाव दाखविणारे होते. हर्मिटेजमधील या प्रकारचे अनेक पुतळे नग्न असूनही अश्लील वाटत नव्हते. .सर्वात  महत्त्वाचे म्हणजे या सार्‍या वैभवाची अत्यंत कसोशीने, काळजीपूर्वक निगुतीने सतत देखभाल केली जाते.

भाग-१ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण- 3☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से श्री सुरेश पटवा जी द्वारा हाल ही में की गई उत्तर भारत की यात्रा -संस्मरण  साझा कर रहे हैं।  आज से  प्रतिदिन प्रस्तुत है श्री सुरेश पटवा जी का  देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण )

 ☆ यात्रा-संस्मरण  ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण-3 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

कुमाऊँ

उत्तराखंड दो परम्परागत क्षेत्रों में विभाजित है-कुमायूँ और गढ़वाल। पूर्वी उत्तराखंड के आदिम निवासी अपने आपको विष्णु के कूर्म अवतार से उत्पन्न मानते थे इसलिए वह क्षेत्र पहले कुरमायूँ कहलाता था, बाद में कुमायूँ हो गया। पश्चिमी क्षेत्र में आदिम निवासियों के गढ़ थे इसलिए वह गढ़वाल कहलाने लगा।

उत्तराखंड के तेरह ज़िलों में छह ज़िले अल्मोड़ा, बागेश्वर, चंपावत, नैनीताल, पिथौरागढ़ और उधमसिंह कुमाऊँ मण्डल में आते हैं। कुमाऊँ के उत्तर में तिब्बत, पूर्व में नेपाल, दक्षिण में उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम में गढ़वाल मंडल हैं I रानीखेत में भारतीय सेना की प्रसिद्ध कुमाऊँ रेजिमेंट का केन्द्र स्थित हैI कुमाऊँ के मुख्य नगर हल्द्वानी, नैनीताल, अल्मोड़ा, रानीखेत, पिथौरागढ़, रुद्रपुर, किच्छाकाशीपुर, पंतनगर, चम्पावत तथा मुक्तेश्वर हैंI कुमाऊँ मण्डल का प्रशासनिक केंद्र नैनीताल है और यहीं उत्तराखण्ड का उच्च न्यायालय भी स्थित है I

भारतवर्ष के धुर उत्तर का हिमाच्छादित पर्वतमालाओं, सघन वनों और दक्षिण में तराई-भावर से आवेष्टित भू-भाग ‘कुमाऊँ’ कहलाता है। 1850  तक तराई-भावर क्षेत्र एक विषम वन था जहां जंगली जानवरों का राज था किन्तु उसके उपरान्त जब खेतिहर ज़मीन हेतु जंगलों की कटाई-छटाई की गई तो यहाँ की उर्वरक धरती ने कई पर्वतीय लोगों को आकर्षित किया, जो गर्मी और सर्दी के मौसम में वहां खेती करते और वर्षा के मौसम में वापस पर्वतों में चले जाते थे। तराई-भाबर के अलावा अन्य क्षेत्र पर्वतीय है। यह हिमालय पर्वतमाला का एक मुख्य हिस्सा है तथा यहाँ 30 से अधिक पर्वत शिखर 5500 मी. से अधिक ऊँचाई लिए ध्यानस्थ हैं। यहाँ चीड़, देवदारु, भोज-वृक्ष, सरो, बाँझ इत्यादि पर्वतीय वृक्षों की बहुतायत है। यहाँ की मुख्य नदियाँ गौरी, काली, सरयू, कोसी, रामगंगा इत्यादि हैं। काली (शारदा) नदी भारत तथा नेपाल के मध्य प्राकृतिक सीमा बनाती है। कैलाश-मानसरोवर का मार्ग इसी नदी के साथ लिपू लेख दर्रे से तिब्बत को जाता है। 17500 फुट की ऊँचाई पर स्थित ऊंटाधुरा दर्रा से जोहार लोग तिब्बत में व्यापार करने जाते हैं। यहाँ विश्वविख्यात पिंडारी हिमनद् है जहां विदेशी पर्वतारोही सैलानी आते हैं। यहाँ की धरती प्रायः चूना-पत्थर, बलुआ-पत्थर, स्लेट, सीसा, ग्रेनाइट से भरी है। यहाँ लौह, ताम्र, सीसा, खड़िया, अदह इत्यादि की खानें हैं। तराई-भाबर के अलावा संपूर्ण कुमाऊँ का मौसम सुहावना होता है। मानसून में लगभग 1000 मी.मी. से 2000 मी.मी. तक से भी अधिक वर्षा होती है, शरद ऋतु में पर्वत शिखरों में प्रायः हिमपात होता है। गर्मी के मौसम में इन पर्वतों पर बर्फ़ पिघल कर गंगा-यमुना और उनकी सहायक नदियों का सृजन करता है।

कुमाऊं में, हर चोटी, झील या पर्वत श्रृंखला किसी न किसी मिथक या किसी देवता या देवी के नाम से जुड़ी हुई है, जिसमें शैव, शाक्त और वैष्णव परंपराओं से जुड़े लोगों से लेकर हैम, सैम, गोलू, नंदा, सुनंदा, छुरमल, कैल बिष्ट, भोलानाथ, गंगनाथ, ऐरी और चौमू  जैसे स्थानीय देवता शामिल हैं। कुमाऊं से जुड़े समृद्ध धार्मिक मिथकों और कथाओं का उल्लेख करते हुए, ई. टी. एटकिंसन ने कहा है: ‘हिंदुओं के महान बहुमत की मान्यताओं (केदारनाथ-बद्रीनाथ-गंगोत्री-यमनोत्री) के कारण कुमाऊं वही है जो ईसाइयों के लिए फिलिस्तीन है।

अल्मोड़ा और नैनीताल जिलों में प्रागैतिहासिक आवास और पाषाण युग के औजार मिले हैं। प्रारंभ में कोल आदिवासियों द्वारा बसाया गए इस क्षेत्र में किरात, खास और इंडो-सीथियन की लहरें आती गईं। कुनिन्द इस क्षेत्र के पहले शासक थे। उनके बाद कत्यूरी राजा आए जिन्होंने 700-1200 ईस्वी तक इस क्षेत्र को शासित किया। लगभग 1100-1200 ईस्वी के बाद कत्यूरी साम्राज्य के विघटन के बाद कुरमांचल को आठ अलग-अलग रियासतों में विभाजित किया गया था: बैजनाथ-कत्यूर, द्वारहाट, दोती, बारामंडल, अस्कोट, सिरा, सोरा, सुई। लगभग 1581 ईस्वी के आसपास रुद्र चंद के अधीन, पूरे क्षेत्र को फिर से कुमाऊं के रूप में एक साथ लाया गया।

कुमांऊँ में सबसे पहले कत्यूरी राजाओं ने शासन की बागडोर संभाली। राहुल सांकृत्यायन ने इस समय को सन्‌ 850 से 1060 तक का माना है। कत्यूरी शासकों की राजधानी पहले जोशीमठ थी, परन्तु बाद में यह कार्तिकेयपुर हो गई। यद्यपि इस विषय में भी विद्वानों व इतिहासकारों में मतभेद है। कत्यूरी वंश कुनिन्द मूल की एक शाखा का था और इसकी स्थापना वासुदेव कत्यूरी ने की थी। उन्होंने अपना राज्य स्थापित किया और इसे कुरमांचल साम्राज्य कहा, उन्होंने 7 वीं और 11 वीं शताब्दी ईस्वी के बीच कुमाऊं में ‘कत्यूर’ (आधुनिक बैजनाथ) घाटी से अलग-अलग भूमि पर प्रभुत्व स्थापित किया, और बागेश्वर जिले के बैजनाथ में अपनी राजधानी की स्थापना की, जो तब कार्तिकेयपुरा के रूप में जाना जाता था और ‘कत्यूर’ घाटी के केंद्र में स्थित है। सुदूर पश्चिमी नेपाल के कंचनपुर जिले में ब्रह्मदेव मंडी की स्थापना कत्यूरी राजा ब्रह्मा देव ने की थी, अपने चरम पर, कत्यूरी राजाओं ने 12 वीं सदी में कुरमांचल साम्राज्य को पूर्व में सिक्किम से लेकर पश्चिम में काबुल, अफगानिस्तान तक बढ़ा लिया था।

कुमाऊँ निवासी ‘कत्यूर’ को लोक देवता मानकर पूजा अर्चना करते हैं। यह तथ्य प्रमाणित करता है कि कत्यूर शासकों का प्रजा पर बहुत प्रभाव था क्योंकि उन्होंने जनता के हित में मन्दिर, नाले, तालाब व बाजार का निर्माण कराया। पाली पहाड़ के ‘ईड़ा’ के बारह खम्भा में इन राजाओं की यशोगाथा अंकित है। तत्कालीन शिलालेखों तथा ताम्रपत्रों से पता चलता है कि कत्यूर राजा वैभवशाली तथा प्रजावत्सल थे। काली, कुमाऊँ, डोरी, असकोट, बारामंडल, द्वाराहाट, लखनपुर तक इनका शासन फैला हुआ था। 11वीं शताब्दी के बाद इनकी शक्ति घटने लगी। राजा धामदेव व ब्रह्मदेव के बाद कत्यूरी शासन समाप्त होने लगा था। डॉ॰ त्रिलोचन पांडे लिखते हैं- ‘कत्यूर शासकों का उल्लेख मुख्यतः लोक गाथाओं में हुआ है। प्रसिद्ध लोक गाथा मालसाई का सम्बन्ध कत्यूरों से है। कत्यूरी राजाओं की संतान असकोट, डोरी, पाली, पछाऊँ में अब भी विद्यमान है। कुमाऊँ में आज भी यह प्रचलित है कि कत्यूरी वंश के अवसान पर सूर्य छिप गया और रात्रि हो गई, किन्तु चन्द्रवंशी चन्द्रमा के उदय से अंधकार मिट गया। चन्द्रवंशी शासन की स्थापना पर नया प्रकाश फैल गया।‘

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण- 2☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से श्री सुरेश पटवा जी द्वारा हाल ही में की गई उत्तर भारत की यात्रा -संस्मरण  साझा कर रहे हैं।  आज से  प्रतिदिन प्रस्तुत है श्री सुरेश पटवा जी का  देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण )

 ☆ यात्रा-संस्मरण  ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण-2 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

हिमालय विस्तार

सुदूर पूर्व में भारत-नेपाल सीमा पर हिमालय कंचनजंगा मासिफ तक बढ़ता है, जो दुनिया का तीसरा सबसे ऊंचा पर्वत 26,000 फीट शिखर भारत का उच्चतम बिंदु है। कंचनजंगा का पश्चिमी भाग नेपाल में और पूर्वी भाग भारतीय राज्य सिक्किम में है। यह भारत से तिब्बत  की राजधानी ल्हासा मुख्य मार्ग पर स्थित है, जो नाथू ला दर्रे से होकर तिब्बत तक जाता है। सिक्किम के पूर्व में भूटान का प्राचीन बौद्ध साम्राज्य है। भूटान का सबसे ऊँचा पर्वत गंगखर पुएनसम है। यहां का हिमालय घने जंगलों वाली खड़ी घाटियों के साथ तेजी से ऊबड़-खाबड़ होता जा रहा है। यारलांग त्सांगपो याने ब्रह्मपुत्र नदी के महान मोड़ के अंदर तिब्बत में स्थित नामचे बरवा के शिखर पर अपने पूर्व के निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले, हिमालय भारतीय राज्य अरुणाचल प्रदेश के साथ-साथ तिब्बत के माध्यम से थोड़ा उत्तर-पूर्व की ओर मुड़ता रहता है। त्सांगपो के दूसरी ओर पूर्व में कांगरी गारपो पर्वत हैं। ग्याला पेरी सहित त्सांगपो के उत्तर में ऊंचे पहाड़ हिमालय में शामिल होते हैं।

धौलागिरी से पश्चिम की ओर जाने पर, पश्चिमी नेपाल कुछ दूर है और प्रमुख ऊंचे पहाड़ों की कमी है, लेकिन नेपाल की सबसे बड़ी रारा झील का घर है। करनाली नदी तिब्बत से निकलती है लेकिन क्षेत्र के केंद्र से होकर गुजरती है। आगे पश्चिम में, भारत के साथ सीमा शारदा नदी का अनुसरण करती है और चीन में एक व्यापार मार्ग प्रदान करती है, जहां तिब्बती पठार पर गुरला मांधाता की ऊंची चोटी स्थित है। मानसरोवर झील के उस पार पवित्र कैलाश पर्वत है, जो हिमालय की चार मुख्य नदियों के स्रोत के करीब है। हिमालय उत्तराखंड में कुमाऊं हिमालय के रूप में नंदा देवी और कामेट की ऊंची चोटियों के साथ स्थित है।

उत्तराखंड राज्य चार धाम के महत्वपूर्ण तीर्थ स्थलों का भी घर है, जिसमें गंगोत्री, पवित्र नदी गंगा का स्रोत, यमुनोत्री, यमुना नदी का स्रोत और बद्रीनाथ और केदारनाथ के मंदिर हैं। अगला हिमालयी भारतीय राज्य, हिमाचल प्रदेश, अपने हिल स्टेशनों, विशेष रूप से शिमला, ब्रिटिश राज की ग्रीष्मकालीन राजधानी और भारत में तिब्बती समुदाय के केंद्र धर्मशाला के लिए प्रसिद्ध है। यह क्षेत्र पंजाब के हिमालय और सतलुज नदी की शुरुआत है, जो सिंधु की पांच सहायक नदियों- झेलम, रावी, चिनाब, सतलुज, व्यास का जनक है। आगे पश्चिम में हिमालय, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख का निर्माण करत हैं। नन कुन की जुड़वां चोटियाँ हिमालय के इस हिस्से में एकमात्र पर्वत हैं। प्रसिद्ध कश्मीर घाटी और श्रीनगर के शहर और झीलें हैं। अंत में, हिमालय अपने पश्चिमी छोर पर नंगा पर्वत की नाटकीय 26000 फुट ऊँची चोटी से होकर पश्चिमी छोर नंगा पर्वत के पास एक शानदार बिंदु पर समाप्त होता है जहां हिमालय गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र में काराकोरम और हिंदू कुश पर्वतमाला के साथ पसरा है।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण-1☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से श्री सुरेश पटवा जी द्वारा हाल ही में की गई उत्तर भारत की यात्रा -संस्मरण  साझा कर रहे हैं।  आज से  प्रतिदिन प्रस्तुत है श्री सुरेश पटवा जी का  देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण )

 ☆ यात्रा-संस्मरण  ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण-1 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

पर्यटन और पुस्तक पाठन बचपन से रुझान के विषय रहे हैं। किसी क्षेत्र विशेष का भौगोलिक और ऐतिहासिक अध्ययन करके वहाँ घूमना पर्यटन कहलाता है और बिना अध्ययन के कहीं जाना घूमना कहलाता है।  हिमालय और हिंद महासागर स्थित विभिन्न स्थानों का पर्यटन हमेशा से लुभाता रहा है। हिमालय पर्यटन में लद्दाख़, हिमाचल, नेपाल, सिक्किम, भूटान अब तक घूम चुके थे लेकिन उत्तराखंड के बद्रीनाथ और केदारनाथ घूम कर कुमायूँ और गढ़वाल के तराई वाले हिस्से छूटे थे। जिन्हें अब 24-31 जुलाई 2021 के बीच देखने  निकले हैं। पहले वहाँ का भूगोल और इतिहास फिर पर्यटन का अनुभव।

हिमालय

उत्तराखंड के देहरादून, मसूरी, हरिद्वार, ऋषिकेश, नैनीताल भ्रमण के पहले यह आवश्यक है कि हम हिमालय की भौगोलिक स्थिति, विस्तार और मानव बसावट को समझने का प्रयास करें। हिमालय की सीमा उत्तर पश्चिम में काराकोरम और हिंदू कुश पर्वतमाला से लगती है जबकि पूर्व  सीमा अरुणाचल प्रदेश है।  उत्तर की ओर तिब्बती पठार 50-60 किमी  चौड़ी घाटी से सटा है जिसे सिंधु-त्सांगपो सीवन कहा जाता है। दक्षिण की ओर हिमालय का चाप इंडो-गंगा के मैदान से घिरा हुआ है। हिमालय समानांतर पर्वत श्रृंखलाओं से मिलकर बना है: दक्षिण में शिवालिक पहाड़ियाँ; निचली हिमालयी रेंज; महान हिमालय, जो उच्चतम और केंद्रीय श्रेणी है; और उत्तर में तिब्बती हिमालय। इसकी चौड़ाई पश्चिम में पाकिस्तान में 350 किमी से लेकर पूर्व अरुणाचल प्रदेश में 150 किमी के बीच कम ज़्यादा होती रहती है। हिमालय महापर्वत पर भूटान, चीन, भारत, नेपाल और पाकिस्तान देशों के 5.27 करोड़ लोग रहते हैं।  अफगानिस्तान में हिंदू कुश रेंज और म्यांमार में हकाकाबो रज़ी आम तौर पर हिमालय में शामिल नहीं हैं, लेकिन वे दोनों हिमालयी नदी प्रणाली का हिस्सा हैं। काराकोरम को भी आमतौर पर हिमालय से अलग माना जाता है।

श्रेणी का नाम संस्कृत में हिमालय (हिमालय ‘बर्फ का निवास’), हिम (‘बर्फ’) और आ-लय (आलय ‘रिसेप्टकल, आवास’) से निकला है। अब “हिमालय पर्वत” के रूप में जाना जता हैं। एमिली डिकिंसन की कविता और हेनरी डेविड थोरो के निबंधों के रूप में इसे पहले भी हिमालेह के रूप में लिखा गया था। इन पहाड़ों को नेपाली और हिंदी में हिमालय के रूप में जाना जाता है। तिब्बती में ‘द लैंड ऑफ स्नो’, उर्दू में रेंज, बंगाली में हिमालय पर्वतमाला और चीनी में ज़िमालय पर्वत श्रृंखला (चीनी; पिनयिन: ज़िमिलाय शानमी)। रेंज का नाम कभी-कभी पुराने लेखन में हिमवान के रूप में भी दिया जाता है।

नेपाल में धौलागिरी और अन्नपूर्णा की 26000 फीट ऊँची चोटियाँ भौगोलिक रूप से हिमालय को पश्चिमी और पूर्वी खंडों में विभाजित करती हैं। काली गंडकी के सिर पर कोरा ला एवरेस्ट और K2 (पाकिस्तान में काराकोरम रेंज की सबसे ऊंची चोटी) के बीच की लकीर पर सबसे निचला बिंदु है। अन्नपूर्णा के पूर्व में सीमा पार मनासलू की 26000 फीट ऊँची चोटियाँ तिब्बत, शीशपंगमा में हैं। इनके दक्षिण में नेपाल की राजधानी और हिमालय का सबसे बड़ा शहर काठमांडू स्थित है। काठमांडू घाटी के पूर्व में कोसी नदी की घाटी है जो तिब्बत, नेपाल और चीन के बीच अरानिको राजमार्ग/चीन राष्ट्रीय राजमार्ग 318 को मुख्य भूमि प्रदान करती है। इसके अलावा पूर्व में महालंगुर हिमालय है जिसमें दुनिया के चार उच्चतम पर्वत: चो ओयू, एवरेस्ट, ल्होत्से और मकालू हैं। ट्रेकिंग के लिए लोकप्रिय खुम्बू क्षेत्र यहां एवरेस्ट के दक्षिण-पश्चिमी दृष्टिकोण पर पाया जाता है। अरुण नदी दक्षिण की ओर मुड़ने और मकालू के पूर्व की ओर बहने से पहले इन पहाड़ों की उत्तरी ढलानों से बहती है।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #78 – 16 – जिम कार्बेट व सरला देवी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं  – 16 – जिम कार्बेट व सरला देवी ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #78 – 16 – जिम कार्बेट व सरला देवी ☆ 

लन्दन के शैफर्डबुश में  5 अप्रैल 1901 को जन्मी  कैथरीन को जब भारत के स्वाधीनता आन्दोलन और महात्मा गांधी के संघर्ष के विषय में पता चला तो वे अंततः  1932 में भारत आकर गांधीजी की शिष्या बनी तथा आठ साल तक सेवाग्राम में गांधी जी के सानिध्य में रही और गांधीजी के ‘नई तालीम’ के काम में अपना सहयोग दिया । गांधीजी ने मीरा बहन के बाद अपनी इस दूसरी  विदेशी शिष्या को नया  नाम दिया  सरला देवी । बाद में  गांधीजी के निर्देश पर सरला देवी ने 1940 में कुमांऊ अंचल पहुंचकर स्वाधीनता संग्राम पर  काफी काम किया और इस दौरान वे दो बार जेल भी गई। उन्होंने  कौसानी में लक्ष्मी आश्रम की स्थापना ठीक उसी स्थान के निकट की जहां बैठकर गांधी जी ने गीता पर अपनी पुस्तक ‘अनासक्ति योग’ लिखी थी।  अपने आश्रम के माध्यम से उन्होंने बालिका शिक्षा और महिला सशक्तिकरण का कार्य किया । पर्वतीय अंचल के गांधी विचारों से जुड़े कार्यकर्ताओं को संगठित कर उन्होंने उत्तराखंड सर्वोदय मंडल का गठन किया, वनाधिकार व पर्यावरण केन्द्रित ‘चिपको आन्दोलन’ के प्रमुख कार्यकर्ता सुन्दरलाल बहुगुणा के साथ वे जुडी रही और शराब विरोधी आन्दोलन को सशक्त करती रही । हिन्दी में उन्होंने भारत आकर प्रवीणता हासिल की और दस पुस्तके लिखी । उनके जीवन का सबसे दुखदाई क्षण तब आया जब 1967  से 1977 की अवधि में विदेशी नागरिक होने के कारण उन्हें इस सीमान्त अंचल को छोड़ना पडा । वे पुन: यहाँ वापस आई और  1982 बेरीनाग के निकट हिमदर्शन कुटीर  में उन्होंने अंतिम सांस ली । यह स्थल यद्दपि पाताल भुवनेश्वर के नज़दीक था तथापि दिन ढलने व समयाभाव के कारण में वहाँ न जा सका किन्तु उनके कौसानी आश्रम अवश्य गया और एक बार उनकी शिष्या राधा बहन से भी भोपाल में मिला ।

अपने सहयोगियों के बीच बहनजी के नाम से मशहूर  सरला देवी जब  1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में गिरफ्तार हुई और बाद को रिहा होने के बाद वे गांधी जी से मिलने पूना गई, उसी वक्त के दो संस्मरण उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘ व्यावहारिक वेदांत’ में लिखे हैं ।

‘बापू अब सेवाग्राम वापस जा रहे थे, तो तय हुआ कि मैं पहले अहमदाबाद में एक विकासगृह देखने जाऊं और फिर उनके साथ बम्बई से वर्धा ।

मैं जब विक्टोरिया टर्मिनल पहुँची तो कलकत्ता मेल पहले से प्लेटफार्म पर खडी थी । मैंने बतलाया कि मुझे बापू के साथ जाना है । लोगों ने मुझे वैसे ही प्लेटफार्म में चले जाने दिया । कुछ लोग एक छोटे से आरक्षित डिब्बे में सामान संभाल रहे थे। साधारण डिब्बे से इस डिब्बे में ज्यादा लोग थे, सफ़र में शांति नहीं मिली। हर स्टेशन पर जबरदस्त भीड़ बापू के दर्शन के लिए इक्कठी मिलती थी। हरिजन कोष के लिए बापू अपना हाथ फैलाते थे। लोग जो कुछ दे सकते थे, देते थे , एक पाई से लेकर बड़ी-बड़ी रकमें और कीमती जेवर तक। स्टेशन से गाडी छूटने पर एक-एक पाई की गिनती की जाते थी और हिसाब लिखा जाता था।

सेवाग्राम में जब मैं बापू से विदा लेने गई तो मैंने उनके सामने बा और बापू की एक फोटो रखी । इरादा उस पर उनके हस्ताक्षर लेने का था । बापू बनिया तो थे ही और वे हर एक चीज का नैतिक ही नहीं भौतिक दाम भी जानते थे। वे अपने दस्तखत की कीमत भी जानते थे और इसलिए अपना हस्ताक्षर देने के लिए हरिजन कोष के लिए कम से कम पांच रुपये मांगते थे । पांच रुपये से कम तो वे स्वीकार ही नहीं करते थे । उन्होंने आखों में शरारत भरकर मुझे देखा । मैंने कहा,” क्यों ? क्या आप मुझे भी लूटेंगे ?”

उन्होंने गंभीरता से उत्तर दिया, “ नहीं मैं तुझे नहीं लूट सकता । तेरे पैसे मेरे हैं, इसलिए मैं तुझसे पैसे नहीं ले सकता ।”

मैंने कहा “बहुत अच्छी बात है । तो आप इस पर दस्तखत करेंगे न ?”

“क्या करूँ , मैं बगैर पैसों के दस्तखत भी नहीं कर सकता ।” बापू ने कहा और फिर उन्होंने सोच-समझकर पूंछा “ तुम मेरे दस्तखत के लिए इतनी उत्सुक क्यों हो ?”

मैंने कहा “ यदि मेरी लडकिया लापरवाही करेंगी, पढ़ाई या काम की ओर ठीक से ध्यान नहीं देंगी तो मैं उन्हें आपकी फोटो दिखाकर कहूंगी कि यदि तुम बापू की तरह महान बनना चाहती हो तो तुम्हें आपकी तरह ठीक ढंग से काम करना चाहिए।”

बापू ने जबाब दिया “ मैंने लिखना-पढ़ना सीखा, परीक्षा पास करके बैरिस्टर बना, इन सबमे कोई विशेषता नहीं है। इससे तुम्हारी लडकियाँ मुझसे कुछ नहीं सीख पाएंगी ।  यदि ये मुझसे कुछ सीख सकती हैं तो यह सीख सकती हैं कि जब मैं छोटा था तब मैंने खूब गलतियां की लेकिन जब मैंने अपनी गलती समझी तो मैंने पूरे दिल से उन्हें स्वीकार किया । हम सब लोग गलतियां करते हैं, लेकिन जब हम उनको स्वीकार करते हैं तो वे धुल जाती हैं , और हम फिर दुबारा  वही गलती नहीं करते ।”

उन्होंने मुझे याद दिलाई कि बचपन में वे खराब संगत में पड़ गए थे, उन्होंने सिगरेट पीना और गोश्त खाना शुरू कर दिया था और फिर अपना कर्ज चुकाने के लिए रूपए और सोने की चोरी की थी । जब उन्होंने अपनी  गलती समझी तब उसे पूरी तरह खोल कर अपने पिताजी को लिखा । पिताजी पर इसका अच्छा असर हुआ और उन्होंने मोहन को माफ़ कर दिया । ‘

भारत प्रेमी इन दोनों महान हस्तियों, जिम कार्बेट व सरला देवी  को मेरा नमन।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक-११ – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मीप्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी  क्रमांक- ११ – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

‘भीषण सुंदर’ सुंदरी आणि चंद्रमुखी??

दुसऱ्या दिवशी सकाळी कॅम्पच्या शेजारी असलेलं म्युझियम पाहिलं. त्यात वाघ, इतर वन्य प्राणी, मगरी, पक्षी, फुलपाखरं, वेगवेगळ्या जातीची तिवरं, त्यांचे उपयोग असं दाखवलं होतं. तिथून खाली दिसणार्‍या मोठ्या तळ्यात मगर पार्क केलं होतं .सुंदरबनच्या बेटसमूहांचा मोठा कॉ॑क्रीटमधला नकाशा फुलापानांनी सजलेल्या बागेत होता. आज सुंदरबनातून परतीचा प्रवास होता. येताना काळोखात न दिसलेली अनेक राहती हिरवी बेटं, त्यावरील कौलारु घरं, शाळा,नारळी- केळीच्या बागा आणि भातशेतीच्या कामात गढलेली माणसं दिसत होती.  खाडीचं खारं पाणी आत येऊ नये म्हणून प्रत्येक गावाला उंच बंधारे बांधले होते. स्वातंत्र्यपूर्व काळात हॅमिल्टन नावाच्या गोऱ्या साहेबानं गोसाबा या बेटावर स्थानिकांनी तिथे रहावं म्हणून शेतीवाडी, शिक्षण, हॉस्पिटल, रस्ते या कामात मदत केली. तो स्वतःही तिथे रहात होता. या बेटावरील त्याचा जुना, पडका बंगलाही पाहायला मिळाला. रवींद्रनाथ ठाकूर यांनी दोन दिवस वास्तव्य केलेली, छान ठेवलेली एक बंगलीही होती. गोसाबा बेटावरचे हे गाव चांगलं मोठं, नांदतं होतं. तिथलं पॉवर हाउस म्हणजे जंगली लाकडाचे मोठे ठोकळे वापरून, मोठ्या भट्टीत बॉयलरवर पाणी उकळवतात व त्यापासून औष्णिक वीज तयार केली जाते. त्यातून त्या गावाची विजेची गरज भागते.

जिम कार्बेट, कान्हा, काझीरंगा, रणथंबोर, थेकडी, सुंदरबन अशा अनेक अरण्यांना  भेटी देऊन झाल्या पण वाघाची व आमची दृष्टभेट नाही. आम्हाला फक्त हरीणे, पक्षी, हत्ती, रानम्हशी वगैरेंचं दर्शन झालं. सुंदरबन कॅ॑पमध्ये रात्री आम्हाला एका मोठ्या हॉलमध्ये वाघावरची फिल्म दाखवली. तिथे अजून २७६ वाघ आहेत. परंपरागत मासेमारीसाठी, मध व औषधी वनस्पती गोळा करण्यासाठी स्थानिक लोक जीव धोक्यात घालून या वनात खोलवर जातात. लांबट होडीतून सात-आठ जण एकत्र जातात. त्यांच्या चेहऱ्याच्या मागच्या बाजूला माणसाचा मुखवटा वाघाची फसगत करण्यासाठी बांधलेला असतो. अजूनही दरवर्षी चाळीस- पन्नास माणसं वाघाचे भक्ष होतात. कधी सरपण गोळा करायला गेलेली मुलं, म्हातारी माणसं तर कधी मासेमारीसाठी गेलेले कोळी. भक्षावर झेपावणारं ते सळसळतं, सोनेरी ‘भीषण सौंदर्य’ पडद्यावर पाहतानासुद्धा थरथरायला होत होतं! चित्रफितीच्या शेवटी एका लांबट, मजबुत होडीतून सात- आठ जण दहा- पंधरा दिवसांनी मासेमारी करून, जंगल संपत्ती घेऊन घरी परत येत आहेत असं दाखवलं होतं. होडीच्या स्वागतासाठी किनार्‍यावर त्यांचे सारे कुटुंबीय हजर होते. घरधनी सुखरूप परत आल्याचं पाहून एका सावळ्या, गोल चेहऱ्याच्या, टपोऱ्या डोळ्यांच्या, गोल मोठं कुंकू आणि भांगात सिंदूर भरलेल्या ‘चंद्रमुखी’च्या चेहराभर हसू पसरलं. इतकं आंतरिक समाधानाचं, निर्व्याज, मनापासूनचं हसू खूप खूप दिसांनी बघायला मिळालं.

सुंदरबन समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #77 – 15 – जिम उर्फ़ जेम्स एडवर्ड कार्बेट ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं  – 15 – जिम उर्फ़ जेम्स एडवर्ड कार्बेट”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #77 – 15 – जिम उर्फ़ जेम्स एडवर्ड कार्बेट☆ 

भारत लम्बे समय तक ब्रिटिश राज के आधीन रहा और जहाँ एक ओर उसने  जनरल डायर सरीखे खूंखार मानवद्रोहियों के अत्याचार सहे तो ऐसे अनेक अंग्रेज भी इस धरा पर आये जिन्होंने यहाँ के निवासियों का दिल अपनी सेवा भावना व न्यायप्रियता से जीता । उस वक्त संयुक्त प्रांत या आज के उत्तरप्रदेश के अंग रहे उत्तराखंड को, ऐसी ही दो महान हस्तियों का सानिध्य मिला, एक बन्दूक के शौक़ीन जिम कार्बेट और दूसरी अहिंसा की पुजारिन लन्दन में जन्मी  कैथरीन उर्फ़ सरला देवी ।

जिम यानी जेम्स एडवर्ड कार्बेट 1875 में कालाढुँगी के पोस्टमास्टर की ग्यारहवीं संतान के रूप में जन्मे और जब वे केवल चार वर्ष के नन्हे बालक थे तो उनके पिता की मृत्यु हो गई । कुमाऊं के अपेक्षाकृत मैदानी इलाके में बसे कालाढुँगी के खूबसरत जंगल जानवरों और परिंदों से भरे थे और यहाँ के बृक्ष, हिंसक जानवर,कोसी के अज़गर, चारा चरते हिरण और आसमान में उड़ते परिंदे नन्हे जिम के पहले साथी बने । आठ वर्ष की उम्र में, गुलेल और तीर कमान से जंगली मुर्गियों और मोरों का शिकार करने वाला यह नन्हा शिकारी, दुनाली भरतल बंदूक का मालिक बना । ऐसी बंदूक जिसकी  दाईं नाल फटी हुई थी और पीतल के तारों से बन्दूक के कुंदे और नालों को आपस में जोड़कर बांधा गया था । पर इससे क्या ? नन्हे शिकारी के लिए यह थी तो गर्व की बात । और यह गौरव पूर्ण क्षण जिम ने सबसे पहले अपने चाचा की उम्र के  कुंवर सिंह के साथ साझा किये जिसने उसे शिकार खेलने की बारीकियां समझाई और साथ ही पेड़ों पर चढ़ना भी सिखाया । बाद के दिनों में कुंवर सिंह अफीमची हो गया और बहुत बीमार पड़ा तब जिम कार्बेट ने उसकी बड़ी सेवा की और मौत के मुंह से बाहर निकाला ।   

जिम, जिसे कुमाऊं के पहाड़ी लोग आदर से कापेट साहब कहते थे , ने अठारह वर्ष की उम्र में अपनी स्कूली शिक्षा नैनीताल से पूरी की और फिर रेलवे में नौकरी कर ली । इस सिलसिले में उन्हें अपने प्रिय जंगलों से हज़ार किलोमीटर दूर बिहार के मोकामा घाट में जाना पडा । यहाँ रहते हुए उन्होंने अपने कामगारों के बच्चों के लिए स्कूल खोला और इस काम में उनके साथी बने स्टेशन मास्टर रामसरन, जो खुद तो ज्यादा पढ़े लिखे न थे पर शिक्षा का महत्व समझते  थे । बाद में सरकार ने स्कूल को अधिकृत कर मिडिल स्कूल  बना दिया और जिम के साथी रामसरन को ‘राय साहब’ का खिताब मिला । खेलकूद के शौक़ीन जिम ने मैदान साफ़ करवाकर फुटबाल और हॉकी के खेल शुरू किए और इसी दौरान वे प्रथम विश्वयुद्ध के समय वे सेना में भर्ती हो गये । मोकामाघाट में ही उन्होंने माल लदाई का ठेका लिया ।

सेना की नौकरी से त्यागपत्र देकर जिम 1922 में कालाढुँगी आकर बस गए । यहाँ उन्होंने खेती की जमीनें खरीदी, जंगली जानवरों से खेतों की रक्षा के लिए लम्बी बाउंड्री वाल बनवाई, सत्रह कृषक  परिवारों को न केवल बसाया वरन  उनके लिए पक्के मकान बनवाये, अपने लिए एक शानदार बँगला बनवाया । जिम का यह बँगला कोई दो हेक्टेयर जमीन के एक छोटे से हिस्से में बना था । और इसमें वे अपनी बहन मैगी और शिकारी कुत्ते रोबिन के साथ सर्दियों के मौसम में रहते थे । उनकी गर्मिया व्यतीत होती थी नैनीताल के गुर्नी हाउस में । 1947 में भारत आज़ाद हुआ और जिम ने भरे मन से अपने इस प्यारे देश, जहाँ उसका जन्म हुआ और नाम व प्रसिद्धि मिली, को अलविदा कह दिया और वे अपनी बहन के साथ केन्या में जा बसे, जहाँ उनकी मृत्यु 1955 में हो गई । जब वे भारत छोड़ कर जा रहे थे तब   कालाढुँगी  का बँगला चिरंजीलाल को बेच दिया और खेती की जमीनें कृषकों के नाम कर दी । वन विभाग ने इस बंगले को 1965 में खरीदकर, जिम कार्बेट के द्वारा उपयोग में लाई गई अनेक वस्तुएं, बर्तन, मेज-कुर्सी, शिकार व अन्य गतिविधियों को दर्शाते उनके चित्रों व छायाचित्रों को संग्रहित कर संग्रहालय का स्वरुप दिया है । ऐसा कर उत्तराखंड के वन विभाग ने इस महान शिकारी, अद्भुत लेखक और एक शानदार इंसान, जिसे अपने लोगों व सहकर्मियों से और इस देश के वाशिंदों से बेपनाह प्यार  था, को सच्ची श्रद्धांजलि दी है ।

जिम कार्बेट जब केन्या में बस गए तो उन्हें भारत में बिताए अपने पचहत्तर से कुछ कम वर्षों की बहुत याद आती और अपनी इन्ही यादों को, शिकार की कहानियों को, भारत के जंगल की वनस्पतियों व जानवरों को, जंगल के प्राकृतिक सौन्दर्य और सबसे बढ़कर नैनीताल की हरी-भरी  वादियों से लेकर कालाडुंगी के मैदानों और फिर सूदूर बिहार के मोकामाघाट के भोले-भाले ग्रामीणों के साथ बिताए दिनों का शानदार वर्णन उन्होंने कोई आधा दर्जन किताबों के माध्यम से किया । उनकी चर्चित कृतियों में कुमाऊं के नरभक्षी, जीती जागती कहानी जंगल की और मेरा हिन्दुस्तान बहुत लोकप्रिय है । कुमाऊं के नरभक्षी की कहानियां तो महाविद्यालय के अंग्रेजी  पाठ्यक्रम में लम्बे समय तक शामिल रही ।

जिम कार्बेट का जंगल ज्ञान अद्भुत था । उन्हें पत्ता खडकने, वृक्षों को देखकर, जानवरों के पदचिन्ह देखकर जंगल में क्या घटने वाला है इसका अंदाजा हो जाता था । वे शेर की आवाज निकालने में माहिर थे और अक्सर नरभक्षी शेर को मादा शेर की आवाज निकालकर अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे । कुमाऊं के प्रशासन ने जंगलों में पनाह लिए दुर्दांत दस्यु सुल्ताना को पकड़ने के लिए जिम कार्बेट की मदद ली थी और उन्होंने अनेक बार पुलिस टीम को जंगल में भटकने से बचाया था ।  उनका निशाना इतना गजब का था कि शायद ही कोई गोली बेकार गई हो । अपनी बहादुरी और जंगल ज्ञान के कारण उन्होंने कोई दस नरभक्षी शेरों का शिकार हिमालय की तराई में बसे जंगलों में किया । वे 1931में गिर्जिया गांव के पास मोहन नरभक्षी शेर का शिकार करने नैनीताल जिला प्रशासन द्वारा भेजे गए। शेर के संबंध में जानकारियां एकत्रित करते वक्त ग्रामीणों ने  बताया कि जब कभी रात में शेर गांव में आता है तो रूक-रूककर हल्के कराहने की आवाज सुनाई देती है । जिम ने उनके द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर अंदाज लगाया कि शेर घायल हैं और बंदूक की गोली या साही के नुकीले कांटे ने उसके पैर में जख्म बना दिए हैं । ग्रामीण जिम की बात से असहमत थे क्योंकि उन्होंने दिन में इसी शेर को पूर्णतः स्वस्थ देखा है। लेकिन जब जिम ने इस नरभक्षी का शिकार किया तो ग्रामीणों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा क्योंकि उसके अगले बाएं पैर से साही के चार से पांच इंच तक लंबे तीस कांटे निकले । इन्हीं घावों ने इस शेर को नरभक्षी बना दिया और चलते वक्त उसके कराहने की आवाज ग्रामीणों को सुनाई देती थी।

हम सब, कभी न कभी जंगल , वन अभ्यारण्य या वाघ संरक्षण केन्द्रों का , आनन्द लेने  जिप्सी सफारी से गए होंगे और अगर  हमने जंगल में बाघ, तेंदुए  या अन्य किसी बड़ी बिल्ली को नहीं देखा होगा तो चिड़ियाघरों में तो वनराज के दर्शन अवश्य करे होंगे । इस दौरान आपने कभी गौर किया कि जंगल में जब बाघ विचरता होगा तो कैसा दृश्य निर्मित होता होगा ? इसका शानदार चित्रण जिम कॉर्बेट ने अपनी पुस्तक ‘Man Eaters of Kumaon’ के एक अध्याय ‘The Bachelor of Powalgarh’ में किया है । कुमायूं के जंगलों में विचरण करने वाला यह 10 फीट 7 इंच लंबा मानवभक्षी बाघ अंतत: जिम की बन्दूक  से निकली गोली का शिकार बना पर शिकार होने से पहले 1920 से 1930 तक इसकी उपस्थिति मात्र से पहाड़ के बहादुर निवासी भी अपने-अपने घरों में दुबक जाते थे । आप भी जिम की इस कहानी के छोटे से हिस्से का मजा लीजिये ।   

Sitting on a tree stump and smoking, I had been looking at this scene for sometimes when the hind nearest to me raised her head, turned in my direction and called ; and a movement later the Bachelor stepped Into the open, from the thick bushes below me.  For a long minute he stood with head held high surveying the scene, and then with slow unhurled steps started to cross the glade. In his rich winter coat, which the newly risen sun was lighting up, he was a magnificent sight as, with head turning now to the right and now to the left, he walked down the wide lane the deer had made for him. At the stream he lay down and quenched his thirst, then sprang across and, as he entered the dense tree jungle beyond, called three times ।n acknowledgement of the homage the jungle folk had paid him, for from the time he had entered  the glade every chital had called, every jungle fowl had cackled, and every one of a troupe of monkeys on the trees had chattered.

जिम कार्बेट को जंगल के जानवरों की न्यायप्रियता पर इंसानों से ज्यादा भरोसा था । एक बार जंगल में उन्होंने इसका अद्भुत नज़ारा देखा । जंगल के खुले मैदान में एक शेरनी महीने भर के बकरी के बच्चे का पीछा करते हुए जिम को दिखी । मेमना शेरनी को आते हुए देखकर मिमियाने लगा और शेरनी ने भी दबे पाँव उसका पीछा करना बंद किया और सीधे उसकी तरफ बढी । जब शेरनी मेमने से कुछ ही गज दूर थी तो बच्चा शेरनी से मिलने उसकी तरफ बढ़ा । शेरनी के बिलकुल नज़दीक पहुंचकर उसने अपना मुख आगे बढ़ाकर शेरनी को सूंघा । दिल में होने वाली  दो-चार  धडकनों तक जंगल की रानी और मेमना नाक से नाक मिलाये खड़े रहे । फिर अचानक शेरनी पलटी और जिस रास्ते आई थी उसी रास्ते वापस चली गई । जिम ने इस घटना को द्वितीय विश्वयुद्ध मे ख़त्म होने पर ब्रिटिश राज के बड़े नेताओं द्वारा हिटलर और दुश्मन देशों के नेताओं को ‘जंगल का क़ानून ‘ लागू करने संबंधी बयान पर आपत्ति दर्ज करते हुए अपने संस्मरणों में लिखा है कि ‘यदि ईश्वर ने वही क़ानून इंसानों के लिए बनाया होता जो उसने जंगली जानवरों के लिए बनाया है तो कोई जंग होती ही नहीं क्योंकि तब इंसानों में जो ताकतवर होते उनके दिल में अपने से कमजोर लोगों के लिए वही जज्बा होता जोकि जंगल के क़ानून में हम अभी देख चुके हैं ।’

जिम की कहानियों में उन ग्रामीणों का भी वर्णन है जो बड़ी मुफलिसी और गरीबी में अपने दिन गुजार रहे थे । उनकी इन कहानियों के पुनवा, मोती, कुंती, पुनवा की माँ जैसे अनेक नायक हैं जो ईमान की खातिर रुपये पैसे की परवाह नहीं करते थे । उनकी ऐसी ही कहानी का नायक उच्च जाति का ग्रामीण पहाड़ी है जो  जंगल में दलित परिवार के दो  बिछुड़े बच्चों को खोजकर लाता है और जब उसे घोषित ईनाम के पचास रुपये गाँव के लोग देने की बात करते हैं तो वह यह रकम लेने से ही इनकार कर देता है, क्योंकि उसकी निगाह में पुण्य का कोई मोल नहीं है । जिम की इन काहनियों से हमें तत्कालीन भारत की गरीबी, बाल विवाह, जात-पात, ऊँच नीच के भेदभाव का वर्णन मिलता है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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